लेखक- रोहित और शाहनवाज
26 नवम्बर वह दिन जब देश के शहरी लोगों को इस बात की भनक लगनी शुरू हुई कि 2 महीने पहले सितंबर में, सरकार ने कोरोना को अवसर बना संसद से ऐसे विवादित कृषि कानून पास किए हैं जिसे ले कर आगे आने वाले दिनों में दिल्ली के बोर्डर जाम होने वाले हैं. दिलचस्प बात यह कि जिस समयपार्लियामेंट के 40 किलोमीटर की परिधि में अधिकतर शहरी लोगों को कृषि कानूनों का ‘क’ भी नहीं पता था, उस समय संसद से सैकड़ों किलोमीटर दूर देहातों में रहने वाले किसान इन कानूनों के खिलाफ पहले से चल रहे अपने आंदोलन की रुपरेखा तैयार कर रहे थे.
शहरी लोगों की नींद तब खुली जब किसान कई स्तरों के मोर्चों को तोड़ते हुए दिल्ली की तरफ कूच कर गए. हजारों की संख्या में पंजाब से किसान अपनी ट्रेक्टरट्रौली लेकर दिल्ली के बौर्डर पर पहुंच गए.आंदोलन की आवाज इतनी बुलंद थी कि नेताओं से ले कर आम जन के कानों को भेद रही थी. स्वाभाविक था कि इस आन्दोलन में अधिकतर किसान पंजाब राज्य से थे, तो एक सवाल लगातार चारों तरफ से घूमने लगा कि आखिर पंजाब के किसानों को इन नए कानूनों से क्या समस्या है?
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यह सवाल हमारे दिमाग में भी खलबली मचाने लगा, जिसे ले कर हम दिल्ली के अलगअलग बौर्डरों पर जा पहुंचे.अब यह सीधे देखने में आ ही रहा था कि खास रूप से पंजाब केकिसान मोर्चों पर डटे हुए थे, और उन के नेतृत्व में बाकी राज्यों के किसानोंकी भी मोर्चेबंदी होने लगीथी. इस दौरान, हम ने कई किसानों से बात की, जिन्होंने बताया कि वे अपने साथ कई महीनों का राशन, बर्तन, कंबल, रजाई इत्यादि जरुरी सामान ले कर आए हैं. जाहिर है यह एक योजना का हिस्सा था. लेकिन उस दौरान आम लोगों के बीच इस तरह की चर्चा भी गर्म थी कि इस आन्दोलन को भी ठीक उसी तरह कुचल दिया जाएगा जैसे अतीत में भाजपा सरकार द्वारा पुराने आन्दोलनों को कुचला गया है.
किन्तु आज 44 दिनों से भी ज्यादा हो चले हैं और वह सारी गर्म चर्चाएं ठन्डे बस्ते में जाती दिख रही हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि आन्दोलन पहले से अधिक व्यापक, मजबूत और सुनियोजित हो चुका है, जिसे अब आम जन का भी सहयोग मिलता नजर आ रहा है. ऐसे में इस आन्दोलन की मुख्य धुरी के रूप में पंजाब बड़े भाई का किरदार निभा रहा है, जो पुरे देश के किसानों का नेतृत्व कर रहा है.ऐसे में सवाल यह कि बड़े भाई का किरदार अदा करने वाले पंजाब के किसानों के अन्दर सरकार से टकराने की इतनी हिम्मत आखिर आई कहां से?
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एकजुट मजबूत यूनियनें
5 जून को अध्यादेश आने के बाद सब से पहले पंजाब में ही किसानों ने आन्दोलन करना शुरू कर दिया था. भले देश लोकडाउन के चलते कैदखाना बन गया हो लेकिन पंजाब उस दौरान उड़ रहा था. वहां के किसान अपनी घरों की छतों से ही इन अध्यादेशों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर रहे थे. लौकडाउन हटा तो इस आन्दोलन ने आग पकड़ना शुरू किया. शुरुआत में पंजाब के 11 किसान यूनियनों ने इन कानूनों का विरोध किया. जिन के आन्दोलन भले ही अलग रहे हों, लेकिन एजेंडा एक था ‘नए कृषि कानूनों की वापसी’. इसी के चलते पुरे पंजाब में कई जत्थेबंदियां बढ़ी. अलगअलग मोर्चों पर ‘रेल रोको’, ‘ट्रेक्टर रैली’, नेताओं का घेराव इत्यादि आन्दोलनों को संचालित किया गया. और देखते ही देखते 31 किसान यूनियनों, जिन में खेत मजदूर यूनियन भी शामिल हो गईं. किसानों ने फैसला लिया कि अब इस आन्दोलन को व्यापक बनाने के लिए एक साथ मिल कर एक मंच बनाने की जरुरत है ताकि साझा फैसले लिए जाएं. जिस के बाद उन्होंने संयुक्त मोर्चा का गठन किया.
