‘‘इस में अचरज की क्या बात है. क्या तुम्हारी उम्र की और लड़कियां खाना नहीं बनातीं?’’ दीपकजी बोले.
‘‘लेकिन वे अपने पिता की लाड़ली थोड़े ही हैं,’’ विभा ने अपनी बांहें दीपकजी के गले में डाल कर लडि़याते हुए कहा, ‘‘मु?ो कहां आता है खाना बनाना.’’
‘‘विकास, तुम सब्जी ले आया करो. बाहर के कामों में मां का हाथ बंटाया करो,’’ दीपकजी ने बेटे से कहा.
यह सुन कर विकास आश्चर्य से उन्हें देखता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘पिताजी, अब तक तो ये सारे काम मां ही देखती आई हैं.’’
दीपकजी चुप हो गए. उन्हें महसूस हुआ कि कहीं कुछ गलत, बहुत गलत हो रहा है. बच्चों में घर के हालात सम?ा कर जिम्मेदारीपूर्वक कुछ करने की भावना ही नहीं है. लाड़प्यार और सिर्फ लाड़प्यार में पले ये बच्चे इस स्नेह का प्रतिदान करना ही नहीं जानते. वे तो सिर्फ एकतरफा पाना जानते हैं.
उन्हें याद आया कि 5 वर्ष की नन्ही सी उम्र में ही वे अपनी मां का दर्द सम?ाते थे. उन का सिर दबाने की चेष्टा करते. उन का कोई काम कर के धन्यता का अनुभव करते, लेकिन मां उन्हें 7-8 बरस का छोड़ कर चल बसीं. उन के सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा. संयुक्त परिवार में ताईजी, चाचीजी का कृपाभाजन बनने के लिए बहुत जद्दोजेहद करनी पड़ती. उन के कई काम करने के बाद ही दो मीठे बोल नसीब होते. इस तरह छोटी सी उम्र में ही उन्हें दूसरों के काम करने से होने वाले लाभ का पता चला.
धीरेधीरे दायरा बढ़ा. दूसरों को उपकृत कर के अजीब सी संतुष्टि मिलती. बदले में अनेक तारीफें मिलतीं, ढेरों आशीर्वचन मिलते. मातृहीन मन को इस से बड़ा दिलासा मिलता. तब घर का काम करने में आनंद नहीं मिलता. घर वाले उन के कामों को कर्तव्य की श्रेणी में रखते थे. ‘कर्तव्य’ शब्द की शुष्कता और रसहीनता उन के गले नहीं उतरती थी. बाहर वालों के नर्ममुलायम, मीठे प्रशंसा आख्यानों की चाशनी में उन का मन डूब जाता.
उन की शादी हुई, तब भी यह आदत यथावत बनी रही. गृहस्वामी बन कर भी वे जनताजनार्दन के सेवक ही बने रहे.
इधर कुछ दिनों से वे महसूस कर रहे थे कि प्रभा ने उन की मदद के बगैर कैसे परिवार की जिम्मेदारी अकेले अपने कंधों पर उठा रखी थी. उन का बचपन अपने ही घर में आश्रित की तरह रह कर गुजरा. सो, अपने बच्चों को उन्होंने हद से बढ़ कर लाड़प्यार दिया. बच्चों के कारण पत्नी से भी कड़क व्यवहार किया. उस की उपेक्षा ही कर दी. उसे अधिकार ही नहीं दिया कि वह बच्चों में उचित संस्कार डाल पाए.
प्रभा सब्जी ले कर आ रही थी. आंचल से पसीना पोंछते हुए वह घर में दाखिल हुई. उसे देख कर उन के हृदय में बहुत ही दया आई.
‘‘आओ, घड़ी दो घड़ी सुस्ता लो,’’ वे स्नेह से बोले.
लेकिन प्रभा उन के मन में उठ रहे बवंडर से अनजान थी.
‘‘फुरसत कहां है, अब खाना बनाने में जुटना पड़ेगा,’’ प्रभा बोली.
‘‘खाना विभा बना देगी,’’ दीपकजी ने कहा.
यह सुन कर प्रभा हैरत से उन्हें देखने लगी, फिर धीरे से बोली, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है? विभा को खाना बनाना कहां आता है?’’
‘‘नहीं आता तो सीख लेगी,’’ उन्होंने तरल स्वर में कहा, ‘‘प्रभा, दिनरात खटतेखटते तुम कितना थक जाती होगी, मु?ो महसूस हो रहा है कि बच्चों को मेरे अत्यधिक लाड़प्यार ने बिगाड़ कर रख दिया है. वे मांबाप का दुखदर्द जरा भी नहीं सम?ाते.’’
‘‘मांबाप का न सही, दूसरों का तो खूब सम?ाते हैं, जानते हैं, विकास अपने पड़ोसियों के कितने काम आता है? विभा भी सहेलियों के लिए प्राण तक न्यौछावर करने को तैयार रहती है.’’
सुन कर दीपक कुछ क्षण चुप रहे. वे प्रभा का व्यंग्य भलीभांति सम?ा रहे थे. फिर एकाएक दृढ़ स्वर में बोले, ‘‘प्रभा, माना कि बच्चों को बड़ा करने में मु?ा से बड़ी भूल हुई. उन के व्यक्तित्व के विकास का रास्ता घर से हो कर ही बाहर की ओर जाता है, यह बात मैं खुद नहीं सम?ा पाया तो उन्हें क्या सम?ाता, लेकिन अभी भी समय हाथ से नहीं निकला है. उन्हें सुधारने की कोशिश तो की ही जा सकती है न.’’
प्रभा को तो जैसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वह, बस, उन्हें अपलक देखे जा रही थी. इतने सालों बाद पति द्वारा उस के काम की कद्र हुई थी, बच्चों के प्रति चिंता प्रकट की गई थी. यह सच था या सपना, लेकिन भावातिरेक में दीपकजी के होंठों से निकले पश्चात्ताप के शब्द ?ाठे कैसे हो सकते हैं.
दीपकजी के कंधों पर अब नई जिम्मेदारी आ पड़ी. उन्होंने बच्चों को आवाज दे कर उन्हें उन के काम बांट दिए और खुद भी बिस्तर पर पड़ेपड़े उन से जो बनता, करते.
बच्चे उन के इस रुख से नाराज थे, लेकिन स्नेह से उन्होंने बच्चों को सम?ाया. उन्होंने सच्चे हृदय से अपनी गलती भी स्वीकार की.
विकास को वे अपने एक मित्र के कारखाने में काम सीखने हेतु भेजने लगे. काम सीख लेने के बाद नौकरी देने का वादा भी मित्र ने उन से किया. विभा को पढ़ाने के लिए शिक्षक नियुक्त कर दिया. टीवी देखने का समय भी उन्होंने निश्चित कर दिया.
इस नए अनुशासित वातावरण के बच्चे बिलकुल अभ्यस्त नहीं थे. अनिच्छा से वे अपनेआप को इस नियमित दिनचर्या के अनुकूल ढाल रहे थे. इतनी बड़ी उम्र में ऐसे संस्कार डालना कठिन काम तो था ही परंतु गनीमत यही थी कि बच्चे उन की अवज्ञा नहीं करते थे.
रात को हंसीखेल में वे बच्चों को कितनी ही बातें सम?ाया करते. प्रभा को तो जैसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, पर यह सच था. पारस्परिक संवाद कायम होने से पति के पत्नी से और बच्चों के अपने मातापिता से नए आत्मीय संबंध स्थापित हो रहे थे.
अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, प्रभा कभी बच्चों के भविष्य के बारे में चिंता प्रकट करती तो दीपकजी बिगड़ जाते, ‘खेलनेखाने की उम्र है बच्चों की. उन्हें टोका मत करो. कोल्हू का बैल बनने के लिए तो सारी उम्र पड़ी है.’
‘जी हां, अपनीअपनी मरजी की बात है. चाहो तो इस उम्र में परिश्रम कर के उम्रभर चैन की बांसुरी बजाई जा सकती है, न चाहो तो अभी खेलकूद कर उम्रभर मेहनतमजदूरी कर लो,’ प्रभा कहती.
‘ठीक है, कर लेंगे मेहनतमजदूरी. तुम बेवक्त की बेसुरी तान तो बंद करो,’ दीपकजी कहते.
प्रभा को आश्चर्य होता. सेवानिवृत्ति के बाद भी दीपकजी में इतनी लापरवाही कैसे? न तो कोई जमीनजायदाद का आसरा है न कोई और जरिया. पैंशन और भविष्य निधि का रुपया पर्याप्त था और मकान अपना था, पर इतनी सी जमापूंजी पर बच्चों के भविष्य के प्रति आंखें मूंद लेना क्या ठीक था?
इस उम्र में जिन हाथों को कमा कर लाना चाहिए उन्हें ताश फेंटते देख प्रभा को बेहद नागवार गुजरता, पर दीपकजी को सब मंजूर था.
इस दुर्घटना ने उन्हें अपने घर को गृहस्वामी के नजरिए से देखने को मजबूर कर दिया. बरसों यह घर, जिसे वे ताईजी के घर की तरह मुसाफिरखाना सम?ाते रहे, आज अपनाअपना सा लगने लगा. कुछ दिनों के एकांतवास ने ही उन्हें गहन आत्मचिंतन दिया, एक नया दृष्टिकोण दिया और भूल सुधार करने की शक्ति भी दी.
दुर्घटना को हुए अब 4 माह से अधिक समय हो चुका था. दीपकजी अब पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे. विकास का काम में मन लग गया था और 6 माह बाद उसे पक्की नौकरी का आश्वासन मिल चुका था. विभा के पेपर अच्छे हुए थे और उसे द्वितीय श्रेणी पाने की पूरी उम्मीद थी. घर में सुखशांति का वातावरण था.
एक रात प्रभा अपना काम निबटा कर सोने के कमरे में आई और दीपकजी से बोली, ‘‘लोग दुर्घटना को अभिशाप मानते हैं, पर मेरे लिए तो यह दुर्घटना जैसे वरदान बन गई है.’’
प्रभाजी की आंखें अपार प्रेम बरसा रही थीं. चेहरे पर परमतृप्ति के भाव थे. दीपकजी को महसूस हुआ कि परिवार वालों की प्रशंसा उन के मनोभावों में छिपी होती है, उन के चेहरे पर लिखी होती है, उन की प्रगति में दिखाई देती है.
अभी वे लोग सोने ही जा रहे थे कि दरवाजे की घंटी बजी. कौन है? पूछने पर पड़ोस के सुशीलजी की घबराई सी आवाज आई,‘‘दीपकजी, जल्दी दरवाजा खोलिए.’’
दरवाजा खोलते ही वे जैसे एक सांस में बोल गए, ‘‘पिताजी की छाती में भयंकर दर्द है. कहीं हार्टअटैक न हो. इतनी रात को आप के सिवा किसे जगाता, उन्हें अकेले अस्पताल ले जाने में भी जी घबरा रहा है.’’
‘‘घबराएं नहीं, मैं हूं न,’’ दीपकजी ने फौरन कमीज चढ़ाई और पीछे देखे बगैर उन के साथ हो लिए.
पूरी रात प्रभा चिंतित रही. सुबह 7 बजे दीपकजी का फोन आया, ‘‘समय पर पहुंच जाने से बाबूजी बच गए हैं. चिंता मत करना. भाभीजी को भी यह समाचार दे देना. मैं एकाध घंटे बाद आऊंगा. विभा से कहना कि आ कर मैं उसी के हाथ का बना हुआ नाश्ता करूंगा. विकास चला गया न देवेशजी के यहां? आज उसे सुबह वाली शिफ्ट में जाना था.’’
‘‘हां, चला गया. सब ठीक है,’’ प्रभाजी ने रुंधे कंठ से कहा.
सचमुच, सबकुछ ठीक था. सहज और संतुलित. यदि घर और बाहर का यह संतुलन ठीक हो तो डगमगा कर गिरने की आशंका ही कहां रहती है.
पति के कोमल हृदय का परिचय वह तभी पा चुकी थी जब उन का पूर्ण परिचय होना अभी बाकी था. शादी हुए अभी 15 दिन ही हुए थे कि प्रभा को तेज बुखार हो गया. दीपकजी उस के माथे पर ठंडे पानी की पट्टियां रख रहे थे, तभी उन की पड़ोसिन के पेट में दर्द उठने लगा. उस की सास दौड़ीदौड़ी आई.
यह जान कर कि पड़ोसी उस समय औफिस के काम से दौरे पर गए हुए हैं, दीपकजी एक क्षण भी गंवाए बिना फौरन सासबहू को अस्पताल ले गए. प्रभा की तरफ उन्होंने मुड़ कर भी नहीं देखा. घर का दरवाजा भी बंद करने का उन्हें ध्यान न रहा. कराहती प्रभा ने उठ कर स्वयं ही दरवाजा बंद किया और समय देख कर दवा निगलती रही. ऐसी हालत में उस ने किस तरह अपनी तीमारदारी स्वयं ही की, उसे आज तक याद है.
उधर, दीपकजी भागभाग कर पड़ोसिन के लिए दवाइयां ला रहे थे. समय से पूर्व हुए प्रसव के इस जटिल केस को सफलतापूर्वक निबटा कर बेटा पैदा होने के बाद डाक्टर साहब उन्हें ही पिता बनने की बधाई देने लगे. घर आ कर जब हंसतेहंसते दीपकजी उसे यह प्रसंग सुना रहे थे, प्रभा की आंखों में स्वयं की अवहेलना के आंसू थे.
प्रभा के प्रथम प्रसव के समय जनाब नदारद थे, अपने बीमार दोस्त के सिरहाने बैठे उसे फलों का रस पिला रहे थे. दीपकजी पड़ोस की भाभियों में खासे लोकप्रिय थे, ‘भाईसाहब, आज घर में सब्जी नहीं आ पाई.’ ‘अरे, तो क्या हुआ, हमारे फ्रिज से मनचाही सब्जी ले जाइए. न हो तो प्रभा बना देगी. पकीपकाई ही ले जाइए.’
‘भाईसाहब, यह बिजली का बिल…’ कोई दूसरी कह देती. ‘बन्नू के स्कूल की फीस…’ ‘गैस खत्म हो गई है…’ ‘पिताजी की पैंशन का रुका हुआ काम…’ पचासों सवालों का एक ही जवाब था, ‘दीपकजी.’ ‘‘कितने फुर्तीले हैं दीपकजी, हमारे पति तो इतने आलसी हैं, दिनभर पलंग तोड़ते रहेंगे. कोई काम उन से नहीं होता. छुट्टी के दिन ताश की मंडली जमा लेंगे, लेकिन भाईसाहब की बात ही अलग है.’’
पड़ोसिनों की प्रशंसा से पुलकित, दीपकजी तब दोगुने उत्साह से पड़ोसियों के काम करते. प्रभा उन के ऐसे व्यवहार से कुढ़ती थी, यह बात नहीं. बस, उस का यही कहना था कि यह घोर सामाजिक व्यक्ति कभी तो पारिवारिक दायित्वों को सम?ो. यह क्या बात हुई कि लोगों के जिन कामों को दीपकजी तत्परता से निबटा आते थे, उन्हीं कामों के लिए प्रभा लाइन में धक्के खाती थी. कभी कुछ कह बैठती तो दीपकजी से स्वार्थी की उपाधि पाती. प्रभा को इस उपाधि से एतराज था भी नहीं. वह कहती, ‘ऐसे परमार्थ से तो स्वार्थ ही भला.’
