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बिग बॉस 14: घर से बाहर आते ही बदले जैस्मिन के तेवर , राखी सावंत को लेकर कह दी ये बात

बिग बॉस के घर से बाहर आने के बाद जैस्मिन भसीन ने अपे दर्शकों से खुलकर बात की हैं. हाल ही में अदाकारा  ने ऑस्क जैस्मिन सेशन भी रखा था. जिसमें अदाकारा ने अपने फैंस के कई सवालों का जवाब भी दिया था.

एक समय पर जैस्मिन भसीन को बिग बॉस के सबसे स्ट्रॉग खिलाड़ी माना जा रहा था लेकिन राखी सावंत के साथ हुए झगड़े ने जैस्मिन भसीन के लाइफ को बदलकर रख दिया. राखी सावंत के साथ हुए झगड़े में नाक पर चोट तक आ गई थी.

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जिसके बाद एक्ट्रेस को कई दवाओं को सहारा लेना पड़ा था ठीक होने के लिए. जैस्मिन की यह गलती उन पर सबसे ज्यादा भारी पड़ी. जिसके लिए खुद शो के होस्ट सलमान खान ने अदाकारा की क्लास लगाई.

जैस्मिन और राखी का झगड़ा इंटरनेट पर काफी चर्चा में भी बना हुआ था. अब  शो से बाहर आने के बाद जैस्मि भसीन ने अपनी मन की बात फैंस के सामने रखी है.

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जैस्मिन भसीन ने कहा कि यह शायद राखी सावंत का प्लान भी था कि उन्होंने मेरे साथ ऐसा  किया है. आगे जैस्मिन भसीन ने कहा कि मेरा इरादा राखी को चोट पहुंचाना नहीं था, उसने कभी हमें अपनी सर्जरी के बारे में नहीं बताया था. जिस वजह से मुझे इन सभी हालातों का सामना करना पड़ा.

जैस्मिन भसीन ने कहा कि एक कलाकार की तौर पर मैं यह कहा चाहूंगी कि अगर मैं एक कलाकार होती और मुझे चोट लगती तो मैं इसे हल्क में नहीं लेती.

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खैर अब फैंस को इंतजार है कि आगे क्या होगा देखना है कि कौन होगा बिग बॉस शो का विनर किसकी होगी जीत .

आईना -भाग 1 : गरिमा की मां उसकी गृहस्थी क्यों बिखरने में लगी हुई थी

सामान से लदीफंदी घर पहुंची, तो मैं ने बरामदे में मम्मी को इंतजार करते पाया.‘‘अरे मम्मी, आप कब आईं? न फोन, न कोई खबर,’’ मम्मी के पैर छूते हुए मैं ने उन से पूछा.

‘‘अचानक ही प्रोग्राम बन गया,’’ कहते हुए मम्मी ने मु झे गले लगा लिया. रामू, रामू, जरा चाय बनाना,’’ मैं ने नौकर को आवाज दे कर चाय बनाने को कहा.

‘‘तुम्हारे नौकर तो बहुत ट्रैंड हैं. मेरे आते ही चायपानी, सब बड़ी स्मार्टली करा दिया,’’ मम्मी बोलीं.

बातबात में इंग्लिश के शब्दों का इस्तेमाल करना मम्मी के व्यक्तित्व की खासीयत है. डाई किए कटे बाल, कानों में नगों वाले हीरे के टौप्स, गले में सोने की मोटी चेन में चमकता पैंडेंट, अच्छे मेकअप से संवरी उन की सुगठित काया सामने वाले पर अच्छा असर डालती है.

मैं ने प्रशंसा से मम्मी की ओर देखा, बादामी रंग पर हलके सतरंगी फूलों वाली साड़ी उन के गोरे तन पर फब रही थी. ड्राइवर सामान मेज पर रख कर चला गया था.

‘‘मम्मी, मैं बाजार से यह सामान लाई हूं, आप देखिए, मैं जरा हाथमुंह धो कर आती हूं,’’ कहती हुई मैं बाथरूम में चली गई.

‘‘हांहां, तुम फ्रैश हो कर आ जाओ,’’ मम्मी ने कहा.

मैं हाथमुंह धो कर आई तो मैं ने देखा, मेरे आने तक रामू मम्मी के सामने चाय के साथसाथ पकौडि़यों की प्लेट भी लगा चुका था.

मु झे देखते ही मम्मी बोलीं, ‘‘गरिमा, साडि़यां तो बहुत सुंदर हैं, लेकिन ये इतने सारे छोटेछोटे बाबा सूट किस के लिए लाई हो?’’ मम्मी पूछ तो मु झ से रही थीं पर उन की नजर हाथ में पकड़ी सोने की पतली चेन का निरीक्षण कर रही थी.

इतने सारे कहां, मम्मी? सिर्फ 5 सैट कपड़े हैं. भैरवी को बेटा हुआ है न, उसी के लिए लाई हूं,’’ मैं ने बताया.

‘‘अरे हां, याद आया. मैसेज तो आया था. मैं ने भी बधाई का लैटर भेज दिया था,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘अच्छा किया, मम्मी, भैरवी को अच्छा लगा होगा. मैं भैरवी के घर जाने की ही तैयारी कर रही हूं. परसों इतवार है.

‘‘मैं ने 2 दिन की छुट्टी ले ली है. आज रात में ललितपुर से आदर्श यहां आ जाएंगे, कल सुबह यहां से निकलने का प्रोग्राम है. अब…’’ उत्साह से मैं बोलती ही जा रही थी.

‘‘चलो अच्छा है, आदर्श से भी मुलाकात हो जाएगी. मु झे भी कल मौर्निंग में ही वापसी निकलना है,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘अरे, ऐसी क्या जल्दी है. हम लोग अपना प्रोग्राम थोड़ा बदल लेंगे. भैरवी के घर पहुंचने में सिर्फ 4 घंटे ही तो लगते हैं. और फिर, अपनी गाड़ी से जाना है, जब चाहें निकल लेंगे. इतने दिनों बाद तो आप आई हैं,’’ पकौडि़यां खाते हुए मैं बोली.

‘‘नहीं भई, मेरा प्रोग्राम तो एकदम डैफिनेट है. ठीक 7 बजे हम लोग यहां से निकल जाएंगे. ठंडेठंडे में कानपुर पहुंच जाएंगे,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘हम लोग? यानी आप के साथ और भी कोई आया है?’’ मैं ने चौंकते हुए पूछा.

‘‘हमारी महिला समिति को मेरठ में एक ‘इन्क्वायरी’ करनी थी. तुम यहां पोस्टेड हो और मेरी सहेली सुलभा देशमुख की बेटी भी यहीं  झांसी में मैरिड है. 2 मैंबर्स की टीम आनी थी, अच्छा चांस था. बस, हम दोनों तैयार हो गए. रास्ते में इन्क्वायरी का काम निबटाया. आज का दिन और एक रात अपनीअपनी बेटियों के साथ बिताएंगे और कल ईवनिग में 5 बजे समिति की मीटिंग में अपनी जांच रिपोर्ट दे देंगे. अब समिति की गाड़ी तो आनी ही थी, सो बिना खर्चे के बच्चों से मिलना हो गया,’’ कहती हुई मम्मी खिलखिला कर हंस पड़ीं.

चाय का स्वाद अचानक मेरे मुंह में कसैला हो गया. जाने क्यों, मम्मी का यह व्यावहारिक रूप मु झे कभी रास नहीं आया था. मैं मम्मी से मतलब निकालने की कला नहीं सीख सकी थी. केवल यही क्यों, मैं तो मम्मी से कुछ भी नहीं पा सकी थी. गोरी रंगत और तीखे नैननक्श के साथ लंबी कदकाठी और गठीले शरीर की स्वामिनी की कोख से मैं सांवली रंगत, साधारण नाकनक्श और सामान्य कदकाठी की संतान पैदा हुई थी.

मैं ने अपने पिता की छवि पाई थी. केवल रंगरूप में ही नहीं, स्वभाव भी मु झे पिता का ही मिला था. बचपन से ही मैं डरपोक, शांतिप्रिय, एकांतप्रेमी और पढ़ाकू थी. एकांतप्रेमी और पढ़ाकू होना शायद मेरी मजबूरी थी. गुजरा हुआ अतीत मु झ पर हावी होता जा रहा था.

 

रूपगर्विता मम्मी का मन, साधारण व्यक्तित्व वाले पति को कभी स्वीकार नहीं सका था. पति को छोड़ पाना मम्मी के वश में भी नहीं था, आर्थिक मजबूरियां थीं. परंतु मु झ जैसी कुरूप संतान उन पर बो झ थी. लेकिन मजबूरी यहां भी दामन थामे खड़ी थी. अपनी ही संतान को कहां फेंकें. सामाजिक बंधन थे. लिहाजा, उन्हें मेरी परवरिश का अनचाहा बो झ उठाना पड़ा. इस जिम्मेदारी को अंजाम भी दिया परंतु वात्सल्य की मिठास से मेरी  झोली खाली ही रह गई. उसी शाख पर खिले दूसरे 2 सुंदर फूल मम्मी की प्रतिच्छाया थे. मम्मी का सारा प्यार उन्हीं पर निछावर हो गया.

मेरे प्रशासनिक सेवा में चयन की खुशी मम्मी की आंखों में चमकी थी. घर की उपेक्षित लड़की अचानक मम्मी की नजर में महत्त्वपूर्ण हो गई थी. मु झे मम्मी में यह बदलाव अच्छा लगा था, किंतु यहां भी छोटी बेटी के प्रति मम्मी का प्रेम उन पर हावी हो गया था और उन्हें यह अफसोस होने लगा था कि यदि ग्लोरी की शादी अब होती तो उसे भी प्रशासनिक अधिकारी पति मिल जाता.

बचपन में मम्मी की सहेलियां जब भी घर आतीं, मम्मी मु झे हमेशा रसोई में घुसा देतीं. नाश्तापानी बनाने की सारी मेहनत मैं करती किंतु ट्रे में सजा कर ले जाने का काम हमेशा मेरी अनुजा ग्लोरी का ही होता. उम्र के साथसाथ मैं ने इस सत्य को स्वीकार कर लिया और खुद ही लोगों के सामने जाने से कतराने लगी. धीरेधीरे मैं एकांतप्रिय होती चली गई. अपने अकेलेपन को भरने के लिए मैं ज्यादा से ज्यादा पढ़ने लगी जिस से मैं पूरी तरह पढ़ाकू ही बन गई. ग्लोरी, मेरी अनुजा, का यह नाम भी मम्मी का रखा हुआ था जो मम्मी का इंग्लिशप्रेम दर्शाता है. अपनी इसी खिचड़ी भाषा, शिष्ट शृंगार और सामाजिक संगठनों से जुड़ कर मम्मी खुद को उच्च वर्ग का दर्शाती हैं. ग्लोरी मेरी सगी बहन है, किंतु वह मम्मी की कार्बन कौपी. अधिकार से अपनी बात मनवाना और हर जगह छा जाना उस की फितरत में है.

‘‘गरिमा, गरिमा,’’ मम्मी की आवाज से मैं वापस वर्तमान में आ गई.

‘‘अरे, क्या सोचने लगी थी? बैठेबैठे सपनों में खो जाने की तेरी आदत अभी गई नहीं. इतनी देर से पूछ रही हूं, कुछ बोलती क्यों नहीं?’’ मम्मी ने कहा.

‘‘जी, क्या पूछ रही थीं, मम्मी?’’ मैं ने सवाल के जवाब में खुद ही सवाल

कर डाला.

‘‘यह गुलाबी साड़ी कितने रुपए की है? मैं ग्लोरी के घर जाने वाली हूं, सोच रही हूं यह गुलाबी साड़ी ग्लोरी पर अच्छी लगेगी, उसे दे दूं,’’ वाणी में मिठास घोलते हुए मम्मी बोलीं.

‘‘ग्लोरी पर तो सारे रंग अच्छे लगते हैं. ये साडि़यां तो मैं भैरवी के लिए लाई हूं. अपने लिए लाई होती तो मैं जरूर दे देती,’’ मैं ने कहा.

गली नंबर 10: उसने लड़की देखेने के बाद खुद को कितना बदला

चेहरे पर ओढ़ी खामोशी, आंखों का आकर्षण बरबस मुझे उस की ओर खींच ले गया था. उस से मिलने की चाह में एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. लेकिन यह कैसी बेबसी थी कि उस की आंखों का दर्द देख कर भी मैं सिर्फ महसूस करता रह गया, बेबस सा.

उस के व्यक्तित्व ने मुझे ऐसा प्रभावित कर रखा था कि घंटों तो क्या, अगर पूरे दिन भी इंतजार करना पड़ता तो भी मैं कुछ बुरा महसूस नहीं करता. एक अजीब रूमानी आकर्षण ने मुझे अपने पाश में ऐसा जकड़ लिया था कि मैं अपने खुद के अस्तित्व से भी उदासीन रहने लगा था. हर ‘क्यों’ का उत्तर अगर मिल जाता तो दुनिया ही रुक गई होती. पर पार्क की बैंच पर बैठ कर किसी की प्रतीक्षा करने का अनोखा आनंद तो वही जान सकता है जो ऐसे पलों से गुजरा हो.

