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अंधेरी आंखों के उजाले : मदन बाबू डाक बंगला क्यों जा रहे थे

खंभे की पच्चीकारी को जहां तक हाथ पहुंचता, छू कर देखते, एकदूसरे को बताते, फिर कहीं बातों मैं दूर बैठा उन्हें देख रहा था. जान गया कि वे दोनों अंधे हैं. एक तीव्र इच्छा यह जानने को जागी कि नेत्रहीन होते हुए भी इस दर्शनीय स्थल पर वे क्यों आए थे. सोच में डूबा मैं उन्हें देख रहा था.

घड़ी भर भी न बीता होगा कि बच्चों की चहक पर ध्यान चला गया. तीनों बच्चे उन दोनों के पास दौड़ कर आए थे. इसलिए थोड़ा हांफ रहे थे.

‘‘मां, चल कर देखो न, वहां पूरे मंदिर का छोटा सा एक मौडल रखा है. बिलकुल मेरी गुडि़या के घर जैसा है.’’

‘‘हांहां, बहुत अच्छा है,’’ मां ने हामी भरी.

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‘‘अच्छा है? पर आप ने देखा कहां? चल कर देखो न,’’ बच्चे मचल रहे थे.

वे दोनों अपने तीनों बच्चों को समेटे मंदिर के छोटे पर अत्यंत सुघड़ मौडल को देखने चल दिए.

पास बैठ कर दोनों ने मौडल को हर कोने से छू कर देखा. मैं ने देखा, उन दोनों के हाथों में उलझी थीं उन के बच्चों की उंगलियां.

देखने के इस क्रम में आंखों की जरूरत कहां थी. मन था, मन का विश्वास था, एकदूसरे को समझनेसमझाने की चाहत थी, उल्लास था, उत्साह था. कौन कहता है कि आंखें भी चाहिए. बिना आंखों के भी दुनिया का कितना सौंदर्य देखा जा सकता है. आंखों वाले मांबाप क्या अपने बच्चों को सामीप्य का इतना सुख दे पाते होंगे? इस तरह के विचार मेरे मन में आए जा रहे थे.

हंसतेबतियाते वे पांचों फिर मंदिर में इधरउधर टहलते रहे. 3 जोड़ी आंखों से पांचों निहारते रहे, फिर वहीं बैठ

कर उन्होंने अपने नन्हेमुन्नों को गोद में समेट लिया.

उन की अंधेरी आंखों में कितने उजाले थे. मेरा मन उन से मिलने को कर रहा था. मुझ से रहा नहीं गया तो उठ कर उन के पास चला आया.

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‘‘जी, नमस्ते,’’ और इस संबोधन को सुन कर अपने में डूबे वे दोनों चौंक गए.

‘‘पापा, कोई अंकल हैं, आप को नमस्ते कर रहे हैं,’’ एक बच्चे ने कहा.

‘‘हांहां समझा, कोई काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बस यों ही आप से बात करने का मन कर आया.’’

‘‘हम से क्यों? हम…मतलब कोई खास बात है क्या?’’

‘‘खास बात तो नहीं है, बस, थोड़ी देर आप से बात करना चाहता हूं.’’

एक तरफ को सरक कर उन्होंने मेरे लिए जगह बना दी.

‘‘रणकपुर देखने आए हैं?’’ अच्छी जगह है…मतलब बहुत सुंदर है… आप ने तो देखा?’’

अटपटा सा वार्त्तालाप. समझ नहीं पा रहा था कि सूत्र किधर से पकड़ूं. उन के बारे में जानने की उत्सुकता अधिक थी पर शब्द नदारद थे.

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‘‘हम दोनों जन्मजात अंधे हैं.’’

क्या प्रश्न था और क्या उत्तर आया. एकदम अचकचा गया. यही तो पूछना चाहता था. कैसे एकदम ठीक जान लिया इन लोगों ने.

‘‘पर यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि हमारे तीनों बच्चे स्वस्थ व संपूर्ण हैं. छोटे हैं पर सबकुछ समझते हैं. इन्हें शिकायत नहीं कि हम देख नहीं सकते. हमें दिखा देने की भरपूर कोशिश करते हैं. इसलिए कहा कि संपूर्ण हैं.’’

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‘‘आप की समझ बहुत अच्छी है वरना संपूर्ण का मतलब तो अच्छेअच्छे भी नहीं जानते.’’

‘‘ठीक कहा आप ने. पढ़ालिखा हूं, फैक्टरी में वरिष्ठ लिपिक हूं पर सच कहूं तो संपूर्ण होने का दावा करने वाली यह दुनिया… सच में बड़ी खोखली है. उस का बस चले तो मेरा यह आधार भी छीन ले.’’

कितना तल्ख स्वर हो आया उन का. चोट खाना और निरंतर खाते रहना हर किसी के बस का नहीं होता.

इतना स्नेहिल व्यक्तित्व अपनी दुनिया का सबकुछ था पर बाहर की दुनिया उसे कुछ न होने का एहसास हर पल कराती.

पत्नी का हाथ पति के कंधे तक आ गया. बच्चे उन के और करीब सिमट गए. एक अनकही सांत्वना के घेरे में वह सुरक्षित हो गए. मैं बाहर था, बाहर ही रह गया. बातचीत का सिल- सिला टूट गया. मैं फिर भी न जाने किस आशा में बैठा रहा. वे भी अपने में सिमटे गुम थे.

‘‘आप…’’ मैं ने पूछना चाहा.

‘‘महाशय, आज नहीं, फिर कभी… आज का दिन इन बच्चों का है.’’

प्रश्न अनुत्तरित रह गया. वे उठ गए. मंदिर में प्रसाद का प्रबंध हो रहा था. प्रसाद में पूरा खाना. पंगत में बैठे, खाना खाते वे परिवारजन अपने भीतर एक खुशी समाए हुए थे. सच में वे संपूर्ण थे. दुनिया उन्हें कुछ दे पाती उस की क्या बिसात थी. वे ही दुनिया को देने के काबिल थे. एक आदर्श पतिपत्नी, एक आदर्श मातापिता.

फिर भी मैं सोच रहा था कि यह तो उन का आज था. यहां तक आतेआते जीवन के कितने पड़ावों पर समय ने उन्हें कितना तोड़ा होगा? ये बच्चे ही जब छोटे होंगे तो क्याक्या कठिनाइयां न आई होंगी उन के सामने. निश्चय ही कितने दुख, दुविधाएं और असहजताएं पहाड़ बन कर टूट पड़ी होंगी.

मैं मंदिर से बाहर आ गया. घर आ कर भी कितने ही दिन तक उन को ले कर मन में विचार खुदबुदाते रहे थे.

फिर धीरेधीरे दिन बीतने लगे. वे कभीकभार याद आते थे, पर वक्त ने धीरेधीरे सबकुछ धूमिल कर दिया और मैं अपनी दुनिया में खो गया.

उन दिनों आफिस के काम से मुझे गुजरात के सांबल गांव जाना पड़ा. सांबल गांव क्या था, अच्छा शहरनुमा कसबा था. दिन तो कार्यालय में अपना काम पूरा करतेकरते बीत गया. शाम हो गई पर काम पूरा न हो पाया. लगता था कि कम से कम 2-3 दिन तो खा ही जाएगा यह काम. रुकने का मन बना लिया. स्टाफ में मदन भाई को थोड़ाबहुत जानता था क्योंकि वह भी इसी तरह टूर में 1-2 बार हमारे कार्यालय आए थे. बाकी 1-2 से काम के साथ ही जान- पहचान हुई.

मदन बाबू का घर पास ही था सो उन के आग्रह पर चाय उन के घर ही पीनी थी. दिन भर की थकान के बाद अदरक की चाय ने बदन में जान डाल दी. चुस्ती महसूस करता मैं ड्राइंगरूम का निरीक्षण करता रहा. मदन बाबू भीतर थे. 15-20 मिनट बाद की वापसी के बाद ही वे एकदम तरोताजा बदलेबदले लगे. तय हुआ कि वे मुझे डाक बंगले छोड़ देंगे.

मैं वहां जल्दी पहुंचना चाहता था. थकान व चिपचिपाहट से नहाने का मन कर रहा था.

डाक बंगले में पहुंच कर मदन बाबू ने विदा लेनी चाही. मैं ने भी यों ही पूछ लिया, ‘‘अब सवारी किधर को निकलेगी?’’

मदन बाबू हंस दिए, ‘‘जरा ब्लाइंड स्कूल तक जाऊंगा.’’

‘‘ब्लाइंड स्कूल? वहां क्यों?’’ मन में रणकपुर वाली घटना अनायास कौंध गई.

‘‘महीने में एक बार जाता हूं. इसी बहाने थोड़ा मन बहल जाता है कि कुछ तो किया.’’

उत्सुकता से सिर उठा लिया था, ‘‘यार, मैं भी चलूंगा तुम्हारे साथ.’’

‘‘क्या करोगे, राव? यहीं आराम कर लो. दिन भर में थके नहीं क्या? मुझे तो वहां समय लग जाता है. तुम बेकार बोर होगे.’’

‘‘नहीं…नहीं. बस, 10 मिनट,’’ मैं हड़बड़ा कर बोला, ‘‘किसी खास मकसद से जा रहे हो?’’

‘‘मकसद तो कोई नहीं…मातापिता की याद में जाना शुरू किया था. उन के नाम से खानाकपड़ा बांट आता था. फिर मुझे लगा कि उन्हें इन चीजों से भी अधिक प्यार की जरूरत है.’’

‘‘ओह, अब तो मैं जरूर ही चलूंगा, मिनटों में हाजिर हुआ.’’

मेरे दिल में रणकपुर में मिले उन लोगों ने दस्तक दी. वे न सही, वैसे ही कुछ और लोग मिलेंगे.

मैं मदन बाबू के साथ निकल पड़ा. रास्ते मेरे पहचाने न थे. कई सड़कें, मोड़, चौराहे पार कर के हम एक इमारत के सामने रुक गए. अंध स्कूल एवं बोर्डिंग आ गया था.

भीतर प्रवेश करने पर सीधे हाथ को कुछ आफिस जैसे कमरे थे. बाएं हाथ को सामने काफी बड़ा मैदान था. कुछ बच्चे वहां खेल रहे थे. कुछ पौधों में पानी दे रहे थे. कुछ आजा रहे थे. एक जगह कुछ खेल भी चल रहा था.

मदन बाबू ने किसी को आवाज दी तो सारे बच्चे मुड़ कर उन की तरफ आ गए और उन को चारों ओर से घेर लिया. किसी ने हाथ पकड़ा, किसी ने उंगली तो किसी ने बुशर्र्ट का कोना ही पकड़ लिया. एकलौते बटन की कमीज पहने एक छोटा लड़का पैरों से चिपट गया. देख कर लगा सब के सब उन के बहुत नजदीक होना चाहते थे. उन्होंने भी किसी  का गाल थप- थपाया तो किसी की पीठ पर हाथ फेर कर प्यार किया. कुछ बच्चे उन से पटाखे लाने के लिए भी कह रहे थे.

मदन बाबू ने बच्चों से उन का सामान लाने का वादा किया और हम भीतर के हिस्से में चल पड़े. अगलबगल के कमरों से गुजरते हुए मैं ने बच्चों को कुरसियां बुनते, बढ़ईगीरी का काम करते, बेंत के खिलौने बनाते देखा था. एक छोटी सी लाइब्रेरी भी देखी, जहां बच्चे ब्रेल लिपि का साहित्य पढ़ रहे थे. 5-6 बिस्तरों वाला छोटा सा अस्पताल भी देखा.

यों ही घूमते हुए हम थोड़ी खुली जगह में आ गए.

‘‘चलिए, राव साहब, अब आप को एक हीरे से मिलवाते हैं,’’ मदन बाबू मुझ से बोले.

अब हम कुछ गलियारे पार कर एक बडे़ से कमरे तक आ गए. रोशनी में डूबे इस कमरे की धड़कन कुछ अलग सी लगी, तनिक खामोश सी.

‘‘विनोद बाबू, देखिए तो कौन आया है?’’

‘‘अरे, मदनजी… किसे लाए हैं?’’ चेहरा हमारी तरफ घूम गया. मेरा दिल तेजी से धड़क उठा. आंखें पहचानने में भूल नहीं कर सकती थीं. यह वही सज्जन थे, वही रणकपुर वाले. आंखें एक बार फिर खुशी से नाच उठीं.

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‘‘अपने राव साहब हैं,’’ मदन बाबू बोले, ‘‘राजस्थान से टूर पर आए हैं. आप तक ले आया इन्हें.’’

‘‘अच्छा किया,’’ और मेरी तरफ हाथ बढ़ा कर विनोद बाबू बोले, ‘‘आइए, प्रशांतजी…’’

मैं ने बढ़ कर उन का हाथ थाम लिया. दूसरे हाथ का सहारा लगाते हुए उन्होंने हाथ मिलाया.

‘‘पहली बार आए हैं गुजरात…’’ विनोद बाबू बोले.

‘‘जी…’’ बहुत इच्छा हो रही थी कि रणकपुर की याद दिलाऊं, पर इस वक्त अनजान बने रहना ठीक लगा. मैं उन्हें सचमुच जानना चाहता था. उन के हर अनछुए पहलू को, उन के व्यक्तित्व को, जीवन को, उन के संपूर्ण बच्चों को…और मेरे होंठों पर यह सोच कर हंसी तिर आई. आखिर वे मिल ही गए.

मदन बाबू उन से बातें करने लगे. बातें सामान्य थीं, अधिकतर संस्था से संबंधित.

मदन बाबू ने बताया कि वह कितना यत्न कर के इस संस्था को संभाल रहे थे और यह भी बताया कि वह अपने काम के प्रति कितने निष्ठावान, सच्चरित्र, महत्त्वाकांक्षी और मेहनती हैं.

तो मैं ने उन्हें ठीक ही भांपा था. शायद यही सब था जो मैं जानना चाहता था. उन के चेहरे पर सलज्ज आभा थी. अपनी इतनी तारीफ सुनने में उन के चेहरे पर किस कदर सकुचाहट थी. आंखें होतीं तो वे भी सपनों को पूरा होते देख भूरिभूरि सी चमक उठतीं.

अपनी शारीरिक क्षमता की सीमा के बावजूद उन के हौसलों के परिंदे कितनी ऊंची उड़ान भरना चाहते थे, वह भी सरकारी महकमे में, जहां आंख वाले तक अंधे हो जाते हैं. काम से दूर भागते, काहिल से, पीक थूकते, चाय गटकते, टिन के जंग लगे पुतलों की तरह बेवजह बजते. विनोद बाबू इन सब का अपवाद बने सामने खड़े थे.

‘‘प्रशांतजी, कैसी लगी आप को हमारी संस्था?’’

‘‘काफी व्यवस्थित सी.’’

