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Health Update : भारत में वयस्कों के मामूली गिरने से चोटिल होने की क्या है वजह, जानें एक्सपर्ट से

Health Update : गिरना वैसे तो आम बात है मगर गिरने के बाद यदि किसी प्रकार की बड़ी चोट लग जाए तो चिंता की बात है. कुछ लोग छोटेमोटे गिरने से ही चोटिल हो जाते हैं इस की बड़ी वजह गिरने वाले व्यक्ति में ही छुपी है, पढ़िए.

75 वर्षीय सुहासी पिछले 5 सालों से बेड पर हैं क्योंकि उन की कमर की हड्डी बाथरूम में गिरने की वजह से टूट चुकी है. उन्होंने कई डाक्टरों से जांच करवाई और दवाइयां लीं, लेकिन वह फिर से चल नहीं पाई. डाक्टर्स का कहना है कि उन की हड्डियों में ताकत नहीं है, इसलिए वह खड़ी नहीं हो सकतीं. बेड पर ही उन्हें सबकुछ करना पड़ता ह. बेड पर बैठ कर बड़ी मुश्किल से वह सिर्फ खाना खा सकती हैं, लेकिन उठ कर थोड़ी देर के लिए किसी कुर्सी पर बैठना उन के लिए संभव नहीं.

पिछले 5 साल से वह अपनी अवस्था को ले कर परेशान हैं, लेकिन आगे इलाज संभव नहीं ऐसा मानकर उन की जिंदगी अब उन के बेटे और हाउस मेड पर निर्भर है. कभी एक पेट्रोल पम्प की मालकिन रह चुकीं एक्टिव सुहासी की ये दुर्दशा कम उम्र में खुद को सही तरह से देखभाल न करना है, क्योंकि उन की हड्डियां अब खोखली हो चुकी हैं जो उन के शरीर का भार वहन नहीं कर पा रही हैं. आज उन की ये दशा उन के और परिवार के लिए एक बोझ बन चुकी है.

यह सही है कि बढ़ती उम्र के साथ वयस्कों का कई बार गिरना आम बात है, जिस में उन की हड्डियां कमजोर होने की वजह से जल्दी टूट जाती हैं, जिस से वे अपाहिज हो जाते हैं और इस का असर पूरे परिवार पर पड़ता है. परेशान हो कर कई बार परिवार उन्हें ओल्ड ऐज होम मे भी डाल आते हैं, जैसा मधुसूदन के साथ हुआ.

व्यवसायी परिवार के मधुसूदन पूरी लाइफ काम करते हुए बिताया, लेकिन एक दिन वे फिसल कर कमरे में ही गिरे और उन के सिर पर चोट लगी और एक क्लाट सिर के अंदर बन गया. उन की उम्र को देखते हुए डाक्टर ने औपरेशन से मना कर दिया. अब उन की यादाश्त धीरेधीरे कमजोर होती गई. वे हर बात को भूलने लगे. उन का काफी इलाज उन की बेटियों ने करवाया, लेकिन वे ठीक नहीं हुए. उन्होंने खाना खाया या नहीं, नहाया या नहीं, सब भूलने लगे. अंत में उन्हें नवी मुंबई की एक अच्छे ओल्ड एज होम में बेटियों ने रहने का इंतजाम किया, क्योंकि दोनों बेटियां जौब करती हैं और घर पर देखने वाला कोई नहीं. ओल्ड एज होम में रखने के लिए उन्होंने एक बड़ी रकम दी है, ताकि उन के पिता की अच्छी देखभाल हो सके.

भारत में वयस्कों के गिरने की संख्या अधिक होने के कई कारण हैं, जिन में वयस्कों की जनसंख्या में वृद्धि, मैडिकल व्यवस्था की वजह से अधिक उम्र तक जीवित रहना और ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी का होना, जिस से वे खुद की देखभाल अच्छी तरह नहीं कर पाते और उम्र होने पर कमजोर होते जाते हैं.

क्या कहती है आंकड़े

आंकड़े बताते हैं कि भारत में वयस्कों के गिरने की संख्या पहले से बहुत अधिक बढ़ चुकी है और ये लगातार बढ़ती ही जा रही है, जबकि जापान, चीन, यूरोप और अमेरिका में इस की संख्या काफी कम है. भारत में लोग अधिकतर अपने परिवार के साथ रहते हैं, जबकि विदेशों में अकेले रहने वाले वयस्कों की संख्या बहुत अधिक है, फिर भी उन के गिरने की संख्या कम है. भारत में वयस्कों के गिरने की संख्या 14 प्रतिशत से 51 प्रतिशत है, जबकि अमेरिका में 30 प्रतिशत और जापान में 13.7 प्रतिशत है.

कम उम्र से शुरू करें एक्सरसाइज

इस बारे में मुंबई की जीनोवा शाल्बी हौस्पिटल के इंटरनल मैडिसिन एक्सपर्ट डा. उर्वी माहेश्वरी कहती हैं कि विदेशों में गिरने की संख्या कम होने की खास वजह डाइट और एक्सरसाइज़ है, क्योंकि विदेशों में लोग खानपान पर खास ध्यान देते हैं, जिस में वे प्रोटीन, विटामिन्स का सेवन नियमित करते हैं. साथ ही वे नियम से एक्सरसाइज भी करते हैं, जो हमारे देश में लोग नहीं करते, इसलिए बहुत कम उम्र में उन की तोंद बाहर निकल आती है. कम उम्र में किया गया व्यायाम बड़ी उम्र में भी व्यक्ति को संभालना है. अगर आप कम उम्र में सेहत का ख्याल नहीं करेंगे, तो तकलीफ मिलना लाजमी है. जब से व्यक्ति चलना शुरू करता है, तभी से उसे व्यायाम करने की जरूरत होती है.

