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‘‘इस में अचरज की क्या बात है. क्या तुम्हारी उम्र की और लड़कियां खाना नहीं बनातीं?’’ दीपकजी बोले.

‘‘लेकिन वे अपने पिता की लाड़ली थोड़े ही हैं,’’ विभा ने अपनी बांहें दीपकजी के गले में डाल कर लडि़याते हुए कहा, ‘‘मु?ो कहां आता है खाना बनाना.’’

‘‘विकास, तुम सब्जी ले आया करो. बाहर के कामों में मां का हाथ बंटाया करो,’’ दीपकजी ने बेटे से कहा.

यह सुन कर विकास आश्चर्य से उन्हें देखता रहा, फिर धीरे से बोला, ‘‘पिताजी, अब तक तो ये सारे काम मां ही देखती आई हैं.’’

दीपकजी चुप हो गए. उन्हें महसूस हुआ कि कहीं कुछ गलत, बहुत गलत हो रहा है. बच्चों में घर के हालात सम?ा कर जिम्मेदारीपूर्वक कुछ करने की भावना ही नहीं है. लाड़प्यार और सिर्फ लाड़प्यार में पले ये बच्चे इस स्नेह का प्रतिदान करना ही नहीं जानते. वे तो सिर्फ एकतरफा पाना जानते हैं.

उन्हें याद आया कि 5 वर्ष की नन्ही सी उम्र में ही वे अपनी मां का दर्द सम?ाते थे. उन का सिर दबाने की चेष्टा करते. उन का कोई काम कर के धन्यता का अनुभव करते, लेकिन मां उन्हें 7-8 बरस का छोड़ कर चल बसीं. उन के सिर पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा. संयुक्त परिवार में ताईजी, चाचीजी का कृपाभाजन बनने के लिए बहुत जद्दोजेहद करनी पड़ती. उन के कई काम करने के बाद ही दो मीठे बोल नसीब होते. इस तरह छोटी सी उम्र में ही उन्हें दूसरों के काम करने से होने वाले लाभ का पता चला.

धीरेधीरे दायरा बढ़ा. दूसरों को उपकृत कर के अजीब सी संतुष्टि मिलती. बदले में अनेक तारीफें मिलतीं, ढेरों आशीर्वचन मिलते. मातृहीन मन को इस से बड़ा दिलासा मिलता. तब घर का काम करने में आनंद नहीं मिलता. घर वाले उन के कामों को कर्तव्य की श्रेणी में रखते थे. ‘कर्तव्य’ शब्द की शुष्कता और रसहीनता उन के गले नहीं उतरती थी. बाहर वालों के नर्ममुलायम, मीठे प्रशंसा आख्यानों की चाशनी में उन का मन डूब जाता.

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