‘आजकल महिलाएं भी पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही हैं. उन्हें भी बाहर के सारे कामों का ज्ञान होना अति आवश्यक है,’ दीपकजी उसे सम?ाते. ‘ये उपदेश अपनी भाभियों को क्यों नहीं देते?’ प्रभा तैश में आ जाती. ‘उन्हें उन के पति देंगे, मैं कौन होता हूं,’ दीपकजी कहते.
‘बो?ा ढोने वाले?’ प्रभाजी मन ही मन कहतीं और मुसकरा पड़तीं. अवकाशप्राप्ति के बाद तो दीपकजी के पास समय ही समय था. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी की तकलीफें दूर करने को वे हाजिर रहते. बाकी बचे समय में बच्चों के साथ टीवी देखते या ताश खेलते. कभीकभी दुनियाभर के समाचार सुन कर घंटों आपस में उन्हीं विषयों पर लंबा वार्त्तालाप करते, वादविवाद करते, चिंतित होते और सो जाते.
चिंता नहीं थी तो बस, इस बात की कि विकास ने अपने विकास के सारे रास्ते खुद ही क्यों अवरुद्ध कर रखे हैं? तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर के भी उसे बेकार घूमना क्यों पसंद है? 12वीं की परीक्षा का तनाव जब बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता पर भी हावी रहता हो तब विभा और उस के पिता इस से अछूते क्यों हैं?
बच्चों का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार प्रभा के मन में आग लगा जाता, पर जब पिता ही उन का दुश्मन बन बैठा हो तो वह बेचारी क्या करती. एक दिन दीपकजी किसी परिचित की बेटी का फौर्म कालेज में जमा कर के लौट रहे थे कि दुर्घटना हो गई. उन के स्कूटर को पीछे से आती हुई कार की ठोकर लगी और वे स्कूटर से गिर पड़े. किसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाने के बाद घर पर प्रभा को सूचना दी.
सूचना पाते ही प्रभा के तो हाथपांव फूल गए. विकास को तो कुछ सू?ा ही नहीं रहा था. विभा बच्चों की तरह फूटफूट कर रोने लगी. पड़ोसियों ने दोनों को संभाला, प्रभा को अस्पताल पहुंचाया. अस्पताल का बरामदा उन के मित्रों, परिचितों से ठसाठस भरा हुआ था. ऐसा लगता था मानो कोई लोकप्रिय नेता भरती हो. प्रभा को ढाढ़स बंधाने वाले भी कई थे. कोई उसे नीबूपानी पिला रहा था तो कोई उस के घर खाना पहुंचा रहा था. किसी ने दीपकजी के पास रात को रुकने की योजना बनाई थी तो कोई घर पर बच्चों के पास सोने जा रहा था.
प्रभा ने देखा कि विकास और विभा का व्यवहार ऐसी कठिन परिस्थिति में भी धीरज और हिम्मतभरा नहीं था. मां को सहारा देना तो दूर, वे दोनों मानो अपने ही होशोहवास खो बैठे थे. किशोर से युवा हो चुके बच्चों के इस व्यवहार को प्रभा ने काफी नजदीक से महसूस किया.
दीपकजी के पैर की हड्डी टूटी थी. 15 दिन बेहद आपाधापी में गुजरे, लेकिन प्रभा को कोई परेशानी नहीं हुई. एक तरह से सभी ने उन की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा रखी थी. सुबह के नाश्ते से ले कर रात के खाने तक, कोई न कोई सारा इंतजाम कर देता, वह भी अत्यंत विनम्रतापूर्वक, एहसान जताते हुए नहीं. सब का इतना मानसम्मान, प्यारदुलार पा कर प्रभा सचमुच अभिभूत थी.
बड़ी मुश्किल से जब एकांत मिला तब दीपकजी के सामने उस ने अपनी भावना जताई तो दीपकजी गद्गद हो गए. उन्होंने खुशी में प्रभा का हाथ थाम लिया. बच्चे भी कहने लगे, ‘‘मां, देखा, तुम ने पिताजी की समाजसेवा की हमेशा निंदा की है, लेकिन आज वे ही लोग हमारे कितना काम आ रहे हैं.’’
‘‘ठीक है, मैं ने मान तो लिया कि मैं गलत थी,’’ प्रभा तृप्तभाव से बोली. 15 दिनों बाद दीपकजी को अस्पताल से छुट्टी मिली तो घर पर आनेजाने वालों का तांता लग गया, लेकिन अभी 2-3 महीनों तक प्लास्टर लगना था. जैसेजैसे दिन बीतते गए, भीड़ छंटती गई. सभी अपनेअपने कामों में व्यस्त हो गए थे तो वे भी अपनी जगह पर गलत नहीं थे. आखिर कोई किसी के परिवार का कब तक बीड़ा उठाता.
प्रभा पर दोहरी जिम्मेदारी आन पड़ी. घर की व्यवस्था, बाहर का काम. इस के अलावा दीपकजी की परिचर्या. उस के पैरों में जैसे घिर्री लग गई.दीपकजी को अब एहसास होने लगा कि उन के बच्चे मां के काम में जरा भी हाथ नहीं बंटाते. दिनभर टीवी के सामने डटे रहेंगे या बाहर घूमते रहेंगे. दिनभर काम में लगी हुई प्रभा को देख कर उन के मन का रिक्त कोना भीगने लगा. पलंग पर पड़ेपड़े मूकदर्शक बने वे प्रभा की परेशानियों को जैसे नए सिरे से देखने लगे.
एक दिन जब प्रभा सब्जी लेने गई थी, दीपकजी ने बच्चों को आवाज दी और बड़े प्यार से कहा, ‘‘बेटा, घड़ी दो घड़ी पिताजी के पास भी तो बैठा करो,’’ फिर विभा से बोले, ‘‘आज खाना तुम बना लो, तुम्हारी मां सब्जी लेने गई है.’’उन की बात सुन कर विभा की आंखें फैल गईं. ‘‘खाना…मैं बनाऊंगी?’’
सौजन्या- सत्यकथा
महेंद्र सिंह को पिछले कुछ दिनों से अजय का अपने घर में आनाजाना ठीक नहीं लग रहा था. वह आता
था तो उस की पत्नी सुमन उस से कुछ ज्यादा ही घुलमिल कर बातें करती थी. वैसे तो अजय उस के भाई का ही बेटा था, लेकिन महेंद्र सिंह को उस के लक्षण कुछ ठीक नहीं लग रहे थे.
अजय जब महेंद्र सिंह की मानसिक परेशानी का कारण बनने लगा तो एक दिन उस ने सुमन से पूछा कि अजय क्यों बारबार घर के चक्कर लगाता है. इस पर सुमन ने तुनकते हुए कहा, ‘‘अजय तुम्हारे भाई का बेटा है. वह आता है, तो क्या मैं इसे घर से निकाल दूं?’’
महेंद्र सिंह को सुमन की बात कांटे की तरह चुभी तो लेकिन उस के पास सुमन की बात का जवाब नहीं था. वह चुप रह गया.महेंद्र सिंह कानपुर शहर के बर्रा भाग 6 में रहता था. वह मूलरूप से औरैया जिले के कस्बा सहायल का रहने वाला था. वह अपने भाइयों में सब से छोटा था. उस से बड़े उस के 2 भाई थे— मानसिंह और जयसिंह. सब से बड़े भाई मानसिंह के 2 बेटे थे अजय सिंह और ज्ञान सिंह. ज्ञान सिंह की शादी हो गई थी. अजय सिंह अविवाहित था.
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महेंद्र सिंह की शादी जिला कन्नौज के कस्बा तिर्वा निवासी नरेंद्र सिंह की बेटी सुमन के साथ हुई थी. नरेंद्र के 2 बच्चे थे सुमन और गौरव. लाडली और बड़ी होने की वजह से सुमन शुरू से ही जिद्दी स्वभाव की थी. वह जो ठान लेती, वही करती.
शादी हो कर सुमन जब ससुराल आई, तो उसे ससुराल रास नहीं आई. चंद महीने बाद ही वह पति के साथ कानपुर आ कर रहने लगी. सुमन का पति महेंद्र सिंह दादानगर स्थित एक फैक्ट्री में सुरक्षागार्ड की नौकरी करता था. उस की आमदनी सीमित थी. इस के बावजूद सुमन फैशनपरस्त थी. वह अपने बनावशृंगार पर खूब खर्च करती थी.लेकिन शुरूशुरू में जवानी का जुनून था, इसलिए महेंद्र सिंह ने इन सब पर ध्यान नहीं दिया था. उसे तो बस उस की अदाएं पसंद थीं. समय के साथ सुमन ने पूजा और विभा 2 बेटियों को जन्म दिया. शादी के कुछ समय बाद ही महेंद्र सिंह महसूस करने लगा था कि उस की पत्नी उस के साथ संतुष्ट नहीं है.
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दरअसल, सुमन नरेंद्र सिंह की एकलौती बेटी थी और अपनी शादी के बारे में बड़ेबड़े ख्वाब देखा करती थी. लेकिन उस के पिता ने उस की शादी एक साधारण सुरक्षा गार्ड से कर दी थी, जिस से उस के सारे अरमान चूरचूर हो गए थे. और वह बच्चों और चौकेचूल्हे में उलझ कर रह गई थी. फिर भी जिंदगी की गाड़ी जैसेतैसे चलती रही. कहानी ने मान सिंह के बड़े बेटे ज्ञान सिंह की शादी के बाद एक नया मोड़ लिया. ज्ञान सिंह की शादी के मौके पर सुमन ने महसूस किया कि अजय उस का कुछ ज्यादा ही खयाल रख रहा है. वह खाने की थाली ले कर सुमन के पास आया और उस के सामने टेबल पर रखते हुए बोला, ‘‘यहां बैठ कर खाओ चाची.’’
सुमन मुसकरा कर थाली अपनी ओर खिसकाने लगी, तो अजय भी उस की ओर देख कर मुसकराते हुए चला गया. थोड़ी देर बाद वह वापस लौटा तो उस के हाथों में दूसरी थाली थी. वह सुमन के पास ही बैठ कर खाना खाने लगा. खाना खातेखाते दोनों के बीच बातों का सिलसिला जुड़ा, तो अजय बोला, ‘‘चाची तुम सुंदर भी हो और स्मार्ट भी. लेकिन चाचा ने तुम्हारी कद्र नहीं की.’’अजय सिंह ने यह कह कर सुमन की दुखती रग पर हाथ रख दिया था. ज्ञान सिंह की बारात करीब के ही गांव में जानी थी. शाम को रिश्तेदार व परिवार के लोग बारात में चले गए. लेकिन अजय बारात में नहीं गया.
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उसी रात जब दरवाजे पर दस्तक हुई, तो सुमन ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर अजय खड़ा था. सुमन ने हैरानी से पूछा, ‘‘तुम… बारात में नहीं गए. यहां कैसे?’’दरवाजा खुला था, अजय सिंह अंदर आ गया तो सुमन ने दरवाजा बंद कर दिया. सुमन की आंखें तेज थीं. उस ने अजय की आंखों की भाषा पढ़ ली.
‘‘चाची, मुझे तुम से कुछ कहना है. बहुत दिनों से सोच रहा हूं, पर मौका ही नहीं मिल पा रहा था. आज अच्छा मौका मिला, इसलिए मैं बारात में नहीं गया.’’ अजय ने कमरे में पड़े पलंग पर बैठते
हुए कहा.
‘‘ऐसी क्या बात है, जिस के लिए तुम्हें मौके की तलाश थी?’’ सुमन ने पूछा, तो अजय तपाक से बोला, ‘‘चाची आया हूं तो मन की बात कहूंगा जरूर. तुम्हें बुरा लगे या अच्छा. दरअसल
बात यह है कि तुम मेरे मन को भा गई हो और मैं तुम से प्यार करने लगा हूं.’’
‘‘प्यार…’’ सुमन ने अजय को गौर से देखा. आज वह पहले वाला अजय नहीं था, जिसे वह बच्चा समझती थी. अजय जवान हो चुका था. पलभर के लिए सुमन डर गई. उस ने कभी नहीं सोचा था कि वह उस से ऐसा भी कुछ कह सकता है.
‘‘अजय, तुम यहां से जाओ, अभी इसी वक्त.’’ सुमन ने सख्ती से कहा, तो अजय ने पूछा, ‘‘चाची क्या तुम मेरी बात का बुरा मान गईं. मैं ने तो मजाक में कहा था.’’‘‘अजय, मैं ने कहा न जाओ यहां से.’’ डांटते हुए सुमन ने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया, तो उस के तेवर देख अजय डर कर वहां से चला गया.
अजय तो चला गया लेकिन सुमन रात भर सोच में डूबी अपने मन को टटोलती रही. वह सचमुच महेंद्र सिंह से संतुष्ट नहीं थी. उस की जिंदगी फीकी दाल और सूखी रोटी की तरह थी.
पिछले कुछ समय से महेंद्र सिंह की तबियत भी ढीली चल रही थी. ड्यूटी से आने के बाद वह खाना खाते ही सो जाता था. वह पति से क्या चाहती है, यह महेंद्र सिंह ने न तो कभी सोचा और न जानने की कोशिश की. यही वजह थी कि सुमन का मन विद्रोह कर उठा. उस ने मन को काफी समझाने की कोशिश की, लेकिन न चाहते हुए भी उस की सोच नएनए जवान हुए अजय के आस पास ही घूमती रही. उस का मन पूरी तरह बेइमान हो चुका था.
आखिरकार उस ने निर्णय ले लिया कि अब वह असंतुष्ट नहीं रहेगी. चाहे इस के लिए रिश्तों को तारतार क्यों न करना पड़े. कोई भी औरत जब बरबादी के रास्ते पर कदम रखती है तो उसे रोक पाना मुश्किल होता है. यही सुमन के मामले में हुआ. दूसरी ओर अजय यह सोच कर डरा हुआ था कि चाची ने चाचा को सब कुछ बता दिया तो तूफान आ जाएगा. इसी डर से वह सुमन से नहीं मिला. इधर सुमन फैसला करने के बाद तैयार बैठी अजय का इंतजार कर रही थी. उस ने मिलने की कोशिश नहीं की, तो सुमन ने उसे स्वयं ही बुला लिया.
अजय आया तो सुमन ने उसे देखते ही उलाहने वाले लहजे में कहा, ‘‘मुझे राह बता कर खुद दूसरी राह चले गए. क्या हुआ, आए क्यों नहीं?’’ ‘‘मैं ने सोचा, शायद तुम्हें मेरी बात बुरी लगी. इसीलिए…’’ अजय ने कहा तो सुमन बोली, ‘‘रात में आना, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी.’’ अजय सिंह समझ गया कि उस का तीर निशाने पर भले ही देर से लगा हो, पर लग गया है. वह मन ही मन खुश हो कर लौट गया. सुमन का पति महेंद्र सिंह दूसरे दिन ही बारात से लौटने के बाद वापस कानपुर आ गया था. लेकिन पत्नी व बच्चों को गांव में ही छोड़ गया था. इसी बीच सुमन और अजय नजदीक आने का प्रयास करने लगे थे.
सुमन ने अजय को मिलन का खुला आमंत्रण दिया था. अत: वह बनसंवर कर देर शाम सुमन के कमरे पर पहुंच गया. उस ने दरवाजे पर दस्तक दी तो सुमन ने दरवाजा खोल कर उसे तुरंत अंदर बुला लिया. उस के अंदर आते ही सुमन ने दरवाजा बंद कर लिया. अजय पलंग पर बैठ गया, तो सुमन उस के करीब बैठ कर उस का हाथ सहलाने लगी. अजय के शरीर में हलचल मचने लगी. वह समझ गया कि चाची ने उस की मोहब्बत स्वीकार कर ली. इसी छेड़छाड़ के बीच कब संकोच की सारी दीवारें टूट गईं, दोनों को पता हीं नहीं चला.