वयस्क स्त्रियों के गिरने की संख्या अधिक

इस के आगे उर्वी कहती हैं कि “हमारे देश में औरतें घरेलू हो या कामकाजी, परिवार को देखने में अपना पूरा समय खराब करती हैं, खुद पर ध्यान नहीं देतीं. इसलिए यंग एज में एक्सरसाइज न करने पर बुढ़ापे में हड्डियां, नसें और मसल्स कमजोर होने लगती हैं जबकि वैस्टर्न कंट्रीस में शुरू से ही वे खुद पर अधिक ध्यान देते हैं. उस के बाद उन के घरपरिवार का नंबर आता है. इतना ही नहीं वे खानपान पर भी अधिक ध्यान देते हैं, रेगुलर एक्सरसाइज करते हैं, इस से वे फ्रेश रहते हैं.

“साथ ही वे 5 दिन जमकर काम करते हैं, दो दिन आराम करते हैं, जो यहां के लोग कभी नहीं करते, जिस का परिणाम उन्हें अधिक उम्र में सहना पड़ता है. उन्हें हड्डियों का फ्रैक्चर होने के साथसाथ कई प्रकार की बीमारियों से रिकवरी के चांसेस भी कम हो जाते हैं, जिस से व्यक्ति तब डिप्रेशन में चला जाता है. इस के अलावा गिरने की समस्या पुरुषों से अधिक स्त्रियों में होती है, क्योंकि स्त्रियां अपने शरीर का ध्यान अधिक नहीं रखतीं, वे पूरा समय अपने परिवार पर लगा कर खुद को धन्य मानती हैं.”

कमजोर हड्डियां, अधिक फ्रैक्चर

डाक्टर कहती हैं कि 60 साल के बाद अधिकतर वयस्कों को शुगर और ब्लड प्रेशर की बीमारी रहती है और लोंग टर्म शुगर वाले को हार्ट अटैक, किडनी का डैमेज होना, पेरालैसिस आदि कई बीमारियां होने का रिस्क रहता है. सब से अधिक फ्रैक्चर होता है, क्योंकि हड्डियां कमजोर होने लगती है और थोड़ा भी धक्का लगने पर तुरंत फ्रैक्चर हो जाता है. कमर, हिप, हाथपैर आदि हर जगह फ्रैक्चर का खतरा बढ़ जाता है. इस के अलावा इस उम्र में ओस्टोअर्थराइटिस की बीमारी भी बहुत अधिक होता है, जिस में घुटने की हड्डियां घिसने लगती हैं क्योंकि एक उम्र के बाद हड्डियों में से कोलाजन कम होने लगता है, जिस की वजह से हड्डियां घिसने लगती हैं और डाक्टर उन्हें नी रिप्लेसमेंट की सलाह देते हैं. इस के अलावा कम सुनने की बीमारी, दांतों का अचानक गिरने लगना आदि कई होते रहते हैं.

खुद से करें अपना काम

इस के आगे डा. उर्वी कहती हैं कि “हमारे देश में पुरुष 60 साल के बाद रिटायर हो जाते हैं, वे कामकाज पूरी तरह से छोड़ कर आराम करने लगते हैं, जबकि स्त्रियां घर में बहू बेटी पर निर्भर हो जाती हैं. एक गिलास पानी भर कर भी पीना नहीं चाहतीं, ये आलसपन उन्हे मोटापा और कई बीमारियों की तरफ ले जाती है. जितना आलसपन उन्हें घेरेगी, उतना ही उन के शरीर को नुकसान होता जाएगा. जब तक इंसान जिंदा है, उसे शारीरिक और मानसिक तौर पर ऐक्टिव रहने की जरूरत है, ताकि उन के मसल्स और हड्डियां मजबूत रहें. दूसरों पर जो काम हम थोपते हैं, मसलन पानी ले कर आओ, चाय बना दो, खाना परोस दो आदि. ऐसे सभी काम खुद करते रहें, जरूरत पड़े तो झाड़ू भी खुद लगा लें, ताकि मसल्स आप का हमेशा साथ देते रहे.

घर के इंटीरियर में करें बदलाव

अगर किसी के घर में वयस्क हैं तो घर के इंटीरियर में कुछ बदलाव अवश्य करने चाहिए, जिस से अगर वे फिसलते भी हैं तो वे कुछ पकड़ कर खुद को गिरने से बचा सकते हैं जो निम्न है,

• अगर आप के घर में इंडियन बाथरूम है, तो उसे बदल कर वैस्टर्न बाथरूम बनाएं, ताकि घुटने की हड्डी घिसे नहीं.

• बाथरूम के बगल में हैंडल का प्रावधान रखें, ताकि वे उसे पकड़ कर उठ सकें.

• बाथरूम और कमरे में हर जगह सही लाइटिंग होने की जरूरत है, ताकि वयस्कों को चलने में हर चीज साफसाफ दिखे.

• रात में डिम लाइट वयस्कों के रहने के स्थान से बाथरूम, किचन, पैसेज आदि स्थानों पर जला कर रखें, ताकि वे जरूरत के अनुसार ववहां आ और जा सकें, क्योंकि कई बार उन्हे अंधेरे में स्विच बटन दिखाई नहीं पड़ते हैं, जिस से वे गिर जाते हैं या स्लिप हो जाते हैं.

