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Story : घर आ जाओ

‘‘मैं अब और इस घर में नहीं रह सकती. रोजरोज के झगड़े भी अब बरदाश्त के बाहर हैं. मैं रक्षा को ले कर अपनी मां के पास जा रही हूं. आप ज्यादा पैसा कमाने की कोशिश करें और जब कमाने लगें, तब मुझे बुला लेना,’’ पत्नी सुनीता का यह रूप देख कर नरेश सहम गया.

नरेश बोला, ‘‘देखो, तुम्हारा इस तरह से मुझे अकेले छोड़ कर जाना समस्या का हल नहीं है. तुम्हारे जाने से सबकुछ डिस्टर्ब हो जाएगा.’’

‘‘तो हो जाने दो. कम से कम आप को अक्ल तो आएगी,’’ सुनीता बोली. ‘‘मैं कोशिश कर तो रहा हूं. तुम थोड़ी हिम्मत नहीं रख सकतीं. मैं ने अपनेआप से बहुत समझौता किया है,’’ नरेश बोला.

‘‘मैं ने भी बहुत सहा है और आप के मुंह से यह सुनतेसुनते तो मेरे कान पक गए हैं. आप बस कहते रहते हैं, कुछ करतेधरते तो हैं नहीं.’’

‘‘मैं क्या कर रहा हूं, कहांकहां बात कर रहा हूं, क्या तुम्हें पता नहीं…’’

‘‘मुझे रिजल्ट चाहिए. आप यह नौकरी बदलें और जब ज्यादा तनख्वाह वाली दूसरी नौकरी करने लगें, तब हमें बुला लेना. तब तक के लिए मैं जा रही हूं,’’ यह कहते हुए सुनीता अपने सामान से भरा बैग ले कर बेटी रक्षा के साथ पैर पटकते हुए चली गई.

नरेश ठगा सा देखता रह गया. दरअसल, जब से उस ने नौकरी बदली है और उसे थोड़ी कम तनख्वाह वाली नौकरी करनी पड़ी है, तब से घर की गाड़ी ठीक से नहीं चल रही है. वह परेशान था, लेकिन कुछ कर नहीं पा रहा था.

घर में झगड़े की वजह से अगले दिन नरेश का दफ्तर के काम में मन नहीं लगा. उस ने सारा काम बेमन से निबटाया. छात्राओं के दाखिले का समय होने से काम यों भी बहुत ज्यादा था. यह सब सुनीता नहीं समझती थी. उस के इस नादानी भरे कदम से नरेश चिढ़ गया था.

नरेश ने भी तय कर लिया था कि अब वह सुनीता को बुलाने नहीं जाएगा. वह अपनी मरजी से गई है, अपनी मरजी से ही उसे आना होगा. रात के 10 बज रहे थे. नरेश नींद के इंतजार में बिस्तर पर करवटें बदल रहा था. इतने में मोबाइल फोन की घंटी बजी. उसे लगा, कहीं सुनीता का तो फोन नहीं. शायद उसे गलती का एहसास हुआ हो, पर नंबर देखा तो किसी और का था.

‘‘कौन?’’ नरेश ने पूछा.

‘सौरी सर, इस समय आप को डिस्टर्ब करना पड़ रहा है,’ नरेश को फोन पर आई उस औरत की आवाज कुछ पहचानी सी लगी.

‘‘कोई बात नहीं, आप बोलें?’’ नरेश ने कहा.

‘नमस्ते, पहचाना… मैं अंजू… ट्रेनिंग में दाखिले को ले कर 1-2 बार आप से पहले भी बात हो चुकी है.’

‘‘ओह हां, अंजू. तो तुम हो. कहो, इस वक्त कैसे फोन किया तुम ने?’’

‘सर, आज दिन में जब आप को फोन किया था, तो आप ने ही कहा था कि अभी मैं बिजी हूं, शाम को बात करना.’

‘‘पर इस वक्त तो रात है.’’

‘सर, मैं कब से ट्राई कर रही हूं. नैटवर्क ही नहीं मिल रहा था. अब जा कर मिला है.’

‘‘ठीक है. कहो, क्या कहना है?’’

‘सर, उस प्रोफैशनल कोर्स के लिए मेरा दाखिला तो हो जाएगा न?’

‘‘देखो, इन्क्वायरी काफी आ रही हैं. मुश्किल तो पडे़गी.’’

‘सर, दाखिले का काम आप देख रहे हैं. आप चाहें तो मेरा एडमिशन पक्का हो सकता है. मैं 2 साल से ट्राई कर रही हूं. आप नए आए हैं, पर आप के पहले जो सर थे, वे तो कुछ सुनते ही नहीं थे,’ उस की आवाज में चिरौरी थी.

‘‘आप की परिवारिक हालत कैसी है? आप ने बताया था कि आप की माली हालत ठीक नहीं है?’’ नरेश ने कहा.

‘आप को यह बात याद रह गई. देखिए, मैं शादीशुदा हूं. मेरे पति प्राइवेट नौकरी में हैं. उन की तनख्वाह तो वैसे ही कम है, ऊपर से वे शराब भी पीते हैं. वे मुझ पर बेवजह शक करते हैं. मुझे मारतेपीटते रहते हैं. मैं ऐसे आदमी के साथ रहतेरहते तंग आ गई हूं. मेरी एक बच्ची भी है.

‘मैं हायर सैकेंडरी तक पढ़ी हूं. मेरी सहेली ने ही मुझे आप के यहां के इंस्टीट्यूट के बारे में बताया था. अगर आप की मदद से मेरा ट्रेनिंग में दाखिला हो जाएगा, तो मैं आप का बड़ा उपकार मानूंगी,’ अंजू जैसे भावनाओं में बह कर सबकुछ कह गई.

‘‘देखो, इस वक्त रात काफी हो गई है. अभी दाखिले में समय है. आप 1-2 दिन बाद मुझ से बात करें.’’

‘ठीक है. थैक्यू. गुडनाइट,’ और फोन कट गया.

अगले दिन अंजू का दिन में ही फोन आ गया. बात लंबी होती थी, सो नरेश को कहना पड़ा कि वह रात को उसी समय फोन करे, तो ठीक रहेगा. रात के 9 बजे अंजू का फोन आ गया. उस ने बताया कि उस के पति के नशे में धुत्त सोते समय ही वह बात कर सकती है. नरेश अंजू के दुख से अपने दुख की तुलना करने लगा. वह अपनी पत्नी से दुखी था, तो वह अपने पति से परेशान थी.

धीरेधीरे अंजू नरेश से खुलने लगी थी. नरेश ने भी अपने अंदर उस के प्रति लगाव को महसूस किया था. उसे लगा कि वह औरत नेक है और जरूरतमंद भी. उस की मदद करनी चाहिए.

अंजू ने फोन पर कहा, ‘आप की बदौलत अगर यह काम हो गया, तो मैं अपने शराबी पति को छोड़ दूंगी और अपनी बच्ची के साथ एक स्वाभिमानी जिंदगी जीऊंगी.’

नरेश ने उस से कहा, ‘‘जब इंटरव्यू होगा, तो मैं तुम्हें कुछ टिप्स दूंगा.’’

अब उन दोनों में तकरीबन रोजाना फोन पर बातें होने लगी थीं. एक बार जब अंजू ने नरेश से उस के परिवार के बारे में पूछा, तो वह शादी की बात छिपा गया. नरेश के अंदर एक चोर आ गया था. अनजाने में ही वह अंजू के साथ जिंदगी बिताने के सपने देखने लगा था. शायद ऐसा सुनीता की बेरुखी से भी होने लगा था. अंजू ने एक बार नरेश से पूछा था कि जब वह ट्रेनिंग के लिए उस के शहर आएगी, तो वह उसे अपने घर ले जाएगा या नहीं? शौपिंग पर ले जाएगा या नहीं?

नरेश ने उस से कहा, ‘‘पहले दाखिला तो हो जाए, फिर यह भी देख लेंगे.’’

दाखिले का समय निकट आने लगा था. नरेश ने सोचा कि अब अंजू का काम होने तक तो यहां रुकना ही पड़ेगा. रहा सवाल सुनीता का तो और रह लेने दो उसे अपने मातापिता के पास.

अंजू के फार्म वगैरह सब जमा हो गए थे. इंटरव्यू की तारीख तय हो गई थी. नरेश ने अंजू को फोन पर ही इंटरव्यू की तारीख बता दी. वह बहुत खुश हुई और बताने लगी कि फीस के पैसे का सारा इंतजाम हो गया है. कुछ उधार लेना पड़ा है. एक बार ट्रेनिंग हो जाए, फिर वह सब का उधार चुकता कर देगी.

फोन पर हुई बात लंबी चली. बीच में 3-4 ‘बीप’ की आवाज का ध्यान ही नहीं रहा. देखा तो सुनीता के मिस्ड काल थे. इतने समय बाद, वे भी अभी…

उसे फोन करने की क्या सूझी? इतने में फिर सुनीता का फोन आया. वह शक करने लगी कि वह किस से इतनी लंबी बातें कर रहा था. नरेश ने झूठ कहा कि स्कूल के जमाने का दोस्त था. सुनीता ने खबरदार किया कि वह किसी औरत के फेर में न पड़े और आजादी का गलत फायदा न उठाए, वरना उस के लिए ठीक नहीं होगा.

नरेश ने कहा, ‘‘मुझ पर इतना ही हक जमा रही हो, तो मुझे छोड़ कर गई ही क्यों?’’

सुनीता ने बात को बदलते हुए नरेश को नई नौकरी की याद दिलाई. नरेश ने भी इधरउधर की बातें कर के फोन काट दिया. अभी तक अंजू से सारी बातें फोन पर ही होती रही थीं. फार्म भरा तो उस में अंजू का फोटो था. फोटो में वह अच्छीखासी लगी थी, मानो अभी तक कुंआरी ही हो. अब जब आमनासामना होगा, तो कैसा लगेगा, यह सोच कर ही नरेश को झुरझुरी सी होने लगी थी.

जैसेजैसे दिन कम होने लगे थे, वैसेवैसे अंजू के फोन भी कम आने लगे थे. शायद नरेश को अंजू के बैलैंस की फिक्र थी कि जब मिलना हो रहा है, तो फिर फोन का फुजूल खर्च क्यों? आखिरी दिनों में अंजू ने आनेजाने और ठहरने संबंधी सभी जानकारी ले ली थी.

आखिर वह दिन आ ही गया. नरेश ने अपना घर साफसुथरा कर लिया कि वह उसे घर लाएगा. सभी प्रवेशार्थी इकट्ठा होने लगे थे. सभी की हाजिरी ली जा रही थी कि कहीं कोई बाकी तो नहीं रह गया. लेकिन यह क्या, अंजू की हाजिरी नहीं थी.

नरेश तड़प उठा. जिस का दाखिला कराने के लिए इतने जतन किए, उसी का पता नहीं. यह औरत है कि क्या है. कुछ फिक्र है कि नहीं. अगर कोई रुकावट है, तो बताना तो चाहिए था न फोन पर.

नरेश ने अंजू को फोन किया, लेकिन यह क्या फोन भी बंद था. यह तो हद हो गई. इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था. मुमकिन हो कि ट्रेन लेट हो गई हो. स्टेशन भी फोन लगा लिया, तो मालूम पड़ा कि ट्रेन तो समय पर आ गई थी. अब हो सकता है कि टिकट कंफर्म न होने से वह बस से आ रही हो.

इंटरव्यू हो गए और सभी सीटों की लिस्ट देर शाम तक लगा दी गई. अब कुछ नहीं हो सकता. अंजू तो गई काम से. अच्छाभला काम हो रहा था कि यह क्या हो गया. जरूर कोई अनहोनी हुई होगी उस के साथ, वरना वह आती.

नरेश अगले 2-3 दिन लगातार फोन मिलाता रहा, पर वह बंद ही मिला. हार कर उस ने कोशिश छोड़ दी. 5वें दिन अचानक दफ्तर का समय खत्म होने से कुछ पहले अंजू का फोन आया.

‘हैलो..’ अंजू की आवाज में डर था.

नरेश उबला, ‘‘अरे अंजू, तुम्हारा दिमाग तो ठीक है. यह क्या किया तुम ने? तुम को आना चाहिए था न. मैं इंटरव्यू वाले दिन से तुम्हें लगातार फोन लगा रहा हूं और तुम्हारा फोन बंद आ रहा है. आखिर बात क्या है,’’ वह एक सांस में सबकुछ कह जाना चाहता था वह.

‘मैं आप की हालत समझ सकती हूं, पर मुझे माफ कर दें…’

‘‘आखिर बात क्या हुई? कुछ तो कहो? कहीं तुम्हारा वह शराबी पति…’’

‘दरअसल, मैं आप के यहां के लिए निकलने के पहले अपनी बेटी निशा को अपनी मम्मी के यहां गांव छोड़ने जाने के लिए सवारी गाड़ी में बैठी थी. गाड़ी जरूरत से ज्यादा भर ली गई थी.

‘ड्राइवर तेज रफ्तार से गाड़ी दौड़ा रहा था. इतने में सामने से आ रहे ट्रक से बचने के लिए ड्राइवर ने कच्चे में गाड़ी उतारी और ऐसा करते समय गाड़ी पलट गई…’

‘‘ओह, फिर…’’ आगे के हालात जानने के लिए जैसे नरेश बेसब्र हो उठा था.

‘गाड़ी पलटने से सभी सवारियां एकदूसरे पर गिरने से दबने लगीं. चीखपुकार मच गई. निशा बच्ची थी. वह भी चीखने लगी. मैं निशा के ऊपर गिर गई थी.

‘तभी कुछ मददगार लोग आ गए. थोड़ी देर और हो जाती, तो कुछ भी हो सकता था. उन लोगों ने हमें बांह पकड़ कर खींचा.

‘निशा बेहोश हो गई थी और मुझे भी चोटें आई थीं. कई सारे लोग घायल हुए थे. सभी को अस्पताल पहुंचाया गया. निशा को दूसरे दिन आईसीयू में होश आया. उस की कमर की हड्डी टूट गई थी. हम दोनों के इलाज में फीस के जोड़े पैसे ही काम आ रहे थे.

‘हम अभी भी अस्पताल में ही हैं. मैं थोड़ी ठीक हुई हूं और निशा के पापा दवा लेने बाहर गए हैं, तभी आप से बात कर पा रही हूं. ‘मुझे लग रहा था कि आप नाराज हो रहे होंगे. मुझे आप की फिक्र थी. आप ने सचमुच मेरा कितना साथ दिया. मैं आप को कभी भूल नही पाऊंगी. जब सबकुछ ठीक हो रहा था, तो यह अनहोनी हो गई. सारा पैसा खत्म होने को है. अब मेरा आना न होगा कभी. मुझे अब हालात से समझौता करना पड़ेगा.

‘लेकिन, मैं एक अच्छी बात बताने से अपनेआप को रोक नहीं पा रही हूं कि निशा के पापा अस्पताल में हमारी फिक्र कर रहे हैं. उन्हें ट्रेनिंग को ले कर, फीस को ले कर मेरी कोशिश के बारे में सबकुछ मालूम हुआ, तो वे दुखी हुए.

‘रात में उन्होंने मेरे माथे पर हाथ फेर कर सुबकते हुए कहा कि बहुत हुआ, संभालो अपनेआप को. मैं नशा करना छोड़ दूंगा. अब सब ठीक हो जाएगा.

‘इन के मुंह से ऐसा सुन कर तो जैसे मैं निहाल हो गई हूं. ऐसा लगता है, जैसे वे अब सुधर जाएंगे.’ फोन पर यह सब सुन कर तो जैसे नरेश धड़ाम से गिरा. सारे सपने झटके में चूरचूर हो गए.

आखिर में अंजू ने कहा, ‘अच्छा, अब ज्यादा बातें नहीं हो पाएंगी. रखती हूं. गुडबाय’.

नरेश ने अपना सिर पकड़ लिया. क्या सोचा था, क्या हो गया. कैसेकैसे सपने अंजू को ले कर बुन डाले थे, पर आखिर वही होता है जो होना होता है. यह सब एक याद बन कर रह जाएगा.

दफ्तर का समय पूरा हो चुका था. नरेश घर की ओर बोझिल कदमों से निकल पड़ा. घर पहुंचा तो देखा कि सुनीता बैग पकड़े रक्षा का हाथ थामे दरवाजे पर खड़ी थी.

नरेश को देख कर सुनीता ने एक मुसकान फेंकी, पर उस का भावहीन चेहरा देख कर बोली, ‘‘क्या बात है, हमें देख कर आप को खुशी नहीं हुई?’’ तब तक रक्षा नरेश के नजदीक आ चुकी थी. उस ने रक्षा को प्यार से उठा कर चूमा और नीचे खड़ा कर जेब से चाबी निकाल कर बोला, ‘‘अपनी मरजी से आई हो या पिताजी ने समझाया?’’

‘‘पिताजी ने तो समझाया ही. मुझे भी लगा कि अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी के लिए आप की कोशिश में हमारे घर लौटने से ही तेजी आएगी.’’

‘‘सुनीता, रबड़ को उतना ही खींचो कि वह टूटे नहीं.’’

‘‘इसलिए तो चली आई जनाब.’’

दरवाजा खुल चुका था. तीनों अंदर आ गए.

‘‘अरे वाह, घर इतना साफसुथरा… कहीं कोई…’’ सुनीता ने आंखें तरेरीं.

‘‘सुनीता, अब बस भी करो. फुजूल के वहम ठीक नहीं हैं.’’

‘‘आप का आएदिन फोन बिजी होना शक पैदा करने लगा था. आप मर्दों का क्या…’’

‘‘बोल चुकीं? क्या हम सब तुम्हारे लौटने की खुशी मना सकते हैं?’’

‘‘क्यों नहीं. मैं सब से पहले चाय बनाती हूं,’’ कहते हुए सुनीता रसोईघर में चली गई. रक्षा ने टैलीविजन चलाया और नरेश फै्रश होने बाथरूम में घुस गया.

सुनीता के आने से अंजू के मामले में नरेश का सिर भारी होने से बच गया. आमतौर पर नरेश शाम को नहीं नहाता था, पर न जाने क्यों आज नहाने की इच्छा हो गई और वह बाथरूम में घुस गया.

Sad Story : गुनहगार हूं मैं

ऐसा क्यों होता है जिसे कई बार देखा हो, देख कर भी न देखा हो. आतेजाते नजर पड़ जाती हो लेकिन उसे ले कर कोई विचार, कोईर् खयाल न उठा हो कभी. ऐसा होता वर्षों बीत चुके हों. फिर किसी एक दिन बिना किसी खास बात या घटना के अचानक से उस का ध्यान आने लगता है. मन सोचने लगता है उस के विषय में. वह पहले जैसी अब भी है, कोई विशेषता नहीं. फिर भी उस के खयाल आते चले जाते हैं और वह अच्छी लगने लगती है अकारण ही, हो सकता है पहले उस के मन में कुछ हो या न भी हो, वहम हो मेरा कोरा. अभी भी उस का मन वैसा ही हो जैसा पहले मेरा था. उस को ले कर सबकुछ कोरा.

लेकिन, मु झे यह क्या होने लगा? क्या सोचने लगा मन उस के बारे में? क्यों उस का चेहरा आंखों के सामने  झूलने लगा हर वक्त? यह क्या होने लगा है उसे ले कर, नींद भी उड़ने लगी है. मैं नाम भी नहीं जानता. जानना चाहा भी नहीं कभी. लेकिन आजकल तो हाल ऐसा हो गया है कि बुद्धि भ्रष्ट सी हो गई है. आवारा मन भटकने लगा है उस के लिए. अब तो प्रकृति से मांगने लगा हूं कि मिल जाए वह तो सब मिल गया मु झे. एक  झलक पाने को मन मचलता रहता है. कहने की हिम्मत नहीं पड़ती.

अब सोचता हूं तो बहुतकुछ असमानताएं नजर आती हैं, उस में और मु झ में. उम्र, जाति, धर्म और भी न जाने क्याक्या? लेकिन ये सब क्यों होने लगा, यह सम झ नहीं पा रहा हूं. खुद में एक लाचारी सी है. मन की निरंतर बढ़ती हुईर् चाहत. क्या करूं अपनी इस बेवकूफी का? अपने पर गुस्सा भी आता है दया भी. जितना सोचता हूं कि न सोचूं, उतना ही सोचता जाता हूं और पता भी नहीं चलता कब रात गुजर गई सोचतेसोचते. क्या इसे प्यार कहेंगे?

कितना अजीब है यह सबकुछ. पता चलने पर क्या सोचेंगे लोग. वैसे पता चलने नहीं दूंगा किसी को मरते दम तक. उस से कहने की तो हिम्मत ही नहीं है. मान लो, कह भी दिया तो क्या होगा? कहीं गलत सम झ बैठी. कहीं हल्ला कर दिया इस बात का, मेरा प्रेम तो छिछोरा बन कर रह जाएगा. अब दिखती है तो देखता हूं मैं और चाहता हूं कि देखे वह मु झे. लेकिन सामने पड़ते ही न जाने कौन सी  िझ झक, कौन सी मर्यादा रोक लेती है? देख नहीं पाता, देखना चाहता हूं जीभर के. वह देखती है लेकिन नजर टकराने जैसा. जैसे आमनेसामने से गुजरते हैं. अजनबी या पहचाने चेहरे. बस, इस से ज्यादा कुछ नहीं. छोटा शहर, छोटा सा महल्ला, क्या करूं?

खत भी कैसे लिखूं कि उसे पता हो कि मैं ने लिखा है, लेकिन पता न चले किसी और को. पता चले और तमाशा खड़ा हो तो कह सकूं कि मैं ने नहीं लिखा. फिर पत्र उसी तक पहुंचे तो भी ठीक, घर में किसी के हाथ लगा तो उस की मुश्किल. शक के दायरे में तो आ ही जाऊंगा मैं. वैसे, यदि उस की हां हो तो फिर कोई डर नहीं मु झे. फिर चाहे जमाने को पता लग जाए. बस, उस के दिल में हो कुछ मेरे लिए.

आजकल तो मोबाइल का जमाना है, लेकिन मोबाइल तो पत्रों से भी ज्यादा विस्फोटक हैं. फिर, मु झे नंबर भी पता नहीं. पता लगाने की कोशिश कर सकता हूं. लेकिन मैं ने उस के हाथ में कभी मोबाइल देखा ही नहीं. कोशिश की तो थी उस का नंबर पता लगाने की. किसी भी नंबर से कर सकता था फोन. लेकिन सफल नहीं हुआ. मान लो, किसी दिन सफल हो भी जाऊं तो क्या होगा? क्या कहेगी, क्या सम झेगी वह? मानेगी या मना कर देगी. मु झे ऐसा करना चाहिए या नहीं. बहुत बड़ा सामाजिक, आर्थिक भेद है. क्या करूं मैं? यह सब हो कैसे गया?

क्या यह प्यार है या कुछ और. या मेरी बढ़ती उम्र की कोई अतृप्त लालसा. यही सोच कर हैरान, परेशान हूं कि ऐसा क्यों हो रहा है मेरे साथ. न मेरे सपनों की राजकुमारी से मेल खाती है वह, न कोई विशेषताएं हैं मु झे खींचने लायक उस में. फिर मैं किस  झं झट में अपनेआप फंसता जा रहा हूं. क्या यह मन का भटकना है, क्या कोई बुरा समय शुरू हो गया है मेरा. क्या सच में प्यार हो गया है मु झे. मैं दिनोंदिन पागल और बेचैन हो रहा हूं उस के लिए, मेरे न चाहने पर भी.

मैं क्या करूं, यह कोई फिल्म या कहानी नहीं है. यह जीवन है. एक मध्यवर्गीय महल्ला है जहां ऐसा सोचना भी ठीक नहीं. फिर इसे परिणित करना बहुत मुश्किल है और मान लो कि ऐसा हो भी जाए जैसा चाहता हूं मैं, तब क्या होगा, लड़की का भविष्य, मेरा वर्तमान, कहां जाएंगे भाग कर?

पुलिस, कोर्टकचहरी, मीडियाबाजी सबकुछ होगा. फिर अपने मातापिता के साथ आतीजाती दिखती लड़की से बात करना भी संभव नहीं है. लेकिन अचानक से यह सब क्यों होने लगा मन में. उस का खयाल, उस का चेहरा घूमता रहता है और दिनरात बेकरारी बढ़ती ही जा रही है निरंतर. यह गलत है, मैं जानता हूं, लेकिन यह बेईमान मन सुने, तब न. अब, बस, घुटते रहना है और किसी एक दिन ऐसी गलती भी होनी है मु झ से. जिस का क्या परिणाम होगा, मु झे पता नहीं या पता है, इसलिए हिम्मत नहीं जुटा पाता. लेकिन मन कर के रहेगा मनमानी और होगा कोई तमाशा.

मैं रोक रहा हूं खुद को लेकिन पता नहीं कब तक? मैं तो यही सोच कर परेशान हूं कि यह सब क्यों हो रहा है मेरे साथ. क्या कहूंगा मैं उस से. मान लो, मौका मिला भी और कहा, ‘तुम से प्यार करता हूं,’ आगे शादी की बात पर क्या कहूंगा? वह नहीं कहेगी तुम तो शादीशुदा हो? 2 बच्चों के बाप? शर्म नहीं आती तुम्हें. बात सही है. मैं हूं शादीशुदा. तो क्या मैं बोर हो चुका हूं अपनी पत्नी से? नहीं, ऐसा नहीं है, मैं चाहता हूं उसे. और बच्चों से कौन बाप बोर होता है? तो क्या मु झे नएपन की तलाश है. क्या मैं ऐयाशी की तरफ बढ़ रहा हूं. नहीं, वह तो कहीं भी कर सकता हूं.

यही लड़की क्यों पसंद और प्रिय है मु झे. क्या कह सकता हूं? क्या करूं मनचले मन ने जीना हराम कर रखा है. क्यों यह लड़की मेरी जिंदगी में घुसती चली जा रही है, मेरे मनमस्तिष्क में समाती ही जा रही है. ऐसा भी नहीं कि मैं छोड़ दूं उस की खातिर अपना परिवार. फिर किस हक से मैं उसे चाहता हूं पाना. सम झ के बाहर है बात. किस अधिकार से कहूं उस से. क्या वह हां कह सकती है. नहीं, बिलकुल नहीं. अगर कह दिया, तो होगा क्या आगे? शादी और प्रेम के भंवर में फंस जाऊंगा मैं. बदनामी, अपमान अलग. यह कैसी मुसीबत मोल ले ली मैं ने. सब इस मन का कियाधरा है. धिक्कार है ऐसे मन में. मैं अपने को विवश और दुविधा में क्यों पा रहा हूं?

क्या करूं, सोचसोच कर परेशान हूं. ठीक तो यही होगा कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खुश रहूं. उन्हीं में मन लगाऊं. लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है. अब मेरी हालत ऐसी हो गई है कि मैं उस साधारण सी दिखने वाली 25 वर्ष की लड़की को 45 की उम्र में देखे बिना चैन नहीं पा रहा हूं. दिल बच्चों की तरह मचल रहा है. उस के घर से निकलने, छत पर टहलने वापस आने के समय पर मैं ध्यान दे रहा हूं ताकि मैं उसे देख सकूं. देख ही तो सकता हूं और कुछ तो मेरे वश में है नहीं.

मैं घर की छत पर हूं. मेरे घर से लगा हुआ उस का घर है. वह अपनी छत पर है. मैं उस की तरफ देख रहा हूं. बीचबीच में उस की नजर भी मु झ पर पड़ रही है. लेकिन उस की नजर मेरी नजर से जुदा है. उस की नजर पड़ने पर मैं अपनी नजरें हटा नहीं रहा हूं, बल्कि पूरी बेशर्मी से उसे देखे जा रहा हूं. उसे शायद आश्चर्य हो रहा होगा मु झ पर. जिस आदमी ने कभी नहीं देखा उस की तरफ तब भी जब वह अविवाहित था और अब ऐसे देख रहा है.

उस ने नजरें हटा लीं. वह छत से उतर कर नीचे चली गई. थोड़ी देर बाद मैं भी. अब मेरा क्या काम छत पर. उस के कालेज जाने के समय पर मैं भी निकल पड़ता उस के पीछे. वह कालेज चली जाती. मैं सीधा निकल जाता. जब वह कालेज से लौटती तो मैं भी सारे कामधाम छोड़ कर उस के पीछे चल देता. वह अपने घर और मैं मजबूरी में अपने घर. जी तो यही चाहता कि मैं उस के साथ उस के घर चला जाऊं. अपने घर बुलाना, थोड़ा नहीं, बहुत मुश्किल है. काश, शादी के पहले यह सब कोशिश की होती, तो बात बन जाती. इतने पीछेपीछे चलने पर उस का ध्यान मेरी ओर खिंचना स्वाभाविक था. यह कोई एकदो दिन की बात नहीं थी कि वह इसे इत्तफाक मान लेती. अब वह भी मेरी तरफ गौर से देखने लगी. शायद उसे मु झ पर शक हो चला हो तो या उसे महसूस हुआ हो कि मैं उसे चाहने लगा हूं. हो सकता है उसे मु झ में बदनीयती नजर आने लगी हो कह नहीं सकता. मेरी पत्नी को जरूर मेरे इस टाइमबेटाइम घर से आनेजाने पर शक हुआ. तभी तो उस ने टोका. लेकिन मैं ने उसे टाल दिया. छत पर जाता, तो पत्नी भी छत पर आने लगी. मेरे कार्य में व्यवधान पड़ने लगा. लेकिन मैं ऐसा जाहिर कर रहा था मानो मु झे पेट की शिकायत हो, या खुली हवा में सांस लेना, डाक्टर के अनुसार, जरूरी था मेरे लिए.’’

पत्नी ने पूछा भी,‘‘ तुम्हें कुछ हुआ है, कोई बीमारी है, डाक्टर से मिले?’’