‘‘आप तो बहुत ही कम बोलते हैं पर आप ने सही शब्द कहा है. इस व्यवस्था को बनाने में कई साल लग गए हैं. सरकारी छल तो आप जानते ही हैं. पैसों की तंगी झेलनी ही पड़ती है.’’

‘‘जानता हूं, फिर भी आप ने…’’

‘‘मैं ने नहीं, सब ने, यहां बड़ा स्टाफ है. हाथपैरों से सब करते हैं पर सुविधाएं जुटाना… पूरा दम लग जाता है.’’

‘‘कुछ ठीक से बताएंगे… आज तो मैं तल्लीन श्रोता ही हो जाता हूं.’’

खनकती हंसी हंस दिए विनोद बाबू. मदन बाबू भी बहुत उत्कंठित लगे.

‘‘प्रशांतजी, जब आया था तो सचमुच निराश था. मेरी योग्यता को ओछा बना दिया गया था. कैसे भी, कहीं भी, कोई भी काबिल, नाकाबिल सब आगे बढ़ते जाते थे. मेरी सारी शिक्षा, मेरी सारी मेहनत, मेरी इन आंखों से माप दी जाती थी. मैं ने मन मसोस कर, अंतहीन दुख पा कर बहुत समय बिताया, जगहजगह काम किया पर सब बेकार ही रहा. सब के पास आंखें थीं पर कान न थे, दिमाग न था, दिल न था. मुझे अनसुना, अनबूझा, अनजाना रहना था सो रह गया. उस कठिन घड़ी में मेरे बच्चे और मेरी पत्नी ही मेरा अंतिम सहारा थे.’’

मदन बाबू और मैं चुप थे. सन्नाटे ख्ंिचे उस प्रकाश में उन का दुख शायद अरसे बाद बाहर रिस आया था.

‘‘7-8 साल की मायूसी में डूबताउतराता मैं अंधेरे में डूब ही जाता कि रोशनी की सूरत में यह संस्थान मिल गया. प्रशांतजी, रोशनी की दुनिया का ठुकराया मेरा अस्तित्व जैसे अपनों के बीच आ मिला. जो कुछ मैं ने झेला वह ये बच्चे न झेलें, यही सोचता हूं हर दम. हौसला बांधे हुए तभी से जुटा हूं. मदनजी से बड़ी मदद है.’’

‘‘मैं नहीं विनोद बाबू, यह तो आप की यात्रा है.’’

‘‘मदन बाबू, तिनके का सहारा भी डूबते के लिए बहुत होता है. आप ने तो सब देखा ही है. कितनी बदइंतजामी थी. न खाना, न पीना, न पहनना, न जानना, न समझना. सब बेढंगा… बड़ी पीड़ा हुई थी. यहां इतना बिखराव था कि समझ में नहीं आता था कि कहां से समेटूं. बच्चों को छोड़ कर मातापिता भी जैसे भूल चुके थे.’’

‘‘क्या मतलब? इन के मातापिता हैं क्या?’’

‘‘हां, हैं न, 10-15 बच्चे अनाथ हैं यहां, पर बाकी को मांबाप की लापरवाही ने अनाथ बना दिया है. मैं ने सब से पहले यही किया. सभी बच्चों का ब्योरा बनाया. मैं भी समझ रहा था कि ये अनाथ हैं, पर राव साहब, यह अंध स्कूल है, अंध अनाथाश्रम नहीं. बच्चे दिन भर यहीं रहते हैं. खानापीना, पढ़नालिखना, रोजमर्रा के कामों की ट्रेनिंग और जो कोई कारीगरी सीख पाए तो वह भी. शाम को इन्हें घर जाना चाहिए, पर इस में नियमितता नहीं है. रात गए तक मांबाप की प्रतीक्षा करता बच्चा…क्या कहूं…कलेजा मुंह को आता है.

‘‘मांबाप को टोको तो सौ बहाने बना देते हैं. उन के लिए दुनिया के सारे काम जरूरी हैं और उन का सहारा खोजता उन का अपना बच्चा कुछ भी नहीं.

‘‘प्यार के भूखे ये बच्चे. सच इन्हें थोड़ी सी देखभाल, पर ढेर सारा प्यार चाहिए और कुछ नहीं चाहिए. ये अपनी दुनिया में संपूर्ण हैं.’’

सच में वे संपूर्ण थे. न केवल अपने परिवार के लिए वरन सामाजिक सरोकार में भी. शतरंज और लूडो खेलते, कुरसी बुनते, टाइपिंग करते, कंप्यूटर पर काम करते, एकदूसरे का कंधा थामे गणतंत्र दिवस पर परेड करते, बागबानी करते इन बालकों के जीवन में कला के कितने ही रंग, स्वर और गंध समा गई थी.

नया प्रयोग -भाग 3: बूआ का आना बड़ी सूनामी जैसा क्यों लगता था

‘‘और तुम ने अपने चाचा को भाषण दे दिया क्या? यह जो ऊंचाऊंचा कुछ बोल रही थी, क्या उन्हें ही सुना रही थी?’’

‘‘मैं भी तो घर की बेटी हूं न. क्या सारी उम्र बूआ की ही जबान चलेगी. घर की विरासत मुझे ही तो संभालनी है अब. कल वह बोलती थी, आज मैं भी तो बोलूंगी.’’

अवाक् थी मीना, चाहती है हर काम सुखचैन से बीत जाए मगर लगता नहीं कि ऐसा होगा. विजया सदा अड़चन डालती आई है और सदा उस की ही चली है. इस बार भी वह अपनी जायजनाजायज हर जिद मनवाना चाहती है. वह जराजरा सी बात को खींच कर कहानी बना रही है.

‘‘डर लग रहा है मझे स्नेहा, पहले ही मेरी तबीयत ठीक नहीं है, इस औरत ने और तंग किया तो पता नहीं क्या होगा.’’

चाची का हाथ कांपने लगा था आवेग में. उच्चरक्तचाप की मरीज हैं चाची. स्नेहा के हाथपैर फूलने लगे चाची का कांपता हाथ देख कर. उस की मां का भी यही हाल हुआ था. अगर यहां भी वही कहानी दोहराई गई तो क्या होगा, इसी घबराहट में स्नेहा ने चाचा को डाक्टर के साथ घर आने के लिए फोन कर दिया. नजर चाची पर थी जो बारबार बाथरूम जा रही थीं.

डाक्टर साहब आए, पूरी जांच की और वही ढाक के तीन पात.

डाक्टर ने कहा, ‘‘तनाव मत लीजिए. काम का बोझ है तो खुशीखुशी कीजिए न, शादी वाला घर है. बेचैनी कैसी है. बेटी की शादी थोड़े है जो समधन का डर है, बेटे की शादी है.’’

चाचा बोले, ‘‘बेटे की शादी है, इसी बात की तो चिंता है. सभी रूठेरूठे घूम रहे हैं. सब की मनमानी पूरी करतेकरते ही समय जा रहा है फिर भी नाराजगी किसी की भी कम नहीं हुई.’’

‘‘आप का दिमाग खराब हो गया है क्या, जो दुनिया को खुश करने चले हैं. बाल सफेद हो गए और अनुभव अभी तक नहीं हुआ. 60 साल की उम्र तक भी अगर आप नहीं समझे तो कब समझेंगे,’’ मजाक भी था पारिवारिक डाक्टर के शब्दों में और सत्य की कचोट भी. चाचा के शब्दों पर तनिक गंभीरता से बात की डाक्टर साहब ने, ‘‘अपनी सामर्थ्य और हिम्मत से ज्यादा कुछ मत कीजिए आप. गिलेशिकवे अगर कोई करता भी है तो उस का भी चरित्र देखिए न आप. जिसे कभी खुश नहीं कर पाए उसे उसी के हाल पर छोड़ दीजिए. पहले अपना घर देखिए. अपने परिवार की प्राथमिकता देखिए. जो न जीता है, न ही जीने देता है उसे जरा सा दूर रखिए. कहीं न कहीं तो एक रेखा खींचिए न.’’

स्नेहा चुपचाप सब देखतीसुनती रही और चाचा के चेहरे के हावभाव भी पढ़ती रही. डाक्टर साहब दवाएं लिख कर दे गए और चाची बुदबुदाई, ‘मुझे कोई दवा नहीं खानी. बस, यह औरत मेरे घर से दूर रहे.’

‘‘मेरी बहन है वह.’’

‘‘तो बहन की जबान पर लगाम लगाइए, चाचा. आप के ही अनुचित लाड़प्यार की वजह से, यह दिन आ गया कि चाची बूआ को ‘यह औरत’ कहने लगी है. पापा की तरह आप भी बस वही भाषा बोल रहे हैं. ‘स्याह करे, सफेद करे, मैं कुछ नहीं कहूंगा क्योंकि वह मेरी बहन है.’ यह घर तभी तक घर रहेगा जब तक चाची जिंदा हैं और कोई बूआ को चायपानी पूछता है वह भी तब तक है जब तक चाची हैं. आप को भी अपनी बहन के जायजनाजायज तानेशिकवे तभी तक अच्छे लगेंगे जब तक उन को सहने वाली आप की पत्नी जिंदा है. जिस दिन चाची न रहेंगी, देखना, आप की यही बहन कभी देखने भी नहीं आएगी कि आप भूखे सो गए या कुछ खाया भी था,’’ रो पड़ी थी स्नेहा, ‘‘हमारे पापा का हाल देख रहे हैं न आप. अब बूआ वहां क्यों नहीं जाती, जाए न, रहे उस घर में जहां साल में 6 महीने इसी बूआ की वजह से दिनरात मनहूसियत छाई रहती थी.’’

अच्छाखासा तनाव हो गया. उस शाम चाची की तबीयत से परेशान स्नेहा खो चुकी अपनी मां को याद करकर के खूब परेशान रही. ऐसा भी क्या अंधा प्रेम जिसे रिश्ते में तालमेल भी रखना न आए. भावी दूल्हा यानी चाचा का बेटा भी बहन की हालत पर दुखी हो गया उस रात.

‘‘स्नेहा, थोड़ा तो खा ले न,’’ उस ने मनुहार की.

‘‘देख लेना बूआ का दखल एक दिन यहां भी सब तबाह कर देगा. कैसी औरत है यह जो भाई का सुख नहीं देख सकती.’’

‘‘तुम तो मेरा सुख देखो न, स्नेहा. मुझे भूख लगी है. आज कितना काम था औफिस में, क्या भूखा ही सुलाना चाहती हो?’’

हलकी सी चपत लगाई भाई ने उस के गाल पर. चाची भी भूखी बैठी थीं. वे बिना कुछ खाए दवा कैसे खा लेतीं. चाचा विचित्र चुप्पी में डूबे थे. स्नेहा मुखातिब हुई चाचा से, बोली, ‘‘इतने साल उस बेटी की चली, मैं भी ससुराल से आई हूं न, मेरा भी हक है इस घर पर. आप बूआ से कह दीजिए हमारे घर में हमारी मरजी चलने दीजिए. बस, मैं इतना ही चाहती हूं, चाचा. मेरी इतनी सी बात मान लीजिए, चाचा. चाचा, आप सुन रहे हैं न?

‘‘चाचा, मुझे इस घर में सुखचैन चाहिए जहां मेरी आने वाली भाभी खुल कर सांस ले सके. मेरी भाभी सुखी होगी तभी तो मेरा मायका खुशहाल होगा. वरना मुझे पानी के लिए भी कौन पूछेगा, जरा सोचिए.

‘‘मेरा घर, मेरा ससुराल है जहां मेरी मरजी चलती है. यह घर चाची का है, यहां चाची को जीने दीजिए और बूआ अपने घर में खुश रहे. बस, और तो कुछ नहीं मांग रही मैं.’’

गरदन हिला दी चाचा ने. पता नहीं सच में या झूठमूठ. सब ने मिल कर खाना खा लिया. तभी पता चला सुबह 6 बजे वाली गाड़ी से स्नेहा के पिता आ रहे हैं. स्नेहा का भाई बोला, ‘‘मैं शाम को ही बताने वाला था मगर घर में उठा तूफान देख मैं यह बताना भूल गया. ताऊजी का फोन आया था. पूरे 6 बजे मैं स्टेशन पहुंच जाऊं उन्हें लेने. कह रहे थे-घुटने का दर्द बढ़ गया है, इसलिए वे सामान के साथ प्लेटफौर्म नहीं बदल पाएंगे.’’ स्नेहा की चाची बोलीं, ‘‘मैं ने तो कहा भी है, भैया यहीं हमारे पास ही क्यों नहीं आ जाते. वहां अकेले रहते हैं. कौन है वहां देखने वाला.’’

‘‘भैया तो मान जाएं मगर विजया नहीं चाहती,’’ सहसा चाचा के होंठों से निकल गया. सब का मुंह खुला का खुला रह गया. हैरान रह गए सब. चाचा का रंग वास्तव में बदला सा लगा स्नेहा को. शायद अभीअभी उन का मोह भंग हुआ है अपनी पत्नी की हालत देख कर और भाई का उजड़ा घर देख कर.

‘‘भैया अगर मेरे साथ रहें तो विजया को समस्या क्या है? वही बेकार का अधिकार. हर जगह अपनी टांग फसाना शौक है इस का,’’ यह भी निकल गया चाचा के मुंह से.

सब उन का मुंह ही ताकते रह गए. चाचा ने स्नेहा का माथा सहला दिया, ‘‘कल से विजया का दखल समाप्त. अब भैया यहीं रहेंगे मेरे पास. तुम्हारी चाची और तुम्हारी आने वाली भाभी की चलेगी इस घर में. जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा.’’चाचा का स्वर भीगाभीगा सा था. पता नहीं नाराज थे उस से या खुश थे मगर उन का चेहरा एक नई ही आशा से जरा सा चमक रहा था. शायद वे एक और बेटी की जिद मान एक नया प्रयोग करने को तैयार हो गए थे.

 

 

नया प्रयोग -भाग 2: बूआ का आना बड़ी सूनामी जैसा क्यों लगता था

‘बूआ से कहिए न, अब आ कर आप का घर संभाले. मां आप दोनों भाईबहन की सेवा करती रहती थीं. तब आप को हर चीज में कमी नजर आती थी. अब क्यों नहीं बूआ आ कर आप का खानापीना देखती. अब तो आप की बहन की आंख की किरकिरी भी निकल चुकी है.’

पापा अपने पुत्र के ताने सुनते रहते हैं जिस पर उन्हें गुस्सा भी आता है और पीड़ा भी होती है. अफसोस होता है स्नेहा को अपने पापा की हालत पर. बहन से इतना प्रेम करते हैं कि उसे ऊंचनीच समझा ही नहीं पाते. कभी बूआ से यह नहीं कह पाए कि देखो विजया, तुम यहां पर सही नहीं हो. तुम्हारी अधिकार सीमा इस घर तक नहीं है.