बिस्तर पर रिश्ते की मर्यादा भले ही टूट गई, लेकिन सुमन और अजय के बीच स्वार्थ का पक्का रिश्ता जरूर जुड़ गया. अपने इस रिश्ते से दोनों ही खुश थे. सुमन अपनी मौजमस्ती के लिए पाप की दलदल में घुस तो गई, पर उसे यह पता नहीं था कि इस का अंजाम कितना भयंकर हो सकता है. उस दिन के बाद अजय और सुमन बिस्तर पर जम कर सामाजिक रिश्तों और मानमर्यादाओं की धज्जियां उड़ाने लगे. अजय सुमन के लिए बेटे जैसा था और अजय के लिए वह मां जैसी. लेकिन वासना की आग ने उन के इन रिश्तों को जला कर खाक कर दिया था.
सुमन लगभग एक माह तक गांव में रही और गबरू जवान अजय के साथ मौजमस्ती करती रही. उस के बाद वह वापस कानपुर आ गई और पति के साथ रहने लगी. अजय और सुमन के बीच अब मिलन तो नहीं हो पाता था, लेकिन मोबाइल फोन पर दोनों की बात होती रहती थी. सुमन के बिना न अजय को चैन था और न अजय के बिना सुमन को.आखिर जब अजय से न रहा गया तो वह सुमन के बर्रा भाग 6 स्थित घर पर किसी न किसी बहाने से आने लगा. उस ने सुमन के साथ फिर से संबंध बना लिए. कुछ दिनों तक तो सब गुपचुप चलता रहा. लेकिन फिर अजय का इस तरह सुमन के पास आनाजाना पड़ोसियों को खटकने लगा. लोगों को पक्का यकीन हो गया कि चाचीभतीजे के बीच नाजायज रिश्ता है.
नाजायज रिश्तों को ले कर पड़ोसियों ने टोकाटाकी की तो महेंद्र सिंह के होश उड़ गए. उस की पत्नी उसी के सगे भतीजे के साथ मौजमस्ती कर रही थी, यह बात भला वह कैसे बरदाश्त कर सकता था. वह गुस्से में तमतमाता घर पहुंचा. सुमन उस समय घर के कामकाज निपटा रही थी. उसे देखते ही वह गुस्से में बोला, ‘‘तेरे और अजय के बीच क्या चल रहा है?’’ ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ सुमन ने धड़कते दिल से पूछा.
‘‘मतलब छोड़ो. यह बताओ कि अजय यहां क्या करने आता है?’’ महेंद्र सिंह ने पूछा तो सुमन बोली, ‘‘कैसी बातें कर रहे हो तुम? अजय तुम्हारा भतीजा है. बात क्या है. उखड़े हुए से क्यों लग रहे हो?’’
‘‘तू मेरी पीठ पीछे क्या करती है, मुझे सब पता है. तेरी पाप लीला पूरे मोहल्ले के सामने आ चुकी है. तूने मुझे किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा.’’ ‘‘अपनी पत्नी पर गलत इलजाम लगा रहे हो. तुम्हें शर्म आनी चाहिए.’’ सुमन ने रोते हुए कहा, तो महेंद्र सिंह बोला, ‘‘देखो, अब भी वक्त है. संभल जा, नहीं तो अंजाम अच्छा न होगा.’’ महेंद्र सिंह ने भतीजे अजय सिंह को भी फटकार लगाई और बिना मतलब घर न आने की हिदायत दी. महेंद्र सिंह की सख्ती से सुमन और अजय डर गए. अजय का आनाजाना भी कम हो गया. अब वह तभी आता जब उसे कोई जरूरी काम होता. वह भी चाचा महेंद्र सिंह की मौजूदगी में.
महेंद्र सिंह अपने बड़े भाई मान सिंह का बहुत सम्मान करता था. इसलिए उस ने अजय की शिकायत भाई से नहीं की थी. लौकडाउन के दौरान मान सिंह ने महेंद्र सिंह से 5 हजार रुपए उधार लिए थे और फसल तैयार होने के बाद रुपया वापस करने का वादा किया था.
अजय का आनाजाना कम हुआ तो महेंद्र सिंह ने राहत की सांस ली. उसे भी लगने लगा था कि अब सुमन और अजय का अवैध रिश्ता खत्म हो गया है. लिहाजा उस ने सुमन पर निगाह रखनी भी बंद कर दी थी.
20 जनवरी, 2021 की दोपहर 12 बजे महेंद्र सिंह ने पड़ोसियों को बताया कि उस की पत्नी सुमन ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली. उस की बात सुन कर पड़ोसी सन्न रह गए. कुछ ही देर बाद उस के दरवाजे पर भीड़ बढ़ने लगी. इसी बीच महेंद्र सिंह ने पत्नी के मायके वालों तथा थाना बर्रा पुलिस को सूचना दे दी.
सूचना पाते ही थानाप्रभारी सतीश कुमार सिंह घटनास्थल पर आ गए. उस समय महेंद्र सिंह के घर पर भीड़ जुटी थी. मृतका सुमन की लाश कमरे में पलंग पर पड़ी थी. उस के गले में फांसी का फंदा था, किंतु गले में रगड़ के निशान नहीं थे. फांसी के अन्य लक्षण भी नजर नहीं आ रहे थे.
संदेह होने पर थानाप्रभारी सतीश कुमार सिंह ने पुलिस अधिकारियों को सूचित किया तो कुछ देर बाद एसएसपी प्रीतिंदर सिंह, एसपी (साउथ) दीपक भूकर तथा डीएसपी विकास पांडेय आ गए. पुलिस अधिकारियों ने मौके पर फोरैंसिक टीम को भी बुलवा लिया.पुलिस अधिकारियों ने घटनास्थल का निरीक्षण किया तो उन्हें भी महिला की मौत संदिग्ध लगी. फोरैंसिक टीम को भी आत्महत्या जैसा कोई सबूत नहीं मिला. पुलिस अधिकारी मौकाएवारदात पर अभी निरीक्षण कर ही रहे थे कि मृतका सुमन के मायके पक्ष के दरजनों लोग आ गए. आते ही उन्होंने हंगामा शुरू कर दिया और महेंद्र पर सुमन की हत्या का आरोप लगाया तथा उसे गिरफ्तार करने की मांग की.
चूंकि पुलिस अधिकारी वैसे भी मामले को संदिग्ध मान रहे थे, अत: पुलिस ने मृतका के पति महेंद्र सिंह को हिरासत में ले लिया तथा शव पोस्टमार्टम हेतु भेज दिया. दूसरे रोज शाम 5 बजे मृतका सुमन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट थानाप्रभारी सतीश कुमार सिंह को प्राप्त हुई. उन्होंने रिपोर्ट पढ़ी तो उन की शंका सच साबित हुई. रिपोर्ट में बताया गया कि सुमन ने आत्महत्या नहीं की थी, बल्कि गला दबा कर उस की हत्या की गई थी. रिपोर्ट के आधार पर उन्होंने मृतका के पति महेंद्र सिंह से सख्ती से पूछताछ की तो वह टूट गया और उस ने पत्नी सुमन की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया.
महेंद्र सिंह ने बताया कि उस की पत्नी सुमन के भतीजे अजय सिंह से नाजायज संबंध पहले से थे.
उस ने कल शाम 4 बजे सुमन और अजय को आपत्तिजनक स्थिति में देख लिया. उस समय अजय तो सिर पर पैर रख कर भाग गया. लेकिन सुमन की उस ने जम कर पिटाई की. देर रात अजय को ले कर उस का फिर सुमन से झगड़ा हुआ. गुस्से में उस ने सुमन का गला कस दिया, जिस से उस की मौत हो गई.
पुलिस और पड़ोसियों को गुमराह करने के लिए उस ने सुमन के शव को उसी की साड़ी का फंदा बना कर कुंडे से लटका दिया. सुबह वह बड़ी बेटी पूजा को ले कर डाक्टर के पास चला गया. उसे हल्का बुखार था. वहां से दोपहर 12 बजे वापस आया तो उस ने पत्नी द्वारा आत्महत्या कर लेने का शोर मचाया. उस के बाद पड़ोसी आ गए.
चूंकि महेंद्र सिंह ने हत्या का जुर्म कबूल कर लिया था, अत: थानाप्रभारी सतीश कुमार सिंह ने मृतका के भाई गौरव को वादी बना कर भादंवि की धारा 302 के तहत महेंद्र सिंह के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर ली तथा उसे गिरफ्तार कर लिया. 22 जनवरी, 2021 को पुलिस ने अभियुक्त महेंद्र सिंह को कानपुर कोर्ट में पेश किया, जहां से उसे जिला जेल भेज दिया गया. सुमन की मासूम बेटियां पूजा और विभा ननिहाल में नानानानी के पास रह रही थीं.
अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से बेखबर दीपकजी हमेशा पासपड़ोस की जरूरतें पूरी करने में लगे रहते. इसी वजह से उन के बच्चे कर्तव्यविमुख व अव्यावहारिक हो गए थे. लेकिन अचानक हुई दुर्घटना के बाद उन्होंने अपने परिवार व जिम्मेदारियों में संतुलन बिठा लिया लेकिन कैसे?
‘‘दीपकजी एक महान हस्ती हैं. उन की प्रशंसा करना सूरज को दीया दिखाना है. ऐसे महान व्यक्ति दुनिया में विरले ही होते हैं. औफिस के हरेक कर्मचारी की उन्होंने किसी न किसी रूप में मदद की है. हम सब उन के ऋ णी हैं. हम उन की दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की मंगलकामना करते हैं,’’ स्टाफ के सदस्य अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे थे. इस दौरान सदस्यों के बीच बैठी प्रभा की ओर दीपकजी ने कनखियों से देखा. ऐसे समय भी उस के चेहरे का भावहीन होना दीपकजी को बेहद खला, पर उन्होंने उसे नजर अंदाज कर दिया.
स्वयं दीपकजी गद्गद थे. उन के मातहतों ने उन को नमन किया और वरिष्ठ अफसरों ने उन्हें गले से लगा लिया. दिखावे से दूर अश्रुपूरित वह विदाई समारोह सचमुच अद्वितीय था, परंतु प्रभा के हृदय को कहीं से भी छू न सका.
‘‘क्यों, कैसा लगा?’’ लौटते समय दीपकजी ने आखिर प्रभा से पूछ ही लिया. ‘‘बुरा लगने का तो सवाल ही नहीं उठता,’’ प्रभा ने सपाट स्वर में उत्तर दिया. ‘‘सीधी तरह नहीं कह सकतीं कि अच्छा लगा. हुंह, घर की मुरगी दाल बराबर,’’ दीपकजी के यह कहने पर प्रभा मौन रही.
अपनी खी?ा मिटाने के लिए घर आ कर दीपकजी फौरन बच्चों के कमरे में गए. चीखते हुए टीवी की आवाज पहले धीमी की, फिर बच्चों को सिलसिलेवार विदाई समारोह के बारे में बताने लगे, ‘‘अपनी मां से पूछो, कितना शानदार विदाई समारोह था. अपनी पूरी नौकरी में मैं ने इतना सम्मान किसी के लिए नहीं देखा.’’
‘‘पापाजी, आप महान हैं,’’ कहते हुए बेटे ने नाटकीय मुद्रा में ?ाक कर पिता का अभिवादन किया. ‘‘दुनिया कहती है, ऐसा पिता सब को मिले, पर मैं कहती हूं ऐसा पिता किसी को न मिले. हां, इस मामले में मैं पक्की स्वार्थी हूं,’’ बेटी ने पापा के गले में बांहें डालते हुए कहा.
तीनों सफलता के मद में ?म रहे थे. एक प्रभा ही थी, उदास, गुमसुम. उन तीनों के सामने आने वाले कल के लिए कोई प्रश्न नहीं था. प्रभा के पास अनगिनत सवाल थे. उन सवालों की ओर से दीपकजी का बेफिक्र होना उसे बेहद अखरता था. दीपकजी की अलमस्त तबीयत के कारण प्रभा की सहेलियां उन्हें साधुमहात्माओं की श्रेणी में रखती थीं, जबकि प्रभा उन्हें गैरजिम्मेदार मानती थी.
सच था, ऐसे व्यक्ति को साधु ही बने रहना था. परिवार बसाने का उन के लिए कोई मतलब ही नहीं था. अपने बच्चों के भविष्य से उन का दूरदूर तक कोई वास्ता न था.बच्चे देर से हुए, उस पर पढ़ाईलिखाई से जैसे उन्हें बैर था. विभा हाईस्कूल परीक्षा की 3 डंडियों का सगर्व बखान करती थी. विकास हायर सैकंडरी की सीढि़यां 2 बार लुढ़क कर बड़ी मुश्किल से तीसरी बार चढ़ पाया. महल्ले के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का इनाम पा कर उस की ख्वाहिशें पंख लगा कर उड़ने लगी थीं. एक तरह से जिद कर के ही प्रभा ने उसे आईटीआई करने हेतु भेजा कि पहले पढ़ लो, फिर जो जी चाहे करना.
पढ़ने के बाद भी उस के विचार नहीं बदले. वह दिनभर न जाने कौनकौन से नाटकों की रूपरेखा तैयार करता रहता. अपने बालों को वह नितनए प्रचलित हीरो की स्टाइल में कटवाता. बेढंगी, दुबलीपतली काया पर न फबने वाले कपड़े सिलवाता और दिनभर मटरगश्ती करता. उस में एक अच्छी बात जरूर थी कि घर की या पड़ोस की कोई भी चीज बिगड़ जाए, फौरन उसे ठीक कर के ही दम लेता. चाहे वह साइकिल हो या टीवी, शुरू से ही उसे बिगड़ी चीजें सुधारने में दिलचस्पी थी. उस की यही रुचि देख कर ही तो प्रभा ने उसे तकनीकी प्रशिक्षण दिलवाया था.
‘खबरदार, जो मेरे बच्चों पर कभी हाथ उठाया,’ उन्होंने कड़क कर कहा था.विभा उन की गोद में सिर रख कर जोरजोर से रोने लगी थी. दोनों ने मिल कर प्रभा को ही अपराधी के कठघरे में खड़ा कर दिया.
प्रभा ने सिलाई में डिप्लोमा लिया था. सो सिलाई की क्लास घर पर चलाने लगी. पासपड़ोस की औरतें, लड़कियां सीखने आतीं. कितना चाहा कि विभा भी उस के पास बैठ कर सीखे परंतु उसे सिवा टीवी और सस्ते, घटिया किस्म के उपन्यासों के और कुछ नहीं सू?ाता था. पिता के अंधे प्यार ने बच्चों को सिवा दिशाहीनता के और कुछ नहीं दिया था.
ऐसे व्यक्ति को आज वक्ता लोग महामानव, महामना न जाने क्याक्या कह गए.प्रभा की बहनें और सहेलियां उसे देख कर प्रभा की सराहना करतीं. मातापिता तो ऐसा दामाद पा कर पूरी तरह संतुष्ट थे. प्रभा यदि कोई शिकायत करने लगती तो मां उसे फौरन टोक देतीं, ‘रहने दे, रहने दे, उन के तो मुंह में मानो जबान ही नहीं है, तब भी उन में नुक्स निकाल रही है. तेरे पिताजी, याद है, तुम लोगों के बचपन में क्या हुआ करते थे? उन के गुस्से से तुम बच्चे तो क्या, मैं तक थरथर कांपने लगती थी. घर में उन के आते ही सन्नाटा छा जाता. कोई भी मांग उन के तेवर देख कर ही उन के सामने से हट जाती. तू तो बहुत सुखी है. दामादजी ने तु?ो पूरी स्वतंत्रता दे रखी है. बाजार से सामान लाना, घर का हिसाबकिताब, सब तेरे जिम्मे है. बच्चों को तो वे कितना प्यार करते हैं, बच्चे पिता से दोस्त की तरह बातें करते हैं. और क्या चाहिए भला?’