मेरा जवाब था, ‘‘हां, खुली हवा में टहलने के लिए, पैदल चलने के लिए कहा डाक्टर ने,’’ अब कैसे बताऊं कि जो दिल में बस चुकी है वह पैदल ही कालेज आतीजाती है. मु झे उम्मीद तब जगी जब वह मेरे घर कुछ काम से आई. आती तो वह पहले भी थी लेकिन उस वक्त मैं ने कभी ध्यान नहीं दिया. पड़ोसी थी, सो, मेरी पत्नी से परिचय था उस का. उस के परिवार का. आनाजाना लगा रहता था. लेकिन अब वह आई तो मु झे लगा कि वह मेरे लिए आई है और आती रहेगी मेरे लिए. वह मु झ से नमस्ते अंकल कहती. पहले कोई फर्क नहीं पड़ता था. लेकिन अब कहती तो दिल पर तीर चलने लगते.

मैं अब पहले से भी ज्यादा सजसंवर कर रहता. एक भी बाल सफेद नहीं दिखने देता था. दाढ़ी रोज बनाता था. अच्छे कपड़े पहनने लगा था. पहनता तो पहले भी था लेकिन अब अपने चेहरे, बाल, कपड़ों का ज्यादा ध्यान रखने लगा था. मेरा इस तरह उस के पीछपीछे आना, उसे एकटक ताकना, शायद उसे आभास हो गया था कि मेरे दिल में उस के लिए कुछ है. कुछ नहीं, बल्कि बहुतकुछ है.

उस में भी मु झे काफी परिवर्तन दिखाई देने लगे थे. उस की वेशभूषा, पहनावा, करीने से संवारे गए बाल. जो पहले कभी नहीं था. वह अब होने लगा था. उस का इतराना, बल खा कर चलना, पीछे मुड़ कर देखना, मुसकराना, नजर मिलते ही गालों पर लाली दौड़ जाना, उस के देखने में मु झे साफ फर्क नजर आने लगा था. यह मेरा भ्रम नहीं था.

उसे आभास हो चुका था कि मैं उस पर दिलोजान से फिदा हूं. लेकिन वह मु झ पर क्यों मेहरबान हो रही थी, मेरी सम झ में नहीं आ रहा था. उम्र का असर था. लग रहा होगा उसे, चाहता है कोई. चाहत कब देखती है उम्रबंधन? ये तो समाज के बनाए रिवाज हैं. जो न मु झे मंजूर हैं और न शायद उसे. आग बराबर लगी हुई थी दोनों तरफ. बहुत दिन इसी सोच में बीत गए कि वह कोई बात करे ताकि आगे की शुरुआत हो सके. लेकिन मैं भूल गया था कि शुरुआत पुरुष को ही करनी होती है.

मु झे उस के हावभाव से सम झ लेना चाहिए था. यदि मैं ने देर की, तो शायद बात हाथ से निकल जाए. वैसे भी, बहुत देर हो चुकी थी. इस से पहले कि और देर हो जाए, मु झे कह देना चाहिए उस से. लेकिन मैं क्या कहूं? कैसे कहूं? मेरे कहने पर यदि उस ने अनुकूल उत्तर न दिया. उलटा कुछ कह दिया, तो फिर कैसे रह पाऊंगा पड़ोसी बन कर? क्या इज्जत रह जाएगी मेरी महल्ले में? लेकिन चाहत है तो कहना होगा. अब बिना कहे काम नहीं चल सकता. मेरी नजर उस से टकराती तो मैं मुसकरा देता. जवाब में वह भी मुसकरा देती. अब बनी बात. लाइन क्लीयर है. अब कह सकता हूं मैं अपने दिल की बात. वह कालेज जा रही थी और मैं उस के पीछे थोड़े अंतर से चल रहा था. उस ने अपनी गति धीमी कर दी. मैं भी अपनी गति से चलता रहा. थोड़ी देर में बगल में था मैं उस की. अब हम साथसाथ चल रहे थे.

‘नमस्ते,’ इस बार उस ने अंकल नहीं कहा. या कहा हो, मैं ने सुना नहीं. यदि मैं न सुनना चाहूं तो कौन सुना सकता है. लेकिन उस ने कहा नहीं शायद.

‘नमस्ते,’ मैं ने कहा, मेरे दिल की धड़कनें तेज होने लगीं.’’

‘‘कहां?’’ मैं ने पूछा यह जानते हुए भी कि वह कालेज जा रही है.

‘‘कालेज,’’ उस ने धीरे से मुसकराते हुए कहा.

‘‘और आप?’’

मैं हड़बड़ा गया. कोई उत्तर देते नहीं बना. क्या कहूं कि तुम से मिलने, तुम से बात करने के लिए तुम्हारे पीछे आता हूं. लेकिन कह न सका.

‘‘बस, यों ही टहलने.’’

‘‘रोज, इसी समय.’’

उस की इस बात पर मु झे लगा कि वह निश्चिततौर पर सम झ चुकी है मेरे टहलने का मकसद. मैं धीरे से मुसकराया. ‘‘हां, तुम्हें क्या लगा?’’ उफ यह क्या बेवकूफाना प्रश्न कर दिया मैं ने.

‘‘नहीं, मु झे लगा.’’ और वह चुप हो गई.

‘‘तुम्हें क्या लगा?’’ मैं ने बात को पटरी पर लाने की कोशिश करते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं’’ कह कर वह चुप रही.

‘‘कौन सी क्लास में पढ़ती हो?’’ बात आगे बढ़ाने के लिए कुछ तो पूछना ही था.

‘‘एमए प्रीवियस.’’

‘‘किस विषय से?’’

‘‘समाजशास्त्र से.’’

‘‘बढि़या सब्जैक्ट है.’’

दोनों तरफ थोड़ी देर के लिए फिर शांति छा गई. मैं सोच रहा था, क्या बात करूं. कालेज निकट आ रहा है. यही समय है अपनी बात कहने का. पहली बार इतना अच्छा मौका मिला है.

‘‘पढ़ाई मैं कोई दिक्कत हो तो बताना,’’ मैं ने कहा.

‘‘नहीं, सरल विषय है. दिक्कत नहीं होती.’’

‘‘यदि हो तो?’’

‘‘जी, जरूर बताऊंगी.’’

‘‘मैं ने इसलिए कहा, क्योंकि इसी विषय में मैं ने भी पीएचडी की हुई है.’’

‘‘मैं जानती हूं,’’ उस ने कहा, ‘‘आप प्रोफैसर हैं समाजशास्त्र के?’’

‘‘जी’’ मैं ने गर्व से कहा.

‘‘मैं पूछूंगी आप से यदि कोई दिक्कत आई तो.’’

‘‘क्या ऐसे बात नहीं कर सकती. बिना दिक्कत के?’’

‘‘क्यों नहीं, आखिर हम पड़ोसी हैं,’’ उस ने कहा.

मु झे अच्छा लगा. मैं ने पूछा, ‘‘आप मोबाइल रखती हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘कभी देखा नहीं आप को मोबाइल के साथ?’’

‘‘मैं जरूरत के समय ही मोबाइल चलाती हूं.’’

‘‘सोशल मीडिया, मेरा मतलब फेसबुक आदि पर नहीं हैं आप?’’

‘‘नही, ये सब समय की बरबादी है. घर के लोगों को भी पंसद नहीं.’’

‘‘आप का नंबर मिल सकता है,’’ मैं ने हिम्मत कर के पूछ लिया.

‘‘क्यों नहीं,’’ कहते हुए उस ने अपना नंबर दिया जिसे मैं ने अपने मोबाइल पर सेव कर लिया.

‘‘मु झे तो आप का नाम भी नहीं पता?’’ मैं ने पूछा. मैं पूरी तरह सामने आ चुका था खुल कर. बड़ी मुश्किल से मौका मिला था. मैं इस मौके को बेकार नहीं जाने देना चाहता था.

‘‘रवीना,’’ उस ने हलके से मुसकराते हुए कहा. उस का कालेज आ चुका था. उस ने आगे कहा, ‘‘चलती हूं.’’ और वह कालेज में दाखिल हो गई, मैं सीधा निकल गया.

आगे जाने का कोई मकसद नहीं था. मकसद पूरा हो चुका था. मैं वापस घर की ओर चल दिया. मु झे तैयार हो कर कालेज भी जाना था. लेकिन कालेज के लंच में जब रवीना का कालेज छूटता था, मैं फिर तेजी से उस के कालेज की ओर बढ़ चला. मेरा और उस का कालेज एक किलोमीटर के अंतर पर था. फर्क इतना था या बहुत था कि वह अपने कालेज में छात्रा थी और मैं अपने कालेज में प्रोफैसर.

सुबह के समय सड़क खाली होती है, लेकिन लंच के समय यानी दोपहर 2 बजे भीड़भाड़ होती है. वह कालेज से निकल चुकी थी. मैं ने अपने कदम तेजी से उस की तरफ बढ़ाए. मैं उस तक पहुंचता, तभी वह किसी लड़के की मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ कर पलभर में नजरों से ओ झल हो गई. मेरा खून खौल उठा. मैं क्या सम झता था उसे, क्या निकली वह? पढ़ाई करने जाती है या ऐयाशी करने. बेवफा कहीं की. और मैं क्या हूं, शादीशुदा होते हुए भी आशिकी कर रहा हूं. बेवफा तो मैं हूं अपनी बीवी का.

लेकिन नहीं, मु झे सारे दोष उस में ही नजर आ रहे थे. उसे यह सब शोभा नहीं देता. लड़कियों को अपनी इज्जत, अपने सम्मान के साथ रहना चाहिए. मांबाप की दी हुई आजादी का गलत फायदा नहीं उठाना चाहिए. मैं उसे कोस रहा था. फिर मैं ने स्वयं को सम झाते हुए कहा, होगा कोई रिश्तेदार, परिचित. कल पूछ लूंगा. लेकिन मेरा इस तरह पूछना क्या ठीक रहेगा? उसे बुरा भी लग सकता है. जो भी हो, पूछ कर रहूंगा मैं. तभी चैन मिलेगा मु झे. दूसरे दिन नियत समय पर वह घर से कालेज के लिए निकली और मैं भी. उस ने फिर अपनी चाल धीमी कर दी. मैं उस की बगल में पहुंच गया.

‘‘कल लौटते वक्त नहीं दिखीं आप?’’ मैं ने बात को दूसरी तरफ से पूछा.

‘‘हां, कल भैया के दोस्त मिल गए थे. वे घर ही जा रहे थे. उन्होंने बिठा लिया,’’ अब जा कर मेरे कलेजे को ठंडक मिली. फिर भी मैं ने पूछा, ‘‘भैया के दोस्त या’’ वह मेरी बात का आशय सम झ गई.

‘‘क्या, आप भी अंकल…’’

‘‘मेरे सीने पर जैसे किसी ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया हो. ‘अंकल’ शब्द दिमाग में हथौड़े की तरह बजने लगा.’’

‘‘क्या मैं बूढ़ा नजर आता हूं?’’ मैं ने कहा.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘फिर अंकल क्यों कहती हो?’’

‘‘तो क्या कहूं, भाईसाहब?’’

‘‘फिर तो अंकल ही ठीक है,’’ हम दोनों हंस पड़े. यदि कहने के लिए संबोधन के लिए ही कुछ कहना है तो अंकल ही ठीक है. बड़े शहरों की तरह यहां सर, या सरनेम के आगे जी लगा कर बुलाने का चलन तो है नहीं.

‘‘मैं तुम्हें फोन कर सकता हूं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं? आप घर भी आ सकते हैं. मु झे भी बुला सकते हैं. मैं तो अकसर आती रहती हूं,’’ उस ने सहजभाव से कहा. लेकिन मु झे उस में अपना अधिकार दिखाई पड़ा. मेरे हौसले बढ़ चुके थे.

‘‘एक बात कहूं?’’

‘‘कहिए.’’

‘‘तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘सच?’’

‘‘हां.’’

‘‘आज तक किसी ने कहा नहीं मु झ से. मु झे भी लगा कि मैं सुंदर तो नहीं, हां, बुरी भी नहीं. ठीकठाक हूं.’’

‘‘लेकिन मैं कहता हूं कि तुम बहुत सुंदर हो.’’

‘‘आप को लगती हूं?’’

उस ने प्रश्न किया या मेरे मन की गहराई में चल रहे रहस्य को पकड़ा. जो भी हो. उस ने कहा इस तरह जैसे वह अच्छी तरह जान चुकी थी कि मैं उसे पसंद करता हूं. तभी तो उस ने कहा, आप को लगती हूं.

‘‘लगती नहीं, तुम हो.’’

मैं ने कहा. वह चुप रही. लेकिन हौले से मुसकराती रही. उस के गालों पर लालिमा थी.

मैं ने मौका देख कर अपने मन की बात स्पष्ट रूप से कहनी चाही.

‘‘एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं, आप कहिए.’’

‘‘मैं…मैं…मैं… आप से…’’

‘‘पहले तो आप मु झे आप कहना बंद करिए. आप प्रोफैसर हैं, मैं स्टूडैंट हूं,’’ उस ने यह कहा, तो मु झे लगा जैसे कह रही हो कि आप में और मु झ में बहुत अंतर है. ‘‘मैं आप का सम्मान करती हूं और आप…’’

मैं चुप रहा. उस ने कहा, ‘‘कहिए, आप कुछ कहने वाले थे.’’

‘‘मैं कहना तो बहुतकुछ चाहता हूं लेकिन हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं.’’

‘‘मैं जानती हूं. आप क्या कहना चाहते हैं. लेकिन कहना तो पड़ेगा आप को,’’ उस

ने मेरी तरफ तिरछी नजर से मुसकराते

हुए कहा.

‘‘पहले तुम वादा करो कि यह बात हमारेतुम्हारे बीच में रहेगी. बात पसंद आए या न आए,’’ मैं हर तरफ से निश्ंिचत होना चाहता था. सुरक्षित भी कह सकते हैं. पहले तो लगा कि कहूं यदि तुम जानती हो तो कहने की क्या आवश्यकता है. लेकिन जाननेभर से क्या होता है?

‘‘मैं वादा करती हूं.’’

‘‘हम कहीं मिल सकते हैं. रास्ते चलते कहना ठीक न होगा.’’

‘‘लेकिन कहां?’’

‘‘थोड़ी दूर पर एक कौफी शौप है.’’

‘‘वहां किसी ने देख लिया तो क्या उत्तर देंगे. छोटा सा शहर है.’’

‘‘तुम मेरे कालेज आ सकती हो. कालेज के पार्क में बात करते हैं. वहां कोई कुछ नहीं कहेगा. यही सम झेंगे कि पढ़ाई के विषय में कोई बात हो रही होगी.’’

‘‘कब आना होगा?’’

‘‘12 बजे.’’

‘‘कालेज बंक करना पड़ेगा.’’

‘‘प्लीज, एक बार, मेरे लिए,’’ शायद उस ने मेरी दयनीय हालत देख कर हां कर दिया था. दोपहर के 12 बजे. कालेज का शानदार पार्क. दिसंबर की गुनगुनी धूप. कालेज के छात्रछात्राएं अपने सखासहेलियों के साथ कैंटीन में, पार्क में बैठे हुए थे. कुछ पढ़ाई पर, कुछ सिनेमा, क्रिकेट पर बातें कर रहे थे. मैं बेचैनी से उस का इंतजार कर रहा था. वह आई. मैं उस की तरफ बढ़ा. मेरी धड़कनें भी बढ़ीं.

‘‘आइए,’’ मैं ने कहा. और हम पार्क की तरफ चल दिए.

‘‘कहिए, क्या कहना है?’’

‘‘देखो, तुम ने वादा किया है. बात हम दोनों के मध्य रहेगी.’’

‘‘मैं वादे की पक्की हूं.’’

‘‘मेरी बात पर बहुत से लेकिन, किंतुपरंतु हो सकते हैं जो स्वाभाविक हैं. लेकिन, मन के हाथों मजबूर हूं. बात यह है कि मैं तुम से प्यार करता हूं. करने लगा हूं. पता नहीं कैसे?’’

मैं ने कह दिया. हलका हो गया मन. फिर उस की तरफ देखने लगा. न जाने क्या उत्तर मिले. मैं डरा हुआ था.

‘‘मैं तो आप से बहुत पहले से प्यार करती थी जब आप मेरे पड़ोस में रहने आए थे. लेकिन आप ने कभी मेरी ओर ध्यान ही नहीं दिया. जिस दिन आप की शादी हुई थी, बहुत रोई थी मैं. फिर मन को सम झा लिया था किसी तरह. मैं आप से आज भी प्यार करती हूं लेकिन…’’

‘‘मैं जानता हूं कि मैं विवाहित हूं, 2 बच्चे हैं मेरे. लेकिन तुम साथ दो तो…’’

‘‘मैं आप के साथ हूं. आप के प्यार में. कोई लड़की जब किसी से सच्चा प्यार करती है तो किसी भी हद तक जा सकती है. मैं किसी बंधन में नहीं हूं. आप सोच लीजिए.’’

‘‘थैंक यू, मु झे कुछ नहीं सोचना. जो होगा, देखा जाएगा,’’ मैं ने कह तो दिया लेकिन कहते समय पत्नी और बच्चों का चेहरा सामने घूम गया. इस के बाद हमारी अकसर मुलाकातें होने लगीं. मोबाइल पर तो बातें होती ही रहतीं. सावधानी हम दोनों ही बरत रहे थे. कभी वह कुछ पूछने के बहाने, पढ़ाई के बहाने, घर भी आ जाती. हम सिनेमा, पार्क, रैस्तरां जहांजहां भी मिल सकते थे. मिलते रहे. वह कालेज से गायब रहती और मैं भी. एक दिन मैं ने उस से मोबाइल पर कहा, ‘‘बेकरारी बढ़ती जा रही है तुम्हें पाने की. तुम्हें छूने की. प्लीज कुछ करो.’’

‘‘मेरा भी यही हाल है, मैं कोशिश करती हूं.’’

फिर एक दिन ऐसा हुआ हमारी खुशनसीबी से कि उस

के परिवार के लोगों को एक शादी में जाना था 2 दिनों के लिए और उसी समय मेरी पत्नी को उस के मायके से बुलावा आ

गया. दिसंबर के अंतिम सप्ताह में वैसे भी स्कूल, कालेज बंद

रहते हैं. वह अपने घर में अकेली थी. मैं अपने घर में. बीच में एक दीवार थी. रात को मैं उस के घर या वह मेरे घर आए तो शायद ही कोई देखे. फिर भी सावधानी से हम ने तय किया कि मैं उस की छत पर पहुंच कर छत की सीढि़यों से नीचे जाऊंगा. दोनों छतें सटी हुई थीं.

दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड और रात के 11 बजे महल्ले वाले अपनेअपने घरों की रजाइयों में दुबके होंगे. जबकि प्रेम की अगन, हम दोनों को एकदूसरे से मिलने के लिए बेकरारी बढ़ा रही थी. मैं अपने घर की छत पर पहुंचा. धीरे से उस की छत पर पहुंचा पूरी सावधानी से. मन में डर था. कोई देख न ले. प्रेम आदमी में हिम्मत और जोश भर देता है. यह बात तो आज पक्की हो गई थी.

मैं उस के बैडरूम में था उस के साथ. मैं उसे जीभर कर देख रहा था. और वह मु झे. मैं उस से लिपट गया. उस ने विरोध नहीं किया. मैं उसे चूमने लगा. उस ने मेरा साथ दिया. मैं ने उस के कपड़े उतारने की कोशिश की. उस ने कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या? मन तो मिल चुके हैं,’’ मैं ने अपने हाथ वापस खींच लिए. उसे गोद में उठा कर बिस्तर पर फूल की तरह रखा और उस से लिपट गया. मैं उसे फिर से चूमने लगा. वह भी मु झे चूमने लगी. सर्दी में गरमी का एहसास होने लगा. मैं ने फिर आगे बढ़ना चाहा. उस ने फिर कहा, ‘‘यह सब जरूरी है क्या?’’

‘‘तुम डर रही हो. घबराओ मत. मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ मैं ने उसे हिम्मत बंधाते हुए कहा. और मेरे हाथ फिर से उस के वस्त्र उतारने की ओर बढ़े.

‘‘यह सब तो तुम अपनी पत्नी के साथ कई बार कर चुके होगे. मैं तुम से सैक्स नहीं, केवल प्यार चाहती हूं.’’

‘‘सैक्स भी तो प्यार प्रदर्शित करने का एक माध्यम है. क्या तुम मु झे नहीं चाहती. यदि प्रेम करती हो तो फिर संबंध बनाने से इनकार क्यों?’’ उस के जिस्म पर मेरे होंठ और हाथ हरकत कर रहे थे. उस का शरीर समर्पण मुद्रा में था.

‘‘अगर तुम यही चाहते हो तो यही सही. मैं आप की खुशी के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं. आगे कुछ हो तो आप संभाल लेना.’’

मैं शिकारी की मुद्रा में था. इस अनमोल समय को मैं किसी भी हालत में छोड़ना नहीं चाहता था. एकदो बार दिमाग ने सम झाने की कोशिश की. लेकिन इस स्थिति में दिमाग की कौन सुनता है. दिमाग खुदबखुद शरीर के बाकी हिस्से के साथ शामिल हो जाता है. वह शरमाती रही. मैं उसे निर्वस्त्र करता रहा. उस ने कहा, ‘‘एक बार फिर सोच लो.’’

मैं ने कहा, ‘आई लव यू’ और मैं आगे बढ़ता रहा. वह धीरेधीरे कराहती रही और मैं आगे बढ़ता रहा. कुछ समय बाद वह मेरा साथ देने लगी. मेरे चेहरे पर संतुष्टि के भाव थे. उस के चेहरे पर संतुष्टि के साथ डर भी था. मैं ने उसे गोली निकाल कर दी.

‘‘इसे खा लो.’’

‘‘पूरी तैयारी के साथ आए हो,’’ उस ने गोली हाथ में ले ली. फिर वह मु झ से लिपट कर रोने लगी.

‘‘मु झे छोड़ना मत. मैं ने अपना सबकुछ तुम्हें सौंप दिया.’’

मैं ने उसे कभी न छोड़ने का वादा किया. सुबह 4 बजे में वापस लौटा. मेरे मन पर भी कुछ बो झ सा आ गया था. मैं भी सही और गलत पर विचार करने लगा था. और वह तो अब जैसे मु झ पर ही निर्भर हो चुकी थी. मु झे ही अपना सबकुछ मान बैठी थी. उस का बारबार फोन आना. अपना अधिकार जता कर बात करना. भविष्य के बारे में बात करना. बातबात पर रो देना. कभी भी मेरे कालेज चले आना. फिर मिलने की बात करना. इन सब बातों ने मु झे भारी दबाव में ला दिया था.

मैं स्वयं को मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त सा पा रहा था. मैं ने उसे सम झाया कि देखो, हम एकदूसरे से प्यार करते हैं. इस तरह तुम्हारी जिद और अधिकार हमारे प्रेमभरे संबंधों के लिए घातक हैं. हम बिना किसी बंधन के ज्यादा सुखी रह सकते हैं. तुम्हें अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाहिए. मेरी बात पर उस ने सिसकते हुए कहा, ‘‘मैं कहां अधिकार जता रही हूं. प्रेम के बदले प्रेम ही तो मांग रही हूं. पहले आप मिलने के लिए कितने उतावले रहते थे. अब तो बस हां या न में उत्तर देते हो. पहले की तरह सुबह आते भी नहीं हो.’’

‘‘इन दिनों मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है,’’ कहने को तो मैं ने कह दिया. लेकिन सच बात यही थी कि मैं अपने अंदर अब वह जोश वह उत्साह नहीं पा रहा था, चाह कर भी. उस की बारबार की शिकायतों से तंग आने लगा था मैं. तो क्या मु झे उस से जो चाहिए था उस की पूर्ति हो चुकी थी? क्या उस के प्रति मेरी दीवानगी मात्र उस के शरीर को पाने तक सीमित थी? क्या चंद रातों के लिए मैं ने अपना सुकून और एक लड़की का जीवन दांव पर लगा दिया था? क्या मु झे अपनी पत्नी से ऐसा कुछ नहीं मिल रहा था जो मैं ने इस लड़की में तलाशना चाहा? कहीं यह मेरी अधेड़ावस्था के कारण तो नहीं.

प्यार तो उस समय करता था मैं उस से. आज भी करता हूं लेकिन वह बात नहीं रही अब? क्यों नहीं रही वह बात? क्या मैं उस के शरीर का भूखा था मात्र? अब क्यों उस के पीछेपीछे नहीं जाता मैं? क्यों उस से कतराता रहता हूं. इस के लिए कहीं न कहीं वह भी दोषी है. एकदम से पीछे पड़ जाना, बारबार फोन करना, हरदम मिलने की कोशिश करना कहां तक उचित है? लेकिन मु झे उसे सम झाना होगा. उस पर ध्यान भी देना होगा. कमउम्र की लड़की है. न जाने गुस्से या नाराजगी में क्या कर बैठे? वह जबजब मिली, नईपुरानी शिकायतों के साथ मिली. और मैं प्रेम से उसे प्रेम की परिभाषा सम झाता रहा. जिस में त्याग की भावना मुख्य थी. लेकिन सम झाना व्यर्थ ही रहता. वह अधिकार चाहती थी. जो मैं उसे नहीं दे सकता था.

‘‘आप ने ही तो कहा था कि मेरे लिए सबकुछ कर सकते हो.’’

‘‘हां, तो कर तो रहा हूं. तुम से मिलता हूं, बात करता हूं.’’

‘‘मु झे अपना अधिकार चाहिए.’’

‘‘हमारे बीच अधिकार की बात कहां से आ गई?’’

‘‘प्यार है तो अधिकार तो आएगा ही, मेरी भी कुछ इच्छाएं हैं, अरमान हैं. मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं. घर बसाना चाहती हूं.’’

‘‘अब वह शादी की बात कहां से आ गई? तुम क्या चाहती हो? मैं अपने बीवी, बच्चे छोड़ दूं? क्या वे मु झे इतनी आसानी से छोड़ देंगे? समाज, कानून भी कोईर् चीज है.’’

‘‘आप ने जो वादे किए थे उन का क्या?’’

‘‘मैं ने प्यार करने का, निभाने का वादा किया था.’’

‘‘तो ले चलो मु झे कहीं दूर अपने साथ. मत करना शादी. मैं ऐसे ही रहने को तैयार हूं.’’

‘‘उफ यह क्या मुसीबत मोल ले ली मैं ने. कहां ले जाऊं इसे? कहां रखूं? लोगों को पता चलेगा. पत्नी को पता चलेगा तो क्या सोचेगी मेरे बारे में. मैं उस से स्पष्ट नहीं कह सकता था कि मेरा पीछा छोड़ो. वह कुछ भी कर सकती थी. इन दिनों उस के तेवर ठीक नजर नहीं आ रहे थे मु झे. वह मेरा नाम लिख कर आत्महत्या कर सकती थी. वह पुलिस थाने जा कर यौनशोषण का आरोप लगा सकती थी मु झ पर. मु झे ऐसी किसी भी स्थिति से बचने के लिए उसे यह एहसास दिलाना जरूरी था कि मैं जल्द ही उस की इच्छा पूरी करने के लिए कोई कदम उठाने जा रहा हूं. क्या करूं, कैसे पीछा छुड़ाऊं? जिस लड़की के लिए मैं मरा जा रहा था आज उस से पीछा छुड़ाने के विषय में सोच रहा था.’’

मैं भूल गया था कि वह कोई सैक्स का खिलौना नहीं थी कि जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल कर दिया और रख दिया एक तरफ. वह जीवित हाड़मांस की 25 वर्षीया नौजवान लड़की थी. उस की इच्छाएं, अरमान होना स्वाभाविक था. लेकिन मेरा अपना जीवन था. मैं प्रोफैसर था. विवाहित था. 2 बच्चों का बाप था. यह बात मु झे उस रात उस के घर में जा कर उस से संबंध बनाने से पहले सोचनी चाहिए थी. तो क्या करूं पीछा छुड़ाने के लिए. ले जाऊं कहीं दूर और फेंक दूं मार कर उस की लाश को कहीं. क्या मैं यह कर सकता हूं? क्या यह मु झे करना चाहिए? तो क्या उसे अपनी गैरकानूनी पत्नी बना कर रख लूं. लोग यही तो कहेंगे कि दूसरी औरत रख ली है. हत्यारा बनने से तो बचूंगा. फिर मेरी उम्र और उस की उम्र में 20 वर्ष का अंतर है. जब मु झ से शारीरिक सुखों की पूर्ति नहीं होगी, तो खुद ही चली जाएगी छोड़ कर. सारा प्यार एक तरफ धरा रह जाएगा. नहीं…नहीं, मैं ऐसा नहीं कर सकता.

एक दिन उस ने रोते हुए कहा, ‘‘जल्दी कुछ करो, मेरे घर वाले शादी के लिए लड़का तलाश रहे हैं.’’

‘‘यह तो अच्छी बात है. तुम्हारी उम्र का पढ़ालिखा, अच्छी नौकरी वाला जीवनसाथी मिलेगा. जो सिर्फ तुम्हारा होगा.’’

‘‘मैं किसी से शादी नहीं करूंगी. मेरी शादी होगी तो सिर्फ तुम से… वरना सारा जीवन कुंआरी रहूंगी.’’

मैं ने उसे सम झाते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है तुम अपने पैरों पर खड़ी हो. यदि शादी की तुम्हारी शर्त है तो मेरी भी एक शर्त है. तुम्हें प्रोफैसर की पत्नी बनना है तो पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़ा होना होगा.’’

मैं ने दांव चलाया. दांव चल गया. उस ने जोश में कहा, ‘‘तो ठीक है, मैं आप को अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाऊंगी. लेकिन प्यार कम नहीं होना चाहिए.’’

उस के आखिरी वाक्य से मैं आहत

सा हुआ. लेकिन मु झे रास्ता मिल गया.

अच्छा रास्ता जो लड़की के भविष्य के लिए उचित था.

‘‘हां, प्यार कम नहीं होगा. वादा रहा. लेकिन तुम्हें किसी बड़ी कंपनी या सरकारी नौकरी में ऊंची पोस्ट पर आना होगा. इस के लिए तुम्हें खूब तैयारी करनी होगी. सबकुछ भूल कर कम से कम 12 घंटे पढ़ना होगा. चाहो तो किसी बड़े शहर में कोचिंग जौइन कर लो. साथ ही, अपनी पढ़ाई भी जारी रखो. मैं इस में तुम्हारी मदद करूंगा.’’