• इस के अलावा अगर उन का बैलेंसिंग ठीक नहीं है, तो घर में, हौल में या किचन में थोड़ीथोड़ी दूर पर हैन्डल लगा सकते हैं जिसे पकड़पकड़ कर वे कही भी जा सकते हैं.

• हर वयस्क को 40 से 45 मिनट तक डेली एक्सरसाइज करने की जरूरत होती है, जिस में 25 मिनट वाक करना और बाकी बचे समय में हल्का वेट लिफ्टिंग करना सही रहता है, ताकि हड्डियां मजबूत रहें.

ले संतुलित आहार

डाक्टर कहती हैं कि डाइट हमेशा संतुलित और हैल्दी लेना है, जिस में एक कटोरी दाल, एक कटोरी सब्जी, सलाद आदि दिनभर में लेना है. नशे और जंक फूड को अवौइड करें, तेल और मसालेदार खाना कम खाएं, रोज एक गिलास दूध पिए, एक फल, थोड़े ड्राइ फ्रूट अवश्य लें. उम्र के साथसाथ प्रोटीन कंटेन्ट को बढ़ा कर फैट कंटेन्ट कम कर देना चाहिए.

रखे ध्यान बैलेंस का

उम्र के साथ बैलेंस लोगों में कम हो जाता है, जिस के लिए एक्सरसाइज बहुत जरूरी है, लेकिन फिर भी आप की बैलेंस खराब है तो आप न्यूरोलोजिस्ट की सलाह अवश्य लें, ताकि समय पर उस का इलाज हो सके. इस के अलावा फिजियोंथेरैपी का भी सहारा ले कर बैलेंस को कई बार ठीक किया जा सकता है.

गिरते वक्त खुद को सम्हालने के कुछ सुझाव

अगर किसी वयस्क व्यक्ति की सबकुछ ठीक है, तो गिरते वक्त खुद को अधिक चोट लगने से बचा सकते हैं, जिसे उन्हें खुद ही करना पड़ता है. डा. उर्वी कहती हैं कि गिरते वक्त सिर को बचाना सब से अधिक जरूरी होता है, उम्र के साथ सिर के नस का फटना बहुत आम हो जाता है, क्योंकि सिर की नसे उम्र के साथसाथ मुलायम हो जाती है.

गिरने की वजह से सबडीयूरल हिमेटोमा (subdural hematoma) फार्म होने लगता है और न्यूरोसर्जरी की जरूरत पड़ती है, इसलिए सिर पर चोट लगने से बचना चाहिए. दूसरा उम्र के साथसाथ कमर की हड्डी और हिप बोन काफी कमजोर होने लगता ह. ऐसे में जब व्यक्ति गिरता है, तो कमर या हिप बोन का फ्रैक्चर होना आम होता है.

कभी भी हाथ पर प्रेशर न दें, क्योंकि चेस्ट की तरफ से गिरने पर थोड़ा सही रहता है, लेकिन हाथ पर प्रेशर देने से, हाथ के फ्रैक्चर होने का खतरा रहता है, जिस में अधिकतर हड्डियां चूरचूर हो जाती हैं, इसलिए इसे बचा कर रखना बहुत जरूरी होता है.

डाक्टर की सलाह से लें दवाइयां

अधिक दवाइयां कभी भी न लें, अधिक कैल्शियम लेने से किडनी स्टोन बन सकता है, इसलिए एक दिन कैल्शियम और एक दिन विटामिन की गोली डाक्टर की परामर्श से ले सकते हैं. ओवरडोज कभी न लें ताकि आप के शरीर को नुकसान न पहुंचाएं.

विटामिन डी की गोली हफ्ते में एक दिन 3 महीना हर साल का कोर्स कर सकते हैं ताकि विटामिन डी की कमी शरीर में न हो, इस के अलावा कुछ दवाइयां हड्डियों में जेल भरने वाली आती है, हौर्मोन की दवाइयां भी कई बार दी जाती है, लेकिन उन्हें खुद से कभी नहीं लेना चाहिए, टेस्ट और वैल्यूस के अनुसार डाक्टर की सलाह से लेना आवश्यक होता है.

Romantic Story : मंजिल की ओर – क्यों सोमेंद्र से मिलकर पछता रही थी दीप्ति ?

Romantic Story : ‘‘दीप्ति…’’ पीछे से किसी को अपना नाम पुकारते सुन बुरी तरह चौंकी दीप्ति. उस ने पलट कर देखा तो सामने खड़ा युवक जानापहचाना सा लगा.

‘‘जी…’’ दीप्ति सवालिया भाव लिए बोली.

‘‘अरे दीप्ति, मैं… मुझे नहीं पहचाना,’’ सामने खड़े युवक ने हैरानपरेशान हो कर कहा, पर लाख चाहने पर भी दीप्ति को उस का नाम याद नहीं आ रहा था.
‘‘माफ कीजिए, मैं ने आप को पहचाना नहीं,’’ दीप्ति किसी तरह कह पाई.

‘‘क्या कह रही हो दीप्ति, मुझे नहीं पहचाना? अपने सोमेंद्र को. भई, हद हो गई,’’ सोमेंद्र अपने चिरपरिचित अंदाज में बोला.

‘‘ओह सोमेंद्र,’’ कहते ही दीप्ति के मनमस्तिष्क में पुरानी यादों की आंधी सी उठने लगी.

