किसान आंदोलन की बात शुरू करने से पहले ज़रा इतिहास पर एक नज़र डालते हैं, ब्रिटिश राज में हिंदुस्तानियों को नमक बनाने का अधिकार नहीं था, जो स्वस्थ जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है. ब्रिटिश हुकूमत ने नमक पर कानून बना रखा था. हम इंग्लैंड से आने वाले नमक को अधिक पैसे देकर खरीदते थे, जबकि हमारे समंदर में नमक की कमी नहीं थी. महात्मा गाँधी ने 12 मार्च 1930 को ‘नमक कानून’ के खिलाफ साबरमती आश्रम से दांडी गांव (गुजरात) तक पदयात्रा निकाली. उनके पीछे पूरा हुजूम चला. गाँधी 24 दिन में 350 किलोमीटर पैदल चल कर दांडी पहुंचे और वहां उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के ‘नमक कानून’ को तोड़ा.
एक दशक पीछे हुए अन्ना आंदोलन की चर्चा करें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ जन लोकपाल विधेयक बनाने हेतु 5 अप्रैल 2011 को अन्ना हज़ारे ने दिल्ली के जंतर मंतर से आंदोलन की शुरुआत की. जल्दी ही आंदोलन व्यापक हो गया और लाखों लोग सड़कों पर उतर आये. उस वक़्त केंद्र में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी. गण के प्रति तंत्र का रवैया सख्त और नकारात्मक था. अन्ना के अनशन का सरकार की सेहत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था. लेकिन अन्ना के साथ जब देश जुटने लगा तो सरकार ने आनन-फानन में एक समिति बनाकर संभावित खतरे को टाला और 16 अगस्त 2011 तक संसद में लोकपाल विधेयक पास कराने की बात स्वीकार कर ली.
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अगस्त के मानसून सत्र में सरकार ने जो विधेयक प्रस्तुत किया वह कमजोर था और उस मसौदे से अलग था जो अन्ना और उनके समर्थकों ने सरकार को दिया था. अन्ना खफा हुए और 16 अगस्त से पुनः अनशन पर बैठ गए. सरकार ने अपनी ताकत का इस्तेमाल किया और अन्ना व उनके समर्थकों को गिरफ्तार कर तिहाड़ भेज दिया. वहां भी अन्ना का अनशन जारी रहा और आंदोलन पूरे देश में भड़क उठा. आखिर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा. वे जेल से रामलीला मैदान पहुंचे और उनके साथ अगले 12 दिनों तक बड़ी संख्या में लोग रामलीला मैदान में जमे रहे.
अन्ना को मनाने और अनशन तुड़वाने की भरपूर कोशिश सरकार ने की. अन्ना-समर्थकों और सरकार के बीच कई दौर की वार्ताएं हुईं, मगर नतीजा नहीं निकला. देश और दुनिया भर के मीडिया की नज़रें अन्ना आंदोलन पर थीं. दसवें और ग्यारहवें दिन भूखे प्यासे अन्ना की हालत बिगड़ने लगी. डॉक्टर्स ने ड्रिप चढाने को कहा, अन्ना ने इंकार कर दिया. सरकार के हाथ-पाँव फूल गए. अन्ना को कुछ हो गया तो क्या होगा? विपक्ष चीखने लगा. आज पत्रकारों के जिस समूह को ‘गोदी मीडिया’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है, वह उस समय अन्ना की बिगड़ती हालत पर केंद्र की यूपीए सरकार पर पिल पड़ी. इनमें से ज़्यादातर पत्रकार रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन का हिस्सा बन गए थे.
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आखिरकार सरकार को झुकना पड़ा. संसद द्वारा अन्ना की तीन शर्तों पर सहमती का प्रस्ताव पास करने के बाद 28 अगस्त को सुंदरनगरी की दलित समुदाय की पांच वर्षीय बच्ची सिमरन और तुर्कमान गेट की रहने वाली मुस्लिम समुदाय की बच्ची इकरा के हाथों शहद मिश्रित नारियल पानी पीकर अन्ना ने अपना अनशन समाप्त किया.
अब बात करते हैं आज के किसान आंदोलन की. 60 दिन से लाखों किसान तीन नए कृषि कानून, जिन्हें जबरन उन पर थोपा जा रहा है, को वापस लेने की मांग लेकर कड़ाके की सर्दी-बारिश में, खुले आसमान के नीचे दिल्ली को घेरे बैठे हैं. उनमें बुजुर्ग किसान हैं, बूढी औरतें और बच्चे भी हैं. अब तक 140 से ज़्यादा किसान अपनी जानें गवां चुके हैं. लेकिन बेशर्म सरकार टस से मस होने को तैयार नहीं है.
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सरकार और किसान नेताओं के बीच दस बार बातचीत हो चुकी है, लेकिन हर वार्ता बेनतीजा. किसान की बस एक मांग है कि तीनों क़ानून वापस ले लो हम चले जाएंगे, लेकिन सरकार अड़ी है.
