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Coaching Institutes : महंगी कोचिंग के लिए सरकार कितनी जिम्मेदार?

Coaching Institutes : ज्यादातर मातापिताओं को लगता है कि अगर किसी अच्छे कोचिंग में बच्चों को दाखिला दिला दिया तो टौप कालेज मिल जाएगा और फ्यूचर सिक्योर हो जाएगा. लेकिन सवाल यह है कि आखिर स्कूलकालेजों की पढ़ाई ऐसी क्यों नहीं होती कि स्टूडैंट्स को कोचिंग का सहारा लेना ही न पड़े?

“वे तुम्हें सबकुछ फ्री में देंगे लेकिन शिक्षा नहीं देंगे क्योंकि वे जानते हैं कि शिक्षा ही सवालों को जन्म देती है.”

बाबासाहेब अंबेडकर के इस कथन में सरकार की मंशा का सार छिपा है. हम विश्व की सब से बड़ी उच्च शिक्षा प्रणाली होने का दावा करते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि अधिकतर छात्रों को मनपसंद कालेज या कोर्स में एडमिशन नहीं मिल पाता है. कालेज में सीटें कम हैं और अभ्यर्थियों की संख्या अधिक, एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति में कोचिंग सैंटरों ने कमान संभाली और समय के साथ यह हर छात्र की जरूरत व मातापिता के लिए जी का जंजाल बन गए.

आज के समय में 9वीं कक्षा से ही आईआईटी और नीट के लिए कोर्स शुरू हो जाते हैं. कोचिंग संस्थानों में बच्चों के एक साल रहने का खर्चा लगभग 2-3 लाख रुपए के आसपास आता है. कोचिंग संस्थानों की फीस भी एक से डेढ़ लाख रुपया वार्षिक होती है. इस के अलावा दूसरे भी तमाम खर्च होते हैं. पिछले दोतीन दशकों में कोचिंग के क्षेत्र में उबाल आया है.

इन कोचिंग संस्थानों के तले अनगिनत मातापिता के ख्वाब पलते हैं क्योंकि ख्वाब बच्चों के नहीं बल्कि मातापिता के होते हैं, जिन्हें अंजाम तक पहुंचाने का माध्यम बच्चे होते हैं. कोई जमीन बेच, कोई घर बेच कर बच्चों को कोचिंग में भेज रहा है लेकिन परिणाम क्या?

आखिरकार कोचिंग की जरूरत क्यों पड़ गई? पूरी शिक्षा प्रणाली पर ही बदलाव में एक बार फिर विचार करना बहुत जरूरी है. चीन, अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों में छात्रों के मूल्यांकन और आकलन के पैमाने हम से बहुत अधिक अलग हैं.

हमारी शिक्षा प्रणाली में इतनी प्रतिस्पर्धा है कि यह छात्रों के लिए तनाव पैदा कर देती है. वर्षों से चली आ रही क्लासरूम की संस्कृति बच्चों को जीवन की वास्तविकता से दूर कर देती है. अधिकतर समय टेबल में सिर झुकाए किताबों को उलटनेपलटने से व्यावहारिक ज्ञान नहीं मिलता.

पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले छात्र पहाड़ सी दुरूहता का सामना करते हैं. छोटी कक्षाओं से ही कईकई किलोमीटर पैदल चल कर स्कूल आनाजाना इन की नियति बन जाती है. उच्च शिक्षा केंद्र छोटे शहरों और कसबों में न के बराबर हैं या छात्रों की जरूरत पूरी करने में असमर्थ हैं. इंटरनैट कनैक्शन का अभाव, प्रतियोगिता के लिए उपयोगी समाचारपत्रों का न मिल पाना आदि कई कारण हैं जो छात्रों को बड़े शहरों की ओर रुख करना पड़ता है.

‘द हिंदू’ समाचारपत्र ही पर्वतीय क्षेत्रों में बहुत ही मुश्किल से दूसरेतीसरे दिन मिलता है वह भी एडवांस बुकिंग के बाद. विज्ञान ने इतनी तरक्की तो कर ली है कि औनलाइन पेपर पढ़ने का विकल्प मौजूद है लेकिन तकनीकी व्यवधान यहां भी हैं क्योंकि नैटवर्क गायब रहता है, टावरों की कमी है, जो मकसद को कामयाब नहीं होने देती.

सरकार कोचिंग संस्थानों के लिए सख्त नियम बनाने से गुरेज करती है क्योंकि इन के माध्यम से जीएसटी राजस्व प्राप्त होता है. आंकड़े बताते हैं कि 2023-24 में कोचिंग संस्थानों से कुल 5,517.45 करोड़ रुपए का राजस्व हासिल हुआ. कोचिंग संस्थानों के भ्रामक विज्ञापनों के लिए उन को मात्र नोटिस दे कर छोड़ दिया जाता है. सब से बड़ी बात, सरकार को नए स्कूल, कालेज नहीं खोलने पड़ते और योग्य शिक्षकों की भरती भी नहीं करनी पड़ती है क्योंकि मजबूरी में बच्चे कोचिंग जौइन करने को विवश हो जाते हैं.

यहां भी सरकार का राजस्व बचता है. अगर सरकार प्राथमिक स्तर से ही अच्छे स्कूल खुलवा कर योग्य शिक्षकों की भरती करे तो बच्चों की नींव मजबूत हो जाएगी और शायद महंगी कोचिंग की जरूरत न पड़े.

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 पांव पसारते कोचिंग संस्थान
महंगी कोचिंग के लिए ज्यादा हद तक सरकार जिम्मेदार है. कारण, आज सरकारी स्कूल से ले कर महाविद्यालयों में शिक्षकों का स्तर बहुत ही गिरा हुआ है. पढ़ाई के नाम पर वे खुद की प्रौपर गाइड नहीं करते. लगता है ‘ट्वेंटी क्वेश्चन’ से पढ़ कर आते हैं. छात्रों की जिज्ञासा का समाधान वे नहीं कर पाते. इस वजह से ट्यूशन का व्यापार फलफूल रहा है.
दूसरे, आजकल युवा से ले कर पेरैंट्स भी भीड़ का हिस्सा बने हुए हैं. किसी का बच्चा इंजीनियर, डाक्टर, साइंटिस्ट बन रहा है, यह हजम नहीं होता, मेरा बच्चा भी बनना चाहिए. इस होड़ में अपनी चादर से बाहर पैर पसार कर वे अपने बच्चों को शहर से बाहर कोचिंग के सुपुर्द कर देते हैं. फिर भले ही उस बच्चे का मन उस क्षेत्र में हो या न.
यही बच्चे स्वतंत्र होते ही शहरी रंग में रंग जाते हैं. कईयों की नैया पार लगती है तो कई अधबीच डूब जाते हैं. आज के युवा अपने जीवन को उतनी गंभीरता से नहीं लेते.
सरकार यदि स्तरीय शिक्षक रखे तो कोचिंग की आवश्यकता ही न पड़े. परीक्षा भी नौकरी के लिए जरूरत के अनुसार होनी चाहिए. लाइनमैन की नौकरी के लिए ‘1772 में किस राजा ने क्या किया’ जैसे निरर्थक सवाल न पूछे जाएं. परीक्षा का परिणाम तुरंत आना चाहिए.
युवा अपनी हद को पहचान कर जो साधन है उसी में संभावना खोजें तो भी बेहतर परिणाम आ सकते हैं और युवा रिश्तों की गंभीरता, भावनाओं को समझें तो खुद ही अपने कैरियर को ले कर गंभीर होंगे.
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Property Distribution : किस संतान को मिले संपत्ति पर ज्यादा हक

Property Distribution :  यह वह दौर है जब पेरैंट्स की सेवा न करने वाली संतानों की अदालतें तक खिंचाई कर रही हैं लेकिन मांबाप की दिल से सेवा करने वाली संतान के लिए जायदाद में ज्यादा हिस्सा देने पर वे भी अचकचा जाती हैं क्योंकि कानून में ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं है. क्या यह ज्यादती नहीं?

लक्ष्मीचंद थे तो गल्ला व्यापारी के यहां मुनीम लेकिन आमदनी उन की ठीकठाक थी. उन्होंने न केवल 3 बेटियों की शादी कर दी थी बल्कि दोनों बेटों की कालेज की पढ़ाई भी पूरी करवा दी थी. चूंकि सूद पर पैसा चलाने का साइड बिजनैस भी वे करते थे इसलिए अपने छोटे से कसबे के नजदीक 5 एकड़ का खेत भी उन्होंने जुगाड़तुगाड़ कर खरीद लिया था. खेती से भी आमदनी होने लगी तो उन्होंने पुश्तैनी कच्चा मकान पक्का करवा लिया, एक मंजिल ऊपर भी बनवा ली जिस से दोनों बेटे आराम से रह सकें. उन की बड़ी इच्छा थी कि दोनों बेटे सरकारी नौकरी से लग जाएं.

लेकिन 65 साला जिंदगी की यही इकलौती हसरत थी जो अधूरी रह गई. बड़ा बेटा तो एक सरकारी महकमे में 50 हजार रुपए की घूस की कृपा से क्लर्क हो गया लेकिन छोटे बेटे के बड़े होतेहोते उन्हें लकवा मार गया. छोटे बेटे ने बिना सोचेसमझे श्रवण कुमार की तरह अपना फर्ज निभाया और तनमन व धन से बूढ़े अपाहिज पिता की सेवा की यहां तक कि बीकौम की अपनी पढ़ाई भी वह किस्तों में जैसेतैसे ही पूरी कर पाया.

बड़े ने भी शुरूशुरू में दूसरे शहर में नौकरी करते जितना हो सकता था हाथ बंटाया. लेकिन शादी के बाद उस की जिम्मेदारियां बढ़ीं और पत्नी के आने के बाद उसे सहज ज्ञान भी प्राप्त हो गया कि खेतीकिसानी से ठीकठाक आमदनी हो जाती है. ऊपरी मंजिल जो उस के लिए बनाई गई थी उस से भी किराया आ जाता है और छोटे की महल्ले में खोली गई छोटी सी किराने की दुकान भी चल निकली है. लिहाजा, अब घर पैसे देने की जरूरत नहीं क्योंकि उसे न तो खेतीकिसानी का पैसा मिलता है और न ही किराए से. इसलिए इसी को घर में अपना आर्थिक योगदान मानते उस ने हाथ खींच लिया.

लक्ष्मीचंद की जिंदगी तक तो सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. वक्त रहते छोटे की भी शादी और बच्चे हो गए थे. लेकिन फसाद उठ खड़ा हुआ उन की मौत के 2-3 महीने बाद जब बड़ा बेटा जमीन और मकान में जरूरत से ज्यादा दिलचस्पी लेने लगा और हिसाबकिताब भी मांगने लगा. जो एक तरह से जमीनजायदाद के बंटवारे का एलान, मांग और आगाज था. इस पर छोटे के कान खड़े होने लगे.

बिना पत्नी के ज्ञान दिए उसे समझ आने लगा कि पिता की सेवा की अघोषित जिम्मेदारी लेने से उसे फायदे कम, नुकसान ज्यादा हुए हैं और अब भी यही हो रहा है कि बूढ़ी अम्मा की तीमारदारी में उसे और पत्नी को ही खटना पड़ता है. उन के इलाज और दवा के खर्च में बड़े भैया का कोई योगदान नहीं होता. शुरूशुरू में वे थोड़ाबहुत पैसा देते थे लेकिन पिता की मौत के बाद वह भी देना बंद कर दिया. उलटे, अब मांगने लगे हैं जो कि ज्यादती है. लगता है उन की नीयत खराब हो गई है.

जिंदगीभर मांबाप की जिम्मेदारी और नातेरिश्तेदारी उस ने ही निभाई है. बहनों के यहां हर अच्छेबुरे मौके पर वही गया है. उन की ससुरालों में नेगदस्तूर उस ने ही निभाए हैं जिस में काफी पैसा खर्च हुआ है लेकिन अब उन का कोई रोल जायदाद में नहीं. तीनों ने दोटूक कह दिया है कि तुम दोनों जानो, हमें इस से कोई लेनादेना नहीं. दुकान के साथसाथ खेत भी उस ने ही संभाले हैं. इस के अलावा जो भी कियादिया है, सबकुछ उस ने ही किया है.

भैया तो शान और इत्मीनान से अपनी सरकारी नौकरी करते रहे हैं. रिश्तेदार भी उन्हीं का गुण गाते हैं कि देखो, लक्ष्मीचंद का नाम उन के बड़े बेटे ने ऊंचा किया है जो अब बाबू से साहब बन गया है. अब तो ऊपरी कमाई से उन्होंने शहर में अपना मकान भी बना लिया है और, सस्ती ही सही, अपनी कार भी ले ली है. उन के बच्चे मेरे बच्चों के मुकाबले शान से रहते हैं, बढि़या खातेपीते हैं, महंगे कपड़े पहनते हैं. इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे अपने इकलौते बेटे को तो उन्होंने बुलेट भी दिला दी है जो दोढाई लाख रुपए से कम की तो नहीं होगी.

जैसेजैसे वह इस बारे में सोचता जाता था वैसेवैसे मकान और जमीन के प्रति उस का मोह और बढ़ता जाता था. साथ ही, एक डर और असुरक्षा भी मन में आती जा रही थी कि अगर बंटवारा हुआ तो मानो उस का एक हाथ कट जाएगा. चूंकि पिताजी कोई वसीयत नहीं छोड़ गए हैं इसलिए उन की जमीनजायदाद पर आधा हक तो भैया का कानूनन बनता ही है जिसे आज नहीं तो कल वे मांगेंगे ही. अब तो बस सीधे कहनेभर की देर रह गई है.

लेकिन इस जमीन और मकान को बनाए व बचाए रखने में उसे कितने और कैसे पापड़ बेलने पड़े, यह कोई नहीं देखेगा. न रिश्तेदार, न समाज और न ही कानून. एक बार जब लगातार 2 साल फसल चौपट हो गई थी तो अम्मा के कंगन बेचने पड़ गए थे जिन्हें वे उस की पत्नी को देने की बात अकसर कहती रहती थीं. उस से बचे पैसे में से पिताजी ने भागवत कराने की अपनी इच्छा पूरी कर परलोक सुधार लिया था. कोई देखेगा तो यह भी नहीं कि कितनी बार उसे यारदोस्तों से पैसा उधार लेने की शर्मिंदगी उठानी पड़ी थी. तीन बार तो उस से भी ज्यादा ब्याज पर पैसा उठाना पड़ा था जितने पर पिताजी दिया करते थे. शादी के 15 साल हो जाने के बाद भी पत्नी को रत्तीभर सोना नहीं दिला पाया जबकि भाभी हर दीवाली एकदो तोला सोना खरीदती हैं.

ऐसी कई बातें सोचसोच कर उस का सिर भन्नाने लगता है. मसलन, भैया को तो रिटायरमैंट के बाद खासी पैंशन भी मिलेगी. लेकिन उस का क्या, अगर आज पिता की तरह लकवा मार जाए तो उस के बेटों का तो कोई कैरियर ही नहीं रह जाएगा. उन्हें भी मजबूरी में दुकान पर सामान तोलना पड़ेगा और भैया का बेटा या तो उन्हीं की तरह सरकारी नौकरी में लग जाएगा या किसी बड़ी कंपनी में इंजीनियर बन दिल्ली, मुंबई, पुणे या बेंगलुरु चला जाएगा और यह सब इसलिए कि भैया मांबाप के प्रति अपनी जिम्मेदारी उस के भरोसे छोड़ नौकरी करने चले गए थे. उसे तो नौकरी करने के लिए सोचने का भी वक्त नहीं मिला.