पिछले जमाने की रहस्यमयी फिल्मों की नायिका सी यह लड़की मुझे शहर की एक सड़क पर दिखी थी. पता नहीं क्यों, पहली नजर में ही मैं उस के प्रति आकर्षित हो गया था और यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मैं ने उस के बाद, उस रास्ते के अनगिनत चक्कर काटे थे. मन में पक्की उम्मीद थी कि एक न एक दिन तो वह फिर मिलेगी और ऐसा ही हुआ. एकदो बार फिर आमनासामना हुआ और पता नहीं कैसे, उसे भी यह एहसास हो गया कि मैं वहां उसी के लिए चक्कर काटा करता हूं. शायद इसीलिए उस ने, थोड़ी चोरी से, मेरी और देखना शुरू कर दिया था. बस, कहानी यहीं से शुरू हुई थी.

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बातचीत की हालत में पहुंचने में काफी समय लगा और जब मिलने के वादे तक पहुंचे तो वह भी हफ्ते में सिर्फ एक दिन, मंगलवार और समय दोपहर का. मुझे लगा कि शायद उसे उस दिन घर से निकलने में आसानी होती होगी. वैसे, मंगलवार को मेरी भी सिर्फ 2 ही क्लास होती थीं, इसलिए कालेज से जल्दी निकल पाना आसान था. जगह तय हुई यही पार्क…मैं तो कालेज से निकल कर, तेजतेज कदमों से सीधा पार्क जा पहुंचता और पहले से तय बैंच पर जा कर बैठ जाता. वह देर से आए या जल्दी, मेरी आंखें पार्क के गेट पर टिकी रहतीं. उस का वह गेट से घुसना, धरती पर नजर बिछाए हौलेहौले चलना और फिर निकट आ कर आधा इंच मुसकराना, मुझे बहुत मोहक लगता था.

हम एक ही बैंच पर पासपास बैठे होते पर उस की ओर से कोई ऐसी क्रिया होती नहीं लगती थी जो प्यार का संदेश दे सके. वह कम बोलती थी, मैं ही बकबक करता रहता था. मैं ने अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की योजनाएं तक सबकुछ उस को बता डाली थीं. पर उस के बारे में मैं अब तक कुछ जान पाने में सफल नहीं हो सका था. मैं जब भी उस से उस के बारे में कोई प्रश्न करता तो वह अनजान सी आसमान की तरफ देखने लगती. उस के चेहरे पर छाया सांध्यकालीन शून्य और रहस्यमय हो जाता.

अपने इस तथाकथित ‘अचीवमैंट’ को निकट मित्रों से साझा कर डालना स्वाभाविक था. पर जब मैं ने उन्हें यह बताया कि मेरे प्यार का सफर एक बिंदु पर ही अटका हुआ है तो वे सब के सब सलाहकार बन गए.

एक ने कहा –

‘अगर वह प्यार न करती होती तो चल कर पार्क तक आती ही क्यों.’

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बात ठीक लगी.

दूसरे ने कहा –

‘अच्छे संस्कारों वाली होगी. शी वोंट कम रनिंग ऐंड ले डाउन विद यू.’

यह बात अनजाने ही मन को सुख का एहसास करा गई.

तीसरे ने कहा-

‘ऐसा करो, एक दिन पार्क में तुम देर से जाओ. अगर वह बैठ कर तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही तो पक्का है कि वह तुम्हें प्यार करती है. और अगर उठ कर वापस चली गई, तो समझ लेना कि यह सब खेल था.’

यह बात सब को जम गई. सब की सहमति से आने वाले मंगलवार को ही यह निर्णायक प्रयोग करने का निर्णय ले लिया गया.

गिनगिन कर दिन काटे. आखिर, मंगलवार आया. क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा था, मुझे कोई ज्ञान नहीं. देर करनी थी, सो, बैठा रहा. जैसे ही निर्णायक घड़ी आई, मैं भारीभारी पैर उठाता पार्क की ओर चल दिया. मित्रों ने मुझे ऐसे विदा किया जैसे मैं श्मशान घाट जा रहा हूं.

मुझे नहीं मालूम था कि दिल इतनी तेज भी धड़क सकता है. पार्क के गेट की ओर बढ़ते हुए मेरे हाथपैर लगभग कांप रहे थे पर, जैसे ही मेरी दृष्टि ने पार्क के भीतर प्रवेश किया, दिल बल्लियों उछल पड़ा. वह पार्क की उसी बैंच पर बैठी अपने पैर के अंगूठे से जमीन पर कुछ रेखाचित्र बना रही थी.

मेरी गति में अचानक तेजी आ गई. मैं लगभग भागता हुआ बैंच तक जा पहुंचा. वह मुसकराई और एक ओर खिसक कर मेरे बैठने के लिए ज्यादा जगह बना दी.

मन के भीतर अब तक पनपते अपनेपन की जगह अब अधिकार भाव ने ले ली थी. इसलिए बैंच पर बैठते ही मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच दबा लिया. वह सकुचाई जरूर, पर प्रतिरोध नहीं किया.

मेरे मन का विश्वास अब चरम पर था. मैं ने बिना किसी हिचकिचाहट के सीधेसीधे उस से प्रश्न कर दिया, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’

वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए बैठी पैर के अंगूठे से जमीन पर रेखाचित्र बनाती रही.

मैं उतावला हो रहा था. मैं ने अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘बोलो, शादी करोगी मुझ से?’’

वह सिर झुकाएझुकाए ही धीरे से बोली, ‘‘इस के लिए आप को हमारी मम्मी से मिलना होगा.’’

मेरा मन बेकाबू हो उठा था, ‘‘हां…हां, क्यों नहीं. बोलो, कब, कहां?’’

वह थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, ‘‘पूछ कर बताऊंगी.’’

इतना कह कर वह एकदम उठी और चल दी. गेट के पास पहुंच कर उस ने एक बार मुड़ कर मेरी ओर देखा और बाहर चली गई.

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अब मेरा एकएक दिन मुश्किल से कट रहा था, अगले मंगलवार के इंतजार में.

आखिर वह दिन आया. अब समस्या थी कि दोपहर तक का समय कैसे काटा जाए. कालेज जाने का कोईर् फायदा लग नहीं रहा था. सो, सड़कों के चक्कर काटकाट कर सूरज के चढ़ने को निहारता रहा.

समय होते ही मैं पार्क की ओर भागा.

मैं जब पार्क में पहुंचा तो यह देख कर थोड़ी निराशा हुई कि बैंच अभी खाली पड़ी थी. खैर, मैं अपनी उसी जगह जा कर बैठ गया जहां मैं अकसर बैठा करता था. मेरी नजर गेट पर ही टिकी रही.

जैसेजैसे समय बीत रहा था, एक अनजान सा डर मुझे परेशान किए था. तभी एक गरीब सा दिखने वाला आदमी मेरी ओर बढ़ने लगा. वह जैसे ही पास आया उस ने एक मुड़ा हुआ कागज मेरी ओर बढ़ाया. कंपकंपाते हाथों से वह कागज मैं ने उस से लिया और जल्दी से खोल कर पढ़ा. उस में लिखा था –

‘आप इन के साथ चले आएं. ये आप को पहुंचा देंगे.’

जो कुछ हो रहा था उस ने मुझे सारी हालत पर विचार करने को मजबूर कर दिया था. पहले मैं ने उस आदमी को गौर से देखा. यह वही आदमी था जिस के रिकशे पर वह पार्क आयाजाया करती थी. तब मैं ने उस आदमी को आगे चलने का इशारा किया और मैं उस के पीछे हो लिया.

मैं इस सड़क पर कभी बहुत आगे तक गया नहीं था, इसलिए मुझे पता नहीं था कि यह सड़क आगे जा कर एक पतली गली जैसी हो जाती है. छोटीछोटी ढेरों दुकानें, खुली नालियां

और एकदूसरे को धकियाती भीड़. मुझे लगा कि शायद सफाई कर्मचारियों को

इस रास्ते का पता मालूम नहीं होगा.

थोड़ा आगे जा कर रिकशा रुक गया. रिकशे वाले ने एक गहरी सांस ली और बोला, ‘‘बाबू साहब, रिकशा इस के आगे न जा पाएगा. दस कदम आगे चल कर बाईं ओर की गली नंबर 10 में मुड़ जाइएगा. 2 कोठियां छोड़ कर एक जीना ऊपर जाता दिखेगा. बस, उस में चढ़ जाइएगा, मैडम मिल जाएंगी.’’

मैं ने उसे पैसे देने की कोशिश की, पर उस ने लिए नहीं. जहां कहीं मैं इस समय था वह जगह ऐसी लग रही थी जैसे यह शहर का हिस्सा है ही नहीं. जगहजगह टूटे प्लास्टर वाले रंगबिरंगे मकान लगभग वैसे ही लग रहे थे जैसे माचिस की ढेर सारी डब्बियां एकदूसरे के ऊपर रख दी गई हों. हर मकान के बाहर, धूप में सूखते मैलेकुचैले कपड़े और दीवारों पर चिपकी पान की पीक के अलावा जगहजगह पी हुई बीड़ीसिगरेटों के बचे टुकड़े बिखरे पड़े थे.

अब मुझे डर लगने लगा था, पर फिर भी, पैर अनजाने ही आगे बढ़ते चले जा रहे थे. तभी सामने की दीवार पर एक जंग खाई टीन की पट्टी लगी दिखाई दी, जिस पर लगभग मिटता हुआ सा लिखा था- ‘गली नंबर-10.’ मैं उस ओर मुड़ गया.

गली के मुहाने पर ही पड़ी प्लास्टिक की कुरसी पर एक पुलिसमैन बैठा दिखाई दिया. उसे पुलिसमैन मानने में तनिक शंका हो रही थी. पैंट से बाहर निकली मुड़ीतुड़ी कमीज, मुंह में भरी पान की पीक, बिना धुला सा चेहरा. पर हां, हाथ में डंडा जरूर था.

वह मेरी ओर देख कर मुसकराया. मैं ने भी मुसकरा कर मुसकराहट का उत्तर दे दिया. मुझे मुसकराते देख वह इतनी जोर से हंसा कि उस के मुंह में भरी पीक उछल कर उस की कमीज पर आ गिरी. मुझे यह सब देख उबकाई सी आने लगी, इसलिए मैं तेजी से आगे बढ़ गया.

रिकशे वाले द्वारा बताई सीढ़ी सामने थी. एकदम पतला सा जीना था और जीने की दीवारें बहुत ही ज्यादा गंदी थीं. छोटीछोटी सीढि़यों पर पैर तो मैं ने रख दिए पर मन में ‘आगे जाऊं या पीछे’ की उलझन और बढ़ गई. सोच रहा था ‘नर्क में भी अप्सराएं रहती हैं, ऐसा तो कभी किसी ने बताया नहीं. या कहीं, मेरे साथ कोई उपहास प्रायोजित तो नहीं किया गया है.’ अपनी सुरक्षा का डर भी जोर पकड़ने लगा था. तभी सामने एक दरवाजा आ गया. दरवाजे के बाजू में लिखा था ‘नं.-3.’

मेरा हाथ दरवाजा खटखटाने को आगे बढ़ गया. भीतर से किसी महिला की आवाज आई, ‘‘खुला है, तशरीफ ले आइए.’’

पसोपेश की हालत में होते हुए भी पैर आगे बढ़ ही गए. अब मैं एक बड़े कमरे में खड़ा था. कमरे में कई दरवाजे खुल रहे थे जिन पर परदे पड़े हुए थे. सामने वाली दीवार के साथ एक तख्त बिछा हुआ था जिस पर गहरे रंग की चादर बिछी थी और इधरउधर 2-3 मसनद जैसे तकिए भी लगे थे. मसनदों का रंग भी चादर की तरह सुर्ख था.

तख्त पर एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी जिस के दोनों हाथ किसी कड़ी चीज को काटने में व्यस्त थे और आंखें मेरे ऊपर गड़ी हुई थीं. वे बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘बैठिए.’’

मैं ने इधरउधर देखा. बेंत से बनी कई कुरसियां पड़ी थीं. मैं ने एक कुरसी खींची और उस पर बैठ गया.

मेरी नजर महिला पर कम, इधरउधर के वातावरण पर ज्यादा थी. मैल की आगोश में लिपटी दीवारें, कमरों के दरवाजों पर झूलते सिल्की परदों से मेल नहीं खा रही थीं.

मन घबराने लगा था. तभी वे महिला जो शायद उस की मम्मी ही रही होंगी, धीरे से बोलीं, ‘‘क्या सोच रहे हो, हम ने आप को यहां क्यों बुलाया. किसी बेहतर जगह भी तो बुला सकते थे. पर…पर वह हमारी नजर में आप के साथ धोखा होता.’’

इस के बाद वे थोड़ी देर चुप रहीं. फिर कुछ बैठी सी आवाज में बोलीं, ‘‘धोखा दे कर, बाद में उस का अंजाम भुगतना अब हमारे बूते का नहीं रह गया है बरखुरदार.’’

यह कहतेकहते शायद उन का गला भर आया था, इसलिए वे चुप हो गईं. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ पुरानी यादें उन के जेहन में उतर आई थीं.

मैं चुप ही रहा.

सुपारी काटने में व्यस्त उन के हाथों

की गति पहले से तेज हो गई थी.

शायद वे अपने मन के आवेश को कड़ी सुपाड़ी के ऊपर उतारने की कोशिश कर रही थीं. वे अचानक फिर से बोलीं, ‘‘आंखें बूढ़ी हो गईं एक ऐसे मर्द का दीदार करने की ख्वाहिश में जिस में इतनी हिम्मत हो कि वह औरत के जिस्म के सौदागरों को चुनौती दे सके.’’ उन की तकलीफ मुझे झकझोरने लगी थी.