यह इस आन्दोलन की खूबसूरती है कि तमाम आपसी वैचारिक मतभेदों को दरकिनार कर यह यूनियनें एक मंच पर आ कर सहमतियों का रास्ता खोज रही हैं. इसी के तहत वे तमाम आन्दोलन की योजनाओं की रूपरेखाएं तैयार कर रही हैं जो जाहिर है विशुद्ध लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से गुजर रही है. गौरतलब है कि इन में से अधिकतर किसान यूनियनों का किसी भी राजनैतिक पार्टीयों से सम्बन्ध नहीं है. यह एक बहुत बड़ा कारण भी है कि यह जत्थेबंदियां बिना किसी राजनीतिक दबाव, लोभलाभ के इस आन्दोलन को चला रहे हैं.और यही कारण भी है कि पंजाब के आम किसानों के भीतर अपनी यूनियनों के प्रति एक विश्वास कायम है जो उन्हें इन विपरीत परिस्थितियों में लड़ने की हिम्मत दे रहा है.
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गहरी सामुदायिक भावना और अस्मिता का सवाल
आन्दोलन के शुरूआती समय से ही पंजाब के अलगअलग तबकों, वर्गों, पेशों से एक सुर में इन कृषि कानूनों के खिलाफ आवाज उठने लगी थी. और इन आवाजों को और अधिक तीखा करने का काम खुद सरकार और उस के टटपूंजियों ने किया. जिस दौरान किसान दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे तो उन्हें बदनाम करने के लिए कभी खालिस्तानी, कभी आतंकी, कभी देशद्रोही तो कभी नक्सली कह कर पुकारा जाने लगा. ऐसे में पंजाब के हर व्यक्ति के भीतर सामुदायिक भावना और भी दृढ़ होती चली गई. पंजाब की मिट्टी से जुड़े वे सारे लोग जो देशविदेश में फैले हुए हैं, उन की भावनाओं को भी क्षति पहुंची. और यह बात किसी से छुपी नहीं कि यूरोप के देशों में पंजाब राज्य से जुड़े काफी संख्या में एनआरआई हैं, तो स्वाभाविक था कि वे भी किसान आन्दोलन के समर्थन में आंदोलित हुए.
किसान आन्दोलन की खासियत यह है कि यहां बात पंजाब की अस्मिता से भी जुड़ती दिखाई दे रही है. मानो बात पंजाब बचाने पर आ गई हो. इसी तरह का वाक्यांश सिंघु बौर्डर पर प्रदर्शन में शामिल हुए इंदरजीत का था. इंदरजीत सिदमान बट, लुधियाना से आते हैं. वे कहते हैं, “पंजाबी कौम एक बार कुछ ठान ले तो जान की बाजी लगा कर उसे पूरा करते हैं. और अब तो हमारे जीवन जीने पर हमला है ऐसे में तो हमें बाहर आना ही था.”
किसी भी आन्दोलन में आपसी सामुदायिक भावना का प्रबल होना बेहद जरुरी होता है. इसे समझने के लिए दिल्ली के किसी भी बोर्डर, जहां किसान आन्दोलन चल रहा है, वहां जा कर समझा जा सकता है. हमारी टीम जिस समय भी धरनास्थलों परगई, वहां टूरिस्ट प्रदर्शनकारी कम और वोलिंटियर प्रदर्शनकारी अधिक दिखाई दिए, जो लगातार किसी न किसी काम में व्यस्त रहते, कभी बुजुर्गों की सेवा में, कभी लंगर के काम में, कभी साफसफाई में. मानों हर काम, वहां मौजूद हर व्यक्ति को परफेक्ट्ली बांट दिया गया हो. यह चीजें बिना आपसी समझदारी, प्रेमभाव, और इमानदारी के नहीं हो सकता.