पिता की सेवा में जनून की हद तक ऐसा डूबा कि खुद की जिंदगी का खयाल ही नहीं आया. इस इच्छा का भी त्याग करना पड़ा कि एमकौम करने के बाद बैंक की नौकरी करना है जो उस दौर में आसानी से मिल जाती थी क्योंकि कोई एंट्रैंस एग्जाम नहीं होता था. मैरिट के बिहाफ पर सीधी भरती होती थी. खेतीकिसानी से साल के 2-3 लाख रुपए ही आते हैं. इतनी ही आमदनी दुकान से होती है. सारा पैसा घरखर्च और बच्चों की पढ़ाईलिखाई में खर्च हो जाता है जिस के चलते हाथ तंग ही बना रहता है. कई बार यह बेहूदा खयाल उस के मन में आता है कि काश, पिताजी की बीमारी और कमजोरी के दिनों में उन से जमीनजायदाद अपने नाम करा लेता लेकिन जल्द ही वह इस को जेहन से झटक भी देता है.

आखिर भैया को किस चीज की कमी है और उन्हें जो मिला है उस में उस का सब से ज्यादा योगदान है. ये वही भैया हैं जो बचपन में अपना जेबखर्च उस पर लुटा दिया करते थे, मेले में ले जा कर चाटपकौड़े, जलेबी खिलाया करते थे और उस के लिए हर किसी से भिड़ जाया करते थे. नौकरी पर जाते वक्त उन्होंने सीने से लगा कर रुंधे गले से कहा भी था कि, ‘मैं तो नाम का बड़ा हूं, घर की सारी जिम्मेदारियां तो तू ही निभाता है.’ यह बात कई सालों बाद तक वे कहते रहे थे जिस से लगता था कि यह मेरे किए का बदला है. आभार है न केवल शब्दों के रूप में बल्कि उस पैसे की शक्ल में भी जो खर्च में उन का हिस्सा होता.

पर कोई बात नही, वह सोचता था जो मैं ने किया वह मेरी जिम्मेदारी थी. भैया इस का एहसान मानते हैं, यही मेरा इनाम है. लेकिन अब जो वे मांगने लगे हैं वह उन का हक ही सही लेकिन हकीकत में उन की खुदगर्जी और लालच है. और फिर एक दिन एक बेहद नजदीकी रिश्तेदार ने आ कर कहा कि वे पुश्तैनी जायदाद में से अपना हिस्सा चाहते हैं तो छोटा फट पड़ा और अपना किया गिनाने लगा. वह रिश्तेदार उम्रदराज और तजरबेकार था, इसलिए बोला वह सब तो ठीक है लेकिन इसे बड़े का हक छीनने का जरिया या हथियार नहीं माना जा सकता. उन का हिस्सा देना तो पड़ेगा. सीधेसीधे नहीं तो अदालत में देना पड़ेगा. लेकिन इस में दोनों का नुकसान है. अच्छाखासा रिश्ता, प्यार और परिवार खत्म हो जाएगा. बंटबारा हर घर में होता है उस में थोड़ाबहुत कमज्यादा हिस्सा चलता है. तुम ने जो पिता और घर के लिए किया उस के एवज में तुम ज्यादा मांग सकते हो. लेकिन अदालत और मुकदमेबाजी बहुत बुरी चीज होती है. इस से किसी को कुछ हासिल नहीं होता.

इस तरह की ऊंचनीच और नफानुकसान बता कर वे तो अपना रिश्तेदारी धर्म निभा कर चले गए लेकिन छोटे को एक सनाके और सदमे में छोड़ गए जो कई रात सलीके से सो नहीं पाया. उदास, गुमसुम और भड़ास से भरा वह जाने क्याक्या सोचता रहा कि क्या यही होता है भाईपना, आखिर दिखा ही दी भैया ने अपनी असलियत.

दुनिया वाले गलत नहीं कहते कि झगड़े की जड़ तीन जर, जोरू और जमीन. गुस्से और लगभग प्रतिशोध की आग थोड़ी ठंडी या कमजोर पड़ती तो अतीत सिर उठाने लगता. जिसे याद कर वह यह तय नहीं कर पाता कि एक आदमी के कितने रूप हो सकते हैं.

ये वही भैया हैं जिन की नौकरी लगने के बाद पहली बार जब वह 2 दिन के लिए शहर गया था तो बसस्टैंड पर ही उस से पागलों की तरह लिपट पड़े थे. 2 दिन उन के पांव जमीन पर नहीं पड़े थे. रात को सिनेमा दिखाने ले गए. उस से पहले शहर के सब से अच्छे होटल में खाना खिलाया था.

ऐसा लगता था मानो वे मुद्दत से खामोश थे और अभी सारी बातें कर लेना चाहते हैं. अम्मापिताजी कैसे हैं, घर में कोई दिक्कत तो नहीं, दूधकिराना वगैरह बराबर आ रहा है या नहीं और ये कैसा, वह कैसा है जैसी बातें लगातार वे करते रहे और अपने एक कमरे वाले किराए के घर में एक बिस्तर पर दोनों सोए. तब भी वे बेचैन से थे. कुछ भावुक हो कर बोले, ‘सोचता हूं थोड़ा पैसा इकट्ठा हो जाए तो तुम लोगों को भी यहीं ले आऊं. पिताजी का इलाज किसी अच्छे डाक्टर से करवाएंगे, बड़ा मकान ले लेंगे, तू यहीं दुकान खोल लेना.’

दूसरे दिन उस के उठने से पहले ही वे समोसे और जलेबी ले आए थे और स्टोव पर चाय बना रहे थे. नहानेधोने के बाद उसे दफ्तर ले गए. वहां सभी से यह कहते मिलवाया कि है तो छोटा भाई लेकिन काम बड़े के कर रहा है. घर की सारी जिम्मेदारी इसी के कंधों पर डाल कर आया हूं. यह सुन छोटे की छाती चौड़ी हो जाती थी, यह सोच कर कि हर किसी को ऐसा भाई नहीं मिलता.

दूसरे दिन शाम को जब वह चलने को हुआ तो कपड़े की दुकान पर उसे महंगे कपड़े दिलाए, बस का टिकट ले कर तो दिया ही लेकिन उस के हाथ में भी 200 रुपए पकड़ा दिए. जैसे ही बस चलने को हुई तो उन की आंखें फिर नम हो गईं, रुंधे गले से बोले, ‘अपना, अम्मा का और पिताजी का खयाल रखना. कोई चिंता मत करना. मैं छुट्टी मिलते ही आऊंगा.’

उन्हें लगभग रोता देख छोटे को भी रोना आ गया. रो तो वह आज भी रहा है लेकिन भाई का यह रूप देख कर कि अब जायदाद के बंटवारे के लिए रिश्तेदारों को भेजने लगे हैं. हर कभी व्हाट्सऐप पर मैसेज कर हिसाब मांगते रहते हैं. जाएं कोर्ट में तो जाएं, मैं भी छोड़ने वाला नहीं. सारा हिसाब गिना दूंगा और सुप्रीम कोर्ट तक नहीं छोड़ूंगा. मेरे दिल में अगर कोई खोट या बेईमानी होती तो पिताजी से अपने हक में कभी की वसीयत करवा लेता. घर व जमीन का नामांतरण अम्मा के बजाय खुद के नाम करा लेता या पिताजी के इलाज के लिए उन की इच्छा के मुताबिक ही औनेपौने में खेत बेच देता तो आज वे क्या मांगते. खेत के दाम अब एक करोड़ छू रहे हैं, इसलिए उन की जीभ लपलपा रही है. उसे बचाया तो मैं ने ही है. रहा मकान, तो वे आ कर रहें लेकिन ऊपरी मंजिल में, लेकिन उस का किराया नहीं लेने दूंगा. अम्मा के इलाज और दवा में ही महीने का 8-10 हजार रुपया खर्च हो जाता है. पहले 8 साल का आधा खर्च वे भी ब्याज समेत दें तब हक की बात करें. जब बराबरी से इलाज और घरखर्च में आधा देना था तब तो बीवी को लटकाए नैनीताल, शिमला और तिरुपति, शिर्डी घूमते रहते थे.

घरघर की कहानी

यह पूरी तरह काल्पनिक कहानी नहीं है बल्कि देश के हर दूसरेतीसरे घर की हकीकत है जो मुकदमे की शक्ल में सैशन से ले कर सुप्रीम कोर्ट तक में रोज सुनी और सुनाई जाती है. महाभारत का तो प्लौट यही है लेकिन अब फैसला किसी कुरुक्षेत्र में युद्ध से नहीं बल्कि अदालतों में कानून से होता है. इस के बाद भी अपवादस्वरूप जायदाद को ले कर सिर फोड़ने की खबरें रोज की बात है. भाईभाई ही नहीं, बल्कि अब तो बहनभाई के बीच भी विवाद और मुकदमेबाजी होने लगी है क्योंकि कानूनन उन का भी हक पैतृक संपत्ति पर होने लगा है.

जमीनजायदाद का बंटवारा शाश्वत सत्य है लेकिन इस में फसाद तब खड़े होते हैं जब कोई एक देना नहीं चाहता. जमीन व जायदाद को ले कर ?ागड़ा हमारे संस्कारों और डीएनए में है. आजकल आमतौर से पुश्तैनी जायदाद उसी पक्ष के कब्जे में होती है जो वहां रह रहा होता है.

ऊपर बताई हकीकत पर गौर करें तो छोटा बहुत ज्यादा गलत नहीं है जिस ने यह मान लिया था कि बड़े भाई की सरकारी नौकरी लग गई है, इसलिए वह अपना हिस्सा नहीं मांगेगा. क्योंकि देखभाल मैं ने की है और उसे यहां के पैसों की क्या जरूरत. उधर बड़े के पास गिनाने को कानूनी अधिकार बहुत ज्यादा कुछ नहीं.

फिर ऐसे झगड़ों का हल क्या, क्या बड़े को या घर से दूर रहने वाले को अपना हिस्सा छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह छोटे के मुकाबले घर और पेरैंट्स के लिए बहुत ज्यादा कुछ नहीं कर पाया था. कर्तव्य पूरे नहीं किए तो क्या अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता? और अगर वह भी नौकरी न कर घर पर ही रह जाता तो क्या होता? तय है बंटवारा तो तब भी होता लेकिन शायद बात इतनी बिगड़ती नहीं. लक्ष्मीचंद समझदार आदमी थे लेकिन वसीयत न करने की चूक कर ही गए. मुमकिन है उन्हें बेटों की समझ पर भरोसा रहा हो. मुमकिन यह भी है कि बीमारी के चलते वे ऐसा न कर पाए हों.

एक फैसला सुप्रीम कोर्ट का

लक्ष्मीचंद के दोनों बेटों से मिलतेजुलते एक मुकदमे का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने 13 सितंबर, 2019 को सुनाया था. दिलचस्प बात यह है कि यह मुकदमा साल 1970 में दायर हुआ था. फर्क इतना भर था कि इस में पिता ने वसीयत की थी और ऊपर बताई कहानी में इसे फिट करें तो छोटे को ज्यादा हिस्सा दिया गया था जो एक तरह से उस की सेवाओं का स्वाभाविक पुरस्कार था. लेकिन दूसरे पक्ष ने आशंका जाहिर की थी कि वसीयत में फर्जीवाड़ा हुआ हो, ऐसा हो सकता है.

कानून के अनुसार सेवा का कोई मूल्य नहीं है और सभी बच्चों को संपत्ति के मालिक की मृत्यु के बाद बराबर का हिस्सा मिलेगा. 2005 के हिंदू विरासत कानून की धारा 6 में अतिरिक्त प्रावधान के बाद लड़कियों का पैतृक संपत्ति में स्वाभाविक अधिकार जन्म से ही हो गया है और उसे हटाया या देने से इनकार नहीं किया जा सकता.

वसीयत के असली या फर्जी होने के विवाद को छोड़ दें तो लगता है कि अदालतों के सामने भी धर्मसंकट यही था कि छोटा गलत क्या बोल रहा है. लेकिन निचली अदालत से ले कर सुप्रीम कोर्ट भी कानून के खिलाफ जा कर फैसला नहीं दे सकती थी, इसलिए यह मुकदमा 50 साल चला था. जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि बुजुर्ग केयरिंग चिल्ड्रन यानी देखभाल करने वाली संतान को दूसरे भाईबहनों की तुलना में संपत्ति का बड़ा हिस्सा दे सकते हैं. लेकिन इसे जिम्मेदारी के तौर पर नहीं देख सकते. एक व्यक्ति ने महज जायदाद के बड़े हिस्से के लिए पेरैंट्स की देखभाल की, ऐसा नहीं कहा जा सकता. प्रतिदिन बुजुर्ग मातापिता की देखभाल के बदले संपत्ति में अधिक हिस्से के कारण कमतर कर के नहीं आंका जा सकता.

छोटेबड़े के विवाद के मद्देनजर देखें, तो भी छोटा ज्यादा का हकदार है. 50 साल चले मुकदमे में बड़ा भाई यह साबित नहीं कर पाया था कि छोटे ने धोखे से वसीयत अपने नाम करा ली. उक्त मामले में तो वसीयत ही नहीं है, तब क्या हो? इस पर निष्कर्ष निकाला जाना मुश्किल है. लेकिन सहानुभूति छोटे के हक में जाती है.

अब बात लक्ष्मीचंद की कि उन्होंने वसीयत क्यों नहीं की होगी जबकि वे मुनीम होने के नाते इस की अहमियत बेहतर जानते थे. हो सकता है वे छोटे को ज्यादा हिस्सा देना चाह रहे हों लेकिन बड़े के साथ उन्हें इस में ज्यादती लग रही हो. छोटा दिनरात उन के साथ उन की सेवा में था, इसलिए वह तिलमिलाया हुआ है कि अब जायदाद में क्यों बात बराबरी की हो रही है.

Online Hindi Story : तबादला – माया ने सास के साथ कैसा बर्ताव किया

Online Hindi Story : टैक्सी दरवाजे पर आ खड़ी हुई. सारा सामान बंधा हुआ तैयार रखा था. निशांत अपने कमरे में खड़ा उस चिरपरिचित महक को अपने अंदर समेट रहा था जो उस के बचपन  की अनमोल निधि थी.

निशांत के 4 वर्षीय बेटे सौरभ ने इसी कमरे में घुटनों के बल चल कर खड़े होना और फिर अपनी दादी की उंगली पकड़ कर पूरे घर में घूमना सीखा. निशांत की पत्नी माया एक विदेशी कंपनी में काम करती थी. वह सुबह 9 बजे निकलती तो शाम को 6 बजे ही वापस लौटती. ऐसे में सौरभ अपनी दादी के हाथों ही पलाबढ़ा था.  नौकर टिक्कू के साथ उस की खूब पटती थी, जो उसे कभी कंधे पर बिठा कर तो कभी उस को 3 पहियों वाली साइकिल पर बिठा कर सैर कराता. अकसर शाम को जब माया लौटती तो सौरभ घर में ही न होता और माया बेचैनी से उस का इंतजार करती. किंतु जब टिक्कू के कंधे पर चढ़ा सौरभ घर लौटता तो नीचे कूद कर सीधे दादी की गोद में जा बैठता और तब माया का पारा चढ़ जाता. दादी के कहने पर सौरभ माया के पास जाता तो जरूर किंतु कुछ इस तरह मानो अपनी मां पर एहसान कर रहा हो. ऐसे में माया और भी चिढ़ जाती, मन ही मन इसे अपनी सास की एक चाल समझती.