चाची के घर आई है स्नेहा, भाई की शादी पर. इकलौता बच्चा है चाची का जिस की शादी चाची अपने तरीके से करना चाहती हैं. मगर यहां भी बूआ का पूरापूरा दखल जिस का असर उसे चाची के चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा है. समझ सकती है स्नेहा चाची के भीतर उठता तनाव. डर लग रहा है उसे कहीं अति तनाव में चाची का हाल भी मां जैसा ही न हो. चाची के साथ काम में हाथ बंटाती रही स्नेहा और साथसाथ चाची का चेहरा भी पढ़ती रही.

दोपहर में जब वह दरजी के यहां से, आने वाली भाभी के कुछ कपड़े ला कर चाची को दिखाने लगी तब चाचा का फोन आया. स्नेहा ने ही उठा लिया, ‘‘जी चाचाजी, कहिए, चाची थोड़ी देर के लिए लेटी हैं, आप मुझे बताइए, क्या काम है?’’

‘‘विजया दीदी से कोई बात हुई है क्या?’’

‘‘क्यों? क्या हुआ?’’

‘‘उन का फोन आया था, नाराज थीं, कह रही थीं, वह घर गई थी, उस की बड़ी बेइज्जती हुई?’’

‘‘बेइज्जती हुई, बेइज्जती, क्या मतलब?’’

अवाक् रह गई स्नेहा. आगेपीछे देखा उस ने, कहीं चाची सुन तो नहीं रहीं. झट से उठ कर दूसरे कमरे में चली गई और दरवाजा भीतर के बंद कर लिया.

‘‘हां चाचा, बताइए, क्या हुआ, क्या कहा चाची के बारे में बूआ ने? बेइज्जती कैसे हुई, बात क्या हुई?’’

‘‘यह तो उस ने बताया नहीं. बस, इतना ही कहा.’’

‘‘वाह चाचा, आप भी कमाल के हैं. बूआ ने चाबी भरी और आप का बोलना शुरू हो गया पापा की तरह. चाबी के खिलौने हैं क्या आप? 60 साल की उम्र हो गई और अभी तक आप को चाची के स्वभाव का पता ही नहीं चला. बहन से प्रेम कीजिए, मायके में बेटी का सम्मान भी कीजिए मगर अंधे बन कर नहीं. बहन जो दिखाए उसी पर अमल मत करते रहिए,’’ स्नेहा के भीतर का आक्रोश ज्वालामुखी सा फूटा, गला भी रुंध गया, ‘‘हमारी मां भी सारी उम्र पापा को सफाई ही देती रही कि उस ने बूआ की सेवा में कोई कमी नहीं की. मगर पापा कभी खुश नहीं हुए. आज हमारी मां नहीं हैं और पापा अकेले हैं. इस उम्र में आप भी क्या पापा की तरह ही अकेले बुढ़ापा काटना चाहते हैं? आई थी आप की बहन और बहुत अनापशनाप…झूठसच सुना कर गई है. चाची ने जबान तक नहीं खोली. कोई जवाब नहीं दिया कि बात न बढ़ जाए, शादी वाला घर है. उस पर भी नाराजगी और शिकायतें? आखिर बूआ चाहती क्या है? क्या आप का घर भी उजाड़ना चाहती है? आप अपनी बहन की जबान पर लगाम नहीं लगा सकते तो न सही, हम पर तो सवाल मत उठाइए.’’

उस तरफ चुप थे चाचा. कान के साथ लगा था फोन मगर जबान मानो तालू से जा चिपकी थी.

‘‘बूआ से कहिए अपनी इज्जत अपने हाथ में रखे. जगहजगह उसे सवाल बना कर उछालती फिरेगी तो जल्दी ही पैरों में आ गिरेगी. कल को आप की बहू आएगी. यह तो उसे भी टिकने नहीं देगी. चाची और मां में सहनशक्ति थी जो कल भी चुप रहीं और आज भी. हमारी पीढ़ी में तनाव पीने की इतनी क्षमता नहीं है जो सदियोंसदियों बढ़ती ही जाए. बूआ का कभी किसी ने अपमान नहीं किया और अगर हमारा सांस लेना भी उसे पसंद नहीं है तो ठीक है, आप उसे समझा दीजिए, हमारे घर न आए क्योंकि

हम चैन की सांस लेना चाहते हैं.’’

फोन काट दिया स्नेहा ने और धम से पलंग पर बैठ गई. इतना कुछ कह देगी, उस ने कभी सोचा भी नहीं था. तभी चाची दरवाजा खोल अंदर चली आईं.

‘‘क्या हुआ स्नेहा, किस का फोन था? तेरे ससुराल से किसी का फोन था? वहां सब राजीखुशी है न बेटी? क्या दामादजी का फोन था? नाराज हो रहे हैं क्या?’’

उस का तमतमाया चेहरा देख डर रही थी मीना. शादी से 10-12 दिन पहले ही चली आई थी न स्नेहा चाची की मदद करने को. हो सकता है ससुराल में उन्हें कोई असुविधा हो रही हो. मन डर रहा था मीना का.

‘‘मैं ने कहा था न, मैं अकेली जैसेतैसे सब संभाल लूंगी. तुम इतने दिन पहले आ गईं, उन्हें बुरा लग रहा होगा.’’

‘‘नहीं न, चाची. आप के दामाद ने मुझे खुद भेजा है यहां आप की मदद करने को. आप ही तो हैं हमारी मां की जगह. उन का फोन नहीं था, चाचा का फोन था. बूआ ने शिकायत लगाई है कि तुम ने उस की बेइज्जती की है.’’

क्या है दूध का पाश्चराइजेशन

लेखक- डा. नागेंद्र कुमार त्रिपाठी, वैज्ञानिक, पशुपालन  डा. संजय सिंह, कृषि विज्ञान केंद्र, जमुनाबाद, लखीमपुर

खीरी क्या है दूध का पाश्चराइजेशन आजकल पैकेट वाले दूध का चलन ज्यादा हो गया है. शहर में तो अधिकतर लोग इसी दूध का इस्तेमाल कर रहे हैं. पैकेट वाले दूध को पाश्चराइज्ड मिल्क भी कहते हैं. अधिकतर लोग इसी दूध का सेवन करते हैं पर समय और जगह की कमी के कारण ग्वालों के पास से दूध लाना मुमकिन नहीं हो पाता है,

इसलिए भी लोग आसपास की डेरी से पैकेट मिल्क ले लेते हैं. पर, क्या आप जानते हैं कि पाश्चराइज्ड दूध क्या होता है? इस प्रक्रिया को कैसे किया जाता है? इस के क्या फायदे और नुकसान हैं? होमोजिनाइल्ड दूध क्या होता है? पाश्चराइजेशन दूध क्या है इस तकनीक में दूध को अधिक तापमान पर गरम करने के बाद तेजी से उस को ठंडा कर के पैक किया जाता है. यह प्रक्रिया दूध को लंबे समय तक सही रखती है. साथ ही, यह तकनीक सेहत के लिए हानिकारक बैक्टीरिया को भी खत्म करती है. इसे ऐसे कहा जा सकता है कि इस विधि में तरल पदार्थों को गरम कर के उस के अंदर के सूक्ष्मजीवों जैसे जीवाणु, कवक, विषाणु आदि को नष्ट किया जाता है.

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इस विधि में विसंक्रमित पदार्थ को मामूली तापमान पर एक निश्चित समय तक गरम किया जाता है, जिस से हानिकारक बैक्टीरिया नष्ट हो जाते हैं और इस पदार्थ के रासायनिक संगठन में कोई बदलाव भी नहीं होता है. पाश्चराइजेशन कितने तरीकों से किया जाता है होल्डर विधि : इस विधि में दूध को 161 डिगरी फारेनाइट तापमान पर आधे घंटे के लिए गरम किया जाता है और फिर तुरंत 50ष्ट पर ठंडा कर लिया जाता है. यह छोटे पैमाने पर पाथेजिनस को नष्ट करने का तरीका है. उच्च तापक्रम कम समय विधि : इस विधि में दूध को 161 डिगरी फारेनाइट तापमान पर 15 सैकंड के लिए गरम किया जाता है और फिर 40ष्ट पर तुरंत ठंडा कर लिया जाता है.

अधिकतर इसी विधि का इस्तेमाल दूध को पाश्चराइज करने के लिए किया जाता है. इस प्रक्रिया से दूध 2 से 3 हफ्ते तक सही या फ्रैश रहता है. अत्यधिक उच्च तापक्रम विधि : इस विधि में दूध को 275 डिगरी फारेनाइट पर 1 से 2 सैकंड के लिए गरम किया जाता है, जिस से इस की लाइफ 9 महीने तक बढ़ जाती है. अब बात करते हैं कि होमोजिनाइशेन क्या होता है? ये पाश्चराइजेशन विधि के बाद होता है. इस का मुख्य उद्देश्य दूध के अंदर के फैट के अणुओं को तोड़ना, ताकि ये दूध से अलग हो कर पैकेट में ऊपर न आ जाए या फिर दूध में ही रहे. देखा जाए तो यह एक मेकैनिकल प्रक्रिया है, जिस में कोई अलग से कैमिकल वगैरह नहीं मिलाया जाता है. इस से दही, क्रीम यानी डेरी वाले प्रोडक्ट अच्छे से बनते हैं. पाश्चराइज्ड दूध के फायदे और नुकसान पाश्चराइजेशन की प्रक्रिया दूध में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है.

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कच्चे दूध की तुलना में यह दूध की शेल्फ लाइफ को काफी हद तक बढ़ा देता है. पाश्चराइज्ड दूध और पाउडर दूध में कच्चे दूध की तुलना में पोषक तत्त्व कम होते हैं. पाश्चराइजेशन की तकनीक दूध में सभी सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देती है, जैसे कि लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (लैक्टोबैसिलि एसिडोफिलस), जो कि स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं और गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल और शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली को बढ़ाते हैं. पाश्चराइजेशन दूध एमिनो एसिड को बदल देता है, फैटी एसिड को बढ़ा देता है, विटामिन ए, डी, सी और बी 12 को नष्ट कर देता है, खनिज, कैल्शियम, क्लोराइड, मैग्नीशियम, फास्फोरस, सोडियम और सल्फर, साथ ही कई ट्रेस मिनरल्स को भी कम कर देता है. इस के अलावा कुछ सिंथैटिक विटामिन को भी पाश्चराइज्ड दूध में मिलाया जाता है, क्योंकि दूध के प्राकृतिक एंजाइमों के बिना उसे पचाना मुश्किल होता है.

‘गुम है किसी के प्यार में’ के 100 एपिसोड पूरे, सेट पर ऐसे हुआ जश्न

सीरियल गुम है किसी के प्यार में सीरियल के सितारे इन दिनों जश्न मनाते नजर आ रहे हैं. इस सीरियल में लीड रोल में नजर आ रहे स्टार नील भट्ट ने अपने कोस्टार एश्वर्या शर्मा के साथ सगाई की थी.

इसके साथ ही नील भट्ट को दूबारा जश्न मनाने का मौका मिल गया है. इनके सीरियल के 100 एपिसोड पूरे हो चुके हैं. इस खास दिन को नील भट्ट ने सीरियल के पूरे स्टार कास्ट के साथ मिलकर सेलिब्रेट किया. जिसकी फोटो लगातार सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है.

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100 एपिसोड पूरे होते ही नील भट्ट ने अपनीटीम के साथ मिलकर केक काटा. इस दौरान नील भट्ट अपने को स्टार के साथ मस्ती करते दिखें. जैसे कि आप देख सकते हैं कि नील भट्ट ने अपने को स्टार के साथ बहुत बड़ा केक कट किया. इसे देखकर आपके मुंह में भी पानी आ जाएगा.

वहीं नील भट्ट को अपने चाहने वालों के तरफ से कुछ तोहफे मिलते नजर आ रहे हैं. जिसके साथ नील भट्ट पोज दे रहे हैं. इस दौरान सितारों ने साथ में मिलकर खूब सारी सेल्फी ली. जिसे फैंस खूब पसंद कर रहे हैं.

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आपको बता दें कि यह सीरियल पहले दिन से ही टीआरपी लिस्ट में छाया हुआ है. इसके साथ ही नील भट्ट अपनी मंगेतर एश्वर्या शर्मा के साथ भी तस्वीर क्लिक करवाई.

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जिसमें दोनों बेहद प्यारे लग रहे हैं. बता दें कि इस सीरियल की तारीफ करते फैंस थक नहीं रहे हैं. वहीं लगातार इस टीम को बधाइयां आ रही हैं. जिसमें खूब सारा प्यार फैंस के तरफ से मिल रहा है.

बिग बॉस 14 प्रोमो: निक्की तम्बोली की हरकतों पर भड़के सलमान खान, कहा- भाड़ में जाओ

बिग बॉस 14 में इस बाप वीकेंड का वार घर के कुछ सदस्यों पर भारी पड़ने वाला है. जिनके नाम है निक्की तम्बोली, रुबीना दिलाइक, अभिनव शुक्ला और राखी सावंत. खबर है कि बॉलीवुड स्टार और शो के होस्ट सलमान खान जमकर इन चारों की क्लास लगाने वाले हैं.

इस बात की जानकारी शो के प्रोमो को देखकर अंदाजा लगाया गया है. हालांकि सलमान खान सबसे ज्यादा नाराज निक्की तम्बोली पर होते नजर आ रहे हैं.

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प्रोमो में दिखाया गया है कि सलमा खान निक्की तम्बोली की जमकर क्लास लगाते नजर आ रहे हैं. सलमान खान निक्की तम्बोली की बतमिजियों को देखते हुए पहले तो निक्की को तू कहकर बुलाते हैं लेकिन फिर आप कहने लगते हैं.

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इसके सलमान निक्की पर गुस्सा दिखाते हुए कहते हैं कि आपकी इतनी गलतियों के बाद भी मैं आपको तू नहीं कह पा रहा हूं लेकिन एक आप हो कि अपनी गलती को कम करने का नाम नहीं ले रही हैं. एक बार, दो बार , तीन बार अब भाड़ में जाओ. कहकर सलमान खान घर के अंदर चिल्लाते हैं.

जिसके बाद सलमान खान के गुस्से को देखकर बाकी सभी घरवाले भी शांत हो जाते हैं. वहीं सलमान खान राखी सावंत को एंटरटेनमेंट पैकेज कहते हुए रुबीना दिलाइक और अभिनव शुक्ला को फटकारते नजर आ रहे हैं. अब देखना ये है कि आगे सलमान खान क्या करते हैं. फिर से राखी सावंत को एंटरटेनमेंट का खिताब देते हैं या फिर घरवालों को कोई नया टॉस्क देते हैं. अब ये तो आगे के एपिसोड को देखने के बाद ही पता लग पाएगा.

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फैंस बिग बॉस के इस सीजन को खूब एजॉय करते नजर आ रहे हैं. इस बार का सीजन हर बार से कुछ अलग है. इसमें कई पुराने सदस्यों की भी एंट्री हुई है. हालांकि फैंस को उस दिन का बेसब्री से इंतजार है जिस दिन बिग बॉस का फिनाले होगा.