सामुदायिक भावना की प्रबलता का सब से बड़ा उदाहरण इसी से समझा जा सकता है कि भाजपा सरकार के खुद का कोई भी ऐसा पंजाबी चेहरा इन कानूनों के पक्ष में खुल कर सामने नहीं आ पाया है. छुटपुट सांसद (सनी देओल) ट्विटर पर जरुर आए लेकिन वे पूरी तरह किसानों का विरोध करने में बचते रहे. बल्कि उल्टा 2 दशकों से ऊपर की सहयोगी पार्टी (एसएडी) तक भाजपा से छिटक गई. देखा जाए तो पंजाब पूरा किसान प्रधान राज्य है. यहां रोजगार का मसला पूरा खेती से जुड़ा हुआ है. किसान प्रधान राज्य होने के चलते यहां की राजनीति कृषि से जुड़ी है. ऐसे में जो पार्टी किसानों के हितों के खिलाफ होती है उस का यहां सामूहिक बहिष्कार होता है, और किसानों के लिए मुद्दा जीवन का अपनेआप बन जाता है.वहीँ अगर दूसरा सब से आक्रोशित राज्य, हरियाणा की ही बात की जाए तो कथित किसान हितैषी जेजेपी पार्टी भले ही आज सब से अधिक दबाव में चल रही हो,लेकिन वह भाजपा के साथ जाकर अपनी नैतिकता को दावं पर लगाने को तैयार है.
इंदरजीत कहते हैं, “आज पंजाब में ऐसा माहौल बन चुका है कि अगर लोग आन्दोलन में शामिल नहीं हो पा रहे तो वे खुद को दोषी मान रहे हैं. यह पंजाब की एकजुटता का स्वर्णिम समय है. गांव में लोग बिन कहे एकदुसरे के खेतों का काम कर रहे हैं. एकदुसरे का घरबार संभाल रहे हैं.”
सामुदायिक भावना का उदाहरण कई मौकों पर देखा जा सकता है, लेकिन सब से जरुरी उस हिस्से परचर्चा की है जो आमतौर पर ऐसे परिघटनाओं से खुद को काट कर चलता है.यह हिस्सा मशहूर हस्तियों का है. यह हिस्सा सीधासरकार के खिलाफ जाने से कतराता है. लेकिन पंजाब एक अपवाद बन कर उभरा है जहां शुरू से ही छोटे से ले कर बड़े कलाकारों, खिलाड़ीयों, वैज्ञानिक, सरकारी मुलाजिम खुल कर इन कानूनों के खिलाफ सामने आए.
शहादत का जज्बा
आन्दोलन के शुरूआती दिनों से पंजाब के किसानों के हावभाव बिलकुल ही अलग थे. हमारी टीम पहले दिन ही सिंघु बोर्डर की तरफ चली गई थी. सिंघु जाने के बाद वहां का नजारा साफ दर्शा रहा था कि किसान किस मकसद से दिल्ली आए हैं. धरनास्थल पर घुसे तो ट्रेक्टरों, ट्रोलियों पर क्रांतिकारियों और शहीदों के पोस्टर चिपके हुए थे. कहीं क्रांतिकारियों की कविताएं तो कहीं गीत वाले बड़े पोस्टर दिख रहे थे.खासकर युवाओं के हाथों में शहीद भगत सिंह, उधम सिंह, पाश इत्यादि की तख्तियां थी.समय गुजरने के साथ अलगअलग बोर्डर पर लाइब्रेरी, बुक स्टाल, टेंट की व्यवस्था अधिक हुई हैं, लेकिन दिलचस्प बात यह कि वह तख्तियां मात्र नामी नहीं हैं. बल्कि उन क्रांतिकारियों को किसान आत्मसात भी कर रहे हैं.