लगभग 7 वर्ष पूर्व जब माया इस घर में बहू बन कर आई थी तो जगमगाते सपनों से उस का आंचल भरा था. पति के हृदय पर उस का एकछत्र साम्राज्य होगा, हर स्त्री की तरह उस का भी यही सपना था. किंतु उस के पति निशांत के हृदय के किसी कोने में उस की मां की मूर्ति भी विराजमान थी, जिसे लाख प्रयत्न करने पर भी माया वहां से निकाल कर फेंक न सकी. माया के हृदय की कुढ़न ने घर में छोटेमोटे झगड़ों को जन्म देना शुरू कर दिया, जिन्होंने बढ़तेबढ़ते लगभग गृहकलह का रूप ले लिया. इस सारे झगड़ेझंझटों के बीच में पिस रहा था निशांत, जो सीधासादा इंसान था. वह आपसी रिश्तों को शालीनता से निभाने में विश्वास रखता था. अकसर वह माया को समझाता कि ‘मां भावुक प्रकृति की हैं, केवल थोड़े मान, प्यार से ही संतुष्ट हो जाएंगी.’

किंतु माया ने सास को अपनी मां के रूप में नहीं, प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्वीकारा. इन 7 वर्षों ने निशांत की मां को एक हंसतेबोलते इंसान से एक मूर्ति में परिवर्तित कर दिया. अपने चारों ओर मौन का एक कवच सा लपेटे मां टिक्कू की मदद से सारे घर की साजसंभाल करतीं. उन के हृदय के किसी कोने में आशा का एक नन्हा दीप अभी भी जल रहा था कि शायद कभी माया के नारी हृदय में छिपी बेटी की ममता जाग उठे और वह उन के गले लग जाए.

किंतु माया की बेरुखी मां के हृदय पर नित्य कोई न कोई नया प्रहार कर जाती  और वे आंतरिक पीड़ा से तिलमिला कर अपने कमरे में चली जातीं. भरी आंखें छलकें और बेटा उन्हें देख ले, इस से पहले ही वे उन्हें पोंछ डालतीं और एक गंभीर मुखौटा चेहरे पर चढ़ा लेतीं. समय इसी तरह बीत रहा था कि एक दिन निशांत को स्थानांतरण का आदेश मिला. शाम को मां के पास बैठ उन के दोनों हाथ अपने हाथों में थाम उस ने खिले चेहरे से मां को बताया, ‘‘मां, मेरी तरक्की हुई है और तबादला भी हो गया है.’’

मां चौंक उठीं, ‘‘बदली भी हो गई है?’’

‘‘हां,’’ निशांत उत्साह से भर कर बोला,  ‘‘मुंबई जाना होगा. दफ्तर की तरफ से मकान भी मिलेगा और गाड़ी भी. तुम खुश हो न, मां?’’

‘‘हां, बहुत खुश हूं,’’ निशांत के सिर पर मां ने हाथ फेरा. आंखें मानो वात्सल्य से छलक उठीं और निशांत संतुष्ट हो कर उठ गया. किंतु शाम को जब माया लौटी तो यह खबर सुन कर झुंझला उठी, ‘‘क्या जरूरत थी यह प्रस्ताव स्वीकार करने की? हमें यहां क्या परेशानी है…मेरी नौकरी अच्छीभली चल रही है, वह  छोड़नी पड़ेगी. तुम्हारी तनख्वाह जितनी बढ़ेगी, उस से कहीं ज्यादा नुकसान मेरी नौकरी छूटने का होगा. फिर मुंबई नया शहर है, आसानी से वहां नौकर नहीं मिलेगा. टिक्कू हमारे साथ जा नहीं सकेगा क्योंकि दिल्ली में उस के मांबाप हैं. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं, कैसे उलटेसीधे फैसले कर के बैठ जाते हैं आप.’’

पर्स वहीं मेज पर पटक परेशान सी माया सोफे पर ही पसर गई. थोड़ी देर बाद टिक्कू चाय ले आया.

‘‘मां को चाय दी?’’ निशांत के पूछने पर टिक्कू बोला, ‘‘जी, साहब. मांजी अपनी चाय कमरे में ले गईं.’’

‘‘सुन टिक्कू,’’ माया बोल उठी, ‘‘साहब की बदली मुंबई हो गई है, तू चलेगा न हमारे साथ? सौरभ तेरे बिना नहीं रहेगा.’’

‘‘साहब मुंबई जा रहे हैं?’’ टिक्कू का चेहरा उतर गया, ‘‘फिर मैं क्या करूंगा? मेरा बाप मुझे इतनी दूर नहीं भेजेगा.’’

‘‘तेरी पगार बढ़ा देंगे,’’ माया त्योरी चढ़ा कर बोली, ‘‘फिर तो भेजेगा न तेरा बाप?’’

‘‘नहीं बीबीजी, पगार की बात नहीं, मेरी मां भी बीमार रहती है.’’

‘‘तो ऐसा कह, कि तू ही जाना नहीं चाहता,’’ माया गुस्से से भरी वहां से उठ गई.

फिर अगले कुछ दिन बड़ी व्यस्तता के बीते. निशांत को 1 महीने बाद ही मुंबई पहुंचना था. सो, यह तय हुआ कि माया 1 महीने का जरूरी नोटिस दे कर नौकरी से इस्तीफा दे दे और निशांत के साथ ही चली जाए, जिस से दोबारा आनेजाने का चक्कर न रहे. निशांत ने पत्नी को समझाया, ‘‘सौरभ अभी छोटा ही है, वहां किसी स्कूल में दाखिला मिल जाएगा. मांजी तो साथ होंगी ही, जैसे यहां सबकुछ संभालती हैं, वहां भी संभाल लेंगी. बाद में कोई नौकर भी ढूंढ़ लेंगे, जिस से कि मां पर ही सारे काम का बोझ न पड़े.’

इन्हीं सारे फैसलों के साथ दिन गुजरते गए. घर में सामान की पैकिंग का काम शुरू हो गया. निशांत के औफिस की ओर से एक पैकिंग कंपनी को आदेश दिया गया था कि वे लोग सारा सामान पैक कर के ट्रक द्वारा मुंबई भेजेंगे. घर की जरूरतों का लगभग सारा सामान पैक हो चुका था. फर्नीचर, डबलबैड, रसोई का सामान, फ्रिज, टीवी आदि बड़ेबड़े लकड़ी के बक्सों में बंद हो कर ट्रक में लादा जा रहा था. अब बचा था तो केवल अपनी निजी जरूरत कासामान, जैसे पहनने के कपड़े आदि, जो उन्हें अपने साथ ही ले जाने थे. कुछ ऐसा सामान भी था जो अब उन के काम का नहीं था, जैसे मिट्टी के तेल का स्टोव, लकड़ी का तख्त, कुछ पुराने बरतन आदि. इन्हें वे टिक्कू के लिए छोड़े जा रहे थे. गृहस्थी में चाहेअनचाहे न जाने ऐसा कितना सामान इकट्ठा हो जाता है, जो इस्तेमाल न किए जाने पर भी फेंकने योग्य नहीं होता. ऐसा सारा सामान वे टिक्कू को दे रहे थे. आखिर 6 साल से वह उन की सेवा कर रहा था, उस का इतना हक तो बनता ही था.

माया की इच्छा थी कि मकान किराए पर चढ़ा दिया जाए. किंतु निशांत ने मना कर दिया, ‘‘दिल्ली में मकान किराए पर चढ़ा कर किराएदार से वापस लेना कितना कठिन होता है, मैं अच्छी तरह समझता हूं. इसीलिए अपने एक मित्र के भतीजे को एक कमरा अस्थायी तौर पर रहने के लिए दे रहा हूं, जिस से मकान की देखभाल होती रहे.’’ उस लड़के का नाम विपिन था, भला सा लड़का था. 2 महीने पहले ही पढ़ाई के लिए दिल्ली आया था. बेचारा रहने की जगह ढूंढ़ रहा था, साफसुथरा कमरा पा कर खुश हो गया. इन सब झंझटों से छुट्टी पा कर निशांत मां के कमरे में गया और बोला, ‘‘लाओ मां, तुम्हारा सामान मैं पैक करता हूं.’’ किंतु मां किसी मूर्ति की तरह गंभीर बैठी थीं, शांत स्वर में बोलीं, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी, बेटा.’’

‘‘क्या?’’ निशांत मानो आसमान से गिरा, ‘‘क्या कहती हो मां? हम तुम्हें यहां अकेला छोड़ कर जाएंगे भला?’’

‘‘अकेली कहां हूं बेटा,’’ मां भरेगले से बोलीं, ‘‘टिक्कू है, विपिन है.’’

‘‘लेकिन, वे सब तो गैर हैं. अपने तो हम हैं, जिन्हें तुम्हारी देखभाल करनी है. हम तुम्हें कैसे अकेला छोड़ दें?’’

‘‘अपना क्या और पराया क्या?’’ मां की आवाज मानो हृदय की गहराइयों से फूट रही थी, ‘‘जो प्यार करे, वही अपना, जो न करे, वह पराया.’’

‘‘नितांत सादगी से कहे गए मां के इस वाक्य की मार से निशांत मानो तिलमिला उठा. वह बोझिल हृदय से बोला, ‘‘माया के दोषों की सजा मुझे दे रही हो, मां?’’

‘‘नहीं रे, ऐसा क्यों सोचता है? मैं तो तेरे सुख की राह तलाश रही हूं.’’

‘‘तुम्हारे बिना कैसा सुख, मां?’’ और निशांत कमरे से बाहर निकल गया. माया को जब यह पता चला तो अपने चिरपरिचित व्यंग्यपूर्ण अंदाज में बोली, ‘‘अब यह आप का कौन सा नया नाटक शुरू हो गया?’’

‘‘किस बात का नाटक?’’ मां का स्वर दृढ़ था, ‘‘सीधी सी बात है, मैं नहीं जाना चाहती.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘क्या मेरी इच्छा का कोई मूल्य नहीं?’’

‘‘यह इच्छा की बात नहीं है, मुझे परेशान करने की आप की एक और चाल है. आप खूब समझती हैं कि टिक्कू साथ जा नहीं रहा, सौरभ आप के बिना रहता नहीं. उस नई जगह में मुझे अकेले सब संभालने में कितनी परेशानी होगी, इसीलिए आप मुझ से बदला ले रही हैं.’’

‘‘बदला तो मैं गैरों से भी नहीं लेती माया, फिर तुम तो मेरी अपनी हो, बेटी हो मेरी. जिस दिन तुम्हारी समझ में यह बात आ जाए, मुझे लेने आना. तब चलूंगी तुम्हारे साथ,’’ इतना कह कर मां कमरे से बाहर चली गईं. रात को निशांत के कमरे से माया की ऊंची आवाज बाहर तक सुनाई दे रही थी, ‘‘सारी दुनिया को दिखाना है कि हम उन को साथ नहीं ले जा रहे…हमारी बदनामी होगी, इस का भी खयाल नहीं.’’ माया का व्यवहार अब निशांत की सहनशक्ति की सीमाएं तोड़ रहा था. आखिर उस ने साफ बात कह ही डाली, ‘‘दरअसल, तुम्हें चिंता मां की नहीं, बल्कि इस बात की है कि वहां नौकर भी नहीं होगा और मां भी नहीं. फिर घर का सारा काम तुम कैसे संभालोगी. तुम्हारी सारी परेशानी इसी एक बात को ले कर है.’’

अंत में तय यह हुआ कि अगले दिन सुबह जब सौरभ सो कर उठे तो उसे समझाया जाए कि दादी को साथ चलने के लिए राजी करे. उन की उड़ान का समय शाम 5 बज कर 40 मिनट का था और मां के सामान की पैकिंग के लिए इतना समय काफी था. दूसरे दिन सुबह होते ही अपनी उनींदी आंखें मलतामलता सौरभ दादी की गोद में जा बैठा, ‘‘दादीमां, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘तैयार हो जाऊं, भला क्यों?’’ सौरभ के दोनों गाल चूमचूम कर मां निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हें मुंबई ले जाऊंगा.’’ मां की समझ में सारी बात आ गई. धीरे से सौरभ को गोद से नीचे उतार कर बोलीं, ‘‘पहले जा कर मंजन करो और दूध पियो.’’ सौरभ उछलताकूदता कमरे से बाहर भाग गया. थोड़ीथोड़ी देर में निशांत व माया किसी न किसी बहाने से मां के कमरे में यह देखने के लिए आतेजाते रहे कि वे अपना सामान पैक कर रही हैं या नहीं. किंतु मां के कमरे में सबकुछ शांत था. वे तो रसोई में मिट्टी के तेल वाले स्टोव पर उन लोगों के लिए दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थीं. वे निशांत और सौरभ की पसंद की चीजें टिक्कू की मदद से तैयार कर रही थीं. जो थोड़ेबहुत पुराने बरतन उन लोगों ने छोड़े थे, उन्हीं से वे अपना काम चला रही थीं. मां को पता भी न चला कि कितनी देर से निशांत रसोई के दरवाजे पर खड़ा उन्हें देख रहा है. माया भी उसी के पीछे खड़ी थी. सहसा मां की दृष्टि उन पर पड़ी और एक पल को मानो उन का उदास चेहरा खिल उठा.

‘‘ऐसे क्यों खड़े हो तुम दोनों?’’ मां पूछ बैठीं.

‘‘क्या आप माया को माफ नहीं कर सकतीं? ’’ बुझे स्वर में निशांत ने पूछा.

‘‘आज तक और किया ही क्या है, बेटा?’’ मां बोलीं, ‘‘लेकिन बिना किसी प्रयत्न के अनायास मिला प्यार मूल्यहीन हो जाता है. इस तथ्य को समझो बेटा. तुम्हारे और सौरभ के बिना रहना मेरे लिए भी आसान नहीं है, लेकिन इस समय शायद इसी में हम सब की भलाई है. अकेले घर संभालने में माया को परेशानी तो होगी, लेकिन धीरेधीरे सीख जाएगी.’’ टिक्कू के हाथ में खाने की प्लेटें दे कर मां रसोई से बाहर आईं. हाथ धो कर उन्होंने अपने कमरे में बिछे लकड़ी के तख्त पर खाना लगा दिया. आलू, पूरी देखते ही सौरभ खुश हो गया. मीठे में मां ने सेवइयां बनाई थीं, जो निशांत और माया दोनों को पसंद थीं. सब लोग एकसाथ खाना खाने बैठे. मां के हाथ का खाना अब न जाने कब मिले, यह ध्यान आते ही मानो निशांत के गले में पूरी का कौर अटकने लगा. किसी तरह 2-4 कौर खा कर वह पानी का गिलास ले कर उठ गया.