सोमेंद्र उसे इस तरह राह चलते मिल जाएगा, यह तो उस ने कभी सोचा ही नहीं था. दुनिया गोल है, यह तो वह जानती थी, पर इतनी छोटी है, इस का उसे भान नहीं था.

सोमेंद्र… यानी कि उस का प्रेमी, नहीं, प्रेमी कहना ठीक नहीं होगा, केवल मित्रता थी उस से. ठीक है, मित्र ही सही, पर कई वर्षों बाद यदि मित्र भी मिले तो उस से कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं लोग, दीप्ति सोच रही थी. उस का मन तो न जाने क्यों जड़ हो गया था. मानो उमंगों और आकांक्षाओं का कोई मतलब ही न हो.

‘‘दीप्ति, कहां खो गई तुम,’’ सोमेंद्र पुन: बोला.

‘‘कहीं नहीं, कुछ पुरानी यादों में खो गई थी.’’

‘‘लो… और सुनो. मैं साक्षात तुम्हारे सामने खड़ा हूं और तुम हो कि पुरानी यादों में खोई हुई हो,’’ कहते हुए सोमेंद्र ने जोर से ठहाका लगाया.

‘‘चलो न, मेरे घर चलो, यहां पास ही है,’’ सोमेंद्र ने आग्रह करते हुए कहा.

‘‘नहीं, आज नहीं, जरा जल्दी में हूं, फिर किसी दिन आऊंगी.’’

‘‘ठीक है, घर तो देख लो, नहीं तो आओगी कैसे?’’

‘‘नहीं, आज नहीं, कृपया आज मुझे जाने दो,’’ दीप्ति बोली. वह घबरा गई थी.

‘‘क्या हुआ दीप्ति? तुम तो ऐसे घबरा रही हो, जैसे मैं तुम्हें जबरदस्ती उठा कर ले जाऊंगा. मैं ने तो सोचा था कि इतने दिनों बाद मुझ से मिल कर तुम फूली नहीं समाओगी, पर तुम्हें देख कर तो ऐसा नहीं लगता,’’ सोमेंद्र नाराजगी सी जाहिर करते हुए बोला.

‘‘मैं जरा जल्दी में हूं. फिर भी तुम जोर दे रहे हो तो चलती हूं, पर केवल 5 मिनट के लिए.’’

इतना सुनते ही सोमेंद्र अपना स्कूटर ले आया. स्कूटर पर बैठते ही दीप्ति की विचारधारा पंख लगा कर उड़ चली. पता नहीं, सोमेंद्र क्या सोच रहा है. क्या वह पुन: विवाह का प्रस्ताव रखेगा? क्यों उसे वह अपने घर ले जाने की हठ कर रहा है? जैसे अनेक विचार उस के मनमस्तिष्क में कौंधने लगे.

‘‘आजकल क्या कर रही हो दीप्ति?’’ स्कूटर से उतरते ही सोमेंद्र ने पूछा.

‘‘अभी तो पढ़ ही रही हूं. पिछले साल ही एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की है.’’

‘‘बहुत खुश हो तुम. तुम तो सदा से चिकित्सक ही बनना चाहती थीं. तुम्हारी आकांक्षा पूरी हो गई. अब आगे क्या करने का इरादा है?’’

‘‘आगे… अगर कहीं दाखिला मिल गया, तो आगे भी पढ़ाई का ही इरादा है.’’

‘‘तुम्हें भला दाखिला क्यों नहीं मिलेगा? मेहनती और मेधावी जो हो. मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं.’’

न जाने क्यों दीप्ति को लगा, जैसे सोमेंद्र का स्वर बोझिल हो उठा था.

दीप्ति ने एक बार फिर सोमेंद्र पर गहरी नजर डाली. उसे लगा, यह वह सोमेंद्र नहीं है, जिसे देख कर उस के दिल की धड़कनें बढ़ जाती थीं, जिस की एक झलक पाने की होड़ लग जाती थी उस की सहेलियों में.

‘‘वह देखो, सामने की तीनमंजिला इमारत के बीच वाली मंजिल में मेरी छोटी सी कुटिया है,’’ स्कूटर रोकते ही सोमेंद्र ने इशारा करते हुए कहा.

‘‘ठीक है, अब मैं चलूं, जरा जल्दी में हूं. प्रवेश परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हूं.’’

‘‘यहां तक आ कर अंदर नहीं चलोगी क्या…? कम से कम मेरी पत्नी से तो मिल लो, उस से मिल कर तुम्हें सुखद आश्चर्य होगा.’’

‘‘क्या कह रहे हो? मुझे तो यह जान कर ही सुखद आश्चर्य हुआ है कि तुम्हारा विवाह हो गया है. मगर, फिर भी जब यहां तक आ ही गई हूं, तो तुम्हारी पत्नी से मिल कर ही जाऊंगी.’’

‘‘हां, क्यों नहीं, उसे भी तुम से मिल कर बहुत खुशी होगी,’’ कहता हुआ सोमेंद्र दीप्ति को अपने घर ले गया.

‘‘अरे, मीताली तुम. यहां क्या कर रही हो?’’ सोमेंद्र के घर बचपन की सब से प्यारी सहेली को देख कर दीप्ति ने चौंक कर पूछा.

‘‘दीप्ति, मीताली मेरी पत्नी है,’’ सोमेंद्र ने भेद भरे स्वर में बताया.

‘‘क्या कह रहे हो तुम? इतनी जल्दी तुम ने और मीताली ने विवाह कर लिया. मुझे तो विश्वास ही नहीं होता,’’ दीप्ति अपनी ही रौ में बहे जा रही थी.