देश को गणतंत्र बने 72वां साल है. गण तंत्र से मिन्नतें कर रहा है. लेकिन ढीठ सरकार पर गरीब की कराह, खौफ, दर्द, अपनों की मौतों पर गूंजती सिसकियों का कोई असर नहीं है. 12 मार्च 1930 को गाँधी ब्रिटिश हुकूमत का नमक कानून तोड़ने निकलते हैं और 24 दिन बाद तोड़ने में कामयाब हो जाते हैं. अन्ना के अनशन के आगे 12 दिन में यूपीए की सरकार झुक जाती है, लेकिन भाजपा सरकार, ब्रिटिश हुकूमत से भी कहीं ज़्यादा क्रूर है. बोरिस जॉनसन अगर 26 जनवरी 2021 की परेड के मुख्य अतिथि होते तो मोदी सरकार की क्रूरता से काफी सीखकर जाते.
देश में पहली बार गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में दो परेड निकलीं. एक जवानों की, दूसरी किसानों की. दिल्ली की सड़कों पर टैंकों के साथ ट्रैक्टरों का मार्च हुआ. लाखों किसान तय समय और तय रास्तों पर अपने ट्रैक्टर ले कर किसान नेताओं के पीछे शांतिपूर्ण तरीके से निकले. मगर साजिश देखिये कि गोदी मीडिया ने यह तस्वीरें नहीं दिखाईं. हाँ, एक जत्था जो एक साजिश के तहत तय मार्ग को छोड़ कर लाल किले पहुंच गया, सारे चैनल उन्हीं की तस्वीरें दिखाते रहे और किसान आंदोलन पर हंगामा बरपाते रहे.
सरकार और उसकी पुलिस की नाकामी देखिये कि जब आईटीओ पर ही ये साफ़ हो गया था कि ये जत्था लालकिले जाने वाला है, फिर भी उसको रोकने का कोई प्रयास नहीं किया गया? क्या ये पुलिस सुरक्षा पर सवाल नहीं है? क्या ये इंटेलिजेंस फेलियर की बात नहीं है? आखिर भाजपा सरकारें सुरक्षा के मामले में इतनी ढीली क्यों है? उरी, पठानकोट और पुलवामा हमला ढीलेपन की तस्दीक करती है. गलवां में चीन घुस आया, अरुणाचल प्रदेश में चीन ने पूरा गांव ही बसा लिया. सरकार कुछ नहीं कर पायी. थोड़ा और पीछे जाएं तो 1999 में वाजपेयी सरकार में आतंकवादी हवाई जहाज़ का अपहरण करके कंधार ले गए. बदले में सरकार को तीन खूंखार आतंकवादी छोड़ने पड़े. देश की संसद पर हमला भी वाजपई सरकार के दौर में हुआ तो कारगिल युद्ध भी हमने देखा. आखिर भाजपा सरकार हर बार कमजोर क्यों हो जाती है? क्या ऐसी कमजोर सरकार को सत्ता में बने रहने का हक़ है जो चंद किसानों से अपने ऐतिहासिक धरोहरों की हिफाज़त ना कर पाए?
26 जनवरी को लालकिले पर पहुंच कर इस किसान जत्थे ने तिरंगे के नीचे अपना भी झंडा तान दिया. आखिर वो लालकिले में घुसने में कामयाब कैसे हुए? अगर गणतंत्र दिवस वाले दिन भी लालकिले की पुलिस सुरक्षा इतनी लचर थी तो आम दिनों में क्या हाल होता होगा?
दरअसल ये सब उस साजिश के तहत हो रहा था जिसके बाद सारा ठीकरा किसान आंदोलन के सिर मढ़ कर आंदोलन को कमजोर करना था. ये साफ़ हो चुका है कि ट्रेक्टर रैली का तय रास्ता छोड़ कर जो किसान लाल किले पहुंचे थे, उनको लीड करने वाले नेता भाजपा से जुड़े हुए लोग थे, और इसीलिए पुलिस ने उनको नहीं रोका. उनको लालकिले पहुंचने का पूरा मौक़ा दिया गया. मौक़ा आखिर दिया भी क्यों नहीं जाता, जब झंडा उनके ही आदमियों को फहराना था?
झंडा लहराते ही गोदी मीडिया वाले चैनल चीखने लगे कि लालकिले पर खालिस्तान का झंडा फहराया गया. चारों तरफ शोर हो गया. जबकि जो झंडा फहराया गया, वह खालसा पंथ का केसरिया झंडा था, जिसे सिख समाज आदरपूर्वक ‘निशान साहेब’ कहता है. वही केसरिया बाना जिससे भगत सिंह और तिरंगे का केसरिया निकला है. भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट सीमा पर जिन चौकियों की रक्षा करती है, उन सब पर ‘निशान साहेब’ अहर्निश फहरता रहता है. इतना ही नहीं, जब सिख रेजिमेंट दुश्मन की किसी चौकी को फतह करती है तो उस पर भी ‘निशान साहेब’ को शान से फहराती है. लालक़िले पर निशान साहेब को लहराने वाले हाथों में तिरंगा भी था. तिरंगा ऊपर था और निशान साहेब उससे कुछ नीचे, इसलिए यह विवाद ही व्यर्थ है. साजिशकर्ता यहाँ थोड़ा चूक गए. वरना ‘निशान साहेब’ की जगह खालिस्तान का झंडा ही होता.