टैक्सी में सामान रखा जा रहा था. मां निर्विकार भाव से मूर्ति बनी बैठी थीं. उन के पैरों के पास टिक्कू बैठा हुआ था. कभी वह अपने साहब को देखता और कभी मांजी को, मानो समझना चाह रहा हो कि जो कुछ भी हो रहा है, वह अच्छा है या बुरा. मां के पांव छूते समय निशांत के हृदय की पीड़ा उस के चेहरे पर साफ उभर आई. वह भरे गले से बोला, ‘‘मैं हर महीने आऊंगा मां, चाहे एक ही दिन के लिए आऊं.’’ मां ने उस के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘तुम्हारा घर है बेटा, जब जी चाहे आओ, लेकिन मेरी चिंता मत करना.’’

‘‘क्या आप सचमुच ऐसा सोचती हैं कि यह संभव है?’’ कहतेकहते निशांत का स्वर भर्रा उठा.

मां के पैरों के पास बैठा टिक्कू उठ कर निशांत के सामने आ गया और दोनों हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘आप मांजी की चिंता न करें साहब, मैं हूं न, सब संभाल लूंगा. आप हर महीने खुद ही आ कर देख लेना.’’ एक भरपूर नजर टिक्कू पर डाल सहसा निशांत ने उसे अपने से चिपटा लिया. उस पल, उस घड़ी माया उस की दृष्टि में नगण्य हो उठी.

Best Short Story : क्लेम – परमानंद को क्या मिल पाया अपना क्लेम

Best Short Story : जब आंखें खुलीं, तो परमानंद ने देखा कि दिन निकल आया था. रात को सोते समय उस ने सोचा था कि सुबह वह जल्दी उठेगा. आटोरिकशा वालों की हड़ताल थी, वरना कुछ कमाई हो जाती. वैसे, आज के समय तांगा कौन लेता है? सभी तेज भागने वाली सवारी लेना चाहते हैं. आटोरिकशा वालों की हड़ताल से कुछ उम्मीद बंधी थी, पर सिर भारी हो रहा था. बुखार सा लग रहा था. इच्छा हुई, आराम कर ले, पर कमाएगा नहीं तो खाएगा क्या? और उस का रुस्तम? उस का क्या होगा?

परमानंद जल्दी से उठा और रुस्तम को चारापानी डाल कर तैयार होने के लिए चल दिया. जल्दीजल्दी सबकुछ निबटा कर उस ने तांगा तैयार किया और सड़क पर जा पहुंचा.

जल्दी ही सवारी भी मिल गई. 2 लोगों ने हाथ दिखा कर उसे रोका. उन में एक अधेड़ था और दूसरा नौजवान.

‘‘कलक्ट्रेट चलना है?’’ अधेड़ आदमी ने पूछा.

‘‘जी, चलेंगे,’’ परमानंद बोला.

‘‘क्या लोगे? पहले तय कर लो, नहीं तो बाद में झंझट करोगे,’’ नौजवान ने कहा.

‘‘आप ही मुनासिब समझ कर दे दीजिएगा. झंझट किस बात का?’’

‘‘नहींनहीं, पहले तय हो जाना चाहिए. हम 30 रुपए देंगे. चलना है तो बोलो, नहीं तो हम दूसरी सवारी देखते हैं.’’

‘‘ठीक है साहब,’’ परमानंद बोला.

‘‘और देखो, कलक्ट्रेट के भीतर पहुंचाना होगा. बीच में ही मत छोड़ देना.’’

‘‘गांधी मैदान का भाड़ा ही 30 रुपए होता है. भीतर अंदर तक तो 50 रुपए होगा.’’

‘‘देखो, हम ने जो कह दिया, सो कह दिया. चलना है तो चलो,’’ नौजवान की आवाज सख्त थी.

परमानंद इनकार करने ही जा रहा था कि बुजुर्ग ने तांगे पर चढ़ते हुए कहा, ‘‘चलो, तुम 40 रुपए ले लेना. हम भी तो परेशानी में पड़े हैं.’’

अब परमानंद इनकार न कर सका. उस के सिर का दर्द बढ़ता जा रहा था और वह तकरार के मूड में नहीं था.

‘‘ठीक है, 40 रुपए ही सही,’’ परमानंद ने धीरे से कहा.

तांगा सड़क पर सरपट दौड़ने लगा. आटोरिकशा वालों की हड़ताल से सड़क खाली सी थी. रुस्तम भी रात के आराम से तरोताजा हो कर तेजी से दौड़ रहा था.

दोनों सवारी आपस में बातें कर रहे थे. पता चला, वे एक परिवार के नहीं हैं, बल्कि अलगअलग परिवारों से हैं. शायद दूर का रिश्ता हो. दोनों बाढ़ के नुकसान के अनुदान के सिलसिले में कलक्टर साहब के दफ्तर जा रहे थे.

थोड़ा आगे जाने पर सड़क की दूसरी ओर एक गिरजाघर दिखाई पड़ा. परमानंद ने देखा कि अंधेड़ ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से सिर झुकाया.

नौजवान ने हैरानी से पूछा, ‘‘आप ईसाई गिरजाघर को प्रणाम करते हैं?’’

अधेड़ ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘पता नहीं, किस देवी या देवता का आशीर्वाद मिल जाए और काम बन जाए?’’

वे अधेड़ बता रहे थे, ‘‘इस क्लेम को पाने के लिए मैं 50-60 हजार रुपए खर्च कर चुका हूं. क्लेम 2 लाख रुपए का किया है. अपने एकमंजिला मकान को दोमंजिला दिखाया है. खेती का नुकसान भी दोगुना दिखाया है,’’ और एक लंबी आह भरते हुए उन्होंने आगे जोड़ा, ‘‘देखें, कितना पास होता है और मिलता क्या है?’’

नौजवान ने हामी भरी, ‘‘मैं ने भी अपना नुकसान खूब बढ़ाचढ़ा कर दिखाया है. मुखिया तो मानता ही न था. 30 हजार रुपए दे कर उसे किसी तरह मनाया. मुलाजिम और चपरासी के हाथ अलग से गरम करने पड़े.

‘‘और कलक्ट्रेट में तो खुलेआम लूट है. सभी मुंह खोले रहते हैं. बिना पैसा लिए कोई काम ही नहीं करता. फाइल आगे बढ़ाने के लिए हर बार चपरासी को चढ़ावा देना पड़ता है. लगता है कि सभी बाढ़ और सूखे के लिए भगवान से प्रार्थना करते रहते हैं.’’

आगे गंगा किनारे एक मंदिर था. उन्होंने तांगा रुकवाया, उतर कर बगल की दुकान से तमाम तरह की मिठाइयां खरीदीं और मंदिर में प्रवेश किया.

जब वे वापस आए, तो नौजवान ने कहा, ‘‘इतनी सारी मिठाइयां चढ़ाने की क्या जरूरत थी?’’

‘‘सुना नहीं… जितनी ज्यादा शक्कर डालोगे, हलवा उतना ही मीठा होगा. लंबाचौड़ा क्लेम है, चढ़ावा तो बड़ा करना ही होगा. पंडितजी ने कहा है कि जितना ज्यादा चढ़ावा चढ़ाओगे, तो जल्दी फल मिलेगा.’’

इस बाढ़ में तो परमानंद ने अपना सबकुछ खो दिया है. उस का सारा परिवार, उस की प्यारी पत्नी, उस के 2 छोटेछोटे बच्चे, उस का बूढ़ा पिता. सब को इस बाढ़ ने निगल लिया था. एक छोटा सा मिट्टी का घर था, गंगा किनारे सरकारी जमीन पर. सबकुछ, सारे लोग, घर का सारा सामान, रात के अंधेरे में गंगा में समा गए. कुछ भी नहीं बचा.

यह तो रुस्तम की मेहरबानी थी कि वह बच गया, नहीं तो वह भी गंगा की भेंट चढ़ गया होता. पता नहीं, जानवरों को कैसे आने वाली मुसीबत का पता चल जाता है? शायद उसी के चलते उस दिन रुस्तम, जो बाहर बंधा था, रस्सी तोड़ कर जोरों से हिनहिनाते हुए भाग खड़ा हुआ. परमानंद उस के पीछे दौड़ा. दौड़तेभागते वे दूर निकल गए.

रुस्तम लौटने को तैयार ही नहीं था, इसलिए परमानंद भी वहीं रह गया. जब वह लौटा, तो सबकुछ खत्म हो गया था. तेज धारा के कटाव से उस का घर गंगा में बह गया था. तब उस के जीने की इच्छा भी मर गई थी. वह तो जिंदा रहा सिर्फ रुस्तम के लिए, जो उस का घोड़ा नहीं, बल्कि परिवार का हिस्सा था. वह उस का बेटा था और अब तो उस की जिंदगी बचाने वाला भी.

‘‘जरा जल्दी चलो, दिनभर ले लोगे क्या?’’ नौजवान ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘पहले ही इतनी देरी हो गई है.’’

तांगा तेजी से भाग रहा था… और दिनों से कहीं ज्यादा तेज.

‘क्या उड़ा कर ले चलें? तांगा ही तो है, मोटरगाड़ी नहीं,’ परमानंद ने मन ही मन कहा, पर उन लोगों को खुश रखने के लिए उस ने घोड़े को ललकारा, ‘‘चल बेटा, अपनी चाल दिखा. साहब लोगों को देर हो रही है.’’

लेकिन उस ने चाबुक नहीं उठाया. वह रुस्तम को कभी भी नहीं मारता था. जल्दी ही वे दोनों कलक्ट्रेट पहुंच गए. अधेड़ ने सौ का नोट निकाला, ‘‘बाकी के 60 रुपए दे दो भाई.’’

छुट्टे के नाम पर परमानंद के पास फूटी कौड़ी भी नहीं थी.

‘‘मैं छुट्टे कहां से लाऊं?’’ उस ने आसपास नजर दौड़ाई. छुट्टे पैसे देने वाला उसे कोई न दिखा.

‘‘छुट्टे ले कर चलना चाहिए न?’’ नौजवान बोला. अपने बटुए से उस ने 30 रुपए निकाले, ‘‘मेरे पास तो बस यही छुट्टे हैं.’’

‘‘ले लो भाई. आज ये ही रख लो. बाकी फिर कभी ले लेना,’’ अधेड़ ने कहा.

परमानंद ने वे 30 रुपए ले लिए. पहली सवारी में ही घाटा. फिर उस ने रुस्तम को देखा और उस की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘चलो, तेरे लिए चारापानी का इंतजाम तो हो गया.’’

परमानंद सोच रहा था कि बाढ़ के अनुदान का अधिकार इन लोगों से ज्यादा तो उस का था. उस का इन लोगों से ज्यादा नुकसान हुआ था, पर वह कोई क्लेम नहीं कर सका था. घूस देने के लिए उस के पास पैसे न थे. जमीनजायदाद न थी. उस का घर मिट्टी का था, जो सरकारी जमीन पर बना था. मुखिया 10 हजार रुपए मांग रहा था. मुलाजिम की मांग अलग थी और कलक्ट्रेट का खर्च अलग. कहां से लाता वह यह सब? बाढ़ में सबकुछ खो देने के बाद उसे कुछ भी मुआवजा नहीं मिला.

किसी ने सुझाया था, ‘रुस्तम को बेच दो.’ ऐसा परमानंद कैसे कर सकता था? कोई अपने बेटे को बेच सकता है भला? उस ने अपने रुस्तम को प्यार से थपथपाया, ‘‘मेरा क्लेम तो तू ही है. मेरी सारी जरूरतों को तू ही पूरा करता है.’’

रुस्तम ने गरदन हिला कर सहमति जताई. गले में बंधी घंटियां बज उठीं और परमानंद के कानों में मधुर संगीत गूंज उठा.

Best Hindi Story : कर्तव्य – मीनाक्षी किसकी आवाज सुनकर बाहर आईं थी

Best Hindi Story : सोफे पर बैठी मीनाक्षी ने दीवारघड़ी की ओर देखा. 3 बजने को थे. उस ने मेज पर रखा समाचारपत्र उठाया और समाचारों पर सरसरी दृष्टि डालने लगी. चोरी, चैन झपटने, लूटमार, हत्या, अपहरण व बलात्कार के समाचार थे. 2 समाचारों पर उस की दृष्टि रुक गई- 12 वर्षीया बालिका से स्कूल वैन ड्राइवर द्वारा बलात्कार; दूसरा समाचार था- स्कूल के औटो ड्राइवर द्वारा 8 वर्षीय बालक का अपहरण, फिरौती न देने पर हत्या.

पूरे समाचार पढ़ कर सन्न रह गई मीनाक्षी. यह क्या हो रहा है? क्यों बढ़ रहे हैं इतने अपराध? कभी भी सुरक्षा नहीं रही. इन अपराधियों को तो पुलिस व जेल का बिलकुल भी भय नहीं रहा. पता नहीं क्यों आज इंसान के रूप में ऐसे शैतानों को बच्चियों से जघन्य अपराध करते हुए जरा भी दया नहीं आती. फिरौती के रूप में लाखों रुपए न मिलने पर मासूम बच्चों की हत्या करते हुए उन का हृदय जरा भी नहीं पसीजता.

यह सब सोचतेसोचते मीनाक्षी ने घड़ी की ओर देखा 3:30 बज रहे थे. अभी तक रमन स्कूल से नहीं लौटा. स्कूल की छुट्टी तो 3 बजे हो जाती है. घर आने तक आधा घंटा लगता है. अब तक तो रमन को घर आ जाना चाहिए था.

मीनाक्षी के पति गिरीश वर्मा एक प्राइवेट कंपनी में प्रबंधक थे. उन का 8 वर्षीय रमन इकलौता बेटा था. रमन शहर के एक इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ रहा था. रमन देखने में सुंदर और बहुत प्यारा था. दूधिया रंग था उस का. सिर पर छोटेछोटे भूरे बाल. नीली आंखें. मोती से चमकते दांत. जो भी रमन को पहली बार देखता, उस का मन करता कि देखता ही रहे. वह पढ़ाई में भी बहुत आगे रहता. उस की प्यारीप्यारी बातें सुन कर खूब बातें करने को मन करता था.

एक दिन गिरीश ने मीनाक्षी से कहा था, ‘देखो मीनाक्षी, हमें दूसरा बच्चा नहीं पैदा करना है. मैं चाहता हूं कि रमन को खूब पढ़ालिखा कर किसी योग्य बना दें.’

मीनाक्षी ने भी सहमति के रूप में सिर हिला दिया था. वह स्वयं भी कंप्यूटर इंजीनियर थी. चाहती तो नौकरी भी कर सकती थी, परंतु रमन के कुशलतापूर्वक लालनपालन के लिए उस ने नौकरी करने का विचार त्याग दिया था. उसे एक गृहिणी बन कर रहना ही उचित लगा.

मीनाक्षी के हृदय की धडक़न बढऩे लगी. कहां रह गया रमन? सुबह 9 बजे औटोरिकशा में बैठ कर स्कूल जाता है. 5 बच्चे और भी उसी औटो में बैठ कर जाते हैं. रमन सब से पहले औटो में बैठता है और सब से बाद में घर आता है.

आटोरिकशा चलाने वाला मोहन लाल पिछले वर्ष से बच्चों को ले जा रहा था. अब 3 दिनों से मोहन लाल बुखार में पड़ा था. उस ने अपने छोटे भाई सोहन लाल को भेज दिया था.

कल सोहन लाल औटोरिकशा ले कर आया था. सोहन लाल भी नगर में औटो चलाता है.