‘‘लेकिन मेरे घर वाले मु झे बाहर भेजने के लिए राजी नहीं होंगे.’’

‘‘तुम पढ़ाई पर ध्यान दो. तुम्हारी लगन और मेहनत देख कर वे खुद तुम्हें भेजेंगे. मैं भी सम झाऊंगा उन्हें.’’

‘‘लेकिन अपना वादा याद रखना.’’

‘‘तुम अपना वादा तो निभाओ.’’

‘‘मैं बीचबीच में मिलती रहूंगी. मिलना होगा आप को. फोन पर बात भी करनी होगी.’’

‘‘मु झे मंजूर है,’’ मैं ने खुशी के साथ कहा.

यदि लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो कर भी मु झ से जुड़ी रहना चाहे तो मु झे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए. ऐसा मेरा मानना था. धीरेधीरे उम्र बढ़ेगी. सम झ भी बढ़ेगी. लड़की नौकरी में होगी तो उस का अपना स्टेटस भी होगा. वह अपने बराबर का रिश्ता देखेगी. चार लोगों में उसे भी तो अपने पति से मिलवाना होगा. मु झे नहीं लगता कि वह आज से 5 वर्ष बाद मु झे किसी से अपने पति के रूप में मिलवाना पसंद करेगी.

इस बीच मेरी पत्नी का शक मजबूत हो चुका था. अब वह उसे घर आने की बात पर टाल देती. उस से ठीक से बात नहीं करती. मु झ से भी कई बार उसे ले कर  झगड़ा हो चुका था. मेरे मोबाइल की घंटी बजते ही  झट से पत्नी आ कर मोबाइल उठा कर पूछती. जब उसे यकीन हो जाता कि दूसरी तरफ मेरी प्रेमिका है तो वह उलटीसीधी बातें सुनाती. गालियां देती और मोबाइल पटक देती. कई बार मेरे कालेज भी आ जाती. एकदो बार उस ने बात करते हुए पकड़ भी लिया और उसे और मु झे खूब खरीखोटी सुनाई. मैं ने अपनी पत्नी को कई बार सम झाया कि वह कम उम्र की नादान लड़की है. पढ़ाईलिखाई में मदद मांगने आती है. लेकिन पत्नी का स्पष्ट कहना था कि मु झे बेवकूफ बनाने की जरूरत नहीं है. मैं सब सम झती हूं. घर में मेरे सम्मान की धज्जियां उड़ने लगीं. पत्नी बातबात पर व्यंग्य करने से नहीं चूकती.

मैं ने अपनी पत्नी की आड़ ले कर उसे डराते हुए सम झाया, ‘‘मेरे मोबाइल पर बात मत करना. खासकर जब मैं घर में रहूं. तुम्हारे घर वालों से शिकायत कर दी, तो तुम्हारे घर वाले तुम्हें चरित्रहीन सम झेंगे. तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हारा विवाह कर देंगे. यदि तुम हम दोनों का भला चाहती हो, सुखी भविष्य देखना चाहती हो तो अपने पैरों पर खड़ी हो कर दिखाओ. इसी दिन के लिए मैं बारबार फोन करने, मिलने के लिए मना करता था. यह दुनिया शुरू से प्यार की दुश्मन रही है. लेकिन तुम ने प्यार को प्यार न सम झ कर अधिकार सम झ लिया.’’

उस ने रोंआसे स्वर में कहा, ‘‘जब तुम्हारी पत्नी ने मु झे भलाबुरा कहा, तब तुम ने क्यों कुछ नहीं कहा. अपने प्यार का अपमान होते देखते रहे.’’

मैं ने गुस्से से कहा, ‘‘यदि मैं कुछ कहता तो वह तुम्हारा तमाशा बना कर रख देती. जो मैं नहीं चाहता था. तुम सम झतीं क्यों नहीं बात?’’

वह सम झ गई. उदास हो कर घर चली गई. मैं ने लड़की के पिता बिहारीलालजी को एक पत्र लिखा और उन के बैंक के पते पर पोस्ट कर दिया. पत्र में बहुत विश्वसनीयता से उन की पुत्री के गैर लड़के से संबंधों की जानकारी लिखी थी. बिहारीलालजी बैंक में अंकाउंटैंट थे. उन के परिवार में इस बेटी के अलावा एक बेटी, एक बेटा और पत्नी थी. मैं जानता था कि भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार में लड़की बाहर चाहे जो करे लेकिन प्रेम के नाम पर यदि मातापिता उसे डांटेंमारें तो वह किसी अपराधी की तरह सिर  झुका कर सब सुनतीसहती रहेगी. यही हुआ भी. उस के मातापिता डांट रहे थे. उन की आवाजें मेरे घर तक आ रही थीं. मेरी पत्नी ने मु झ पर व्यंग्य करते हुए कहा, ‘‘लो, लड़की ने तो तुम जैसे न जाने कितने फंसा रखे हैं.’’

मैं ने पत्नी को जम कर लताड़ते हुए कहा, ‘‘गंवार, बेवकूफ औरत. वह एक सीधीसाधी लड़की है. कम उम्र की है. बचपना है उस में. मैं तो उसे टीचर बन कर पढ़ाता था. तुम ने मु झे भी नहीं बख्शा. इस उम्र में हो जाता है लगाव. मैं उस के पिता से बात कर के उन्हें सम झाऊंगा. दोबारा मेरा नाम उस के साथ जोड़ने की गलती मत करना. वह सिर्फ मेरे लिए एक स्टूडैंट है. और ऐसी न जाने कितनी छात्राएं मु झ से पढ़ाई संबंधी सवाल पूछती हैं. कभीकभी कम उम्र के बच्चों को लगाव हो जाता है. इस का अर्थ यह तो नहीं कि मैं उस का प्रेमी हो गया.’’

पत्नी खामोश हो गई. कभीकभी तेज स्वर में सचाई से  झूठ बोलना सच को छिपा देता है. दूसरे ही दिन मैं बैंक में जा कर बिहारीलालजी से मिला. मु झे देख कर वे आश्चर्य में पड़ गए. मैं ने कहा, ‘‘कुछ बात करनी थी. थोड़ा सा समय लूंगा आप का.’’

‘‘कहिए.’’

‘‘थोड़ा एकांत में.’’

वे बैंक से बाहर आ गए. मैं ने कहा, ‘‘कल आप के घर से तेज आवाजें आ रही थीं.’’ उन के चेहरे पर तनाव आ गया.’’

‘‘मैं पहले ही इस संबंध में आप को बताना चाहता था लेकिन हिम्मत नहीं हुई. अब जब आप को सब पता चल ही चुका है तो मेरी सलाह मानिए. आप की बेटी पढ़ने में होशियार है. किसी लड़के के बहकावे में आ गई है. लड़की सभ्य, संस्कारी, पढ़ने में तेज है. इस तरह की बातों पर शोर करने से मामला बिगड़ता है. कल गुस्से में लड़की ने कोई गलत कदम उठा लिया तो मुश्किल हो जाएगी आप के लिए.’’

‘‘आप ही बताइए, क्या करूं मैं?’’

‘‘मेरी मानिए, लड़की को कुछ समय कोचिंग और कालेज की पढ़ाई के लिए बाहर भेज दीजिए. यदि नौकरी में आ गई तो आप के दोनों बच्चों को भी मार्गदर्शन मिल जाएगा. घर की मदद भी हो जाएगी. यह सारा  झमेला भी खत्म हो जाएगा.’’

‘‘आप जानते हैं उस लड़के को?’’

‘‘नहीं, मैं ने एकदो बार उसे मोटरसाइकिल पर घूमते देखा है आप की लड़की को. आप यह सब छोडि़ए और लड़की के भविष्य व परिवार के सम्मान की खातिर उसे दिल्ली भेज दीजिए. दोतीन साल की बात है. इस बीच कोई अच्छा रिश्ता आ जाए तो बुला कर शादी कर दीजिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं,’’ बिहारीलालजी मेरी बात से सहमत थे.

उन्होंने तब तक लड़की का घर से निकलना बंद कर दिया. उस का मोबाइल छीन लिया. जब तक कि वे उसे दिल्ली के एक अच्छे कोचिंग इंस्टिट्यूट में नहीं छोड़ आए. मैं ने राहत की सांस ली. एक प्यारभरी गलती, एक विवाहित पुरुष की प्यार करने की गलती, एक कम उम्र की लड़की से प्यार करने का अपराध और बाद में उस से अपने सुखद भविष्य, शांतिपूर्ण गृहस्थी और लड़की की भलाई के लिए मु झे जो करना था, वह मैं ने किया. इसे गुनाह छिपाने का सकारात्मक तरीका भी कहा जा सकता है.

कालेज के समय पर उस के फोन आते. वह ‘आई लव यू’, ‘आई मिस यू’ के मैसेज करती. मु झे बेइंतहा प्यार करने की बात कहती और साथ ही अपना वादा याद रखने की बात कहती. मैं बदले में यही कहता, ‘कुछ बन कर दिखाओ, प्यार के लिए, पहले.’

वह शायद पढ़ाई में व्यस्त होती गई. अब फोन आते, लेकिन पहले वह पढ़ाई संबंधी मार्गदर्शन लेती, उस के बाद अंत में आई लव यू पर अपनी बात खत्म करती. मैं जानता हूं होस्टल का खुलापन, हमउम्र लड़केलड़कियों की एक कालेज में पढ़ाई के साथ मौजमस्ती. धीरेधीरे उस का मेरी तरफ से ध्यान हटेगा. अपने हमउम्र किसी लड़के पर उस का  झुकाव बढ़ेगा.

उस ने एक दिन फोन कर के बताया कि वह बैंक के साथसाथ पीएससी की तैयारी भी कर रही है. कालेज की पढ़ाई खत्म हो चुकी है. उस ने यह भी बताया कि पिताजी को किसी ने मेरे बारे में उलटासीधा पत्र लिखा था. इसलिए उन्होंने मु झे दिल्ली भेज दिया. जबकि ऐसा नहीं था. उस ने यह भी बताया कि शादी के लिए पिताजी ने एक लड़का पसंद किया है. मु झे बुलाया है. लेकिन मैं ने उन से स्पष्ट कह दिया कि मैं जब तक अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो जाती, वापस नहीं आऊंगी. यदि वे रुपए न भी भेजें, तो कोई पार्टटाइम जौब कर लूंगी. फिर धीरेधीरे फोन अंतराल से आने लगे. कईकई दिनों में. फोन आते भी तो आई लव यू भी कई बार नहीं कहा जाता.

मेरी उम्र 50 वर्ष हो चुकी थी. उसे गए हुए 5 वर्ष बीत चुके थे. मु झे पता चला उस के पिता से कि उस ने पीएचडी कर ली है. नैट निकाल लिया है. वह साथ ही आईपीएस की तैयारी भी कर रही है. मु झे खुशी हुई कि उस ने मु झे फोन लगा कर नहीं बताया. इच्छा हुई कि एक बार उस से मिलूं, इस मिलने में कोई प्रेम नहीं था, वासना नहीं थी. बस, देखना था कि कितना भूल चुकी है वह.

मैं ने 3 माह लगातार साबुन से बाल धोए. न बाल कटवाए, न डाई करवाई. इस से मेरे बालों की पिछली सारी ब्लैक डाई निकल चुकी थी. मेरे सारे बाल सफेद थे. और चेहरे पर सफेद चमचमाती दाढ़ी. आंखों में पावर का चश्मा. मैं इग्नू के काम से दिल्ली आया हुआ था. सोचा, मिलता चलूं और परिवर्तन देखूं. होस्टल का पता उसी के द्वारा मु झे मालूम था. मैं होस्टल के बाहर था. वह गु्रप में लड़कियों के साथ हंसीमजाक कर रही थी. मु झे देख कर वह सकते में आ गई.

मैं उस के पास पहुंचा तो उस ने अपनी साथ की लड़कियों से कहा, ‘‘यह मेरे अंकल हैं,’’ सभी लड़कियों ने मु झे ‘हाय अंकल,’ ‘नमस्ते अंकल’ कहा. उसे लगा मैं कुछ कह न दूं. वह मु झे फौरन होस्टल के गैस्टरूम में ले गई. उस समय वहां कोई नहीं था. वह मु झ पर भड़क कर बोली, ‘‘आप बिना बताए कैसे आ गए? आए थे तो कम से कम हुलिया ठीक कर के आते. इस समय आप अंकल नहीं, दादाजी लग रहे हैं. क्या जरूरत थी आप को यहां आने की?’’

मु झे खुशी हुई उस की बात सुन कर. फिर भी मैं ने कहा, ‘‘तुम से मिलने की इच्छा हुई, तो चला आया.’’

‘‘ऐसे कैसे चले आए? यह गर्ल्स होस्टल है. फिर आशिकी का भूत सवार तो नहीं हो गया ठरकी बुड्ढे. जो हुआ मेरा बचपना था. अगर वह बात किसी को बता कर बदनाम करने की कोशिश की तो जेल भिजवा दूंगी यौनशोषण का केस लगा कर.’’

तभी उस का फोन बजा. वह एक तरफ जा कर बात करने लगी.

‘‘हां, रमेश, कल की पार्टी मेरी तरफ से. उस के बाद पिक्चर का भी प्रोग्राम है. हां, मेरा सलैक्शन हो गया है कालेज में.’’

‘‘यह रमेश कौन है?’’ मैं ने पूछा, हालांकि मु झे पूछने की जरूरत नहीं थी.

‘‘मेरा बौयफ्रैंड है,’’ फिर उस ने मु झे सम झाया, ‘‘प्लीज, पुरानी बातें भूल जाओ. मैं ने गुस्से में जो कहा, उस के लिए माफ करना. यहां मेरा अपना टौप का सर्कल है. यदि किसी को तुम्हारे बारे में पता चलेगा तो मेरा मजाक उड़ाएंगे सब.’’

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं,’’ मैं पूरी तरह निश्ंिचत हो कर उठा.

‘‘अंकल, आप ने पढ़ाई में मेरी जो मदद की है, उस के लिए धन्यवाद. एक बार गलती हम दोनों से हुई थी. उसे याद करने की जरूरत नहीं. प्लीज, आप जाइए. कोई पूछे तो कहना आप मेरे अंकल हैं. घर के लोगों ने कहा था कि दिल्ली जा रहे हो, तो बेटी के हालचाल पूछते हुए आना.’’

‘‘हां, बिलकुल यही कहूंगा.’’

मैं होस्टल के गैस्टरूम से बाहर निकला. उस का मु झे भूलना, मु झ से चिढ़ना, मु झ से बचना, यही तो चाहता था मैं. जो हो चुका था. मेरी गलती का, अपराध का सफल प्रायश्चित्त हो चुका था. मैं खुश था, मेरे मन का सारा बो झ उतर चुका था. मैं अपनी सफाई, सम झदारी से बच तो निकला था लेकिन दाग फिर भी धुला नहीं था पूरी तरह.

घर पर जब कभी कोई नैतिकता, प्रेम, विश्वास की बात करता तो पत्नी के मुंह से निकल ही जाता, तुम तो रहने ही दो. तुम्हारे मुंह से ये बातें अच्छी नहीं लगतीं. और मैं चुप रह जाता. चुप रहने में ही भलाई सम झता. कहने को अपनी सफाई में बहुतकुछ कह सकता था मैं. लेकिन, मैं खामोश रहता क्योंकि अंदर से मैं जानता था कि कहीं न कहीं से गुनहगार हूं मैं.

Short Story : पत्‍नी का चुनाव

 

गाड़ी की रफ्तार धीरेधीरे कम हो रही थी. सुधीर ने झांक कर देखा, स्टेशन आ गया था. गाड़ी प्लेटफार्म पर आ कर खड़ी हो गई थी. प्रथम श्रेणी का कूपा था, इसलिए यात्रियों को चढ़नेउतरने की जल्दी नहीं हो रही थी.

सुधीर इत्मीनान से अटैची ले कर दरवाजे की ओर बढ़ा. तभी उस ने देखा कि गाड़ी के दरवाजे पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए व सूटबूट पहने एक आदमी आरक्षण सूची में अपना नाम देख रहा था.

उस आदमी को अपना नाम दिखाई दिया तो उस ने पीछे खड़े कुली से सामान अंदर रखने को कहा.

सुधीर को उस की आकृति कुछ पहचानी सी लगी. पर चेहरा तिरछा था इसलिए दिखाई नहीं दिया. जब उस ने मुंह घुमाया तो दोनों की नजरें मिलीं. क्षणांश में ही दोनों दोस्त गले लग गए. सुधीर के कालेज के दिनों का साथी विनय था. दोनों एक ही छात्रावास में कई साल साथ रहे थे.

सुधीर ने पूछा, ‘‘आजकल कहां हो? क्या कर रहे हो?’’

विनय बोला, ‘‘यहीं दिल्ली में अपनी फैक्टरी है. तुम कहां हो?’’

‘‘सरकारी नौकरी में उच्च अधिकारी हूं. दौरे पर बाहर गया था. मैं भी यहीं दिल्ली में ही हूं.’’

वे बातें कर ही रहे थे कि गाड़ी की सीटी ने व्यवधान डाला. एक गाड़ी से उतर रहा था, दूसरा चढ़ रहा था. दोनों ने अपनेअपने विजिटिंग कार्ड निकाल कर एकदूसरे को दिए. सुधीर गाड़ी से उतर गया. दोनों मित्र एकदूसरे की ओर देखते हुए हाथ हिलाते रहे. जब गाड़ी आंखों से ओझल हो गई तो सुधीर के पांव घर की ओर बढ़ने लगे.

टैक्सी चल रही थी, पर सुधीर का मन विनय में रमा था. विनय और वह छात्रावास के एक ही कमरे में रहते थे. विनय का मन खेलकूद में ही लगा रहता था, जबकि सुधीर की आकांक्षा थी कि किसी प्रतियोगिता में चुना जाए और उच्च अधिकारी बने. इसलिए हर समय पढ़ता रहता था.

जबतब विनय उसे टोकता था, ‘क्यों किताबी कीड़ा बना रहता है, जिंदगी में और भी चीजें हैं, उन की ओर भी देख.’

‘मेरे कुछ सपने हैं कि उच्च अफसर बनूं, कार हो, बंगला हो, इसलिए मेरी मां मेरे सपने को पूरा करने के लिए जेवर बेच कर मेरी फीस भर रही है.’

उस की सब तमन्नाएं पूरी हो गई थीं. पर विनय से मिलने के बाद उसे ताज्जुब हो रहा था कि वह भी उसी की तरह गरीब परिवार से था. उस का यह कायापलट कैसे हो गया? एक फैक्टरी का मालिक कैसे बन गया? इसी उधेड़बुन में वह घर पहुंचा.

नौकर रामू ने कार का दरवाजा खोला. घर के अंदर मेज पर मां की बीमारी का तार पड़ा था. पड़ोसिन चाची ने बुलाया था.

रामू ने बताया, ‘‘मेम साहब अपनी सहेलियों के साथ घूमने गई हैं.’’

सुनते ही सुधीर को गुस्सा आ गया. वह सोच रहा था कि जब मां का तार आ गया था तो रश्मि को उन के पास जाना चाहिए था. वह उलटे पांव बस अड्डे की ओर चल दिया. वह रहरह कर रश्मि पर खीज रहा था कि उसे मां की बीमारी की जरा भी परवा नहीं है.

मां बेटे को देख प्रसन्न हो उठीं. पड़ोसिन चाची ने बताया, ‘‘तेरी मां को तेज बुखार था. हम तो घबरा गए. इसीलिए तुझे तार दे दिया. रश्मि को क्यों नहीं लाया?’’

‘‘वह अपनी मां के पास गई है. घर होती तो अवश्य आती.’’

सुधीर जानता था कि गांव के माहौल में मां के साथ रहना रश्मि को गवारा नहीं है. मां भी उस की आदतें जानती थीं, इसीलिए उन्होंने अधिक कुछ नहीं कहा.

दूसरे दिन सुधीर लौट आया था. रश्मि ने मां की बीमारी के बारे में ज्यादा पूछताछ नहीं की थी.

अगली सुबह वह अभी दफ्तर पहुंचा ही था कि रश्मि का फोन आ गया, ‘‘आज घर में पार्टी है, नौकर नहीं आया है, तुम दफ्तर के किसी आदमी को थोड़ी देर के लिए भेज दो.’’

सुधीर कुढ़ गया, पर कुछ सोचते हुए बेरुखी से बोला, ‘‘ठीक है, भेज दूंगा.’’

शाम को वह घर पहुंचा. सोचा था कि थोड़ी देर आराम करेगा और कौफी पी कर थकान मिटाएगा. वह रश्मि के पास पहुंचा. वह लेटी हुई पुस्तक पढ़ रही थी.

सुधीर को देख कर बोली, ‘‘आज मैं तो बहुत थक गई. नौकर भी नहीं आया. अब तो उठा भी नहीं जा रहा है. पर किटी पार्टी बहुत अच्छी रही. रमी में बारबार हारती ही रही, इसलिए थोड़ा जी खट्टा हो गया. आज तो रात का खाना बाहर ही खाना पड़ेगा.’’

रश्मि की बातें सुन सुधीर की कौफी पीने की इच्छा मर गई. वह पलंग पर लेट गया और सोचने लगा, ‘रश्मि का समय या तो घूमने में व्यतीत होता है या सखियों के साथ ताश खेलने में. घर के कामों में तो उस का मन ही नहीं लगता है, इसीलिए मोटी और भद्दी होती जा रही है. जब कभी मैं राय देता हूं कि घर के कामों में मन नहीं लगता है तो मत करो, लेकिन घूमने या रमी खेलने के बजाय कुछ रचनात्मक कार्य करो तो चिढ़ उठती है.’

सोचतेसोचते सुधीर सो गया. 9 बजे रश्मि ने जगाया, ‘‘चलिए, किसी होटल में खाना खाते हैं.’’

न चाहते हुए भी सुधीर को उस के साथ जाना पड़ा.

सुबह सुधीर दफ्तर जाने लगा तो रश्मि बोल उठी, ‘‘दफ्तर पहुंच कर ड्राइवर से कहिएगा कि कार घर ले आए. कुछ खरीदारी करनी है.’’

‘‘कल ही तो इतना सामान खरीद कर लाई हो, आज फिर कौन सी ऐसी जरूरत पड़ गई. अपने दोनों बच्चे मसूरी में पढ़ रहे हैं. उन का खर्चा भी है. इस तरह तो तनख्वाह में गुजारा होना मुश्किल है. ऊपरी आमदनी भी कम है, लोग पैसा देते हैं तो 10 काम भी निकालते हैं.’’

सुनते ही रश्मि के माथे पर बल पड़ गए, ‘‘बड़े भैया भी इसी पद पर हैं लेकिन उन की सुबह तो तोहफों से शुरू होती है और रात नोट गिनते हुए व्यतीत होती है. वह तो कभी टोकाटाकी नहीं करते.’’

‘‘आजकल जमाना खराब है, बहुत सोचसमझ कर कदम बढ़ाना पड़ता है. अगर कहीं छानबीन हो गई तो सारी इज्जत खाक में मिल जाएगी,’’ सुधीर बोला.

रश्मि रोंआसी हो गई, ‘‘कार क्या मांगी, पचास बातें सुननी पड़ीं.’’

सुधीर रश्मि के आंसू नहीं देख सकता था. माफी मांग कर उस के आंसू पोंछने के लिए रूमाल निकाला तो जेब से एक कार्ड गिर पड़ा.

कार्ड देख कर विनय का ध्यान आ गया, ‘‘मेरे कालेज के दिनों का मित्र इसी शहर में रह रहा है, मुझे पता ही नहीं चला. अब किसी दिन उस के घर चलेंगे.’’

रश्मि को गाड़ी भेजने का वादा कर के ही वह दफ्तर जा पाया. दफ्तर से विनय को फोन किया. दूसरे दिन छुट्टी थी. विनय ने दोनों को खाने पर आने का न्योता दे दिया.

दूसरे दिन सुधीर और रश्मि गाड़ी से विनय के घर की ओर चल पड़े. आलीशान कोठी के गेट पर दरबान पहरा दे रहा था. पोर्टिको में विदेशी गाड़ी खड़ी थी. लौन में बैठा विनय उन का इंतजार कर रहा था. उस ने मित्र को गले लगा लिया. फिर रश्मि को ‘नमस्ते’ कह कर उन्हें बैठक में ले गया.

सुधीर ने देखा कि बैठक विदेशी और कीमती सामानों से सजी हुई है. सभी सोफे पर बैठ गए. नौकर ठंडा पानी ले कर आया. रश्मि ने इधरउधर देख कर पूछा, ‘‘भाभीजी दिखाई नहीं दे रही हैं?’’

‘‘जरूरी काम पड़ गया था इसलिए फैक्टरी जाना पड़ा. आती ही होंगी,’’ विनय ने उत्तर दिया.

थोड़ी देर बाद क्षमा आती हुई दिखाई दी.

सुधीर ने देखा, इकहरे शरीर व सांवले रंगरूप वाली क्षमा सीधी चोटी और कायदे से बंधी साड़ी में भली और शालीन लग रही थी.

मेहमानों को अभिवादन कर के वह बैठ गई.

सुधीर को लगा कि इसे कहीं देखा है, पर याद नहीं आया. वह सोच रहा था, ‘रश्मि इस से सुंदर है, पर मोटापे के कारण कितनी भद्दी लग रही है.’

तभी 2 बच्चों की ‘नमस्ते’ से उस का ध्यान टूटा. दोनों बच्चे मां के पास बैठ गए थे. सुधीर ने देखा, बच्चे भी मांबाप के प्रतिरूप हैं. शीघ्र ही मां से खेलने जाने की आज्ञा मांगी तो क्षमा ने कहा, ‘‘जाओ, खेल आओ, परंतु खाने के समय आ जाना.’’

फिर वह रश्मि से बोली, ‘‘आप बच्चों को क्यों नहीं लाईं?’’

रश्मि के चेहरे पर गर्वीली मुसकान छा गई. कटे हुए बालों को झटक कर कहा, ‘‘दोनों बच्चे मसूरी में पढ़ते हैं, घर में ठीक से पढ़ाई नहीं हो पाती है.’’

क्षमा ने बच्चों को स्नेह से देखा, जो बाहर खेलने जा रहे थे, ‘‘मैं तो इन के बिना रह ही नहीं सकती.’’

विनय और सुधीर अपने कालेज के दिनों की बातें कर रहे थे, जैसे कई साल पीछे पहुंच गए हों.

क्षमा को देख कर विनय बोला, ‘‘यह तो हमेशा पढ़ाई में लगा रहता था, लेकिन मैं खेलने में मस्त रहता था. परीक्षा के दिनों में यह मेरे पीछे पड़ा रहता कि किसी तरह से कुछ याद कर लूं. तब मैं इस का मजाक उड़ाता था. आज यह अपनी मेहनत और लगन से ही उच्च ओहदे पर पहुंचा है.’’

सुधीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘भाभीजी, झगड़ा यह करता था, निबटाने मैं पहुंचता था.’’

दोनों दोस्त बातों में मगन थे कि फोन की घंटी बजी. विनय कुछ देर बात करने के बाद पत्नी से बोला, ‘‘बाहर से कुछ लोग आए हैं, वे व्यापार के सिलसिले में हम से बात करना चाहते हैं. तुम्हारे पास कब समय है? वही समय उन्हें बता दूं. जरूरी मीटिंग है, हम दोनों को जाना होगा.’’

क्षमा ने घड़ी देख कर कहा, ‘‘कल की मीटिंग रख लीजिए, मैं फैक्टरी पहुंच जाऊंगी.’’

देखने में साधारण व घरेलू लगने वाली महिला क्या मीटिंग में बोल पाएगी? कैसे व्यापार संबंधी बातचीत करती होगी? सुधीर क्षमा को ताज्जुब से देख रहा था.

उस की शंका का समाधान विनय ने किया, ‘‘क्षमा बहुत होशियार हैं, कुशाग्रबुद्धि और मेहनती हैं. इन्हीं की असाधारण प्रतिभा और मेहनत के कारण ही छोटी सी दुकान से शुरू कर के आज हम फैक्टरी के मालिक बन गए हैं.’’

क्षमा ने बातों का रुख बदलते हुए कहा, ‘‘चलिए, खाना लग गया है.’’

सभी भोजनकक्ष में आ गए तो क्षमा ने बच्चों को भी बुला लिया. खाने की मेज पर कुछ भारतीय तो कुछ विदेशी व्यंजन दिखाई दे रहे थे.

रश्मि ने कहा, ‘‘आप को तो घर का काम देखने की फुरसत ही नहीं मिलती होगी क्योंकि फैक्टरी में जो व्यस्त रहती हैं.’’

विनय ने पत्नी की ओर प्रशंसाभरी नजरों से देखते हुए कहा, ‘‘यही तो इन की खूबी है, खाना अपने तरीके से बनवाती हैं. जिस दिन ये रसोई में नहीं जातीं तो बच्चों का और मेरा पेट ही नहीं भरता.’’

बच्चे खाना खा कर अपने कमरे में जा चुके थे. उन के हंसनेबोलने की आवाजें आ रही थीं. सारा माहौल अत्यंत खुशनुमा प्रतीत हो रहा था, जबकि सुधीर को अपना सूना घर कभीकभी अखर जाता था. वह तो चाहता था कि बच्चे घर पर ही पढ़ें. पर इस से रश्मि की आजादी में खलल पड़ता था. दूसरे, जिस तरह का जीवन रश्मि जी रही थी, उस माहौल में बच्चे पढ़ ही नहीं सकते थे. इसीलिए उन्हें मसूरी भेज दिया था.

जाड़ों की धूप का अलग ही आनंद होता है. खाना खा कर सभी धूप में बैठ कर गपशप करने लगे. गरमागरम कौफी भी आ गई. विनय ने पूछा, ‘‘मां कैसी हैं? मुझे तो उन्होंने बहुत प्यार दिया है.’’

‘‘वे रुड़की से आना ही नहीं चाहतीं. हम लोग तो बहुत चाहते हैं कि वे यहीं रहें,’’ सुधीर ने उदास स्वर में उत्तर दिया.