‘‘हमारे विवाह को तो 4 साल हो गए दीप्ति,” मीताली बोली, तो दीप्ति का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला ही रह गया.

‘‘अभी तो तुम ने पहली ही हैरानगी देखी है, दूसरी नहीं देखोगी,’’ मीताली बोली.

‘‘वह भी दिखा ही दो,’’ कहते हुए दीप्ति मुसकराई.
तभी सोमेंद्र लगभग 1 साल की बच्ची को गोद में लिए वहां आ खड़ा हुआ.

‘‘लो, इस से मिलो, यह है हमारी बिटिया वत्सला,’’ सोमेंद्र बोला.

‘‘और कोई झटका देना हो, तो वह भी दे ही डालो,’’ दीप्ति वत्सला को गोद में लेती हुई बोली.

‘‘दीप्ति, आज तुम से मिल कर ऐसा लग रहा है, जैसे कोई अपना मिल गया हो. पिछले 4 वर्षों में मैं ने अपने मातापिता और भाईबहनों का मुंह तक नहीं देखा है. वे लोग मेरा मुंह तक नहीं देखना चाहते.’’

‘‘पर, क्यों?’’

‘‘हम दोनों ने मातापिता की अनुमति के बिना कोर्ट में विवाह कर लिया था.

‘‘2 साल तो हम ने बहुत ही परेशानियों में गुजारे. हम दोनों में से कोई भी स्नातक नहीं था. नौकरी मिलती नहीं थी. मातापिता ने संबंध तोड़ लिए थे. तरस खा कर सोमेंद्र के बड़े भाईसाहब ने हमारी थोड़ीबहुत सहायता की. अब यहां उन्हीं के रेस्तरां में काम करते हैं. मुझे भी अब पास के नर्सरी स्कूल में काम मिल गया है.’’

‘‘कितनी अच्छी विद्यार्थी थीं तुम मीताली, और सोमेंद्र तुम, तुम तो चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति लाना चाहते थे. क्यों अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार ली तुम दोनों ने?’’ दीप्ति दुखी स्वर में बोली.

‘‘छोड़ो भी, सब नियति का खेल है. जो होना था हो गया, अब पछताने से क्या फायदा. चलो, चाय पियो,” सोमेंद्र ने वातावरण का तनाव कम करने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘चलो, तुम्हें छोड़ आता हूं, दीप्ति,’’ सोमेंद्र चाय पीते ही खड़ा हो कर बोला.

‘‘फिर आना दीप्ति, तुम से मिल कर बहुत अपना सा लगा,’’ कहते हुए मीताली की आंखें डबडबा आई थीं.

लौटते समय दोनों के बीच मौन पसरा हुआ था. बीच में राह पूछते समय ही इस मौन में व्यवधान आता था. दीप्ति का मन तो दूर कहीं अतीत में चला गया था, जब दीप्ति, मीताली और सोमेंद्र साथसाथ पढ़ते थे.

‘पापा, डा. अंबेडकर की मूर्ति वाले चौराहे पर 2 मिनट के लिए गाड़ी रोक दीजिएगा,’ उस दिन दीप्ति ने अपने पापा से कहा था.

‘ऐसा क्या काम है?’ पापा बोले थे.

‘सोमेंद्र मेरी किताबें ले गया है. 2 सप्ताह होने को आए हैं, न नोट्स लौटाए हैं और न ही मुझे सूचित किया है उस ने. मुझे भी तो पढ़ाई पूरी करनी है. प्रतियोगिता परीक्षा में केवल 2 माह ही शेष हैं,’ दीप्ति क्रोधित स्वर में बोली थी.

‘गली में तो घुप्प अंधेरा है. चलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं,’ कार से उतरते हुए पापा बोले थे.

दरवाजे की घंटी बजते ही सोमेंद्र की मम्मी ने दरवाजा खोला था.

‘दीप्ति… आओ बेटी, आज तो बहुत दिनों बाद दिखाई दी. तुम तो बिलकुल ईद का चांद हो गई हो,’ सोमेंद्र की मम्मी ने चहकते हुए कहा था.

‘आज भी मैं अपनी किताबें लेने आई हूं. आजकल मैं वार्षिक परीक्षा और प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में व्यस्त हूं. सोमेंद्र को बुला दीजिए, मुझे देर हो रही है.’

‘सोमेंद्र तो आज मुंहअंधेरे ही निकल गया था. सुबह विशेष कक्षा होती है न. मैं ने तो सोचा था कि तुम्हारे ही घर गया होगा.’

‘मेरे यहां तो कई सप्ताह से नहीं आया वह, पर मेरी किताबें तो लौटा देनी चाहिए थीं उसे,’nदीप्ति नाराजगी जताती हुई बोली थी.

‘आओ दीदी, देखो तो दीप्ति आई है,’ मम्मी ने सोमेंद्र की बूआ को पुकारा. वह तुरंत आ खड़ी हो दीप्ति को गौर से देखने लगी थीं.

‘लड़की तो बहुत ही सुंदर है, पर अपना सोमेंद्र भी कौन सा कम है. हजारों में एक है. दोनों की जोड़ी खूब जंचेगी,’ बूआजी बोली थीं.

‘जोड़ी…? कैसी जोड़ी? देखिए, हम दोनों मात्र मित्र हैं. आप अपने मन में ये उलटेसीधे विचार मत लाइए,’ दीप्ति तल्खी से बोली. अपने पापा के सामने उन का ऐसा वार्तालाप सुन कर वह बौखला गई थी.

