विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं. पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव दिलचस्प होता जा रहा है. औद्योगीकरण के लिये सरकारी भूमि अधिग्रहण के खिलाफ कभी काफी हद तक एकजुट होकर सबसे खूनी संघर्ष का गवाह बना नंदीग्राम आज सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत नजर आता है. प्रदेश में तत्कालीन वामपंथी सरकार द्वारा यहां विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईजेड) बनाने के लिये भूमि अधिग्रहण के खिलाफ 2007 में हर तरफ सुनाई देने वाले नारे ‘तोमर नाम, अमार नाम…नंदीग्राम, नंदीग्राम’ (तुम्हारा नाम, मेरा नाम नंदीग्राम, नंदीग्राम) से यह इलाका अब काफी आगे निकल आया है. आज नंदीग्राम की दीवारों पर धुंधले दिखाई देते “तोमार नाम अमार नाम, नंदीग्राम, नंदीग्राम” की जगह “जय श्री राम” का नारा प्रमुखता से दिखता है.
इस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सबसे बड़ी वजह क्षेत्र के कद्दावर नेता और तृणमूल कांग्रेस में अहम जिम्मेदारियां संभाल चुके शुभेंदु अधिकारी का भाजपा में शामिल होने के बाद नंदीग्राम से ममता बनर्जी के खिलाफ चुनाव लड़ना है. नंदीग्राम ने ही ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी कुर्सी तक पहुंचाया था. इस वजह से यह उनके लिए काफी भाग्यशाली रहा है. लेकिन, नंदीग्राम के जरिये ममता को सत्ता दिलाने में शुभेंदु अधिकारी की अहम भूमिका थी.
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1947 के पहले ही कुछ दिनों के लिए स्वतंत्र हो गया था नंदीग्राम
पश्चिम बंगाल के राजनीतिक इतिहास में नंदीग्राम का एक महत्वपूर्ण स्थान है. स्वतंत्रता के पहले भी नंदीग्राम ने अपने उग्र आंदोलन के कारण ब्रिटिश शासन को झुकाने में सफल रहा था. 1947 में देश की स्वतंत्रता से पहले, “तामलुक” को अजय मुखर्जी, सुशील कुमार धारा, सतीश चन्द्र सामंत और उनके मित्रों ने नंदीग्राम के निवासियों की सहायता से अंग्रेजों से कुछ दिनों के लिए मुक्त कराया था और ब्रिटिश शासन से इस क्षेत्र को मुक्त करा लिया था. बता दें कि आधुनिक भारत का यही एकमात्र क्षेत्र है, जिसे दो बार स्वतंत्रता मिली है.
2007 में शुरू हुआ था उग्र जमीन अधिग्रहण विरोधी आंदोलन
पिछले दशकों की राजनीति में नंदीग्राम आंदोलन को हथियार बना कर ही वर्तमान सीएम ममता बनर्जी ने लेफ्ट को अपदस्थ करने में सफलता पाई थी. 2007 में तात्कालीन सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में पश्चिम बंगाल की लेफ्ट सरकार ने सलीम ग्रूप को ‘स्पेशल इकनॉमिक जोन’ नीति के तहत नंदीग्राम में एक केमिकल हब की स्थापना करने की अनुमति प्रदान करने का फैसला किया था. राज्य सरकार की योजना को लेकर उठे विवाद के कारण विपक्ष की पार्टियों ने भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आवाज उठाई. टीएमसी, SUCI,जमात उलेमा-ए-हिंद और कांग्रेस के सहयोग से भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमिटी (BUPC) का गठन किया गया और सरकार के फैसले के खिलाफ आंदोलन शुरू किया गया. इस आंदोलन का नेतृत्व तात्कालीन विरोधी नेत्री ममता बनर्जी कर रही थीं और इसके नायक शुभेंदु अधिकारी थे.
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14 लोगों की कर दी गई थी हत्या
सत्तारूढ़ पार्टी के वरिष्ट नेताओं ने सभी विपक्षियों की उपेक्षा करते हुए इस आन्दोलन को ‘औद्योगीकरण के खिलाफ’ करार घोषित किया और हालात तब बिगड़े जब समीप के हल्दिया के तात्कालीन एमपी लक्ष्मण सेठ के नेतृत्व में ‘हल्दिया डेवलपमेंट अथॉरिटी’ ने भूमि अधिग्रहण के लिए नोटिस जारी कर दिया. इसके परिणाम स्वरूप CPI(M) और BUPC दोनों के समर्थकों के बीच हिंसात्मक संघर्ष की घटना घटी. सत्तारूढ़ पार्टी ने अपना पिछला प्रभुत्व जमाने की कोशिश की तो उसने नाकेबंदी को हटाने और परिस्थिति को “सामान्य” बनाने के बहाने अपने प्रशासन को कार्यप्रवृत्त किया. 14 मार्च 2007 की रात को पार्टी के कार्यकर्ताओं ने अपराधियों की सहायता से राज्य पुलिस के साथ मिलकर एक ‘जॉइंट ऑपरेशन’ किया और कम से कम 14 लोगों की हत्या कर दी गई.