प्रभा चुप हो जाती. कहना चाहती कि मैं पिताजी के गुस्से का थोड़ा सा हिस्सा उन के व्यक्तित्व में भी देखना चाहती हूं जिस से ये ताड़ सरीखे बड़े होते बच्चे अपनी जिम्मेदारी सम?ा पाएं, लेकिन यह सब मां की दृष्टि में व्यर्थ की बातें थीं.
मंदिर मूर्तियों से नहीं रोजगार से होगा विकास जनता को लोकलुभावन वादों से भरमाने वाली तमाम सरकारें यदि करोड़ोअरबों रुपयों से मूर्तियां व स्मारक बनाने के बजाय देश में कारखाने और फैक्ट्रियां खोलतीं तो देश के बेरोजगार नौजवानों को रोजगार मिल जाता. आज देश की जनता को स्मारकों की नहीं, अच्छे स्कूल, कालेज और अस्पतालों की जरूरत है. पिछले 60 सालों में कुछ भी विकास न होने की बात कह कर भाजपा सरकार अपने 6 सालों के कार्यकाल में जिस विकास का ढोल पीट रही है उस का संबंध आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं- बिजली, पानी, सड़क, रोटी, कपड़ा और मकान से कतई नहीं है.
दरअसल, भाजपा सरकार की नजर में विकास का मतलब धार्मिक मंदिरों और राजनेताओं की ऊंचीऊंची मूर्तियों की स्थापना से है. पिछले 6 सालों में सर्वसुविधा युक्त अस्पताल, गुणवत्ता युक्त तकनीकी शिक्षा के लिए मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेज, आवागमन के लिए पुल भले ही न बन पाए हों, लेकिन धार्मिक आडंबरों की आड़ में मंदिर और मूर्तियां गढ़ने का काम बखूबी किया गया है. कोरोनाकाल में कोविड-19 की वैक्सीन बनाने के बजाय सरकार का लक्ष्य राममंदिर बनाने पर ज्यादा रहा. यही वजह रही कि 5 अगस्त, 2020 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या में राममंदिर निर्माण की आधारशिला रखी तो जनता मोदी की वाहवाह करने लगी.
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दरअसल, कोविड से खतरनाक धार्मिक कट्टरता का वायरस लोगों को अंधविश्वासी व धर्मांध बनाने में सफल रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भव्य राममंदिर निर्माण की ईंट रख कर सिद्ध कर दिया है कि भाजपा की सरकार नौजवानों को भले ही रोजगार न दे पाए, लेकिन महापुरुषों की ऊंचीऊंची प्रतिमाएं और बड़ेबड़े मंदिर बना कर ही दम लेगी. देश के अनेक राज्यों में न तो बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने को समुचित स्कूल, कालेज हैं और न ही लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिए सुविधायुक्त अस्पताल हैं. गांवदेहात में कालेज न होने से 12वीं पास कर के लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं. अस्पताल में किसी की मौत हो जाए तो आम आदमी को घर तक साइकिल पर या सिर पर शव ले कर जाना पड़ता है. इस सब के बावजूद, शर्मनाक बात यह है कि सरकारें महान लोगों की याद में स्मारक या स्टैच्यू बनाने के नाम पर अरबों रुपयों की भारीभरकम रकम खर्च कर रही हैं.
वर्तमान हालात को देखते हुए लगता है कि न्याय के मंदिरों को ठेंगा बताने वाली सरकारों को तो जैसे जनता के हितों से कोई सरोकार ही नहीं है. 2019 के गणतंत्र दिवस के एक दिन पहले मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस एम सत्यनारायण और जस्टिस पी राजमनिकम की टिप्पणी सरकारों की स्मारक बनाने वाली नीतियों पर प्रश्नचिह्न लगाती है. तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के स्मारक के निर्माण की सुनवाई करते समय हाईकोर्ट के दोनों जजों ने सरकार से कहा कि भविष्य में ऐसी नीति बनाएं कि महान लोगों के नाम पर प्रतिमा या स्मारक की जगह स्कूल, कालेज, अस्पतालों का निर्माण किया जाए. केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार भी मूर्ति और स्मारकों के ढकोसलों में आज सब से आगे है. गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल की याद में 3 हजार करोड़ रुपयों की लागत से 182 मीटर ऊंची स्टैच्यू औफ यूनिटी का निर्माण कर भूखेनंगों के हक को छीनने का कार्य किया गया है.
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मंदिर और मूर्तियों के नाम पर करोड़ों रुपयों की होली खेलने वाली सरकार देश से न तो गरीबी दूर कर पाई है और न ही युवाओं को रोजगार दे पाई है. नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी और एनपीआर जैसे धर्म व मजहब के मसलों में जनता को उल?ाए रखने वाली सरकार आम आदमी को इलाज की सर्वसुलभ सुविधा मुहैया नहीं करा पाई है. आज भी देश के गांव और कसबों में सरकारी अस्पताल नहीं हैं. लेकिन इन सब से बेखबर जनता के नुमाइंदे स्मारक, मूर्ति और मंदिर बना कर धर्म की दुकानें खोल रहे हैं. भाजपा सरकार हिंदुत्व के नाम पर कभी मंदिर के निर्माण की वकालत करती है तो कभी गौमाता के संरक्षण के नाम पर सरकारी संरक्षण में पल रहे कथित गौसेवकों को मौबलिंचिंग के लिए प्रोत्साहित कर नागरिकों में असुरक्षा व भय का वातावरण तैयार किया जाता है.
कांग्रेस युग में हुई शुरुआत अपने नेताओं की बड़ीबड़ी मूर्तियां लगाने का काम कांग्रेस सरकार के जमाने में ही शुरू हुआ था. पर तब छोटी मूर्तियां बनती थीं. दक्षिण भारत में नेताओं की मूर्तियों को ले कर गजब की प्रतिस्पर्धा रही. इस मामले में दक्षिण में नैतिकता के सारे प्रतिमान ढह गए. कांग्रेस के प्रमुख और तमिलनाडु के लोकप्रिय नेता रहे कामराज ने अपने जीवित रहते हुए ही अपनी प्रतिमा मद्रास के सिटी कौर्पोरेशन में स्थापित करवाई. और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मद्रास आ कर उस का अनावरण किया. इस पर नेहरू की तरफ से दलील यह दी गई कि वे अपने प्यारे दोस्त और साथी के सम्मान में यहां आए हैं. आश्चर्यजनक बात यह है कि नेहरू ने संसद में महात्मा गांधी की प्रतिमा लगाने का विरोध किया था.
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कांग्रेस की देन रही मूर्तियों की इस राजनीति में कांग्रेस की किरकिरी तब हुई जब नेहरू की मृत्यु के बाद देशभर में उन के स्मारक बनाए जाने के लिए नेहरू मैमोरियल ट्रस्ट का गठन किया गया. डा. करण सिंह को इस का सचिव बनाया गया. दक्षिण की तरह महाराष्ट्र में शिवसेना ने शिवाजी पार्क में पार्टी के संस्थापक बालासाहब बाल ठाकरे की प्रतिमा स्थापित कराने का प्रयास किया, जिसे सरकार ने खारिज कर दिया. इस पर खूब बवाल मचा व राजनीति हुई. दक्षिण में मूर्ति राजनीति इस कदर हावी हो गई कि जब डीएमके सत्ता में आई तो उस ने अपने नेताओं की मूर्तियों की लाइन लगा दी. इस से भी आगे डीएमके ने मैरीन बीच को भी नहीं बख्शा. कांग्रेस ने जब सत्ता में वापसी की तो इसी प्रतिस्पर्धा में इस खूबसूरत पर्यटन स्थल पर कामराज की मूर्ति स्थापित कराई.
भाजपा सरकार द्वारा पिछले 5 सालों में बनाए गए स्मारक जिस प्रकार देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाषणों के माध्यम से लंबीचौड़ी बातें करने के लिए माहिर हैं, उसी प्रकार उन्होंने देश में ऊंचीऊंची मूर्तियां व स्मारक बनाने में भी महारत हासिल कर ली है. 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार द्वारा देश के कई इलाकों में बनाए स्मारक और मूर्तियों पर भी एक नजर डालिए- द्य मुंबई के दादर में स्थित शिवाजी पार्क में चैत्य भूमि के पास भीमराव अंबेडकर का 250 फुट ऊंचा स्टैच्यू औफ इक्वलिटी यानी समानता की प्रतिमा का भूमिपूजन 11 अक्तूबर 2015.
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मुंबई में मैरिन ड्राइव के निकट 3,600 करोड़ रुपए की लागत से अरब सागर में शिवाजी स्मारक का शिलान्यास 27 दिसंबर, 2016. द्य कोयंबटूर में स्टील के टुकड़े जोड़ कर बनाई गई 112 फुट ऊंची शिव प्रतिमा का अनावरण 24 फरवरी, 2017. द्य रामेश्वरम में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की स्मृति में स्मारक 27 जुलाई, 2017. द्य नई दिल्ली के चाणक्यपुरी में पुलिस जवानों के बलिदान के सम्मान में 30 फुट ऊंचे और 238 टन वजन के राष्ट्रीय पुलिस स्मारक एनपीएम का उद्घाटन 21 अक्तूबर, 2018. द्य गुजरात में 3,000 करोड़ रुपए की लागत से निर्मित सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा का लोकार्पण 31 अक्तूबर, 2018.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की स्मृति में ‘सदैव अटल’ स्मारक 25 दिसंबर, 2018. द्य नई दिल्ली के इंडिया गेट के पास 40 एकड़ में 176 करोड़ रुपए की लागत से बना राष्ट्रीय युद्ध स्मारक 25 फरवरी, 2019. द्य उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा अयोध्या में राम की 7 फुट ऊंची लकड़ी की प्रतिमा का अनावरण 7 जून, 2019. द्य कंचनजंगा विमान हादसों में मारे गए वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा और भारतीय यात्रियों की याद में फ्रांस में स्मारक का उद्घाटन 23 अगस्त, 2019. द्य अयोध्या में राममंदिर निर्माण के लिए श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट बनाने का ऐलान 5 फरवरी, 2020. द्य वाराणसी में दीनदयाल उपाध्याय की 63 फुट ऊंची प्रतिमा का अनावरण 16 फरवरी, 2020. मायावती भी बहुत आगे वैसे तो हर दल की सरकार द्वारा अपने शासनकाल में बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी कार्यों के बजाय स्मारक और मूर्तियां बनाने के काम को प्रमुखता दी गई है लेकिन दलितों के उत्थान की दुहाई देने वाली बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती स्मारकों के निर्माण में सब से अव्वल रही हैं.
नीतिगत तौर पर उन्हें मूर्ति भंजक होना चाहिए था क्योंकि शूद्रों दलितों पर अत्याचार उन देवताओं के लिए जिन की मूर्तिं मंदिरों में मौजूद हैं. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने लखनऊ, नोएडा और बादलपुर गांव में बनाए गए स्मारकों के लिए लगभग 750 एकड़ बेशकीमती जमीन इस्तेमाल की और इन स्मारकों के निर्माण पर जनता के टैक्स के धन से जुटाए गए लगभग 6 हजार करोड़ रुपए खर्च कर डाले. स्मारकों में इस्तेमाल हुई साढ़े सात सौ एकड़ जमीन का सरकारीतौर पर कोई मूल्य नहीं बताया जा रहा है. इतना ही नहीं, स्मारकों के रखरखाव के लिए लगभग 6 हजार कर्मचारी रखे गए हैं जिन का सालाना वेतन ही 75 करोड़ रुपए है. लखनऊ विकास प्राधिकरण अधिकारियों द्वारा तैयार किए एक विवरण के अनुसार, सब से अधिक 178 एकड़ जमीन डा. अंबेडकर स्मारक और उस के आसपास बने परिवर्तन स्थल तथा पार्कों पर खर्च की गई.
मायावती ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल के दौरान वर्ष 1995 में यहां अंबेडकर स्मारक, अंबेडकर स्टेडियम, गैस्ट हाउस और पुस्तकालय आदि बनवाया था लेकिन 2007 में चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने इन इमारतों का पुनर्निर्माण और विस्तार किया जिस पर अकेले आवास विभाग से 2,111 करोड़ रुपए खर्च हुए. शहर के पश्चिमी इलाके में वीआईपी रोड स्थित 3 जेलों को तोड़ कर वहां की लगभग 185 एकड़ जमीन पर 1,075 करोड़ रुपयों की लागत से कांशीराम ईको गार्डन तथा बगल में लगभग 46 एकड़ जमीन पर कांशीराम स्मारक स्थल का पुनर्निर्माण कराया गया.
जनता को लोकलुभावन वादों से भरमाने वाली सरकारें यदि इन करोड़ोंअरबों रुपयों से मूर्तियां और स्मारक बनाने के बजाय देश में कारखाने और फैक्ट्रियां खोलतीं तो शायद देश के बेरोजगार नौजवानों को रोजगार मिल जाता. आज देश की जनता को स्मारकों की नहीं बल्कि अच्छे स्कूल, कालेज और अस्पतालों की आवश्यकता है. गांवगांव अस्पतालों में डाक्टर, दवाएं और जांचों के लिए आधुनिक उपकरण और औक्सीजन सिलैंडर दिए जाते तो कोई बच्चा असमय काल के गाल में न समाता. अच्छा होता कि हम विकास की सही परिभाषा गढ़ पाते. कोविड-19 के संक्रमण से बचने के लिए हम गांवकसबों के सरकारी अस्पताल में एक वैंटिलेटर और कुछ जरूरी दवाइयों का इंतजाम कर पाते तो जनता पर जबरन थोपे गए लौकडाउन की नौबत ही न आती और न ही इस देश की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती. पर इन दिनों तो सरकार अयोध्या में राममंदिर की तैयारी कर रही थी.
लेखक-रोहित और शाहनवाज
अग्रलेख पंजाब चुनाव अब शहरी भी नाराज पंजाब की राजनीति आमतौर पर राष्ट्रीय राजनीति से मेल नहीं खाती और न ही किसी लहर या आंधी से प्रभावित होती है. वजह साफ है कि वहां का वोटर हिंदुत्व मुद्दों पर वोट नहीं करता. हालिया निकाय चुनाव में भी यही हुआ. कैसे हुआ, पढि़ए इस खास रिपोर्ट में : 17 फरवरी को पंजाब के निकाय चुनाव के परिणामों में कांग्रेस को मिली बड़ी जीत के माने सिर्फ कांग्रेस की जीत की नजर से देखा जाना ठीक नहीं होगा. इस में भाजपा व उस के भूतपूर्व सहयोगी अकाली दल को मिली करारी हार की चर्चा रत्तीभर भी कम नहीं होनी चाहिए. जिन शहरी नगर इलाकों में चुनाव हुए वहां के अधिकतर समीकरण उस राजनीति के एंगल से सटीक बैठते हैं जो भारतीय जनता पार्टी आम लोगों पर हमेशा थोपती आई है.