युवाओं के बीच किताबों के माध्यम से भगत सिंह की प्रेजेंस वहां आसानी से देखी जा सकती है. टेंट, लाइब्रेरी, ट्रोली में पाश और भगत सिंह की किताबें पढ़ते हुए युवाओं का दिखना आम है.सिंघु में ‘सांझी सथ’ लाइब्रेरी चलाने वाले वोलिंटियर से जब युवाओं में किताबों की दिलचस्पी के बारे में पूछा गया तो उन में से एक विशाल कुमार का कहना था, ‘यहां हर समय लोग रहते हैं. लाइब्रेरी में खास कर 15 से 40 साल के लोग अधिकतर आते हैं. जिन्हें युवा कहना ठीक रहेगा. पूरे दिन लाइब्रेरी चलती रहती है. हांलाकि यहां लोगों की चोइस उम्र के हिसाब से थोड़ी अलगअलग है. कहना थोड़ा मुश्किल है लेकिन भगत सिंह की ‘जेल नोट बुक’, ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’, ‘संकलित रचना’, करतार सिंह साराभा, उधम सिंह, सुखदेव, किसान आन्दोलन का इतिहास, पंजाब का इतिहास और पाश इत्यादि हम ने इसलिए रखी है क्योंकि युवाओं में इसे ले कर दिलचस्पी है. कुछकुछ तो यहां अलगअलग विषयों पर बहसचर्चा भी करने आते हैं.”
यह आन्दोलन कीएक जरुरी बात है कि आन्दोलन में आन्दोलनकारी किसे अपना आइकन बनाते हैं. ऐसे में पंजाब के किसान और युवा खुद को उस शहादत की विरासत से जोड़ कर देखने लगे हैं, जो इतिहास से इस भूमि के सपूतों ने दी हैं.उत्तराखंड के बाजपुर (काशीपुर) से टीकरी बोर्डर पर आन्दोलन में शामिल, रिटायर्ड सूबेदार मेजर राजदीप ढिल्लन का कहना है, “पंजाब हमेशा से ही देशव्यापी आंदोलनों का नेतृत्व करता आया है. हम ने मुगलों से जंग लड़ी, फिर अंग्रेजों के साथ भी लोहा लिया और अब इन नए कंपनी राज का भी सामना कर रहे हैं. हमें जो गलत लगता है हम एक साथ खड़े हो जाते हैं चाहे जान क्यों ना चली जाए.” गौरतलब है कि 7 जनवरी तक आन्दोलन में शामिल कुल 56 लोगों की मौत हो चुकी है. यह किसान आन्दोलन में शामिल रहे हैं, कुछ ने धरनास्थलों पर इन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ फांसी लगा ली है. ऐसे में किसान इन्हें शहीद का दर्जा देते हैं.
आकड़े मजबूत तो किसान हिम्मती
यह बात अब खुल कर सामने है कि यह नए कानून कृषि से जुड़े सेक्टर में निजी उद्यमों को खुली छूट देने के लिए लाए जा रहे हैं. इस से अब नियंत्रण सरकार से सीधा बड़े उद्योगपतियों के पास जाने वाला है. सरकार भले ही एमएसपी को बनाए रखने की बात कर रही हो लेकिन इन कानूनों से किसान ऐसे ट्रैप में फंसेंगे जिस से कुछ समय बाद एमएसपी का वजूद ही ख़त्म हो जाएगा.वहीँ भंडारण के कानून से मार्किट के भाव अब पूरी तरह कौर्पोरेट के हाथों नियंत्रित रहेंगे. वे फूड चैन सप्लाय को अपने इशारों से चलाएंगे, जिस पर सरकार की कोई रोकटोक नहीं रहेगी.
इस बात को पंजाब के किसान पूरी तरह समझ चुके हैं. यह एक कारण है कि वे सब से ज्यादा आंदोलित नजर आ रहे हैं. लेकिन सवाल यह कि बाकी राज्यों के किसान क्या अपनी बुराई चाहते हैं? क्या उन्हें यह मसला समझ नहीं आ रहा? इस पर राजदीप का कहना है, “देश का किसान इस बात को समझ तो रहा है लेकिन सरकार ने कंडीशन ही ऐसी रख दी है कि बाकि राज्यों के किसान आ ही नहीं पा रहे. अब आप बताइए महाराष्ट्र का किसान बिना ट्रेन के हजारों किलोमीटर दूर क्या पैदल चल कर आ पाएगा? जिन से संभव हो पा रहा है वे बस का महंगा खर्चा उठा कर आ पा रहे हैं. बाकी रही बात यूपी, उत्तराखंड और हरियाणा की तो वे दिल्ली के नजदीक हैं इसलिए आजा रहे हैं.”