टैक्नोलौजी: 5जी फोन के साथ 5जी की दुनिया में रखें कदम

लेखक-शहनवाज

5 जी इंटरनैट स्पीड पर खुद को रखें सब से तेज. एक जमाना था जब फोन पर इंटरनैटचलाने की स्पीड इतनी धीमी हुआ करती थी कि गूगल के एक छोटे से पेज को खुलने के लिए कम से कम 2 मिनट का इंतजार करना पड़ता था. 11 दिसंबर, 2008 को जब 3जी लौंच हुआ तो भारत में इंटरनैट के क्षेत्र में उसे किसी क्रांति से कम नहीं माना गया.

लेकिन 3जी की स्पीड हासिल करने के लिए लोगों को अपने पुराने फोन का त्याग करना पड़ा. उसी तरह से 4 सालों बाद 10 अप्रैल, 2012 को 4जी लौंच हुआ और फिर लोगों को अपने मोबाइल बदलने पड़े. अब ठीक उसी तरह से भारत में 5जी कदम रखने जा रहा है. माना जा रहा है की 5जी की स्पीड 10 गीगा बाइट्स पर सैकंड होगी, जो कि मौजूदा 4जी की स्पीड (100 मेगाबाइट्स पर सैकंड) से 100 गुना तेज होगी.

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अनुमान है कि भारत में 5जी साल 2021 की दूसरी छमाही तक बाजार में लौंच कर दिया जाएगा. और हर बार की तरह जो कोई भी 5जी स्पीड का आनंद लेना चाहता है उसे अपना मोबाइल बदलना पड़ेगा. इसीलिए, मोबाइल के कुछ नए औप्शन बताए जा रहे हैं जिन में 5जी सपोर्ट करेगा. इन में से कुछ मोबाइल्स कुछ समय बाद भारतीय बाजारों में उपलब्ध होंगे और कुछ औनलाइन शौपिंग पोर्टल्स पर उपलब्ध हैं. द्य शाओमी रेडमी नोट 9 प्रो 5जी : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.67 इंच (16.94 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 108+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 16 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. स्नैपड्रैगन 750 जी का तेज प्रोसैसर 6 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,820 मेगा एम्पियर की दमदार बैटरी, फ्लैश चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 23 फरवरी है और अनुमानित कीमत 17,990 रुपए हो सकती है.

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रिअलमी एक्स 7 प्रो : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.55 इंच (16.64 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 64+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 32 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. मीडियाटैक डाइमैंसिटी 1000 प्लस का तेज और नया प्रोसैसर 8 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,500 मेगा एम्पियर की बैटरी, फ्लैश चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 26 जनवरी है और अनुमानित कीमत 23,490 रुपए हो सकती है. द्य वन प्लस नोर्ड एन 10 : गोरिल्ला ग्लास 3 के प्रोटैक्शन के साथ 6.49 इंच (16.48 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 64+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 16 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. स्नैपड्रैगन 690 जी का तेज प्रोसैसर 6 जीबी रैम के साथ काम करेगा.

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4,300 मेगा एम्पियर की बैटरी, वार्प चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 12 फरवरी है और अनुमानित कीमत 28,790 रुपए हो सकती है.  ओपो रेनो 3 प्रो 256 जीबी : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.4 इंच (16.16 सेमी.) की डिस्प्ले. 64+13+8+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 44+2 मेगा पिक्सल के डुअल फ्रंट कैमरा के साथ. मीडियाटैक हेलिओ पी 95 का तेज प्रोसैसर 8 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,025 मेगा एम्पियर की बैटरी, वूक चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. 27,990 रुपए की कीमत के साथ बाजारों में उपलब्ध है. द्य शाओमी एमआई 10 आई : गोरिल्ला ग्लास 5 के प्रोटैक्शन के साथ 6.67 इंच (16.94 सेमी.) की बड़ी डिस्प्ले. 108+8+2+2 मेगा पिक्सल कुआड प्राइमरी कैमरा, 16 मेगा पिक्सल के फ्रंट कैमरा के साथ. स्नैपड्रैगन 750 जी का तेज प्रोसैसर 6 जीबी रैम के साथ काम करेगा. 4,820 मेगा एम्पियर की दमदार बैटरी, फ्लैश चार्जिंग के साथ टाइप सी पोर्ट में उपलब्ध होगा. अनुमानित रिलीज की तारीख 18 फरवरी है और अनुमानित कीमत 20,999 रुपए हो सकती है.

Crime Story : पुत्रदा एकादशी के दिन की पुत्रियों की हत्या 

बीती 24 जनवरी को पुत्रदा एकादशी का व्रत कई माओं ने रखा था जिससे उनकी संतानें सुखी रहें लेकिन एक माँ ऐसी भी थी जो व्रत रखने वाली महिलाओं से भी ज्यादा अन्धविश्वासी और  `धर्मपरायण` निकली . दो जवान बेटियों का धार्मिक अन्धविश्वास के नाम पर बेरहमी से क़त्ल कर देने वाली इस कुमाता का नाम पद्मजा है . हादसा दिल दहला देने बाला है जिसे जिसने भी सुना उसने सतयुग लाने वाली इस कलयुगी माँ की काली करतूत और थू थू की लेकिन अफ़सोस इस बात का ज्यादा होना चाहिए कि किसी ने उस धर्म और उसके पाखंडों व ग्रंथों और अंधविश्वासों को लानत नहीं भेजी जो इस मानसिकता और उन्माद का स्रोत और उद्गम है .

पुत्रदा एकादशी व्रत के बारे में कहा यह भी जाता है कि इसे करने से घर में सुख – शांति और धन –  वैभव बगैरह भी रहते हैं . आँध्रप्रदेश के चित्तूर जिले के मदनपल्ली कस्बे में रहने बाले नायडू परिवार के पास वो सब कुछ था जिसकी इच्छा हर कोई रखता है लेकिन नहीं थी तो मानसिक शांति . हालाँकि इस संपन्न परिवार का कोई भी सदस्य नशा पत्ता नहीं करता था लेकिन यह पूरा परिवार दुनिया के सबसे घातक और खतरनाक नशे धर्म की लत में था जिसकी खुमारी 24 जनवरी को उतरी तो देश भर में सनाका खिंच गया .

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यह सच भी किसी हादसे से कम नहीं बल्कि उन्हें बढ़ावा देने बाला है कि किसी शिक्षित बुद्धिजीवी या कुलीन ने यह नहीं कहा कि यह एक धार्मिक विकृति है उलटे इसे मानसिक विकृति कहते सभी ने जता और बता दिया कि हल्के से ही नशे में तो वे भी हैं . जो नशा हमारे पूर्वज हमें दे गए हैं उसे हम धरोहर समझ अगली पीढ़ी को देने का दस्तूर निभा रहे हैं क्योंकि इस विकृति पर हमें शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व है . मदनपल्ली के इस बेटी हत्याकांड में शुक्र की बात तो लोगों का खुलेआम यह न कहना रहा कि पुलिस को नायडू दंपत्ति को वक्त देना चाहिए था मुमकिन है बेटियां जिन्दा हो भी जातीं .

यह था हादसा

यही बात पद्मजा नायडू 24 जनवरी की रात चिल्ला चिल्लाकर पुलिस वालों से कह रही थी कि सुबह होने दो , दोनों बेटियां जिन्दा हो जाएँगी क्योंकि सुबह सतयुग आने वाला है . मदनपल्ली के पुलिस इंस्पेक्टर एम श्रीनिवास को पुरुषोत्तम नायडू के पड़ोसियों ने खबर दी थी कि उनके यहाँ से चीखने चिल्लाने की अजीब अजीब आवाजें आ रहीं हैं . इन पड़ोसियों ने किसी अनहोनी की आशंका जताई थी .

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पुलिस दल पहुंचा तो पहले इन दोनों यानी पुरुषोत्तम और पद्मजा ने उसे घर में दाखिल होने से रोकने की कोशिश की जिससे पुलिस वालों का शक और गहरा उठा लिहाजा वे जबरजस्ती अन्दर घुसे तो वहां का नजारा देख उनके भी तिरपन काँप उठे . किसी पुलिस बाले ने अपनी सर्विस लाइफ में ऐसा वीभत्स दृश्य नहीं देखा था .

पूजा घर में 22 वर्षीय साईं दिव्या की नग्न लाश खून से लथपथ पड़ी थी जिसके उपर लाल रंग का चुनरीनुमा कपडा पड़ा था . हत्या से पहले उसका मुंडन भी किया गया था . दूसरे कमरे में 27 वर्षीय आलेख्या की भी नग्न लाश पड़ी थी . इस दौरान पद्मजा पुलिस की काररवाई से लापरवाह नाचती रही और पुरुषोत्तम सोफे पर समाधि की मुद्रा में पालथी मारे बैठा रहा मानों उन्होंने हत्याएं न की हों बल्कि मच्छर मसले हों . आप शायद यकीन न करें और यह सोचने में ही आपका दिल दहल जाए कि दोनों खुबसूरत युवतियों के सर धड से अलग पड़े थे और खून बह रहा था लेकिन उनके जन्मदाता और पालनहार धर्म के नशे में झूमते मानों बेटियों की मौतों का जश्न मना रहे थे .

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दहशत में आमतौर पर मुजरिम आता है लेकिन यहाँ पुलिस वालों को गश आ रहे थे कि घर में जवान लड़कियों की सर कटी नग्न लाशें पड़ी हैं और माँ नाच रही है और बाप भगवान बुद्ध की स्टाइल में इस तरह सामाधिष्ठ बैठा है मानों उपर बाले से सीधे बात कर पूछ रहा कि प्रभो हत्या कर दी है अब क्या करना है निर्देश दो .

इधर पुलिस वाले कुछ संभले तो उन्हें समझ आ गया कि मामला धर्म से जुड़े तंत्रमंत्र का है और ये दोनों पगलेट बेकार का ड्रामा कर रहे हैं लिहाजा उन्होंने पुलिसिया अंदाज और रौब दिखाया तो भगवान् का भूत इनके सर से थोडा उतरा और उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने अपने जिगर की इन टुकड़ियों को भगवान् के पास पहुँचाया . बकौल नायडू दंपत्ति उन्होंने साईं दिव्या की हत्या त्रिशूल से की और आलेख्या का क़त्ल भारी भरकम डम्बलो से किया .

क्यों किया , इस पर दोनों ने चौंकाने बाले जबाब दिए जिनका सार यह था कि ये लोग एक तांत्रिक अनुष्ठान कर रहे थे जिसका मकसद बेटियों के भीतर बैठी दुष्टात्माओं को बाहर निकालना था . इन्हें स्वर्ग से एक दैवीय इशारा इस बाबत मिला था कि लड़कियों को मार डालो सुबह वे फिर से जिन्दा हो जाएँगी क्योंकि सतयुग शुरू हो जाएगा . यह मूढ़ता , मूर्खता और क्रूरता की इन्तहा थी जो एक सभ्य समाज के शिक्षित परिवार में समारोह पूर्वक हुई . पुलिस हिरासत में भी पद्मजा खुद को शिव का अवतार बताते यह कहती रही कि कोरोना वायरस तो शिव शंकर ने दुष्टात्माओं के संहार के लिए भेजा है . योजना तो इन दोनों ने खुद की ख़ुदकुशी की भी बना रखी थी जिससे सतयुग में पुनर्जन्म ले सकें लेकिन पुलिस के आ जाने से यह मुमकिन नहीं हो पाया .

पढ़े लिखे ढोर गंवार –

बाद की पूछताछ में उजागर हुआ कि पूरा नायडू परिवार उच्च शिक्षित है .पीएचडी कर चुके वी  पुरुषोत्तम नायडू मदनपल्ली के सरकारी कालेज में केमेस्ट्री के प्रोफ़ेसर पद पर हैं और मास्टर डिग्री में गोल्ड मैडल हासिल करने बाली पद्मजा चित्तूर के एक कार्पोरेट स्कूल की प्रिंसिपल हैं . इनकी बडी बेटी आलेख्या मास्टर डिग्री के बाद भोपाल के इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ़ फारेस्ट मेनेजमेंट से एक डिप्लोमा कोर्स कर रही थी तो साईं दिव्या एआर रहमान स्कूल हैदराबाद से संगीत का कोर्स कर रही थी इसके पहले वह बीबीए की डिग्री ले चुकी थी . दोनों बेटियों को भी माँ बाप अन्धविश्वास की खाई में ढकेल चुके थे जिसका अंदाजा साईं दिव्या की हादसे से चार दिन पहले सोशल मीडिया पर डाली यह पोस्ट है कि शिव आ गए हैं , काम पूरा हुआ .

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अब हादसे से ज्यादा हैरानी से सवाल यह भी उठा कि क्या पढ़े लिखे लोग भी इतने अन्धविश्वासी होते हैं और अगर होते भी हैं तो ऐसी शिक्षा के माने क्या . उजागर यह भी हुआ कि यह पूरा परिवार विकट का धार्मिक और घनघोर अन्धविश्वासी था . ये लोग शिर्डी बाले साईं बाबा , ओशो यानी रजनीश और एक और नामी बाबा मेहर के भक्त थे . घर में नियमित पूजा पाठ और आरती भजन हुआ करते थे और इनकी गतिविधियाँ भी रहस्मय थीं . कोरोना काल में दोनों बेटियां घर आ गईं थीं इसके बाद धार्मिक ढोंग पाखंडों की तादाद और बढ़ गई थी और अक्सर नायडू परिवार धार्मिक स्थलों की यात्रा करता रहता था .

पढ़े लिखे लोग क्यों इतने अन्धविश्वासी होते हैं जितना कि नायडू परिवार था यह सवाल पूछने बाले शिक्षित लोग एक दफा ईमानदारी से यह सवाल खुद से पूछें तो जबाब उन्हें मिल जाएगा कि वे भी इसके अपवाद नहीं हैं . धार्मिक पाखंडों पर कापी राइट उन लोगों के ही नहीं हैं जो गरीब , दलित या आदिवासी हैं बल्कि इस मामले में दोनों तबकों में कोई अंतर नहीं है . फर्क इतना है कि छोटा तबका बड़े नामी बाबाओं को अफोर्ड नहीं कर पाता इसलिए अपनी हैसियत के मुताबिक उसने अपने छोटे छोटे तांत्रिक , बाबा , ओझा और गुनिया पैदा कर रखे हैं जो इन्हें बताते रहते हैं कि वशीकरण कैसे करना है , घरेलू कलह से छुटकारा पाने कौन से टोटके करने हैं , गडा धन निकालने अमावस्या के दिन कितने मुर्गों की बलि दी जाती है बगैरह बगैरह .