वहीं, यह भी कि अगर यह कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध था तो इन कानूनों का खुल कर विरोध किए जाने के बावजूद अकाली दल और आप के खराब प्रदर्शन की वजह क्या रही? खैर, इस बिंदु पर चर्चा आगे की जाएगी, उसे पहले उस बिंदु को बताया जाना जरूरी है जो इस निकाय चुनाव में सब से पहले आमराय बन कर उभरा है. आमतौर पर इस चुनाव परिणाम के पीछे किसान आंदोलन का हावी होना माना जा रहा है, देश की राजधानी दिल्ली के बौर्डर पर महीनों से किसान आंदोलित हैं और इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन के जनक, एक प्रकार से कहें तो, पंजाब के किसान रहे जिन्होंने सब से पहले नए विवादित कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन की शुरुआत की और तमाम आरोपों, दमन व सरकार द्वारा चलाई साजिशों के बाद भी अपने आंदोलन को जारी रखा. लेकिन क्या यह इस निकाय चुनाव की पूर्णरूपेण सचाई है? क्या इन निकाय चुनावों में कृषि कानून के विरोध में उठी यह आवाज शहरों के निकायों में इतना बड़ा फेरबदल करने में सक्षम रही कि भाजपा बुरी तरह धराशायी हो गई?
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क्या इसे सिर्फ कृषि कानूनों के विरोध में जनता का मैंडेट माना जा सकता है या इस के पीछे और भी समीकरण थे जिन्होंने काम किया? फिर सवाल यह भी कि अगर यह सिर्फ कृषि कानूनों के बूते की बात है तो आप और अकाली दल, जो पंजाब के शहरी लोगों के पास कांग्रेस के अलावा एक विकल्प के तौर पर थे, को बड़ी संख्या में सीटें दे कर क्यों नहीं जिताया गया? इस की पड़ताल पंजाब जा कर ही की जा सकती है. पंजाब निकाय चुनावों पर एक नजर दिल्ली की सीमाओं पर जहां एक तरफ विभिन्न राज्यों के किसान विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को ले कर 100 से ज्यादा दिनों से आंदोलनरत हैं वहीं, इसी दौरान 14 फरवरी, 2021 को पंजाब में निकाय चुनाव हुए जिस में रिकौर्ड 71 प्रतिशत वोट पड़े. चुनाव का रिजल्ट 17-18 फरवरी को घोषित किया गया जिस का शोर मचतेमचते तमाम बड़े मीडिया संस्थानों द्वारा दबा दिया गया.
पंजाब निकाय चुनाव में कुल 2,302 वार्डों में से कांग्रेस ने अनुमानतया 68.3 प्रतिशत वोटों के साथ रिकौर्ड 1,480 वार्डों पर परचम लहराया. अकाली दल को सिर्फ 322 वार्ड 14.87 प्रतिशत वोटों के साथ मिले और आप (आम आदमी पार्टी) को 66 वार्डों में जीत 3.04 प्रतिशत वोटों के साथ मिली. यह बड़ी गौरतलब बात है कि निकाय चुनाव में भाजपा महज 58 वार्डों में जीत के साथ 2.67 प्रतिशत वोटों के न्यूनतम स्तर पर सिमट कर रह गई जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 13 में से 2 सीटें 9.56 प्रतिशत वोटों के साथ और 2017 के विधानसभा चुनाव में 117 में से 3 सीटें और 7.52 प्रतिशत वोट मिले थे. ग्राफ अकाली दल का भी तेजी से गिरा जिसे 2019 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटें 27.5 प्रतिशत वोटों के साथ मिली थीं. जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 15 सीटें और 25.2 प्रतिशत वोट मिले थे. आप भी कम दुर्गति का शिकार नहीं हुई जिस ने 2017 के विधानसभा चुनाव में धमाकेदार एंट्री करते हुए 20 सीटें और 23.7 प्रतिशत वोट हासिल कर विपक्ष की कुरसी हथिया ली.
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इस के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे महज एक सीट 7.37 फीसदी वोटों के साथ मिली थी. ये आंकड़े बताते हैं कि वोटरों ने सम?ादारी से काम लेते सिर्फ कांग्रेस पर भरोसा जताया और वोटों का बंटवारा नहीं होने दिया जिस के दम पर भाजपा और उस के सहयोगी दल बिहार जैसे राज्य जीत ले जाते हैं. वैसे तो चर्चा हमेशा जीतने वाले पक्ष की गरम होती है लेकिन इस बार मसला अलग है. जून 2020 में कृषि कानूनों के अध्यादेश आने के बाद से ही पंजाब में भारी उथलपुथल चल रही है, जिस का एक संभावित नतीजा इस निकाय चुनाव में देखा जा सकता है. इस नगरीय चुनाव में भाजपा को इतनी करारी हार मिली है कि जिन इलाकों में वह जीतती भी आ रही थी इस बार वह वहां से गायब ही हो गई. मसलन, निकाय चुनाव में भाजपा और अकाली दल के कोर वोटर छिटक जाने से जो दुर्दशा हुई वह किसी से छिपाए भी नहीं छिप रही है.
पंजाब नगरनिगम चुनाव में 8 बड़े नगरनिगम, 109 नगर परिषद और नगर पंचायतों के तहत आने वाले 2,302 वार्डों के चुनाव कराए गए थे. चुनाव का नतीजा यह रहा कि कांग्रेस 7 नगरनिगमों में भारी बहुमत से चुनाव जीती, वहीं एक (मोगा नगर निगम) में सब से बड़ी पार्टी बन कर उभरी. अबोहर नगरनिगम में भाजपा और अकाली दल का हाल तो यह रहा कि 50 में से 49 सीटें अकेले कांग्रेस के खाते में चली गईं और मात्र एक सीट पर अकाली दल जीत पाई, जहां पिछली बार 2019 में नगरनिगम बनाए जाने से पहले अबोहर नगर परिषद में भाजपा और अकाली दल के गठबंधन को 33 में से 16 सीटें हासिल हुई थीं. ये कुछ आंकड़े उस हकीकत को सामने ला देते हैं जो दिखाते हैं कि पंजाब में खेती करने वाला किसान ही नहीं बल्कि शहरों में नौकरीपेशेगत, मजदूर, ठेलेवाला, व्यापारी, दुकानदार, युवा और महिलाएं सभी भाजपा से खासा नाराज चल रहे हैं और वे इस समय चुनाव के माध्यम से केंद्र सरकार को कड़ा संदेश देना चाहते हैं. लेकिन वह क्या संदेश है जो यहां की शहरी आबादी ने बंद लिफाफे में इन परिणामों के माध्यम से केंद्र तक भेजा है?
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यही इस पूरे निकाय चुनाव की सब से दिलचस्प कहानी है. वे टु पंजाब ‘सरिता’ पत्रिका की टीम ने पंजाब के निकाय चुनाव के घोषित परिणामों को देखते हुए ग्राउंड जीरो पर पंजाब का दौरा किया. इस दौरे में ग्राउंड जीरो पर उतर कर उन सभी समीकरणों को खंगालने की कोशिश की जो मीडिया के कैमरों और चीखतेचिल्लाते माइक से दब जाते हैं. इसी कड़ी में ‘सरिता’ टीम सब से पहले दिल्ली से लगभग 400 किलोमीटर दूर पंजाब के होशियारपुर जिले की तरफ गई. यह निकाय क्षेत्र पिछली बार भाजपाअकाली दल का गढ़ रहा था. लेकिन इस बार यहां 50 में से 41 सीटें जीत कर कांग्रेस ने अपने किल्ले गाड़ दिए. यह टाउन हिमाचल के ऊना से 20-25 किलोमीटर की दूरी पर है. बड़े शहरों की तरह यहां बहुत ज्यादा भीड़भाड़ और चहलपहल नहीं थी. लेकिन दिलचस्प यह था कि बाकी राज्यों के शहरों में जिस तरह से चुनाव के बाद पोस्टर, बैनर और होर्डिंग जगहजगह लदे दिख जाते हैं वैसा यहां देखने को बहुत कम मिला. थोडे़बहुत कांग्रेस और आप के पोस्टर कहींकहीं दिख भी रहे थे लेकिन भाजपा के काफी कम देखने को मिले. पंजाब का होशियारपुर टाउन हिंदू बहुल इलाका है.
इस के बावजूद उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तरह यहां मंदिरों के धार्मिक प्रचार करने वाले पोस्टर व बैनर नहीं दिखाई दिए. ठीक ऐसा ही गुरुद्वारे को ले कर भी था. इस बीच ‘सरिता’ टीम इस जिले के कई बाजारों और रैजिडैंशियल इलाकों में घूमी जहां लोगों से बात कर एक चीज देखने को मिली कि इस बार का शहरी वोटर साइलैंट वोटर था, जो भाजपा से नाराज चल रहा था. यहां का व्यापारी तबका अतीत में भाजपाअकाली को वोट देते आ रहा था. उस ने इस बार कांग्रेस को चुना. होशियारपुर के सराजा चौक में व्यापारी मानिक जैन खुद को भाजपा समर्थक बताते हैं और कहते हैं, ‘‘इस बार का व्यापारी छिपा वोटर था, जो भाजपा के समर्थक भी थे, उन्होंने भी सामने से उम्मीदवार को हां तो कह दिया लेकिन बैकडोर से कांग्रेस को वोट दिया.’’ जो तथ्य उभर कर सामने आया वह सिर्फ कृषि कानूनों के संबंध में आक्रोश को ले कर नहीं था बल्कि इस के साथ वह महंगाई, बेरोजगारी और केंद्र में भाजपा सरकार की गलत आर्थिक नीतियों इत्यादि के चलते था. अमित जैन होशियारपुर में कारोबारी हैं, उन का कहना था, ‘‘बात सिर्फ कृषि की नहीं है. भजपा मुद्दों को ले कर बात ही नहीं कर रही है.
भाजपा ने वोट सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम पर मांगा, काम पर नहीं. भाजपा वाले बस, मोदीजीमोदीजी कहते रहे. अभी इस समय महंगाई का हाल देख लो. पैट्रोलडीजल के दाम ऐसे बढ़ रहे हैं कि निजी गाड़ी से चलना मुश्किल हो रहा है.’’ यह तय है कि इस बार का पंजाब निकाय चुनाव भाजपा के लिए अपनी ही पिच पर क्लीन बोल्ड होने जैसा था. जाहिर है मोदी के चेहरे के साथ भाजपा लड़ा करती है और यहां तो लोगों की मुख्य नाराजगी उसी चेहरे को ले कर थी. ठीक इसी प्रकार की समस्याएं पंजाब के मोगा निकाय, जो होशियारपुर से लगभग 150 किलोमीटर की दूरी पर है, में भी देखने को मिली. ‘सरिता’ टीम ने यहां आम लोगों और कारोबारियों से बात की. यहां कुल 50 वार्डों में कांग्रेस ने 20 ्रमें जीत हासिल की, वहीं अकाली दल ने 15 और इंडिपैंडैंट कैंडिडेट्स 10 सीटों पर जीते. एकमात्र सीट जो भाजपा के हिस्से आई वह भी पहले से भाजपा के सीट पर जीतते आ रहे पार्षद की बहू थी,
जो इस बार महिला रिजर्व हो गई. मोगा का यह इलाका होशियारपुर से थोड़ा अलग था. बड़ेबड़े बाजार, चर्चित ब्रैंड के आउटलेट्स, घनी आबादी वाले इस इलाके में हमेशा चहलपहल देखी जा सकती है. कमाल यह था कि भाजपा के साथ धर्म के कट्टरपंथी समर्थन रखने वाले लोग खुल कर अपना समर्थन नहीं जता पा रहे थे. वे हिचकिचाए से दिखाई दे रहे थे. कोई अगर भाजपा के समर्थन में होता भी तो अमूमन छिपा ही रहता. मोगा में भी रोजगार की समस्या युवाओं को घेरे हुए है. मोगा में 30 वर्षीय धनपतराय अपनी बेरोजगारी का जिम्मेदार मोदी की गलत नीतियों को मानते हैं. वे कहते हैं, ‘‘सरकार ने रोजगार का कोई अवसर प्रदान नहीं किया. यह बात नहीं कि योजनाएं नहीं हैं लेकिन बिना प्रबंधन के उन योजनाओं का इंपैक्ट जमीन पर होता हुआ दिखाई नहीं देता. बाजार में कामधंधा ही नहीं होगा तो मेरे जैसे युवा आखिर करेगा ही क्या? मैं ने डिगरी ले ली डिप्लोमा भी लिया हुआ है, लेकिन काम के अभाव में मु?ो घर पर खाली बैठना पड़ रहा है.’’
बेरोजगार युवा तो ठीक, लेकिन जिन के पास अपना कामधंधा है, वे भी खाली बैठने को मजबूर हैं. कई दुकानदारों और खुद का कामधंधा करने वाले लोगों से बात की तो वे बताते हैं कि इस समय बाजार में मक्खियां मारने के अलावा कोई काम नहीं है. चैंबर रोड पर होटल कमल के मालिक बताते हैं, ‘‘अब होटल लाइन ठंडी पड़ी हुई है. पहले जो रौनक हुआ करती थी, अब वह नहीं रह गई है. धंधा इतना मंदा चल रहा है कि यहां कस्टमर के साथ भावतोल वाली स्थिति आ चुकी है. लौकडाउन के बाद तो होटल इंडस्ट्री का पूरा भट्टा ही बैठ गया है.’’ पंजाब के शहरों में यह तय है कि वहां भाजपा को वोट न देने का कारण केवल केंद्र सरकार द्वारा विवादित कृषि कानून लाना और उस के बाद किसानों का कानूनों के खिलाफ सड़कों पर उतर जाना ही नहीं, बल्कि इस से भी काफी बड़ी समस्याएं लोगों को ?ोलनी पड़ रही हैं. और वह है महंगाई और केंद्र सरकार द्वारा बनाई जाने वाली गलत आर्थिक नीतियां.
मतदाताओं के मन की रोचकता पंजाब निकाय चुनाव के नतीजों को यदि हम गौर से देखें तो कुछ रोचक तथ्य निकल कर सामने आते हैं. पंजाब में हिंदू आबादी शहरों की तरफ केंद्रित है. आंकड़ों से यह पता चलता है कि पंजाब के जिन 8 नगरनिगमों में निकाय चुनाव हुए वहां का सामाजिक ढांचा कुछ ऐसा है कि भाजपा के लिए ही बड़ी परेशानी का सबब बन चुका है और देश के बाकी राज्यों के लिए बेमिसाल उदाहरण. ज्यादातर नगरनिगम निकायों में हिंदू आबादी बहुसंख्यक है. उस के बावजूद उन्होंने तथाकथित हिंदू दक्षिणपंथी पार्टी भाजपा को वोट नहीं दिया. यदि हम भाजपा की राजनीति को आधार मानें तो आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भाजपा को वोट देने वाला आमतौर पर हिंदू होता है और उस में भी समर्पित तौर पर बड़ी संख्या सवर्णों की होती है.
लेकिन यह फार्मूला पंजाब के इस निकाय चुनाव से कितना मेल खाया, कहना मुश्किल नहीं है क्योंकि पार्टी को मिली सीट के आधार पर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस बार पंजाब में भाजपा के खिलाफ जबरदस्त माहौल हिंदू समुदाय के भीतर भी देखने को मिला. इस बार पंजाब की इस शहरी आबादी ने इस धार्मिक कांठी को दरकिनार कर मुद्दों को ले कर चुनाव में शिरकत की. यहां हुए अधिकतर निकायों में हिंदू बहुसंख्यक थे. इस के बावजूद कुछकुछ जगहों में भाजपा को एक भी सीट न मिलना व कुछ जगह कैंडिडेट को मात्र परिवार के ही वोट मिलना भाजपा की पौराणिक व दकियानूसी राजनीति पर गहरी चोट करता है. पंजाब के सभी 8 नगरनिगमों, जिन में हाल ही में चुनाव हुए, में भाजपा की पहले की स्थिति और हाल की स्थिति में जमीनआसमान का अंतर है.