विनय ने बताया, ‘‘क्षमा का मायका भी रुड़की में ही है. इस तरह तो तू उस का भाई हुआ और मेरा साला भी बन गया. दोस्त और साला यानी पक्का रिश्ता हो गया.’’

विनय हंसा तो साथ में सभी हंस पड़े. अब सुधीर को सारी कहानी समझ में आ गई थी कि क्षमा को कहां और कब देखा था? उस की पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी. मनमाफिक नौकरी मिल चुकी थी. दिलोदिमाग पर अफसरी की शान छाई थी. शादी के लिए हर तरह के रिश्ते आ रहे थे. लेकिन उस के दिमाग में ऐसी लड़की की तसवीर बन गई थी जो जिंदगी की गाड़ी तेजी से दौड़ा सके, जिस की रफ्तार धीमी न हो.

मां ने क्षमा की फोटो दिखाई थी. एक दिन वह उस को देखने उस के घर जा पहुंचा था. साधारण वेशभूषा में दुबलीपतली सांवले रंगरूप वाली क्षमा ने आ कर नमस्कार किया था.

तब सुधीर ने सोचा कि अगर इस साधारण सी लड़की से शादी की तो जिंदगी में कुछ चमकदमक नहीं होगी और न ही कोई नवीनता, वही पुरानी घिसीपिटी धीमी गति से गाड़ी हिचकोले खाती रहेगी.

उस का ध्यान दीनानाथ की बातों से टूटा था, ‘क्षमा बहुत कुशाग्रबुद्धि है, हमेशा प्रथम आई है. खाना तो बहुत ही अच्छा बनाती है. यह गुलाबजामुन इसी के बनाए हुए हैं.’

सुधीर यह कह कर लौट आया था कि मां से सलाह कर के जवाब देगा. रश्मि सुधीर के एक मित्र की बहन थी. जब वह आधुनिक पोशाक में उस के सामने आई तो सौंदर्य के साथसाथ उस की शोखी और चपलता भी सुधीर को भा गई.

उस ने सोचा, ‘यही लड़की मेरे लिए ठीक रहेगी. कहां क्षमा जैसी सीधीसादी लड़की और कहां यह तेजतर्रार आधुनिका…दोनों की कोई तुलना नहीं.’

सुधीर ने मां को फैसला सुना दिया और रश्मि उस की सहचरी बन गई.

अब उसे लग रहा था कि वास्तव में क्षमा की रफ्तार ही तेज है. रश्मि तो फिसड्डी और घिसीपिटी निकली, जिस में न कुछ करने की उमंग है, न लगन.

Hate Story : एक बेवफा थी

श्रेया से गौतम की मुलाकात सब से पहले कालेज में हुई थी. जिस दिन वह कालेज में दाखिला लेने गया था, उसी दिन वह भी दाखिला लेने आई थी.

वह जितनी सुंदर थी उस से कहीं अधिक स्मार्ट थी. पहली नजर में ही गौतम ने उसे अपना दिल दे दिया था.

गौतम टौपर था. इस के अलावा क्रिकेट भी अच्छा खेलता था. बड़ेबड़े क्लबों के साथ खेल चुका था. उस के व्यक्तित्व से कालेज की कई लड़कियां प्रभावित थीं. कुछ ने तो खुल कर मोहब्बत का इजहार तक कर दिया था.

उस ने किसी का भी प्यार स्वीकार नहीं किया था. करता भी कैसे? श्रेया जो उस के दिल में बसी हुई थी.

श्रेया भी उस से प्रभावित थी. सो, उस ने बगैर देर किए उस से ‘आई लव यू’ कह दिया.

वह कोलकाता के नामजद अमीर परिवार से थी. उस के पिता और भाई राजनीति में थे. उन के कई बिजनैस थे. दौलत की कोई कमी न थी.

गौतम के पिता पंसारी की दुकान चलाते थे. संपत्ति के नाम पर सिर्फ दुकान थी. जिस मकान में रहते थे, वह किराए का था. उन की एक बेटी भी थी. वह गौतम से छोटी थी.

अपनी हैसियत जानते हुए भी गौतम, श्रेया के साथ उस के ही रुपए पर उड़ान भरने लगा था. उस से विवाह करने का ख्वाब देखने लगा था.

कालांतर में दोनों ने आधुनिक रीति से तनमन से प्रेम प्रदर्शन किया. सैरसपाटे, मूवी, होटल कुछ भी उन से नहीं छूटा. मर्यादा की सारी सीमा बेहिचक लांघ गए थे.

2 वर्ष बीत गए तो गौतम ने महसूस किया कि श्रेया उस से दूर होती जा रही है. वह कालेज के ही दूसरे लड़के के साथ घूमने लगी थी. उसे बात करने का भी मौका नहीं देती थी.

बड़ी मुश्किल से एक दिन मौका मिला तो उस से कहा, ‘‘मुझे छोड़ कर गैरों के साथ क्यों घूमती हो? मुझ से शादी करने का इरादा नहीं है क्या?’’

श्रेया ने तपाक से जवाब दिया, ‘‘कभी कहा था कि तुम से शादी करूंगी?’’

वह तिलमिला गया. किसी तरह गुस्से को काबू में कर के बोला, ‘‘कहा तो नहीं था पर खुद सोचो कि हम दोनों में पतिपत्नी वाला रिश्ता बन चुका है तो शादी क्यों नहीं कर सकते हैं?’’

‘‘मैं ऐसा नहीं मानती कि किसी के साथ पतिपत्नी वाला रिश्ता बन जाए तो उसी से विवाह करना चाहिए.

‘‘मेरा मानना है कि संबंध किसी से भी बनाया जा सकता है, पर शादी अपने से बराबर वाले से ही करनी चाहिए. शादी में दोनों परिवारों के आर्थिक व सामाजिक रुतबे पर ध्यान देना अनिवार्य होता है.

‘‘तुम्हारे पास यह सब नहीं है. इसलिए शादी नहीं कर सकती. तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि अब मेरा पीछा करना बंद कर दो, नहीं तो अंजाम बुरा होगा.’’

श्रेया की बात गौतम को शूल की तरह चुभी. लेकिन उस ने समझदारी से काम लेते हुए उसे समझने की कोशिश की पर वह नहीं मानी.

आखिरकार, उसे लगा कि श्रेया किसी के बहकावे में आ कर रिश्ता तोड़ना चाहती है. उस ने सोचा, ‘उस के घर वालों को सचाई बता दूंगा तो सब ठीक हो जाएगा. परिजनों के कहने पर उसे मुझसे विवाह करना ही होगा.’

एक दिन वह श्रेया के घर गया. उस के पिता व भाई को अपने और उस के बारे में सबकुछ बताया.

श्रेया अपने कमरे में थी. भाई ने बुलाया. वह आई. भाई ने गौतम की तरफ इंगित कर उस से पूछा, ‘‘इसे पहचानती हो?’’

श्रेया सबकुछ समझ गई. झट से अपने बचाव का रास्ता भी ढूंढ़ लिया. बगैर घबराए कहा, ‘‘यह मेरे कालेज में पढ़ता है. इसे मैं जरा भी पसंद नहीं करती. किंतु यह मेरे पीछे पड़ा रहता है. कहता है कि मुझ से शादी नहीं करोगी तो इस तरह बदनाम कर दूंगा कि मजबूर हो कर शादी करनी ही पड़ेगी.’’

वह कहता रहा कि श्रेया झठ बोल रही है परंतु उस के भाई और पिता ने एक न सुनी. नौकरों से उस की इतनी पिटाई कराई कि अधमरा हो गया. पैरों की हड्डियां टूट गईं.

किसी पर किसी तरह का इलजाम न आए, इसलिए गौतम को अस्पताल में दाखिल करा दिया गया.

थाने में श्रेया द्वारा यह रिपोर्ट लिखा दी गई, ‘घर में अकेली थी. अचानक गौतम आया और मेरा रेप करने की कोशिश की. उसी समय घर के नौकर आ गए. उस की पिटाई कर मुझे बचा लिया.’

थाने से खबर पाते ही गौतम के पिता अस्पताल आ गए. गौतम को होश आया तो सारा सच बता दिया.

सिर पीटने के सिवा उस के पिता कर ही क्या सकते थे. श्रेया के परिवार से भिड़ने की हिम्मत नहीं थी.

उन्होंने गौतम को समझाया, ‘‘जो हुआ उसे भूल जाओ. अस्पताल से वापस आ कर पढ़ाई पर ध्यान लगाना. कोशिश करूंगा कि तुम पर जो मामला है, वापस ले लिया जाए.’’

 

अस्पताल में गौतम को 5 माह रहना पड़ा. वे 5 माह 5 युगों से भी लंबे थे. कैलेंडर की तारीखें एकएक कर के उस के सपनों के टूटने का पैगाम लाती रही थीं.

उसे कालेज से निकाल दिया गया तो दोस्तों ने भी किनारा कर लिया. महल्ले में भी वह बुरी तरह बदनाम हो चुका था. कोई उसे देखना नहीं चाहता था.

श्रेया के आरोप पर किसी को विश्वास नहीं हुआ तो वह थी इषिता. वह उसी कालेज में पढ़ती थी और गौतम की दोस्त थी. वह अस्पताल में उस से मिलने बराबर आती रही. उसे हर तरह से हौसला देती रही.

गौतम घर आ गया तो भी इषिता उस से मिलने घर आती रही. शरीर के घाव तो कुछ दिनों में भर गए पर आत्मसम्मान के कुचले जाने से उस का आत्मविश्वास टूट चुका था.

मन और आत्मविश्वास के घावों पर कोई औषधि काम नहीं कर रही थी. गौतम ने फैसला किया कि अब आगे नहीं पढ़ेगा.

परिजनों तथा शुभचिंतकों ने बहुत सम?ाया लेकिन वह फैसले से टस से मस नहीं हुआ.

इस मामले में उस ने इषिता की भी नहीं सुनी. इषिता ने कहा था, ‘‘ पढ़ना नहीं चाहते हो तो कोई बात नहीं. क्रिकेट में ही कैरियर बनाओ.’’

‘‘मेरा आत्मविश्वास टूट चुका है. कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो,’’ उस ने दोटूक जवाब दिया था.

वह दिनभर चुपचाप घर में पड़ा रहता था. घर के लोगों से भी ठीक से बात नहीं करता था. किसी रिश्तेदार या दोस्त के घर भी नहीं जाता था. हर समय चिंता में डूबा रहता.

पहले छुट्टियों में पिता की दुकान संभालता था. अब पिता के कहने पर भी दुकान पर नहीं जाता था. उसे लगता था कि दुकान पर जाएगा तो महल्ले की लड़कियां उस पर छींटाकशी करेंगी तो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगा.

इसी तरह घटना को 2 वर्ष बीत गए. इषिता ने ग्रैजुएशन कर ली. जौब की तलाश की, तो वह भी मिल गई. बैक में जौब मिली थी. पोस्टिंग मालदह में हुई थी.

जाते समय इषिता ने उस से कहा, कोलकाता से जाने की इच्छा तो नहीं है पर सवाल जिंदगी का है. जौब तो करनी ही पड़ेगी, पर 6-7 महीने में ट्रांसफर करा कर आ जाऊंगी. विश्वास है कि तब तक श्रेया को दिल से निकाल फेंकने में सफल हो जाओगे.

इषिता मालदह चली गई तो गौतम पहले से अधिक अवसाद में आ गया. तब उस के मातापिता ने उस की शादी करने का विचार किया.

मौका देख कर मां ने उस से कहा, ‘‘जानती हूं कि इषिता सिर्फ तुम्हारी दोस्त है. इस के बावजूद यह जानना चाहती हूं कि यदि वह तुम्हें पसंद है तो बोलो, उस से शादी की बात करूं?’’

‘‘वह सिर्फ मेरी दोस्त है. हमेशा दोस्त ही रहेगी. रही शादी की बात, तो कभी किसी से भी शादी नहीं करूंगा. यदि किसी ने मुझ पर दबाव डाला तो घर छोड़ कर चला जाऊंगा.’’

गौतम ने अपना फैसला बता दिया तो मां और पापा ने उस से फिर कभी शादी के लिए नहीं कहा. उसे उस के हाल पर छोड़ दिया.

लेकिन एक दोस्त ने उसे समझाते हुए कहा, ‘‘श्रेया से तुम्हारी शादी नहीं हो सकती, यह अच्छी तरह जानते हो. फिर जिंदगी बरबाद क्यों कर रहे हो? किसी से विवाह कर लोगे तो पत्नी का प्यार पा कर अवश्य ही उसे भूल जाओगे.’’

‘‘जानता हूं कि तुम मेरे अच्छे दोस्त हो. इसलिए मेरे भविष्य की चिंता है. परंतु सचाई यह है कि श्रेया को भूल पाना मेरे वश की बात नहीं है.’’

दोस्त ने तरहतरह से समझाया. पर वह किसी से भी शादी करने के लिए राजी नहीं हुआ.

इषिता गौतम को सप्ताह में 2-3 दिन फोन अवश्य करती थी. वह उसे बताता था कि जल्दी ही श्रेया को भूल जाऊंगा. जबकि हकीकत कुछ और ही थी.

हकीकत यह थी कि इषिता के जाने के बाद उस ने कई बार श्रेया को फोन लगाया था. पर लगा नहीं था. घटना के बाद शायद उस ने अपना नंबर बदल लिया था.

न जाने क्यों उस से मिलने के लिए वह बहुत बेचैन था. समझ नहीं पा रहा था कि कैसे मिले. अंजाम की परवा किए बिना उस के घर जा कर मिलने को वह सोचने लगा था.

तभी एक दिन श्रेया का ही फोन आ गया. बहुत देर तक विश्वास नहीं हुआ कि उस का फोन है.

विश्वास हुआ, तो पूछा, ‘‘कैसी हो?’’

‘‘तुम से मिल कर अपना हाल बताना चाहती हूं. आज शाम के 7 बजे साल्ट लेक मौल में आ सकते हो?’’ उधर से श्रेया ने कहा.

खुशी से लबालब हो कर गौतम समय से पहले ही मौल पहुंच गया. श्रेया समय पर आई. वह पहले से अधिक सुंदर दिखाई पड़ रही थी.

उस ने पूछा, ‘‘मेरी याद कभी आई थी?’’

‘‘तुम दिल से गई ही कब थीं जो याद आतीं. तुम तो मेरी धड़कन हो. कई बार फोन किया था, लगा नहीं था. लगता भी कैसे, तुम ने नंबर जो बदल लिया था.’’

उस का हाथ अपने हाथ में ले कर श्रेया बोली, ‘‘पहले तो उस दिन की घटना के लिए माफी चाहती हूं. मुझे इस का अनुमान नहीं था कि मेरे झठ को पापा और भैया सच मान कर तुम्हारी पिटाई करा देंगे.

‘‘फिर कोई लफड़ा न हो जाए, इस डर से पापा ने मेरा मोबाइल ले लिया. अकेले घर से बाहर जाना बंद कर दिया गया.

‘‘मुंबई से तुम्हें फोन करने की कोशिश की, परंतु तुम्हारा नंबर याद नहीं आया. याद आता तो कैसे? घटना के कारण सदमे में जो थी. उन्होंने सोर्ससिफारिश की तो श्रेया के पिता ने मामला वापस ले लिया.

‘‘फिलहाल वहां ग्रैजुएशन करने के बाद 3 महीने पहले ही आई हूं. बहुत कोशिश करने पर तुम्हारे एक दोस्त से तुम्हारा नंबर मिला, तो तुम्हें फोन किया. मेरी सगाई हो गई है. 3 महीने बाद शादी हो जाएगी.

‘‘यह कहने के लिए बुलाया है कि जो होना था वह हो गया. अब मुद्दे की बात करते हैं. सचाई यह है कि हम अब भी एकदूसरे को चाहते हैं. तुम मेरे लिए बेताब हो, मैं तुम्हारे लिए.

‘‘इसलिए शादी होेने तक हम रिश्ता बनाए रख सकते हैं. चाहोगे तो शादी के बाद भी मौका पा कर तुम से मिलती रहूंगी. ससुराल कोलकाता में ही है. इसलिए मिलनेजुलने में कोई परेशानी नहीं होगी.’’

श्रेया का चरित्र देख कर गौतम को इतना गुस्सा आया कि उस का कत्ल कर फांसी पर चढ़ जाने का मन हुआ. लेकिन ऐसा करना उस के वश में नहीं था. क्योंकि वह उसे अथाह प्यार करता था. उसे लगता था कि श्रेया को कुछ हो गया तो वह जीवित नहीं रह पाएगा.

उसे सम?ाते हुए उस ने कहा, ‘‘मुझे इतना प्यार करती हो तो शादी मुझ से क्यों नहीं कर लेतीं?’’

‘‘इस जमाने में शादी की जिद पकड़ कर क्यों बैठे हो? वह जमाना पीछे छूट गया जब प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी एकदूसरे से कहते थे कि जिंदगी तुम से शुरू, तुम पर ही खत्म है.

‘‘अब तो ऐसा चल रहा है कि जब तक साथ निभे, निभाओ, नहीं तो अपनेअपने रास्ते चले जाओ. तुम खुद ही बोलो, मैं क्या कुछ गलत कह रही हूं? क्या आजकल ऐसा नहीं हो रहा है?

‘‘दरअसल, मैं सिर्फ कपड़ों से ही नहीं, विचारों से भी आधुनिक हूं. जमाने के साथ चलने में विश्वास रखती हूं. मैं चाहती हूं कि तुम भी जमाने के साथ चलो. जो मिल रहा है उस का भरपूर उपभोग करो. फिर अपने रास्ते चलते बनो.’’

श्रेया जैसे ही चुप हुई, गौतम ने कहा, ‘‘लगा था कि तुम्हें गलती का अहसास हो गया है. मु?ा से माफी मांगना चाहती हो. पर देख रहा हूं कि आधुनिकता के नाम पर तुम सिर से पैर तक कीचड़ से इस तरह सन चुकी हो कि जिस्म से बदबू आने लगी है.

‘‘यह सच है कि तुम्हें अब भी अथाह प्यार करता हूं. इसलिए तुम्हें भूल जाना मेरे वश की बात नहीं है. लेकिन अब तुम मेरे दिल में शूल बन कर रहोगी, प्यार बन कर नहीं.’’

श्रेया ने गौतम को अपने रंग में रंगने की पूरी कोशिश की, परंतु उस की एक दलील भी उस ने नहीं मानी.

उस दिन से गौतम पहले से भी अधिक गमगीन हो गया.

इस तरह कुछ दिन और बीत गए. अचानक इषिता ने फोन पर बताया कि उस ने कोलकाता में ट्रांसफर करा लिया है. 3-4 दिनों में आ जाएगी.

3 दिनों बाद इषिता आ भी गई. गौतम के घर गई तो वह गहरी सोच में था.

उस ने आवाज दी. पर उस की तंद्रा भंग नहीं हुई. तब उसे झंझोड़ा और कहा, ‘‘किस सोच में डूबे हुए हो?’’

‘‘श्रेया की यादों से अपनेआप को मुक्त नहीं कर पा रहा हूं,’’ गौतम ने सच बता दिया.

इषिता गुस्से से उफन उठी, ‘‘इतना सबकुछ होने के बाद भी उसे याद करते हो? सचमुच तुम पागल हो गए हो?’’

‘‘तुम ने कभी किसी को प्यार नहीं किया है इषिता, मेरा दर्द कैसे समझ सकती हो.’’

‘‘कुछ घाव किसी को दिखते नहीं. इस का मतलब यह नहीं कि उस शख्स ने चोट नहीं खाई होगी,’’ इषिता ने कहा.

गौतम ने इषिता को देखा तो पाया कि उस की आंखें नम थीं. उस ने कहा, ‘‘तुम्हारी आंखों में आंसू हैं. इस का मतलब यह है कि तुम ने भी प्यार में धोखा खाया है?’’

‘‘इसे तुम धोखा नहीं कह सकते. जिसे मैं प्यार करती थी उसे पता नहीं था.’’

‘‘यानी वन साइड लव था?’’

‘‘कुछ ऐसा ही समझो.’’

‘‘लड़का कौन था. निश्चय ही वह कालेज का रहा होगा?’’

इषिता उसे उलझन में नहीं रखना चाहती थी, रहस्य पर से परदा हटाते हुए कह दिया, ‘‘वह कोई और नहीं, तुम हो.’’

गौतम ने चौंक कर उसे देखा तो वह बोली, ‘‘कालेज में पहली बार जिस दिन तुम से मिली थी उसी दिन तुम मेरे दिल में घर कर गए थे. दिल का हाल बताती, उस से पहले पता चला कि तुम श्रेया के दीवाने हो. फिर चुप रह जाने के सिवा मेरे पास रास्ता नहीं था.

‘‘जानती थी कि श्रेया अच्छी लड़की नहीं है. तुम से दिल भर जाएगा, तो झट से किसी दूसरे का दामन थाम लेगी. आगाह करती, तो तुम्हें लगता कि अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए उस पर इलजाम लगा रही हूं. इसलिए तुम से दोस्ती कर ली पर दिल का हाल कभी नहीं बताया.

‘‘श्रेया के साथ तुम्हारा सबकुछ खत्म हो गया, तो सोचा कि मौका देख कर अपनी मोहब्बत का इजहार करूंगी और तुम से शादी कर लूंगी. पर देख रही हूं कि आज भी तुम्हारे दिल में वह ही है.’’

दोनों के बीच कुछ देर तक खामोशी पसर गई. गौतम ने ही थोड़ी देर बार खामोशी दूर की, ‘‘उसे दिल से निकाल नहीं पा रहा हूं, इसीलिए कभी शादी न करने का फैसला किया है.’’

‘‘तुम्हें पाने के लिए मैं ने जो तपस्या की है उस का फल मुझे नहीं दोगे?’’ इषिता का स्वर वेदना से कांपने लगा था. आंखें भी डबडबा आई थीं.

‘‘मुझे माफ कर दो इषिता. तुम बहुत अच्छी लड़की हो. तुम से विवाह करता तो मेरा जीवन सफल हो जाता. पर मैं दिल के हाथों मजबूर हूं. किसी से भी शादी नहीं

कर सकता.’’

इषिता चली गई. उस की आंखों में उमड़ा वेदना का समंदर देख कर भी वह उसे रोक नहीं पाया. वह उसे कैसे समझाता कि श्रेया ने उस के साथ जो कुछ भी किया है, उस से समस्त औरत जाति से उसे नफरत हो गई है.

3 दिन बीत गए. इषिता ने न फोन किया न आई. गौतम सोचने लगा, ‘कहीं नाराज हो कर उस ने दोस्ती तोड़ने का मन तो नहीं बना लिया है?’

उसे फोन करने को सोच ही रहा था कि अचानक उस के मोबाइल की घंटी बज उठी. उस समय शाम के 6 बज रहे थे. फोन किसी अनजान का था.

उस ने ‘‘हैलो’’ कहा तो उधर से किसी ने कहा, ‘‘इषिता का पापा बोल रहा हूं. तुम से मिलना चाहता हूं. क्या हमारी मुलाकात हो सकती है?’’

उस ने ?ाट से कहा, ‘‘क्यों नहीं अंकल. कहिए, कहां आ जाऊं?’’

‘‘तुम्हें आने की जरूरत नहीं है बेटे. 7 बजे तक मैं ही तुम्हारे घर आ जाता हूं.’’

इषिता उसे 3-4 बार अपने घर ले गई थी. वह उस के मातापिता से मिल चुका था.

उस के पिता रेलवे में उच्च पद पर थे. बहुत सुलझे हुए इंसान थे. वह उन की इकलौती संतान थी. मां कालेज में अध्यापिका थीं. बहुत समझदार थीं. कभी भी उस के और इषिता के रिश्ते पर शक नहीं किया था.

इषिता के पापा समय से पहले ही आ गए. गौतम के साथसाथ उस की मां और बहन ने भी उन का भरपूर स्वागत किया.

उन्होंने मुद्दे पर आने में बहुत देर नहीं लगाई. पर उन चंद लमहों में ही अपने शालीन व्यक्तित्व की खुशबू से पूरे घर को महका दिया था. इतनी आत्मीयता उड़ेल दी थी वातावरण में कि उसे लगने लगा कि उन से जनमजनम का रिश्ता है.

कुछ देर बाद इषिता के पापा को गौतम के साथ कमरे में छोड़ कर मां और बहन चली गईं तो उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, इषिता तुम्हें प्यार करती है और शादी करना चाहती है. उस ने श्रेया के बारे में भी सबकुछ बता दिया है.

‘‘श्रेया से तुम्हारा रिश्ता टूट चुका है तो इषिता से शादी क्यों नहीं करना चाहते? वैसे तो बिना कारण भी कोई किसी को नापसंद कर सकता है. यदि तुम्हारे पास इषिता से विवाह न करने का कारण है तो बताओ. मिलबैठ कर कारण को दूर करने की कोशिश करें.’’

उसे लगा जैसे अचानक उस के मन में कोई बड़ी सी शिला पिघलने लगी है. उस ने मन की बात बता देना ही उचित समझा.

‘‘इषिता में कोई कमी नहीं है अंकल. उस से जो भी शादी करेगा उस का जीवन सार्थक हो जाएगा. कमी मुझ में है. श्रेया से धोखा खाने के बाद लड़कियों से मेरा विश्वास उठ गया है.

‘‘लगता है कि जिस से भी शादी करूंगा वह भी मेरे साथ बेवफाई करेगी. ऐसा भी लगता है कि श्रेया को कभी भूल नहीं पाऊंगा और पत्नी को प्यार नहीं कर पाऊंगा,’’ गौतम ने दिल की बात रखते हुए बताया.

‘‘इतनी सी बात के लिए परेशान हो? तुम मेरी परवरिश पर विश्वास रखो बेटा. तुम्हारी पत्नी बन कर इषिता तुम्हें इतना प्यार करेगी कि तुम्हारे मन में लड़कियों के प्रति जो गांठ पड़ गई है वह स्वयं खुल जाएगी.’’

वे बिना रुके कहते रहे, ‘‘प्यार या शादी के रिश्ते में मिलने वाली बेवफाई से हर इंसान दुखी होता है, पर यह दुख इतना बड़ा भी नहीं है कि जिंदगी एकदम से थम जाए.

‘‘किसी एक औरतमर्द या लड़कालड़की से धोखा खाने के बाद दुनिया के तमाम औरतमर्द या लड़केलड़की को एकजैसा सम?ाना सही नहीं है.

‘‘यह जीवन का सब से बड़ा सच है कि कोई भी रिश्ता जिंदगी से बड़ा नहीं होता. यह भी सच है कि हर प्रेम संबंध का अंजाम शादी नहीं होता.

‘‘जीवन में हर किसी को अपना रास्ता चुनने का अधिकार है. यह अलग बात है कि कोई सही रास्ता चुनता है कोई गलत.

‘‘श्रेया के मन में गलत विचार भरे पड़े थे. इसलिए चंद कदम तुम्हारे साथ चल कर अपना रास्ता बदल लिया. अब तुम भी उसे भूल कर जीने की सही राह पर आ जाओ. गिरते सब हैं पर जो उठ कर तुरंत अपनेआप को संभाल लेता है, सही माने में वही साहसी है.’’

थोड़ी देर बाद इषिता के पापा चले गए. गौतम ने मंत्रमुग्ध हो कर उन की बातें सुनी थीं.

श्रेया के कारण लड़कियों के प्रति मन में जो गांठ पड़ गई थी वह खुल गई.

अब देर करना उस ने मुनासिब नहीं समझा. इषिता के पापा को फोन किया, ‘‘अंकल, कल अपने घर वालों के साथ इषिता का हाथ मांगने आप के घर आना चाहता हूं.’’

उधर से इषिता के पापा ने कहा, ‘‘वैलकम बेटे. देर आए दुरुस्त आए. अब तुम्हें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. तुम ने अपने भीतर के डर पर विजय जो प्राप्त कर ली है.’’

Romantic Hindi Story : दिल के करीब

‘‘आ ओ, तुम यहां बैठ जाओ,’’ समीर ने प्रीति को अपने बगल में खड़ा देखा तो अपनी सीट से उठते हुए कहा.

‘‘नहीं, तुम बैठो, मुझे अगले स्टैंड पर उतरना है.’’

‘‘तुम बैठो, तुम्हें खड़ा होने में तकलीफ हो रही है,’’ उस ने फिर आग्रह किया तो प्रीति उस की सीट पर बैठ गई.

बस में खचाखच भीड़ थी. तिल भर भी पैर रखने की जगह नहीं थी. प्रीति का एक पैर जन्मजात खराब था. इसलिए थोड़ा लंगड़ा कर चलती थी. नीलम ठीक उस के पीछे खड़ी थी. मुसकराती हुई बोली, ‘‘चलो तुम्हारी तकलीफ समझाने वाला कोई तो मिला.’’

अगले स्टैंड पर दोनों सहेलियां उतर गईं. समीर भी उन के पीछेपीछे उतरा.

‘‘तुम्हारी सहेली के साथ मैं ने अन्याय किया,’’ वह प्रीति को देखते हुए मुसकरा कर बोला, ‘‘लेकिन क्या करूं, सीट एक थी और तुम दो.’’

‘‘कोई बात नहीं, अगली बार तुम मुझे लिफ्ट दे देना,’’ नीलम भी मुसकराते हुए बोली तो समीर ने पूछा, ‘‘वैसे, तुम दोनों यहां कहां रहती हो?’’

‘‘बगल में ही, गौरव गर्ल्स होस्टल में,’’ नीलम ने बताया.

‘‘अच्छा है, अब तो हमारा इसी स्टैंड से कालेज आनाजाना होता रहेगा. मैं भी थोड़ी दूर पर ही रहता हूं. मेरे बाबूजी एक कंपनी में जौब करते हैं और यहीं उन्होंने एक अपार्टमैंट खरीदा हुआ है.’’ समीर, प्रीति और नीलम एक ही कालेज में थे. आज कालेज में उन का पहला दिन था.

प्रीति आगरा की रहने वाली थी और नीलम लखनऊ की. दोनों गौरव गर्ल्स होस्टल में एक रूम में रहती थीं. प्रीति के पिताजी एक अच्छे ओहदे वाली सर्विस में थे, किंतु असमय उन का देहांत हो गया था जिस के कारण उस की मां को अनुकंपा के आधार पर उसी औफिस में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी.