पैसे बालों के आलीशान मकानों फ्लेट्स और बंगलों में ये ढोंग पाखंड पूरी शिद्दत और बराबरी से होते हैं . 10 में से 9 घरों में किसी न किसी ब्रांडेड बाबा ,गुरु , संत , कथित महात्मा , मुनि या शंकराचार्य की फूल माला से सुसज्जित तस्वीर टंगी रहती है .पूजा घरों में सुबह शाम पूजा आरती और खास दिनों में खास गोपनीय अनुष्ठान भी होते हैं . ये कुलीन अभिजात्य लोग भी गंवारों की तरह दैवीय चमत्कारों में पूरा भरोसा करते हैं और इसकी कीमत भी अदा करते हैं . यानी मानसिक स्तर पर किसी में कोई फर्क नहीं है . फर्क है तो आमदनी , रहन सहन और स्टेटस का जिसके चलते ये बड़े लोग खुद को बुद्धिमान और तार्किक होने की खुशफहमी पाले रहते हैं . इन पढ़े लिखे गंवारों की पोल कम ही खुलती है क्योंकि ठगे जाने या बेबकूफी भरा कोई पाखंड करने के बाद ये खामोश रहते हैं और कई बार खामोश कर भी दिए जाते हैं .

असल गुनहगार ये हैं

पुरुषोतम और पद्मजा को अदालत के आदेश पर तिरुपति के एसवीआरआर  अस्पताल के मनोरोग विभाग में दिमागी जांच के लिए भर्ती करा दिया गया  . अगर यह बीमारी थी तो भोपाल के नामी मनोचिक्त्सक डाक्टर विनय मिश्रा इसे डिल्यूजन बताते हैं जिसमें रोगी मिथ्या विश्वासों यथा स्वर्ग नर्क , जादू टोनो , तंत्र मंत्र आदि को सच मानने लगता है . इस लिहाज से देखें तो हमारे देश की 80 फ़ीसदी से कहीं ज्यादा आबादी इस बीमारी की गिरफ्त में है फर्क उसके प्रभाव के कम ज्यादा होने का है .

अब जरुरत इस बात की महसूस होने लगी है कि इस और इन कई बीमारियों की जड़ नष्ट की जाए जिनके सामने कोरोना जैसे वायरस बेहद छोटे और कम नुकसानदेह हैं . इसका तो वेक्सीन बन गया लेकिन धार्मिक उन्माद , वहशीपन और पागलपन का वेक्सीन बनना मुश्किल है क्योंकि इस बीमारी के वायरस किसी चीन या बुहान से नहीं आये हैं बल्कि देश के धर्मस्थलों में इनका रोज उत्पादन होता है .

धर्म ग्रन्थ और धर्म गुरु एक बड़ा खतरा हैं क्योंकि अपनी रोजी रोटी चलाये रखने पागलपन यही लोग फैलाते हैं इन्हें यह `ज्ञान` धर्म ग्रंथों से मिलता है जो ऊटपटांग बेतुके और काल्पनिक प्रसंगों से भरे पड़े हैं . गरुड़ पुराण इसका बेहतर उदाहरण है जिसमे स्वर्ग और नर्क की इतनी वीभत्स व्याख्या की गई है कि सख्त कलेजे बाला नास्तिक भी इसे सुनकर काँप उठता है . सभी धर्म ग्रन्थ ऐसी ही बेहूदी बातों से भरे पड़े हैं जिनके निर्देशों का पालन नायडू दंपत्ति ने किया लेकिन असल सजा के हक़दार और इनसे भी बड़े गुनहगार वे धर्म गुरु हैं जो वायरस के वाहक हैं और खुद भी किसी खतरनाक परजीवी वायरस से कम नहीं . लेकिन कोई अदालत स्वत संज्ञान लेते इन मगरमच्छों से बैर लेगी ऐसा सोचने की कोई वजह नहीं .

कृषि कानूनों को किसानों के भले का बताने बाली सरकार को चाहिए कि वह 130 करोड़ देशवासियों के भले के लिए पाप पुण्य और मोक्ष मुक्ति के कारोबार को बंद करने कानून लाने की हिम्मत दिखाए लेकिन यह उम्मीद उस भगवा सरकार से करना तो बेकार है जो खुद गले गले तक इसी में डूबी है . तब तक आइये किसी नए हादसे का इंतजार करें जिसमें बालिका दिवस के मौके पर कोई नई आलेख्या और दिव्या मार दी जाएँ .

डिजिटल जहर अमेरिका से भारत तक फैला भ्रमजाल

लेखक- –शैलेंद्र सिंह के साथ रोहित और शाहनवाज

अमेरिका में जिस तरह ‘क्यूएनन’ बड़ी तेजी से बढ़े उसी तरह भारत में कट्टर अंधभक्तों की संख्या में, 2014 के बाद, तेजी आई. और यह पूरी प्रक्रिया लगभग समानरूप से चलाई गई जिस में इंटरनैट और सोशल मीडिया का बहुत बड़ा हाथ रहा है. आज यह हाथ इतना बड़ा हो चुका है कि इस के फंदे में लोकतंत्र की गरदन फंसी पड़ी है. फौरीतौर पर थोड़ी राहत देने वाली इकलौती बात यह है कि भारत में सोशल मीडिया, लड़खड़ाते ही सही, कट्टरवाद का विरोध कर रहा है क्योंकि यहां का नियमित मीडिया अलोकतांत्रिक टूल बना हुआ है.

अमेरिकी प्रैसिडैंशियल इलैक्शन से ठीक 10 दिनों पहले 23 अक्तूबर, 2020 को वहां ऐक्टर सचा बैरन कोहेन की विवादित फिल्म ‘बोरत-2’ प्रदर्शित की गई. यह फिल्म मौजूदा अमेरिकी पौलिटिक्स और अमेरिकी लोगों के भीतर रूढि़वादी विचारधारा पर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करती है. फिल्म में बोरत नाम का एक किरदार है जिस ने कजाकिस्तान और अमेरिका के संबंधों को अतीत में खराब किया था और अब उसे कजाकिस्तान सरकार से हुक्म मिला है कि वह वापस अमेरिका जा कर उन बिगड़े हुए संबंधों को फिर से ठीक करे. बोरत अमेरिका जाता है, कोरोना के चलते वहां लौकडाउन लग जाता है.

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वह वहां पर एक घर में पनाह लेता है, जिस के सदस्य ट्रंप समर्थक होते हैं. बोरत खुद भी रूढि़वादी होता है, सो, घर के सदस्यों के साथ घुलमिल जाता है. इसी घर के भीतर एक दिलचस्प किस्सा बनता है जब बोरत उन से अमेरिका में लौकडाउन लगने का कारण पूछता है, जिस के जवाब में वे कहते हैं कि यहां एक वायरस फैला है जिसे डैमोक्रेटिक पार्टी की पूर्व प्रैसिडैंशियल कैंडिडेट हिलेरी क्ंिलटन ने फैलाया है जो बच्चों का गला चीर कर उन का खून पी जाता है, वह नरभक्षी है.

ये सब बातें उन्होंने कहीं से सुनीपढ़ी होती हैं. जवाब जारी रखते हुए ट्रंप समर्थक सभी डैमोक्रेट्स को शैतान बताते हैं. वहीं फिल्म के दृश्यों में आगे दिखता है, वे हर दिन इंटरनैट पर ‘क्यूएनन’ की स्टोरीज को स्क्रौल करते हैं और क्यूएनन के नजरिए से देश व दुनिया का हाल जान रहे होते हैं. अब सवाल है कि यह क्यूएनन आखिर है क्या और इस का जिक्र इस बीच कैसे आ गया? अमेरिकी कैपिटल हिल दंगा 6 जनवरी, 2021 अमेरिकी इतिहास में काला दिन के तौर पर दर्ज हुआ है. इस दिन हजारों ट्रंप समर्थक अमेरिकी पार्लियामैंट ‘कैपिटल हिल’ में घुस कर दंगा करने लगे. यह योजनाबद्ध तरीके से किया गया कृत्य था जिस की अगुआई, छिपे तौर पर खुद राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप कर रहे थे.

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ट्रंप समर्थक ‘प्रो ट्रंप रैली’ के माध्यम से कैपिटल हिल पर धावा बोलने का फैसला उस आह्वान पर कर चुके थे जो 19 दिसंबर को ट्रंप ने ट्वीट के माध्यम से किया था. ट्वीट में ट्रंप ने कहा था, ‘वाशिंगटन डीसी पर बड़ा प्रदर्शन, बी देयर, बी वाइल्ड.’ जाहिर है यह ट्वीट अपनेआप में नफरत व गुस्से से भरा हुआ था. ट्रंप की अगुआई में ‘सेव अमेरिका रैली’ की शुरुआत ट्रंप के दोनों बेटों (एरिक और ट्रंप जूनियर) तथा उन के वकील रूडी गुइलियानी द्वारा की गई. दोपहर 12 बजे के करीब ट्रंप के एक घंटे के भाषण में दंगों को भड़काने का विवरण साफ देखा जा सकता था. वे अपने भाषण में वहां मौजूद अपने समर्थकों को कैपिटल हिल (संसद भवन) के अंदर घुसने को उत्तेजित कर रहे थे.

1 बजे जब कैपिटल हिल में वोटों की गिनती शुरू होनी थी उसी दौरान ट्रंप के ये दंगाई कैपिटल हिल की सीढि़यों पर पुलिस के साथ झड़प करते हुए भीतर घुस गए. वे दीवारों पर चढ़ने लगे. उन के हाथों में खतरनाक हथियार, जैसे पाइप बम, बंदूकें, लोहे की रौड, लाठियां इत्यादि थीं. ये सारी बातें इस बात की ओर सीधा इशारा कर रही थीं कि वे वहां किसी खतरनाक इरादे से घुसे थे. इस बीच डोनाल्ड ट्रंप लोगों को शांत करने के बजाय ट्वीट करने में व्यस्त रहे. माइक पेन्स (वाइस प्रैसिडैंट) को देश व संविधान की रक्षा के लिए जो करना था, उसे करने का उन में साहस नहीं दिखा. ऐसे में जब दंगाई कैपिटल हिल के भीतर घुस कर खिड़कियां, कुरसियां, दरवाजे, साइनबोर्ड इत्यादि तोड़ते हुए आपे से बाहर हो गए तब ट्रंप ट्वीट कर शांति बनाए रखने का नाटक करने लगे.

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यह पूरा घटनाक्रम और ट्रंप के सीधे ट्विटर के माध्यम से निर्देश सब तक पहुंच रहे थे. लगभग 12 घंटे लोकतंत्र की धज्जियां उड़ने के बाद तब ट्विटर को ट्रंप के ट्वीट्स को डिलीट करने का मन बना. शुरुआत में ट्विटर ने उन के ट्वीट ही डिलीट किए लेकिन जैसेजैसे ट्विटर की आलोचना होनी शुरू हुई, तो उस ने पहले 12 घंटों के लिए ट्रंप का अकाउंट डिऐक्टिवेट किया और उस के कुछ समय बाद उन का ट्विटर अकाउंट हमेशा के लिए बैन कर दिया. सवाल यह कि ट्विटर को यह सुध पहले क्यों नहीं आई जब ट्रंप ट्विटर के माध्यम से दंगा लगातार भड़का रहे थे? इस पूरे घटनाक्रम में 5 लोगों की मौत हुई जिन में से एक पुलिस का जवान भी शामिल था.

वहीं 68 लोगों की गिरफ्तारी हुई. लेकिन एक लोकतांत्रिक राज्य के लिए सब से बड़ी बात यह है कि पूरे विश्व के सामने अमेरिका की अस्मिता डूब रही थी, उसे छलनी किया जा रहा था. अमेरिका का भविष्य किस तरफ होगा, यह अलग बात है. इस घटना ने यह साबित जरूर कर दिया कि अमेरिका फिलहाल विश्व का नेतृत्व करने लायक बिलकुल भी नहीं रहा. ऐसे में सवाल बनता है, कौन हैं ये लोकतंत्र विरोधी लोग और कैसे इन के दिमाग में ऐसी मानसिकताएं बड़ी तेजी से जन्म ले रही हैं? क्यूएनन और क्यू इसे सम झने के लिए दंगे के बाद वायरल हो रही तसवीरों पर खास गौर करने की जरूरत है.

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इन तसवीरों में दंगाई अलगअलग तरह के साइनबोर्ड और झंडों को अपने हाथों में लिए कूच करते दिखाई दे रहे थे. जिन में राजतंत्रशाही ईरानियन फ्लैग्स, कंफैडरेट फ्लैग्स, इसराईली फ्लैग इत्यादि नजर आ रहे थे. ये झंडे तानाशाही और संकीर्ण मानसिकता को दर्शाते हैं. कंफैडरेट फ्लैग उस गुलामी समर्थन का प्रतीक है जिस के तले नस्लवादी लोग व्हाइट सुप्रीमेसी के गौरवान्वित पलों को महसूस करते हैं. यह झंडा गृहयुद्ध को महिमामंडित करता है और गुलामी को नैतिक व न्यायोचित सम झे जाने का संकेत देता है. यह झंडा उस युग की बात करता है जब अमेरिका में नस्ल के आधार पर भेदभाव जोरों पर था.

दिलचस्प बात यह है कि दंगे के दौरान ‘क्यूएनन’ शब्द इंटरनैट की दुनिया से इतने बड़े स्तर पर बाहर निकल हिंसा की विचारधारा बना हुआ था. क्या है यह क्यूएनन अक्तूबर 2017 में 4 चैन नाम की एक औनलाइन वैबसाइट पर, ‘क्यू क्लीयरैंस पैट्रियट’ को नाम से डिस्कशन के लिए एक पोस्ट शेयर की गई जिस में एक यूजर ने ‘क्यू’ या ‘क्यू क्लीयरैंस’ को उच्च स्तरीय सिक्योरिटी न्यूक्लिअर वैपन विभाग का मैंबर बताया. इस पेज पर भेजे जाने वाले संदेश गुप्त थे जिन्हें ‘क्यू ड्रौप्स’ या ‘ब्रैडक्रम्ब्स’ कहा गया. दिलचस्प यह कि ये सभी गैरकानूनी व गुप्त कोड अथवा संदेश ‘प्रो ट्रंप रैली’ के दौरान स्लोगन्स, पोस्टर, प्लेकार्ड में दिखाई देते थे और दोहराए जाते थे. दिसंबर 2016 में वाशिंगटन डीसी में कौमेट पिंग पौंग नाम के एक रैस्टोरैंट में एक व्यक्ति (28 वर्षीय एडगर मैडिसन) भरी ‘असाल्ट राइफल’ ले कर घुस गया और फायर किया. वारदात के बाद पता चला कि वह आदमी कट्टर ट्रंप समर्थक और व्हाइट सुप्रीमिस्ट था, जिस ने उस वारदात को अंजाम देने से पहले सोशल मीडिया पर एक फौल्स कौंस्परेसी थ्योरी ( झूठी साजिश का सिद्धांत) गढ़ दी थी जो पिज्जा गेट के नाम से चर्चित हुई.