वे शायद अपने आंसू रोकने की कोशिश कर रही थीं. थोड़ी देर चुप रहीं. फिर वे बोलीं, ‘‘यहां तक आने की हिम्मत दिखाई है तुम ने. तो सुनो, गौर से सुनो, यहां रह रही सैकड़ों लड़कियों की कराहती आवाजें जो चीखचीख कर पूछ रही हैं कि इन का क्या कुसूर था. कुसूर तो कमबख्त वक्त का था जिस ने इन्हें बदनाम कोख में ला पटका.’’

मेरे चिंतन पर प्रश्नचिह्न लग गया था.

मेरे कानों में सैकड़ों कराहते नारी स्वर गूंजने लगे थे. मेरी आंखें गीली हो आई थीं.

वे फिर बोलीं. इस बार उन की आवाज में कुछ उत्तेजना सी थी, ‘‘साहबजादे, अगर एक मासूम को इस नरक से निकालने का हौसला रखते हो तो जाओ अपने मांबाप, घरखानदान वालों से पूछो कि क्या वे गली नंबर-10 के कोठे नंबर-3 की एक लड़की को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हैं.’’

मैं खामोश था.

वे चुप थीं.

थोड़ी देर चुप रह कर वे तनिक धीमी आवाज में बोलीं, ‘‘अगर वे हां कर दें तो हमें खबर कर देना. हम बेटी को दुलहन बना कर खुद छोड़ने आ जाएंगे.’’

वे थोड़ा सा चुप हुईं और फिर कराहती सी आवाज में बोलीं, ‘‘और अगर ‘न’ कर दें तो तुम फिर कभी इस ओर मत आना. ये बदनाम गलियां हैं. बेकार में बदनाम हो जाओगे.’’

वे बहुत थकी सी लगने लगी थीं. वे धीरेधीरे उठीं और बिना मेरी ओर देखे पीछे के कमरे के अंदर चली गईं.

अब एकदम सन्नाटा हो गया था.

मैं कुरसी पर बैठा अपनी चेतना लौटने का इंतजार करता रहा. फिर मैं भी कुरसी से उठा और धीरेधीरे बाहर की ओर चल दिया.

मुझे लग रहा था कि कमरे के दरवाजे पर पड़े परदे के पीछे से याचनाभरी

2 आंखें मेरा पीछा कर रही हैं.

मैं कितनी ही कोशिशें करने के बाद  घर वालों से कुछ न कह सका और न कभी फिर वह लड़की ही मिली. दिनदहाड़े आगरा घूमनेफिरने के बाद टैक्सी वाला तारीफों के पुल बांधते हुए हमें एक दुकान में यह कह कर ले गया कि यहां आगरा की प्रसिद्ध वस्तुएं फिक्स रेट पर मिलती हैं. दुकान के पहले छोर में हैंडीक्राफ्ट के आइटम रखे थे, जिन के दाम और क्वालिटी पहली नजर में हमें बाजार की अपेक्षा उचित लगे. हम ने कुछ आइटम खरीद लिए.

दुकान पर हमारा भरोसा जमता देख, दुकानदार आग्रह कर के हमें दुकान के दूसरे छोर में ले गया जहां हैंडलूम के आइटम थे.

हमारे लाख मना करने के बाद कि हमारे पास खरीदारी के लिए पैसे ही नहीं हैं, वह बोला, ‘‘अरे साहब, पैसे कौन मांग रहा है. आप आइटम तो पसंद कीजिए. जितने का भी सामान हो उस का सिर्फ 40 फीसदी दे जाइए, हम सामान पार्सल से आप के घर भेज देंगे. डाक का खर्च हमारा रहेगा, बाकी पैसे दे कर पार्सल छुड़ा लेना.’’

हमारे नानुकुर करने के बाद भी वह एक साड़ी मेरी मिसेज को दिखाते हुए बोला, ‘‘बहनजी, यह बांस (बैंबू)

की साड़ी आगरा की प्रसिद्ध साड़ी

है, इसे जरूर ले जाइए, कीमत मात्र 1,200 रुपए.’’

मैं ने पत्नी को एकदो साड़ी खरीदने की सहमति दे डाली. फिर क्या था, मोहतरमा ने 6 साडि़यां पैक करा डालीं.

दुकानदार ने प्रत्येक साड़ी के कोने में हमारे हस्ताक्षर करा लिए ताकि साडि़यों के बदले जाने की गुंजाइश न रहे. दुकानदारी के तरीके से प्रभावित हो कर हम इतने निश्ंिचत हो गए कि बिल की काउंटरफाइल में लिखी शर्तों को पढ़े  बगैर हम ने उन की शर्तों पर साइन कर दिए. सारी जेबें खंगालने के बाद 3 हजार रुपए अदा कर के हम अपने घर को विदा हो लिए.

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घर पहुंचने के एक हफ्ते के अंदर पार्सल भी पहुंच गया. डाकिया बाकी के 3 हजार रुपए के अलावा 125 रुपए डाकखर्च भी मांगने लगा. हमारे यह कहने पर कि डाकखर्च तो दुकानदार ने दे दिया होगा, वह बोला, ‘‘नहीं, बकाया डाकखर्च देने पर ही मैं पार्सल आप को दे सकता हूं.’’ 125 रुपए के पीछे 3 हजार फंसते देख हम ने पार्सल छुड़ा लिया.

हम ने पार्सल खोला. हस्ताक्षरयुक्त साडि़यां पा कर तसल्ली हुई. आगरा की निशानी के नाम पर बड़े उत्साह से पहनने के बाद एक ही धुलाई में साडि़यों का सारा आकर्षण भी धुल गया. इस ठगी की कटु याद आज भी मुझे कचोटती है.

सुबोध मिश्र

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 लेखक-शहनवाज

नए साल की शुरुआत करें एक नए फोन के साथ. लेकिन अपने बजट का भी रखें पूरा ध्यान. यहां आप को स्मार्टफोन की दुनिया के सब से बेहतर फीचर्स के साथ बेहतरीन फोन की जानकारी प्राप्त होगी. नए साल की शुरुआत करें एक नए फोन के साथ. पोको एम 2 आप की हर जरूरत का रखता है खयाल.

शाओमी पोको एम 2 : पोको एम 2 में आप को कई ऐसे फीचर्स मिलेंगे जो इसी बजट में दूसरे फोन्स में नहीं हैं. शाओमी की तरफ से यह फोन सितंबर में भारतीय बाजार में लौंच किया गया था.

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क्या है खास : मीडिया टैक हेलिओ जी 80 के तेज प्रोसैसर के साथ 5,000 मेगा एंपियर की दमदार बैटरी बैकअप और इस के साथ सब से खास 4 रियर कैमरा और 1 फ्रंट कैमरा वाले इस फोन की कीमत सिर्फ 9,999 रुपए है. 6.53 इंच की बड़ी फुल एचडी स्क्रीन के साथ सभी तरह के वीडियो देखने का आनंद लिया जा सकता है. इस के तेज प्रोसैसर के साथ बिना रुकावट गेमिंग का एक्सपीरिंयस लिया जा सकता है.

फोन की विशेषताएं :  2 वैरिएंट में फोन – 6जीबी रैम + 64जीबी स्टोरेज (9,999 रुपए) और 6 जीबी रैम +128 जीबी स्टोरेज (10,999 रुपए). 3 रंगों में उपलब्ध- मिस्ट ब्लैक, ब्रिक रैड और स्लेट ब्लू. द्य 6.53 इंच की फुल हाई डैफिनिशन स्क्रीन, गोरिल्ला ग्लास 3 के प्रोटैक्शन के साथ. द्य 13 एमपी का मेन कैमरा, 8 एमपी का अल्ट्रावाइड, 5 एमपी का मैक्रो और 2 एमपी के पोट्रेट कैमरे के साथ 8 एमपी का सैल्फी कैमरा. द्य फिंगरपिं्रट सैंसर और फेस अनलौकिंग सिस्टम.

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यूएसबी टाइप-सी केबल 18 वाट की फास्ट चार्जिंग. क्यों लेना चाहिए पोको एम 2 इस प्राइस रेंज में अन्य कंपनी के फोन के मुकाबले सब से अधिक रैम देता है. और फोन में जितनी ज्यादा रैम होगी वह उतना ही स्मूद काम करता है, साथ ही गेमिंग में किसी तरह की कोई परेशानी नहीं आती. इस के साथ ही इंटरनैट पर इस के ढेरों रिव्यू काफी अच्छे हैं.

रियलमी 7 : अगर आप के पास बजट थोड़ा ज्यादा है तो रियलमी 7 आप के लिए सब से फिट स्मार्टफोन साबित होगा. रियलमी की तरफ से रियलमी 7 सितंबर में भारत के मार्केट में लौंच किया गया था.

क्या है खास : मीडिया टैक हेलिओ जी 95 के जबरदस्त प्रोसैसर के साथ 5,000 मेगा एंपियर का दमदार बैटरी बैकअप, 4 रियर क्वैड और 1 फ्रंट कैमरा और 6.5 इंच की बड़ी स्क्रीन से लैस इस फोन की कीमत सिर्फ 14,999 रुपए है. फुल एचडी का डिस्प्ले और ज्यादा रैम वाले इस फोन में गेमिंग की कोई समस्या का सामना नहीं करना पड़ता और मल्टीटास्ंिकग बिना रुकावट आसानी से की जा सकती है. फोन की विशेषताएं द्य 2 वैरिएंट में फोन – 6जीबी रैम + 64 जीबी स्टोरेज (14,999 रुपए) और 8 जीबी रैम + 128 जीबी स्टोरेज (16,999 रुपए). 2 रंगों में उपलब्ध – मिस्ट ब्लू और मिस्ट वाइट. द्य 64 एमपी का वाइडएंगल मेन कैमरा, 8 एमपी का अल्ट्रावाइड, 2 एमपी का मैक्रो और 2 एमपी के डेप्थ कैमरे के साथ 16 एमपी का वाइडएंगल कैमरा.

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6.5 इंच की फुल एचडी डिस्प्ले गोरिल्ला ग्लास प्रोटैक्शन के साथ.  अनलौक बटन पर फिंगरपिं्रट सैंसर (नया फीचर). 4के पर वीडियो रिकौर्डिंग की क्षमता. क्यों लेना चाहिए इस प्राइस रेंज में इंटरनैट पर सब से अच्छे फोन में से एक रियलमी 7 ही उपलब्ध है. इस की सब से अच्छी खासीयत यह है कि 64 एमपी का मेन प्राइमरी कैमरा 4के रेजोलुशन पर वीडियो रिकौर्डिंग करने की क्षमता रखता है. 5,000 मेगा एंपियर की दमदार बैटरी, 6 जीबी रैम और जी95 का तेज प्रोसैसर आप को बेहतरीन गेमिंग एक्सपीरिंयस का अनुभव देता है. इस के साथ ही, बैकग्राउंड में आप बिना रुकावट मल्टीटास्ंिकग कर सकते हैं. सब से नया फीचर इस में फिंगरपिं्रट सैंसर साइड में अनलौक बटन पर दिया गया है जो इसे बाजार में उपलब्ध अन्य फोन से अलग करता है.

डॉक्टरों के लिए मरीज का मनोविज्ञान जरूरी

लेखिका- डा. अनामिका पापड़ीवाल

मरीज शारीरिक रूप से ही नहीं, मानसिक रूप से भी बीमार होता है. डाक्टर और दवा के साथसाथ उसे मानसिक रूप से संतुष्ट कर दिया जाए तो उपचार के और बेहतर परिणाम सामने आएंगे. अभी कुछ दिनों पहले की बात है, मैं एक मरीज से मिली जो काफी दिनों से बीमार थी. उस के पति, पिता सभी काफी निराश लगे. उन से निराशा का कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि डाक्टर साहब के इलाज से फायदा तो बहुत है परंतु फिर भी वे वहां जिस समस्या को ले कर आए थे वह तो सही हुई नहीं. मरीज को कुछ खाते ही उलटी आ जाती है और बारबार उबकाई आती है,

कुछ खाया ही नहीं जा रहा. वे चाहते हैं कि किसी पेट के डाक्टर को दिखाया जाए, तभी फायदा होगा. अभी हम फिजीशियन को दिखा रहे हैं. उन की बड़ी बेटी को भी पहले ही ऐसे ही उलटियों की शिकायत हुई थी और गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट को दिखाने पर सही हो गई थी. उन की मानसिक स्थिति को समझते हुए मैं ने तुरंत संबंधित अधिकारियों से बात की और फिजीशियन द्वारा गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट को बुलवा कर मरीज को दिखाया. उन्होंने जो परीक्षण कराने को कहे, वे सभी मरीज पहले करा चुकी थी, परंतु रिपोर्ट स्वीकार नहीं कर पा रही थी.

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जब गैस्ट्रोएंट्रोलौजिस्ट ने मरीज से बातचीत की तो उस से ही उन्हें इतनी संतुष्टि मिल गई कि जो मरीज पिछले 7-8 दिनों से बिलकुल निढाल अवस्था में थी, 2 दिनों बाद तो काफी सही महसूस करने लगी और तीसरे दिन पूर्णतया स्वस्थ हो कर अपने घर चली गई. यह केस इंगित करता है कि कभीकभी दवाइयों और पूरी देखभाल के बावजूद मरीज के मन का कोई भाग असंतुष्ट रह जाता है. और यदि उसे संतुष्ट कर दिया जाए, तो मरीज के ठीक होने की तीव्रता बढ़ जाती है. अस्पताल में आ कर ही पता लगता है कि जीवन क्या है, उस का हमारे जीवन में क्या मूल्य है.