उस ने पूछा था, ‘तुम्हारा भाई मोहन लाल नहीं आया. उस का बुखार ठीक नहीं हुआ क्या? कल उस का फोन आया था कि बुखार हो गया है, इसलिए कुछ दिन छोटा भाई आएगा.’

‘हां मैडम जी, अभी भाई का बुखार ठीक नहीं हुआ है. आज उसे खून की जांच करानी है. जब तक वह नहीं आता, मैं बच्चों को स्कूल ले जाऊंगा.’

‘ठीक है, जरा ध्यान से ले जाना,’ उस ने रमन को औटो में बैठाते हुए कहा था.

‘आप चिंता न करें मैडम जी. मैं पहले भी कई बार इन बच्चों को स्कूल ले गया हूं. मुझे इन बच्चों के घर का पता भी मालूम है. 3 बजे छुट्टी होती है. मैं साढ़े तीन बजे तक घर पर बैठे रमन को ले आऊंगा.’

‘बाय, अम्मा,’ रमन ने मुसकरा कर हाथ हिलाते हुए कहा था.

कल 3 बज कर 45 मिनट पर सोहन लाल औटोरिकशा में रमन को ले कर आ गया था. रमन के आ जाने पर उस ने चैन की सांस ली थी.

परंतु आज कहां रह गया रमन? पौने चार बज रहे थे. उसे आज अपनी मूर्खता पर क्रोध आ रहा था कि उस ने सोहन लाल का मोबाइल नंबर क्यों नहीं लिया? न कल लिया और आज भी वह भूल गई थी.

मीनाक्षी को ध्यान आया कि सोहन लाल का नंबर तो पिछली बार डायरी में नोट किया था. उस ने डायरी उठा कर झटपट नंबर मिलाया. परंतु वह नंबर मौजूद नहीं था. पता नहीं बहुत से लोग नंबर क्यों बदलते रहते हैं? वह झुंझला उठी.

उस ने मोहन लाल का नंबर मिला कर कहा, “तुम्हारा भाई सोहन अभी तक रमन को ले कर नहीं आया है, पता नहीं कहां रह गया? मेरे पास उस का मोबाइल नंबर भी नहीं है.”

“इतनी देर तो नहीं होनी चाहिए थी. मैं ने उसे फोन मिलाया है पर उस का फोन लग नहीं रहा है. स्विच औफ सुनाई दे रहा है. पता नहीं क्या बात हो सकती है?” उधर से मोहन लाल का भी चिंतित स्वर सुनाई दिया.

मीनाक्षी ने घबराए स्वर में कहा, “ओह, मुझे बहुत डर लग रहा है. पता नहीं रमन किस हाल में होगा?”

“मैडम जी, आप चिंता न करें. रमन बेटा आप के पास पहुंच जाएगा. हो सकता है कहीं जाम में औटो फंस गया हो,” मोहन लाल का स्वर था.

मीनाक्षी ने रमन की कक्षा में पढऩे वाले एक बालक की मम्मी का मोबाइल नंबर मिला कर कहा, “मैं मीनाक्षी वर्मा बोल रही हूं.”

“कहिए मीनाक्षी जी, कैसी हैं आप? 10 तारीख को होटल ग्रीन में किट्टी पार्टी है.”

“हां, मालूम है मुझे. यह बताओ कि आप का बेटा कमल स्कूल से आ गया है क्या?” बात काट कर मीनाक्षी ने कहा.

“हांहां, आ गया है. वह तो सवा तीन बजे ही आ गया था. पर क्या बात है, आप यह क्यों पूछ रही हैं?”

“रमन को ले कर सोहन लाल अभी तक घर नहीं आया है.”

“क्या कह रही हो मीनाक्षी? अब तो 4 बजने को हैं. स्कूल से छुट्टी हुए तो एक घंटा हो रहा है. कहां रह गया होगा बेटा? आजकल जमाना बहुत खराब चल रहा है. रोजना अखबारों में बेटीबेटों के बारे में दिल दहला देने वाले समाचार छपते रहते हैं, किस पर कितना विश्वास करें? किसी का क्या पता कि कब मन बदल जाए? दिमाग में कब शैतान घुस जाए? हमारी मजबूरी है कि हम अपने घर के चिरागों को इन जैसे लोगों के साथ भेज देते हैं. आप जल्दी से स्कूल फोन करो, कहीं ऐसा न हो कि रमन आज स्कूल में ही रह गया हो. हमारे, आप के यहां तो एकएक ही बच्चा है? यदि कुछ ऐसावैसा हो गया तो…”

“नहीं…” आगे और सुन नहीं सकी मीनाक्षी. उस ने एकदम फोन काट दिया.

उस का हृदय बुरी तरह धडक़ रहा था. उस ने स्कूल का नंबर मिलाया. उधर से हैलो होते ही वह एकदम बोली, “मेरा बेटा रमन आप के यहां तीसरी कक्षा में पढ़ रहा है. वह अभी तक घर नहीं पहुंचा. स्कूल में तो कोई बच्चा नहीं रह गया है?”

“नहीं मैडम जी, यहां कोई बच्चा नहीं है. स्कूल की 3 बजे छुट्टी हो गई थी. यदि यहां आप का बच्चा होता तो आप को फोन पर सूचना दी जाती. आप का बच्चा कैसे घर पहुंचता है?”

“औटोरिकशा में कुछ बच्चे आतेजाते हैं. कल व आज औटो वाले का भाई आया था. औटो वाला मोहन लाल बीमार है.”

“ओह मैडम, आप तुरंत पुलिस को सूचना दीजिए. इतनी देर तक बच्चा घर नहीं पहुंचा तो कुछ गलत हुआ है. कुछ पता नहीं चलता कि इंसान कब शैतान बन जाए.”

सुनते ही मीनाक्षी बुरी तरह घबरा गई. आंखों से आंसू बहने लगे. उस ने गिरीश को फोन मिलाया.

‘‘हैलो.’’ गिरीश की आवाज सुनाई दी.

“रमन अभी तक स्कूल से घर नहीं पहुंचा,” मीनाक्षी ने रोते हुए कांपते स्वर में कहा.

“क्या कह रही हो? रमन अभी तक स्कूल से घर नहीं लौटा? अब तो 4 से भी ज्यादा बज रहे हैं. छुट्टी तो 3 बजे हो गई होगी. औटो वाले सोहन का नंबर मिलाया?” गिरीश का भी घबराया सा स्वर सुनाई दिया.

“सोहन का नंबर मेरे पास नहीं है. मैं ने उस के भार्ई को मिलाया था तो वह बोला कि सोहन के फोन का स्विच औफ है. स्कूल वालों से पूछा तो उन्होंने जवाब दिया कि छुट्टी 3 बजे हो गई थी. अब यहां कोई बच्चा नहीं है. वे कह रहे थे कि किसी भी औटो वाले का क्या विश्वास कि कब मन बदल जाए. पुलिस में सूचना दो.”

“मैं अभी पहुंच रहा हूं,” गिरीश ने चिंतित हो कर कहा.

दस मिनट में ही गिरीश घर पर पहुंच गया. मीनाक्षी को रोते हुए देख कर समझ गया कि रमन अभी तक नहीं आया है.

“क्या सभी बच्चे अपने घर पहुंच गए?”

“हां, मैं ने कमल की मम्मी से पूछा था. वह सवा तीन बजे अपने घर पहुंच गया था. मेरा तो दिल बैठा जा रहा है. मेरे रमन को कुछ हो गया तो मैं भी जान दे दूंगी. पता नहीं वह कमीना मेरे रमन को किस तरह सता रहा होगा,” कहते ही मीनाक्षी फूटफूट कर रोने लगी.

“मुझे तो यह औटो वाला सोहन जरा भी अच्छा नहीं लगता. देखने में गुंडा और लफंगा लगता है. जब इस के भाई ने भेज ही दिया तो हम क्या करते, मजबूरी है. इस के मन में आ गया होगा कि बच्चे को कहीं छिपा दूंगा. 15-20 लाख रुपए मांग लूंगा तो 5-7 मिल ही जाएंगे. हो सकता है उस के साथ कोई दूसरा भी मिला हो. देखना अभी इस का फोन आएगा.”

“अपने बच्चे के लिए मैं अपने बैंक खाते के सारे रुपए तथा जेवरात आदि दे दूंगी लेकिन रमन को कुछ नहीं होना चाहिए. उस के बिना मैं जीवित नहीं रह पाऊंगी.”

“मीनाक्षी, अपनेआप को संभालों. हम पर अचानक यह भयंकर मुसीबत आई है. हमें इस का मुकाबला करना होगा. अब मैं पुलिस स्टेशन रिपोर्ट लिखाने जा रहा हूं,”’ गिरीश ने कहा और कमरे से बाहर निकला.

तभी घर के बाहर औटोरिकशा के रुकने की आवाज आई.

देखते ही गिरीश एकदम चीख उठा, “अबे, कहां मर गया था उल्लू के पट्ठे?”

औटो की आवाज व गिरीश का चीखना सुन कर मीनाक्षी भी एकदम कमरे से बाहर आई.

रमन औटो से उतर रहा था. सोहन लाल के हाथ पर पट्टी बंधी थी तथा चेहरे पर मारपिटाई के निशान थे.

मीनाक्षी ने रमन को गोद में उठा कर इस प्रकार गले लगाया मानो वह वर्षों बाद मिला हो.

गिरीश ने रमन से पूछा, “बेटे, तुम ठीक हो?”

“मैं बिलकुल ठीक हूं, पापा, लेकिन अंकल की लोगों ने मारपिटाई की है,” रमन ने कहा.

गिरीश व मीनाक्षी चौंके. वे दोनों चकित से सोहन लाल के चेहरे की ओर देख रहे थे.

गिरीश ने पूछा, “सोहन लाल, क्या बात हुई. हम तो बहुत परेशान थे कि अभी तक तुम रमन को ले कर क्यों नहीं आए हो.”

“परेशान होने की तो बात ही है बाबूजी. रोजाना तो बेटा साढ़े तीन बजे तक घर आ जाता था और आज इतनी देर तक भी नहीं आया, घबराहट तो होनी ही थी. इस बीच न जाने क्याक्या सोच लिया होगा आप ने.”

“हाथ पर चोट कैसे लगी?” मीनाक्षी ने पूछा.

“सब बच्चे अपनेअपने घर चले गए थे. मैं इधर ही लौट रहा था तो औटो में पंचर हो गया. आधा घंटा वहां लग गया. गांधी चौक पर जाम लगा हुआ था. वहां एक धार्मिक शोभायात्रा जा रही थी. मैं औटो दूसरे रास्ते से ले कर जल्दी घर पहुंचना चाहता था. मैं जानता था कि देर हो चुकी है.

“मैं पटेल रोड पर आ रहा था तो सामने से एक बाइक पर 2 युवा स्टंट करते हुए तेजी से आ रहे थे. जो चला रहा था, उस ने कानों में इयर फोन भी लगा रखा था. सिर पर हेलमेट नहीं था. मैं समझ गया कि इन की बाइक औटो से टकरा जाएगी. जैसे ही मैं ने तेजी से औटो बचाया तो सडक़ के किनारे खड़ी किसी नेताजी की कार में जरा सी खरोंच आ गई. कार पर पार्टी का झंडा लगा था. कार से 3 व्यक्ति उतरे. मैं ने उन के आगे हाथ जोड़ कर माफी मांगी, पर वे तो सत्ता के नशे में चूर थे. उन्होंने मेरे साथ मारपिटाई शुरू कर दी. एक ने मुझे धक्का दिया तो मेरा सिर औटो से जा लगा. लोगों ने बीचबचाव कर मुझे छुड़ा दिया. पास के नर्सिंगहोम में जा कर मैं ने पट्टी कराई और सीधा यहां आ गया. आज तो मोबाइल चार्ज भी नहीं था, इसलिए मेरा फोन भी बंद था,” सोहन लाल ने बताया.

यह सुन कर गिरीश व मीनाक्षी का क्रोध शांत होता चला गया.

“बाबूजी, आज जो हुआ, उस में मेरा तो कोई दोष नहीं, बस, हालात ही ऐसे बनते चले गए कि देर होती चली गई,” सोहन लाल बोला.

मीनाक्षी के हृदय में दया व सहानुभूति की लहर दौड़ऩे लगी. वह बोली, “सोहन लाल, तुम्हारा दोष जरा भी नहीं है. तुम्हें तो चोट भी लग गर्ई है.”

“मुझे इस चोट की जरा भी चिंता नहीं है मैडम जी. यदि रमन बेटे को जरा भी चोट लग जाती तो मैं कभी स्वयं को माफ नहीं करता. उस का मुझे बहुत दुख होता. आप लोग अपने बच्चों को हमारे साथ कितने विश्वास के साथ स्कूल भेजते हैं. हमारा भी तो यह कर्तव्य है कि हम उस विश्वास को बनाए रखें. हम लोगों की जरा सी लापरवाही से यह विश्वास टूट जाएगा. मैं तो उन लोगों में हूं जो अपनी जान पर खेल कर सदा यह विश्वास बनाए रखना चाहते हैं.”

गिरीश ने कहा, “बैठो सोहन, मीनाक्षी तुम्हारे लिए चाय बना कर लाती है.”

“धन्यवाद बाबूजी, चाय फिर कभी. अभी तो मुझे भैया के खून की टैस्ट रिपोर्ट लानी है. काफी देर हो चुकी है,” सोहन लाल ने कहा और औटो स्टार्ट कर चल दिया.

Love Story : लिस्ट – क्या सच में रिया का कोई पुरुष मित्र था या फिर…

Love Story : संडे के दिन लंच के बाद मैं सारे काम निबटा कर डायरी उठा कर बैठ गई. मेहमानों की लिस्ट भी तो बनानी थी. 20 दिन बाद हमारे विवाह की 25वीं सालगिरह थी. एक बढ़िया पार्टी की तैयारी थी.

आलोक भी पास आ कर बैठ गए. बोले, ‘‘रिया, बच्चों को भी बुला लो. एकसाथ बैठ कर देख लेते हैं किसकिस को बुलाना है.’’

मैं ने अपने युवा बच्चों सिद्धि और शुभम को आवाज दी, ‘‘आ जाओ बच्चो, गैस्ट लिस्ट बनानी है.’’

दोनों फौरन आ गए. कोई और काम होता तो इतनी फुरती देखने को न मिलती. दोनों कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे. अपने दोस्तों को जो बुलाना था. डीजे होगा, डांस करना है सब को. एक अच्छे होटल में डिनर का प्लान था.

मैं ने पैन उठाते हुए कहा, ‘‘आलोक, चलो आप से शुरू करते हैं.’’

‘‘ठीक है, लिखो. औफिस का बता देता हूं. सोसायटी के हमारे दोस्त तो कौमन ही हैं,’’ उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘रमेश, नवीन, अनिल, विकास, कार्तिक, अंजलि, देविका, रंजना.’’

आखिर के नाम पर मैं ने आलोक को देखा तो उन्होंने बड़े स्टाइल से कहा, ‘‘अरे, ये भी तो हैं औफिस में…’’

‘‘मैं ने कुछ कहा?’’ मैं ने कहा.

‘‘देखा तो घूर कर.’’