थ्योरी में एडगर डैमोक्रेट हिलेरी क्ंिलटन और जौन पोडेस्टा पर आरोप लगाया गया कि वे उस रैस्टोरैंट के बेसमैंट में चाइल्ड सैक्स रैकेट चलाते हैं. हालांकि यह बात सामने आई कि कौमेट पिंग पौंग में कोई बेसमैंट था ही नहीं. लेकिन इस के बावजूद ट्रंप समर्थक इस अफवाह को इंटरनैट और सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ शेयर व पोस्ट कर रहे थे. इस शूटिंग (वारदात) को ‘क्यूएनन’ की शुरुआत की पहली वारदात माना जाता है. यह सम झ लेने की जरूरत है कि मौजूदा समय में ट्रंप के आगमन के बाद क्यूएनन एक दक्षिणपंथी विचार के तौर पर उभरा है, जिस की मानसिकता बेहद रूढि़वादी और धार्मिक है. इस दक्षिणपंथी विचार वालों का मानना है कि कोविड-19 एक ऐसा छल है जो यहूदियों ने ईसाईयों के खिलाफ किया. इन में से कुछ लोगों का मानना है कि 9/11 का आतंकी अटैक एलियन द्वारा किया गया था.

इस मानसिकता में इस प्रकार का ट्रैंड चल रहा है कि अमेरिका की सत्ता में डैमोके्रट्स नरभक्षी हैं और वे बच्चों का खून पीते हैं, जिन के खात्मे के लिए डोनाल्ड ट्रंप एक मसीहा के तौर पर अवतरित हुए हैं और अमेरिका का तथाकथित पुराना गौरवशाली इतिहास वापस लाना चाहते हैं. इस विचारधारा को लगातार इंटरनैट व सोशल मीडिया के माध्यम से हवा मिलती रही है. यह ठीक वही मानसिकता है जो फिल्म ‘बोरत-2’ के उस किस्से में है जिस में घर के सदस्य न सिर्फ ट्रंप समर्थक होते हैं बल्कि वे क्यूएनन मानसिकता से ग्रसित भी होते हैं. बेलगाम इंटरनैट और सोशल मीडिया कई विश्लेषणों से यह बात सामने आई कि सोशल मीडिया और इंटरनैट पर ‘क्यूएनन’ की लोकप्रियता दिनबदिन बढ़ती ही गई है. कोरोना के कारण अमेरिका में लौकडाउन के चलते लोग इंटरनैट पर ज्यादा समय गुजारने लगे.

तब फेसबुक पर कई गु्रपों ‘क्यूएनन न्यूज एंड अपडेट्स, ‘इंटेल ड्रौप्स’, ‘ब्रैडक्रम्ब्स’, ‘द वार अगेंस्ट केबल’ इत्यादि की सदस्यता संख्या में 1 जनवरी, 2020 से 1 अगस्त, 2020 तक 10 गुना इजाफा हो चुका था. लेकिन ये ही अकेले ग्रुप नहीं थे बल्कि ऐसे न जाने कितने ही गु्रप फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे बड़ेबड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बन रहे व फलफूल रहे थे. फेसबुक ने पिछले साल अक्तूबर की शुरुआत में ही यह कहा था कि वह क्यूएनन से संबंध रखने वाले इस तरह के गु्रप्स और पेज को अपने प्लेटफौर्म से हटाएगा. कंपनी ने कुछ तरह के क्यूएनन संबंधी ग्रुप्स को बैन भी किया था लेकिन अपनी नई पौलिसी के तहत व्यक्तिगत लोगों, जो क्यूएनन से संबंधित पोस्ट शेयर करते हैं, पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया. पिछले ही साल अक्तूबर मध्य तक यूट्यूब ने भी हिंसा भड़काने वाले क्यूएनन संबंधी वीडियोज को बैन किया था.

उस ने तब कहा, ‘‘हम ऐसी सामग्री पर प्रतिबंध लगा रहे हैं जो किसी व्यक्ति या समूह के षड्यंत्र का उपयोग कर दुनिया में हिंसा भड़काने के लिए पोस्ट की जाती है.’’ 21 जुलाई, 2020 को ट्विटर ने भी अपने सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर से 7,000 से अधिक ऐसे क्यूएनन संबंधी अकाउंट्स को बैन किया था जो कि पूरी दुनिया के लगभग 15 लाख लोगों तक अपनी पहुंच बनाते थे. इस पर ट्विटर ने कहा, ‘‘हम उन पोस्टों, सु झावों और पिक्चर्स को हाईलाइट करने से बचेंगे जो ‘क्यूएनन’ संबंधी होंगे.’’ इसी तरह टिकटौक ने भी अक्तूबर में क्यूएनन संबंधी कंटैंट को अपने प्लेटफौर्म से हटाया था.

लेकिन सब से बड़ी समस्या यह कि यह प्रक्रिया इतनी देर में और आधीअधूरी चली कि इस तरह की मानसिकता रखने वाले लोगों द्वारा समाज पर व्यापक स्तर पर क्षति पहुंचाई जा चुकी थी. इसे ले कर बीबीसी की दुष्प्रचार विशेषज्ञ मैरिआना स्ंिप्रग कहती हैं, ‘‘कैपिटल हिल में भाग ले रहे दंगाई इस कृत्य के लिए पहले से उत्साहित थे. वे औनलाइन फैल रहे झूठे दावों (कौंस्परेसी थ्योरी) पर वास्तव में विश्वास रखते थे.’’ वे कहती हैं कि इस दंगे की आहट राष्ट्रपति चुनाव से काफी पहले देखी जा सकती थी. इसी प्रकार किंग्स कालेज लंदन की रिसर्चर डाक्टर अलैक्सी ड्रियू कहती हैं, ‘‘जब वे (क्यूएनन) फेसबुक और ट्विटर पर बैन होने लगे, तब दूसरे गुप्त व गैरकानूनी एक्सट्रीमिस्ट प्लेटफौर्म, जैसे ‘पार्लर’ की तरफ जुड़ने लगे थे.’’ ड्रियू का मानना है कि इस घटना के बाद तमाम बड़े सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बने इस तरह के ग्रुप्स, जो खतरनाक और जानलेवा झूठ फैलाते हैं, पर अब प्रतिबंध नहीं लगाए जाने का उन (कंपनियों) के पास कोई बहाना नहीं बचा है. वे कहती हैं,

‘‘फेसबुक खुद लोगों को गु्रप्स जौइन करने के लिए प्रोत्साहित करता है. उस का ढांचा ही ऐसा है कि जिस तरह की चीजें लोग देखना पसंद करते हैं उन के सजेशन फेसबुक देता है. और यही सिमिलर चीजें ट्विटर और इंस्टाग्राम पर भी देखी जा सकती हैं.’’ उन का मानना है कि फेसबुक पर ये गु्रप बने थे, इसलिए फेसबुक को उन्हें कंट्रोल करना चाहिए था, लेकिन ऐसा समय पर नहीं किया गया और स्थिति खराब हुई. भारत के संदर्भ में विश्व पटल पर जहां सब से पुराने लोकतंत्र के तौर पर अमेरिका को देखा जाता है, वहीं सब से बड़े लोकतंत्र के तौर पर भारत का नाम लिया जाता है. लेकिन मौजूदा समय में दोनों देश एकदूसरे के सामने ‘मिरर इमेज’ के तौर पर खड़े दिखाई दे रहे हैं. अमेरिका में ट्रंप के आने के बाद जिस तरह से मीडिया, इंटरनैट, सोशल मीडिया पर ट्रंप का महिमामंडन किया गया और उसे कथित ऐतिहासिक धरोहर को वापस लाने का मसीहा माना गया,

जिस ने क्यूएननवादी मानसिकता को जन्म दिया, ठीक उसी प्रकार भारत में 2014 में मोदी के सत्ता में आने के बाद लगातार इन माध्यमों ने कट्टर अंधभक्ति को जन्म दिया, जिस में मोदी को हिंदू राष्ट्र वापस लाने का मसीहा माना गया. उन में कथित मुगलों की संतानों से देश को मुक्त करने के तौर पर झांका गया. यही कारण है कि देश में कई मुसलिम शासकों के नाम वाली जगहों का नाम बदला गया. अंधभक्तों के लिए मोदी भारत में अपनेआप में एक राष्ट्र सम झे गए, वहीं कुछ उजाड़ अंधभक्त मोदी को भगवान के रूप में मानने लगे. ये ठीक अमेरिकी क्यूएननवादी जैसे हैं, इन्हें मोदी के फौलोअर्स कहा जाता है. दरअसल ये धर्मभीरु हैं, अंधभक्त हैं. ट्रंप और मोदी की दोस्ती या यों कहें उन के बीच आपसी वैचारिक तालमेल किसी से छिपा नहीं है.

इन दोनों देशों के नेता एकदूसरे को सत्ता में बनाए रखने के लिए एकदूसरे का साथ देते हुए दिखाई देते रहे हैं. 2019 में जहां मोदी को जिताने के लिए ट्रंप ने भारतीय मूल के ‘हाउडी मोदी’ का आयोजन और्गेनाइज किया वहीं 2020 में दोस्ती का फर्ज निभाते नरेंद्र मोदी ने अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रंप’ का आयोजन किया. यह सम झा जा सकता है कि इन दोनों का आपसी तालमेल और खुद को प्रचारितप्रसारित करने का तरीका लगभग समान है. कई मानो में मोदी और ट्रंप दोनों की राजनीतिक नीतियां लगभग बराबर ही हैं. दोनों ही नेता उकसाने वाले राष्ट्रवाद, बहुसंख्यवाद, भय व धु्रवीकरण की राजनीति को बढ़ावा देते हैं. जहां एक तरफ ट्रंप अघोषित प्रवासियों को ‘लुटेरा’ व ‘जानवर’ कह कर पुकारते हैं, मैक्सिकन्स को ‘क्रिमिनल’ और ‘रेपिस्ट’ बताते हैं, वहीं भारत में प्रधानमंत्री मोदी अल्पसंख्यकों को ‘उन के कपड़ों से पहचानने’ की बात करते हैं.

गोधरा में हुई हिंसा के बाद शेल्टर होम में मौजूद पीडि़तों को वे ‘बच्चे पैदा करने की फैक्ट्री’ बताते हैं. दोनों की नीतियां डिटैंशन कैंप बनाए जाने का समर्थन करती हैं. यही कारण है कि जहां अमेरिका में क्यूएनन बड़ी तेजी से बढ़े उसी तरह भारत में 2014 के बाद कट्टर अंधभक्तों की संख्या में तेजी आई और यह पूरी प्रक्रिया लगभग समानरूप से चलाई गई. इंटरनैट बना खुल्ला सांड दोनों की समानताएं सिर्फ नीतियों और विचारधारा में ही नहीं, बल्कि उन्हें अंजाम दिए जाने को ले कर भी हैं. ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं, हाल ही में न्यूयौर्क से प्रकाशित दैनिक ‘द वाल स्ट्रीट जर्नल’ में एक लेख छपा, जिस का हड़कंप भारत में मचा. लेख फेसबुक पर आरोप लगाते हुए कहता है, ‘भाजपा नेताओं के नफरतभरे और हिंसाभरे पोस्ट फेसबुक से इसलिए नहीं हटाए जाते क्योंकि इस से उस के बिजनैस पर फर्क पड़ता है. गौर करने वाली बात यह है कि फेसबुक ने जियो में 43,574 करोड़ रुपए का निवेश किया है और भाजपा की अंबानी व फेसबुक के साथ आपसी मित्रता छिपी नहीं है.

हालांकि इस लेख के पहले भी फेसबुक और भाजपा के आपसी संबंधों का जिक्र आ चुका है कि किस प्रकार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में फेसबुक ने परिणाम को भाजपा के पक्ष में करने में कितना अधिक प्रभाव डाला. बजरंग दल, जो कि एक कट्टरवादी हिंदू संगठन है, को फेसबुक ‘डैंजरस कैटेगरी’ में डालने व उस पर प्रतिबंध लगाने के सोचविचार में था, लगातार उस संगठन द्वारा भड़काऊ व नफरती कंटैंट डालने के बावजूद उसे अभी तक प्रतिबंधित नहीं किया गया है. यही हाल रागिनी तिवारी के मामले में भी होता हुआ दिखता है. रागिनी भड़काऊ और दंगा भड़काने वाली बात सोशल मीडिया पर लाइव कर कहती है लेकिन उस पर कोई ऐक्शन नहीं लिया जाता.

वहीं, दिल्ली दंगों से पहले फेसबुक पर वायरल हो रहे कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण को रोकने में भी फेसबुक नाकाम रहा. ठीक उसी प्रकार, ट्विटर पर लगातार अल्पसंख्यक विरोधी और अपराधियों के पक्ष में ट्वीट ट्रैंड किए जाते रहे हैं, जिन पर अधिकतर समय ट्विटर चुप्पी साध लेता है. गौरतलब है कि नफरत फैलाने वाले ऐसे कई ट्विटर हैंडल हैं जो लगातार दलित और अल्पसंख्यक विरोधी ट्वीट करते रहते हैं. हैरानी वाली बात यह है कि उन लोगों को भारत के जिम्मेदार पदाधिकारी और नेता फौलो करते हैं. इन में खुद प्रधानमंत्री मोदी, पीयूष गोयल इत्यादि शामिल हैं. 5 दिसंबर का हालिया मामला है जिस में भाजपा आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय का किसानों को ले कर किए गए झूठी खबर वाले ट्वीट को ट्विटर ने ‘मैन्युपुलेटेड और मिसलीड मीडिया’ कहते हुए टैग कर दिया. लेकिन हैरानी यह है कि अमित मालवीय खुद ही झूठ की फैक्ट्री है.

उस के असंख्य ट्वीट यहांवहां तैर रहे हैं. ऐसे में उस के सेलैक्टिव ट्वीट को डिलीट करने के बजाय कलैक्टिवली अकाउंट को ही बैन करने की जरूरत थी. जवाबदेही जरूरी है ऐसे ही इंटरनैट पर ढेरों वैबसाइट्स हैं जो लगातार फेक न्यूज को फैलाने का काम कर रही हैं. ये वैबसाइट्स भड़काऊ, नफरती व झूठी खबरें चलाती हैं. ये ठीक उसी प्रकार का खादपानी लोगों के दिमाग में डाल रही हैं जैसे अमेरिका में गुप्त वैबसाइट्स द्वारा क्यूएननवादियों के दिमाग में लगातार एक ही प्रकार का डर, गुस्सा व नफरत डाला जा रहा है. आज सोशल मीडिया ने सामाजिक शर्म का वह परदा उठा दिया है जिस से फिल्टर हो कर जानकारियां गुजरती थीं.