जिंदगी और मौत के बीच का फासला, कभी बचने की खुशी तो कभी मर जाने का गम. मरीज हो, चाहे मरीज के परिजन, सभी के चेहरों पर कभी खौफ, चिंता, घबराहट के निशान नजर आते हैं तो कभी ये ही निशान खुशी का नूर बन कर चमक उठते हैं. शांत रहने वाला इंसान भी चिड़चिड़ा हो जाता है. यहां दुश्मन भी दोस्त बन जाता है, तो दोस्ती हदों से पार भी हो जाती है. मुझे, एक काउंसलिंग साइकोलौजिस्ट होने के नाते, मरीजों और उन के परिजनों को बहुत करीब से जानने का मौका मिला है. पहले से ही जो खुद मरीज है, देखा जाए तो उसे और परेशान करने का कभी जी नहीं चाहता.

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परंतु फिर भी जब वह अस्पताल में इलाज कराने आता है तो प्रवेश करने से ले कर इलाज करा कर ठीक होने या बिना ठीक हुए ही जाने के बीच उसे कई व्यवस्थाओं से दोचार होना पड़ता है. अस्पताल में उपस्थित सफाई कर्मचारी से ले कर नर्सिंग स्टाफ, डाक्टर, रैजिडैंट, मैनेजमैंट सभी मरीज के साथ जुड़ जाते हैं. ये सभी हर कदम पर मरीज की मदद करने को तैयार रहते हैं. फिर भी मरीज तो मरीज ही है और उस के रिश्तेदार अस्पताल के मेहमान. कहीं न कहीं, कोई न कोई कमी हो ही जाती है. ऐसे में न गलती मरीज की होती है, न दूसरे स्टाफ की. फिर भी बात बिगड़ जाती है. इन बिगड़ी बातों को संभालने और सभी के बीच पूर्णतया सामंजस्य बिठाने में एक काउंसलर की अहम भूमिका होती है.

किसी भी मरीज के इलाज में 50 प्रतिशत हिस्सा सही इलाज और दवा का, 25 प्रतिशत हिस्सा डाक्टर पर विश्वास का और बाकी 25 प्रतिशत हिस्सा मरीज की खुद की संतुष्टि का होता है. यदि इन में से कहीं भी कमी रह जाती है तो मरीज की स्थिति दिनोंदिन गिरती जाती है. लेकिन, ये सभी प्रतिशत पूर्ण होने पर मरीज के ठीक होने की संभावना काफी बढ़ जाती है. ऐसा नहीं है कि सही इलाज और दवा से मरीज ठीक नहीं होता, परंतु पूर्ण संतुष्टि भी किसी भी इलाज का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. एक इंसान जब मरीज बन कर अस्पताल आता है तो वह खुद और उस के परिजन पहले से ही बहुत परेशान व तनावग्रस्त होते हैं. ऐसे में बारबार मरीज को समझाना, उस के विश्वास के स्तर को बनाए रखना, उसे सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करना, उस में जीने की इच्छा जगाए रखना आदि काफी महत्त्वपूर्ण कार्य होते हैं जो मरीज के इलाज में अहम भूमिका अदा करते हैं.

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सकारात्मक भूमिका इन सभी बातों को यदि ध्यान में रखा जाए तो किसी भी मरीज के इलाज में जितनी अहम भूमिका डाक्टर और उन के द्वारा दी गई दवाइयों की होती है, उतनी ही भूमिका बाकी सभी परिस्थितियों को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत करने की भी होती है. एक मरीज जब अस्पताल में भरती होता है तो लगातार दवाओं के सेवन से व बीमारी की वजह से कुछ चिड़चिड़ा और जिद्दी हो जाता है. ऐसे में जबकि उसे खाने में भी सीमित और उपयुक्त चीजें ही दी जा सकती हैं तो उसे खाना खिलाने तक में भी बड़ी मशक्कत करनी पड़ती है. इस परिस्थिति में यदि मरीज को समझ कर उस की सही काउंसलिंग की जाए तो बड़ी आसानी से उसे कुछ खिलाया जा सकता है. किसी मरीज की सब से बड़ी आवश्यकता होती है कि कोई उस के मन को फिर से जीने की इच्छा से भर दे ताकि उस में ठीक होने की लालसा पैदा हो. एक अच्छे अस्पताल और उस के अधिकारियों का दायित्व यही है कि मरीज और उस के परिजन निराशा के अंधकार में न डूबने पाएं.

जीवन पर हमारा कोई बस नहीं चलता परंतु फिर भी जीवन की अंतिम डोर तक उसे बचाए रखने की मशक्कत सभी को मिल कर करनी होती है. कभी तिनके का सहारा भी समुद्र पार लगा देता है तो कभी अच्छाखासा जहाज भी डूब जाता है. मरीज का गुबार अस्पताल में हर कोई परेशान हालत में आता है. कभी मेहनत और पैसे की कीमत, जिंदगी के रूप में वसूल हो जाती है तो कभी सबकुछ हाथ से फिसल जाता है. यहां का माहौल ऐसा होता है कि अपनेआप ही अपने से ज्यादा दूसरा दुखी नजर आता है.

मरीज पहले ही धैर्य खो चुका होता है. जिस में धीरज नहीं हो, उस से क्या आशा की जा सकती है. जरा सी बात भी उस के धीरज के बांध को तोड़ सकती है, तो जरा सी सांत्वना उसे धीरज बंधा भी सकती है. मरीज की स्थिति बहुत ही नाजुक हो, तब तो उस की देखभाल और भी संभल कर करनी पड़ती है. मरीज के लिए एक मनोवैज्ञानिक राय यही होती है कि यदि अपनी स्थिति और स्वास्थ्य के कारण मरीज कुंठित है, तनाव में है या चिड़चिड़ा हो रहा है तो उसे उस का गुस्सा निकालने का मौका भी दिया जाना चाहिए. ताकि, उस का गुबार निकल सके और वह शांत हो सके. क्योंकि, मन में बैठे शंका के बीज उसे दी जा रही दवाओं को असर नहीं करने देंगे. ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह सब कई बार डाक्टर को भी झेलना पड़ सकता है.

यदि यहां पर डाक्टर यह सोच ले कि मैं तो उसे बचाने में दिनरात एक कर रहा हूं, उस की इतनी सेवा कर रहा हूं फिर भी वह मुझ पर ही गुस्सा कर रहा है तो यह सोच कहीं न कहीं डाक्टर और मरीज के बीच दूरी बढ़ाने का काम करती है. यही तो वह मौका होता है जब एक डाक्टर को भी अपनी कमी का एहसास हो सकता है. डाक्टर को अब सिर्फ अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता ही नहीं, बल्कि मरीज के मनोविज्ञान को समझना भी आना चाहिए. एक मनोवैज्ञानिक होने के नाते और अपने अनुभवों के आधार पर मैं दावे से यह कह सकती हूं कि मरीज और उस के परिजनों के मनोविज्ञान को समझ कर यदि इलाज किया जाए तो कम समय में ज्यादा प्रभावी इलाज किया जा सकता है, और सब से बड़ी बात, मरीज की संतुष्टि में निहित होती है. ऐसे इलाज से मरीज भी संतुष्ट होता है. अब वक्त बदल गया है. पहले व्यक्ति संयुक्त परिवार में रहता था जहां बीमार होने पर उसे नैतिक सहायता परिवार वालों से मिल जाती थी. ऐसे में डाक्टर द्वारा दी गई केवल अच्छी दवा भी असरकारक हो जाती थी. लेकिन अब बदली हुई परिस्थिति में, जबकि परिवार एकल हो गए हैं, बीमार होने पर व्यक्ति बहुत अकेला पड़ जाता है.

ऐसे में उसे दवा के साथ मानसिक सहायता भी डाक्टर या अस्पताल प्रशासन द्वारा ही उपलब्ध कराया जाना जरूरी हो गया है. एक अस्पताल और उस में डाक्टरों द्वारा दी जा रही सेवाओं से मरीज की संतुष्टि अब इस पर ही ज्यादा निर्भर करती है कि वहां कोई ऐसा व्यक्ति भी हो जो उन्हें अपना सा लगे. जिस के सामने वह अपनी हर बात रख सके जो डाक्टर से कहने से डरता हो. मरीज का डर डाक्टरों को भी यह जानना जरूरी है कि मरीज डाक्टर से बहुत कारणों से डरते हैं और इसी वजह से कई बातें वे बताना चाह कर निम्न जैसे भी नहीं बता पाते. द्य मरीज अपना पूर्व इतिहास सहीसही भी बताने से वे डरते हैं. द्य जिस बीमारी का इलाज लेने आए हैं. द्य यदि साथ में कोई और परेशानी भी उत्पन्न हो रही है तो वह भी बताने से मरीज डरते हैं.

कभीकभी तो जो बातें डाक्टर से करने की सोच रखी होती हैं, जब डाक्टर सामने आते हैं तो मरीज कहना भूल जाते हैं. इन सब बातों और डाक्टर से मरीज के डर की सिर्फ एक ही वजह होती है कि कहीं डाक्टर नाराज हो गए तो हमारा केस बिगाड़ देंगे उन्हें लगता है उन का जीवन तो अब उन के ही हाथ में है या फिर वे बहुत महंगीमहंगी दूसरी दवाएं लिख देंगे और कहीं देखने से ही मना कर दिया तो क्या होगा. ऐसी परिस्थिति में नुकसान डाक्टर और मरीज दोनों का होता है. और सब से बड़ा नुकसान होता है अस्पताल प्रशासन का. परंतु इन सब में भुगतना पड़ता है मरीज की जिंदगी को. मरीज और डाक्टर के बीच में किसी प्रकार का कम्युनिकेशन गैप न उत्पन्न हो. यह तभी संभव है जब डाक्टर अपने मरीज को प्रौपर टाइम दे, जबकि आज की व्यस्तम जिंदगी में यह संभव नहीं है. मनोवैज्ञानिक सलाहकार ऐसे में एक मनोवैज्ञानिक सलाहकार महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.

वह न केवल मरीज को अपना बना कर सारी बातें जान सकता है, बल्कि डाक्टर को उस के दबे हुए मंथन से अवगत करा कर इलाज की पेचीदगियों को दूर करने में भी सहायता कर सकता है. एक मरीज जो निमोनिया से पीडि़त था, किसी अस्पताल में फिजीशियन को दिखाने गया. फिजीशियन ने तो केवल मरीज द्वारा बताई गई वर्तमान समस्या बीमारी के अनुसार जांच करा कर इलाज करना शुरू कर दिया. उन्होंने अपनी तरफ से अच्छी से अच्छी दवा भी दी, परंतु मरीज में कोई सुधार नजर नहीं आया. जब मरीज के परिजनों से साइकोलौजिस्ट द्वारा बात की गई और उन के पुराने इलाज या बीमारी के बारे में पूछा गया तो पता चला, कि वह मानसिक विक्षिप्त भी थी और काफी पहले से उस का इलाज भी चल रहा था. परंतु यहां यह बात उन्हें डाक्टर को बताने लायक नहीं लगी थी, इसीलिए उन्होंने इस का जिक्र नहीं किया. साइकोलौजिस्ट द्वारा यह जानने के बाद उसे तुरंत सहायक इलाज के रूप में मनोचिकित्सक को भी दिखाया गया. दोनों का एकसाथ दिया गया उपचार मरीज के सुधार में सहायक सिद्ध हुआ. डाक्टर के लिए भी यह जानना जरूरी है कि जो दिख रहा है,

वह ही सही नहीं होता, कभीकभी तसवीर का दूसरा रुख भी देखना पड़ता है. यह वह रुख होता है जिसे मरीज और उस के परिजन छिपाने की कोशिश करते हैं. मरीज का संतुष्टि का स्तर कैसे टूटता और बनता है, इस का एक ज्वलंत उदाहरण सुहैल का है. सुहैल का कुछ दिनों पहले प्रोस्टेट का औपरेशन हुआ. औपरेशन सफल था. उसे फायदा मिला. परंतु एक बार फिर से उसे अपने चेहरे पर और पूरे शरीर पर सूजन का एहसास होने लगा. उस ने किसी से सुना था कि शरीर पर सूजन का मतलब किडनी में इन्फैक्शन होता है और यही बात उस के मन में घर कर गई.

सभी जांच रिपोर्टें नैगेटिव आने के बावजूद उस की सूजन कम नहीं हो रही थी क्योंकि वह यह मान चुका था कि उस की किडनियां खराब हो गई हैं और अब वे बिलकुल ठीक नहीं हो सकतीं. जब साइकोलौजिस्ट द्वारा उस से बात की गई तो उन्होंने उस के मन के वहम को समझ कर उसे निकालने में उस की मदद की. किसी भी मरीज की मानसिकता समझने के लिए उस की शारीरिक समस्याओं के साथसाथ मानसिक स्तर को भी अच्छी तरह समझना और जांचना चाहिए क्योंकि मरीज के मनोविज्ञान को समझ कर दी गई चिकित्सा के परिणाम अधिकतर सकारात्मक ही होते हैं. जिस से न केवल मरीज का बल्कि चिकित्सक का भी संतुष्टि स्तर बढ़ता है और बेहतर परिणाम मिलता है.

दुर्घटना: शालिनी अचानक रोड पर खड़े लोगों पर क्यों चिल्लाने लगी

समीर रोज की तरह घर से निकला और कुछ दूर खड़ी शालिनी को अपनी कार में बिठा लिया. दोनों एक निजी शिक्षा संस्थान में होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रहे थे. साथ पढ़ते थे इस कारण मित्रता भी हो गई थी.