‘हम भी तो मित्र ही कह रहे हैं, हम ने कब कहा कि तुम दोनों एकदूसरे के शत्रु हो?’ कह कर दोनों ननदभौजाई हंस पड़ी थीं.

‘आप लोग तो कुछ समझती ही नहीं हैं न. सोमेंद्र मेरी किताबें लाया था. मुझे उन की सख्त जरूरत है. यदि वे उस के कमरे में रखी हों तो दे दें और ये जोड़ी आदि मिलाने की बात न ही करें तो अच्छा है. शायद आप लोग मित्रता का अर्थ ही नहीं समझतीं,’ दीप्ति ने झुंझला कर कहा था.

‘हमें नहीं मालूम कहां हैं तुम्हारी किताबें?’ सोमेंद्र की मम्मी रूखे स्वर में बोली थीं, ‘अरे, माना कि अमीर बाप की एकलौती बेटी हो, पढ़ने में तेज हो, पर हमारा सोमेंद्र भी कम नहीं है. हर क्षेत्र में तुम से बीस ही पड़ेगा, उन्नीस नहीं. लड़कियों को इतना दिमाग शोभा नहीं देता. गृहस्थी में खपना कठिन हो जाता है,’ वे अपनी ही रौ में बहे जा रही थीं.

उधर अपने पिता का तमतमाया चेहरा देखने का दीप्ति का साहस नहीं हो रहा था. हार कर उस ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और पापा के साथ कार में जा बैठी थी.

‘ऐसे हैं तुम्हारे मित्र और उन के परिवार वाले. अच्छा हुआ, आज सब अपनी आंखों से देख लिया. जोड़ी तो मिल गई, अब खुशखबरी कब सुना रही हो?’ पापा कार में बैठते ही क्रोध से फट पड़े थे.

‘पापा, आप मुझे ही दोषी समझ रहे हैं.’

‘और, और किसे समझूं? तुम ने बढ़ावा नहीं दिया होता तो उन लोगों का साहस कैसे हो जाता ऐसी बातें करने का? यहां हम आस लगाए बैठे हैं कि तुम मेहनत करोगी, परिवार का नाम ऊंचा करोगी और उधर जोड़ी मिलाई जा रही है.’

उस के बाद तो उन पर मानो दीप्ति की सुरक्षा का भूत सवार हो गया था. न उसे अकेले कालेज जाने देते, न ही कहीं और. उसी वर्ष उसे मैडिकल कालेज में दाखिला मिल गया था तो वह शहर छोड़ कर वहीं रहने चली गई थी. फिर उस के पापा का वहां से स्थानांतरण हो गया था और वह शहर सदा के लिए छूट गया था.

आज अचानक सोमेंद्र और मीताली के संबंध में जान कर उस का दिल कांप कर रह गया था. आज पहली बार उस के मन में विचार आया था कि उस के पिता ने उसे दुनिया की नजरों से अभेद्य सुरक्षा न दी होती तो शायद आज मीताली के स्थान पर वह होती. वह घुटन, जो आज उस ने मीनाली के चेहरे पर देखी थी, शायद आज उस के चेहरे पर होती.

‘‘नहींनहीं, स्कूटर रोको,’’ अचानक दीप्ति बोली.

‘‘क्या हुआ, तुम्हारी मंजिल आ गई क्या?’’

‘‘यों ही समझ लो,’’ कहते हुए दीप्ति मुसकराई.

‘अपनी मंजिल तक अकेले पहुंचने का साहस है मुझ में और मनपसंद साथी की प्रतीक्षा करने का धीरज भी,’ सोचते हुए दीप्ति सधे कदम रख अपनी राह बढ़ गई.

Emotional Story : मुक्ति – जिंदगी के उतारचढ़ाव दर्शाती कहानी

Emotional Story : बहुत मुश्किल था हमारे लिए अपनी लाड़ली को तिलतिल कर मरते देखना. मैं रातदिन उस की सेवा कर रही थी, हर संभव प्रयास कर रही थी लेकिन उसे ठीक नहीं होना था, उस की पथराई आंखों में हर रोज कुछ सवाल तैरते थे जैसे कह रही हो…

मैं खुद को इस पल से दूर, बहुत दूर, ले जाना चाहती हूं. दिमाग की नसें खिंच रही हैं. मुझे किसी अंधेरे कोने में छिप कर बैठना है लेकिन उसे छोड़ कर कैसे चली जाऊं. अभी तो उसे विदा करने की जिम्मेदारी बाकी है. रहरह कर अम्मा के शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं, ‘मंजू, अब तू ही संभाल इसे, आज से विदाई तक की जिम्मेदारी तेरी.’

उन की बात सुन मेरे आंचल से खेल रही 4 साल की दम्मो ने मेरी तरफ देखा, ‘तुम मुझे विदा करोगी, भाभी?’

उस की बड़ीबड़ी बोलती आंखों में चमक आ गई थी. मैं ने मुसकरा कर हां कहा तो खुश हो गई.

‘ऐसी ही लाल साड़ी लाना मेरे लिए और सुंदर सी मेहंदी लगाना.’

अचानक करंट सा लगा, मैं दम्मो से किए अपने वादे को भूल कैसे गई? जल्दी से उठ अपनी अलमारी से उस की विदाई के लिए सहेज कर रखी लाल साड़ी ढूंढने लगी. निचले हिस्से में सब से पीछे रखी साड़ी को निकाल हाथ में लिया तो फिर रुका नहीं गया, कलेजे से लगा फफक पड़ी.