हांलाकि वे यह भी मानते हैंपंजाब की तरह बाकी राज्यों में किसान लहर थोड़ी फीकी भी है. इस का कारण लम्बे समय से सरकारों द्वारा पैदा की गई परिस्थितयां हैं. इसे समझने के लिए कुछ आकड़ों पर गौर करने की जरुरत है.पंजाब वह राज्य है जिसने “देश की खाद्य टोकरी” और “भारत के अन्न भंडार” का नाम कमाया है.5 नदियों की यह भूमि पृथ्वी पर सबसे उपजाऊ क्षेत्रों में से एक है. भौगोलिक दृष्टि से देखें तो सम्पूर्ण पंजाब की जमीन के 83.4% हिस्से पर खेती की जाती है.
भारत सरकार कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में टोटल धान के उत्पादन का 97% हिस्सा और गेंहूं का टोटल 70-80% हिस्से की सरकारी खरीद होती है.मुख्य रूप से इस राज्य में धान और गेहूं की फसल उगाई जाती है. ऐसे में सीधा नुकसान पंजाब के किसानों को होने वाला है. इन कानूनों के वजूद में आने से सवाल उन के डूबते भविष्य का बन गया है. देश में कुल 7,320 एपीएमसी मंडियां है जिन में से लगभग 1,850 एपीएमसी की मंडियां अकेले पंजाब में ही है,उन में से 152 बड़ी मंडियां हैं. यानि देश की कुल एपीएमसी मंडियों का एक चौथाई पंजाब में ही मौजूद है.ऐसे में पंजाब में अच्छीखासी एपीएमसी मंडियों का जाल यहीं बिछा हुआ है.
भारत सरकार कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में किसानों के जमीन पर मालिकाने हक की बात करें तो 18.7% सीमान्त किसान,जिन के पास 1 हेक्टेयर से कम जमीन हैं, 16.7% छोटे किसान, जिन के पास 1-2% तक जमीन हैं और 64.6% वे किसान हैं,जिन के पास 2 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन हैं जिन पर वे खेती करते हैं.भारत का 6 फीसदी किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है यानी 94 फीसदी किसान अपनी खेती को औनेपौने दाम में बेचने को मजबूर हैं. ऐसे में इकलौता पंजाब और बहुत हद तक हरियाणा ऐसे प्रदेश हैं जहां एपीएमसी मंडियां मजबूत हैं. जहां फसल की सरकारी खरीदबेच हो पाती है. इसलिए पंजाब के किसानों के लिए यह जीनेमरने वाली परिस्थित बनी हुई है. यही कारण भी है किएनएसएसओ के आकड़ों के अनुसार पुरे देश में पंजाब के किसानों की औसत आय सब से अधिक है. देश में जहां देश की औसत आय 6,426 है वहीँ पंजाब की 18,056 है.हांलाकि देश के किसानों की औसत मासिक आय का 3 गुना होने के बावजूद पंजाब के किसान कर्ज में डूबे हुए हैं. पंजाब यूनिवर्सिटी, पटिआला के अर्थशास्त्र विभाग के द्वारा 2017 में जारी किए गए एक सर्वे के अनुसार पंजाब में 85.9% कृषक परिवार और लगभग 80% कृषि श्रमिक परिवार कर्ज में डूबे हुए हैं. ऐसे में निजी उद्यमीयों की दखल का डर उन्हें और भी सता रहा है.
बाकि राज्यों किसानों की हालत पहले ही खस्ता हो चुकी है. वहां सरकारी खरीद ना के बराबर है. एपीएमसी मंडियां उजाड़ हो चुकी हैं. निजी दखल बढ़ चुकी है. ऐसे में अब ये कानून देश के अब बचेकुचे कृषि व्यवस्था पर हमले जैसा है. यही कारण भी है किपंजाब के किसानों के लिए यह सीधा सर के ताज छिनने जैसी बात हो गई है. जिसे पंजाब का किसान हरगिज नहीं चाहता. और वह इस अब सरकार के खिलाफ सीधा संघर्ष करने का माद्दा रख रहा है.