‘‘यह रंजना मुझे कभी पसंद नहीं आई.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘तुम जानते हो, उस का इतना मटकमटक कर बात करना, हर पार्टी में तुम सब कुलीग्स के गले में हाथ डालडाल कर बातें करना बहुत बुरा लगता है. ऐसी उच्छृंखल महिलाएं मुझे कभी अच्छी नहीं लग सकतीं.’’‘‘रिया, ऐसी छोटीछोटी बातें मत सोचा करो. आजकल जमाना बदल गया है. स्त्रीपुरुष की दोस्ती में ऐसी छोटीछोटी बातों पर कोई ध्यान नहीं देता… अपनी सोच का दायरा बढ़ाओ.’’

मैं चुप रही. क्या कहती. आलोक के प्रवचन सुन कर कुछ कटु शब्द कह कर फैमिली टाइम खराब नहीं करना चाहती थी. अत: चुप ही रही.

फिर मैं ने शुभम से कहा, ‘‘अब तुम लिखवाओ अपने दोस्तों के नाम.’’

शुभम शुरू हो गया, ‘‘रचना, शिवानी, नव्या, अंजलि, टीना, विवेक, रजत, सौरभ…’’

मैं बीच में ही हंस पड़ी, ‘‘लड़कियां कुछ ज्यादा नहीं हैं लिस्ट में?’’

‘‘हां मौम, खूब दोस्त हैं मेरी,’’ कह वह और भी नाम बताता रहा और मैं लिखती रही.

‘‘यह हमारी शादी की सालगिरह है या तुम लोगों का गैट टु गैदर,’’ मैं ने कहा.

‘‘अरे मौम, सब वेट कर रहे हैं पार्टी का… नव्या और रचना तो डांस की प्रैक्टिस भी करने लगी हैं… दोनों सोलो परफौर्मैंस देंगी.’’सिद्धि ने कहा, ‘‘चलो मौम, अब मेरे दोस्तों के नाम लिखो- आशु, अभिजीत, उत्तरा, भारती, शिखर, पार्थ, टोनी, राधिका.’’

उस ने भी कई नाम लिखवाए और मैं लिखती रही. शुभम ने उसे छेड़ा, ‘‘देखो मौम, इस की लिस्ट में भी कई लड़के हैं न?’’

सिद्धि ने कहा, ‘‘चुप रहो, आजकल सब दोस्त होते हैं. हम लोग पार्टी का टाइम पूरी तरह ऐंजौय करने वाले हैं… आप देखना मौम आशु कितना अच्छा डांसर है.’’

इसी बीच आलोक को औफिस की 2 और लड़कियों के नाम याद आ गए. मैं ने वे भी लिख लिए.

‘‘हमारे दोस्तों की लिस्ट तो बन गई मौम. लाओ, मुझे डायरी और पैन दो मैं आप की फ्रैंड्स के नाम लिखूंगी,’’ सिद्धि बोली.

‘‘अरे, तुम्हारी मम्मी की लिस्ट तो मैं ही बता देता हूं,’’ मैं कुछ कहती उस से पहले ही आलोक बोल उठे तो मैं मुसकरा दी.

आलोक बताने लगे, ‘‘नीरा, मंजू, नीलम, विनीता, सुमन, नेहा… कुछ और भी होंगी किट्टी पार्टी की सदस्याएं… हैं न?’’

तब मैं ने 4-5 नाम और बताए. फिर अचानक कहा, ‘‘बस एक नाम और लिख लो, शरद.’’

‘‘यह कौन है?’’ तीनों चौंक उठे.

‘‘मेरा दोस्त है.’’

‘‘क्या? कभी नाम नहीं सुना… कौन है? इसी सोसायटी में रहता है?’’

तीनों के चेहरों के भाव देखने लायक थे.

आलोक ने कहा, ‘‘कभी तुम ने बताया नहीं. मुझे समझ नहीं आ रहा कौन है?’’

‘‘बताने को तो कुछ खास नहीं है. ऐसे ही कुछ दोस्ती है… मेरा मन कर रहा है कि मैं उसे भी सपरिवार इस पार्टी में बुला लूं. इसी सोसायटी में रहता है. 1 छोटी सी बेटी है. कई बार उसे सपरिवार घर बुलाने की सोची पर बुला नहीं पाई. अब पार्टी है तो मौका भी है… तुम लोगों को अच्छा लगेगा उस से मिल कर. अच्छा लड़का है.’’

तीनों को तो जैसे सांप सूंघ गया. माहौल एकदम

बदल गया. एकदम हैरत भरा, गंभीर माहौल.

आलोक के मुंह से फिर यही निकला, ‘‘तुम ने कभी बताया नहीं.’’

‘‘क्या बताना था… इतनी बड़ी बात नहीं थी.’’

‘‘कहां मिला तुम्हें यह?’’

‘‘लाइब्रेरी में मिल जाता है कभीकभी. मेरी तरह ही पढ़नेलिखने का शौकीन है… वहीं थोड़ी जानपहचान हो गई.’’

‘‘उस की पत्नी से मिली हो?’’

‘‘बस उसे देखा ही है. बात तो कभी नहीं हुई. अब सपरिवार बुलाऊंगी तो मिलना हो जाएगा.’’

शुभम ने कहा, ‘‘मौम, कुछ अजीब सा लग रहा है सुन कर.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘पता नहीं मौम, आप के मुंह से किसी मेल फ्रैंड की बात अजीब सी लग रही है.’’

सिद्धि ने भी कहा, ‘‘मौम, मुझे भी आप से यह उम्मीद तो कभी नहीं रही.’’

‘‘कैसी उम्मीद?’’

‘‘यही कि आप किसी लड़के से दोस्ती करेंगी.’’

‘‘क्यों, इस में इतनी नई क्या बात है? जमाना बदल गया है न. स्त्रीपुरुष की मित्रता तो सामान्य सी बात है न. मैं तो थोड़ी देर पहले आप लोगों के विचार सुन कर खुश हो रही थी कि मेरा परिवार इतनी आधुनिक सोच रखता है, तो मेरे भी दोस्त से मिल कर खुश होगा.’’

अभी तक तीनों के चेहरे देखने लायक थे. तीनों को जैसे कोई झटका लगा था. आलोक ने अचानक कहा, ‘‘अभी थोड़ा लेटने का मन हो रहा है. बच्चो, तुम लोग भी अपना काम कर लो. बाकी तैयारी की बातें बाद में करते हैं.’’

बच्चे मुंह लटकाए हुए चुपचाप अपने रूम में चले गए. आलोक ने लेट कर आंखों पर हाथ रख लिया. मैं वहीं बैठेबैठे शरद के बारे में सोचने लगी…

साल भर पहले लाइब्रेरी में मिला था. वहीं थोड़ीबहुत कुछ पुस्तकों पर, पत्रिकाओं पर बात होतेहोते कुछ जानपहचान हो गई थी. वह एक स्कूल में हिंदी का टीचर है. उस की पत्नी भी टीचर है और बेटी तो अभी तीसरी क्लास में

ही है. उस का सीधासरल स्वभाव देख कर ही उस से बात करने की इच्छा होती है मेरी. कहीं कोई अमर्यादित आचरण नहीं. बस, वहीं खड़ेखड़े कुछ साहित्यिक बातें, कुछ लेखकों का जिक्र, बस यों ही आतेजाते थोड़ीबहुत बातें… मुझे तो उस का घर का पता या फोन नंबर भी नहीं पता… उसे बुलाने के लिए मुझे लाइब्रेरी के ही चक्कर काटने पड़ेंगे.

खैर, वह तो बाद की बात है. अभी तो मैं अपने परिवार की स्त्रीपुरुष मित्रता पर आधुनिक सोच के डबल स्टैंडर्ड पर हैरान हूं. शरद का नाम सुन कर ही घर का माहौल बदल गया. मैं कुछ हैरान थी. मैं तो कितनी सहजता से तीनों के दोस्तों की लिस्ट बना रही थी. मेरी लिस्ट में एक लड़के का नाम आते ही सब का मूड खराब हो गया. पहले तो मुझे थोड़ी देर तक बहुत गुस्सा आता रहा, फिर अचानक मेरा दिल कुछ और सोचने लगा.

इन तीनों को मेरे मुंह से एक पुरुष मित्र का नाम सुन कर अच्छा नहीं लगा… ऐसा क्यों हुआ? वह इसलिए ही न कि तीनों मुझे ले कर पजैसिव हैं तीनों बेहद प्यार करते हैं मुझ से, जैसेजैसे मैं इस दिशा में सोचती गई मेरा मन हलका होता गया. कुछ ही पलों में डबल स्टैंडर्ड के साथसाथ मुझे इस बात में भी बहुत सा स्नेह, प्यार, सुरक्षा, अधिकार की भावना महसूस होने लगी. फिर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं रही. मुझे कुछ बहुत अच्छा लगा.

अचानक फिर तीनों के साथ बैठने का मन हुआ तो मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘अरे, आ जाओ सब. मैं तो मजाक कर रही थी. मैं तो तुम लोगों को चिढ़ा रही थी.’’

आलोक ने फौरन अपनी आंखों से हाथ हटाया, ‘‘सच? झूठ क्यों बोला?’’

बच्चे फौरन हाजिर हो गए, ‘‘मौम, झूठ

क्यों बोला?’’

‘‘अरे, तुम लोग इतनी मस्ती, मजाक करते रहते हो, तो क्या मैं नहीं तुम्हें चिढ़ा सकती?’’

सिद्धि ने फरमाया, ‘‘फिर भी मौम, ऐसे मजाक भी न किया करें… बहुत अजीब लगा था.’’

शुभम ने भी हां में हां मिलाई, ‘‘हां मौम, मुझे भी बुरा लगा था.’’

आलोक मुसकराते हुए उठ कर बैठ चुके थे, ‘‘तुम ने तो परेशान कर दिया था सब को.’’

अब फिर वही पार्टी की बातें थीं और मैं मन ही मन अपने सच्चेझूठे मजाक पर मुसकराते हुए बाकी तैयारी की लिस्ट में व्यस्त हो गई. लेकिन मन के एक कोने में शरद की याद और ज्यादा पुख्ता हो गई. उसे तो किसी दिन बुलाना ही होगा. मैरिज ऐनिवर्सरी पर नहीं तो किसी और दिन.

Romantic Story : जीने की इच्छा – आभा और अरुण का क्या रिश्ता था

Romantic Story : ‘‘जल्दी करो मां. मुझे देर हो रही है. फिर ट्रेन में जगह नहीं मिलेगी,’’ अरुण ने कहा.

मां बोलीं, ‘‘तेरी गाड़ी तो 12 बजे की है. अभी तो 7 भी नहीं बजे हैं.’’

‘‘मां, तुम समझती क्यों नहीं हो. मैं यार्ड में ही जा कर डब्बे में बैठ जाऊंगा. प्लेटफार्म पर सभी जनरल डब्बे बिलकुल भरे हुए ही आते हैं,’’ अरुण बोला.

उन दिनों ‘श्रमजीवी ऐक्सप्रैस’ ट्रेन पटना जंक्शन से 12 बजे खुल कर अगले दिन सुबह 5 बजे नई दिल्ली पहुंचती थी. अरुण को एक इंटरव्यू के लिए दिल्ली जाना था. अगले दिन सुबह के 11 बजे दिल्ली के दफ्तर में पहुंचना था.

अरुण के पिता किसी प्राइवेट कंपनी में चपरासी थे. अभी कुछ महीने पहले ही वे रिटायर हुए थे. वे कुछ दिनों से बीमार थे. वे किसी तरह 2 बेटियों की शादी कर चुके थे. सब से छोटे बेटे अरुण ने बीए पास करने के बाद कंप्यूटर की ट्रेनिंग ली थी. वह एक साल से बेकार बैठा था.

अरुण 1-2 छोटीमोटी ट्यूशन करता था. उस के पास स्लीपर क्लास के भी पैसे नहीं थे, इसीलिए पटना से दिल्ली जनरल डब्बे में जाना पड़ रहा था.

मां ने कहा, ‘‘बस हो गया. मैं ने  परांठा और भुजिया एक पैकेट में पैक कर दिया है. तुम याद से अपने बैग में रख लेना.’’

पिता ने भी बिस्तर पर पड़ेपड़े कहा, ‘‘जाओ बेटे, अपने सामान का खयाल रखना.’’

अरुण मातापिता को प्रणाम कर स्टेशन के लिए निकल पड़ा. यार्ड में जा कर एक डब्बे में खिड़की के पास वाली सिंगल सीट पर कब्जा जमा कर उस ने चैन की सांस ली.

ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंची, तो चढ़ने वालों की बेतहाशा भीड़ थी. अरुण जिस खिड़की वाली सीट पर बैठा था, वह इमर्जैंसी खिड़की थी. एक लड़की डब्बे में घुसने की नाकाम कोशिश कर रही थी. उस लड़की ने अरुण के पास आ कर कहा, ‘‘आप इमर्जैंसी खिड़की खोलें, तो मैं भी डब्बे में आ सकती हूं. मेरा इस ट्रेन से दिल्ली जाना बहुत जरूरी है.’’

अरुण ने उसे सहारा दे कर खिड़की से अंदर डब्बे में खींच लिया. लड़की पसीने से तरबतर थी. दुपट्टे से मुंह का पसीना पोंछते हुए उस ने अरुण को ‘थैंक्स’ कहा.

थोड़ी देर में गाड़ी खुली, तो अरुण ने अपनी सीट पर जगह बना कर लड़की को बैठने को कहा. पहले तो वह झिझक रही थी, पर बाद में और लोगों ने भी बैठने को कहा, तो वह चुपचाप बैठ गई.

तकरीबन 2 घंटे बाद ट्रेन बक्सर पहुंची. यह बिहार का आखिरी स्टेशन था. यहां कुछ लोकल मुसाफिरों के उतरने से राहत मिली.

अरुण के सामने वाली सीट खाली हुई, तो वह लड़की वहां जा बैठी.

अरुण ने लड़की का नाम पूछा, तो वह बोली, ‘‘आभा.’’

अरुण बोला, ‘‘मैं अरुण.’’

दोनों में बातें होने लगीं. अरुण ने पूछा, ‘‘पटना में तुम कहां रहती हो?’’

आभा बोली, ‘‘सगुना मोड़… दानापुर के पास.’’

‘‘मैं बहादुरपुर… मैं पटना के पूर्वी छोर पर हूं और तुम पश्चिमी छोर पर. दिल्ली में कहां जाना है?’’

‘‘कल मेरा एक इंटरव्यू है.’’

‘‘वाह, मेरा भी कल एक इंटरव्यू है. बुरा न मानो, तो क्या मैं जान सकता हूं कि किस कंपनी में इंटरव्यू है?’’

आभा बोली, ‘‘लाल ऐंड लाल ला असोसिएट्स में.’’

अरुण तकरीबन अपनी सीट से उछल कर बोला, ‘‘वाह, क्या सुहाना सफर है. आगाज से अंजाम तक हम साथ रहेंगे.’’

‘‘क्या आप भी वहीं जा रहे हैं?’’

अरुण ने रजामंदी में सिर हिलाया और मुसकरा दिया. रातभर दोनों अपनीअपनी सीट पर बैठेबैठे सोतेजागते रहे थे.

ट्रेन तकरीबन एक घंटा लेट हो गई थी. इस के बावजूद काफी देर से गाजियाबाद स्टेशन पर खड़ी थी. सुबह के 7 बज चुके थे. अरुण नीचे उतर कर लेट होने की वजह पता लगाने गया.