उदाहरण के लिए अबोहर, जो कि फाजिल्का जिले का एक शहर है, में पिछली बार भाजपा ने 12 सीटें हासिल की थीं, इस बार भाजपा यहां निल बटा सन्नाटा रही. यहां की आबादी का 83.27 प्रतिशत हिंदू है. इसी प्रकार होशियारपुर का क्षेत्र, यहां पर पिछली बार भाजपा को 17 सीटें हासिल हुई थीं, इस बार वह 4 सीटें ही हासिल कर पाई. यहां की आबादी के 75.6 प्रतिशत हिंदू होने के बावजूद भाजपा अपने पूर्व वोटरों को रि?ाने में नाकामयाब रही. वहीं, हिंदू बहुल क्षेत्र होने के बावजूद भाजपा कपूरथला निकाय में न तो पिछली बार सीट हासिल कर पाई और न इस बार एक भी सीट हासिल करने में कामयाब हो पाई. मोहाली में भी कुछ ऐसा ही रहा, जहां इस बार के चुनाव में भाजपा का डब्बा गोल रहा. भाजपा ने पिछली बार यहां से 6 सीटें हासिल की थीं. मोहाली में हिंदुओं की संख्या सिखों के तकरीबन बराबर ही है. बटाला में भाजपा ने इस बार 4 सीटें हासिल कीं जो पिछली बार से 7 कम हैं बावजूद इस के कि यहां आबादी का 56 प्रतिशत हिस्सा हिंदुओं का है. पठानकोट में 88 प्रतिशत हिंदू आबादी होने के बावजूद भाजपा को इस बार सिर्फ 12 सीटें ही मिलीं जोकि पिछली बार 29 थीं.
वहीं, 38 सीटें कांग्रेस के हिस्से में आईं. यानी पंजाब में भाजपा को एकमात्र समर्थन देने वाले वोटरों का भाजपा की कार्यशैली से मोह भंग हो गया. नहीं चली धर्म की काठी इनकार नहीं किया जा सकता कि नए कृषि कानूनों के चलते पंजाब के लोग भाजपा के खिलाफ संगठित हो कर लामबंद हुए लेकिन सिर्फ यही कारण भाजपा के हारने का रहा, इसे हाथोंहाथ भी नहीं लिया जा सकता. सरिता टीम ने जो चीज ग्राउंड पर जा कर खंगाली, वह यह कि पंजाब में नए विवादित कृषि कानून भाजपा के खिलाफ विरोध का जरीया बन कर उभरा जरूर है किंतु वही सार्वभौमिक रहा, यह कहना सरासर गलत होगा. देखा जाए तो जिन क्षेत्रों में निकाय चुनाव हुए वहां आंदोलन का सीधा प्रभाव नगण्य है. बल्कि इन इलाकों में किसान आंदोलन से प्रभावित लोग अधिक निवास करते हैं. किसी का रोजगार आंदोलन के चलते ठप पड़ा है तो किसी का अपना धंधा रुका पड़ा है, लेकिन व्यापक चित्र में इन शहरी लोगों की अपनी समस्याएं समयसमय पर उभरती रही हैं, और ये समस्याएं उन रीतिनीति और कुप्रबंधन के चलते पैदा हुईं जो भाजपा सरकार द्वारा चलाए शासन के जरीए यहां के लगातार लोग ढोते आ रहे हैं.
इस के साथ ही पंजाब के जिन इलाकों में सरिता टीम गई उन शहरी इलाकों में सरकार द्वारा जबरन थोपे गए कृषि कानूनों से तो लोग खफा थे ही किंतु साथ ही वे बढ़ती महंगाई से परेशान भी थे. इस का कारण वे केंद्र की आर्थिक नीतियों की नाकामियों को मान रहे थे. लोगों का कहना था कि अगर कृषि कानून नहीं भी होते तो भी निकाय चुनावों के परिणाम लगभग ऐसे ही आने थे, क्योंकि कृषि कानूनों के अलावा भी महंगाई, पैट्रोलडीजल के बढ़ते दाम, बेरोजगारी, ठप पड़ा व्यापार, घटिया आर्थिक नीतियां इत्यादि समस्याएं पूरे देश में पसरी पड़ी हैं. 5 नदियों की इस धरती पर केंद्र में मोदी के सत्ता में आने के बाद 2017 से देखने को मिल रहा है कि यहां लोग कमोबेश आइडैंटिटी और रिलीजियस पौलिटिक्स की जगह अपने स्थानीय मुद्दों पर अधिक जोर दे रहे हैं. यह हाल लोकसभा से ले कर पंचायत चुनाव तक में देखने को मिल रहा है. इस का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस के आलाकमान का योगदान पंजाब में हाथ की छठी उंगली के बराबर है जिस का वजूद तो है लेकिन किसी प्रकार की भूमिका नहीं है. फिर भी वह पूर्ण बहुमत से जीत रही है. लेकिन भाजपा पार्टी ने जब अपने आलाकमान नेताओं को यहां प्रचारितप्रसारित करने की कोशिश की तो लोगों ने उन्हें सिरे से नकार दिया.
इस निकाय चुनाव में पंजाब के शहरी लोगों का कांग्रेस को यों समर्थन देना, कांग्रेस के प्रति जनभावना से कहीं अधिक भाजपा के खिलाफ आक्रोश का होना देखा जा सकता है. यही कारण भी है कि कुछकुछ सीटों में तो भाजपा का वोट डबल डिजिट तक भी नहीं पहुंच पाया. यहां लोगों ने भाजपा को हराने के लिए अपने वोटों को न सिर्फ एकजुट किया बल्कि ऐसी पार्टी को जीत का ताज दिया जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की मुखालफत कर सके. अब प्रश्न यह कि क्या पंजाब का हिंदू अब भाजपा की उस डिवीसिव पौलिटिक्स यानी बंटवारे की राजनीति को सम?ा चुका है जिस के फेर में फंस कर वह हमेशा बेवकूफ बन जाया करता था. कृषि कानूनों के बाद पंजाब में चल रहे आंदोलन से और उस आंदोलन को भाजपा सरकार द्वारा दबाए जाने से एक चीज, जो खासकर पंजाब में उभर कर सामने आई वह यह कि वोटर के जेहन से भाजपा को वोट देने का मौरल ग्राउंड खत्म हो गया है. भाजपा की वह तथाकथित राष्ट्रवादी छवि धूमिल होने लगी जिस आधार पर वह वोट मांगती है और इस के धूमिल होते ही उस की सभी गलत आर्थिक नीतियां और कुप्रबंधन लोगों के सामने स्पष्टरूप से दिखाई देने लगे जिसे सरकार 7 सालों से लोगों पर थोपती आ रही है. कहा जा सकता है कि इस आंदोलन ने शीशे पर लगी धूल की मोटी परत को साफ करने का काम किया है और उस कुरूप चेहरे को सामने ला खड़ा किया है जो भाजपा लंबे समय से लोगों से छिपाती आ रही थी.
कुप्रबंधन के कई चेहरे इस का एक बड़ा असर यह हुआ कि पंजाब के जिन निकायों में चुनाव हुआ वहां हिंदू वोटर होने के बावजूद भाजपा हैदराबाद निकाय चुनाव की तर्ज पर अपने भ्रामक प्रचार नारा ‘जय श्री राम’ को लगाने से दूर रही. इस चुनाव में पहले ही जीत की उम्मीद खो चुके भाजपा के बड़े नेताओं ने अपने कैंडिडेट्स का साथ नहीं दिया और न ही प्रचारप्रसार किया. विरोध का स्तर इतना था कि भाजपा के जीते सांसद भी अपने नगर इकाइयों में न तो प्रचार कर पाए और न ही अपने कैंडिडेट्स जिता पाए. उलटा, यह देखने में आया कि जिन जगहों से भाजपा के सांसद जीते थे वहां से भाजपा एक भी सीट नहीं जीत पाई. गुरदासपुर इस का बेहतरीन उदाहरण है. इस का एक कारण यह भी था कि वहां आम लोगों को फिरोजपुर में रोका गया. वहीं जमीनी और नगरीय स्तर पर भाजपा के पास अपना काम दिखाने के लायक कुछ बचा ही नहीं था. इस के चलते वहां भाजपा के पास न तो कहने के लिए कुछ था और न ही दिखाने लायक कुछ. इन दबी कुंठाओं में वे परिघटनाएं हैं जिन से पंजाब के लोग ही नहीं, पूरे देश के लोग ग्रसित हुए. जिन में नोटबंदी, जीएसटी, लौकडाउन, गिरती अर्थव्यवस्था, बढ़ती महंगाई व बेरोजगारी मुख्य कारण हैं. कुप्रबंधन के चलते शहर से ले कर दूरदराज के गांवों तक में लोगों को भारी तकलीफों का सामना करना पड़ा. भाजपा सरकार के कुप्रबंधन को इन्हीं कुछ घटनाओं से सम?ा जा सकता है जिस ने आम लोगों की रोजमर्राई जिंदगी दुश्वार कर रखी है. भाजपा के केंद्र में आने के बाद 8 नवंबर, 2016 की रात 8 बजे प्रधानमंत्री ने मात्र 4 घंटे के नोटिस पर देश में 500 और 1,000 रुपए के नोटों को अवैध घोषित कर दिया.
इस नोटबंदी के क्या फायदे व नुकसान हुए, वह अलग मसला है लेकिन सरकार द्वारा जैसा कुप्रबंधन इस दौरान देखा गया उस ने भाजपा द्वारा सरकार चलाने के मैनेजमैंट स्किल्स पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए. नोटबंदी के 50 दिनों के भीतर सरकार ने 74 बार नियमकानूनों में फेरबदल किए. कथित भ्रष्टाचार को खत्म करने के मकसद से की गई नोटबंदी ने एक नए प्रकार के भ्रष्टाचार को जन्म दिया. मार्केट में लंबे समय तक नई करैंसी फ्लो नहीं हो पाई और दूरगामी इस का प्रभाव इकोनौमी पर देखने को मिला. लोगों ने नौकरियां गंवाईं, लाइन में लगेलगे लोगों ने जीवन गंवाया, छोटे व्यापारियों की कमर टूट गई और जिस उद्देश्य से नोटबंदी की गई उस का अभी तक कोई अतापता नहीं चल पाया. इसी प्रकार, लौकडाउन भाजपा सरकार के कुप्रबंधन का अब तक का सब से बड़ा जीताजागता उदाहरण है जिसे विचारते हुए अपना सिर पीटने का मन करता है. 24 मार्च, 2020 की रात 8 बजे प्रधानमंत्री मोदी ने देश में 21 दिनों के लिए संपूर्ण लौकडाउन का ऐलान कर दिया जिसे 8 जून को पहले अनलौक तक आगे बढ़ाया गया. एकाएक देश में सबकुछ बंद हो गया.
सरकार ने बिना किसी नोटिस जारी किए लोगों को उन्हें उन के घरों में कैद कर दिया जिस के भयंकर परिणाम निकले. लाखों की संख्या में लोगों की नौकरियां चली गईं. इन्फ्लेशन (मंदी) की स्थिति पैदा हो गई. इकोनौमी ठप पड़ गई. करोड़ों प्रवासी मजदूर सैकड़ों किलोमीटर दूर भूखेप्यासे, पैदल, लाठीडंडा खाते हुए अपने घरगांव जाने को मजबूर हुए. 30 जनवरी, 2020 को देश में पहला कोविड का केस सामने आया. लेकिन 24 मार्च तक सरकार ने कोविड से बचने के कोई उपाय नहीं किए. बजाय इस के, मोदी अमेरिका के तत्कालीन प्रैसिडैंट डोनाल्ड ट्रंप पर करोड़ों रुपए लुटा उन का चुनाव प्रचार करने में व्यस्त थे. यदि 30 जनवरी के बाद ही स्थिति को कंट्रोल कर लिया जाता तो नैशनवाइड लौकडाउन की जरूरत ही न पड़ती. लौकडाउन के बाद जो स्थितियां पैदा हुईं उन्हें सरकार कंट्रोल नहीं कर पाई और यही लौकडाउन भाजपा सरकार का सब से बड़ा मिसमैनेजमैंट साबित हुआ. हाल ही में हर दिन पैट्रोलडीजल के बढ़ते दामों और बढ़ती महंगाई ने आम जनता की बचीखुची जमापूंजी की आखिरी बूंद निकाल बाहर करने का काम किया है. लोगों के पास रोजगार नहीं है. जिन्हें काम मिल भी रहा है वे बहुत कम मेहनताने में काम करने को मजबूर हैं.
और ऐसे में पैट्रोलडीजल के बढ़ते दामों ने जरूरत की सभी चीजों को महंगा कर दिया है. नाराजगी पौराणिक पौलिसियों पर जब से भाजपा सत्ता में आई है तब से उस का पूरा जोर धार्मिक एजेंडे की पौलिसीज बनाने पर है. जो पूंजीवादी साम्राज्यवाद के लिफाफे में साथ हैं. उदाहरण के लिए सीएए-एनआरसी, लव जिहाद, धारा 370, गौरक्षा, आयुर्वेद विज्ञान, ट्रिपल तलाक, आरक्षण विरोधी, धर्मांतरण इत्यादि जैसे मुद्दे ही सरकार ने हमेशा प्राथमिक बनाए रखे हैं जो समाज को जाति, धर्म, लिंग इत्यादि के आधार पर बांटते हैं. इस पूरी लिस्ट में अब कृषि कानून भी शामिल है. दरअसल इन पौराणिक मानसिकता वाले सत्ताधारियों को किसानों से कोई लेनादेना नहीं है. यहां तक कि मनुस्मृति में कृषि का काम ब्राह्मणों के लिए पाप कहा गया है. पराशर स्मृति में कहा गया है कि, ब्राह्मणश्चेत्कृषिं कुर्यात्तान्महादोषमाप्नुयात् ॥8॥ संवत्सरेण यत्पापं मत्स्यघाती द्धमालुयात्। अयोमुखेन काष्ठने तदेकाहेन लांगली ॥11॥ पाशकोमत्स्नघाती च व्याधा: शकुनिकस्तथा। अदाताकर्षकश्चेव पंचैते समभागिन ॥13॥2॥ अर्थात, ब्राह्मण अपने हाथों से हल जोत कर कृषि करे तो महापापी हो जाता है. मछलियां मारने वाला एक वर्ष तक जितने पाप का भागी होता है, उतने ही हल जोतने वाला एक ही दिन में हो जाता है.
फंदे से जंतुओं को पकड़ने वाला, मत्स्यघाती, बहेलिया, चिड़ीमार और कृषण हो कर अपने हाथ खेती करने वाला ये पांचों बराबर हैं. इन आदेशों से यह जाहिर होता है कृषि धार्मिक ग्रंथों के हिसाब से ब्राह्मणों के लिए अपवित्र काम माना गया है. जिस से यह साफ हो जाता है कि कृषि कानूनों का निर्माण करने वाले को किसानों के जीवन में क्या फर्क पड़ेगा या नहीं, इस की कोई चिंता नहीं है. किसानों के प्रति दुर्भावना और उदासीनता का कारण भी वही पौराणिक कथाएं हैं जिन्हें पढ़ कर भाजपा नेतृत्व तैयार हुआ है. दक्षिणी राज्यों की तरह पंजाब का वोटर कभी इन धार्मिक ?ांसों में नहीं आया. इसलिए नहीं कि वहां सिख ज्यादा हैं, बल्कि इसलिए कि वह धर्म, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा के नाम पर वोट नहीं करता. वह अपने स्वाभिमान व हितों को प्राथमिकता देता है. यही मानसिकता अब पंजाब के हिंदुओं की भी हो गई है और यह सिलसिला मार्चअप्रैल में होने जा रहे 5 राज्यों- पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम सहित पुदुचेरी जहां भाजपा की हालत पंजाब सरीखी ही है, में जारी रहा तो भाजपा का हिंदू राष्ट्र का सपना हिंदी इलाकों में भी दम तोड़ देगा.