कार अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी कि अचानक चौराहे के पास जमा भीड़ के कारण समीर को ब्रेक लगाने पड़े. उतर कर देखा तो एक आदमी घायल पड़ा था. लोग तरहतरह की बातें और बहस तो कर रहे थे लेकिन कुछ करने की पहल किसी ने नहीं की थी. खून बहुत बह रहा था.

‘‘मैं देखती हूं, शायद कोई अस्पताल पहुंचा दे,’’ शालिनी ने भीड़ के अंदर घुसते हुए कहा.

‘‘आप लोग कुछ करते क्यों नहीं,’’ शालिनी ने क्रोध से कहा, ‘‘कितना खून बह रहा है. बेचारा, मर जाएगा.’’

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‘‘आप ही क्यों नहीं कुछ करतीं,’’ एक युवक ने कहा, ‘‘हमें पुलिस के लफड़े में नहीं पड़ना.’’

‘‘तो यहां क्यों खड़े हैं,’’ शालिनी ने प्रताड़ना दी, ‘‘अपने घर जाइए.’’

‘‘चले जाएंगे, तुम्हारा क्या बिगाड़ रहे हैं,’’ युवक ने धृष्टता से कहा और चल दिया.

धीरेधीरे भीड़ छंटने लगी और शालिनी अपनेआप को लाचार समझने लगी.

‘‘समीर, इसे अस्पताल पहुंचाना होगा,’’ शालिनी ने कहा.

‘‘बेकार में झंझट मोल मत लो,’’ समीर ने कहा, ‘‘पुलिस को फोन कर के चलना ठीक रहेगा. क्लास के लिए भी तो देर हो रही है.’’

‘‘नहीं, समीर, ऐसा है तो तुम जाओ,’’ शालिनी ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘पुलिस को फोन कर देना. तब तक मैं यहां खड़ी हूं.’’

समीर समझ गया कि शालिनी को इंसानियत का दौरा पड़ गया है. उसे अकेला छोड़ कर चले जाना कायरता होगी.

‘‘चलो, इसे कार में डालते हैं,’’ समीर ने कहा, ‘‘किसी की मदद लेनी होगी क्योंकि तुम्हारे बस का नहीं है इसे उठाना.’’

बचेखुचे कुछ लोगों में से 2 आदमी बेमन से मदद करने को तैयार हुए. उन्होंने बड़ी कठिनाई से उसे उठा कर कार की पिछली सीट पर लिटाया और जाने लगे.

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समीर ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘‘भाई साहब, जरा अपना नाम, पता व फोन नंबर तो देते जाइए.’’

‘‘आज के लिए इतना काफी है,’’ कह कर दोनों चल दिए. अब कोई दर्शक नहीं था.

कुछ ही दूरी पर नर्सिंगहोम था. वहां पहुंच कर समीर ने दुर्घटना की जानकारी दी और घायल आदमी का इलाज करने को कहा. नर्सिंगहोम ह्वह्य आशा के विपरीत घायल को हाथोंहाथ लिया और तुरंत आपरेशन थिएटर में पहुंचा दिया.

नर्सिंगहोम के सुपुर्द कर के जैसे ही दोनों जाने लगे कि एक डाक्टर ने उन्हें रोक लिया.

‘‘खेद है, अभी आप नहीं जा सकते,’’ डाक्टर ने कहा, ‘‘पुलिस के आने तक आप को इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि पुलिस के सामने आप को अपना बयान देना होगा.’’

‘‘लेकिन हम ने तो कुछ नहीं किया,’’ शालिनी ने चिढ़ कर कहा, ‘‘इस आदमी को केवल यहां पहुंचाने की गलती की है.’’

‘‘आप ठीक कहती हैं,’’ डाक्टर मुसकराया, ‘‘लेकिन हमें तो कानून के हिसाब से चलना पड़ता है. थोड़ा रुकिए, पुलिस आती ही होगी. आप ने अपना काम किया और हम अपना काम कर रहे हैं… इंसानियत के नाते.’’

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मजबूर हो कर दोनों को रुकना पड़ा. आज तो क्लास नहीं कर पाएंगे.

कुछ ही देर में 2 पुलिस वाले आ गए. पूरे विस्तार से जानकारी ली. नाम, पता, फोन नंबर व आप

से रिश्ता भी डायरी में लिखा.

‘‘आप घायल को जानते हैं?’’ इंस्पेक्टर ने पूछा.

‘‘जी नहीं,’’ समीर ने कहा, ‘‘पहले कभी नहीं देखा.’’

‘‘दुर्घटना के बारे में और क्या जानते हैं?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ शालिनी ने कहा, ‘‘यह सड़क पर घायल पड़ा था. भीड़ तो जमा थी पर कोई कुछ कर नहीं रहा था. हम लोगों ने इसे उठा कर यहां पहुंचा दिया, बस.’’

‘‘यह तो आप ने बहुत अच्छा किया,’’ इंस्पेक्टर मुसकराया, ‘‘कौन करता है किसी अनजान के लिए.’’

‘‘हम जा सकते हैं?’’ समीर ने धीरज खो कर पूछा.

‘‘अभी नहीं,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘अपने बयान को पढि़ए और फिर अपनी चिडि़या बिठाइए.’’

‘‘चिडि़या?’’ शालिनी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मेरा मतलब हस्ताक्षर से है,’’ इंस्पेक्टर हंसा.

उसी समय नर्स ने बाहर आ कर घायल के पास से जो कुछ मिला था इंस्पेक्टर के सामने रख दिया. इंस्पेक्टर ने गहराई से सामान को देखा. शायद नाम, पता आदि मिले तो इस के रिश्तेदारों को खबर दी जा सकती है.

घायल का नाम सुमेर स्ंिह था और वह इलाज के लिए पास के गांव से आया था. रुक्मणी देवी अस्पताल की परची थी. वहां फोन किया, अधिक जानकारी नहीं मिली. गांव के 2-3 फोन नंबर थे. इंस्पेक्टर ने फोन लगाया. 2 जगह तो घंटी बजती रही. किसी ने नहीं उठाया. तीसरी जगह फोन करने पर बहुत देर बाद किसी ने उठाया.

‘‘हैलो,’’ उधर से एक महिला ने कहा.

‘‘मैं इंस्पेक्टर भूपलाल दिल्ली से बोल रहा हूं,’’ इंस्पेक्टर ने रोब से कहा.

महिला के स्वर में डर था, ‘‘जी, ये तो घर में नहीं हैं. थोड़ी देर बाद फोन कीजिए.’’

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर इंस्पेक्टर ने पूछा, ‘‘आप किसी सुमेर स्ंिह को जानती हैं?’’

‘‘सुमेर सिंह?…ओह, सुमेर, हां, मेरे गांव का है. 8-10 मकान छोड़ कर रहता है,’’ महिला ने कहा, ‘‘सुना है, इलाज के लिए दिल्ली गया है.’’

‘‘वह बहुत गंभीर रूप से घायल है,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘उस के घर से किसी को बुलाइए.’’

‘‘वह तो अकेला रहता है,’’ महिला ने कहा, ‘‘उस की घरवाली तो छोड़ कर चली गई है.’’

‘‘तो कोई और रिश्तेदार होगा,’’ इंस्पेक्टर ने कहा.

‘‘हां, चाचावाचा हैं,’’ महिला ने कहा.

‘‘तो उन्हीं को बुलाओ,’’ इंस्पेक्टर ने कड़क कर कहा, ‘‘मैं 15 मिनट बाद फिर फोन करूंगा.’’

इंस्पेक्टर ने समीर और शालिनी को रोक रखा था. देर तो हो ही गइर््र थी, इन्हें अब यह भी कौतूहल था कि बेचारा बचेगा भी या नहीं.

नर्सिंगहोम की कैंटीन में चायनाश्ते के बाद इंस्पेक्टर ने फिर फोन मिलाया.

‘‘जी सर,’’ उधर से आवाज आई.

‘‘कौन बोल रहा है? सुमेर का चाचा?’’ इंस्पेक्टर ने कड़क स्वर में पूछा.

‘‘जी, मैं चाचा तो हूं, लेकिन सगा नहीं,’’ चाचा ने सहम कर कहा.

‘‘ठीक है, तुम कुछ तो हो,’’ इंस्पेक्टर ने कहा, ‘‘यहां नर्सिंगहोम का पता लिखो और फौरन बस पकड़ कर चले आओ. सुमेर स्ंिह घायल है.’’

‘‘तो हम क्या करेंगे?’’ चाचा ने हकला कर कहा.

‘‘तुम तीमारदारी करोगे और इलाज का खर्च उठाओगे,’’ इंस्पेक्टर ने डांट कर कहा, ‘‘अगर नहीं आए तो अंदर कर दूंगा.’’

इंस्पेक्टर की घुड़की खा कर चाचा और उस का बेटा 2 घंटे के भीतर पहुंच गए. वे सुमेर स्ंिह की गंभीर हालत देख कर डर गए.

‘‘हमें क्या करना है?’’ चाचा ने पूछा.

‘‘तुरंत खून की 2 बोतलों का इंतजाम करो,’’ नर्स ने कहा, ‘‘यह दवाएं लिख दी हैं. इन्हें ले कर आओ. हां, देर मत करना…और हां, यह फार्म है, इस पर अपने हस्ताक्षर कर दो.’’

‘‘मैं क्यों दस्तखत करूं?’’ चाचा ने पूछा.

‘‘अरे, कोई तो जिम्मेदारी लेगा,’’ नर्स ने डांट कर कहा, ‘‘जल्दी करो.’’

‘‘पहले दवा ले आते हैं,’’ चाचा ने कहा और अपने बेटे के साथ चला गया.

इस के बाद वे लौट कर नहीं आए. फोन करने पर पता लगा उन के घर पर ताला लगा है.

इधर समय निकलता देख नर्स ने समीर से कहा, ‘‘आप ही कोई बंदोबस्त कीजिए.’’

शालिनी और समीर दोनों उलझन में पड़ गए. अचानक घायल को बेसहारा देख पीछा छुड़ाने का मन नहीं हुआ. पास ही रेडक्रास का ब्लड बैंक था. दोनों ने अपनेअपने पर्स निकाले और रुपए गिने. दवाओं के पैसे भी देने थे. फिलहाल काम चल जाएगा. नर्स को अस्पताल से खून व दवा देने का आदेश दे कर ब्लड बैंक चले गए.

ब्लड बैंक ने खून देने से पहले इन दोनों के खून की जांच की और रक्तदान करने के लिए कहा. यह दान उन्होंने खुशी से दिया और अस्पताल पहुंच गए.

‘‘अब कैसी हालत है सुमेर स्ंिह की?’’ शालिनी ने नर्स से पूछा.

‘‘बचने की उम्मीद कम है.’’

नर्स ने कहा.

सुन कर दोनों को बहुत बुरा लगा. कुछ देर बैठे और फिर घर चले गए.

अगले दिन समीर को शालिनी ने फोन किया, ‘‘क्या उसे देखने जाओगे?’’

‘‘कोई फैसला नहीं ले पा रहा हूं,’’ समीर ने कहा, ‘‘पता नहीं क्या मुसीबत मोल ले ली.’’

‘‘अगर जाओ तो मुझे बता देना, कुछ अच्छा नहीं लग रहा है.’’

समीर कुछ पहले आ गया और नर्सिंगहोम के सामने रुका. अंदर जाए या नहीं? बेचारा.

‘‘सिस्टर, कैसा है मरीज?’’ समीर ने पूछा.

नर्स ने सिर हिलाया और मुंह बिचका दिया.

फोन करने पर शालिनी ने कहा, ‘‘तुम वहीं रुको, मैं आ रही हूं.’’

अनजान ही सही, इतना कुछ करने के बाद थोड़ाबहुत लगाव तो हो ही जाता है. शालिनी आई और ताजा जानकारी इस तरह से ली मानो मरीज कोई परिचित था. लगभग 1 घंटे बाद नर्स ने सूचना दी कि सुमेर स्ंिह को डाक्टर बचा नहीं सके. उस के अंतिम संस्कार का प्रबंध करें. लाश को कुछ घंटे ही रखा जा सकता था. दोनों स्तब्ध रह गए. ऐसा काम तो उन्होंने आज तक नहीं किया था. दोनों बहुत दुखी थे.

नर्सिंगहोम से एक ऐसी संस्था कापता लिया जो लावारिस लाशों का दाहसंस्कार किया करती है. फोन कर के समीर ने सारी जिम्मेदारी संस्था को सौंप दी.

उदासी ऐसी थी कि आज कोर्स में जाने का मन नहीं हुआ. एक रेस्तरां में बैठ कर दोनों ने कौफी का आर्डर दिया.

दोनों के मुंह उदासी से लटके हुए थे. मरने वाले सुमेर सिंह से न कोई रिश्ता था न ही कोई संबंध, लेकिन ऐसा लग रहा था मानो कोई आत्मीय जन अब इस दुनिया में नहीं रहा.

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Crime Story: हवाई जहाज वाली चोरनी

सौजन्य- सत्यकथा

अप्रैल, 2019 महीने की बात है. मुंबई के लोअर परेल के एनएम जोशी मार्ग स्थित पुलिस स्टेशन में एक महिला ने रिपोर्ट दर्ज कराई कि वह परेल के ही फिनिक्स मौल के ‘जारा’ शोरूम में शादी के लिए खरीदारी करने गई थी.