प्रीति के बाबूजी बहुत पहले अपना गांव छोड़ कर आगरा में आ गए थे और यहीं उन्होंने एक छोटा सा मकान बना लिया था. गांव की जमीन और मकान उन्होंने बेच दिया था. प्रीति की मां चाहती थीं कि वह आईएएस की तैयारी करे ताकि एक ऊंची पोस्ट पर जा कर अपनी विकलांगता के दर्द को भुला सके, इसलिए उन्होंने उसे दिल्ली में एमए करने के लिए भेजा था. प्रीति को शुरू से ही साइकोलौजी में गहरी रुचि थी और बीए में भी उस का यह फेवरेट सब्जैक्ट था इसलिए उस ने इसी सब्जैक्ट से एमए करने का विचार किया. प्रीति को शुरू से ही कुछ सीखने और अधिकाधिक ज्ञानार्जन करने की इच्छा थी. वह साइकोलौजी में शोध कार्य करना चाहती थी और भविष्य में किसी कालेज में लैक्चरर बनने की ख्वाहिश पाले हुए थी.

नीलम एक बड़े बिजनैसमैन की बेटी थी. उस के पिताजी चाहते थे कि उन की बेटी दिल्ली के किसी कालेज से एमए कर ले और उस की सोसायटी मौडर्न हो जाए क्योंकि आजकल बिजनैसमैन के लड़के भी एक पढ़ीलिखी और मौडर्न लड़की को शादी के लिए प्रेफर करते थे. इसलिए उस ने दिल्ली के इसी कालेज में ऐडमिशन ले लिया था और ईजी सब्जैक्ट होने के कारण साइकोलौजी से एमए करना चाहती थी. समीर के पिताजी उसे आईएएस बनाना चाहते थे और समीर भी इस के लिए इच्छुक था, इसलिए वह भी साइकोलौजी से एमए करने के लिए कालेज में ऐडमिशन लिए हुए था.

प्रीति एक साधारण परिवार की थी और स्वभाव से भी बहुत ही सरल, इसलिए उस की वेशभूषा और पोशाकें भी साधारण थीं. पर वह सुंदर व स्मार्ट थी. उसे बनावशृंगार और मेकअप पसंद नहीं था किंतु दूसरी ओर नीलम सुंदर और छरहरे बदन की गोरी लड़की थी और अपने शरीर की सुंदरता पर उस का सब से ज्यादा ध्यान था. वह मेकअप करती और प्रतिदिन नईनई ड्रैस पहनती. कालेज में जहां प्रीति अपनी किताबों में उलझी रहती वहीं नीलम अपनी सहेलियों के साथ गपें मारती और मस्ती करती.

एक दिन प्रीति लंच के समय कालेज की लाइब्रेरी में कुछ किताबों से कुछ नोट्स तैयार कर रही थी. तभी नीलम उस के पास आई और बोली, ‘‘अरे पढ़ाकू, यह लंच का समय है और तुम किताबों से माथापच्ची कर रही हो जैसे रिसर्च कर रही हो. चलो चल कर कैफेटेरिया में चाय पीते हैं.’’

‘‘तुम जाओ, मैं थोड़ी देर बाद आऊंगी,’’ प्रीति ने कहा तो नीलम चली गई.

तभी उस ने महसूस किया कि उस के पीछे कोई खड़ा है. उस ने पलट कर पीछे की ओर देखा तो समीर था.

बस में मिलने के बाद समीर आज पहली बार उस के पास आ कर खड़ा हुआ था. क्लास में कभीकभी उस की ओर देख लिया करता था, किंतु बात नहीं करता था.

‘‘प्रीति सभी लोग कैफेटेरिया में चाय पी रहे हैं और तुम यहां बैठ कर नोट्स बना रही हो? अभी तो परीक्षा होने में काफी देर है. चलो, चाय पीते हैं.’’

‘‘बाद में आऊंगी समीर, थोड़े से नोट्स बनाने बाकी हैं, पूरा कर लेती हूं.’’

‘‘अब बंद भी करो,’’ समीर ने उस की नोटबुक को समेटते हुए कहा.

‘‘अच्छा चलो,’’ प्रीति भी किताबों को नोटबुक के साथ हाथ में उठाते हुए उठ खड़ी हुई.

जब समीर और प्रीति कैफेटेरिया में पहुंचे तो वहां पहले से ही नीलम अपनी कुछ क्लासमेट्स के साथ बैठ कर चाय पी रही थी. अगलबगल और भी कई लड़केलड़कियां थीं.

‘‘आ गई पढ़ाकू,’’ सविता ने उस को देखते हुए चुटकी ली.

‘‘मैं ने कहा, तो मेरे साथ नहीं आई. अब समीर के एक बार कहने पर आ गई. हां भई, उस दिन बस में उठ कर अपनी सीट जो तुम्हें औफर की थी. अब उस का कुछ खयाल तो रखना ही पड़ेगा न.’’ नीलम की बात सुन कर उस की सहेलियां हंसने लगीं.

समीर कुछ झोंप सा गया. बात आईगई हो गई किंतु इस के बाद प्रीति और समीर अकसर आपस में मिलते. प्रीति को साइकोलौजी के कई टौपिक्स पर बहुत ही अच्छी पकड़ थी. उस ने साइकोलौजी में कई जानेमाने लेखकों की पुस्तकों का अध्ययन किया था. जब कभी क्लास में कोई लैक्चरर आता तो उस विषय के ऐसे गंभीर प्रश्नों को उठाती कि सभी उस की ओर ताकने लगते.

समीर को उस के पढ़ने में काफी मदद मिलती. समय के साथसाथ उन के बीच आपसी लगाव बढ़ रहा था. उन के बीच का गहराता संबंध कालेज में चर्चा का विषय था. कुछ साथी उस पर चुटकियां लेने से नहीं चूकते.

‘लंगड़ी ने समीर को अपने रूपजाल में फंसा लिया है,’ कोई कहता तो कोई उन दोनों की ओर इशारा करते हुए अपने मित्र के कान में कुछ फुसफुसाता, जिस का एक ही मतलब होता था कि उन दोनों के बीच कुछ पक रहा है. अब वह किसकिस को जवाब देता. इसलिए चुप रहता.

वैसे भी समीर अपने कैरियर के प्रति सीरियस था. उसे आईएएस की तैयारी करनी थी जिस में साइकोलौजी को मुख्य विषय रखना था. वह इस विषय के बारे में अधिकाधिक जानकारी प्राप्त कर लेना चाहता था. उधर प्रीति को इसी विषय के किसी टौपिक पर रिसर्च करना था. इसलिए दोनों के अपनेअपने इंटरैस्ट थे. किंतु लगातार एकदूसरे के साथ संपर्क में रहने के कारण उन के अंदर प्रेम का भी अंकुरण होने लगा था जिस को दोनों महसूस तो करते किंतु इस की आपस में कभी चर्चा नहीं करते.

ऐसे ही कब 2 वर्ष गुजर गए उन्हें पता ही नहीं चला. दोनों ने एमए फर्स्ट डिवीजन से पास कर लिया. फिर समीर ने आईएएस की तैयारी के लिए दिल्ली में ही एक कोचिंग जौइन कर ली और प्रीति एक प्रोफैसर के अंडर पीएचडी करने लगी.

नीलम ने किसी तरह एमए किया और घर चली गई. उस के पिता ने उस की शादी एक बिजनैसमैन से कर दी. उस के निमंत्रण पर प्रीति उस की शादी में गई. उस ने समीर को भी निमंत्रण दिया था लेकिन किसी कारणवश समीर नहीं पहुंच पाया. नीलम ने प्रीति से वादा किया था कि भले ही वह उस से दूर है लेकिन जब कभी वह याद करेगी वह जरूर उस से मिलेगी. बिछुड़ते वक्त दोनों सहेलियां खूब रोईं.

इधर समीर और प्रीति के बीच दूरी बढ़ी तो लगाव भी कम होने लगा. उन के बीच कुछ महीनों तक तो फोन पर संपर्क होता रहा, फिर धीरेधीरे वह समाप्त हो गया. यही दुनियादारी है. कभी समीर जब तक उस से एक बार नहीं मिल लेता उसे चैन न मिलता, अब उसे उस की याद ही नहीं रही. प्रीति ने भी उस से बात करनी बंद कर दी.

जीवन किसी का भी हर वक्त एकजैसा कहां रहता है. यह कोई जानता भी तो नहीं कि कब किस के साथ क्या घट जाए. प्रीति अभी दिल्ली में ही थी कि एक दिन सुबह सुबह ही उसे खबर मिली कि उस की मां को हार्टअटैक आया है और वह अस्पताल में भरती है. सुनते ही वह आगरा के लिए भागी किंतु वहां पहुंचने पर मालूम हुआ कि उस की मां अब दुनिया में नहीं रहीं.

प्रीति पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा. वह फफक कर रोने लगी. अब उस का एकमात्र सहारा मां भी उसे छोड़ गई थीं. अस्पताल में वह मां के शव को पकड़ कर रो रही थी. उस को सांत्वना देने वाला कोई नहीं था. उस की मां के औफिस वाले आए हुए थे. उन लोगों ने कहा, ‘‘बेटी, अब अपने को संभाल…यह समय रोने का नहीं है. उठो, अब मां का दाहसंस्कार करने की सोचो…अब आग भी तुम्हें ही देनी है.’’

इस दुखभरी घड़ी में अपनों की कितनी याद आती है. उस ने समीर को फोन लगाया लेकिन उस का फोन तो डैड था. शायद उस ने नंबर बदल लिया था. अंतिम बार जब उस से भेंट हुई थी तो कहा था, अब दूसरा सिम लेगा. हारथक कर उस ने नीलम को याद किया. नीलम से उस की शादी में अंतिम बार भेंट हुई थी. वैसे भी उस से कभीकभी बातें होती रहती थीं. उस के हस्बैंड की प्रयागराज में एक बड़ी कपड़े की दुकान थी. वह खुले विचारवाला युवक था, इसलिए नीलम को कहीं आनेजाने में रोक नहीं थी.

नीलम खबर सुनते ही आगरा के लिए अपनी गाड़ी से चल पड़ी. प्रीति के जिम्मे अभी काफी काम थे. अस्पताल का बिल चुकाना, मां का दाहसंस्कार क्रिया करना और अकेले पड़े घर को संभालना. एक युवती जिस को दुनियादारी का भी कोई ज्ञान न हो और जिस की जिंदगी मां पिता की छत्रछाया में बीती हो, व जिस को घर संभालने का कोई व्यावहारिक ज्ञान न हो, अचानक इस तरह की विपत्ति पड़ने पर क्या स्थिति हो सकती है, यह तो वही समझा सकती है जिस के सिर पर यह अचानक बोझ आ पड़ा हो.

इस स्थिति में पड़ोसी भी बहुत काम नहीं आते सिवा सांत्वना के कुछ शब्द बोल देने के. और जिस का कोई अपना न हो उस के लिए तो यह क्षण बड़े ही धैर्य रखने और आत्मबल बनाए रखने का होता है और वह भी तब जब कोई अपना बहुत ही करीबी उसे छोड़ कर चला गया हो. सब से बड़़ी दिक्कत यह थी कि उस के पास पैसे नहीं थे और मां के बैंक अकाउंट का उस के पास कोई लेखाजोखा न था. पिछले महीने मां ने उस के खाते में जो पैसा ट्रांसफर किया था वह अब तक खर्च हो चुका था.

नीलम से वह कुछ मांगना तो न चाहती थी किंतु उस के पास इस के सिवा कोई रास्ता भी नहीं बचा था, इसलिए उस ने उस से कुछ मदद करने के लिए कहा. नीलम ने चलते वक्त चैकबुक और अपना डैबिट कार्ड भी पास में रख लिया. नीलम ने गांव के अपने सहोदर चाचाजी को बुला लिया जिन्होंने प्रीतिकी मां के दाहसंस्कार करवाने में बहुत मदद की. नीलम ने अस्पताल के सारे बिल भर दिए और मां के दाहसंस्कार व पारंपरिक विधि में होने वाले दूसरे आवश्यक खर्च को वहन किया.

प्रीति दकियानूसी विचारों वाली युवती नहीं थी, इसलिए उस ने विद्युत शवदाह द्वारा अपनी मां का दाहसंस्कार किया और अन्य पारंपरिक क्रियाएं भी बहुत सादे ढंग से संपन्न कीं. जब तक प्रीति सारी क्रियाओं से निबट नहीं गई तब तक नीलम उस के साथ रही.

परिस्थितियां चाहे जितनी भी प्रतिकूल क्यों न हों मनुष्य को उस से तो बाहर निकलना ही पड़ता है और प्रीति भी इस से निकल तो गई किंतु वह जिस खालीपन का एहसास कर रही थी उसे भरना बहुत ही मुश्किल था.

कुछ समय बाद नीलम प्रयागराज लौट गई और प्रीति अपने मकान को एक विश्वस्त आदमी को किराए पर दे कर अपना रिसर्च वाला काम पूरा करने के लिए दिल्ली लौट आई. उसे पता चला कि उस की मां ने अपने नाम से एक इंश्योरैंस भी कराया था जिस का अच्छाखासा पैसा नौमिनी होने के कारण उसे मिल गया.

मां के बैंक अकाउंट में भी काफी पैसे थे, इसलिए उस को अपने रिसर्च के काम में कोई दिक्कत न आई. उस ने नीलम का सारा पैसा लौटा दिया. समय बीतता गया और उस के साथसाथ प्रीति भी पहले से ज्यादा समझदार व परिपक्व होती गई. उसे आगरा के ही एक कालेज में लैक्चरर की नौकरी मिल गई.

इस दुनिया में कहां किसी को किसी से मतलब होता है. वह अकेली थी. समीर जो कभी उस के दिल के करीब आ चुका था उस से भी उस का संपर्क टूट गया था. नीलम अपने घर चली गई थी जिस से कभीकभी फोन पर बातचीत होती रहती थी.

लड़कियों की शादी में तो वैसे ही काफी दिक्कतें होती हैं और उस का तो एक पैर भी खराब था. और उस की शादी के बारे में सोचने वाला भी कोई नहीं था. जो लोग उस के संपर्क में आते थे, वे उस की सुंदरता से आकर्षित हो कर आते थे न कि उस का जीवनसाथी बनने के लिए. इसलिए ऐसे लोगों से वह हमेशा ही अपने को दूर रखती थी. अब तो उस की जिंदगी का एक ही मकसद था घर से कालेज जाना, वहां मनोयोग से छात्रों को पढ़ाना और शाम को घर लौट कर मनोविज्ञान की पुस्तकों का गहरा अध्ययन करना.

इधर, वह मनोविज्ञान पर एक किताब लिख रही थी जिस से उस का खालीपन कट जाता था. कालेज के उस के सहकर्मी पढ़ाने में कम कालेज की आपसी राजनीति में ज्यादा इंटरैस्ट लेते थे और उन की इन बेवजह की चर्चाओं से वह अपने को हमेशा ही दूर रखती थी, इसलिए उन लोगों से भी उस का ज्यादा संबंध नहीं था.

किंतु कालेज के प्रिंसिपल उस को बहुत सम्मान देते थे क्योंकि उन की निगाहों में उसे इतनी कम उम्र में काफी अच्छी जानकारी थी, इसलिए वे उस की हर संभव मदद भी करते थे. कालेज के छात्र भी उस की कक्षाओं को कभी भी नहीं छोड़ते थे क्योंकि उस से अच्छा लैक्चर देने वाला कालेज में कोई अन्य लैक्चरर नहीं था.

एक दिन सुबह उस ने अखबार में देखा कि समीर नाम का कोई आईएएस अधिकारी उस के शहर में जिला अधिकारी बन कर आया हुआ है.

समीर नाम ने ही उस के दिल में हलचल पैदा कर दी. वह सोचने लगी यह वही समीर तो नहीं जो कभी उस के दिल के बहुत करीब हुआ करता था और घंटों मनोविज्ञान के किसी टौपिक पर उस से चर्चा करता था. क्या समीर आईएएस बन गया?

यह प्रश्न उस के जेहन में कौंध रहा था और वह बहुत देर तक समीर के साथ बिताए गए उन पलों को याद कर रही थी जो 5 वर्ष बाद भी अभी तक वैसे ही तरोताजा थे जैसे यह बस कुछ पलों पहले की बात हो.

यही पता लगाने के लिए एक दिन वह उस के औफिस पहुंची तो पता लगा कि साहब अभी मीटिंग में व्यस्त हैं. दूसरे दिन समीर से मिलने के लिए उस के चैंबर में जाना चाहा तो, दरवाजे पर खड़े चपरासी ने उसे रोक दिया और उस से स्लिप मांगी. उस ने सोचा, पता नहीं वही समीर है या कोई और, इसलिए उस ने चैंबर में उस से मिलने का विचार त्याग दिया. वह सोचने लगी वैसे तो जिलाधिकारी आम आदमी के हितों के लिए जिला में पदस्थापित होता है और उस से मिलने के लिए कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र है लेकिन अफसरशाही ने आम आदमी से जिलाधिकारी को कितना दूर कर दिया है.

वैसे जिलाधिकारी से उस के द्वारा समयसमय पर लगाए जाने वाले जनता दरबार में भी आसानी से भेंट हो सकती थी किंतु उस के बारे में जानने की तीव्र जिज्ञासा इतनी थी कि वह बहुत समय तक इस के लिए इंतजार नहीं कर सकती थी. सो, जिलाधिकारी द्वारा राजस्व से संबंधित मुकदमों की सुनवाई के लिए किए जाने वाले कोर्ट के दौरान उस ने उसे देखने का मन बनाया.

उसे किसी ने बताया था कि उस दिन जिलाधिकारी न्यायालय में मुकदमे की सुनवाई करेंगे. जब वह उस के न्यायालय में पहुंची तो समीर मुकदमे की कोई फाइल देख रहा था. वह न्यायालय में खड़ी थी किंतु समीर ने उसे नहीं देखा और वह ?ाट न्यायालय के कमरे से बाहर आ गई. फिर अपने घर पहुंची. अब उस ने सोचा कि वह उस के आवास में जा कर मिलेगी. जब वह उस के आवास पहुंची तो फिर चपरासी ने स्लिप मांगी. उसे लगा, वह तो लड़की है, लोग जाने उस के बारे में क्याक्या सोचने लगें, इसलिए उस से बिना मिले ही वापस घर लौट आई.

समीर को जिला में पदस्थापित हुए 4 महीने से अधिक हो गए थे, किंतु उन दोनों की मुलाकात नहीं हुई थी. अब तक मनोविज्ञान पर प्रीति की लिखी पुस्तक ‘आने वाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ को छापने के लिए दिल्ली का पाठ्यपुस्तकों से संबंधित एक प्रकाशक तैयार हो गया था. पुस्तक की पांडुलिपि उस ने प्रकाशक को सौंप दी थी जो अब मुद्रण के लिए भेजी जा चुकी थी.

अगले महीने उस की प्रतियां तैयार हो कर आ जाने वाली थीं और पुस्तक का विमोचन उस के कालेज के हौल में होना तय हुआ था. प्रिंसिपल के आग्रह पर जिलाधिकारी समीर ने भी विमोचन समारोह में आना स्वीकार कर लिया था और उसी के हाथों उस की पुस्तक का विमोचन होना था.

काम की बहुत ज्यादा व्यस्तता के कारण समीर का ध्यान इस ओर नहीं गया था कि इस की लेखिका वही प्रीति है जो कभी दिल्ली में उस के साथ मनोविज्ञान में एमए कर रही थी. पिंसिपल साहब खुद इन्विटेशन ले कर गए थे और प्रीति ने उन से कभी समीर की चर्चा नहीं की थी.

प्रीति यह सोच कर काफी उत्सुक और रोमांचित थी कि उस की पुस्तक का विमोचन समीर के हाथों होगा और उसी के द्वारा वह सम्मानित की जाएगी. वह सोच रही थी कि वह क्षण कैसा होगा जब वह पहली बार इतने दिनों के बाद समीर के सामने जाएगी. आज वह दिन आ ही गया था.

रात में उसे नींद ठीक से नहीं आई थी. बारबार उसे समीर की बातें, उस के साथ घंटों मनोविज्ञान के विभिन्न पहलुओं पर हुई चर्चाएं याद आ रही थीं. उस समय समीर उस से बारबार कहता था कि वह आईएएस बन कर समाज की सेवा करना चाहता है और अब उस की मनोकामना पूरी हो गईर् थी. उस ने जो सोचा था उसे वह मिल गया था.

क्या समीर की शादी हो गई है या अभी भी वह कुंआरा है, यह प्रश्न भी उस के मन में बारबार कौंध रहा था. वह सोच रही थी कि यदि समीर की शादी हो गई है तो उस की पत्नी कैसी होगी. यदि समीर ने उसे देख कर पुरानी बातों को कुरेदना शुरू किया तो उस की पत्नी की प्रतिक्रिया क्या होगी? कहीं वह उस के संबंधों को ले कर आशंकित तो न हो जाएगी.

उस के मन में पहली बार इतना उत्साह था. दिल में हलचल थी. वहीं, अंदर से समीर से मिलने का एक मधुर एहसास भी था. उस ने अपनी सब से अच्छी साड़ी निकाली और पहली बार अपना इतनी देर तक शृंगार किया. आज सच में वह काफी सुंदर लग रही थी.

पुस्तक विमोचन समारोह के लिए कालेज के हौल को काफी सजाया गया था. शहर के कई गणमान्य व्यक्तियों को भी बुलाया गया था. दूसरे कालेजों के शिक्षक और कई विद्वानों को भी आमंत्रित किया गया था. सब के खानेपीने का इंतजाम पुस्तक के प्रकाशक की ओर से था.

वह कालेज रिकशा से जाती थी, किंतु आज प्रिंसिपल ने उसे लाने के लिए अपनी गाड़ी ड्राइवर के साथ भेजी थी और कालेज के एक जूनियर लैक्चरर को भी साथ लगा दिया था.

जब वह कालेज के हौल में पहुंची तो अधिकतर मेहमान आ चुके थे. लाउडस्पीकर पर कोई पुराना संगीत काफी कम आवाज में बज रहा था. पुस्तक विमोचन की सारी आवश्यक तैयारियां कर ली गई थीं. अब जिलाधिकारी के आने की प्रतीक्षा थी.

तभी जिलाधिकारी समीर के आने का माइक पर अनाउंसमैंट हुआ. समीर के स्टेज पर पहुंचते ही सभी उपस्थित मेहमान उस के सम्मान में खड़े हो गए.  प्रिंसिपल ने समीर का स्टेज पर स्वागत किया और उन्हें अपनी बगल में विशेष अतिथि के रूप में बैठाया. ठीक उस के बगल में प्रीति भी बैठी हुई थी. प्रीति ने समीर को देख कर हाथ जोड़े तो वह अप्रत्याशित रूप से उस को स्टेज पर देख कर विस्मित होते हुए बोला, ‘‘अरे तुम, प्रीति?…यहां?’’

‘‘क्या आप एकदूसरे को पहचानते हैं?’’ प्रिंसिपल ने पूछा.

‘‘हम दोनों ने एक ही साथ दिल्ली में एक ही कालेज से साइकोलौजी में एमए किया है.’’

‘‘लेकिन प्रीति ने यह कभी नहीं बताया,’’ प्रिंसिपल ने अब प्रीति की ओर मुखातिब होते हुए कहा, ‘‘क्यों प्रीति, इतना बड़ा राज तुम छिपाए हुए हो. मुझे तो कम से कम बताया होता.’’

प्रीति प्रिंसिपल को क्या बताती कि उस ने कई बार समीर से मिलने की कोशिश की थी लेकिन कुछ संकोच, कुछ झिझक और परिस्थितियों ने उसे उस से नहीं मिलने दिया और चाह कर भी वह समीर से अपने संबंधों को अपने सहकर्मियों के साथ साझा न कर पाई.

‘‘समीर तुम से मिलने की मैं ने बहुत बार कोशिश की, लेकिन मिल नहीं पाई,’’ वह सकुचाते हुए धीरे से बोली.

‘‘अब यह बहानेबाजी न चलेगी प्रीति. फंक्शन के बाद मैं तुम्हारे घर पर आऊंगा. मां कैसी हैं?’’

सुनते ही प्रीति की आंखें नम होने लगीं और वह इस का कोई जवाब नहीं दे पाई तो प्रिंसिपल ने मामले की नाजुकता को समझाते हुए, बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘‘इत्मीनान से इस संबंध में बातें होंगी. अभी हम लोग पुस्तक विमोचन का कार्यक्रम शुरू करते हैं.’’

पुस्तक का विमोचन करते हुए समीर ने प्रीति की सादगी, नम्रता और उस के कोमल भावों की विस्तृत चर्चा करते हुए अपने कालेज के दिनों की यादों को सब के साथ साझा करते हुए कहा कि प्रीति कालेज में एक ऐसी लड़की थी जिस से हमारे प्रोफैसर भी बहुत प्रभावित थे. प्रीति को साइकोलौजी पर जितनी पकड़ है उतनी बहुत कम लोगों को होती है. हमें गर्व है कि इस शहर में हमारे बीच प्रीति जैसी एक विदुषी हैं.’’

समीर की बातों से पूरा हौल तालियों से गड़गड़ाने लगा तब प्रीति ने महसूस किया कि समीर, जिस के बारे में उस ने सोचा था कि वह उसे भूल गया है, बिलकुल उस की थोथी समझा थी. उस के दिल में उस के प्रति अभी भी उतना ही लगाव और प्रेम है जितना कालेज के दिनों में हुआ करता था.

फंक्शन के बाद समीर ने उस से उस का फोन नंबर लिया और उस के घर की लोकेशन नोट करते हुए कहा कि इस रविवार को वह उस के साथ ही लंच करेगा. अपना विजिटिंग कार्ड उसे थमाते हुए उस ने रविवार को इंतजार करने के लिए कहा.

फंक्शन के बाद उस के सभी सहकर्मी उस को आंखें फाड़ कर देख रहे थे. समीर ने सभी लोगों के बीच जिस प्रकार प्रीति की प्रशंसा की थी और सम्मान दिया था उस का किसी को भी अनुमान नहीं था. प्रीति ने घर आ कर पूरे घर को साफ किया, ड्राइंगरूम में सोफे को करीने से लगाया और घर के बाहर पड़े हुए गमलों को ठीक से लगाया और उन में पानी दिया.

मां के गुजर जाने के बाद प्रीति अंदर से काफी टूट गई थी. घर में कोई नहीं था और उस का जीवन अकेलेपन के दौर से गुजर रहा था, इसलिए पूरा घर ही अस्तव्यस्त पड़ा हुआ था. किंतु समीर ने जब से कहा था कि रविवार को उस के घर आ कर उस के साथ लंच करेगा उस के शरीर में एक नया ही उत्साह पैदा हो गया था, मनमयूर नाचने लगा था और जीवन के प्रति एक नया नजरिया पैदा हो गया था.

रविवार को सुबह से ही प्रीति समीर के लिए लंच की तैयारी में लगी हुई थी. इस बीच फोन पर उस ने प्रयागराज से नीलम को भी बुला लिया था. वह पुस्तक विमोचन समारोह में कुछ जरूरी कामों में व्यस्त रहने के कारण नहीं आ पाई थी. नीलम भी समीर से मिलने के लिए उत्साहित थी. एक लंबे समय के बाद तीनों एकसाथ एक टेबल पर मिलने वाले थे.

समीर ने उसे फोन पर सूचना दी थी कि वह रविवार को 2 बजे के बाद आएगा, उसे एक जरूरी मीटिंग में शामिल होना है क्योंकि जिले में सोमवार को सीएम का दौरा होने वाला था. किंतु वह उस दिन 12 बजे ही आ गया.

‘‘सीएम साहब का दौरा रद्द हो गया तो मैं जल्दी आ गया,’’ आते ही वह बोला. उस का घर एक संकरी गली में था. उस की गाड़ी सड़क पर खड़ी थी. बौडीगार्ड साथ में था.

उसे अचानक आया देख प्रीति और नीलम दोनों उठ खड़ी हुईं.

नीलम को देख कर उस ने सोफे पर बैठते हुए कहा, ‘‘अरे तुम कब आईं. तुम भी आगरा में ही रहती हो क्या?’’

‘‘नहीं, तुम्हारे बारे में प्रीति ने बताया तो मिलने आ गई,’’ नीलम मुसकराते हुए बोली.

‘‘अच्छा हुआ तुम आ गईं. मैं इस शहर में पिछले 4 महीने से हूं लेकिन प्रीति को मेरी कभी याद न आई.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है समीर, तुम से मिलने का मैं ने कई बार सोचा लेकिन मिलने की हिम्मत न हुई.’’ प्रीति ने कहा.

‘‘क्यों, मैं तुम्हारे लिए गैर कब से हो गया. यह क्यों नहीं कहतीं कि तुम मुझसे मिलना ही नहीं चाहती थीं.’’ अब प्रीति उस से क्या कहती और कहती भी तो क्या उस की सफाई से समीर की उलाहना दूर हो जाती?

‘‘अच्छा, अब बता मां जी कहां हैं?’’

‘‘समीर, अब प्रीति की मां इस दुनिया में नहीं हैं,’’ नीलम ने बताया.

कुछ देर तक समीर चुप रहा, फिर बोला, ‘‘सौरी प्रीति, मैं ने तुम्हारे दिल के दर्द को कुरेदा. अब घर में कौन रहता है?’’

‘‘इस के साथ अब कोई रहने वाला नहीं है समीर. यह नितांत अकेलापन का जीवन जीती है. अपनी दुनिया में खोई हुई. जिस तरह कालेज में किताबों में खोई रहती थी, अब भी किताबें ही इस की साथी हैं,’’ नीलम बोली.