नंदीग्राम आंदोलन से लेफ्ट ने गंवाई थी सत्ता
ममता बनर्जी के नेतृत्व में कई लेखकों, कलाकारों, कवियों और शिक्षा-शास्त्रियों ने पुलिस फायरिंग का कड़ा विरोध किया, जिससे परिस्थिति पर अन्य देशों का ध्यान आकर्षित हुआ. अंततः यह आंदोलन के दौरान सरकार को अपना फैसला बदलना पड़ा, लेकिन इस आंदोलन का राजनीति पर असर पड़ा और ममता बनर्जी ने जनमानस में अपनी छवि बनाने में सफल रही और इसका परिणाम हुआ कि साल 2011 के विधानसभा चुनाव में लेफ्ट की 34 वर्षों के शासन को समाप्त करने में सफल रही और राज्य में मां, माटी, मानुष की सरकार की स्थापना की.
बदल गए हैं नंदीग्राम सीट के समीकरण
शुभेंदु अधिकारी को इस क्षेत्र में जमीन से जुड़ा नेता माना जाता है. शुभेंदु की नंदीग्राम में अपनी फेसवैल्यू भी है और वह हर वर्ग के लोगों के सुख-दुख में शामिल होने वाले नेता के तौर पर देखे जाते हैं. कहा जा सकता है कि दोनों के बीच कांटे की टक्कर होगी. इन दोनों ही नेताओं के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने पर अब वोटों का बंटना तय माना जा रहा है. दोनों में से एक को चुनने की दुविधा में फंसे मतदाताओं की वजह से सारे राजनीतिक समीकरण फेल होने की संभावना है. इस बार के चुनाव में अब्बास सिद्दीकी की पार्टी आईएसएफ का कांग्रेस-वाम दलों से गठबंधन है. यह भी इस सीट पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. मुस्लिम वोटों में थोड़ी सी भी सेंध लगती है, तो ममता बनर्जी के लिए नंदीग्राम सीट पर जीत एक मुश्किल लक्ष्य बन सकता है.
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भवानीपुर सीट छोड़ने की वजह ये तो नहीं
भाजपा पहले इस बात ममता बनर्जी पर हमलावर रही कि वह दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ने की बात कह रही हैं. अब ममता ने अपनी पारंपरिक सीट भवानीपुर को छोड़कर नंदीग्राम से चुनाव लड़ने की घोषणा की है. इस पर भी भाजपा बयानबाजी करने से नहीं चूक रही है. दरअसल, 2016 में ममता बनर्जी को इस सीट पर 65,520 वोट मिले थे, जो 2011 में मिले 73,635 के हिसाब से करीब 29 फीसदी कम थे. भवानीपुर सीट पर ममता और कांग्रेस की प्रत्याशी दीपा दासमुंशी के बीच करीब 25,000 वोटों का फासला था. लेकिन, इस सीट पर भाजपा को भी 26,299 वोट मिले थे. ऐसे में ममता के लिए इस बार यह सीट मुश्किलों भरी हो सकती थी. वहीं, 2019 के लोकसभा चुनाव में कोलकाता दक्षिण सीट के अंतर्गत आने वाली इस सीट से टीएमसी को केवल 3168 वोटों की लीड ही मिली थी. ऐसे में ममता बनर्जी के भवानीपुर सीट छोड़कर नंदीग्राम से चुनाव लड़ने की एक वजह ये भी मानी जा सकती है.
मजेदार होगा ये घमासान
ममता बनर्जी का नंदीग्राम से विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान एक बड़ा राजनीतिक कदम माना जा रहा है. उन्होंने अपने इस फैसले से भाजपा और अपने पूर्व सिपेहसालार शुभेंदु को उनके ही गढ़ में सीधे तौर पर चुनौती दी है. साथ ही टीएमसी के कार्यकर्ताओं में जोश भरने में भी कामयाब रही हैं. भाजपा ने भी शुभेंदु अधिकारी को ममता के सामने प्रत्याशी बनाकर एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की है. अधिकारी पहले ही कह चुके हैं कि वो 50,000 वोटों से ममता को हराएंगे, वरना राजनीति छोड़ देंगे. इस स्थिति में ये देखना दिलचस्प होगा कि नंदीग्राम में कभी एकसाथ मिलकर सियासी जंग लड़ने वाले एक-दूसरे के खिलाफ चुनावी संग्राम में कैसा प्रदर्शन करते हैं. ‘कुरुक्षेत्र’ का यह रण क्या गुल खिलाएगा, ये नतीजे बता ही देंगे.