डिवीसिव पौलिसी कभी भी सामाजिक और आर्थिक उद्धार का कारण नहीं बन सकती. जब समाज आपस में बंटता है तो हर समुदाय की अपनी जरूरतें होती हैं, जिन को पूरा कर पाना किसी भी सरकार के लिए चैलेंजिंग होता है. यह इस बात पर सब से अधिक निर्भर करता है कि सत्ता किन लोगों के हाथों में है. उसी से ही डिवीसिव सोसाइटी को ले कर पौलिसीज के निर्माण में प्राथमिकताएं तय होती हैं. इस समय सत्ता पौराणिक मानसिकता वाले लोगों के हाथों में है. जिन की समाज को बांटे रखना ही प्राथमिकता है. भाजपा बेहद हिंसक रूप से यह खेल पश्चिम बंगाल में खेल रही है. पता नहीं कि पंजाब की तरह बंगाल के लोग इस ?ांसे में ज्यादा आएंगे या नहीं. भाजपा संघ की टौप लीडरशिप उन ग्रंथों, पुराणों, स्मृतियों को पढ़ व उन्हें आत्मसात कर यहां तक पहुंची है जिन में समाज को बांटे रखने के कायदेकानून मौजूद हैं. इन्हीं समृतियों व पुराणों में सवर्णों के राजपाट की बातें हैं. ये वही पुराण व ग्रंथ हैं जिन में वर्ण व जातियों के आधार पर काम के बंटवारे को ले कर अधिकारों व सीमाओं की लंबीचौड़ी व्याख्याएं दी गई हैं. इन ग्रंथों में दलितों और महिलाओं को गुलाम सम?ा गया और उन्हें सवर्णों की संपत्ति माना गया है.
उन पर तमाम तरह की बंदिशें लगाई गई हैं. इन्हीं स्मृतियों में शूद्रों के हिस्से सेवा और ब्राह्मणों के हिस्से मेवा की बात की गई है. काम के बंटवारे को ले कर ब्राह्मणों के हिस्से आराम करना, सेवा करना, पूजापाठ करवाना, ज्ञान (पाखंड) परोसना व पढ़ना है. वहीं, समाज के निचले तबकों के हिस्से परिश्रम करना, दुत्कार ?ोलना, सेवा करना, अछूत होना और अंत में मर जाना है. मौजूदा सत्ता का इंटरैस्ट समाज को हर प्रकार से बांटे रखना है ताकि मूल मुद्दे इस के नीचे दब कर रह जाएं. लोग भाजपाइयों के भटकाऊ मुद्दों को अपनी अस्मिता सम?ा उस में उल?ो रहें और ये अपने वेस्टेड इंटरैस्ट यानी पौराणिक रीतिनीतियों को लागू करने के साथ धर्मजीवी बन कर पुराने ढर्रे पर चीजें चलाते रहें. पंजाब निकाय चुनाव में भाजपा की हार से यह तय हो जाता है कि पंजाब की शहरी जनता, जिन में अच्छीखासी आबादी हिंदुओं की ही है, ने ही भाजपा की डिवीसिव पौलिटिक्स को नकार कर मुद्दों पर वोट किया है. वहीं, जिन जगहों पर यह भटकाऊ पौलिटिक्स हावी है वहां भाजपा अभी भी किसी न किसी तरह से जीतती दिखाई दे रही है. पंजाब की शहरी हिंदू जनता अब भाजपा की उस घटिया पौलिटिक्स से परेशान हो चुकी है, त्रस्त हो चुकी है जिस का शिकार वह लंबे समय से हो रहे थे. जनता को अब यह सम?ा में आ चुका है कि उस के घर का चूल्हा ‘ट्रिपल तलाक, धारा 370, लव जिहाद, आयुर्वेद विज्ञान’ जैसे मुद्दों से नहीं जलने वाला और न ही मंदिरमसजिद की राजनीति करने वालों का साथ दे कर जलने वाला है.
पंजाब के किसानों के साथ शहरी आबादी अब सम?ा चुकी है कि घर के बाहर चाहे जितना भी मोदीमोदी कर लो, घर का राशन मोदी के नाम पर नहीं, बल्कि जेब के पैसों से आता है. जिस तथाकथित शेर को भाजपा के आईटी सैल पलवाने की कोशिश में हैं, उस का खर्चा उठाने की हिम्मत अब लोगों में रही नहीं. वे अब यह सम?ा चुके हैं कि मोदी का नाम ले कर या उन की तारीफ कर पैट्रोल पंप वाला सस्ते में पैट्रोलडीजल नहीं देगा. गैस सिलैंडर, सब्जियां, चावलआटा इत्यादि जरूरत की चीजें खरीदते समय लोग अपने जेब का वजन हलका होते हुए महसूस करने लगे हैं. भाजपा पाखंडअंधविश्वास दे सकती है लेकिन एक जनकल्याणकारी जीवन देना, शिक्षा देना, स्वास्थ्य देना, स्वस्थ वातावरण देना, प्रबंधन देना भाजपा के बूते की बात नहीं है. द्य अमरिंदर बने हीरो उत्तरी भारत में पंजाब इकलौता राज्य है जहां भगवा गैंग को हमेशा मुंह की खानी पड़ती है और कांग्रेस पिछले 5 चुनावों से जीतती आ रही है. इस में कोई शक नहीं कि देशभर में कांग्रेस अपने सब से बुरे दौर से गुजर रही है लेकिन पंजाब उसे हिम्मत देता रहा है. तो इस की एक बड़ी वजह तेजतर्रार मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी हैं जिन की साख व लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर की परवा न करते हुए उन्होंने भाजपाई दिग्गज अरुण जेटली को अमृतसर सीट से पटखनी दे कर देश को चौंका दिया था. इस के बाद 2017 के विधानसभा में भी उन्होंने कांग्रेस को सत्ता दिला दी थी बावजूद इस के कि उस वक्त कांग्रेस अंदरूनी कलह का शिकार थी.
हालिया निकाय चुनाव में अमरिंदर सिंह ने न खुद को एक बार फिर साबित कर दिया है बल्कि अकाली दल और भाजपा को यह एहसास भी करा दिया है कि उन के छलप्रपंच पंजाब में नहीं चलने दिए जाएंगे. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने भाजपा को यहां पांव नहीं पसारने दिए थे. यह एक बड़ी वजह है जिस के चलते पंजाब के किसान बेधड़क हो कर आंदोलनरत हुए और भाजपा का हिंदू वोटबैंक भी सचेत हो गया.
फिटनेस फ्रीक के नाम से मशहूर बॉलीवुड एक्ट्रेस मंदिरा बेदी कभी अपने बोल्ड लुक से तो कभी अपनी फिटनेस को लेकर सुर्खियों में रहती हैं. बढ़ती उम्र में भी वो वर्क आउट करना नही भूलती. मंदिरा अक्सर फिटनेस से जुड़े वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर करती हैं. हाल ही में मंदिरा बेदी ने एक वीडियो शेयर किया है, जिसमें वो अपने बाथरूम में बिकिनी पहने बाथटब के सामने वर्कआउट कर रही हैं. मंदिरा बेदी का ये वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है.
मंदिरा बेदी इस वीडियो में बाथटब के सामने स्क्वॉट्स, लेग रेज, किक लंजेज, जंप स्क्वॉट्स और कई अन्य कार्डियो वर्कआउट करती नजर आ रही हैं. वीडियो को शेयर करते हुए मंदिरा ने कैप्शन में लिखा: “बाथटब, बिकिनी और बैंकआउटवर्कआउट. लंज किक्स, ग्लूट ब्रिजेज, ट्राइसेप डिप्स और अन्य डिसेंट कैलरी बर्न वर्कआउट का मिक्स.” उन्होंने ने आगे लिखा: ‘मैंने भी बिकिनी में वर्कआउट किया.’इसके साथ ही मंदिरा ने जैसे हैशटैग्स का भी इस्तेमाल किया है.
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मंदिरा बेदी के वीडियो पर उनके फैंस जम कर कमेंट्स दे रहे हैं. कुछ ही घंटों में वीडियो को हजारों की तादात में लाइक्स और कमेंट्स मिल गए. वीडियो में मंदिरा के लुक की तारीफ सेलेब्रिटीज़ भी कर रहे है, गुल पनाग, मसाबा गुप्ता और उनके बॉयफ्रेंड सत्यदीप मिश्रा ने भी इस पोस्ट पर अपने कमेंट्स दिए.
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मंदिरा बेदी शुरू से ही फिटनेस को काफी महत्व देती हैं. उनका मानना है कि आज आप जितना पसीना बहा रहे हो, आगे चलकर उतनी ही चमक आएगी. यही वजह है लाॅकडाउन के दौरान भी मंदिरा ने वर्कआउट करना नहीं छोड़ा था.
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मंदिरा बेदी के वर्क फ्रंट की बात करें तो उन्होंने अपने अभिनय करियर की शुरुआत छोटे पर्दे के शो ‘शांति’ से की थी. शो में उनके बेहतरीन अभिनय को देख कर फिल्मो के ऑफर मिलने लगे. उन्होंने फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ में काम किया. इसके बाद वह एकता कपूर के प्रसिद्ध टीवी शो ‘क्योँकि सास भी कभी बहु थी’ में नजर आईं. मंदिरा कॉमेडी शो में बतौर जज भी नजर आ चुकी हैं, साथ ही वह कई रियलिटी शोज़ की एंकर भी रह चुकी हैं. इसके अलावा मंदिरा बेदी अब तक साहो, मीराबाई नॉट आउट और द ताशकंत फाइल्स में नजर आ चुकी हैं.
हिना खान वैसे तो अपने फैंस के बीच में छाई रहती हैं. आए दिन सोशल मीडिया पर भी एक्टिव रहती हैं लेकिन इस बार हिना खान ऐसा वीडियो शेयर की हैं जिसके बाद वह ट्रोलिंग का शिकार बन गई हैं. हिना खान इन दिनों अपने ब्यॉफ्रेंड के साथ छुट्टियां मना रही हैं.
हिना ने आधी रात को स्विमसूट पहनकर आधीरात को फोटो शेयर की है लेकिन लगता है उनके फैंस को यह अंदाज रास नहीं आया है. हिना के कुछ फैंस जहां उन्हें ऐसे कपड़े पहनने और तस्वीर शेयर करने के लिए मना किया, वहीं कुछ फैंस इतना भड़क गए कि उन्हें धर्म कि दुहाई देने लगें.
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वहीं कुछ फैंस ने उन्हें मुसल्मान होने पर धब्बा बताया. एक फैन ने हिना की तस्वीर को देखकर कहा कि कुछ तो शर्म करों. मुस्लिम के नाम पर धब्बा है तू तो. एक ने कहा खुदा को मुंह भी दिखाना है.
एक महिला फैन ने लिखा कि प्लीज ऐसा मत करो यार तुम मुस्लिम हो. एक ने कहा कि यह वाकई परेशआन करने वाली फोटो है. तुम्हारी कपड़ों की चॉवाइस को मैं पसंद करती हूं लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि तुम अपनी संसक्कृति को भूल जाओ.
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अभी तक इस तस्वीर पर 9 घंटों में 4 लाख 45 हजार लाइक आ चुके हैं. जबकी 47000 हजार यूजर्स कमेंट कर चुके हैं. जानकारी के लिए बता दें कि हिना खान कुरामाठी आईलैंड में गई हुई हैं. हिना खान अब टीवी से ज्याद वेब सीरीज और फिल्मों में नजर आना चाहती हैं.
उन्होंने इस बात का खुलासा खुद किया था कि वह अब बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करना चाहती हैं. इसलिए वह छोेटे प्रोजेक्ट्स पर ध्यान नहीं देती हैं.
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हिना खान अपनी निजी जीवन को लेकर भी सुर्खियों में बनी रहती हैं. आए दिन वह अपने बॉयफ्रेंड रॉकी जायसवाल के साथ घूमती नजर आती हैं. हिना के फैंस रॉकी को भी खूब पसंद करते हैं.
भाजपा खेमे में घमासान मचा है. पांच राज्यों में चुनाव के मद्देनज़र उम्मीदवारों की लिस्ट तैयार हो रही है. पश्चिम बंगाल की लिस्ट तैयार हो चुकी है, जिसके जारी होने के बाद भाजपा नेताओं और नेतृत्व के बीच खूब सिरफुटव्वल हुआ है. दूसरी पार्टियों को छोड़ कर भाजपा से जुड़ने वाले नेताओं और फ़िल्मी सितारों को टिकट बांटे जाने से भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं और नेताओं में भारी रोष व्याप्त है. पश्चिम बंगाल में कई शहरों में स्थानीय भाजपा कार्यालयों के सामने जबरदस्त प्रदर्शन हुए, वहीँ कई जगह कार्यकर्ताओं ने गुस्से के मारे पार्टी दफ्तरों में तोड़फोड़ और हाथापाई तक कर डाली.
गौरतलब है कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को कमजोर करने के चक्कर में वहां लम्बे समय से सेंधमारी चल रही थी. भाजपा ने बड़े लालच देकर तृणमूल नेताओं की बड़ी संख्या अपने पाले में घसीटी है, अब उन सबको किसी ना किसी सीट पर टिकट बांटने से अंदरखाने बड़ा बवाल मचा हुआ है. जगतादल और जलपाईगुड़ी सदर इलाके में तृणमूल छोड़ कर भाजपा में आये नेताओं को टिकट दिया गया तो वहां नेताओं ने पार्टी दफ्तर में तोड़फोड़ कर दी. मालदा के हरिशचंद्रपुर और ओल्ड मालदा में भी पार्टी दफ्तर में सिरफुटव्वल और तोड़फोड़ हुई. इन सीटों के अलावा दुर्गापुर, पांडेश्वर समेत कुछ अन्य इलाकों में भी उम्मीदवारों के ऐलान के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं का गुस्सा फूटा और उन्होंने विरोध किया. यानी मतदान से पहले ही भाजपा अपनी ही कलह में गोते खा रही है.
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मज़े की बात यह है कि भाजपा अगर बंगाल में चुनाव जीत जाती है तो वहां उसका मुख्यमंत्री कौन होगा, यह अभी तक तय नहीं है. भाजपा के पास मोदी और शाह के अलावा कोई दमदार चमकदार चेहरा नहीं है, जो मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की टक्कर में नज़र आता हो. पर मोदी-शाह तो स्टार प्रचारक हैं, वे मुख्यमंत्री बनने तो बंगाल जाएंगे नहीं, उसके लिए तो किसी ना किसी को इस पद का दावेदार घोषित करना होगा. मगर ऐसा कोई चेहरा बंगाल में भाजपा को ढूंढें नहीं मिल रहा है.
मुख्यमंत्री पद के लिए राज्य में भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष के नाम की थोड़ी चर्चा है. घोष पर भाजपा दांव लगा सकती है. दिलीप घोष आरएसएस प्रचारक भी रहे हैं. अपने गंवई अंदाज के लिए घोष बंगाल में जाने जाते हैं. मगर ये ऐसे नेता हैं जो अपना चुनाव क्षेत्र भी अपने दम पर नहीं जीत सकते हैं. इसलिए घोष चुनाव लड़ने का जोखिम भी नहीं उठाएंगे, लेकिन यदि वे मुख्यमंत्री बनते हैं तो उपचुनाव लड़ेंगे मगर तब भी उनकी पूरी कोशिश होगी कि नरेंद्र मोदी ही आकर उनका प्रचार करें.