बहुत चाव से खरीदी थी अम्मा ने यह साड़ी दम्मो की शादी के लिए. कितना हंसी थी मैं कि अम्मा ने तो 4 साल की दम्मो की शादी की तैयारी भी शुरू कर दी है. तब कौन जानता था कि भविष्य की मुट्ठी में दम्मो के लिए क्या कैद है.

यहीं एकांत में रो लेना चाहती हूं. वो आंसू जिन्हें आज तक फर्ज के पीछे रोका हुआ था, जिन्हें दम्मो के सामने कभी आंखों तक आने की इजाज़त नहीं दी थी, आज उन आंसुओं का बांध टूट गया था. मेरी दम्मो चली गई थी.

“मां, आप इस तरह टूटोगी तो…” कहती हुई नैना की आवाज़ भर्रा गई. मैं ने उस के हाथ में साड़ी पकड़ा दी.

“देख नैना, सुबह इस साड़ी को पहना देना और मेहंदी लगा देना दम्मो के दोनों हाथों में.”

“मेहंदी?”

“दम्मो को बचपन में मेहंदी का बहुत शौक था, उस ने मुझ से वादा लिया था कि मैं उसे मेहंदी लगा कर विदा करूंगी,” बहू को बताते हुए मैं ने खुद को बामुश्किल संभाला.

“मैं थोड़ी देर अकेली  रहना चाहती हूं, नैना.”

नैना चली गई और मेरे मन में न जाने कितने दबे विचार सिर उठाने लगे.

पिछले एक हफ्ते से हम सब जानते थे कि दम्मो के पास अब ज्यादा वक्त नहीं बचा, वह भी जानती थी, शायद तभी, अपनी पथराई आंखों को एकटक मेरे चेहरे पर टिकाए रहती. मैं भी उस के पास से नहीं हटी थी, जाने क्या कहना चाहती थी. क्या था उस के मन में, कोई समझ नहीं पा रहा था. कल शाम जब मैं ने उस के दोनों हाथ अपने हाथों में ले कहा, ‘दम्मो, अगली बार मेरी बेटी बन कर आना.’

एक हलकी सी मुसकराहट तैर गई थी उस निर्जीव चेहरे पर, शायद यही सुनना चाहती थी. उस के बाद उस ने आंखें नहीं खोलीं. आज जब धीरेधीरे नव्ज साथ छोड़ने लगी तो मैं घबरा गई. जानती थी कि वो जाएगी लेकिन उस पल लग रहा था किसी तरह इसे रोक लो. कोई मेरी दम्मो को रोक ले. पिछले 30 वर्षों से मैं उसे संभाल रही थी, आगे भी संभाल लूंगी. बस, दम्मो को जाने मत दो. जगत ने दम्मो के माथे पर आशीर्वाद भरा हाथ रखा, “दम्मो, तेरे सारे कष्ट, सारे पूर्वकर्मों के लेख आज पूरे हो गए. जा बेटा, अब तू जा.”

और अगले ही पल उस की कमजोर कलाई में फड़फड़ाती नव्ज शांत हो गई. शायद, दम्मो जाने के लिए जगत की अनुमति चाह रही थी.

दम्मो, दमयंती नाम था उस का, 3 भाइयों की छोटी लाड़ली बहन. मेरी शादी दम्मो के सब से बड़े भाई जगत से हुई थी. शादी से पहले जब पता लगा कि ननद सिर्फ 3 साल की है तो मेरी बहनें चिढ़ाया करतीं, ‘इतनी छोटी ननद है जीजी, गोदी में खिलाना.’

‘चलो अच्छा है ननद वाला रोब न जमाएगी, लेकिन तेरे लिए जिम्मेदारी जरूर बनेगी.’

‘मेरी जिम्मेदारी क्यों होगी वह? उस के अम्माबाबूजी हैं तो फिर 2 भाभियां और भी तो आएंगी.’

अल्हड़ उम्र थी मेरी, जिम्मेदारी शब्द सुनते ही चिढ़ जाती. बस, मैं ने मन ही मन फैसला कर लिया था कि मैं इस बच्ची से दूरी बना कर रखूंगी क्योंकि मुझे किसी तरह की जिम्मेदारी में नहीं फंसना. यह मैं सोच रही थी लेकिन विधि ने कुछ और ही सोचा हुआ था.

फेरों के समय दम्मो आ कर मुझ से बिलकुल सट कर बैठ गई. घूंघट की वजह से मैं उसे ठीक से देख नहीं पा रही थी और वह किसी तरह मेरा चेहरा देखने की लगातार कोशिश कर रही थी. कभी घूंघट के बाहर आंखें गड़ाती तो कभी घूंघट खींचती, उस की इस कोशिश पर मुझे हंसी आ रही थी.

ससुराल पंहुची तब भी दम्मो मेरी साड़ी का छोर पकड़े मेरे साथ ही थी. एक कमरे में बैठा दिया गया और जैसे ही मेरा घूंघट ऊपर किया गया, दम्मो खुशी से नाचने लगी, ‘अरे वाह, मेरी भाभी तो बहुत सुंदर हैं. देखो अम्मा, तुम से भी सुंदर हैं.’

उस की इस बालसुलभ हरकत पर न चाहते हुए भी मुझे प्यार आ गया. तब पहली बार उसे गौर से देखा- दूधिया रंग, बड़ीबड़ी बोलती आंखें और कंधे तक झूलते घुंघराले बाल. दम्मो के लिए जो पूर्वाग्रह मेरे मन में था, एक ही पल में जाता रहा. कितनी प्यारी बच्ची है, भला इस से कोई कैसे दूर रह सकता है.