ऐसे में इंटरनैट और सोशल मीडिया इस समय ऐसा खुल्ला सांड बना हुआ है जो किसी के भी नियंत्रण में नहीं है. सरकारों की या सत्तारूढ़ दलों की अपनीअपनी आईटी सैल हैं जो या तो लचर हैं या फिर मैन्युपुलेटेड हैं. जिस समय सोशल मीडिया और इंटरनैट का दौर नहीं था उस दौरान खबरें एक प्रक्रिया से हो कर गुजरती थीं. उस प्रक्रिया में तमाम अखबार, पत्रिकाएं और न्यूज चैनल होते थे जिन की प्रत्यक्ष जिम्मेदारी संपादक की होती थी. ऐसे में अगर किसी नेता को अपनी बात पब्लिक को पहुंचानी होती थी तो वह इन माध्यमों का सहारा लेता था. लेकिन आज ट्विटर, इंस्टाग्राम, फेसबुक, व्हाट्सऐप व दूसरे तमाम सोशल मीडिया बेलगाम माध्यम बने हुए हैं जिन की अकाउंटेबिलिटी तय नहीं है. इन का कोई संपादक नहीं है. इन को कोई क्रौस चैक करने वाला नहीं है, कोई एडिट करने वाला नहीं है. जितनी देर में चीजें आपत्तिजनक मालूम पड़ती हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है.

अमेरिका का कैपिटल हिल दंगा और भारत का दिल्ली दंगा इस का ताजा उदाहरण हैं. आज के समय में इंटरनैट पूरी तरह से बेलगाम हो चुका है और भ्रम की दुनिया बनता जा रहा है. इस के अंदर जहर है, नफरत है, झूठ है, फरेब है, गुस्सा है, गालीगलौच है, जिस की कोई जवाबदेही नहीं है. इन के मालिक या तो सक्षम नहीं हैं या वे मैन्युपुलेटेड हैं जिस कारण इन चीजों पर रोक लगाया जाना इन के बूते के बाहर है. अब यह जरूरी हो चुका है कि विश्व में शांतिव्यवस्था को बनाए रखने की कसम खाने वाले यूनाइटेड नेशन को 21वीं सदी की इस त्रासदी को अपने संज्ञान में लेना होगा. और जिस प्रकार इंटरनैशनल पोस्टल यूनियन को संयुक्त राष्ट्र नियंत्रित व संचालित करता है, ठीक उसी प्रकार वर्ल्डवाइड इंटरनैट भी संयुक्त राष्ट्र संघ की संपत्ति हो जिसे यूएन अपने अधीन रख संचालित व नियंत्रित करे.

इन चीजों को रोकने के लिए यूनाइटेड नेशन हार्ड पौलिसी का निर्माण करे ताकि उस के भीतर आने वाले तमाम देश उस का अनुसरण कर सकें. वरना आने वाला समय सभी देशों के लिए घातक सिद्ध होगा. अमेरिका में जिस तरह हालिया घटना घटी, वह पूरी दुनिया के लिए सबक है, खासकर भारत के लिए जो यदाकदा इंटरनैट व सोशल मीडिया के ट्रैप में फंसते हुए उसी मुहाने पर कहीं न कहीं खड़ा है. पौराणिक कथाओं में भस्मासुर ऐसा राक्षस था जिस ने उन को जलाने या भस्म करने की योजना बनाई जिन्होंने उस को वरदान दिया था. कुछ ऐसा ही सोशल मीडिया के साथ हो रहा है. विश्वभर के नेताओं ने मुख्यधारा की मीडिया के आगे सोशल मीडिया की ताकत को बढ़ा दिया और आज वही सोशल मीडिया इन नेताओं को आईना दिखाने का काम कर रही है.

सोशल मीडिया का प्रयोग भारत में सब से पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था. सुनियोजित तरीके से युवाओं को सोशल मीडिया पर कमैंट करने के लिए तैयार किया गया. उन युवाओं को अपने किए गए कमैंट्स को ले कर अपना पूरा डेटा लिखने के लिए एक्सेल शीट बनानी होती थी. उस में खबर का विवरण, उस का शीर्षक और वैबसाइट का विवरण लिखना होता था. हर कमैंट पर युवाओं को एक रुपए की दर से भुगतान भी किया जाता था. वैसे तो चुनाव लड़ रही दोनों पार्टियां कांग्रेस और भाजपा ने इस का उपयोग किया पर धीरेधीरे भाजपा इस में आगे बढ़ती गई और कांग्रेस पिछड़ गई.

2014 के लोकसभा चुनाव में जीत का बड़ा श्रेय सोशल मीडिया को दिया गया था. भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की छवि बनाने में सोशल मीडिया का बड़ा हाथ माना गया था. सोशल मीडिया का प्रयोग करने के लिए भाजपा ने पार्टी में मीडिया सैल का गठन किया था. 2014 में मोदी ने अपनी आधी लड़ाई सोशल मीडिया पर ही जीत ली थी. सोशल मीडिया पर भाजपा ने बेहद आक्रामक रणनीति अपनाई थी. उस समय की कांग्रेस सरकार, उस के प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह और नेता राहुल गांधी ही नहीं, देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को ले कर ऐसेऐसे पोस्ट, वीडियो वायरल किए गए कि पूरे देश ने इसी बात को सच मान लिया. राहुल गांधी का नाम ‘पप्पू’ दिया गया तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘मौनी बाबा.‘ उसी दौर में अन्ना आंदोलन से अपनी छवि बनाने वाले अरविंद केजरीवाल का ‘मफलर’ और उन की खांसी का मजाक बनाया गया.

यह भाजपा की सोशल मीडिया टीम का कमाल था. उस समय मुख्यधारा की मीडिया भाजपा के साथ खुल कर नहीं थी. ऐसे में भाजपा ने सोशल मीडिया का सहारा लिया था. उसी दौर में अमेरिका के चुनाव में भी सोशल मीडिया चुनावप्रचार का सब से बड़ा जरिया बन कर उभरी थी. सोशल मीडिया पर डोनाल्ड ट्रंप के साथ उन की पत्नी मिलेनिया ट्रंप और बेटी इवांका ट्रंप भी चर्चा में थीं. यह प्रचार किया गया कि इवांका ट्रंप ने अपने पिता डोनाल्ड ट्रंप का चुनावप्रचार करने के लिए अपने कपड़े बेचे और अपने पिता का चुनावप्रचार किया. सोशल मीडिया पर यह बात कुछ उस तरह से ही ट्रैंड हो रही थी जैसे भारत के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने कहा था कि उन्होंने बचपन में चाय बेची थी.

रिपब्लिकन पार्टी के डोनाल्ड ट्रंप की जीत में भारतीय मूल के 34 लाख अमीर कट्टरपंथी और जातिव्यवस्था के घोर समर्थक वोटर्स के समर्थन को बेहद खास माना गया था. इस का कारण यह था कि डोनाल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच के रिश्ते बेहद करीबी बन गए थे. सोशल मीडिया का प्रभाव इन नेताओं पर इस कद्र रचबस गया था कि ये दोनों ही नेता अपनी पार्टी से भी ऊंचे कद के हो गए. दोनों ही नेताओं के बारे में यह कहा जाने लगा कि अब इन का विकल्प नहीं है. अमेरिका में 2020 में जो चुनाव हुए उस में डोनाल्ड ट्रंप को सोशल मीडिया पर अपने से कम लोकप्रिय और अधिक उम्र के जो बाइडन से हार का सामना करना पड़ा.

भारत में मोदी भले ही 2019 के चुनाव में जीत हासिल करने में सफल रहे हों पर भारतीय जनता पार्टी को मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में हार का सामना करना पड़ा. जिस सोशल मीडिया ने अमेरिका और भारत दोनों जगह डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी को सब से मजबूत नेता बताया था वही सोशल मीडिया अब इन दोनों को आईना दिखाने का काम कर रही है. नरेंद्र मोदी के जन्मदिन 17 सितंबर को बेरोजगारों ने ‘बेरोजगार दिवस’ के रूप में मनाया. सोशल मीडिया पर 17 सितंबर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस से अधिक बेरोजगार दिवस के रूप में ट्रैंड हुआ. सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री की तारीफ करते हुए आजकल एक मैसेज बेहद वायरल हो रहा है कि मुख्यधारा की मीडिया की तमाम बड़ी हस्तियों को मोदी प्रभाव ने वहां से बाहर कर दिया.

ऐसे लोग ‘यूट्यूबर’ (यूट्यूब चैनल पर पत्रकारिता करने वाले) बन कर पत्रकारिता कर के अपना जीवन गुजार रहे हैं. किसान आंदोलन के समय जब मुख्यधारा की मीडिया सरकार के पक्ष में खड़ी है तब सोशल मीडिया पर ही किसानों की बात सामने आ सकी. आज के दौर में यूट्यूब चैनल पर पत्रकारिता करने वाले जनता में बेहद लोकप्रिय तो हैं ही, वे सरकार की नीतियों का खुल कर पोस्टमार्टम भी कर रहे हैं और जनता में लोकप्रिय होते जा रहे हैं. जिस सोशल मीडिया के प्रभाव से डोनाल्ड ट्रंप और नरेंद्र मोदी जैसे नेता लोकप्रियता के शिखर छू रहे थे वही सोशल मीडिया अब ऐसे नेताओं के लिए भस्मासुर बन गई है.

पत्रकारों का बढ़ता हुजूम सोशल मीडिया पर पत्रकारों का हुजूम तेजी से बढ़ता जा रहा है. मुख्यधारा की ज्यादातर मीडिया के ‘गोदी मीडिया’ बनने के बाद जनता के बीच सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों को बड़ा समर्थन मिल रहा है. केवल पत्रकार ही नहीं, कवि, गायक और दूसरे वर्ग के जो भी लोग जनता का सच बोलने की ताकत रख रहे हैं उन को समाज स्वीकार कर रहा है. सरकार के समर्थन में खड़ी मुख्यधारा की मीडिया जनता के निशाने पर आ गई. सोशल मीडिया पर ऐसे पत्रकार और गैरपत्रकार सक्रिय हो गए हैं. जो पत्रकार सरकार के निशाने पर थे वे भी सोशल मीडिया की ताकत का प्रयोग कर के जनता की बात सामने रख रहे हैं. सोशल मीडिया पर पत्रकारों का ऐसा हुजूम चर्चा में है.

सोशल मीडिया का मतलब वैबसाइट, फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर और यूट्यूब होता है. बिहार विधानसभा चुनाव के समय सोशल मीडिया की ताकत दिखाई दी. एक अनाम सी लोक गायिका नेहा सिंह राठौर ने बिहार सरकार के खिलाफ मोरचा खोल दिया. उस ने सोशल मीडिया पर ‘धरोहर’ नाम से यूट्यूब पर चैनल खोला, जिस में वह बिहार की सचाई बयान करने लगी. उस का गाना ‘बिहार में का बा’ सब से ज्यादा मशहूर हुआ. नेहा बिहार के कैमूर जिले की रहने वाली है. ‘बिहार में का बा’ गीत सब से अधिक पंसद किया गया. रातोंरात नेहा सोशल मीडिया पर मशहूर हो गई. उस के चैनल ‘धरोहर’ के 1 लाख 53 हजार फौलोअर्स हो गए. कई मीडिया चैनलों ने नेहा को अपने कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए बुलाया. नेहा ने अपने गानों में बिहार की बेरोजगारी और लाचारी सब का जिक्र किया था.

चुनाव खत्म होने के बाद भी नेहा मशहूर है. नेहा के गानों में बिहार के रोतेकलपते मजदूरों के दर्द को बताया गया था. नेहा कहती है, ‘‘हम ने बिहार के सच को लोगों तक पहुंचाने का काम किया. सोशल मीडिया के आने से सब की आवाज सुनी जाने लगी है. पहले केवल मीडिया जिस मुद्दे को उठाता था वही लोग सुनते थे. अब सोशल मीडिया पर हर किसी के सच की आवाज को लोग सुन रहे हैं. हमारी बात को लोगों ने दबाने की कोशिश भी की पर सोशल मीडिया की ताकत के आगे सब फेल हो गया. हम ने अपने गीतों के माध्यम से सरकार से सवाल पूछा था. यह सवाल आगे भी पूछेंगे. सवाल पूछना जनता का हक है. सोशल मीडिया पर हर रोज हमारे फौलोअर्स बढ़ रहे हैं. यही हमारी ताकत है.’’

सोशल मीडिया बना सहारा तालाबंदी और किसान आंदोलन के दौर में सोशल मीडिया ने मुख्यधारा की मीडिया के मुकाबले जनता के मुद्दों को अधिक संवेदना के साथ उठाया. मुख्यधारा की मीडिया से बाहर होने के बाद सोशल मीडिया पर सक्रिय हुए पुण्य प्रसून वाजपेई ने अपने नाम से ही अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया. सरकार की योजनाओं के सच को सामने लाने का काम किया तो जनता ने भी उन का साथ दिया. यूट्यूब पर उन के फौलोअर्स की संख्या 12 लाख 60 हजार हो गई. 20 से 25 मिनट के वीडियो में पुण्य प्रसून वाजपेई सरकार की गलतियों को जनता के सामने लाने का काम करते हैं. उन के कार्यक्रम को खूब पसंद किया जा रहा है. वहीं आशुतोष पहले पत्रकार रहे, फिर आम आदमी पार्टी में गए और अब वापस सोशल मीडिया के जरिए अपना यूट्यूब चैनल बना कर काम कर रहे हैं.

आशुतोष ने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर ‘सत्य हिंदी डौट कौम’ नाम से यूट्यूब पर चैनल बनाया. वे अपने चैनल पर अपील करते हैं कि ‘स्वतंत्र पत्रकारिता को जिंदा रखने के लिए लोग मदद करें.’ सोशल मीडिया पर लोगों ने ‘सत्य हिंदी डौट कौम’ को पंसद किया. इस के 8 लाख 84 हजार सब्सक्राइबर हो गए. इस में दिखाए जाने वाले शो को देखने वालों की संख्या लाखों में होती है. इस में सब से अधिक कार्यक्रम ‘आशुतोष की बात’ को पसंद किया जा रहा है. वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम भी मुख्यधारा की मीडिया से दूर सोशल मीडिया पर चर्चा में हैं. बिहार चुनाव के बाद उन की हनक सोशल मीडिया पर बढ़ी.

इस के बाद अजीत अंजुम के 9 लाख 48 हजार सब्सक्राइबर हो गए. किसान आंदोलन के समय अजीत अंजुम सब से अधिक चर्चा में रहे हैं. वे मुख्यधारा की मीडिया पर हावी दिखे. सोशल मीडिया पर जिस तरह से अजीत अंजुम अपनी बात रख रहे हैं उस से किसानों के बीच वे काफी पसंद किए जा रहे हैं. मुख्यधारा के एक और पत्रकार अभिसार शर्मा भी सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं. जनता ने शुरू किया बायकाट एक तरफ मुख्यधारा के पत्रकार टीवी स्टूडियो में बैठ कर सरकार के समर्थन वाली खबरें प्लांट कर रहे थे तो दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकार किसानों के साथ सड़क पर खड़े उन की बात जनता तक पहुंचाते नजर आए. किसानों के मुद्दों को ले कर सब से सक्रिय रिपोर्टिंग सोशल मीडिया के पत्रकारों ने की.