खरीदारी करने के बाद उस ने बिल अदा करने लिए सामान वाला अपना बैग बेटे को थमा दिया. संयोग से उसी समय बेटे के मोबाइल फोन पर किसी का फोन आ गया तो बेटा वहीं रखी कुरसी पर बैग रख कर मोबाइल फोन पर बात करने लगा.

फोन पर बात करने में उस का बेटा इस तरह मशगूल हो गया कि उसे बैग का खयाल ही नहीं रहा. फोन कटा तो उसे बैग की याद आई.पता चला कि बैग अपनी जगह पर नहीं है. वह इधरउधर देखने लगा. बैग वहां होता तब तो मिलता. जिस समय वह फोन पर बातें करने में मशगूल था, उसी बीच कोई उस का बैग उठा ले गया था.

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उस के बैग में 13 लाख के गहने, नकद रुपए और मोबाइल फोन मिला कर करीब 15 लाख रुपए से ज्यादा कीमत का सामान था.यह कोई छोटीमोटी चोरी नहीं थी. इसलिए एमएम जोशी मार्ग थाना पुलिस ने इस मामले की रिपोर्ट दर्ज कर मामले को गंभीरता से लेते हुए तुरंत जांच शुरू कर दी. मौल में जा कर गहन छानबीन के साथ वहां ड्यूटी पर तैनात सिक्योरिटी गार्डों के अलावा एकएक कर्मचारी से विस्तार से पूछताछ की गई.

सीसीटीवी फुटेज भी खंगाली गई, पर कोई ऐसा संदिग्ध पुलिस की नजर में नहीं आया, जिस पर उसे शक होता. पुलिस अपने हिसाब से चोरी की वारदात की जांच करती रही, पर उस चोर तक नहीं पहुंच सकी.मुंबई पुलिस का एक नियम यह है कि मुंबई में कोई भी बड़ी वारदात होती है तो थाना पुलिस के साथसाथ मुंबई पुलिस की अपराध शाखा (क्राइम ब्रांच) भी थाना पुलिस के समांतर जांच करती है.

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चोरी की इस वारदात की जांच कुर्ला की अपराध शाखा की यूनिट-5 को भी सौंपी गई. क्राइम ब्रांच के डीसीपी ने इस मामले की जांच सीनियर इंसपेक्टर जगदीश सईल को सौंपी. सीनियर इंसपेक्टर जगदीश सईल ने इंसपेक्टर योगेश चव्हाण, असिस्टेंट इंसपेक्टर सुरेखा जवंजाल, महेंद्र पाटिल, अमोल माली आदि को मिला कर एक टीम बनाई और चोरी की इस घटना की जांच शुरू कर दी.

अपराध शाखा की इस टीम ने भी मौके पर जा कर सभी से पूछताछ की और सीसीटीवी फुटेज ला कर अपने औफिस में ध्यान से देखनी शुरू की.सीसीटीवी फुटेज में अपराध शाखा की यह टीम उस समय की फुटेज को बड़े गौर से देख रही थी, जिस समय महिला का बैग चोरी हुआ था. काफी कोशिश के बाद उन्हें भी ऐसा कोई संदिग्ध नजर नहीं आया, जिस पर वे शक करते.

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सीसीटीवी फुटेज और पूछताछ में क्राइम ब्रांच को कोई कामयाबी नहीं मिली तो यह टीम चोर तक पहुंचने के अन्य विकल्पों पर विचार करने लगी.तमाम विकल्पों पर विचार करने के बाद एक विकल्प यह भी सामने आया कि मुंबई में इस के पहले तो इस तरह की कोई वारदात नहीं हुई है. जब इस बारे में पता किया गया तो पता चला कि इस के पहले सन 2016 में दादर के शिवाजी पार्क स्थित लैक्मे शोरूम में भी इसी तरह की एक वारदात हुई थी.

उस चोरी में भी कोई गहनों और रुपयों से भरा बैग इसी तरह उठा ले गया था. इसी तरह की 3 चोरियों का और पता चला. वे तीनों चोरियां भी इसी तरह से की गई थीं. इस के बाद जगदीश सईल की टीम ने जिस दिन दादर के लैक्मे शोरूम में चोरी हुई थी, उस दिन की सीसीटीवी फुटेज हासिल की और उसे ध्यान से देखना शुरू किया. यह टीम फुटेज में उस समय पर विशेष ध्यान दे रही थी, जिस समय चोरी होने की बात कही गई थी.

पुलिस टीम शोरूम में आनेजाने वाले एकएक आदमी को गौर से देख रही थी. इसी तरह ध्यान से फिनिक्स मौल के जारा शोरूम की भी सीसीटीवी फुटेज देखी गई तो इस टीम को एक ऐसी औरत दिखाई दी, जो दोनों ही फुटेज में थी. जिस समय चोरी होने की बात कही गई थी, उसी समय दोनों फुटेज में उस महिला को देख कर पुलिस की आंखों में चमक आ गई.

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इस से पुलिस को लगा कि चोरी की वारदातों में इसी महिला का हाथ हो सकता है. महिला की फोटो मिल गई, तो पुलिस उस का पताठिकाना तलाशने में लग गई. यह काम इतना आसान नहीं था. किसी अंजान महिला को मुंबई जैसे शहर में मात्र फोटो के सहारे ढूंढ निकालना भूसे के ढेर से सुई तलाशने जैसा था.

अखबारों में भी फोटो नहीं छपवाया जा सकता था. अपना फोटो देख कर वह महिला गायब हो सकती थी. चुनौती भरा काम करने में अलग ही मजा आता है. जगदीश सईल की टीम ने भी इस चुनौती को स्वीकार कर महिला की उसी तस्वीर के आधार पर तलाश शुरू कर दी.

पहले तो इस टीम ने जहांजहां चोरी हुई थी, उन शोरूमों के मालिकों और कर्मचारियों को महिला की वह फोटो दिखाई कि कहीं यह उन के शोरूम में खरीदारी करने तो नहीं आती थी या यह उन की ग्राहक तो नहीं है. इस मामले में पुलिस टीम को तब निराश होना पड़ा, जब सभी ने कहा कि इनकार कर दिया. एक फोटो के आधार पर किसी को खोज निकालना पुलिस के लिए आसान नहीं था. लेकिन इंसपेक्टर जगदीश सइल की टीम ने इस नामुमकिन काम को मुमकिन कर दिखाया.

मोबाइल नंबर हो तो पुलिस उसे सर्विलांस पर लगा कर अपराधी तक पहुंच जाती है, पर यहां तो महिला का नंबर ही नहीं था.अब पुलिस को उस के मोबाइल नंबर पता करना था, जो बहुत मुश्किल काम था. पर पुलिस ने इस मुश्किल काम को आखिर कर ही दिखाया.

जगदीश सइल की टीम ने इस के लिए चोरी के समय दोनों मौलों में जितने भी मोबाइल नंबर सक्रिय थे, सारे नंबर निकलवाए. इस के बाद पूरी टीम ने नंबर खंगालने शुरू किए.

काफी मशक्कत के बाद इन नंबरों में एक नंबर ऐसा मिला, जो दोनों मौलों में चोरी होने के समय सक्रिय था. बाकी कोई भी नंबर ऐसा नहीं था, जो दोनों मौलों में चोरी के समय सक्रिय रहा हो.

पुलिस को उस नंबर पर शक हुआ तो पुलिस ने उस नंबर के बारे पता लगाना शुरू किया. नंबर मिलने के बाद पता लगाना मुश्किल नहीं था. जिस कंपनी का नंबर था, उस कंपनी से नंबर के मालिक के बारे में तो जानकारी मिल ही गई, उस का पताठिकाना भी मिल गया. पुलिस को मिली जानकारी के अनुसार वह नंबर बेंगलुरु की रहने वाली मुनमुन हुसैन का था.

मामला एक महिला से जुड़ा था, इसलिए पुलिस जल्दबाजी में कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती थी, जिस से बाद में बदनामी हो. इसलिए पुलिस पहले उस महिला के बारे में सारी जानकारी जुटा कर पूरी तरह संतुष्ट हो जाना चाहती थी कि वारदातें इसी महिला द्वारा की गई हैं या नहीं.

इस के लिए जगदीश सइल ने सीसीटीवी फुटेज में मिली फोटो, फोन नंबर और कंपनी द्वारा मिला पता बेंगलुरु पुलिस को भेज कर उस के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त की. पता चला कि महिला संदिग्ध लगती है. इस के बाद मुंबई पुलिस ने बेंगलुरु जा कर वहां की पुलिस की मदद से उस महिला को गिरफ्तार कर लिया.  मुंबई ला कर उस महिला से विस्तार से पूछताछ की गई तो पता चला कि सारी चोरियां उसी ने की थीं. इस के बाद उस ने अपनी जो कहानी बताई, वह इस प्रकार थी.

46 वर्षीय मुनमुन हुसैन उर्फ अर्चना बरुआ उर्फ निक्की मूलरूप से मध्य कोलकाता के तालतला की रहने वाली थी. उस का असली नाम अर्चना बरुआ है. वह पढ़नेलिखने में तो ठीकठाक थी ही, साथ ही सुंदर भी थी. उस की कदकाठी जैसे सांचे में ढली हुई थी. इसलिए उस ने सोचा कि क्यों न वह मौडलिंग में अपना कैरियर बनाए.

काफी कोशिश के बाद भी जब उसे मौडलिंग का कोई काम नहीं मिला तो उस ने एक ब्यटूपार्लर में काम सीखा और वहीं नौकरी करने लगी.वहां वेतन इतना नहीं मिलता था कि उस के खर्चे पूरे होते, इसलिए अपने खर्चे पूरे करने के लिए उस ने सब की नजरें बचा कर ब्यूटीपार्लर में आने वाली महिलाओं के पर्स से रुपए चोरी करने शुरू कर दिए.

इस में वह सफल रही तो उस ने बाहर चोरी करने का विचार किया. पर इस में वह पहली बार में ही पकड़ी गई. वह दक्षिण कोलकाता के भवानीपुर स्थित एल्गिन शौपिंग मौल में मोबाइल फोन और सौंदर्य प्रसाधन का सामान चोरी कर रही थी कि किसी सेल्समैन की नजर उस पर पड़ गई और वह पकड़ी गई.

इस के बाद उस ने एक बार और प्रयास किया. इस बार भी वह पकड़ी गई तो अखबारों में उस की फोटो छप गई, जिस से वह काफी बदनाम हो गई थी. इस के अलावा पुलिस भी उस के पीछे पड़ गई थी, जिस से उसे कोलकाता छोड़ना पड़ा.

अर्चना कोलकाता छोड़ कर मुंबई आ गई. वह एक अच्छी मौडल बनना चाहती थी, इसलिए मुंबई आ कर एक बार फिर उस ने मौडलिंग के क्षेत्र में भाग्य आजमाने की कोशिश की. वह मौडल बन कर नाम और शोहरत कमाना चाहती थी.

अपना भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिए अर्चना मुंबई में जीजान से कोशिश करने लगी. पर मुंबई तो मायानगरी है. यह मोह तो सभी को लेती है, पर जरूरी नहीं कि यहां आने वाले हर किसी का भाग्य बदल जाए. जिस का भाग्य बदल देती है, वह तो आसमान में उड़ने लगता है, बाकी यहां तमाम लोग ऐसे भी हैं, जो स्ट्रगल करते हुए अपनी जिंदगी बरबाद कर लेते हैं.

ऐसा ही कुछ अर्चना के साथ भी हुआ. चाहती तो थी वह मौडल बनना, पर समय ने उस का साथ नहीं दिया और काम की तलाश करतेकरते एक दिन ऐसा आ गया कि उस के भूखों मरने की नौबत आ गई. उस के लिए अच्छा यह था कि उस का गला सुरीला था और वह अच्छा गा लेती थी.

अर्चना को जब कहीं कोई काम नहीं मिला तो वह बीयर बार में गाने लगी. यहां उस ने अपना नाम निक्की रख लिया. निक्की के नाम से अर्चना पेट भरने के लिए बार में गाती तो थी, पर उसे यह काम पसंद नहीं आया.

फिर वह अपना भाग्य आजमाने बेंगलुरु चली गई. वह गाती तो अच्छा थी ही, इसलिए वह वहां एक आर्केस्टा के साथ जुड़ गई. उसे ब्यूटीपार्लर का भी काम आता था, इसलिए एक ब्यूटीपार्लर में भी काम करने लगी. यहां उस ने अपना नाम मुनमुन हुसैन रख लिया था.

ब्यूटीपार्लर में काम करते हुए और स्टेज पर अंग प्रदर्शन करते हुए उसे लगा कि आखिर इस तरह वह कब तक भटकती रहेगी. उसे एक जीवनसाथी की जरूरत महसूस होने लगी थी, जो उसे प्यार भी करे और जीवन में ठहराव के साथ सहारा भी दे. वह अकेली अपनी जिम्मेदारी उठातेउठाते थक गई थी.

अर्चना बरुआ उर्फ निक्की उर्फ मुनमुन हुसैन ने जीवनसाथी की तलाश शुरू की तो जल्दी ही उसे इस काम में सफलता मिल गई. वह सुंदर तो थी ही. आर्केस्ट्रा के किसी प्रोग्राम में उसे देख कर एक व्यवसाई का दिल उस पर आ गया.