हकीकत तो यह है कि धर्म का बोलबाला तो उस दिन राजपथ पर निकलने वाली झांकियों में दिखा. गणतंत्र दिवस की परेड में तो सरकार ने विशेष धर्म की रैली ही निकाल दी. धर्म कोई भी हो, लेकिन गणतंत्र दिवस की परेड में उसका क्या स्थान है? धर्म को रैलियों, राजनीति में लाने की परंपरा तो सरकार की कमान सँभालने वालों ने खुद डाली है, फिर जनता से धर्म निरपेक्षता की उम्मीद क्यों? आपने कोरोना वैक्सीन, राफेल, संसद के भूमि पूजन से लेकर राम मंदिर के निर्माण में एक धर्म विशेष के प्रतीकों का उपयोग किया और बाकी धर्मों को इतना दबाया कि आज उन्हें सरकार में अपना नेतृत्व ही नजर नहीं आता. आप सरकार में रहकर धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सके, आप संविधान की शपथ लेकर धर्मनिरिपेक्ष नहीं हो सके, आप जनता से उम्मीद कर रहे हैं कि वह जब रैलियां निकाले तो धार्मिक पताकाओं का उपयोग न करे. ये कैसे संभव है?
गणतंत्र दिवस के दिन आपने पूरा संविधान ही मरोड़कर रख दिया, मगर किसानों के साथ सिख धर्म के प्रतीकों से आपको दिक्कत होने लगी? आपने नए संसद भवन के भूमि पूजन से लेकर, गणतंत्र दिवस की परेड तक में धार्मिक प्रतीक घुसा दिए. आपने न्यायालय पर चढ़कर एक धर्म विशेष का झंडा लहराने वालों को सम्मानित किया. आपने जय श्री राम के नारे लगाकर हत्या करने वालों को मालाएं पहनाई. आपने तो खुद तिरंगे और संविधान की आत्मा को तार-तार किया. आपने तिरंगे कि जगह हर जगह भगवा लहरा दिया. अब उसी तिरंगे के नीचे कुछ लोगों ने अपने धर्म की पताकाएं लहरा दीं तो आपको दिक्कत होने लगी? इसके जिम्मेदार तो आप खुद हैं. परंपरा तो आपने डाली है, उसके दुष्परिणाम तो नीचे तक पहुँचने ही हैं. आपने आईआईटी जैसे संस्थानों की वेबसाइटों में गीता-रामायण डलवा दिए. प्रधानमंत्री स्वयं मन्दिर पूजन में जाते हैं. आरतियां करते हैं. भूमि पूजन करते हैं, जबकि उसी अयोध्या में मस्जिद का शिलान्यास भी किया जा रहा है, मगर प्रधानमंत्री की तरफ से एक ट्वीट तक नहीं आया. सरकार सांप्रदायिक रहे, उसके मंत्री दंगाई रहें, संविधान के पालन की जगह कर्मकांड हों और फिर आपकी इच्छा कि प्रदर्शनकारी ‘धर्म निरिपेक्ष’ हों. ऐसा नहीं होता.
किसानों ने तो फिर भी संविधान का सम्मान रखा. तिरंगे का सम्मान रखा. उन्होंने एक हाथ से अपने संगठनों की पताकाएं फहराईं, तो दूसरे हाथ से तिरंगा फहराया. कुछ किसानों ने तो बदन से भी तिरंगा लपेट कर रखा था.
लालकिले पर प्रदर्शन मामले में पुलिस ने किसान नेताओं और किसानों के खिलाफ तमाम एफआईआर की हैं. कुछ किसान इससे डरे भी हैं. आंदोलन को इस उत्पात से थोड़ा धक्का भी पहुंचा है, लेकिन अगर मोदी सरकार ये सोचती है कि इस तरह की साजिशों से आंदोलन ख़त्म हो जाएगा तो ये उसकी खामखयाली ही है. यह आंदोलन किसानों के लिए जीवन मरण का प्रश्न है. सब कुछ सहते हुए, जान देते हुए भी बिल्कुल अहिंसात्मक तरीके से किसान महीनों से डटें हैं. यह आंदोलन साजिशों से, लॉलीपॉप देने से या दमन से खत्म होने वाला नहीं है, भले थोड़ा लंबा हो जाये. जनता की सहानुभूति किसानों के साथ है. 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर उनकी ट्रैक्टर रैली पर लोगों ने घर से निकल कर पुष्प वर्षा की. उनका उत्साहवर्धन किया. उनके साथ नाचे-गाये. सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि किसान एक संगठित राजनीतिक शक्ति भी है, वरना अकाली दल आज सरकार से बाहर न होता. सौ की सीधी बात यह है कि नए कृषि कानूनों का विरोध किसान इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वह यह अच्छी तरह समझ रहे हैं कि मोदी सरकार अपने चंद ख़ास कॉर्पोरेट दोस्तों को फायदा पहुंचाने के लिए यह बिल लाकर उनकी जमीनें और पैदावार छीनने की साजिश रच कर बैठी है.