भारत सरकार आजकल एक मुख्य नीति पर काम करती है. वह आम जनता से कहती है कि तुम काम किए जाओ पर किंचित भी फलों की अपेक्षा न करो. फल तो हमारे लिए, सृष्टि चलाने वालों के लिए हैं. सो, सबकुछ हमारा है. हम तुम्हें जो दे दें, उसी में खुश रहो.भारत सरकार के गीता पढ़ने वाले कर्ताधर्ता यह देख कर अचंभित हो गए कि फल न मिलने के डर से 24 मार्च, 2020 को लौकडाउन घोषित होने पर कैसे मजदूर कर्म छोड़ कर अपने गांवों की ओर चल दिए. वैसे ही लाखों किसान खेतीकिसानी छोड़ दिल्ली की सीमाओं पर फल पाने के लिए स्वयंभू ‘मैं’ के खिलाफ मोरचा खोले डटे हैं.

देश की मौजूदा कट्टर धर्मवादी भाजपाई सरकार की नजर में तो यह हिंदू संस्कृति के विरुद्ध है और जो गीता के कर्मवाद के सिद्धांत को नहीं मानता उसे न हिंदू कहलाने का हक है न भारतीय. वह तो देशद्रोही है, धर्मद्रोही है, नक्सली है, माओवादी है, खालिस्तानी है.कई हजार वर्षों से गीता का पाठ पढ़ापढ़ा कर लूटने वाले खुद भी इस बात के कायल हैं कि जहां ज्यादा नागरिकों को बिना फल की आशा के कर्म करना चाहिए वहीं ‘कुछ को’ बिना कर्म के फल पाने का मौलिक अधिकार है. भाजपाई नेता, सरकारी अफसर, सांसद, मंत्री, पंडेपुजारी, इन के व्यापारी भक्त, धर्म व्यापारों को फैलाने में लगे वास्तुचार्य, आयुर्वेदाचार्य, योगाचार्य और विश्वविद्यालयों से प्राथमिक कक्षा तक के अध्यापक पठनपाठन कर के फल पाने के अधिकारी हैं.

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जबकि, कर्म करने वालों को बिना सोचेसमझे, बिना अर्जुन की तरह प्रश्न किए, गीतापाठ का अनुसरण करते रहना चाहिए और सेवा करने में जुटे रहना चाहिए.यदि खोजी, वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर, मैडिकल हैल्प देने वाले, मजदूर, सफाईकर्मी और औरतें भी किसानों की तरह अपने फल की मांग करने लगें तो हिंदू धर्म पर काला साया फिर पड़ सकता है. बड़ी मुश्किल से 2,500 वर्षों बाद आधे भारत पर (पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान को निकाल कर) पौराणिक व गीता राज स्थापित हुआ है. इसे कैसे हाथ से निकलने दें. किसानों के आंदोलन की जो चिंता नहीं की जा रही है उस का कारण यही है कि सेवकोंसेविकाओं का मर्म तो धर्म की घुट्टी पिए हुए है.

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