अरुण अपनी सीट पर बैठते हुए बोला, ‘‘गाजियाबाद और दिल्ली के बीच में एक गाड़ी पटरी से उतर गई है. आगे काफी ट्रेनें फंसी हैं. ट्रेन के दिल्ली पहुंचने में काफी समय लग सकता है.’’

आभा यह सुन कर घबरा गई. अरुण ने उसे शांत करते हुए कहा, ‘‘डोंट वरी. हम दोनों यहीं उतर जाते हैं. यहीं फ्रैश हो कर कुछ चायनाश्ता कर लेते हैं. फिर यहां से आटोरिकशा ले कर सीधे कनाट प्लेस एक घंटे के अंदर पहुंच जाएंगे.’’

दोनों ने गाजियाबाद स्टेशन पर ही चायनाश्ता किया. फिर आटोरिकशा से दोनों कंपनी पहुंचे. दोनों ने अलगअलग इंटरव्यू दिए. इस के बाद कंपनी के मालिक मोहनलाल ने दोनों को एकसाथ बुलाया.

मोहनलाल ने दोनों से कहा, ‘‘देखो, मैं भी बिहार का ही हूं. दोनों की क्वालिफिकेशंस एक ही हैं. इंटरव्यू में दोनों की परफौर्मेंस बराबर रही है, पर मेरे पास तो एक ही जगह है. अब तुम लोग बाहर जा कर तय करो कि किसे नौकरी की ज्यादा जरूरत है. मुझे बता देना, मैं औफर लैटर इशू कर दूंगा.’’

अरुण और आभा दोनों ने बाहर आ कर बात की. अपनीअपनी पारिवारिक और माली हालत बताई.

आभा की मां विधवा थीं. उस की एक छोटी बहन भी थी. वह पटना के कंप्यूटर इंस्टीट्यूट में पार्ट टाइम नौकरी करती थी, पर उसे बहुत कम पैसे मिलते थे. परिवार को उसी को देखना होता था.

अरुण ने आभा के पक्ष में सहमति जताई. आभा को वह नौकरी मिल गई.

मालिक मोहनलाल अरुण से बहुत खुश हुआ और बोला, ‘‘नौकरी तो तुम भी डिजर्व करते थे. मैं तुम से बहुत खुश हूं. वैसे तो किराया देने का कोई करार नहीं था. फिर भी मैं ने अकाउंटैंट को कह दिया है कि तुम्हें थर्ड एसी का अपडाउन रेल किराया मिल जाएगा. जाओ, जा कर पैसे ले लो.’’

अरुण ने पैसे ले लिए. आभा उसे धन्यवाद देते हए बोली, ‘‘यह दिन मैं कभी नहीं भूलूंगी. मिस्टर मोहनलाल ने मुझे बताया कि तुम ने मेरी खाितर बड़ा त्याग किया है.’’

दोनों ने एकदूसरे का फोन नंबर लिया और संपर्क में रहने को कहा.

अरुण जनरल डब्बे में बैठ कर पटना लौट आया. उस ने किराए का काफी पैसा बचा लिया था. मातापिता को जब पता चला कि उसे नौकरी नहीं मिली, तो वे दोनों उदास हो गए.

कुछ ही दिनों में अरुण के पिता चल बसे. अरुण किसी तरह 2-3 ट्यूशन कर अपना काम चला रहा था. जिंदगी से उस का मन टूट चुका था. कभी सोचता कि घर छोड़ कर भाग जाए, तो कभी सोचता गंगा में जा कर डूब जाए. फिर अचानक बूढ़ी मां की याद आती, तो आंखों में आंसू भर आते.

एक दिन अरुण बाजार से कुछ सामान खरीदने गया. एक 16-17 साल का लड़का अपने कंधे पर एक बैग लटकाए कुछ बेच रहा था. उस के एक पैर में पोलियो का असर था. लाठी के सहारे चलता हुआ वह अरुण के पास आ कर बोला, ‘‘भैया, क्या आप को पापड़ चाहिए? 10 रुपए का एक पैकेट है.’’

अरुण ने कहा, ‘‘नहीं चाहिए पापड़.’’

लड़के ने थैले से एक शीशी निकाल कर कहा, ‘‘आम का अचार है. चाहिए? पापड़ और अचार दोनों घर के बने हैं. मां बनाती हैं.’’

अरुण के मन में दया आ गई. उस के पास 5 रुपए ही बचे थे. उस ने लड़के को देते हुए कहा, ‘‘मुझे कुछ चाहिए तो नहीं, पर तुम इसे रख लो.’’

अरुण ने रुपए उस के हाथ में पकड़ा दिए. दूसरे ही पल वह लड़का गुस्से से बोला, ‘‘मैं विकलांग हूं, पर भिखारी नहीं. मैं मेहनत कर के खाता हूं. जिस दिन कुछ नहीं कमा पाता, मांबेटे पानी पी कर सो जाते हैं.’’

इतना बोल कर उस लड़के ने रुपए अरुण को लौटा दिए. पर वह अरुण की आंखों में उम्मीद की किरण जगा गया. वह सोचने लगा, ‘जब यह लड़का जिंदगी से हार नहीं मान सकता है, तो मैं क्यों मानूं?’

अरुण के पास दिल्ली में मिले कुछ रुपए बचे थे. वह कोलकाता गया. वहां के मंगला मार्केट से थोक में कुछ जुराबें, रूमाल और गमछे खरीद लाया. ट्यूशन के बाद बचे समय में न्यू मार्केट और महावीर मंदिर के पास फुटपाथ पर उन्हें बेचने लगा.

इस इलाके में सुबह से ले कर देर रात तक काफी भीड़ रहती थी. अरुण की अच्छी बिक्री हो जाती थी.

शुरू में अरुण को कुछ झिझक होती थी, पर बाद में उस का इस में मन लग गया. इस तरह उस ने देखा कि एक हफ्ते में तकरीबन 7-8 सौ रुपए, तो कभी हजार रुपए की बचत होती थी.

इस बीच बहुत दिन बाद उसे आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘अगले हफ्ते मेरी शादी होने वाली है. कार्ड पोस्ट कर दिया है. तुम जरूर आना और मां को भी साथ लाना.’’

अरुण मां के साथ आभा की शादी में सगुना मोड़ उस के घर गया. आभा ने अपनी मां, बहन और पति से उन्हें मिलवाया और कहा, ‘‘मैं जिंदगीभर अरुण की कर्जदार रहूंगी. मुझे नौकरी अरुण की वजह से ही मिली थी.’’

शादी के बाद आभा दिल्ली चली गई. अरुण की दिनचर्या पहले जैसी हो गई.

एक दिन आभा का फोन आया. उस ने कहा, ‘‘मेरे पति गुड़गांव की एक गारमैंट फैक्टरी में डिस्पैच सैक्शन में हैं. फैक्टरी से मामूली डिफैक्टिव कपड़े सस्ते दामों में मिल जाते हैं. तुम चाहो, तो इन्हें बेच कर अच्छाखासा मुनाफा कमा सकते हो.’’

अरुण बोला, ‘नेकी और पूछपूछ… मैं गुड़गांव आ रहा हूं.’

इधर अरुण उस पापड़ वाले लड़के का स्थायी ग्राहक हो गया था. उस का नाम रामू था. हर हफ्ते एक पैकेट पापड़ और अचार की शीशी उस से लिया करता था. अब अरुण महीने 2 महीने में एक बार दिल्ली जा कर कपड़े लाता और उन्हें अच्छे दाम पर बेचता.

धीरेधीरे अरुण का कारोबार बढ़ता गया. उस ने कंकड़बाग में एक छोटी सी दुकान किराए पर ले ली थी. बीचबीच में कोलकाता से भी थोक में कपड़े लाया करता. कारोबार बढ़ने पर उस ने एक बड़ी दुकान ले ली.

अरुण की शादी थी. उस ने आभा को भी बुलाया. वह भी पति के साथ आई थी. अरुण ने उस पापड़ वाले लड़के को भी अपनी शादी में बुलाया था.

शादी हो जाने के बाद जब अरुण अपनी मां के साथ मेहमानों को विदा कर रहा था, अरुण ने आभा को उस की मदद के लिए थैंक्स कहा.

आभा ने कहा, ‘‘अरे यार, नो मोर थैंक्स. हिसाब बराबर. हम दोस्त  हैं.’’

फिर अरुण ने रामू को बुला कर सब से परिचय कराते हुए कहा, ‘‘आज मैं जोकुछ भी हूं, इस लड़के की वजह से हूं. मैं तो जिंदगी से निराश हो चुका था. मेरे अंदर जीने की इच्छा को इस स्वाभिमानी मेहनती रामू ने जगाया.’’

तब अरुण रामू से बोला, ‘‘मुझे अपनी दुकान में एक सेल्समैन की जरूरत है. क्या तुम मेरी मदद करोगे?’’

रामू ने हामी भर कर सिर झुका कर अरुण को नमस्कार किया.

अरुण बोला, ‘‘अब तुम्हें घूमघूम कर सामान बेचने की जरूरत नहीं है. मैं ने यहां के विधायक को अर्जी दी है तुम्हें अपने फंड से एक तिपहिया रिकशा देने की. तुम उसे आसानी से चला सकते हो और आजा सकते हो.’’

अरुण, आभा, रामू और बाकी सभी की आंखें खुशी से नम थीं. तीनों एकदूसरे के मददगार जो बने थे.

Emotional Story : वापसी – क्या वापस लौटा पूनम का फौजी पति

Emotional Story : आंगन में तुलसी के चबूतरे पर लगी अगरबत्ती की खुशबू ने पूरे घर को महका दिया था. पूनम अभीअभी पूजा कर के रसोईघर में गई ही थी कि दादी मां ने रोज की तरह चिल्लाना शुरू कर दिया था, “अरी ओ पूनम, पूजापाठ का ढकोसला खत्म हो गया तो चायवाय मिलेगी कि नहीं.

“ऐसे भी कौन सा सुख दिया है भगवान ने… मेरे हंसतेखेलते परिवार की सारी खुशियां छीन लीं,” बोलते हुए दादी मां ने गुस्से से अपनी भौएं सिकोड़ ली थीं.

पूनम ने रसोईघर में से झांकते हुए कहा, “चाय बन गई है दादी मां, अभी लाती हूं.”

माथे पर बिंदी, दोनों कलाइयां कांच की चूड़ियों से भरी हुईं, लाल रंग के सलवारकमीज में पूनम किसी नई दुलहन सी दिख रही थी.

दादी मां को चाय दे कर पूनम मुड़ी ही थी कि उन्होंने फुसफुसाना शुरू कर दिया, “आदमी का तो कुछ अतापता नहीं है… जिंदा भी है कि नहीं, फिर भी न जाने क्यों इतना बनसंवर कर रहती है…”

पूनम ने सबकुछ सुन कर भी अनसुना कर दिया था. और करती भी क्या. उस के दिन की शुरुआत रोज ऐसे ही दादी मां के तीखे शब्दों से होती थी.

दादी मां को चाय देने के बाद पूनम अपने ससुर को चाय देने के लिए उन के कमरे में जाने लगी, तो उन्होंने उसे आवाज दे कर कहा, “पूनम बेटा, मेरी चाय बाहर ही रख दे, मैं उधर ही आ कर पी लूंगा.”

“जी पापा,” बोल कर पूनम वापस चली आई थी.

पूनम के ससुर शशिकांतजी रिटायर्ड आर्मी आफसर थे. उन का बेटा मोहित भी सेना में जवान था. पूनम मोहित की पत्नी थी. 3 साल पहले ही मोहित और पूनम का ब्याह हुआ था और ब्याह के 2-4 दिन बाद ही मोहित को किसी खुफिया मिशन पर जाने के लिए सेना में वापस बुला लिया गया था.

इस बात को 3 साल बीत चुके थे, पर अब तक मोहित वापस नहीं लौटा था और न ही उस की कोई खबर आई थी, इसलिए फौज की तरफ से उसे गुमशुदा घोषित कर दिया गया था.

मोहित के लापता होने की खबर से शशिकांतजी की पत्नी को गहरा सदमा लगा था, जिस के चलते वे कोमा में चली गई थीं. डाक्टर का कहना था कि मोहित की वापसी ही उन के लिए दवा का काम कर सकती है.

पूनम को विश्वास था कि मोहित जिंदा है और एक दिन जरूर वापस आएगा. उस के इस विश्वास को कायम रखने के लिए शशिकांतजी पूरा सहयोग देते थे. उन्हें पूनम का पहनओढ़ कर रहना पसंद था. मोहित के हिस्से का लाड़प्यार भी वे पूनम पर ही लुटाते थे.

पूनम ने फैशन डिजाइनिंग का कोर्स किया हुआ था. उस की शादी के कुछ समय बाद ही उस के ससुर ने एक बुटीक खुलवा दिया था.

तब दादी मां ने इस बात का भरपूर विरोध करते हुए कहा था कि समय काटने के लिए घर के काम कम होते हैं क्या. पर शशिकांतजी ने उन की एक न सुनी थी.

सास की बीमारी के बाद घर के कामकाज की पूरी जिम्मेदारी पूनम के कंधों पर आ गई थी. बुटीक के साथ वह घर भी बखूबी संभाल रही थी. पर दादी मां हमेशा उस से नाराज ही रहती थीं. उन्हें पूनम का साजसिंगार करना, गाड़ी चलाना, बुटीक जाना बिलकुल नहीं सुहाता था. वे पूनम को ताने मारने का एक भी मौका अपने हाथों से जाने नहीं देती थीं.

समय बीतता जा रहा था. मोहित की मां की तबीयत में कोई सुधार नहीं था. इस बीच पूनम के मातापिता कई बार उसे अपने साथ घर ले जाने के लिए आए, पर हर बार उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा. पूनम का कहना था कि मोहित वापस आएगा तो उसे यहां न पा कर परेशान होगा और उस के परिवार की जिम्मेदारी भी अब मेरी है. अब ससुराल ही मेरा मायका है.

शशिकांतजी को पूनम की ऐसी सोच और समझदारी पर बहुत गर्व होता था.

एक दिन शशिकांतजी के करीबी दोस्त कर्नल मोहन घर आए और बोले, “शशि, मैं एक प्रस्ताव ले कर तेरे पास आया हूं.”

“कैसा प्रस्ताव?” शशिकांतजी ने पूछा.

इस के बाद उन दोनों दोस्तों ने बहुत देर तक साथ में समय बिताया और बातें कीं, फिर कर्नल मोहन जातेजाते बोले, “मुझे तेरे जवाब का इंतजार रहेगा.”

कर्नल मोहन के जाने के बाद शशिकांतजी काफी दिन तक किसी गहरी सोच में डूबे रहे. पूनम ने कई बार पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने ‘चिंता की कोई बात नहीं’ बोल कर उसे टाल दिया. पर मन ही मन वे पूनम के लिए एक बड़ा फैसला ले चुके थे, जिस की चर्चा पूनम के मातापिता से करने के लिए आज वे उस के मायके जा रहे थे. पूनम इस बात से पूरी तरह बेखबर थी.

पूनम के बुटीक जाते ही शशिकांतजी घर से निकल गए थे. उन्हें अचानक यों देख कर पूनम के मातापिता थोड़े चिंतित हो उठे थे. पूनम के पिताजी ने हाथ जोड़ कर शशिकांतजी से पूछा, “आप अचानक यहां, सब ठीक तो है न?”

