लेखक- रोहित

कई लोग मेहनत और अनुशासन के पथ पर चलने को कष्टदायक सम झते हैं. वे इस से मुंह मोड़ लेते हैं. ऐसे में वे लोग कभी अपनी क्षमता का आकलन नहीं कर पाते और भविष्य में आने वाली छोटीमोटी मुसीबतों से ही जल्दी टूट जाते हैं. कहते हैं आग में जल कर ही सोना कुंदन बनता है. यानी पहले खुद को तपाना पड़ता है, उस के बाद सफलता चूमने को मिलती है. लेकिन अजीब यह है कि इंसान अपनी सफलता व असफलता के पैमाने को अपने तथाकथित ‘भाग्य’ और ‘शौर्टकट’ से जोड़ कर देखने लगता है.

वह मानने लगता है कि यदि ‘भाग्य’ में होगा तो ही कुछ मिलेगा, भाग्य प्रबल होगा तो घर बैठे ही मिल जाएगा या जीवन में कुछ तो जुगाड़ कर लिया जाएगा. ऐसे में व्यक्ति मेहनत करने के लिए उतना नहीं सोचता जितना इन चीजों के प्रबल होने के बारे में सोचता है. थोड़ा सा कष्ट मिलते ही वह अपने पांव पीछे खींचने लगता है. वह संघर्ष के आगे खुद को असहाय महसूस करता है और हार मानने लगता है. ऐसे में वह खुद पर विश्वास करने की जगह दूसरों पर अधिक निर्भर होता जाता है. लेकिन जैसे ही यह निर्भरता टूटती है, उसे एहसास होता है. पर तब तक काफी देर हो चुकी होती है, उस के पास अपना सिर पीटने के अलावा रास्ता नहीं बचता. सच, सही समय पर कड़े परिश्रम का कोई सानी नहीं है.

ये भी पढ़ें- आखिर क्यों बच्चे सुनाने लगते हैं मां-बाप को खरीखोटी!

इस का उदाहरण धावक हिमा दास से लिया जा सकता है, जिन्होंने सम झाया कि असल जीवन में भी सफलता के लिए लगातार दौड़ना ही पड़ता है. किसान परिवार में पैसों की अहमियत काफी होती है. किसान परिवार में जन्मी हिमा दास सम झौतों से रूबरू होती सफलता की आसमान छूती इमारत के शिखर पर चढ़ीं. किसान पिता ने अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से 1,200 रुपए के एडिडास कंपनी के जूते खरीदे, जिन्हें बड़े जतन से अपनी पुत्री हिमा दास को सौंपे, जैसे एक पिता अपने पुत्र को विरासत सौंपता है. अब उसी एडिडास कंपनी ने हिमा को चिट्ठी लिख अपना एंबैसडर बनाने का फैसला किया है. गरीब व कमजोर परिवार से आने वाली हिमा दास ने अपनी मेहनत पर भरोसा किया.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...