समीर थोड़ी देर तक घर में इधरउधर देखते रहा. उस की मां और बाबूजी का फोटो सामने की दीवार पर टंगा हुआ था. उस ने सोचा उस का ध्यान अब तक उन फोटो पर क्यों नहीं गया जो वह प्रीति को बारबार मां की याद दिलाता रहा. उस ने हाथ जोड़ कर उस के मातापिता के फोटो के सामने जा कर उन्हें प्रणाम किया और प्रीति से बोला, ‘‘जिंदगी इसी का नाम है. यह कोई नहीं जानता कि किस की जिंदगी उस को किस तरह जीने के लिए मजबूर करेगी. तुम से बिछुड़ने के बाद मैं एक बौयज होस्टल में शिफ्ट कर गया जहां सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाले लड़के रहते थे. घर में पढ़ने का माहौल नहीं था.

‘‘वहां एक दिन किसी ने मेरा स्मार्टफोन चुरा लिया. उस फोन में बहुत सारी इन्फौर्मेशन थीं, उसी में तुम्हारा फोन नंबर भी था. मैं ने तुम्हें खोजने का प्रयास किया किंतु तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाया. फिर मेरी कोचिंग की क्लासेज चलने लगीं और परीक्षा की तैयारी में इतनी बुरी तरह उलझा कि फिर तुम्हारी ओर ध्यान ही नहीं गया और इसी बीच मेरे बाबूजी का तबादला कंपनी वालों ने दूसरे शहर में कर दिया जहां वे मां के साथ शिफ्ट कर गए.

‘‘मैं इकलौती संतान था. घर में कोई रहने वाला नहीं था, इसलिए पिताजी ने 3 कमरों के इस अपार्टमैंट में एक कमरा निजी उपयोग के लिए रख कर 2 कमरे किराए पर दे दिए. लेकिन प्रीति तुम चाहतीं तो मेरे घर जा कर मेरे किराएदार से मेरा फोन नंबर मांग सकती थीं क्योंकि कभीकभी मैं वहां जाया करता था और किराएदार को मेरा फोन नंबर मालूम था. तुम तो मेरे घर आई थीं. मेरे मातापिता तुम्हें बहुत ही लाइक करते थे. मां तो हमेशा ही तुम्हारे सरल स्वभाव की प्रशंसा करती थीं और पिताजी अकसर कहा करते थे कि किसी भी व्यक्ति का गुण प्रधान होता है न कि उस का शरीर.

‘‘मेरे मांबाबूजी इसी हफ्ते यहां घूमने आने वाले हैं. मैं तुम्हें उन से मिलवाऊंगा.’’

‘‘हां समीर, मुझे भी उन से मिलने की बहुत इच्छा है. उन से मिले हुए काफी दिन हो गए हैं. उन के आने के बाद तुम मुझे फोन करना, मैं उन से मिलने जरूर आऊंगी. लेकिन तुम अपनी पत्नी को ले कर क्यों नहीं आए?’’

समीर ने हंसते हुए कहा, ‘‘अभी तुम्हारी जैसी कोई मिली नहीं.’’

‘‘क्यों मजाक करते हो समीर. मेरे जैसी कोई मिले भी नहीं. हैंडीकैप होना एक अभिशाप से कम नहीं है.’’

‘‘ऐसा न कहो प्रीति, आज भी मनोविज्ञान के क्षेत्र में तुम्हारा मुकाबला करने वाला इस शहर में कोई नहीं है.’’

यह तो प्रीति नहीं जानती थी कि समीर के साथ उस का क्या रिश्ता है किंतु अंदर ही अंदर यह जान कर कि वह अब तक कुंआरा है उस के मन के तार झांकृत हो उठे.

इस बीच समीर के मांबाबूजी के आने का वह बेसब्री से इंतजार करती रही और फिर कुछ ही दिनों बाद समीर ने उसे फोन कर बताया कि उस के मांबाबूजी आए हुए हैं और उस से मिलना चाहते हैं. आज रात का डिनर उन के साथ करोगी तो उसे खुशी होगी.

प्रीति तो इसी अवसर का इंतजार कर रही थी, इसलिए उस ने उस के निमंत्रण को सहर्ष स्वीकार कर लिया. उसे अंदर आने से कोई न रोके, इसलिए समीर ने उस को लाने के लिए अपनी प्राइवेट कार भेज दी थी.

प्रीति को लेने समीर अपने आवास के गेट तक स्वयं आया. जब वह उस के साथ ड्राइंगरूम में पहुंची तो उस के मांबाबूजी उस का इंतजार कर रहे थे. उस ने उन के पैर छुए. उन्होंने उसे अपनी बगल में बैठा लिया.

‘‘समीर तुम्हारी हमेशा चर्चा करता है. सुना मां भी नहीं रहीं. घर में अकेली हो. बेटी मैं समझा सकती हूं तुम्हारी तकलीफ को. लड़की वह भी अकेली,’’ समीर की मां बोलीं.

‘‘बेटी, अब आगे क्या करना है?’’ समीर के बाबूजी ने पूछा.

‘‘क्या करूंगी बाबूजी. दिन में कालेज में पढ़ाती हूं, रात में अध्ययन, कुछ लेखन.’’ उस ने नम्रता से कहा.

‘‘अभी क्या लिख रही हो?’’

‘‘अभी तो कुछ नहीं. इस पुस्तक का रिस्पौंस देख लेती हूं कैसा है, फिर आगे का प्लान बनाऊंगी.’’

‘‘यह पुस्तक ‘आनेवाली पीढि़यां और मनोविज्ञान’ मैं ने पढ़ी. समीर ने दी थी. यह सच है कि मनोविज्ञान के स्थापित सिद्धांत आने वाली पीढि़यों के संदर्भ में वैसे ही न रहेंगे.’’

‘‘बाबूजी, आप भी क्या न… आते ही पुस्तक की चर्चा में लग गए. घर और बाहर रातदिन यही तो यह करती है. आज तो हम एंजौय करें. वैसे प्रीति, मैं तुम से पूछना भूल गया था, सारे आइटम वेज ही रखे हैं. मांबाबूजी वैजिटेरियन हैं.’’

‘‘मैं भी वैजिटेरियन ही हूं.’’

खाना खाने के बाद जब प्रीति जाने को हुई तो मां ने उसे रोका.

‘‘बेटी, तुम्हारी शादी की कहीं बात चल रही है क्या?’’

प्रीति कुछ न बोल पाई. जवाब देती भी क्या. उस की शादी के लिए कौन बात करने वाला था.

‘‘समझ गई बेटी. अब तो तुम्हारे घर में तुम्हारे सिवा कोई है नहीं जिस से तुम्हारी शादी के बारे में बात की जाए. समीर तुम्हारी बहुत प्रशंसा करता है. आईएएस में उस के सिलैक्शन के बाद कई अमीर घराने के लोग अपनी बेटियों की शादी के लिए आए. वे सभी अपनी दौलत के बल पर समीर को खरीदना चाहते थे.

‘‘समीर का इस संबंध में स्पष्ट मत था कि शादी मन का मिलन होता है, सिर्फ शरीर का नहीं और जो लड़की अपने बाप की हैसियत के बल पर इस घर में आएगी वह कभी भी अपना दिल उसे न दे पाएगी. बेटी, अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो और समीर से तुम्हारा मन मिलता हो तो इस घर में तुम्हारी जैसी बहू पा कर हम प्रसन्न होंगे. समीर के पिताजी की भी यही इच्छा है. समीर भी यही चाहता है. अब सबकुछ तुम पर निर्भर करता है. तुम इत्मीनान से फैसला ले कर बताना. कोई जल्दी नहीं है, हम तुम्हारे जवाब का इंतजार करेंगे.’’

‘‘लेकिन मांजी, कहां समीर की पोस्ट और कहां मैं एक साधारण कालेज की लेक्चरार.’’

‘‘अब लज्जित न करो प्रीति,’’ समीर बोला, ‘‘मेरे और तुम्हारे संबंधों के बीच हमारी पोस्ट और हैसियत बीच में कहां से आ गई, इसी से बचने के लिए तो मैं ने

अब तक किसी शादी का प्र्रस्ताव स्वीकार नहीं किया.’’

प्रीति ने लज्जा से सिर झांका लिया.

उस ने समीर के मांबाबूजी के पैर छूते हुए कहा, ‘‘आप लोगों का आदेश मेरे लिए आज्ञा से कम नहीं.’’

फिर उस की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे.

समीर उसे छोड़ने उस के घर तक गया. जब वह लौटने लगा तो उस ने प्रीति को अपने गले से लगा लिया. और बोला, ‘‘प्रीति पतिपत्नी का रिश्ता बराबर का होता है, आज भी मैं वही समीर हूं जो कालेज के दिनों में हुआ करता था और आगे भी ऐसे ही रहूंगा.’’

समीर के गले लगी प्रीति को ऐसा लग रहा था मानो सारे जहां की खुशियां उसे मिल गई हैं. रात का सियाह अंधेरा अब समाप्त हो चुका था. सुबह की नई किरणें फूटने लगी थीं.

Jagdeep Dhankar : धनखड़ के खिलाफ क्‍यों एकजुट है विपक्ष

संसद में शीत सत्र चल रहा है लेकिन भीतर का माहौल बिलकुल गरम है. राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ इस की धुरी बन गए हैं.

“मैं ने हमेशा कहा है कि राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए हमें एकजुट रहना होगा. जो लोग देश की एकता और अखंडता के खिलाफ बोलते हैं, वे देशद्रोही हैं.”  जगदीप धनखड़, सभापति, राज्यसभा, उपराष्ट्रपति. यह उद्धरण जगदीप धनखड़ की चाटुकारिता और सरकार के प्रति अनुकूलता को दर्शाता है. दरअसल, वे सरकार के प्रति अत्यधिक अनुकूल हैं और आलोचना को बर्दाश्त नहीं करते हैं. उन के कार्यकाल में राज्यसभा में लिए गए कुछ फैसले भी उन के विपक्ष के प्रति सोच को उजागर करते हैं.

इन में से कुछ प्रमुख फैसले हैं :

– विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को खारिज करना : जगदीप धनखड़ ने विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को खारिज कर दिया, जिसे विपक्ष ने उन के खिलाफ पेश किया था.
– विपक्षी सांसदों को निलंबित करना : जगदीप धनखड़ ने विपक्षी सांसदों को निलंबित करने का फैसला किया, जिसे विपक्ष ने उन के खिलाफ प्रदर्शन के रूप में देखा.
– संसदीय नियमों का पालन न करना : जगदीप धनखड़ पर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने संसदीय नियमों का पालन नहीं किया और विपक्ष को बोलने का मौका नहीं दिया.
– विपक्ष की याचिकाओं को खारिज करना : जगदीप धनखड़ ने विपक्ष की कई याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिन में सरकार की नीतियों की आलोचना की गई थी.
– संसदीय समितियों की रिपोर्टों को दबाना : जगदीप धनखड़ पर आरोप लगाया गया है कि उन्होंने संसदीय समितियों की रिपोर्टों को दबाने का प्रयास किया, जिन में सरकार की नीतियों की आलोचना की गई थी.

एक बार फिर उपराष्ट्रपति के पद पर रहते हुए जगदीप धनखड़ ने अपनी बात को कुछ उलटपुलट कर के दोहराया है. 2014 के पश्चात नरेंद्र मोदी की सरकार के दरमियान जबजब प्रधानमंत्री गृहमंत्री या सरकार के किसी बड़े चेहरे पर कोई सवाल उठता है तो कहा जाने लगा है कि यह तो भारत की छवि खराब करने का प्रयास किया जा रहा है. ऐसा पहले कांग्रेस की सरकार या अन्य किसी सरकार के दरमियान कभी नहीं हुआ. यह एक ऐसी बारीक रेखा है जिसे आम आदमी नहीं समझ सकता.

दरअसल 5 वर्षों के लिए इस देश को विकास के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए देश की जनता द्वारा सरकार चुनी जाती है. वह कोई देश नहीं होती है यह स्पष्ट है मगर यह खेल हमारे देश मंि चल रहा है कि इन दिनों जब सरकार पर कोई सवाल खड़ा होता है तो कहा जाता है कि देश की छवि खराब की जा रही है और इस तरह अपनेआप को बचाया जाता रहा है.

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयानों पर विवाद की स्थिति है, वे अपनेआप को भारत समझते हैं, यह अतिशयोक्ति पूर्ण है. दरअसल विपक्ष के सवालों का जवाब देना और संवाद में शामिल होना लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

उपराष्ट्रपति पद की गरिमा और संवैधानिक भूमिका को ध्यान में रखना चाहिए. वे सवालों से बच नहीं सकते हैं और न ही अखंडता के सवाल को उठा सकते हैं. संविधान के मुताबिक लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण है, और उन्हें सरकार और उस के अधिकारियों के कार्यों की आलोचना करने का अधिकार है. उपराष्ट्रपति को भी इस आलोचना का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए और इस का जवाब देना चाहिए. जब विपक्ष को अधिकार है तो फिर संप्रभुता और अखंडता कहां से आ गई, यह एक जटिल मुद्दा बन कर सामने है.

दरअसल, संप्रभुता और अखंडता दो अलगअलग अवधारणाएं हैं जो एकदूसरे से जुड़ी हुई हैं. संप्रभुता का अर्थ है किसी भौगोलिक क्षेत्र या जन समूह पर सत्ता या प्रभुत्व का सम्पूर्ण नियंत्रण. अखंडता का अर्थ है किसी देश या राज्य की एकता और अखंडता को बनाए रखना.
जब विपक्ष को अधिकार है, तो उन के सवाल और व्यवहार देश की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित नहीं करता है. विपक्ष का अधिकार संविधान द्वारा प्रदान किया गया है, और यह अधिकार विपक्ष को सरकार की नीतियों और कार्यों की आलोचना करने और उन्हें सुधारने के लिए प्रेरित करने के लिए दिया गया है.

यह महत्वपूर्ण है कि विपक्ष अपने अधिकार का उपयोग संविधान के अनुसार करे और सरकार की नीतियों और कार्यों की आलोचना करने के लिए प्रेरित करे, न कि उन्हें बाधित करने की कोशिश करे. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयानों पर चर्चा का माहौल बन सकता है, विपक्ष के सवालों का जवाब देना और संवाद में शामिल होना सरकार सत्ता का दायित्व है यह लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है.

यहां उल्लेखनीय है कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के कुछ बयानों पर पहले भी विवाद हुआ है

– राज्यसभा में विपक्ष के सदस्यों द्वारा उन के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने पर उन्होंने कहा था कि यह देश की अखंडता और भारत की बात करने का समय है.
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उपराष्ट्रपति को पद की गरिमा और संवैधानिक भूमिका को ध्यान में रखना चाहिए. और व्यवहार मर्यादित रखना चाहिए.
मजेदार है कि भाजपा शासन काल में कई घटनाएं घटित हुई हैं जब प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या उपराष्ट्रपति की आलोचना को देश और अखंडता का सवाल बना दिया गया है.

जबजब प्रधानमंत्री की आलोचना

जब विपक्षी दल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों की आलोचना करते हैं, तो अकसर उन्हें देशद्रोही या राष्ट्र-विरोधी बता दिया जाता है. जब विपक्षी दल गृहमंत्री अमित शाह की नीतियों की आलोचना करते हैं, तो अकसर उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बता दिया जाता है. जब विपक्षी दल उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की नीतियों की आलोचना करते हैं, तो अकसर उन्हें संविधान की अवहेलना करने वाला बता दिया जाता है. इन उदाहरणों से पता चलता है कि भाजपा शासन काल में आलोचना को अकसर देश और अखंडता का सवाल बना दिया जाता है, जो लोकतंत्र के मूल्यों के विरुद्ध है.

Syria : तानाशाह बशर अल असद की तख्‍तापलट की नींव रखी मासूम बच्‍चों ने

तानाशाही ज्यादा दिन चलती नहीं है और तानाशाहों का अंत बहुत दर्दनाक होता है. हिटलर हों, स्टालिन हों, ईदी अमीन हों, फ्रांसिस्को फ्रैंको हों या सद्दाम हुसैन, सबका अंत दर्दनाक था. इतने उदाहरणों के बाद भी दुनिया यह नहीं समझ रही कि लोकतांत्रिक तरीके से देश को चलाना ही शासन का बेहतर तरीका है.

 

सीरिया में इस्लामिक विद्रोहियों ने 24 वर्षों से चले आ रहे राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन को उखाड़ फेंका. बीते पांच दशकों से एक ही परिवार के केंद्र में रही सत्ता की परिपाटी बदल गई और सीरिया में भी तानाशाही का दौर ख़त्म हुआ. सीरिया में बशर अल-असद शासन का खात्मा ऐसे समय में हुआ है जब माना जा रहा था कि उन्होंने सालों से जारी विद्रोह पर काबू पा लिया है.

सीरिया एक समय अरब संस्कृति का समृद्ध केंद्र था, पर बीते एक दशक से वह दुनिया के सबसे खतरनाक युद्ध क्षेत्रों में से एक बना हुआ था. साल 2011 में राष्ट्रपति बशर अल-असद की तानाशाही के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन गृहयुद्ध में तब्दील होकर मल्टी-फ्रंट वॉर में बदल चुका था. करीब 2 करोड़ की आबादी वाले सीरिया में पिछले 13 सालों में 5 लाख से ज्यादा लोगों की जाने जा चुकी हैं. लाखों लोग विस्थापित हुए हैं और अनेक देशों में शरणार्थियों के रूप में त्रासदी से भरी जिंदगी जी रहे हैं. सोशल मीडिया पर ऐसे अनेक विज्ञापन देखे जा रहे थे जहां माँ बाप अपने बच्चों को गोद देने के लिए बेचैन थे. वे नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे सीरिया में रह कर युद्ध की विभीषिका या भुखमरी झेलें अथवा माँ बाप की आकस्मिक मौत के बाद लावारिस हालत में भटकें क्योंकि सीरिया के हालात इतने खराब हो चुके थे कि कोई भी अपने को सुरक्षित नहीं समझ रहा था.

दुनिया के अधिकांश इस्लामिक देश तानाशाहों के नेतृत्व में बर्बाद हुए हैं और जहां जहां तानाशाही जारी है वहां वहां जनता बदहाल है. औरतें और बच्चे असुरक्षा और भुखमरी का शिकार हैं. अशिक्षित युवाओं के हाथों में बंदूकें हैं और निशाने पर निर्दोष लोग हैं. ट्यूनेशिया, बेहरीन, लीबिया, लेबनान. सीरिया जैसे देश सदियों से जल रहे हैं. जनता में आक्रोश है. आक्रोश विद्रोह में बदल रहा है. जगह जगह गृहयुद्ध छिड़े हुए हैं.

सीरिया की बात करें तो तानाशाही की शुरुआत वहां सत्तर के दशक में हुई थी. बात 13 नवंबर 1970 की है. हाफिज अल असद सीरियाई एयरफोर्स के चीफ थे. सेना में उनकी अच्छी पकड़ थी. इसी का फायदा उठाते हुए 13 नवंबर 1970 को हाफिज असद ने तब की सरकार को गिरा कर तख्तापलट करते हुए खुद को सीरिया का राष्ट्रपति डिक्लेयर कर दिया. हालांकि तब लोगों को उम्मीद नहीं थी की हाफिज ज्यादा दिनों तक तानाशाह रह पाएंगे. उसकी वजह यह थी की सीरिया शुरू से सुन्नियों की आबादी वाला देश रहा है.

सीरिया में सुन्नियों की आबादी करीब 74 फीसदी है. जबकि शियाओं की आबादी 16 फीसदी है. हाफिज असद शिया थे. उन्हें भी पता था कि सुन्नी कभी भी विरोध कर सकते हैं. इसलिए तख्तापलट करने के बाद से ही हाफिज असद ने सुन्नियों को कुचलना शुरू कर दिया. उन्होंने नौकरी, सेना और दूसरी पॉलिसी में शियाओं को फेवर दिया और सुन्नियों को निकाल बाहर किया. इससे सुन्नियों में गुस्सा तो पैदा हुआ, मगर फौज पर चूंकि असद की पकड़ काफी मजबूत थी लिहाजा उनकी सत्ता बनी रही.

करीब 30 साल तक सीरिया पर हुकुमत करने के बाद साल 2000 में हाफिज अल-असद की मौत हो गई. उनके बाद उनके बेटे बशीर अल-असद बतौर राष्ट्रपति सीरिया की गद्दी पर बैठ गए. अगले 10 सालों तक पिता की पॉलिसी और हथकंडों के चलते बशर अल-असद भी हर विरोध को दबाते रहे. बाप-बेटे ने मिलकर विपक्ष खत्म कर दिया था. साल 2006 से 2010 तक सीरिया में कम बारिश की वजह से सूखा पड़ गया. लोग भूखे मरने लगे.
सरकार ने जनता की कोई मदद नहीं की. जनता को लगने लगा कि तानाशाही ना होती तो शायद उनकी जिंदगी बेहतर होती. पहली बार बशर के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूटा और लोग सड़कों पर उतरे. इत्तेफाक से ठीक इसी वक्त अरब में एक आंदोलन शुरू हो गया, जिसे अरब स्प्रिंग नाम से जाना जाता है. ये आंदोलन उन देशों में शुरू हुआ, जहां लंबे वक्त से तानाशाही थी. देखते ही देखते ट्यूनीशिया, लीबिया, इजिप्ट, लेबनान, जॉर्डन में लोग सड़कों पर उतर आए. इस आक्रोश और विद्रोह का नतीजा दुनिया के लिए हैरान करने वाला था.

पहला अरब स्प्रिंग सरकार विरोधी प्रदर्शनों, विद्रोहों और सशस्त्र विद्रोहों की एक श्रृंखला थी जो 2010 के दशक की शुरुआत में अरब दुनिया के अधिकांश हिस्सों में फैल गयी. यह भ्रष्टाचार और आर्थिक स्थिरता के जवाब में ट्यूनीशिया में शुरू था. ट्यूनीशिया से शुरू हुआ विरोध प्रदर्शन पाँच अन्य देशों लीबिया, मिस्र, यमन, सीरिया और बहरीन में फैल गया. शासकों को पदच्युत कर दिया गया. 2011 में ट्यूनीशिया के ज़ीन एल अबिदिन बेन अली, 2011 में लीबिया के मुअम्मर गद्दाफी, 2011 में मिस्र के होस्नी मुबारक और 2012 में यमन के अली अब्दुल्ला सालेह का तख्तापलट हो गया. 23 साल से ट्यूनीशिया की सत्ता पर काबिज बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा. लीबिया में कर्नल गद्दाफी को जनता ने मार दिया. 30 साल तक इजिप्ट के तानाशाह रहे हुस्नी मुबारक को भी देश छोड़कर भागना पड़ा.

कई जगह बड़े विद्रोह और दंगे हुए. कुछ देशों में गृहयुद्ध या उग्रवाद सहित सामाजिक हिंसा हुई. मोरक्को, इराक, अल्जीरिया, लेबनान, जॉर्डन, कुवैत, ओमान और सूडान में लगातार सड़क पर जनता ने उग्र प्रदर्शन किया. जिबूती, मॉरिटानिया, फिलिस्तीन, सऊदी अरब और पश्चिमी सहारा में छोटे-मोटे विरोध प्रदर्शन हुए. अरब दुनिया में प्रदर्शनकारियों का एक प्रमुख नारा था – अश-शा’ब युरीद इस्कात अन-नियाम यानी लोग शासन को गिराना चाहते हैं.

अब चूंकि ये सब कुछ सीरिया के इर्द-गिर्द हो रहा था. इसलिए पहली बार बशर अल असद को भी इस खतरे का अहसास हुआ. उनको लगा कि सीरिया में भी लोग बगावत ना कर दें. असद डरे हुए थे. उसी वक्त उन्होंने अपनी सेना को यह हुक्म दिया कि पूरे सीरिया पर पैनी नजर रखी जाए. जो भी सरकार के खिलाफ आवाज उठाए उसे कुचल दिया जाए. हालांकि तब तक सीरिया शांत था.

14 साल के एक बच्चे ने दीवार लिखा – अब तुम्हारी बारी है डॉक्टर!

साल 2010 खत्म होते होते असद को लगा कि अब सब कुछ ठीक है, लेकिन तभी 14 साल के एक बच्चे ने कुछ ऐसा कर दिया कि सीरिया में विद्रोह की ऐसी चिंगारी फूट पड़ी जिसने अंततः 13 साल बाद बशर अल असद को सीरिया छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर दिया.

26 फरवरी 2011 को उत्तरी सीरिया के दारा में 14 साल के एक बच्चे मुआविया सियास ने अपने स्कूल की दीवार पर लिखा – ”अब तुम्हारी बारी है डॉक्टर…” चूंकी बशर अल-असद को उनके करीबी डॉक्टर भी बुलाते थे, इसलिए दारा शहर में जिसने भी ये लाइन पढ़ी वो इसका मतलब समझ चुका था.

तानाशाही सरकार की बच्चे से दरिंदगी

अरब देशों के कई तानाशाहों के खात्मे के बाद बच्चे द्वारा लिखी इस लाइन का साफ मतलब यही था कि अब बारी बशर अल-असद सरकार की है. जैसे ही दारा के लोगों ने दीवार पर यह लाइन पढ़ी सभी डर गए. मुआविया के पिता ने तो अपने बेटे को ही छुपा दिया. लेकिन दारा के सिक्योरिटी चीफ को दीवार पर लिखे इस लाइन के बारे में जानकारी मिल गई. अगले ही दिन यानी 27 फरवरी 2011 को स्कूल के कुल 15 बच्चों को असद की आर्मी ने उठा लिया. इनमें मुआविया भी था. इसके बाद इन बच्चों पर जो जुल्म ढाए गए उसकी कोई इंतिहा नहीं थी. उनके नाखून नोच दिए गए. मासूम बच्चों को पानी से भिगोकर करंट दिए गए.

कई बच्चों को उल्टा लटकाया गया. इन बच्चों की रिहाई की मांग को लेकर दारा के लोगों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया. सरकार से बच्चों को छोड़ने की अपील की लेकिन बच्चों को नहीं छोड़ा गया. उल्टे असद की सेना ने बच्चों के मां-बाप से एलानिया यह कह दिया कि अपने बच्चों को भूल जाओ. दूसरे बच्चे पैदा करो और नहीं कर सकते तो अपनी औरतों को हमारे पास छोड़ जाओ.

बच्चों पर हो रहे जुल्म, दीवार पर लिखी वो लाइनें, दारा से निकलकर सीरिया के अलग-अलग शहरों में भी पहुंच चुकी थी. चूंकि बच्चे छोटे थे इसलिए हर एक को हमदर्दी थी. फिर क्या था देखते ही देखते पूरे सीरिया में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. जो कि बहुत जल्द बड़ा होता गया.

बशर अल असद को तब पहली बार अहसास हुआ कि इस विरोध प्रदर्शन को रोकना जरूरी है. आखिरकार पूरे 45 दिन बाद अप्रैल 2011 में सभी बच्चों को छोड़ दिया गया. लेकिन यहीं से कहानी पलट गई. जब बच्चे कैद से बाहर आये तो उनके साथ उन पर ढाए गए जुल्मों की निशानियां और कहानियां भी सामने आईं. मासूम बच्चों पर सेना की हिंसा के चिन्ह देख कर और उनकी जुबान से हिंसा की दर्दनाक दास्तां सुनकर आंदोलन रुकने की बजाय और तेज हो गया. बच्चों की रिहाई के अगले ही शुक्रवार यानि 22 अप्रैल 2011 को दारा की एक मस्जिद में नमाज के बाद खुलकर असद के खिलाफ नारेबाजी हुई. इस शोर को कुचलने के लिए आर्मी ने लोगों पर गोलियां चलाईं जिसमें दो लोग मारे गए और अनेक घायल हुए. फिर तो मामला और गर्म हो गया और इसने विद्रोह का रूप ले लिया.

मारे गए दोनों लोगों के जनाजे के साथ लोग सड़कों पर उतर आये. असद की आर्मी ने फिर हिंसा का नंगा नाच किया और असद सरकार ने अपनी ही जनता को कुचलने के लिए सड़कों पर टैंक उतार दिए. आसमान में हेलीकॉप्टर से गोलियां बरसाई जाने लगीं. यह पहली बार था जब सीरिया में एक साथ दर्जनों लोग मारे गए. दारा की कहानी अब सीरिया के शहर शहर की कहानी बन चुकी थी. हर शहर हिंसा की चपेट में था. सीरिया के लोग असद की सेना की गोलियों का सामना डंडों और पत्थरों से कर रहे थे. हर दिन लाशों की तादाद बढ़ती ही जा रही थी. हालात ऐसे हो गए थे कि असद की सेना में भी बगावत शुरू हो गयी.

तानाशाह की क्रूरता देख कर हजारों सैनिक सरकार का साथ छोड़कर आम लोगों से जा मिले. असद के ऐसे ही सैनिकों को अपने साथ लेकर सीरिया की जनता ने सेना का मुकाबला करने के लिए अपनी सेना बनाने का फैसला किया. आखिरकार 29 जुलाई 2011 को फ्री सीरियन आर्मी की बुनियाद रखी गई. इसमें ऐसे हजारों अलग अलग छोटे छोटे गुट आ मिले जो असद के खिलाफ थे. सीरिया के पड़ोसी सुन्नी देशों ने भी फ्री सीरियन आर्मा की मदद करनी शुरू कर दी. यह वही दौर था जब बहती गंगा में बगदादी ने भी हाथ साफ करने की ठानी थी. बगदादी की आईएसआई भी फ्री सीरियन आर्मी की मदद के लिए ईराक से सीरिया पहुंच गयी.

अभी तक जो आईएसआई यानि इस्लामिक स्टेर ऑफ ईराक था वो अब ISIS यानि इस्लामिक स्टेट ऑफ ईराक एंड सीरिया बन गया. सीरिया में एक बड़ी आबाद कुर्द की भी है. खासकर नॉर्थ ईस्ट सीरिया में. फ्री सीरियन आर्मी की तर्ज पर अब कुर्द ने भी असद सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. असल में कुर्दों की मांग एक अलग देश की थी. यानि अब सूरत-ए-हाल कुछ यूं था कि सीरिया के अंदर एक साथ चार मोर्चे खुल गए थे. एक असद की सरकार का. एक बगदादी की आईएसआई का. फ्री सीरियन आर्मी की और कुर्द फोर्स का. अब सीरिया सचमुच गृहयुद्ध की आग में झुलस रहा था.

