दरअसल एमएसपी पर सरकार जो टालमटोल कर रही है, उसके पीछे खाद्य सुरक्षा कानून है. इस कानून के चलते देश में जो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम लागू है, उसे सरकार अब ज्यादा दिनों तक नहीं चलाना चाहती. क्योंकि डब्ल्यूटीओ का सरकार पर इसे जल्द से जल्द बंद करने का दबाव है. गौरतलब है कि खाद्य सुरक्षा कानून के चलते सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जो अनाज वितरित किया जाता है, उससे 80.55 करोड़ लोगों का पेट भरता है. साल 2014-15 में सरकार ने इसके लिए 1.13 लाख करोड़ रुपये खर्च किये थे. साल 2015-16 में यह बढ़कर 1.35 लाख करोड़ रुपये हो गये. लेकिन साल 2016-17 मंे जब सरकार पर डब्ल्यूटीओ ने भारी भरकम दबाव डाला तो इसे घटाकर 1.05 लाख करोड़ रुपये कर दिया गया. जो कि 2014-15 की सब्सिडी से भी 8 हजार करोड़ रुपये कम था. जबकि 2016-17 में खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में पूरा देश आ गया था और 2014-15 में करीब 80 फीसदी देश ही शामिल था.
सवाल है यह कैसे संभव हुआ? इसके लिए सरकार ने चुपके से एक कदम उठाया. चंडीगढ़ और पुड्डुचेरी जो कि दोनो ही केंद्रशासित प्रदेश हैं, यहां पीडीएस के तहत खाद्य वितरण बंद कर दिया गया और इसके लाभार्थियों को उनके खाते में नगद पैसे दे दिये गये. अब सरकार डब्ल्यूटीओ के दबाव में यही तरीका पूरे देश में अपनाना चाहती है और जो पैसा खाद्य सुरक्षा में खर्च होता है, उस पैसे को लोगों के सीधे एकाउंट में भेजना चाहती है. क्योंकि डब्ल्यूटीओ सब्सिडी का विरोधी नहीं है, वह सिर्फ यह चाहता है कि खाद्य सब्सिडी बंद की जाये और ग्रीन बाॅक्स सब्सिडी बढ़ायी जाए यानी लोगों को सीधे नगद पैसा दिया जाए. यही नहीं डब्ल्यूटीओ के नियमों के मुताबिक कोई भी देश अपने कुल खाद्यान्न उत्पादों के कुल मूल्य का महज 10 फीसदी खाद्य सब्सिडी के रूप में खर्च कर सकता है. लेकिन यहां पर भी एक झोल है. डब्ल्यूटीओ साल 1986-88 के मूल्यों को लेकर गणना करता है.
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दिसंबर 2017 में इसके संबंध में विश्व व्यापार संगठन का 11वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन अर्जेंटीना के शहर ब्यूनसआयर्स मंे हुआ था. उस समय के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री सुरेश प्रभु ने न सिर्फ भारत के सामाजिक सरोकार के मुद्दे को इस बैठक में जोरदार ढंग से उठाया था बल्कि उन्हें जी-33 समूह के देशों का भरपूर सहयोग भी मिला था. मालूम हो कि जी-33 के देशों में, जी-8 और जी-20 से इतर भारत जैसी अर्थव्यवस्था वाले दूसरे विकासशील देश भी शामिल हैं, जिनके यहां किसानी महज कारोबार नहीं जीवनयापन का पेशा है. सुरेश प्रभु ने तब जोरदार ढंग से यही बात कही थी जिससे विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक राॅबर्ट एजवेडो न सिर्फ बुरी तरह से नाराज हो गये थे बल्कि उनकी इस नाराजगी के चलते अंततः यह बैठक ही असफल हो गई थी. भारत का साथ दूसरे विकासशील देशांे ने भी पूरी दृढ़ता से दिया था. जबकि अमरीका जिसने पहले खाद्य सुरक्षा के मसले पर स्थायी समाधान ढूंढ़े जाने तक ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन देने की बात कही थी, वह अपने वायदे से मुकर गया, जिससे 164 देशों के इस संगठन का 11वां सम्मेलन बिना किसी नतीजे के खत्म हो गया.
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इसके पहले भारत ने दिसंबर 2013 में बाली (इंडोनेशिया) में और दिसंबर 2015 में नैरोबी (केन्या) में भी जोरदार ढंग से कहा था कि भारत जैसे विकासशील कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं में कृषि जीवन का माध्यम है, जहां खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने और गरीबी हटाने के लिए कृषि क्षेत्र में विकास और राजकीय मदद की जरूरत है. अतः डब्ल्यूटीओ को इस नजरिये का सम्मान करना चाहिए. लेकिन लगातार कृषि सब्सिडी को कम करने और खत्म करने पर अड़ा डब्ल्यूटीओ तो अपनी बात से नहीं हटा, लेकिन भारत के पैर धीरे धीरे उखड़ने लगे हैं. तभी तो साल 2017-18 में चुपके से चंडीगढ़ और पुड्डुचेरी के 8.57 लाख पीडीएस हितग्राहियों को खाद्यान्न देने की बजाय चुपचाप उनके खातों में पैसे दिये जाने शुरु कर दिये गये और अब पूरे देश में नगद राशि हस्तांतरण करने की योजना बनायी जा रही है; क्योंकि डब्ल्यूटीओ ऐसा ही चाहता है.
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आप सोच रहे होंगे तो इसमें नुकसान क्या है? इसमें बड़ा नुकसान यह है कि जो पैसा लाभार्थियों को नगद दिया जाता है, वह पैसा उस मद में पूरा खर्च नहीं होता, जिस मद के लिए दिया गया होता है. जब अनाज के बदले लोगों को नगद पैसा दिया जायेगा, तो वह महज 40-50 प्रतिशत ही अनाज खरीदने में खर्च होगा बाकी गैर खाद्य जरूरतों पर खर्च होगा. आप फिर सवाल कर सकते हैं तो इसमें भी क्या गलत है? अगर लोगों को खाद्य की जरूरत होगी तो वह खरीदेंगे. नहीं ऐसा देखा गया है कि जब नगद पैसा मुखिया के एकाउंट में आता है तो वह मुखिया की प्राथमिकताओं के हिसाब से खर्च होता है. इसमें उन छोटे बच्चों और महिलाओं की प्राथमिकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता, जो मुखिया के निर्णय को प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखते. इसे सिर्फ इस खाद्य सुरक्षा से ही न देखें देश में अब तक हुए कई पुनर्वास कार्यक्रमों में भी देखा जा सकता है. सरदार सरोवर बांध बनाने के चलते विस्थापित हुए लोगों को जो नगद सहायता राशि मिली, वह पुनर्बसाहट से कहीं ज्यादा मोटरसाइकिलें खरीदने में और शराब पीने में खर्च हुई. इसलिए खाद्य सुरक्षा की जगह नगद पैसे देना सामाजिक विकृति को बढ़ाना है, लेकिन इसमें बाजार का फायदा होता है और डब्ल्यूटीओ बाजार का हित संरक्षक है तो वह चाहता है कि ज्यादा से ज्यादा सहायताएं नगद दी जाएं तो लोग उन्हें बाजार में खरीदारी के लिए खर्च करें. वास्तव में सरकार पर यही दबाव है जिसके चलते वह एमएसपी पर कोई कानूनी गारंटी नहीं देना चाहती.