मुनमुन को एक प्रेमी की तलाश थी ही, जो उस का जीवनसाथी बन सके. उस ने उस व्यवसाई को अपने प्रेमजाल फांस कर उस से शादी कर ली. जल्दी ही वह एक बेटी की मां भी बन गई. पर जल्दी ही बेटी और शादी, दोनोें ही मुनमुन को बोझ लगने लगी. क्योंकि इस से उस की आजादी और मौजमस्ती दोनों ही छिन गई थीं.

बेटी की देखभाल करना और उस के लिए दिन भर घर में कैद रहना उस के वश में नहीं था. वह बेटी की देखभाल उस तरह नहीं कर रही थी, जिस तरह एक मां अपने बच्चे की करती है. यह बात उस के व्यवसाई पति को अच्छी नहीं लगी तो वह मुनमुन पर अंकुश लगाने लगा.

मुनमुन हमेशा अपना जीवन आजादी के साथ जिया था. पति की रोकटोक उसे अच्छी नहीं लगी. एक तो बेटी के पैदा होने से वैसे ही उस की आजादी छिन गई थी, दूसरे अब पति भी उस पर रोकटोक लगाने लगा था.

उसे यह सब रास नहीं आया तो वह पति से अलग हो गई. पति से तलाक होने के बाद एक बार फिर मुनमुन रोजीरोटी के लिए ब्यूटीपार्लर में काम करने के साथ आर्केस्ट्रा में गाने लगी. मुनमुन के खर्चे भी बढ़ गए थे और आगे की जिंदगी यानी भविष्य के लिए भी वह कुछ करना चाहती थी.

इन दोनों कामों से वह जो कमाती थी, इस से किसी तरह उस का खर्च ही पूरा हो पाता था. भविष्य की चिंता में उस ने एक बार फिर चोरी करनी शुरू कर दी. क्योंकि चोरी करने का उसे पहले से ही अभ्यास था.जिस ब्यूटीपार्लर में वह काम करती थी, उस ने वहीं से चोरी करना शुरू किया. उस के बाद तो मुनमुन होटल, मौल और विवाहस्थलों तथा शादी वाले घरों में जा कर चोरी करने लगी. ब्यूटीपार्लर मे चोरी करने पर वह पकड़ी नहीं गई थी, इसलिए उस का हौसला बढ़ गया था.

जैसेजैसे वह चोरी करने में सफलता प्राप्त करती गई, वैसेवैसे उस की हिम्मत बढ़ती गई. बस फिर क्या था, आर्केस्ट्रा में काम करने के साथसाथ उस ने चोरी को भी अपना व्यवसाय बना लिया.

क्योंकि पहली चोरी में ही उस के हाथ 10 लाख रुपए से ज्यादा का माल लग गया गया था. कोलकाता में कई बार पकड़ी जाने की वजह से उसे कोलकता छोड़ना पड़ा था, इसलिए उस ने तय किया कि वह बेंगलुरु में चोरी नहीं करेगी.

वह बेंगलुरु में चोरी करने के बजाए अन्य महानगरों में जा कर चोरी करेगी. इसी के साथ मुनमुन ने यह भी योजना बनाई कि वह सुबह जाएगी और दिन में चोरी कर के शाम तक वह शहर छोड़ देगी.

पूरी योजना बना कर मुनमन हाईप्रोफाइल महिला बन कर हवाई जहाज से अन्य शहरों में जा कर चोरियां करने लगी. वह सुबह मुंबई या हैदराबाद हवाई जहाज से जाती और किसी शोरूम या किसी बड़े होटल में किसी को अपना शिकार बना कर रात तक बेंगलुरु के अपने घर वापस आ जाती.

अब तक पुलिस के सामने उस ने 9 चोरियों का खुलासा किया है. वह जब भी चोरी करती थी, कम से कम 10 लाख का माल तो होता ही था. वह 10 से 20 लाख के बीच ही चोरी करती थी. चोरी से ही उस ने करोड़ों की संपत्ति बना ली थी.

मुनमुन द्वारा चोरी किए गए गहने नए होते थे, इसलिए अगर वह उन्हें बेचने जाती तो दुकानदार को उस पर शक हो सकता था. वह उस से हजार सवाल करता. संभव था पुलिस को भी सूचना दे देता.

इसलिए उस ने इस से बचने का तरीका यह निकाला कि वह गहने बेचने के बजाय अपने घर में किसी को कोई बड़ी बीमारी होने का बहाना बना कर वह उन्हें गिरवी रख कर बदले में मोटी रकम ले लेती थी. इस के बाद वह उस के पास उन्हें कभी वापस लेने नहीं जाती थी.

अपराध शाखा पुलिस ने पूछताछ और साक्ष्य जुटा कर मुनमुन हुसैन उर्फ अर्चना बरुआ उर्फ निक्की को थाना एनएम जोशी मार्ग पुलिस को सौंप दिया.

थाना पुलिस ने अपनी काररवाई पूरी कर मुनमुन को अदालत में पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. पुलिस को मुनमुन हुसैन के पास से 15 लाख रुपए के गहने भी बरामद हुए थे.

आईना -भाग 3 : गरिमा की मां उसकी गृहस्थी क्यों बिखरने में लगी हुई थी

‘‘आईएएस की ट्रेनिंग के दौरान मु झे आदर्श मिले, जो सिर्फ नाम के ही नहीं विचारों के भी आदर्श हैं. आदर्श को जीवनसाथी में रूप की नहीं, गुणों की तलाश थी और हम परिणयसूत्र में बंध गए. ससुराल जाते हुए मैं बहुत आशंकित थी लेकिन मेरी सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं. ससुराल में सब ने मेरा खुलेमन से स्वागत किया. मेरा ससुराल सचमुच ‘घर’ था, जहां सब को एकदूसरे की भावनाओं का खयाल था. मेरी छोटीछोटी बातों की तारीफ होती. मैं किसी को रूमाल भी ला कर देती तो वे लोग एकदम खिल जाते. वे कहीं भी जाते तो मेरे लिए कुछ न कुछ जरूर लाते. तब मु झे अपने भाईबहन याद आते, जो सिर्फ अधिकार से लेना जानते हैं.’’

‘‘गरिमा, वे तुम से छोटे हैं,’’ मम्मी ने उन का पक्ष लेते हुए कहा.

‘‘मम्मी, आप ने हमेशा उन का पक्ष लिया है. इसीलिए वे जिद्दी हो गए हैं. मां होने का अर्थ हमेशा बच्चों की कमी पर परदा डालना नहीं होता बल्कि उन्हें सही राह दिखाना होता है. मम्मी, वे यदि छोटे हैं तो भैरवी भी तो छोटी ही है, लेकिन उस ने मु झे सही अर्थों में छोटी बहन का प्यार दिया. प्यार शब्द का अर्थ मैं ने इस परिवार में आ कर जाना है. प्यार में कोई लेनदेन नहीं होता, बस, प्यार होता है. बिना मेरी कमियों की तरफ इशारा किए भैरवी ने मेरे बालों की स्टाइल, मेरा पहनावा सब बदलवा दिया. मैं इस नई स्टाइल में काफी स्मार्ट लगने लगी जिस से मु झे मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास वापस मिला. मैं भैरवी की आभारी हूं. उस के लिए कुछ भी करने का मेरा मन करता है. जितना सामान मैं भैरवी को दे रही हूं, इस से कहीं ज्यादा ही वह बेटे के होने पर लाई थी और ग्लोरी के लिए मैं ने क्या नहीं किया और वह क्या लाई थी, आप से छिपा नहीं है,’’ मैं ने शिकायती अंदाज में कहा.

‘‘गरिमा…’’ मम्मी बोलीं.

‘‘नहीं मम्मी, मु झे गलत मत सम िझए. मैं नहीं चाहती कि ग्लोरी मु झे कुछ दे, लेकिन ग्लोरी को देना सिखाइए. उस की सुखी गृहस्थी के लिए यह जरूरी है,’’ मैं ने कहा.

‘‘मु झे आज पता चला तुम अपने दिल में अंदर ही अंदर इतना कुछ छिपाए हुए थीं. आज अचानक तुम्हारे दर्द की परतें खुलने लगीं तो मैं…’’ मम्मी बोलीं.

मम्मी की बात बीच में काटते हुए मैं बोली, ‘‘मेरा छोडि़ए, मम्मी, जो अकेला बीता, वह मेरा बचपन था और वह बीत चुका है. मेरा वर्तमान खुशियों से भरा है. मेरा दांपत्य बहुत सुखी है और आज आप को अपनी गृहस्थी में दखल देने से पहले ही रोक कर मैं ने बिखराव की पहली आहट पर ही विवेक का पहरा बिठा दिया है. ग्लोरी यही नहीं कर सकी है,’’ मैं ने कहा.

‘‘मतलब… गरिमा, साफसाफ कहो, क्या कहना चाह रही हो तुम. मु झे तुम्हारी बात सम झ में नहीं आई. मैं ग्लोरी के लिए बहुत चिंतित हूं,’’ मम्मी ने कहा.

मेरी छोटी बहन के प्रति उन की ममता उमड़ रही थी. ग्लोरी के लिए उन का चिंतित होना बहुत ही स्वाभाविक था. अब उन की आंखों में अपरिचित सा भाव दिखाई दे रहा था.

अतीत चलचित्र सा मेरे मानस पटल पर उभर रहा था. परिवार की सब से छोटी, सब की लाड़ली बेटी ग्लोरी का हित मम्मी के लिए सदैव सर्वोपरि रहा है.

 

पापा के गहरे मित्र ने अपने बड़े बेटे, अक्षय का रिश्ता मेरे लिए भेजा था. दहेज विरोधी इतना संपन्न परिवार, उस पर प्रोबेशनरी अफसर लड़का. बस, मम्मी की दुनियादारी का ज्ञान उन की कोमल भावनाओं पर हावी हो गया और मम्मी ने यह रिश्ता ग्लोरी के लिए तय कर लिया. पापा के अलावा और किसी ने कोई विरोध नहीं किया. हमेशा की तरह पापा  झुक गए और बड़ी के कुंआरी रहते छोटी बेटी का ब्याह हो गया. ससुराल से लौटी ग्लोरी अपनी कुंआरी बड़ी बहन की भावनाओं को सम झे बिना अपने वैवाहिक जीवन के खट्टेमीठे अनुभव सुनाती रही.

ग्लोरी की कोई गलती नहीं थी. उस ने दूसरे की भावनाओं को सम झना सीखा ही नहीं था और न ही उसे सिखाया गया.

‘‘गरिमा, गरिमा, क्या कह रही थीं तुम? एकदम चुप क्यों हो गईं?’’  मम्मी के टोकने से मैं फिर वर्तमान में लौट आई.

‘‘मम्मी, दूसरे की भावना को सम झना हर ब्याही लड़की के लिए बहुत जरूरी होता है. हरेक को पापा जैसा सहनशील पति और परिवार नहीं मिलता. दूसरे की भावना को सम झे बिना ससुराल में कोई भी लड़की तालमेल नहीं बिठा सकती. अब से ही सही, ग्लोरी को सही राह दिखाइए,’’ मैं ने मम्मी से कहा.

मौन हुई मम्मी मेरी तरफ देख रही थीं. शायद वे मेरी बातों की सचाई तोल रही थीं.

‘‘मम्मी,’’ मैं फिर बोली.

‘‘हां,’’ मम्मी का स्वर बहुत धीमा था.

‘‘मम्मी, याद है आप को जब हम लोग पहली बार ग्लोरी के घर गए थे. कितना दौड़दौड़ कर वह सब काम कर रही थी और कितना खुश थी, लेकिन एकांत मिलते ही आप ने उसे सम झाया था… ‘ग्लोरी, सारा काम तुम ही करोगी क्या? अपनी ननद को भी करने दो. और साड़ी के पल्ले को पिन से बालों में क्यों रोक रखा है? अरे, पल्ला सिर से गिरता है तो गिरने दो. अभी से अपने पैर जमाना स्टार्ट करो. नहीं तो बहू के बजाय नौकरानी बन कर रह जाओगी, मैं ने मम्मी को याद दिलाते हुए कहा.

 

सिर हिलाती हुई मम्मी बोलीं, ‘‘याद है, सब याद है, लेकिन लाख सम झाने पर भी ग्लोरी कहां कुछ कर पाई. रोजरोज की खिटखिट से बेचारी परेशान रहती है. सम झ में नहीं आता, उस के लिए क्या करूं. अक्षय है कि अलग रहने के लिए तैयार ही नहीं है,’’ मम्मी के स्वर में ग्लोरी के प्रति गहरी हमदर्दी थी.

‘‘मम्मी, आप की उस दिन की वह सलाह ग्लोरी के परिवार के बिखराब की पहली दस्तक थी, जिस की आहट ग्लोरी नहीं सुन सकी थी,’’ मैं ने कहा.

‘‘क्या…?’’ मम्मी फटीफटी आंखों से मेरी तरफ देख रही थीं.

‘‘मम्मी, जब किसी परिवार में कोई बाहरी व्यक्ति दखल देने लगता है तो उसी पल उस परिवार का बिखराव तय हो जाता है,’’ मैं ने मम्मी को सम झाते हुए कहा.

‘‘बाहरी? मैं, मैं ग्लोरी के लिए बाहरी व्यक्ति हो गई?’’ मम्मी चौंक कर बोलीं.

‘‘हां, मम्मी. यही कड़वी सचाई है, इसे स्वीकार कीजिए. देखिए, ग्लोरी का घरपरिवार वही है, ग्लोरी वहां रह रही है और वही बेहतर सम झ सकती है, उसे वहां कैसे रहना चाहिए. परंतु वह अपने विवेक से नहीं, आप के बताए रास्ते पर चलती है. इसीलिए अपनी शादी के 4 साल बाद भी वह अपने परिवार को पूरी तरह अपना नहीं पाई है.’’