हुआ तख्तापलट, भागने पर मजबूर हुए बशर अल-असद

देखते ही देखते अब बाहरी देश भी अपने अपने फायदे के लिए सीरिया के अखाड़े में कूदने लगे. कई अरब देश सीधे फ्री सीरियन आर्मी की मदद के लिए आगे आये. वजह ये थी कि वो सीरिया में सुन्नियों को सपोर्ट करना चाहते थे. यह देख ईरान भी इस लड़ाई में कूद पड़ा. लेकिन असद के विरोधियों का साथ देने के लिए नहीं बल्कि असद सरकार को बचाने के लिए, क्योंकि ईरान शियाओं का सबसे बड़ा देश है. उधर रूस को इस इलाके में एक दोस्त चाहिए था. पुतिन को असद के रूप में एक दोस्त नजर आया, तो रूस भी असद की ढाल बनकर सामने आ गया. अब जहां रूस होगा तो उसके खिलाफ अमेरिका को तो आना ही था.

अमेरिका ने भी सीरिया में असद सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. कुल मिलाकर सीरिया अब एक बड़ा अखाड़ा बन चुका था जहां कई देश दंगल खेल रहे थे. मगर अब भी किसी तरह असद अपनी सरकार बचाए हुए थे. सीरियाई सेना के खिलाफ लड़ाई जारी थी, फिर हुआ यूं कि असद जिस ईरान और पुतिन के भरोसे बैठे थे, उन दोनों देशों की स्थिति भी काफी डगमगा गयी. रूसी राष्ट्रपति पुतिन का सारा ध्यान यूक्रेन में जंग की तरफ था. यूक्रेन के साथ जंग में उन्हें भारी क्षति हो रही थी. दूसरी तरफ ईरान भी हिज्बुल्लाह के चक्कर में इजरायल से उलझा हुआ था. ऐसे वक्त में पुतिन और ईरान दोनों ने ही असद की और मदद करने से इंकार कर दिया. हालत ऐसी हो गयी कि असद की सेना के पास सिर्फ तीन दिन का राशन बचा था. फिर क्या था असद को अपने अंजाम का अहसास हो गया. और वह बच निकलने की योजना बनाने लगे.

11 दिन पहले सीरिया में फिर से विद्रोह ने जोर पकड़ा. सीरियाई सैनिक चौकी, पोस्ट छोड़-छोड़ कर भागने लगे. देखते ही देखते इन्हीं 11 दिनों में असद के हाथों से सीरिया की राजधानी दमिश्क समेत 5 बड़े शहर अलेप्पो, हमा, होम्स और वह दारा भी निकल गया जहां से इस क्रांति की शुरुआत हुई थी. 8 दिसंबर को बशर अल-असद सीरिया पर 20 साल हुकुमत करने के बाद दमिश्क से एक प्लेन में बैठ कर चुपचाप रूस चले गए. अपने परिवार को वह पहले ही वहां शिफ्ट कर चुके थे. पुतिन ने भी अपनी दोस्ती निभाई और असद को अपने घर में पनाह दी. मगर कब तक. पुतिन जिस तरह यूक्रेन को लेकर जंग छेड़े हुए हैं उससे उनकी भी आतंरिक हालत खस्ता है. कब पुतिन का सितारा अस्त हो जाए और रूस भी तानाशाही की गुलामी से आजाद हो जाए कहा नहीं जा सकता है. मगर जल्दी ही यह होना है. क्योंकि तानाशाही ज्यादा दिन चलती नहीं है और तानाशाहों का अंत बहुत दर्दनाक होता है. हिटलर हों, स्टालिन हों, ईदी अमीन हों, फ्रांसिस्को फ्रैंको हों या सद्दाम हुसैन, सबका अंत दर्दनाक था. इतने उदाहरणों के बाद भी दुनिया यह नहीं समझ रही कि लोकतंत्र ही शासन का सबसे बेहतर तरीका है.

भले लोकतंत्र बहुत मजबूत ना हो, भले उसमें कमीबेशी हो, भले भ्रष्टाचार हो मगर जनता द्वारा चलाया जाने वाला शासन ही जनता की जरूरतों को समझता है और जनता को भी समझ में आता है. भारत हो, नेपाल हो, पाकिस्तान हो या बांग्लादेश यहां उस तरह के हालात नहीं हैं जैसे तानाशाही हुकूमत वाले देशों के हैं. यहां लचर लोकतंत्र ही सही मगर उसने देश को बर्बाद होने से बचाया हुआ है.

 

अरब स्प्रिंग या जैस्मिन क्रांति के 13 साल में मिट गया तानाशाहों का राज

साल 2011 अरब जगत के देशों के लिए भारी उथल-पुथल भरा था. ट्यूनीशिया में एक सब्जी बेचने वाले के आत्मदाह से भड़की आग में इस क्षेत्र के कई देश झुलस गए. आलम ये था कि ट्यूनीशिया से निकली विद्रोह की ये चिंगारी मिस्र, लीबिया, यमन और सीरिया कई देशों तक फैली. विद्रोह की इस चिंगारी को जैस्मीन क्रांति या फिर अरब स्प्रिंग भी कहा गया. इस क्रांति ने कई तानाशाहों की चूल्हें हिला दी और उन्हें गद्दी से उतार फेंका.

इस फेहरिस्त में पहला नाम मिस्र के तानाशाह होस्नी मुबारक का है. होस्नी मुबारक 1981 में अनवर सदत की हत्या के बाद मिस्र के राष्ट्रपति बने थे. वह 1981 से 2011 तक मिस्र में एकछत्र राज करते रहे. लेकिन
2011 में ट्यूनीशिया से निकली विद्रोह की चिंगारी में उन्हें गद्दी से उतरना पड़ा.

जनवरी 2011 में मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर स्क्वायर में हजारों की संख्या में प्रदर्शनकारी इकट्ठा हुए, जिन्होंने राजनीतिक सुधारों और मुबारक के इस्तीफे की मांग की. सोशल मीडिया और इंटरनेट के जरिए आंदोलन को व्यापक समर्थन मिला, जिसने सरकार के दमन के प्रयासों को चुनौती दी.

होस्नी मुबारक सरकार ने शुरुआत में इन विरोधों को दबाने की कोशिश की लेकिन जनता के भारी समर्थन और वैश्विक दबाव के सामने उनकी रणनीति असफल रही. पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच झड़प के बावजूद प्रदर्शनकारियों ने अपनी मांगों को जारी रखा. लेकिन 18 दिनों तक हुए हिंसक प्रदर्शन के बाद होस्नी मुबारक को अपना पद छोड़ना पड़ा, और सत्ता सेना के हाथ में चली गई. यह पहली बार था जब मिडिल ईस्ट में सोशल मीडिया से शुरू होकर सड़क तक पहुंचे एक आंदोलन ने किसी निरंकुश शासक को सत्ता से उखाड़ फेंका था. इस प्रोटेस्ट में 239 प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी.

क्रूर कर्नल गद्दाफी का खौफनाक अंत

जैस्मिन क्रांति की आग में ही लीबिया के क्रूर तानाशाह मुअम्मर अल गद्दाफी की गद्दी भी जल गई थी. 2011 में विद्रोही लड़ाकों ने राजधानी त्रिपोली में गद्दाफी के बाब अल-अजीजिया पर कब्जा कर लिया था. इस दौरान गद्दाफी की मूर्तियां ढहा दी गईं. 25 एकड़ में फैले गद्दाफी के महल में घुसकर विद्रोहियों ने जमकर लूटपाट की. इसके बाद गद्दाफी को पकड़ लिया गया.

मुअम्मर अल गद्दाफी ने लीबिया पर 42 सालों तक राज किया था. उन्होंने मात्र 27 साल की उम्र में तख्तापलट कर दिया था. 7 जून 1942 को लीबिया के सिर्ते शहर में जन्मा गद्दाफी हमेशा से अरब राष्ट्रवाद से प्रभावित रहा और मिस्र के नेता गमाल अब्देल नासिर का प्रशंसक रहा.

गद्दाफी बेहद क्रूर था. उसे लोग सनकी तक कहते थे. विद्रोहियों ने राजधानी त्रिपोली पर कब्जा कर लिया. जून 2011 में मामला अंतरराष्ट्रीय अपराध अदालत पहुंचा. यहां अत्याचार करने के लिए गद्दाफी, उसके बेटे सैफ अल इस्लाम और उसके बहनोई के खिलाफ वारंट जारी किया गया. जुलाई में दुनिया के 30 देशों ने लीबिया में विद्रोहियों की सरकार को मान्यता दे दी. 20 अक्टूबर 2011 को गद्दाफी को उसके गृहनगर सिर्ते में मार गिराया गया. हालांकि मौत कैसे हुई इस पर संशय रहा.

कई रिपोर्ट्स के मुताबिक, जब विद्रोही गद्दाफी को मार रहे थे तो वह उनसे गुहार लगा रहा था कि उसे गोली न मारी जाए. मारे जाने के बाद गद्दाफी की कई तस्वीरें सामने आई थीं. उनके मरने की खबर सुनने के बाद लीबिया में लोगों ने जमकर जश्न मनाया था.

बता दें कि ट्यूनीशियाई क्रांति 28 दिन तक चलने वाला एक विद्रोह था. नागरिकों के इस विरोध के कारण जनवरी 2011 में लंबे समय तक राष्ट्रपति पद पर रहे जीन अल आबिदीन बेन अली को पद से हटने लिए मजबूर होना पड़ा. इसके बाद देश में लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई.

बशर अल असद का तख्तापलट

इस फेहरिस्त में नया नाम बशर अल असद का है. कई मोर्चों पर जंग के बीच सीरिया पर विद्रोहियों का कब्जा हो चुका है. राष्ट्रपति बशर अल असद ने अपने परिवार सहित रूस में राजनीतिक शरण ले ली है. इस बीच सीरिया से ऐसी कई तस्वीरें और वीडियो सामने आए, जिसमें लोगों को राष्ट्रपति भवन के भीतर लूटपाट करते और हुड़दंग मचाते देखा गया. इसी तरह की लूटपाट श्रीलंका के राष्ट्रपति भवन, बांग्लादेश के बंगभवन और काबुल से भी देखने को मिली थी.

एक हफ्ते में विद्रोहियों ने राजधानी दमिश्क के अलावा सीरिया के चार बड़े शहरों पर कब्जा कर लिया है, अब सवाल ये है कि सीरिया में अब आगे क्या होगा? विद्रोहियों की जीत के साथ ही सीरिया में बशर अल-असद के 24 साल के शासन और देश में 13 साल से चल रहे गृह युद्ध का अंत हो गया है. अब सीरिया की राजधानी दमिश पर हयात अल-शाम का कब्जा है.

सीरियाई शरणार्थियों की घर वापसी

सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद के सत्ताच्युत होने और देश छोड़ने के बाद से जॉर्डन और लेबनान समेत तमाम देशों से सीरियाई शरणार्थी अपने मुल्क वापस लौट रहे हैं. यूनाइटेड नेशन्स के डेटा के अनुसार, दुनियाभर में सबसे ज्यादा शरणार्थियों में एक सीरियाई रिफ्यूजी हैं. साल 2011 में सीरिया में गृह युद्ध शुरू हुआ. लड़ाई विद्रोही समूहों और असद सरकार के बीच थी. सरकार विरोधी गुटों का कहना था कि वे महंगाई, हिंसा और भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं. पहले सड़कों पर आंदोलन शुरू हुआ, जिसे अरब स्प्रिंग कहा गया. जल्द ही इसमें मिलिटेंट्स शामिल हो गए, जिन्हें विदेशी ताकतों का सपोर्ट था. हालात बिगड़ने लगे. पहले तो सीरियाई नागरिक अपने ही देश में विस्थापित होने लगे. जल्द ही वहां भी असुरक्षा बढ़ने पर वे पड़ोसी देशों की शरण लेने लगे. और फिर वे यूरोप और अमेरिका तक चले गए. पांच सालों से ज्यादा चली लड़ाई में शरणार्थियों ने देश लौट सकने की उम्मीद खो दी थी लेकिन अब असद सरकार के गिरने के साथ वे दोबारा लौट रहे हैं.

यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज की मानें तो सीरिया के भीतर ही 7 मिलियन से ज्यादा नागरिक विस्थापित हैं, जबकि लगभग इतने ही लोग दूसरे देशों में शरण ले चुके. इनमें से तुर्की में सबसे ज्यादा लगभग साढ़े तीन करोड़ सीरियाई शरणार्थी हैं. इसके बाद लेबनान, जॉर्डन, जर्मनी और फिर ईराक है. इनमें से लगभग सारे ही मिडिल ईस्टर्न देश लगातार सीरिया के मामले में मध्यस्थता करने की कोशिश करते रहे ताकि उनके अपने देश से रिफ्यूजियों की आबादी घट सके. अब पड़ोसी देशों से उनकी वापसी शुरू हो चुकी है.

ज्यादातर देशों में सीरिया के शरणार्थियों को लेबर मार्केट में औपचारिक एंट्री नहीं है. वे काम तो कर रहे हैं लेकिन छुटपुट या फिर थर्ड पार्टी के जरिए. सरकारी कामों या बड़े कामों से योग्यता के बाद भी उन्हें दूर रखा जाता है. अगर वे लेबर फोर्स में शामिल होना चाहें तो इसकी सजा भी है. मसलन लेबनान वैसे तो सीरिया का मददगार है लेकिन अपने यहां शरण देने वालों के सामने उसने शर्त रख दी कि वे तभी अपना शरणार्थी स्टेटस रिन्यू करवा सकते हैं, जब वे वर्कफोर्स से दूर रहें. द गार्जियन की रिपोर्ट के अनुसार, इसके लिए उनसे बाकायदा दस्तखत करवाया जाता है.

शरणार्थियों के लिए फंड की कमी

इन देशों के पास शरणार्थियों को देने के लिए कुछ खास नहीं है. आमतौर पर यूनाइटेड नेशन्स की तरफ से इनके लिए कई प्रोग्राम चलते हैं. सीरिया को भी मदद मिल रही है. लेकिन ये समस्या एक दशक से भी ज्यादा लंबे समय तक खिंच गई और रिफ्यूजियों की आबादी भी काफी ज्यादा है. ऐसे में यूएनएचसीआर को भी फंडर्स की कमी होने लगी. कुछ साल पहले जब वर्ल्ड फूड प्रोग्राम ने हजारों शरणार्थियों को खाना पहुंचाने से इनकार कर दिया था, तब इस बात पर पहली बार ध्यान गया था. इसी के बाद कैंप्स से निकलकर रिफ्यूजी बाहर घूमने लगे और स्थानीय लोगों और उनके बीच तनाव बढ़ने लगा.

ज्यादातर देशों में सीरियाई रिफ्यूजियों के लिए मेडिकल सुविधाएं भी काफी नहीं. जैसे जॉर्डन में बहुत से लोगों के पास फ्री हेल्थकेयर नहीं है, खासकर वयस्कों के लिए. स्वास्थ्य सुविधाओं के अलावा, उनके बच्चों के पास फॉर्मल एजुकेशन की भी गुंजाइश कम है. इंटरनेशनल सपोर्ट के बगैर शरण दे चुके देश सीधे-सीधे उन्हें हटा नहीं रहे थे, लेकिन उन्होंने शरणार्थियों पर तमाम ऐसी बंदिशें लाद दी थीं कि वे खुद ही देश छोड़ना चाहें. ऐसे में असद सरकार के जाते ही रिफ्यूजी, खासकर पड़ोसी देशों में बसे लोग घर वापसी कर रहे हैं.

Sad Hindi Story : यह कैसी मां

माया को देखते ही बाबा ने रोना शुरू कर दिया था और मां चिल्लाना शुरू हो गई थीं. मां बोलीं, ‘‘बाप ने बुला लिया और बेटी दौड़ी चली आई. अरे, हम मियांबीवी के बीच में पड़ने का हक किसी को भी नहीं है. आज हम झगड़ रहे हैं तो कल प्यार भी करेंगे. 55 साल हम ने साथ गुजारे हैं. मैं अपने बीच में किसी को भी नहीं आने दूंगी.’’

‘‘मैं इस के साथ नहीं रहूंगा. तुम मुझे अपने साथ ले चलो,’’ कहते हुए बाबा बच्चों की तरह फूटफूट कर रो पड़े.

‘‘मैं तुम को छोड़ने वाली नहीं हूं. तुम जहां भी जाओगे मैं भी साथ चलूंगी,’’ मां बोलीं.

‘‘तुम दोनों आपस का झगड़ा बंद करो और मुझे बताओ क्या बात है?’’

‘‘यह मुझे नोचती है. नोचनोच कर पूछती है कि नीना के साथ मेरे क्या संबंध थे? जब मैं बताता हूं तो विश्वास नहीं करती और नोचना शुरू कर देती है.’’

‘‘अच्छाअच्छा, दिखाओ तो कहां नोचा है? झूठ बोलते हो. नोचती हूं तो कहीं तो निशान होंगे.’’

‘‘बाबा, दिखाओ तो कहां नोचा है?’’

बाबा फिर रोने लगे. बोले, ‘‘तेरी मां पागल हो गई है. इसे डाक्टर के पास ले जाओ,’’ इतना कहते हुए उन्होंने अपना पाजामा उतारना शुरू किया.

मां तुरंत बोलीं, ‘‘अरे, पाजामा क्यों उतार रहे हो. अब बेटी के सामने भी नंगे हो जाओगे. तुम्हें तो नंगे होने की आदत है.’’

बाबा ने पाजामा नीचे कर के दिखाया. उन की जांघों और नितंबों पर कई जगह नील पड़े हुए थे. कई दाग तो जख्म में बदलने लगे थे. वह बोले, ‘‘देख, तेरी मां मुझे यहां नोचती है ताकि मैं किसी को दिखा भी न पाऊं. पीछे मुड़ कर दवा भी न लगा सकूं.’’

‘‘हांहां, मैं नोचूंगी. जितना कष्ट तुम ने मुझे दिया है उतना ही कष्ट मैं भी दूंगी,’’ इतना कहते हुए मां उठीं और एक बार जोर से बाबा की जांघ पर फिर चूंटी काट दी. बाबा दर्द से तिलमिला उठे और माया के पैरों पर गिर कर बोले, ‘‘बेटी, मुझे इस नरक से निकाल ले. मेरा अंत भी नहीं आता है. मुझे कोई दवा दे दे ताकि मैं हमेशा के लिए सो जाऊं.’’

‘‘अरे, ऐसे कैसे मरोगे. तड़पतड़प कर मरोगे. तुम्हारे शरीर में कीड़े पड़ेंगे,’’ मां चीखीं.

24 घंटे पहले ही माया का फोन बजा था.

सुबह के 9 बज चुके थे, पर माया अभी तक सो रही थी. उस के सोने का समय सुबह 4 बजे से शुरू होता और फिर 9-10 बजे तक सोती रहती.

माया के पति मोहन मर्चेंट नेवी में थे इसलिए अधिकतर समय उसे अकेले ही बिताना पड़ता था. अकेले उसे बहुत डर लगता था इसलिए सो नहीं पाती थी. सारी रात उस का टेलीविजन चलता था. उसे लगता था कि बाहर वालों को ऐसा लगना चाहिए कि इस घर में तो रात को भी रौनक रहती है.

सुबह 4 बजे जब दूध की लारी बाहर सड़क पर आ जाती और लोगों की चहलपहल शुरू हो जाती तो वह टेलीविजन बंद कर के नींद के आगोश में चली जाती थी. काम वाली बाई भी 11 बजे के बाद ही आ कर घंटी बजाती थी.

उस ने फोन की घंटी सुनी तो भी वह उठने के मूड में नहीं थी, उसे लगा था कि यह आधी रात को कौन उसे जगा रहा है. पर एक बार कट कर फिर घंटी बजनी शुरू हुई तो बजती ही चली गई.

अब उस ने फोन उठाया तो उधर से बाबा की आवाज सुनाई दी, ‘‘हैलो, मन्नू, तेरी मां मुझे मारती है,’’ कह कर उन के रोने की आवाज आनी शुरू हो गई. माया एकदम परेशान हो उठी.

उस के पिता उसे प्यार से मन्नू ही बुलाते थे. 80 साल के पिता फोन पर उसे बता रहे थे कि 70 साल की मां उन्हें मारती है. यह कैसे संभव हो सकता है.

‘‘आप रो क्यों रहे हो? मां कहां हैं? उन्हें फोन दो.’’

‘‘मैं बाहर से बोल रहा हूं. घर में उस के सामने मैं उस की शिकायत नहीं कर सकता,’’ इतना कह कर वह फिर रोने लगे थे.

‘‘क्यों मारती हैं मां?’’

‘‘कहती हैं कि नीना राव से मेरा इश्क था.’’

‘‘कौन नीना राव, बाबा?’’

‘‘वही हीरोइन जिस को मैं ने प्रमोट किया था.’’

‘‘पर इस बात को तो 40 साल हो गए होंगे.’’

‘‘हां, 40 से भी ज्यादा.’’

‘‘आज मां को वह सब कैसे याद आ रहा है?’’

‘‘मैं नहीं जानता. मुझे लगता है कि वह पागल हो गई है. मैं घर नहीं जाऊंगा. वह मुझे नोचती है. नोचनोच कर खून निकाल देती है,’’ बाबा ने कहा और फिर रोने लगे.

‘‘आप अभी तो घर जाओ. मैं मां से बात करूंगी.’’

‘‘नहीं, उस से कुछ मत पूछना, वह मुझे और मारेगी.’’

‘‘अच्छा, नहीं पूछती. आप घर जाओ, नहीं तो वह परेशान हो जाएंगी.’’

‘‘अच्छा, जाता हूं पर तू आ कर मुझे ले जा. मैं इस के साथ नहीं रह सकता.’’

‘‘जल्दी ही आऊंगी, आप अभी तो घर जाओ.’’

बाबा ने फोन रख दिया था. माया ने भी फोन रखा और अपनी शून्य हुई चेतना को वापस ला कर सोचना शुरू किया. पहला विचार यही आया कि मां को पागल बनाने वाली यह नीना राव कौन थी और वह 40 साल पहले वाले जमाने में पहुंच गई.

तब वह 12 साल की रही होगी और 7वीं कक्षा में पढ़ती होगी. तब उस के बाबा एक प्रसिद्ध फिल्मी पत्रिका के संपादक थे.

बाबा और मां का उठनाबैठना लगातार फिल्मी हस्तियों के साथ ही होता था. दोनों लगातार सोशल लाइफ में ही व्यस्त रहते थे. अपने बच्चों के लिए भी उन के पास समय नहीं था. उन की दादी- मां ही उन्हें पाल रही थीं. रात भर पार्टियों में पीने के बाद दोनों जब घर लौटते तो आधी रात हो चुकी होती थी. सुबह जब माया और राजा स्कूल जाते तब वे दोनों गहरी नींद में होते थे. जब माया और राजा स्कूल से घर लौटते तो बाबा अपने काम से और मां किटी और ताश पार्टी के लिए निकल चुकी होतीं.

स्कूल में भी सब को पता था कि उस के पिता फिल्मी लोगों के साथ ही घूमते हैं इसलिए जब भी कोई अफवाह किसी हीरोहीरोइन के बारे में उड़ती तो उस की सहेलियां उसे घेर लेती थीं और पूछतीं, ‘क्या सच में राजेंद्र कुमार तलाक दे कर मीना कुमारी से शादी कर रहा है?’ दूसरी पूछती, ‘क्या देवआनंद अभी भी सुरैया के घर के चक्कर लगाता है?’ तीसरी पूछती, ‘सच बता, क्या तू ने नूतन को देखा है? सुना है देखने में वह उतनी सुंदर नहीं है जितनी परदे पर दिखती है?’

ऐसे अनेक प्रश्नों का उत्तर माया के पास नहीं होता था, क्योंकि उस की दादीमां बच्चों को फिल्मी दुनिया की खबरों से दूर ही रखती थीं. पर एक बार ऐसा जरूर हुआ जब मां उसे अपने साथ ले गई थीं. कार किनारे खड़ी कर के उन्होंने कहा था, ‘देखो, उस घर में जाओ. बाबा वहां हैं. तुम थोड़ी देर वहां बैठना और सुनना नीना और बाबा क्या बातें कर रहे हैं और कैसे बैठे हैं.’

वह पहला अवसर था जब वह किसी हीरोइन के घर जा रही थी. उस ने अपनी फ्राक को ठीक किया था, बालों को संवारा था और कमरे के अंदर चली गई थी. उस ने बस इतना सुना था कि कोई नई हीरोइन है और अगले ही महीने एक प्रसिद्ध हीरो के साथ एक फिल्म में आने वाली है.

नमस्ते कह कर वह बैठ गई थी. बाबा ने पूछा था, ‘कैसे आई हो? मां कहां हैं?’

उस ने उत्तर दिया था, ‘मां बाजार गई हैं. अभी थोड़ी देर में आ जाएंगी.’

बाबा ने बैठने का इशारा किया था और फिर नीना से बातें करने में व्यस्त हो गए थे. माया के कान खड़े थे. मां ने कहा था कि सब बातें ध्यान से सुनना और फिर उसे यह भी देखना था कि बाबा और नीना कैसे बैठे हुए हैं. उस ने ध्यान से देखा था कि नीना ने बहुत सुंदर स्कर्ट ब्लाउज पहना हुआ था और वह आराम से सोफे पर बैठी थी. उस के हाथ में एक सिगरेट थी जिसे वह थोड़ीथोड़ी देर में पी रही थी. बाबा पास ही एक कुरसी पर बैठे थे और दोनों लगातार फिल्म पब्लिसिटी की ही बात कर रहे थे.

किसी भी नए हीरो या हीरोइन को प्रमोट करने के काम के लिए बाबा को काफी रुपए मिलते थे और मां को ऐसे धन की आदत पड़ गई थी. उन का जीवन ऐशोआराम से भरा था. आएदिन नए शहरों में जाना, पांचसितारा होटलों में रुकना, रंगीन पार्टियों का मजा लेना उन की आदत में शुमार हो गया था. तब उन्होंने भी यह उड़ती सी खबर सुनी थी कि बाबा उस हीरोइन पर ज्यादा ही मेहरबान हैं, पर उस के द्वारा जो धन की वर्षा हो रही थी उस ने मां के दिमाग को बेकार बना दिया था.

मां को तो बस, भरे हुए पर्स से मतलब था. जब मां को तनाव होना चाहिए था तब तो कुछ नहीं हुआ, पर कुछ साल बीत जाने के बाद उन्होंने बाबा को कुरेदना शुरू किया था. वह कहतीं, ‘अच्छा, सचसच बताना नीना को तुम प्यार करने लगे थे क्या?’

बाबा बोलते, ‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है. तुम्हें पता है कि पब्लिसिटी के लिए क्याक्या कहानियां बनानी पड़ती हैं. तुम तो लगातार मेरे साथ थीं फिर अब क्यों पूछ रही हो?’

अब तक बाबा का काम कम हो गया था. बाजार में और भी कई फिल्मी पत्रिकाएं आ चुकी थीं. जवान और चालाक सेके्रटरी हीरोहीरोइनों को संभालने के लिए आ चुके थे. ऐसे भी कभीकभी ही थोड़ा सा काम मिलता था. पैसे की भी काफी तंगी हो गई थी. जवानी में बाबा ने पैसा बचाया नहीं और अब पुरानी आदतें छूट नहीं पा रही थीं इसलिए मां और बाबा में भी आपस में कहासुनी होनी शुरू हो गई थी.

 

अब तक माया विवाह योग्य हो चुकी थी और उस ने अपना जीवनसाथी स्वयं ही चुन लिया था. राजा भी काम की तलाश में अमेरिका पहुंच गया था. बुरी आदतें और अनियमित दिनचर्या के कारण बाबा की सेहत भी डगमगाने लगी थी. चारों तरफ से दबाव ही दबाव था. अब मां के गहने बिकने शुरू हो गए थे. ऐसे में जब भी मां का कोई गहना बिकता, अपना गुस्सा इसी प्रकार से बाबा से प्रश्न कर के निकालतीं.

कभी पूछतीं, ‘अच्छा उस साल दीवाली पर तुम ने रात नीना के घर गुजारी थी न? घर में और भी कोई था या तुम दोनों अकेले थे?’

बाबा जो भी उत्तर देते, उस पर उन्हें विश्वास नहीं होता. ढलती उम्र, बालों में फैलती सफेदी और कमजोर होते अंगप्रत्यंग उन्हें अत्यंत शंकालु बनाते जा रहे थे. तब तक केवल मां की जबान ही चलती थी. फिर माया का विवाह हो गया और वह विदेश चली गई. उस के पति की नौकरी अच्छी थी इसलिए वह हर महीने मां और बाबा के लिए भी पैसे भेजती थी. घर उन का अपना था इसलिए आधा घर किराए पर दे दिया था. वहां से भी हर महीने पैसा मिल जाता था. इस प्रकार दोनों का गुजारा भली प्रकार से चल रहा था.

बीचबीच में माया का चक्कर मुंबई का लगता रहता था पर तब उस ने कभी इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया था कि दोनों का आपस में झगड़ा किस बात को ले कर होता है. मां कभीकभी उसे भी जलीकटी सुना देती थीं, बोलतीं, ‘अरे, बाबा ने जवानी में बहुत मस्ती मारी है. अभी वैसा नहीं है इसलिए झुंझलाए रहते हैं. अब इस बूढ़े को कौन मुंह लगाएगा.’

‘मां, चुप हो जाओ. बाबा के लिए ऐसे कैसे बोलती हो? तुम भी तो मस्ती मारती थीं.’

‘नहींनहीं, मैं तो सिर्फ ताश खेलती थी, इन की मस्तियां तो हाड़मांस की होती थीं.’

माया डांट कर मां को चुप करा देती थी. उस ने तो दोनों को जवानी में मौजमस्ती करते ही देखा था. अगर दादी नहीं होतीं तो उन दोनों भाईबहनों का बचपन पता नहीं कैसे बीतता.