जब मुख्यधारा की मीडिया वाले किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीन समर्थक बताने लगे, किसानों के रहनसहन और खानपान को मुद्दा बना कर सरकार का पक्ष लेना शुरू किया तो सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों ने किसानों का पक्ष लेना शुरू किया. जिस की वजह से किसान आंदोलन मजबूत हो सका. जनता ने इस को पंसद भी किया. जनता ने श्वेता सिंह, अंजना ओम कश्यप, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया जैसे कुछ समाचार एंकरों का नाम लेना शुरू किया.

आलोचना के कई तरह के वीडियो भी सोशल मीडिया पर वायरल किए गए. लखनऊ में ‘4 पीएम’ नामक शाम का अखबार और अपना यूट्यूब चैनल चलाने वाले संजय शर्मा को लखनऊ में सरकार से सवाल पूछने वाला पत्रकार माना जाता है. उन के चैनल के एक लाख से अधिक सब्सक्राइबर हैं. वे कहते हैं कि सरकार से सवाल करने वालों की ताकत सोशल मीडिया बन गई है. लोगों को लगता है कि इस आवाज को सरकार दबा नहीं सकती है. लखनऊ में ‘भारत समाचार’ को भी इसी बेबाकी के रूप में देखा जा रहा है. जनता का सब से अधिक गुस्सा टीवी के पत्रकारों को ले कर है.

किसान आंदोलन में यह बात साफ दिखाई दी. सोशल मीडिया बनाम मुख्यधारा मीडिया सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकार मुख्यधारा की मीडिया के लिए खतरा हैं. सोशल मीडिया को सरकार भले ही मीडिया नहीं मानती पर जनता ने उस को मीडिया मान लिया है. चुनाव के समय जिस तरह से फेसबुक की सरकार के साथ तरफदारी पर सवाल उठे थे उस से यह खतरा भी है कि सोशल मीडिया को भी आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. सोशल मीडिया पर पत्रकारों का हुजूम जिस तरह से बढ़ रहा है उस का सही लाभ समाज को मिलता नहीं दिख रहा. सरकार सोशल मीडिया को मीडिया का दर्जा नहीं दे रही और उस की आवाज को दबाने को अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरा भी नहीं मानती. मुख्यधारा की मीडिया के मुकाबले सोशल मीडिया पर भरोसा फिलहाल कम है.

पत्रकारिता अब केवल समाचारपत्र और पत्रिकाओं तक सीमित नहीं रह गई है. इलैक्ट्रौनिक चैनलों से शुरू हुए बदलाव के बाद सोशल मीडिया एक क्रांति बन कर दिख रही है. बदलते दौर में जहां मुख्यधारा की पत्रकारिता मानी जाने वाले समाचारपत्र, पत्रिकाएं और न्यूज चैनलों में से ज्यादातर एकतरफा खबरों को दिखाने में लगे हैं वहां सोशल मीडिया जनसरोकार की खबरों को दिखा रहा है. एक बड़े वर्ग तक पहुंचने वाली सोशल मीडिया की खास बात यह है कि यहां खबरों के लिखने और दिखाने के कई आयाम हैं. सोशल मीडिया की सब से बड़ी खासीयत यह है कि यहां हर किसी को अपनी बात कहने की आजादी है.

कम से कम लागत में ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात को पहुंचाया जा सकता है. ट्रंप और मोदी समर्थक इस का दुरुपयोग कर रहे हैं तो लोकतंत्र समर्थक इसी का इस्तेमाल जहर को काटने में कर रहे हैं. जनता के बीच तेजी से पहुंचने के कारण सरकार पर भी इन का प्रभाव व दबाव पड़ता है. कई बार सरकार और प्रशासन इन के दबाव में फैसले भी लेते हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की एक घटना है. सड़क के किनारे एक गरीब आदमी टाइप मशीन रख कर टाइप करने का रोजगार करता था.

एक दिन पुलिस के दारोगा ने लात मार कर उस की मशीन तोड़ दी और उसे भगा दिया. पुलिस का कहना था कि वह सड़क पर अतिक्रमण कर के अपनी दुकान लगाए हुए था. यह बात सोशल मीडिया पर वायरल हुई. अखबारों में खबर छपी तो पुलिस प्रशासन ने न केवल माफी मांगी बल्कि टाइप मशीन भी नई दी. तालाबंदी और किसान आंदोलन में दिखी ताकत तालाबंदी के दौरान तमाम तरह की दिक्कतों को केवल सोशल मीडिया पर ही दिखाया जा सका. दिल्ली में एक बूढ़े दुकानदार के खानेपीने की दुकान का प्रचार करते हुए यूट्यूब पर ‘बाबा का ढाबा’ नाम से उस का प्रचार हुआ तो सैकड़ों लोग उस की मदद को आगे आ गए. दिल्ली सीमा पर किसानों ने कृषि कानूनों के खिलाफ जब आंदोलन शुरू किया तो मुख्यधारा की मीडिया ने किसानों को हतोत्साहित करने व उन को बदनाम करने का काम शुरू किया.

वहीं, सोशल मीडिया पर किसानों की खबरों को वैबसाइट न्यूज, फेसबुक लाइव, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और ट्विटर पर दिखाया जाने लगा. नतीजतन, सरकार दबाव में आई और किसानों से बातचीत शुरू की. किसानों को सोशल मीडिया का साथ नहीं मिला होता, तो सरकार और मुख्यधारा की मीडिया उन को बदनाम कर के धरना छोड़ कर भागने को मजबूर कर देती. किसान भी इस बात को सम झ चुके थे. उन्होंने मुख्यधारा की मीडिया खासकर टीवी चैनलों के बहिष्कार करने का काम शुरू किया. आजतक और जी न्यूज जैसे तमाम टीवी चैनलों के रिपोर्टरों को अपनी ‘माइक आईडी’ छिपा कर वहां जाना पड़ा. जबकि, अपने मोबाइल के जरिए सोशल मीडिया के लिए वीडियो और रिपोर्ट बना रहे पत्रकारों की तादाद बढ़ने लगी. शुरुआत में यह लोगों को सम झ नहीं आ रहा था. जैसेजैसे किसान आंदोलन लंबा चलने लगा, सोशल मीडिया की भूमिका लोगों की सम झ आने लगी.

यही नहीं, इन को देखने वालों की संख्या में भी तेजी से वृद्धि होने लगी. आज समाचारपत्र और टीवी चैनल दर्शकों व पाठकों के लिए तरस रहे हैं जबकि सोशल मीडिया पर पत्रकारों और दर्शकों दोनों की होड़ लगी है. इन पत्रकारों से सरकार परेशान हो गई है. वह इन पर अपना नियंत्रण करने की योजना बना रही है. प्रभाव कम करने में जुटी सरकार सोशल मीडिया सरकार के नियंत्रण में नहीं है. यह उस के लिए परेशानी वाली बात है. सोशल मीडिया पर खबरों के प्रभाव को कम करने के लिए सरकार ने सोशल मीडिया से जुड़े पत्रकारों को पत्रकार मानने से ही इनकार कर दिया है. कई ऐसे पत्रकारों के खिलाफ मुकदमे भी कायम कराए जाने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में एक पत्रकार ने सोशल मीडिया पर स्कूल में मिलने वाले मिडडे मील का वीडियो बना कर पोस्ट किया.

जिस में बच्चों को नमकरोटी खाने को दी गई थी. उत्तर प्रदेश सरकार ने उस पत्रकार को वीडियो बनाने के जुर्म में मुकदमा कायम कर के जेल भेज दिया. असल में सरकार चाहती है कि सोशल मीडिया के पत्रकारों और खबरों को फेक या झूठी बता कर उन को हाशिए पर डाल दिया जाए जिस से जनता उन पर यकीन ही न करे. सोशल मीडिया की पत्रकारिता को पत्रकारिता ही न माना जाए. सरकार के इस प्रयास का उस को यह लाभ होगा कि जब भी किसी ऐसे पत्रकार के खिलाफ सरकार मुकदमा करेगी तो वह पत्रकारिता और अभिव्यक्ति की आजादी को ले कर सवालों के घेरे में न आएगी. यही सरकार जब अपने पक्ष में प्रचार करना हो तो सोशल मीडिया की खबरों को संज्ञान में लेती है और इस का प्रचार भी करती है. पिछले कुछ महीनों में देखा गया कि ट्विटर पर आने वाले कमैंट पर मंत्रीजी ने ऐक्शन ले लिया. इस को मुख्यधारा की मीडिया में इस तरह से प्रचार किया गया जैसे मंत्री हर शिकायत को ले कर कितना सजग है.

बड़े समूह में कैद सोशल मीडिया मीडिया के लिए लिखने के साथ ही साथ जरूरी होता है उस का प्रसार होना. पाठकों के बीच ज्यादा से ज्यादा पहुंचना. सोशल मीडिया आज इसलिए प्रभावी दिख रही है क्योंकि मोबाइल के जरिए वह हर आदमी की पहुंच में है. इस को देखने और पढ़ने के लिए अलग से पैसे खर्च करने की जरूरत नहीं होती. इस को लेने बाजार में जाने की जरूरत नहीं होती. इस का दूसरा पक्ष यह है कि पूरा सोशल मीडिया नैटवर्क साइट पर निर्भर है. चुनाव के समय भारत और अमेरिका दोनों ही जगहों पर यह आरोप खुल कर लगा कि ये सरकार के पक्ष में काम कर रहे थे. सोशल मीडिया पर यह खतरा अधिक है. सरकार ने अगर सोशल मीडिया के लिए जगह देने वाली कंपनी को अपने दबाव में ले लिया तो सभी सरकार के पक्ष में खड़े दिखने लगेंगे. यह मुख्यधारा की मीडिया को अपने कब्जे में लेने से भी सरल काम है.

कंगना रनौत बनाम रिया चक्रवर्ती 2 धड़ों में बंटी मीडिया कंगना रनौत और रिया चक्रवर्ती को ले कर मीडिया 2 धड़ों में बंटी नजर आने लगी थी. अर्णव गोस्वामी जैसे मुख्यधारा के पत्रकार रिया चक्रवर्ती को निशाने पर ले कर सुशांत की आत्महत्या को हत्या बताने में लगे रहे. कई मामलों में यह होने लगा कि मुख्यधारा की मीडिया सरकार के साथ खड़ी नजर आने लगी. सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण की कोर्ट अवमानना की बात हो या स्टैंडअप कौमेडियन कुणाल कामरा द्वारा आलोचना की, मुख्यधारा की मीडिया सरकार के पक्ष में ही खड़ी दिखी. इस कारण से सोशल मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों को जनता का समर्थन मिलने लगा. कंगना रनौत विवाद के बाद सोशल मीडिया पर उस के फौलोअर्स की संख्या 30 लाख से अधिक हो गई. कंगना केवल ट्विटर का प्रयोग ही करती हैं. उन के फौलोअर्स की संख्या अब भी बढ़ती जा रही है. कंगना को केंद्र सरकार के समर्थक सब से अधिक फौलो करते हैं जबकि महाराष्ट्र सरकार के समर्थक मानते हैं कि कंगना का प्रयोग महाराष्ट्र सरकार को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है. सोशल मीडिया के जाल में ट्रंप पहले डिक्टेटर जमीन की चाह में बड़ीबड़ी फौजें जमा करते थे.

उन तानाशाह हमलावरों की नजर जमीन पर नहीं, जमीन पर काम करने वालों की मेहनत का फायदा उठाने पर थी. आज यही काम इंटरनैट के माध्यम से हो रहा है और नई जमीन मिट्टी या पत्थर की नहीं बल्कि तारों, सैटेलाइटों, वाईफाई, इंटरनैट की है. गूगल और फेसबुक आज 2 बड़े समुद्र हैं जिन की जमीन पर एमेजौन जैसी कंपनियां फलफूल रही हैं. अब फेसबुक के मालिक व्हाट्सऐप और फेसबुक को आपस में जोड़ कर इन दोनों को इस्तेमाल करने वालों को अपनी मरजी से जानकारी देने, अपनी मरजी से उन के राज जानने, अपनी मरजी से उन्हें विज्ञापन पहुंचाने की नईनई चेष्टाएं कर रहे हैं. ध्येय यह है कि लोगों को इस तरह सहीगलत जानकारी दे कर भ्रमित रखा जाए कि जो इन के मालिकों को खुश रखे, वह इन लोगों से संपर्क कर सके, बाकी को अंधेरे में रखा जाए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने जो उत्पात मचाया और लोगों को राजधानी पर कब्जा करने के लिए उकसाया, वह ट्विटर के जरिए किया था. इस घटना से घबरा कर ट्विटर, फेसबुक, इंस्टाग्राम और स्नैपचैट ने अमेरिका के राष्ट्रपति के अकाउंट कुछ समय के लिए बंद कर दिए. एक तरह से इन कंपनियों ने अमेरिका के शक्तिशाली राष्ट्रपति का मुंह बंद कर दिया, उन्हें नजरबंद कर दिया, उन को खुली जेल में डाल दिया.

यह माना जा सकता है कि डोनाल्ड ट्रंप अति कर रहे थे, वे लोकतंत्र की जड़ें खोद रहे थे पर ये सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स उन के सब से बड़े टैंक व मिसाइल थे. उन का अकाउंट बंद करना यानी उन को इग्नोर करना सोशल मीडिया प्लेटफौर्मों की ताकत का एहसास कराता है. जब ये अमेरिकी राष्ट्रपति का मुंह बंद कर सकते हैं तो आम आदमी क्या है? एकदूसरे से संपर्क रखने की चाहत ने आज लोगों को खुशीखुशी उन जंजीरों को पहनने को बाध्य कर दिया है जो उन की जानकारी, उन के प्लान, उन की बात को 24 घंटे कंट्रोल कर सकती हैं. ऐसा प्रभाव कभी भी पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचारपत्रों या टीवी का नहीं था. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स अब एकदो हाथों में सिकुड़ रहे हैं. इस का अर्थ है कि अब रूसी, चीनी, अमेरिकी साम्राज्य नहीं चलेंगे, सोशल मीडिया दिग्गजों की चलेगी. जब ये अमेरिकी राष्ट्रपति को बंद कर सकते हैं तो दूसरे किस खेत की मूली हैं. जो देश इन पर नियंत्रण करने की कोशिश कर रहे हैं उन्हें जल्दी दिखेगा कि उन के यहां के मुखर विरोधियों की आवाज ही कट गई है. व्हाट्सऐप और फेसबुक का एक होना मार्क जुकरबर्ग के लिए सेना की जौइंट कमांड बनाने जैसा है, बस.

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