कुछ पल के मौन के बाद मम्मी बोलीं तो उन की आंखें नम हो आई थीं, ‘‘ग्लोरी बहुत भोली है, वह कुछ सम झ नहीं पाती.’’

‘‘मम्मी, आप उस का भला चाहती हैं तो उसे उस के हाल पर छोड़ दीजिए. अक्षय हैं न उसे राह दिखाने के लिए. मम्मी, अक्षय अच्छा लड़का है और सब से बड़ी बात यह है कि वह ग्लोरी को बहुत प्यार करता है. एक बार उसे उस के हाल पर छोड़ कर देखिए.’’

‘‘शायद तुम ठीक कह रही हो. मैं  तो उस का…’’ कहतेकहते गला भर  आया था. उन की आंखों से गरम  आंसू टपक पड़े.

‘‘मम्मी, मु झे माफ कर दीजिए, मैं बहुत ज्यादा बोल गई. मैं आप को दुखी नहीं करना चाहती थी,’’ कहते हुए मेरा भी गला भर आया था.

मम्मी ने आगे बढ़ कर मु झे सीने से लगा कर कहा, ‘‘नहीं  गरिमा, आज तुम ने मु झे सही आईना दिखाया है. मैं ने कभी इस नजरिए से नहीं सोचा था.’’

जाने कब तक हम मांबेटी एकदूसरे से लिपटी आंसू बहाती रहीं. दिल के तार दिल से जुड़ते गए और उस खारे जल के साथ मन की परतों में छिपे सारे गिलेशिकवे बह गए.

अब मन का आईना धुल कर चांदी सा चमकने लगा था मानो नवप्रभात के आगमन की सूचना दे रहा हो.          द्य

मैं ने मम्मी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से बोली, ‘‘मम्मी, मु झे मालूम है मेरी बात आप को ठेस पहुंचा रही है. इस विषय को मैं ने हमेशा टालना चाहा है.’’

आईना -भाग 2 : गरिमा की मां उसकी गृहस्थी क्यों बिखरने में लगी हुई थी

‘‘क्या? ये सब, मतलब ये सारा सामान तुम भैरवी को देने के लिए लाई हो?’’ मम्मी की आंखें आश्चर्य से फटी रह गईं

‘‘हां, मम्मी, भैरवी की पहली संतान को आशीर्वाद देने जा रहे हैं हम लोग,’’  मैं ने कहा.

‘‘अरे, तू होश में तो है? इतने सारे कपड़े, 5 साडि़यां, रजाईगद्दा, चादर, खिलौने, क्या तू ने उस का पूरा ठेका ले रखा है? और, जरा सा बच्चा सोने की चेन का क्या करेगा?’’ फैली नजरों से मम्मी मु झे देख रही थीं.

‘‘मम्मी, कैसी बात कर रही हैं आप? भैरवी की यह पहली संतान है,’’ मैं ने कहा.

‘‘कैसा क्या? तेरे भले की बात कर रही हूं. पहला बच्चा है तो क्या, कोई अपना घर उजाड़ कर सामान देता है किसी को?’’ मम्मी ने कहा.

‘‘छोडि़ए मम्मी, जो आ गया सो आ गया,’’ कह कर मैं ने इस अप्रिय प्रसंग को खत्म करना चाहा.

‘‘छोडि़ए कैसे? तुम फुजूलखर्ची छोड़ो और ऐसा करो, बहुत मन है तो बच्चे के कपड़ों के साथ एक साड़ी और मिठाई दे दो, बाकी सब वापस रख दो. हो जाएगा शगुन,’’ कहते हुए मम्मी ने आदतन अपना हुक्म सुना दिया.

‘‘मम्मी, ग्लोरी के पहली बेटी होने पर लगभग इतना ही सामान भिजवाया था आप ने. तब मैं ट्रेनिंग में ही थी, पैसों की भी तंगी थी, परंतु उस समय आप को यह सब फुजूलखर्ची नहीं लगी थी,’’ मु झे अब गुस्सा आने लगा था.

‘‘ग्लोरी तेरी सगी बहन है, उसे दिया तो क्या, सभी को बांटती फिरोगी,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘भैरवी कोई गैर नहीं, मेरी सगी ननद है. जैसी ग्लोरी वैसी भैरवी,’’ मैं ने कहा.

‘‘बहन और ननद में कोई फर्क नहीं है क्या?’’ मम्मी भी गुस्से में आ गई थीं.

‘‘नहीं, कोई फर्क नहीं है. एक को मेरी मां ने जन्म दिया है तो दूसरी को मेरी सासुमां ने. एक ही प्यार का नाता है,’’ मैं बोली.

‘‘तेरा तो दिमाग खराब हो गया है, कोई फर्क नहीं दिखता,’’ मम्मी खी झ उठी थीं.

‘‘वैसे, फर्क तो है, मम्मी,’’ कुछ सोचती हुई मैं बोल पड़ी.

‘‘चलो, तुम्हारी सम झ में आया तो,’’ मम्मी खुश हो गईं.

‘‘भावना और परवरिश में फर्क है…’’ अभी मैं ने अपनी बात स्पष्ट करनी शुरू ही की थी कि रामू अदब से सामने आ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘मैडम, खाना लग गया है.’’

‘‘ठीक है, चलिए मम्मी, खाना खाते हैं. आप तो सुबह की निकली होंगी,’’ मैं उठते हुए बोली. इस अप्रिय संवाद के खत्म होने से मैं ने चैन की सांस ली.

‘‘हां, सुबह 6 बजे ही हम लोग कानपुर से चल दिए थे. सीधे मेरठ पहुंचे. 2 घंटे वहां लगे. 11 बजे मेरठ से चले और सीधे  झांसी,’’ कहते हुए मम्मी भी उठ खड़ी हुईं.

 

खाना खा कर हम दोनों पलंग पर लेट गईं. घरपरिवार का हालचाल बतातेबताते मम्मी अचानक बोल पड़ीं, ‘‘अरे  गरिमा, जो सामान वापस करना है, अपने ड्राइवर को बोल दो, वापस कर आएगा, नहीं तो तुम लोग 3 दिन के लिए चले जाओगे. इस दौरान शौपकीपर का सामान क्या पता बिक ही जाए. जब लेना नहीं है तो बेचारे का नुकसान क्यों कराया जाए.’’

‘‘कौन सा सामान?’’ कुछ सम झ नहीं सकी, लिहाजा मैं बोल पड़ी.

‘‘अरे, वही जो तुम भैरवी के लिए उठा लाई थीं,’’ मम्मी ने कहा.

‘‘मम्मी, क्यों वही बात फिर से शुरू कर रही हैं?’’ मेरे लहजे में शिकायत थी.

‘‘मतलब, तुम सामान वापस नहीं कर रही हो?’’ मम्मी अविश्वास से मेरी तरफ देख रही थीं.

‘‘नहीं, मम्मी, आप भला नहीं कर रही हैं. आप हमें स्वार्थी बनाने का प्रयास कर रही हैं,’’ मैं स्पष्ट शब्दों में बोल उठी.

‘‘गरिमा?’’ गुस्से से मम्मी की आवाज कांप गई.

मैं ने मम्मी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और धीरे से बोली, ‘‘मम्मी, मु झे मालूम है मेरी बात आप को ठेस पहुंचा रही है. इस विषय को मैं ने हमेशा टालना चाहा है. जब तक बात मेरे तक थी, मैं ने कोई विरोध नहीं किया, अपनेआप में सिमटती चली गई. लेकिन आप की दखल का असर अब हमारी गृहस्थी में भी होने लगा है. ग्लोरी का बिखरता दांपत्य आप की ऐसी सीखों का ही नतीजा है. अभी भी समय है मम्मी, खुद को रोक लीजिए. आप ने तो समाज सुधार का बीड़ा उठा रखा है. फिर अपनी बेटियों का घर क्यों…’’

 

मेरी बात बीच में काटती हुई मम्मी मेरा हाथ  झटक कर बैठ गईं और गुस्से से बोलीं, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो? मेरी फूल जैसी ग्लोरी को वे लोग सुखी नहीं रख रहे हैं और उस के

लिए दोषी मैं हूं? मैं तुम लोगों को स्वार्थी बना रही हूं? मैं तुम लोगों का भला नहीं चाहती? और तेरे साथ मैं ने क्या किया जो तू चली गई? पढ़ालिखा कर प्रशासनिक अधिकारी बना दिया, यही न? आज सीडीओ बनी सब पर रोब  झाड़ती घूम रही है. हमेशा की डरीसहमी रहने वाली लड़की, आज मां से ही जवाबसवाल कर रही है,’’ मम्मी की आंखें अंगारे बरसा रही थीं.

‘‘मम्मी, प्लीज, शांत हो कर मेरी बात सुनिए,’’ मैं ने नरम पड़ते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अभी भी सुनने को कुछ रह गया है क्या?’’  मम्मी  झल्लाईं.

‘‘प्लीज मम्मी, मु झे मालूम है आप हमारा बुरा नहीं चाहतीं. अपनी लाड़ली ग्लोरी का बुरा तो आप सोच भी नहीं सकतीं किंतु अनजाने में ही आप भले के चक्कर में ऐसा कुछ कर जाती हैं जो आप के न चाहते हुए भी आप की संतान का बुरा कर बैठता है. मेरे और ग्लोरी के सुखी भविष्य के लिए मेरी बात सुन लीजिए,’’ मैं ने उन्हें सम झाते हुए कहा.

शायद मेरी बात मम्मी को कुछ सम झ आ रही थी या फिर ग्लोरी की बिखरती गृहस्थी को संवारने की इच्छा से मम्मी मेरी बात सुनने को तैयार हो गई थीं, मैं सम झ नहीं पा रही थी कि उन नजरों में क्या था.

‘‘क्या कहना चाहती हो, बोलो,’’ मम्मी के सपाट शब्दों में कोई भाव नहीं था.

मैं दुविधा में थी. मम्मी अपलक मेरी ओर देख रही थीं. थोड़ी देर हमारे बीच खामोशी पसरी रही, फिर मैं ने बोलना शुरू किया, ‘‘मेरी बात का गलत अर्थ मत लगाइएगा, मम्मी.’’

‘‘हां, बोलो,’’ मम्मी की तटस्थता बरकरार थी.

‘‘मम्मी, अभी आप ने मु झे बहन और ननद में फर्क करने की सलाह दी थी जिसे मैं ने मानने से मना कर दिया, क्योंकि निश्च्छल और निस्वार्थ प्यार क्या होता है, मैं ने अपनी शादी के बाद ही जाना है. पति का प्यार ही नहीं, मां का प्यार, बहन का प्यार…’’ मैं कहती चली गई.

‘‘अरे, हम प्यार नहीं करते क्या?’’ मम्मी की तटस्थता टूटी. उन के स्वर में आश्चर्य था.

‘‘जरूर करती हैं, लेकिन ग्लोरी और भैया से कम. मैं बचपन से ही काली व मोटी जो रही हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘हां, लेकिन आप तीनों के व्यवहार से मेरी कुरुपता मु झ पर हावी होती गई. नतीजतन, मैं हीनभावना से घिरती गई. किसी से बात करने का आत्मविश्वास मु झ में नहीं रहा,’’ मैं ने मम्मी से अपने मन की हकीकत बयान की.

‘‘अरे, कैसी बात कर रही हो? ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ,’’  मम्मी बोलीं.

 

लेकिन अतीत की कसैली यादें मु झ पर हावी थीं. मैं अपनी ही रौ में बोले जा रही थी, ‘‘मम्मी, याद है मैं जब हाईस्कूल में थी, स्कूल में हमारी फेयरवैल पार्टी थी. मैं बहुत उत्साहित थी. आप की एक साड़ी मैं ने उस खास मौके पर पहनने के लिए कई दिनों पहले से अलग निकाल रखी थी. उस दिन जब मैं ने उसे पहनने के लिए निकाला तो ग्लोरी ने टोका था, ‘दीदी, तुम दूसरी साड़ी पहन लो. यह साड़ी मैं परसों पिकनिक में पहन कर जाऊंगी.’

‘नहीं, आज तो मैं यही साड़ी पहनूंगी. इतने दिनों से मैं ने इसे तैयार कर के रखा है. तुम्हें पहनना है तो तुम भी पहन लेना. मैं इसे गंदा नहीं करूंगी,’  मैं ने भी जिद की थी.

‘दीदी, तुम जो कुछ भी पहनती हो, कोई भी रंग तुम्हारे ऊपर खिलता तो है नहीं, बेकार की जिद मत करो,’ कहते हुए ग्लोरी ने साड़ी मेरे हाथ से ले ली थी. मैं खड़ी की खड़ी रह गई थी.

‘‘मम्मी, आप के सामने ग्लोरी मु झे इस तरह अप्रिय शब्दों में अपमानित कर के चली गई और आप कुछ नहीं बोली थीं.’’

‘‘अरे, तुम इतनी छोटी सी बात अब तक दिल से लगाए बैठी हो, गरिमा?’’ मम्मी अचंभित सी मु झे देख रही थीं.

‘‘यह आप के लिए छोटी घटना होगी मम्मी, लेकिन उस दिन के बाद से मैं ने कभी भी ग्लोरी और भैया की बराबरी नहीं की. मैं सब से कटती चली गई. अपने रंगरूप के कारण जो आत्मविश्वास मैं ने खो दिया था वह मु झे वापस मिला अपनी शादी के बाद.

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