कुछ सालों बाद माया भारत लौट आई थी. उस ने अपने बच्चों की शिक्षा के लिए चेन्नई को चुना था. माया के पति साल में 2 ही बार छुट्टी पर चेन्नई आते थे. अब साल में एक बार वह भी मांबाबा को बुला लेती थी. एक माह बिताने के बाद वे मुंबई लौट जाते थे. जितने दिन बेटी के पास रहते बहुत सुखसुविधा में रहते पर उन की जड़ें तो मुंबई में थीं इसलिए उन्हें वहां लौटने की भी जल्दी होती थी.

जितने दिन वे दोनों बेटी के पास होते उतने दिन उन में झगड़ा नहीं होता था. पर माया ने देखा था कि मां का व्यवहार थोड़ा अजीब होता जा रहा है. बाबा को दुखी देख कर उन्हें बहुत अच्छा लगता था. यदि बाबा को कोई चोट लग जाती तो वह तालियां बजाने लगती थीं. उन की इस बचकानी हरकत पर माया को बहुत गुस्सा आता था और वह मां को डांट भी देती थी.

लेकिन आज के फोन ने माया को हिला कर रख दिया था. इतने बूढ़े पिता को उन की जीवनसंगिनी ही मार रही है और वह किसी से शिकायत भी नहीं कर सकते हैं. उस ने कुछ सोचा और मुंबई अपने मामा को फोन मिलाया. वह फोन पर बोली, ‘‘मामा, मां और बाबा कैसे हैं? इधर आप का चक्कर उन के घर का लगा था?’’

‘‘नहीं, मैं एक महीने से उन के घर नहीं गया हूं. मेरे घुटनों में बहुत दर्द रहता है. मैं कहीं भी आताजाता नहीं हूं. क्यों, क्या बात है? उन का हालचाल जानने के लिए उन को फोन करो.’’

‘‘सुबह बाबा का फोन आया था. रो रहे थे. मुझे बुला रहे हैं. आप जरा देख कर आइए क्या बात है? इतनी दूर से आना आसान नहीं है.’’

‘‘तुम कहती हो तो आज ही दोपहर को चला जाता हूं. तुम मुझ से वहीं बात कर लेना.’’

‘‘ठीक है, मैं 2 बजे फोन करूंगी,’’ कह कर माया ने फोन रख दिया.

अब किसी भी काम में माया का दिल नहीं लग रहा था. समय बिताने के लिए उस ने पुराना अलबम उठा लिया. उस के बाबा और मां की फोटो हर हीरोहीरोइन के साथ थी. नीना राव के साथ एक फोटो में उस ने मांबाबा को देखा. नीना राव कितनी खूबसूरत थी. माया ने तो उसे पास से भी देखा था. उस की गुलाबी रंगत देखते ही बनती थी. नीना राव की सुंदरता के आगे मां फीकी लग रही थीं. इस फोटो में बाबा ने दोनों औरतों के गले में बांहें डाली हुई थीं.

नीना की सुंदरता देख कर माया ने सोचा तब मां को जरूर हीन भावना होती होगी, पर बाबा का काम ही ऐसा था कि वह उन के काम में बाधा नहीं डाल सकती थीं. जब नीना को प्रमोट किया जा रहा था तब बाबा का अधिक से अधिक समय उस के साथ ही बीतता था. तब मां अपनी किटी पार्टियों में व्यस्त रहती थीं. हर जगह वह बाबा के साथ नहीं जा सकती थीं. तब का मन में दबाया हुआ आक्रोश अब मानसिक विकृति बन कर उजागर हो रहा था. वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि मानसिक अवसाद कितना घिनौना रूप ले सकता है.

2 बजते ही माया ने मुंबई फोन मिलाया. मामा ने फोन उठाया और बोले, ‘‘तुम जल्दी आ जाओ. यहां के हालात ठीक नहीं हैं. मैं तुम्हें फोन पर कुछ भी नहीं बता सकता हूं.’’

फोन रखते ही माया ने शाम की फ्लाइट पकड़ी और रात के 10 बजे तक  घर पहुंच गई थी.

उन दोनों की हालत देख कर माया भी रो पड़ी. अकेले वह दोनों को नहीं संभाल सकती थी. उस ने अपने बड़े बेटे को फोन कर के बंगलौर से बुला लिया. उस ने भी दोनों की हालत देखी और दुखी हो गया. दोनों मांबेटे ने बहुत दिमाग लगाया और इस फैसले पर पहुंचे कि मां और बाबा को अलगअलग रखा जाए, माया बाबा को अपने साथ ले गई और मां को एक नर्स और एक नौकरानी के सहारे छोड़ दिया.

मां को बहुत समझाया और साथ ही धमकी भी दे डाली, ‘‘सुधर जाओ, नहीं तो मैंटल हास्पिटल में डाल देंगे. तुम्हारा बुढ़ापा बिगड़ जाएगा.’’

एक छोटे बच्चे की तरह बाबा माया का हाथ पकड़ कर घर से बाहर निकले और तेजी से जा कर कार में बैठ गए. उस अप्रत्याशित मोड़ ने मां को स्तंभित कर दिया था. वह शांत हो कर अपने बिस्तर पर बैठी रहीं और नर्स ने उन्हें नींद की गोली दे कर लिटा दिया. कल से ही उन का इलाज शुरू होगा.

 

Comedy : शादीलाल की शरारती सालियां

लेखक – अजीत श्रीवास्‍तव 

शादीलाल जैसा सामान धरती पर कम ही मिलता है. साढ़े 4 फुट की उस चीज का पेट आगे निकला हुआ था और गंजे सिर पर गिनने लायक बाल थे. मुझे यकीन था कि उस की शादी नामुमकिन है, पर शायद वह अपने माथे पर कुछ और ही लिखा कर लाया था.

पिछले साल ही तो शादीलाल की शादी हुई थी. कुदरत ने उस के साथ मजाक नहीं किया, क्योंकि कोई भी यह नहीं कह सकता था कि ‘राम मिलाए जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी’.

जी हां, जैसा हमारा प्यारा दोस्त शादीलाल था, ठीक वैसी ही उस की बीवी यानी मेरी भाभी आई थीं. वे भी करीब 37 साल की होंगी. शादीलाल की कदकाठी से ले कर मोटापा, लंबाई, ऊंचाई, निचाई, चौड़ाई सभी में जबरदस्त टक्कर देने वाली थीं.

मेरी भाभी का नाम पहले कुमारी सुंदरी था, पर अब श्रीमती सुंदरी देवी हो गया था.

पर भाभी का सुंदरी होना तो दूर, वे सुंदरी का ‘सु’ भी नहीं थीं, मगर ससुराल के नाम से बिदकने वाला मेरा यार गजब की तकदीर पाए हुए था. उस के 7 सगी सालियां थीं और सातों एक से बढ़ कर एक.

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मैं भी शादी में गया था. सच कहता हूं कि मेरा ईमान भूचाल में जैसे धरती डोलती है, वैसे डोल गया था. अगर मेरी नकेल पहले से न कसी होती, तो मैं शादीलाल की सालियों के साथ इश्क कर डालता.

शादी में शादीलाल की सालियों ने उस की इतनी खिंचाई की थी कि वह ससुराल का नाम लेना ही भूल गया. शादी में उस से जूतों की पूजा कराई गई. धोखे में डाल कर सुंदरी देवी के पैर छुआए गए. सुंदरी देवी के नाम से झूठी चिट्ठी भेज कर उसे जनवासे से 7 फर्लांग दूर बुलवाया गया.

खैर, होनी को कौन टाल सकता था. आज शादीलाल की शादी को एक साल हो गया. सुंदरी देवी अपने मायके में थीं. वे न जाने कितनी बार वहां हो आईं, पर मेरे यार ने कभी वहां की यात्रा का नाम नहीं लिया.

वहां से ससुर साहब की चिट्ठी आई कि आप शादी के बाद से ससुराल नहीं आए. अब सुंदरी की विदाई तभी होगी जब आप खुद आएंगे, वरना नहीं.

यह वाकिआ मुझे तब पता चला, जब औफिस की बड़े बाबू वाली कुरसी पर शादीलाल को गमगीन बैठे देखा.

‘‘मेरे यार, क्या कहीं से कोई तार वगैरह आया है या गमी हो गई?’’ मैं ने घबरा कर पूछा.

शादीलाल ने अपना मुंह नहीं खोला. अलबत्ता, नाक पर मक्खी बैठ जाने पर भैंस जैसे सिर हिलाती है, वैसे न में सिर हिला दिया.

तब मैं ने पूछा, ‘‘क्या आप को सुंदरी देवी की तरफ से तलाक का नोटिस आया है? क्या वे बीमार हैं या सासससुर गुजर गए?’’

अब शादीलाल ने जो सिर उठाया, तो मेरा दिल बैठ गया. लाललाल आंखें आंसुओं से भरी थीं. चेहरा गधे सा मुरझाया था.

मैं ने उस के हाथ पर हाथ रखा, तो शादीलाल रो उठा और बोला, ‘‘देखो एकलौता राम, तुम मेरे खास दोस्त हो, तुम से क्या छिपाना. चिट्ठी आई है.’’

‘‘क्या कोई बुरी खबर है या कोई अनहोनी घटना घट गई?’’

‘‘नहीं, ससुरजी ने मुझे बुलाया है. इस बार वे साले के साथ सुंदरी को नहीं भेज रहे हैं. अब तो मुझे जाना ही होगा.’’

‘‘अरे, तो इस में घबराने की क्या बात है. ससुराल से बुलावा तो अच्छे लोगों को ही मिलता है. तुम तो

7 सालियों के आधे घरवाले हो, तुम जरूर जाओ.’’

‘‘नहीं यार, यही तो मुसीबत है. मैं उन सातों के मुंह में तिनके की तरह समा जाता हूं.’’

‘‘शादीलाल, तुम्हें क्या हो गया है? घबराओ मत, मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ मैं ने उसे हौसला बंधाया.

‘‘एकलौता राम, मुझे तुम्हीं पर भरोसा है. इस संसार में मेरा साथ देने वाले यार तुम्हीं हो. क्या तुम मेरे ऊपर एक एहसान करोगे?’’

‘‘कहो यार, मैं तो यारों का एकलौता राम हूं.’’

‘‘तुम को मेरे साथ मेरी ससुराल चलना होगा, वरना मेरी शैतान सालियां मुझे सतासता कर काढ़ा बना कर पी जाएंगी.’’

मैं ने शादीलाल को समझाना चाहा, पर वह मुझे अपनी ससुराल ले ही गया. इस तरह अब शादीलाल की ससुराल यात्रा और साथ में एकलौता राम की यादगार यात्रा शुरू हो गई.

87 किलोमीटर दूर ससुराल में पहुंचे, तो हमारी खूब खातिरदारी हुई. फिर सातों शैतान सालियों के कारनामे शुरू हो गए, जिन का हमें डर था.

थका होने की वजह से शादीलाल शाम 7 बजे से ही खर्राटे लेने में मस्त हो गया. तभी वे सातों आईं. उन्होंने मुंह पर उंगली रख चुप रहने का इशारा किया तो मैं समझ गया कि शादीलाल अब तो गया काम से.

मैं शादीलाल को जगाने के चक्कर में था कि 27 साला एक साली ने कहा, ‘‘आप खामोश रहिए, वरना आप की हजामत जीजा से भी बढ़ कर होगी.’’

मैं ने रजाई तानी और उस में झरोखा बना कर नजारा देखने लगा. शादीलाल के हाथों में एक साली ने नीली स्याही का पोता फेरा. दूसरी साली ने उस की नाक में कागज की सींक बना कर घुसा दी. नतीजतन, शादीलाल का हाथ नाक पर पहुंच गया और स्याही चेहरे पर ‘मौडर्न आर्ट’ बनाती गई.

मैं लिहाफ के अंदर हंसी नहीं रोक पा रहा था. आखिर में 6 सालियां बाहर चली गईं, केवल 7 साल की सुनीता बची, तो उस ने अपने जीजा के हाथों में उसी की हवाई चप्पलें उलटी कर के फंसी दीं और फिर उस के कानों में सींक घुमा कर भाग गई.

सींक से बेचैन हो कर शादीलाल ने अपने कानों पर हाथ मारे, तो चप्पलें गालों पर चटाक से बोलीं.

मैं ने किसी तरह झरोखा बंद किया. हंसहंस कर मेरा पेट हिल रहा था, पर कान आहट ले रहे थे.

मेरा यार उठा. चप्पलें फेंकने की आवाज आई, फिर उस ने मेरी रजाई उठा दी. मैं तब भी हंस रहा था.

शादीलाल बरस पड़ा, ‘‘एकलौता राम, तू कर गया न गद्दारी. मेरी यह हालत किस ने की?’’

मैं ने आंख मलने का नाटक किया और पूछा, ‘‘क्या बात है यार?’’

‘‘बनो मत, मेरी हालत पर तुम हंस रहे थे.’’

‘‘क्या बात करते हो यार… मैं तो सपने में हंस रहा था. अरे, तुम्हारे चेहरे पर रामलीला का मेकअप किस ने किया?’’

‘‘उठ यार, मैं यहां पलभर भी नहीं ठहर सकता. वही कमबख्त सालियां होंगी,’’ उस ने आईने में अपना चेहरा देखते हुए कहा.

 

‘‘चलो ससुरजी के पास, मैं उन सब की शिकायत करता हूं,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर यार, ससुरजी ऐसा टैक्नीकलर दामाद देखेंगे तो क्या कहेंगे? आखिर मैं क्या करूं? मैं इसीलिए यहां नहीं आता हूं. तुझे बचाव के लिए लाया था, पर तू भी बेकार रहा.’’

‘‘शादीलाल, क्या मैं रातभर जाग कर तुम्हारी खाट के चक्कर लगाऊंगा? तुम भी तो घोड़े बेच कर सो गए. वहां जग में पानी रखा है, मुंह धो डालो.’’

बेचारा शादीलाल मुंह धो कर लेट गया. मैं सोने की कोशिश में था कि तभी पायल की आवाज सुन कर चौंका.

जीरो पावर का बल्ब जल रहा था.

मैं ने देखा, वह भारीभरकम औरत शायद श्रीमती शादीलाल थीं. मैं ज्यादा रात तक जागने पर मन

ही मन झल्लाया और करवट बदल कर लेटा रहा. मुझे आवाजें सुनाई पड़ रही थीं.

‘‘अरे तुम, देखो हल्ला नहीं करना. मेरा यार एकलौता राम सोया हुआ है. तुम खुद नहीं आ सकती थीं. तुम्हारी बहनों ने मेरा मजाक बना दिया.’’

ठीक तभी बिजली जलने की आवाज सुनाई दी और सामूहिक ठहाके भी. मैं ने फौरन हड़बड़ा कर रजाई फेंकी. देखा तो दंग रह गया. शादीलाल की 6 सालियां खड़ी थीं. बेचारा शादीलाल उन्हें टुकुरटुकुर देख रहा था.

साली नंबर 5 गद्दा, तकिया व साड़ी फेंक कर फ्राक में खड़ी हो गई और बोली, ‘‘हम सातों को जीजाजी शैतान कह रहे थे.’’

‘‘अरे, मैं तो पहले ही समझ गया था. मैं तो नाटक कर रहा था,’’ शादीलाल ने झेंपते हुए साली नंबर 5 को देखा.

इस मजाक के बाद अगला मजाक सुबह ही हुआ. मैं और मेरा यार जब कमरे से बाहर आए, तो आंगन में सालियों से दुआसलाम हुई.

तभी एक साली ने कहा, ‘‘जीजाजी, क्या आप रात को बड़ी दीदी के कमरे में गए थे?’’

‘‘नहीं सालीजी, तुम्हारे होते हुए मैं वहां क्यों जाता?’’ कह कर शादीलाल ने उसे गोद में उठा लिया.

‘‘पर जीजाजी, आप बड़ी दीदी की चप्पलें पहने हैं और आप की चप्पलें तो दीदी के कमरे में पड़ी हैं.’’

शादीलाल ने घबरा कर पैरों की ओर देखा. पैरों में लेडीज चप्पलें ही थीं.

शादीलाल के हाथ से साली छूट गई, पर मैं ने उसे संभाल लिया. फिर ठहाका लगा, तो शादीलाल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई.

सब से ज्यादा मजा उस समय आया, जब शादीलाल पेट हलका करने शौचालय में घुसा. तब मैं आंगन में खड़ाखड़ा ब्रश कर रहा था. सालियों ने जो टूथपेस्ट दिया था, उस का स्वाद कड़वा सा था और उस से बेहद झाग भी निकल रहा था.

तभी शौचालय के अंदर के नल का कनैक्शन, जिस से पानी जाता था, एक साली ने बाहर से बंद कर दिया.

मैं ने सोचा कि शादीलाल तो गया काम से. इधर मैं थूकतेथूकते परेशान था कि शादीलाल की सास ने कहा, ‘‘बेटा, तुम कुल्ला कर लो. इन शैतानों ने टूथपेस्ट की जगह तुम्हें ‘शेविंग क्रीम’ दे दी थी.’’

मेरे तो मानो होश ही उड़ गए. जल्दीजल्दी थूक कर भागा और सालियों के जबरदस्त ठहाके सुनता रहा.

शादीलाल एक घंटे बाद जब बिना पानी के ‘शौचालय’ से बाहर आया तो छोटी साली नाक दबा कर आई और बोली, ‘‘जीजाजी, फिर से अंदर जाइए. अब नल चालू कर दिया है.’’

शादीलाल दोबारा अंदर घुसा, फिर निकल कर नहाने घुस गया. उस का लगातार मजाक बनाया जा रहा था, पर वह ऐसा चिकना घड़ा था कि उस पर कोई बात रुकती नहीं थी.

2 दिन ऐसे ही सालियों की मुहब्बत भरी छेड़खानी में गुजरे. जब जाने का नंबर आया तो मेरे सीधेसादे यार शादीलाल ने सालियों से ऐसा मजाक किया कि सातों सालियां ही शर्म से पानीपानी हो गईं.

हुआ यों कि जब हमारे जाने का समय आया और रोनेधोने के बाद तांगे में सामान रख दिया गया, तब सालियां, उन की सहेलियां और महल्ले वालों की भीड़ जमा थी.

तभी शादीलाल ने कहा, ‘‘देखो सातों सालियो, मुझे यह बताओ कि कुंआरी लड़की को क्या पसंद है?’’

सातों सालियों ने न में सिर हिलाया. सब लोगों को यह जानने की बेताबी थी कि शादीलाल अब क्या कहेंगे. तभी शादीलाल ने आगे बढ़ कर कहा, ‘‘अरे, तुम लोगों को नहीं पता कि कुंआरी लड़कियों को क्या पसंद है?’’

‘नहीं,’ सातों सालियों ने एकसाथ फिर से वही जवाब दिया.

‘‘मुझे पहले ही तुम लोगों पर शक था,’’ शादीलाल ने नाटकीय लहजे में कहा.

उस समय सातों सालियों पर घड़ों पानी पड़ गया, जब उन की एक सहेली ने कहा, ‘‘तुम लोगों को जीजाजी ने बेवकूफ बना दिया. उन्हें तुम्हारे कुंआरे होने पर शक है. उन्होंने तुम सभी को शादीशुदा बना दिया है, क्योंकि तुम लोगों को कुंआरी लड़कियों की पसंद नहीं मालूम है.’’

और फिर तो सातों सालियों पर इतने जबरदस्त ठहाके लगे कि सभी दुपट्टे में मुंह छिपा कर अंदर भाग गईं.

 

Funny Story : बालम बकरा बनने से बच गए

बालम, कलकत्ता और गोरी का बहुत ही गहरा रिश्ता है. गोरी परेशान है. उस की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा हुआ है… यह सोचसोच कर कि बालम का काम बारबार कलकत्ता में ही क्यों होता है? चलो मान लिया काम होता भी है तो पूरे दफ्तर में अकेले उसी के बालम रह गए हैं क्या, जिन्हें बारबार कलकत्ता भेज दिया जाता है? बालमजी भी इतना खुश हो कर कलकत्ता ही क्यों जाते हैं जबकि देश

के मानचित्र पर अनेक शहर हैं. फिर कलकत्ता में ऐसी कौन सी डोर बंधी है जो गोरी के बालम को खींच रही है और बालम भी गोरी के लटकेझटके, नाजनखरे, प्यारमुहब्बत सब बिसार कर उधर ही खिंचे चले जाते हैं?

गोरी विरह की आग में जल रही है, ऊपर से बरसात उस की इस आग को ठीक उसी तरह भड़काने का काम कर रही है जैसे होम में घी करता है. गोरी के दिल से फिल्मी गाने के ये बोल निकल रहे हैं, ‘हायहाय ये मजबूरी, ये मौसम और ये दूरी…’

पर न तो कोई गोरी की हालत समझ रहा है, न ही उस का गीत सुन रहा है. गोरी के दिल का बोझ बढ़ता गया और आखिरकार उस ने अपनी पीड़ा हमउम्र सखियों को बताई. उस की पीड़ा सुन कर सखियां भी उदास हो गईं. एक बोली, ‘‘रे सखी, कहीं तेरे बालम का दिल वहां की किसी सांवलीसलोनी पर तो नहीं आ गया है?’’

‘‘ऐसा नहीं हो सकता. हमारी इतनी प्यारी सखी को छोड़ कहीं नहीं जाएगा जीजा,’’ दूसरी सखी डपटते हुए बोली. तभी तीसरी सखी बोली, ‘‘अरी, हम ने तो सुना है कि वहां की औरतें काला जादू जानती हैं और मर्दों को अपने बस में कर लेती हैं?’’

‘‘हां री, मैं ने भी बचपन में अपनी दादी से यही सुना था कि जो भी मरद कलकत्ता गए वे कभी न लौटे. फिर वहां की लुगाइयां मर्दों को भेड़बकरा या तोता कुछ भी बना डालती हैं जादू से और अपने यहां पालती हैं. उन की लुगाइयां बेचारी ऐसी ही जिंदगीभर इंतजार करती हैं उन का,’’ एक सखी ने उस में जोड़ा. ‘‘हां री, मैं ने भी सुना है यह तो… कलकत्ता गए मर्द कभी न आते वापस.’’

‘‘ऐसा हुआ तो हम कहां जाएंगे?’’ गोरी का कलेजा बैठने लगा, बहुत कोशिश कर के भी खुद को रोक न पाई और बुक्का फाड़ कर रो पड़ी, ‘‘हाय रे, मैं क्या करूं, कहां जाऊंगी मैं. कहीं वे भेड़बकरा बन गए तो मेरे किस काम के रह जाएंगे… एक तो पहले ही शक्ल बकरे जैसी थी, ऊपर से जादू से बकरा बना ही दिया तो कहां रखूंगी मैं उन्हें.’’ सारी सखियां उस की बातों पर हंसने लगीं. सभी सखियां मिल कर गोरी को चुप कराने लगीं, ‘अरी, रो मत. हम तो तुझ से मजाक कर रही थीं… यह सच नहीं है. ऐसा कुछ नहीं होता… जीजा बहुत जल्द आ जाएंगे,’ और उसे समझाबुझा कर घर भेज दिया.

गोरी घर तो आ गई, पर उस के मन का बोझ कई गुना बढ़ गया था. वह मन ही मन समझ रही थी कि जो बातें सखियों ने कहीं, वे झूठ नहीं थीं, क्योंकि उस ने भी वैसी बातें सुन रखी थीं… पर उस का बालम तो नहीं सुनता. इस बार तो कई महीनों से वापस नहीं आया. उसे अचानक याद आया कि उस का बालम कई बार कह भी चुका है कि कलकत्ता की लुगाइयां बड़ी सलोनी होती हैं.

वह पहले क्यों न समझी. गोरी की रातों की नींद और दिन का चैन छिन गया. पर यह बालम भी कैसा बेदर्द है. वह एक फोन तक नहीं कर रहा उस से बात करने को… बताओ, उस फिल्मी हीरोइन के बालम ने तो रंगून से भी फोन किया था कि तुम्हारी याद सताती है… और यह मेरा बालम है जो कलकत्ता से भी फोन नहीं कर रहा.

ऊपर से दिनभर सास के ताने सुनने को मिलते हैं, ‘‘ये आजकल की लड़कियां भी बिना खसम के रह ही न सकें, जाने काहे की आग लगी है? हम भी तो कभी जवान थे. हमारे वे तो 6-6 महीने के लिए परदेश जाते थे कमाने को… हम ने तो यों आंसू न बहाए थे… पूरे घर के काम और करे थे. ‘‘मर्द और बैल कभी खूंटा से बांध के रखे जाते हैं भला. उन्हें तो काम करना ही पड़ेगा तभी तो पेट भरेंगे सब का.’’

गोरी बेचारी चुपचाप ताने सुनसुन कर घर के काम कर रही थी. वैसे भी हमारी बहुओं में चुप रहने की आदत होती है. उस ने ठान लिया था कि इस बार बालम बस वापस आ जाएं, फिर उन्हें कहीं भी जाने देगी, पर कलकत्ता नहीं जाने देगी, चाहे कुछ भी हो जाए. वह अपने पति के रास्ते को वैसे ही रोकेगी जैसे गोपियों ने उद्धव का रथ रोका था जब वे कान्हा को ले कर मथुरा जा रहे थे.

उस दिन सुबहसुबह सचमुच आहट हुई और दरवाजे पर बालम को देख गोरी खुशी में पति से ऐसे लिपट गई मानो चंदन के पेड़ पर सांप लिपटे हों. वह तो ऐसे ही लिपटी रहती अगर सास ने सुमधुर आवाज में उस के पूरे खानदान की आरती न उतारी होती. गालियों की बौछारों ने उस के अंदर से फूटे प्रेम के झरने को बहने से तुरंत रोक दिया.

गोरी ने अपनी भावनाओं को रोका और चुपचाप अपने कामों में जुट गई. भले ही उस की आंखें बालम पर टिकी थीं. आखिरकार इंतजार की घडि़यां खत्म हुईं और गोरी का बालम से मिलन हुआ. पर यह मिलन स्थायी तो नहीं था… गोरी के दिल में हरदम डर लगा रहता, बालम फिर से न कहें कलकत्ता जाने की. गोरी अपने बालम की हर इच्छा का खयाल रखती ताकि उसे जाने की याद न आए. वह प्यारमनुहार से बालम के दिल को टटोलने की कोशिश कर रही थी जिस की डोर का एक सिरा कलकत्ता में बंधा तो है, पर किस से? पर अब तक कामयाब न हो सकी. सो बालम के प्रेम में मगन हो गई.

अभी कुछ ही दिन प्रेम की नदी में डुबकियां लगाते बीते थे कि बालमजी ने फिर कलकत्ता का राग अलापा. इधर उन का अलाप शुरू हुआ… उधर गोरी ने ऐसा रुदन शुरू किया कि बालम के स्वर हिलने लगे. गोरी जमीन में लोटपोट हो कर दहाड़ें मार रही थी… बालम बेचारा हैरानपरेशान उसे जितना चुप कराने की कोशिश करता, गोरी उतनी ही तेज आवाज में अपना रोना शुरू कर देती. सारा घर, सारा महल्ला इकट्ठा हो गया.

सासू ने भी अपने चिरपरिचित अंदाज में गोरी को चुप होने का आदेश दिया, पर आज तो गोरी ने उन की भी न सुनी. उस का रैकौर्डर एक ही जगह फंस गया था कि इस बार बालम को कलकत्ता नहीं जाने दूंगी. जितने लोग उतने उपाय. कोई कहे इस पर भूतनी आ गई है, इसे तांत्रिक बाबा के पास ले चलो… कोई चप्पल सुंघाने की सलाह दे रहा था… कोई कह रहा था कि इस के खसम का किसी कलकत्ते वाली से टांका भिड़ा है. उस के बारे में गोरी को पता लग गया है इसलिए इतना फैल रही है. बालम बेचारा अपने माथे पर हाथ धर के बैठ गया. सब मिल कर गोरी से जानने की कोशिश कर रहे थे कि ऐसी क्या वजह है कि वह अपने बालम को कलकत्ता नहीं जाने देना चाहती.

पर गोरी पर तो जैसे सच्ची में भूत सवार था. वह दहाड़ें मारमार कर रोए जा रही थी और कलकत्ता पर गालियां बरसा रही थी. यह नाटक और कई घंटे चलता, पर इतने में किसी ने पुलिस को फोन कर दिया. कुछ देर तक तो पुलिस के सामने भी यह नाटक चालू रहा, पर फिर दरोगाजी ने डंडा फटकार कर कहा, ‘‘इस को, इस की सास को और पति को ले चलो और जेल में डाल दो. सारा सच सामने आ जाएगा…’’

जेल का नाम सुनते ही गोरी के रोने पर झटके से ब्रेक लग गया. वह एक सांस में बोली, ‘‘हमें न भेजना अपने बालम को कलकत्ता, वहां की औरतें काला जादू जानती हैं, इसे जादू से बकरा बना कर अपने घर में बांध लेंगी, फिर हमारा क्या होगा?’’ और गोरी फिर से रोने लगी.

गोरी की बात सुन कर बाकी लोग हंसने लगे. गोरी रोना बंद कर मुंहबाए सब को देखने लगी… उस ने देखा कि बालम भी हंस रहा है… ‘‘धत पगली, ऐसा किस ने कह दिया तुम से. इस जमाने में ऐसी कहानी कहां से सुन ली…’’ बालम ने उसे मीठी फटकार लगाई.

‘‘मैं ने बचपन में सुना था ऐसा, जो भी बालम कलकत्ता जाते, कभी वापस नहीं आते और मेरी सब सखियों ने भी तो ऐसा ही कहा,’’ गोरी ने बताया. अब सासूजी बोलीं, ‘‘ये कौन सी सखियां हैं तेरी… मुझे बता, मैं खबर लूं उन की. बताओ छोरी का दिमाग खराब कर के धर दिया… कोई भी लुगाई यह सुनेगी, उस बेचारी का कलेजा तो धसक ही जाएगा…

‘‘चल, अब तू भीतर चल. कहीं न जाएगा तेरा बालम… और तुम सब भी अपनेअपने घर को जाओ. यहां कोई मेला थोड़े ही न लगा है.’’ सब अपने रास्ते चल दिए और दारोगाजी भी हंसते हुए वापस चले गए. आखिर गोरी की जीत जो हो गई थी. उस के बालम बकरा बनने से बच जो गए थे.

 

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