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भाजपा शासित राज्यों में अक्सर इसी पैटर्न को देखा गया है. जहां पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष, जो कि बाद में मुख्यमंत्री बने हैं, उन्होंने पहले चुनाव नहीं लड़ा है. हालांकि जब उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया, तो वे उपचुनाव के जरिए 6 महीने के अंदर विधायक बने. यह पैटर्न भाजपा ने असम और कर्नाटक में फॉलो किया था.
हालांकि दिलीप घोष इस वक़्त राज्य इकाई में अंदरूनी कलह से जूझ रहे हैं. पार्टी के अंदर दिलीप घोष के कई विरोधी पैदा हो गए हैं, जिन्हें घोष को सीएम पद का उम्मीदवार बनाने पर ऐतराज है. पब्लिक रैलियों में घोष के कई अटपटे बयान भी सुर्खियों में रह चुके हैं, जिसने भाजपा की काफी छीछालेदर करवाई है, जैसे – गोमूत्र में सोना होता है और कोविड-19 के लिए एक दवाई का काम करती है.
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गौरतलब है कि बंगाल का मिडिल क्लास काफी बौद्धिक माना जाता है, जिसके सामने दिलीप घोष के इस तरह के बेसिर-पैर वाले बयानों से भाजपा की छवि तो खराब हुई ही, यह भी पता चला कि पढ़े-लिखों का पार्टी में कितना अभाव है. घोष की व्यक्तिगत जीवन शैली में भी बंगाल की कला संस्कृति का अभाव है और यह सारी बातें उनके ‘बंगाली भद्रलोक’ में फिट बैठने के लिए पक्ष में नहीं दिख रही हैं. इसलिए दिलीप घोष को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करना भाजपा को नुकसान पहुंचा सकता है.
फिर कौन होगा पश्चिम बंगाल में भाजपा का सीएम् फेस?
दूसरे नंबर पर कोलकाता के मूल निवासी और भाजपा के पुराने नेता तथागत रॉय के नाम पर शायद विचार हो. तथागत रॉय त्रिपुरा और मेघालय के गवर्नर भी रह चुके हैं और कहते रहे हैं कि वह पार्टी के लिए कोई बड़ी जिम्मेदारी उठाने को तैयार हैं. मगर बात रुक जाती है उनकी उम्र पर. तथागत रॉय 75 साल के हैं और फिर तृणमूल नेता सौगात रॉय के भाई हैं. त्रिपुरा और मेघालय के राज्यपाल रहते हुए उनके भी कई विवादित बयान आ चुके हैं, जिन्होंने भाजपा की खिल्ली उड़वाई है. हालांकि भाजपा के ज़्यादातर नेताओं के बयान अन्धविश्वास और कट्टरपंथ के जहर में ही डूबे होते हैं, तथागत भी उससे ऊपर नहीं निकल पाए हैं, लेकिन एज-फैक्टर उनकी महत्वाकांक्षा पर ज़्यादा भारी है.
तीसरा नाम स्वपन दास गुप्ता का चर्चा में है. भाजपा नेतृत्व द्वारा स्वपन दास गुप्ता को नियमित रूप से काफी जिम्मेदारी वाले कार्य सौंपे जा रहे हैं. वह केंद्रीय नेताओं के बंगाल दौरों के समय हमेशा साथ नज़र आ रहे हैं. लेकिन स्वपन दास गुप्ता ज़्यादा समय दिल्ली में रहे हैं. वह पूर्व पत्रकार, स्तंभकार और राज्यसभा सांसद हैं. ऑक्सफर्ड के पूर्व छात्र दासगुप्ता कॉलेज के दिनों से ही 70 के दशक में राज्य से दूर हो गए थे. इसलिए बंगाल की जनता उनको वो प्रेम और सम्मान कभी नहीं देगी जो ममता बनर्जी को मिल रहा है.
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शुभेंदु अधिकारी ममता दीदी को छोड़ कर हाल ही में भाजपा में आये हैं. जब वे भाजपा की गोद में आकर बैठे थे तब इस बात की बड़ी चर्चा हुई थी कि उनकी बदौलत अगर दीदी की सत्ता जाती है तो उनको बंगाल की राजगद्दी दी जाएगी. गद्दी का लालच दिखा कर उनको टीएमसी से तोड़ा भी गया था. मगर धीरे-धीरे ये चर्चा हवा हो गई. अब तो उनके माथे पर जहाँ विभीषण का लेबल चस्पा हो गया है, तो वहीँ उनका राजनितिक अनुभव भी कुछ ख़ास नहीं है. ऐसे में उनका इस्तेमाल भाजपा नेतृत्व सिर्फ ममता बनर्जी को चोट देने और नंदीग्राम सीट निकालने भर के लिए ही करेगा. मगर नंदीग्राम का जो सिनैरियो अब है उसमें यह सीट निकालना भी शुभेंदु अधिकारी के लिए मुश्किल ही लग रहा है. ऐसे में भगवा दल के पास पश्चिम बंगाल में ऐसा कोई नेता नहीं है जिसकी लोकप्रियता मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जैसी हो और जिसे ममता के मुकाबले मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जा सके.
मैदान में अकेले मोदी-शाह
दरअसल आज पूरी भाजपा सिर्फ दो चेहरों में सिमट कर रह गयी है – एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे गृहमंत्री अमित शाह. जहां-जहां चुनाव हुए और होने हैं, वहां सिर्फ यही दो चेहरे जनता को नज़र आएंगे. इन दोनों के रहते दूसरी पंक्ति के नेताओं को कभी अपना व्यक्तित्व और राजनितिक हुनर दिखाने का मौक़ा ना मिला और ना मिलेगा. या यूं कहें कि इन दोनों के होते पार्टी अपनी दूसरी पंक्ति तैयार ही नहीं कर पा रही है. ऐसा नहीं है कि भाजपा में पढ़े-लिखे और राजनीति की बेहतर समझ रखने वाले नेता नहीं हैं, खूब हैं, मगर उनकी कुछ पूछ नहीं है. उनकी उपेक्षा की जा रही है. उन्हें बोलने से रोका जा रहा है. यही वजह है कि भाजपा के फायरब्रांड नेता सुब्रह्मनियम स्वामी आयेदिन मोदी-शाह पर टिप्पणी कर अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं. पार्टी में दूसरी पंक्ति तैयार ना होने देने का सीधा मतलब है पार्टी को कमजोर करना. मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मालिक ने तो मोदी-शाह के खिलाफ मोर्चा ही खोल दिया है.
उल्लेखनीय है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा के पास पढ़े लिखे नेताओं की दूसरी पंक्ति काफी दमदार थी. इसमें कई चेहरे थे जैसे – लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा, राजनाथ सिंह, जसवंत सिंह, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, अरुण शौरी, मुख़्तार अब्बास नकवी, शाहनवाज हुसैन, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा, विजय गोयल, राजीव प्रताप रूडी, रवि शंकर प्रसाद, अन्ना साहब एमके पाटिल वगैरा. इनमे से अधिकतर नेता उच्च शिक्षा प्राप्त थे. कुछेक को छोड़ दें तो अधिकतर अंधविश्वास, कट्टरपंथ, पोंगा-पंडित वाले दकियानूसी विचारों से भी मुक्त थे. अधिकतर वकालत के पेशे में थे और संविधान की इज्जत करना जानते थे. मगर आज इनमे से कुछ दिवंगत हो चुके हैं और जो बचे हैं वो गुमनामी की हालत में हैं. गहरा राजनितिक अनुभव होने के बावजूद उन्हें मोदी-शाह के आगे बोलने का हक़ नहीं है. इन दोनों ने सबकी बोलती बंद कर रखी है. शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी जो कभी भाजपा का दमदार मुस्लिम चेहरा और मुखर प्रवक्ता हुआ करते थे, आज कहीं चूं करते भी नहीं दिखते हैं. हुसैन को बिहार की राजनीति में धकेल दिया गया है तो नकवी गुमनामी की चादर तान कर पड़े हैं.
आज चुनाव मैदान में अगर प्रचार के लिए उतरे भाजपा नेताओं की गिनती करें तो चार पांच चेहरे ही नज़र आते हैं, जो अपने अनापशनाप बयानों से ज़्यादा ख्यात हुए हैं जैसे – योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी या जेपी नड्डा. वहीँ देवेंद्र फडणवीस, नितिन गडकरी या धर्मेंद्र प्रधान कभी यदाकदा ही बोलते दिखते हैं. वसुंधराराजे सिंधिया, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा जैसी तेज़तर्रार भाजपा नेत्रियां गुमनामी के परदे में समा चुकी हैं. कल्याण सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, प्रवीण तोगड़िया जैसे राम मंदिर आंदोलन के वो चेहरे जिनकी मेहनत के फल का रसास्वादन अकेले मोदी-शाह ने किया, जिनकी मेहनत से मिले राम मंदिर जीत का सेहरा मोदी-शाह ने अपने सिर बाँध लिया, आज कहाँ खो गए हैं, राजनीति की बिसात पर क्यों नहीं दिखते हैं, पांच राज्यों में चुनाव के वक़्त भी सुप्तावस्था में क्यों हैं, किसी सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर अपने विचार क्यों नहीं व्यक्त करते हैं? सवाल बहुतेरे हैं. क्या ये सब मोदी-शाह से डरे हुए हैं, या सबने मोदी-शाह को अकेला छोड़ दिया है?
परदे के राम के भरोसे भाजपा
राम मंदिर के पक्ष में कोर्ट का फैसला आने के बाद अब यह मुद्दा ख़त्म हो चुका है. इस मुद्दे पर अब भाजपा चुनाव में वोट नहीं पीट पाएगी. रोजी-रोटी, शिक्षा-स्वास्थ, विकास-जीडीपी जैसे मुद्दों से भाजपा हमेशा अपना दामन बचाती रही है. संघ का हिन्दू-मुस्लिम खेल भी पुराना हो चुका है, जनता सब समझने लगी है. ऐसे में क्या तरकीब लगाई जाए जिससे जनता की संवेदनाओं को भुना कर उसे वोट बैंक में तब्दील किया जा सके.
मोदी-शाह इस वक़्त आरएसएस के इशारे पर काम कर रहे हैं. हिन्दू राष्ट्र बनाने की तीव्र इच्छा आरएसएस मोदी-शाह के ज़रिये पूरी करना चाहती है. ऐसे में अब चुनावी वैतरणी पार करने के लिए संघ के इशारे पर परदे के ‘राम’ का सहारा लिया गया है.
गौरतलब है कि टेलीविजन के चर्चित सीरियल ‘रामायण’ में राम की भूमिका निभाने वाले अभिनेता अरुण गोविल को भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता दिलायी गयी है. अब परदे के राम को सामने रख कर भाजपा चुनावी रैलियां करेगी और जनता की धार्मिक आस्था और राम के प्रति उपजने वाली संवेदना को वोट के रूप में अपने पक्ष में भुनाएगी.
जिस शख्सियत को एक वक्त पर लोग सच में भगवान राम समान समझ पैर छूने लगे थे और जिनकी टीवी पर एक झलक पाने के लिए सड़कें और गलियां तक सुनसान हो जाती थीं, भला उस शख्सियत को सामने देख कर कौन उनके आग्रह पर उनके कहे व्यक्ति के पक्ष में वोट नहीं देगा?
पश्चिम बंगाल समेत पांच राज्यों में चुनावी सरगर्मियों के बीच भाजपा की सदस्यता ग्रहण करने वाले अरुण गोविल के बारे में कहा जा रहा है कि वह विधानसभा चुनाव भी लड़ सकते हैं. मगर फिलहाल तो उनको प्रचार कार्य में लगाया जा रहा है.
हालांकि अरुण गोविल रामायण के पहले ऐसे कलाकार नहीं हैं जो राजनीति में उतरे हैं. इससे पहले भी रामानंद सागर के चर्चित सीरियल के कई कलाकार राजनीति में आ चुके हैं. रामायण में सीता की भूमिका निभाने वाली दीपिका चिखलिया, हनुमान की भूमिका निभाने वाले दारा सिंह और रावण की भूमिका निभाने वाले अरविन्द त्रिवेदी भी भाजपा के टिकट पर चुनावी मैदान में उतर चुके हैं. ‘रामायण’ में सीता का किरदार निभाने वालीं दीपिका चिखलिया ने 1991 में भाजपा के टिकट पर लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी. वह गुजरात की वडोदरा सीट से लड़ी थीं. उन्हें कुल 49.98 फीसदी वोट मिले थे. दीपिका ने कांग्रेस के रंजीत सिंह प्रताप सिंह गायकवाड़ को करीब 34 हजार वोटों से हराया था.
यही नहीं, महाभारत के कई कलाकारों को भी भाजपा अपने टिकट पर मैदान में उतार चुकी है. जिसमे परदे पर द्रौपदी का किरदार निभाने वाली रूपा गांगुली राज्यसभा की मनोनीत सांसद हैं. 2016 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले 2015 में वह भाजपा में शामिल हुईं थीं. बंगाल के पिछले विधानसभा चुनाव में वह हावड़ा नॉर्थ से चुनाव भी लड़ीं लेकिन हार गईं. बाद में अक्टूबर 2016 में राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया. गांगुली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की कट्टर आलोचक हैं.
वहीँ महाभारत में ‘कृष्ण’ का रोल निभाने वाले नीतीश भारद्वाज भी 1996 में भाजपा के टिकट पर झारखंड के जमशेदपुर से चुनाव लड़े और जीते थे. जब वह चुनाव प्रचार के लिए जाते थे तो लोग उनका पैर छू कर आशीर्वाद लिया करते थे. कुछ तो तिलक, चंदन लगाकर उनकी आरती भी उतारा करते थे. हालांकि 1999 में वह मध्य प्रदेश की राजगढ़ सीट से तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई लक्ष्मण सिंह से हार गए. नीतीश भारद्वाज कुछ समय तक भाजपा के प्रवक्ता भी रहे, मगर बाद में उन्होंने सियासत की दुनिया छोड़ दी.
‘महाभारत’ में युधिष्ठिर का किरदार निभाने वाले गजेंद्र चौहान ने भी 2004 में भाजपा का दामन थामा था. 2015 में उन्हें प्रतिष्ठित फिल्म ऐंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया का चेयरमैन नियुक्त किया गया जिसका काफी विरोध हुआ था.
अब भाजपा ने राम की भूमिका निभाने वाले अरुण गोविल पर दांव लगाया है. अरुण गोविल की सियासी पारी को लेकर पहले भी चर्चा होती रही है, लेकिन वे राजनीति के अखाड़े में अब तक नहीं उतरे थे. वे हमेशा कहते रहे – ‘कभी सियासत में उतरने का मेरा मन ही नहीं किया और ना ही संयोग बना. मैंने उस रूप में अपने आप को देखा ही नहीं.’ मगर आज जब भाजपा के पास मुद्दे का अकाल है, तो वह परदे के राम की शरण में जा पहुंची है.
उल्लेखनीय है कि कोरोना काल में लगे लॉकडाउन के दौरान रामायण सीरियल का प्रसारण दोबारा टीवी पर कराया गया था. तभी से अरुण गोविल की फिर चर्चा शुरू हो गयी थी. इसी दौरान अरुण गोविल ने एक ट्वीट भी किया था कि उन्हें सरकार की तरफ से आज तक कोई सम्मान नहीं मिला. अब मोदी-शाह उन्हें पूरी सजधज और भगवान राम के गेटअप के साथ राजनितिक बिसात पर जनता के सामने उतार कर पूरा सम्मान देंगे. चुनाव बाद क्या होगा ये तो राम ही जाने !