“हांहां, सब ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं…” शशिकांतजी बोले, “मैं ने पूनम के लिए एक फैसला लिया है, जिस में आप दोनों की राय लेना जरूरी था.”

यह सुन कर पूनम के मातापिता एकदूसरे की तरफ हैरानी से देखने लगे. पूनम की मां ने बड़े ही उतावलेपन से पूछा, “कैसा फैसला भाई साहब?”

शशिकांतजी ने कहा, “पूनम के दूसरे ब्याह का फैसला.”

“यह आप क्या कह रहे हैं… यह कैसे मुमकिन है…” पूनम के पिता ने हैरानी से.

शशिकांतजी बोले, “क्यों मुमकिन नहीं है? मोहित की वापसी अब एक सपने जैसी है. चार दिन की शादी को निभाने के लिए पूनम अपनी पूरी जिंदगी अकेलेपन के हवाले कर दे, ऐसा मैं नहीं होने दे सकता. उस बच्ची के विश्वास पर अपने यकीन की मोहर अब और नहीं लगा सकता. बिना किसी दोष के वह एक अधूरेपन की सजा क्यों काटेगी…”

“पर भाई साहब…” पूनम की मां ने बीच में बोलना चाहा तो शशिकांतजी ने उन्हें रोकते हुए कहा, “माफ कीजिएगा, पर मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई है.”

इतना कह कर वे आगे बोले, “मैं अपने बेटे के मोह में पूनम के भविष्य की बलि नहीं चढ़ने दूंगा. आज मेरी जगह मोहित भी होता तो पूनम के लिए इस तरह की अधूरी जिंदगी उसे कभी स्वीकार नहीं होती.

“आप दोनों ने उसे जन्म दिया है. उस की जिंदगी का इतना बड़ा फैसला लेने के पहले आप को इस की सूचना देना मेरा फर्ज था, इसलिए चला आया वरना पूनम का कन्यादान करने का फैसला मैं ले चुका हूं. अब आज्ञा चाहता हूं.”

शशिकांत जी के जाने के बाद पूनम के मातापिता बहुत देर तक सोचते रहे कि वे अपनी बेटी के भविष्य के बारे में इतनी गहराई से नहीं सोच पाए, पर शशिकांतजी जैसे लोग बहू को बेटी की जगह रख कर अपनी सोच का लैवल कितना ऊपर उठाए हुए हैं. पूनम के दूसरे ब्याह के बारे में सोचते समय मोहित का चेहरा न जाने कितनी बार उन की आंखों के सामने घूमा होगा.

पूनम के मायके से लौटने के बाद शशिकांतजी अपने कमरे से बाहर नहीं आए थे. पूनम शाम की चाय ले कर उन के कमरे में ही चली गई थी. चाय का कप टेबल पर रखते हुए उस ने पूछा, “क्या हुआ पापा? तबीयत ठीक नहीं है क्या?”

“सब ठीक है बेटा,” उन्होंने जवाब दिया और कहा, “आ थोड़ी देर मेरे पास बैठ, तुझ से कुछ बात करनी है.”

“जी पापा,” बोल कर पूनम उन के पास बैठ गई.

शशिकांतजी ने एक गहरी सांस ली और बोलना शुरू किया, “मोहित की गैरमौजूदगी में तू ने इस घर की जिम्मेदारियों के साथसाथ हम सब को भी बहुत अच्छे से संभाला है. अपने छोटेबड़े हर फर्ज को तू ने प्यार और अपनेपन से निभाया है. इतना ही नहीं, अपनी दादी मां के रूखे बरताव के बाद भी तू कभी उन की सेवा करने से पीछे नहीं हटी. अगर मैं यह कहूं कि मोहित की कमी तू ने कभी महसूस ही नहीं होने दी, तो यह गलत नहीं होगा.

“पर अब नहीं बेटा. मैं चाहता हूं कि मोहित की चंद यादों का जो दायरा तू ने अपने आसपास बना रखा है, उसे तोड़ कर तू बाहर निकले और जिंदगी में आगे बढ़े…”

पूनम ने कहा, “आज अचानक ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं आप? कुछ हुआ है क्या? मोहित की कोई खबर आई क्या? बोलिए न पापा, क्या हुआ है?” पूनम बेचैन हो उठी थी.

शशिकांतजी ने भरे हुए गले से कहा, “कोई खबर नहीं आई मोहित की और न ही आएगी. उस की वापसी की उम्मीद अब छोड़नी होगी हमें.”

पूनम जोर से चिल्लाते हुए बोली, “नहीं पापा, ऐसा मत कहिए…” इतने साल से पति के बिछड़ने का दर्द जो उस ने अपने अंदर दबा कर रखा था, वह आज आंसुओं की धार के साथ बहता जा रहा था.

शशिकांतजी ने पूनम के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “आज यह लाचार और बेबस पिता तुझ से कुछ मांगना चाहता है बेटा, मना मत करना. बहुत सोचसमझ कर मैं ने तेरा कन्यादान करने का फैसला लिया है.”

पूनम ने चौंकते हुए कहा, “पापा, आप भी…” कमरे से बाहर जातेजाते वह रुकी और बोली, “आप गलत कह रहे हैं पापा, अगर मोहित की कमी मैं पूरी कर पाती तो मम्मी आज अस्पताल में कोमा में न होतीं, दादी मां को मुझ से इतनी नफरत न होती और आज आप मुझे इस घर से विदा करने की बात नहीं करते,” ऐसा बोल कर वह तेजी से कमरे से बाहर निकल गई.”

पूनम के जाने के बाद शशिकांतजी सोच में पड़ गए थे कि ‘आप भी’ से पूनम का क्या मतलब था.

इस बात को 8 दिन बीत चुके थे. शशिकांतजी अपने फैसले पर अटल थे. उन के इस फैसले से दादी मां बहुत नाराज थीं और दादी मां ने उन से बात करना बंद कर दिया था. पर उन्होंने हार नहीं मानी थी.

शशिकांतजी एक बार फिर पूनम को समझाने की उम्मीद से उस के बुटीक पहुंच गए थे. उन्हें देखते ही पूनम ने कहा, “अरे पापा, आप यहां कैसे?”

“कुछ नहीं बेटा, शाम की सैर के लिए निकला था…” शशिकांतजी बोले, “सोचा तुझे देख लेता हूं… तेरा काम खत्म हो गया होगा तो साथ में घर चलेंगे.”

पूनम ने कहा, “पापा, मुझे थोड़ा समय और लगेगा.”

“ठीक है…” शशिकांतजी बोले, “मैं बाहर तेरा इंतजार करता हूं, आ जाना.”

थोड़ी देर बाद बुटीक बंद कर के पूनम अपनी कार ले कर बाहर आ गई. शशिकांतजी ने उस से कहा, “आज मैं गाड़ी चलाता हूं.”

कार चलाते हुए शशिकांतजी ने फिर अपनी बात शुरू की और पूनम से कहा, “तू ने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया बेटा… और उस दिन तू ने ‘आप भी’ ऐसा क्यों कहा था?”

पूनम ने कहा, “मोहित ने मिशन पर जाने से पहले मुझे कसम दी थी कि अगर वह वापस नहीं लौटा तो मैं उस के इंतजार में अपनी पूरी जिंदगी नहीं निकालूंगी और एक नई शुरुआत करूंगी. उस दिन आप ने भी वही बात कह दी. आप ही की तरह शायद वह भी मुझे अपने से दूर करना चाहता था.”

शशिकांतजी को इस बात की बहुत खुशी हो रही थी कि मोहित के बारे में उन की सोच गलत नहीं थी. वह भी पूनम के लिए इस तरह की अधूरी जिंदगी नहीं चाहता था.

शशिकांतजी अपने फैसले पर अब और ज्यादा मजबूत हो गए थे. उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “तुझे याद है, कुछ दिन पहले कर्नल मोहन अपने घर आए थे. वे अपने बेटे गौरव के लिए तेरा हाथ मांगने आए थे.

“गौरव की पहली पत्नी का शादी के 4 महीने बाद ही देहांत हो गया था. वह अमेरिका में बहुत बड़ी कंपनी में काम करता है. वह अभी यही है और कुछ दिन में वापस जाने वाला है, इसलिए उन्हें शादी की जल्दी है.

“कर्नल मोहन को मैं बहुत सालों से जानता हूं. वे बेहद सुलझे और समझदार लोग हैं. तू बहुत खुश रहेगी… और तुझे तो गौरव के साथ अमेरिका में ही रहना होगा. इस रिश्ते के लिए हां कह दे बेटा,” शशिकांतजी ने जोर देते हुए पूनम से कहा.

पूनम ने जवाब दिया, “मुझे नहीं पता था पापा कि आप के लाड़प्यार का कर्ज मुझे एक दिन आप से दूर जा कर चुकाना पड़ेगा.”

शशिकांतजी ने पूनम और गौरव का रिश्ता तय कर दिया. पूनम के मातापिता को भी खबर कर दी गई.

शादी का दिन आ चुका था. बंगले की सजावट शशिकांतजी ने पूनम की पसंद के लाल गुलाब के फूलों से कराई थी.

बरात जैसे ही बंगले के सामने पहुंची तो शशिकांतजी ने सभी का स्वागत किया. थोड़ी देर बाद पूनम की मां उसे मंडप में ले जाने के लिए आईं, तो पूनम ने कस कर अपनी मां के हाथों को पकड़ा और कहा, “मुझ से यह नहीं होगा मां. मेरा मन बहुत घबरा रहा है. पता नहीं क्यों बारबार ऐसा लग रहा है कि मोहित यहीं कहीं आसपास है.

“मैं किसी और से शादी नहीं कर सकती. यह सब होने से रोक दो मां,” पूनम अपनी मां के सामने हाथ जोड़ कर रोते हुए बोली और बेसुध हो कर जमीन पर गिर पड़ी.

पूनम की मां उस के बेसुध होने की सूचना देने बाहर आईं तो उन्होंने देखा कि फौज की एक गाड़ी बंगले के बाहर आ कर रुकी है. उस में से सेना के 2 जवान उतरे, फिर उन्होंने हाथ पकड़ कर काला चश्मा पहने एक शख्स को गाड़ी से नीचे उतारा.

विवाह समारोह में आए सभी लोगों की नजरें बड़ी हैरानी से उस शख्स को देख रही थीं. उसे देखते ही शशिकांतजी की आंखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ पड़ा.

“मोहित… मेरे बेटे, तू ने बहुत इंतजार कराया,” बोलते हुए शशिकांतजी ने उसे अपने सीने से लगा कर बेटे की वापसी की तड़प को शांत कर दिया.

पूनम की मां खुशी से भागते हुए अंदर गईं और उन्होंने पूनम के ऊपर पानी के छींटे मारे, फिर जोर से उसे झकझोर कर बोलीं, “उठ बेटा, बाहर जा कर देख… तेरे विश्वास ने आज तेरे सुहाग की वापसी कर ही दी.”

पूनम सभी मर्यादाओं को लांघ कर गिरतीपड़ती भागते हुए बाहर गई और मोहित से जा लिपटी. वह फूटफूट कर रोते हुए बोली, “आखिर आप ने मेरे विश्वास की लाज रख ही ली मोहित.”

शोरगुल की आवाज से दादी मां भी बाहर आ गई थीं और मोहित को देख कर अपने आंसुओं के बहाव को रोक नहीं पाई थीं.

मोहित ने पूनम से कहा, “मेरी वापसी एक अधूरेपन के साथ हुई है पूनम. लड़ाई में मैं अपनी दोनों आंखें गंवा चुका हूं. जिसे अब खुद हर समय सहारे की जरूरत पड़ेगी वह तुम्हारा सहारा क्या बनेगा.”

पूनम ने चिल्लाते हुए कहा, “यह कैसी बात कर रहे हैं आप. हम पूरी जिंदगी के साथी है. हमें एकदूसरे के सहारे और हमदर्दी की नहीं, बल्कि साथ की जरूरत है…” इतना कह कर पूनम ने अपना हाथ मोहित के आगे बढ़ाया और कहा, “आप देंगे न मेरा साथ?”

गौरव इतनी देर से दूर खड़ा हो कर सब देख रहा था. उस ने मोहित का हाथ पकड़ कर अपने हाथों से पूनम के हाथ में दे दिया.

पूनम कर्नल मोहन के पास गई और हाथ जोड़ कर बोली, “मुझे माफ कर दीजिए अंकल. इस घर और मोहित को छोड़ कर मैं कहीं नहीं जा सकती.”

कर्नल मोहन ने पूनम के सिर पर हाथ रख कर अपना आशीर्वाद दे दिया.

Sexual Tips : मुझे चिंता है मेनोपौज से मेरी कामेच्छा खत्म न हो जाए

Sexual Tips : मेरी उम्र 51 साल की है. मैं और मेरे पति अच्छा वैवाहिक जीवन जी रहे हैं. सैक्स लाइफ अच्छी है. मैं अब मेनोपौज के दौर से गुजर रही हूं. मेरे पति रोज मेरे साथ सैक्स करते हैं और मैं भी एंजौय करती हूं. लेकिन डर लग रहा है कि मेनोपौज से मेरी कामेच्छा खत्म न हो जाए और मेरे पति मुझ से खुश न रह पाएं. क्या मेरा ऐसा सोचना सही है?

यह सच है कि मेनोपौज के कारण महिलाओं की कामेच्छा कम हो जाती है या कई महिलाओं में यह बिलकुल खत्म हो जाती है लेकिन सभी महिलाओं के केस में ऐसा नहीं होता. महिलाओं में कुछ थोड़े बदलाव देखने को मिलते हैं. कई रिसर्च में यह सामने आया है कि कुछ महिलाओं में मेनोपौज के बाद कामेच्छा और बढ़ जाती है. मेनोपौज का अनुभव व्यक्तिगत तौर पर अलगअलग हो सकता है. जबकि कुछ महिलाओं के अनुभवों में समानताएं हो सकती हैं.

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Best Friend : ‘फ्रैंड्स विद बैनिफिट्स’ का चलन आखिर है क्या?

Best Friend : मैं ने इसी साल अपनी स्कूलिंग खत्म की है. अब मैं कालेज जाती हूं. आजकल एक बात ‘फ्रैंड्स विद बेनिफिट्स’ बहुत बोली जाती है. मैं इस रिलेशनशिप को अच्छी तरह समझ नहीं पाती. थोड़ा कन्फ्यूज्ड हूं. जरा मुझे क्लीयर करेंगे क्या?

यह एक यूनिक प्रकार का फिजिकल रिलेशनशिप होता है जिस में दोनों व्यक्ति दोस्त होते हैं लेकिन साथ ही एक बौयफ्रैंड और गर्लफ्रैंड वाला रिश्ता शेयर करते हैं. इस रिश्ते को स्टिंग अटैच भी कहा जाता है.

फ्रैंड्स विद बेनिफिट्स ऐसा इंटीमेट रिलेशनशिप है जिस के कुछ नियम होते हैं. ये नियम दोनों ही पार्टनर्स को एकसमान मानने पड़ते हैं. वे चाहें तो इस रिलेशनशिप में एकदूसरे की सहमति के साथ नए नियम भी बना सकते हैं. हालांकि हर मामले में फ्रैंड्स विद बेनिफिट्स का मतलब केवल फिजिकल रिलेशनशिप नहीं होता. कुछ लोग इस प्रकार के रिश्तों में केवल एकदूसरे से मिलना व बात करना पसंद करते हैं.

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