फोन की घंटी से सोच का सिलसिला टूट गया. स्क्रीन पर छोटी देवरानी जया का नाम था.

“हां जया, 2 घंटे हो गए. बस, ख़ामोशी से चली गई हमारी दम्मो. सुबह किस टाइम तक आ जाओगे? उमेश भैया और रीना भी सुबह आएंगे. रात में ही निकलने को कह रहे थे, मैं ने मना कर दिया. जल्दबाजी से क्या होगा, वह तो चली ही गई.”

फोन कटने के बाद फिर अतीत में पहुंच गई. मेरे बाद दम्मो की 2 भाभियां आईं. रीना और जया. दोनों ही अच्छे स्वभाव की और सुलझी हुई हैं लेकिन दम्मो की जान मुझ में ही बसती थी.

अम्मा ने दम्मो को पूरी तरह से मुझे सौंप दिया था. सारे हक दे दिए थे, जो एक मां के होते हैं- लाड़ प्यार, पढ़ाना, डांटना सब.

तितली सी दम्मो मेरे इर्दगिर्द घूमती रहती. घुंघराले बाल उलझ जाते तो किसी को हाथ नहीं लगाने देती थी. तब मैं उसे बातों में लगा कर हौले से तेल लगाते हुए एकएक लट सुलझाती.

‘दम्मो, अच्छे से पढ़ाई कर ले और गणित के सारे सवाल मुझ से समझ ले, फिर मैं चली जाऊंगी तो कौन समझाएगा?’

‘तुम कहां जाओगी, भाभी?’

‘मायके जाना है मुझे 4 महीने के लिए.’

‘चार महीने, क्यों भाभी, पहले तो इतने दिन के लिए कभी नहीं गईं तुम?’

‘ओहो, कितने सवाल करती है यह लड़की.’

‘बताओ न, भाभी.’

‘तेरे लिए छोटा सा भतीजा या भतीजी लेने जाना है, अब खुश?’

‘सच्ची, फिर तो तुम जाओ. मैं पढ़ लूंगी और देखना, इस बार सब से अच्छे नंबर ला के दिखाऊंगी.’

दम्मो 7 साल की थी. पढ़ने में होशियार. सब कहते, इस की भाभी पढ़ाती है न, इसलिए इतनी होशियार है. लेकिन मेरी दम्मो थी ही अनोखी.

‘चलती हूं अम्मा,’ मायके जाते वक्त अम्मा का आशीर्वाद लिया, ऐसा लग रहा था कुछ छूट रहा है. मन बेचैन था, शायद अनहोनी की दस्तक सुन रहा था. गाड़ी में बैठी तो धड़कन तेज़ हो गई, मैं गाड़ी से उतर गई.

‘अम्मा, जी बहुत घबरा रहा है.’

‘क्यों परेशान होती है बिटिया, सब अच्छा होगा.’

अम्मा को लगा कि मैं अपनी डिलीवरी को ले कर घबरा रही हूं जबकि ऐसा नहीं था. दम्मो का माथा चूमा.

‘अम्मा, मेरी दम्मो का खयाल रखना.’ पता नहीं क्यों ये शब्द मेरे मुंह से निकले.

मायके में सब मेरा पूरा खयाल रख रहे थे लेकिन मेरा मन उस बच्ची की आंखों में अटका हुआ था. जाने क्या प्यार था हमारे बीच कि मैं उसे हर दिन याद करती. जगत को जब भी चिट्ठी भेजती तो दम्मो के बारे में जरूर पूछती. आज की तरह वीडियोकौल करना संभव होता तो मैं पक्का दिन में कई बार उसे वीडियोकौल करती.

डेढ़ महीने बाद नन्हा समर मेरी गोद में आ गया. पापा ने चिट्ठी की जगह फोन किया ताकि खुशखबरी पहुंचने में वक्त न लगे. मेरी ससुराल में फोन नहीं था, इसलिए पापा ने, बस, खबर करवा दी कि लड़का हुआ है.

मुझे उम्मीद थी कि इस खबर को सुन अगले ही दिन कोई न कोई आएगा. काश, दम्मो को भी ले आएं. कितनी खुश होगी छोटे से भतीजे को गोद में ले कर. अगले एक हफ्ते तक ससुराल से न कोई आया और न ही किसी ने फोन किया. पापा को चिंता हुई तो उन्होंने दोबारा फोन किया, पता चला अम्मा की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए कोई नहीं आ पाया.

करीब 15 दिनों बाद जगत आए. चेहरा बुझा हुआ था मानो किसी गहरी समस्या से जूझ रहे हों.

‘अम्मा कैसी हैं?’

‘ठीक हैं.’

‘और दम्मो, उस ने आने की ज़िद की होगी, ले आते उसे, मैं भी मिल लेती उस से.’

‘मिल लेना, थोड़े दिनों में तो घर आ ही जाओगी,’ जगत की आवाज में बेचैनी थी. वे मुझ से आंखें चुरा रहे थे. मैं ने सोचा, हो सकता है अम्मा की तबीयत को ले कर परेशान हों.

2 महीने बाद मैं ससुराल लौट रही थी. रास्तेभर जाने क्याक्या सोचती रही. अम्मा समर को देख खुश हो जाएंगी, बिल्कुल जगत पर गया है न और दम्मो, उसे तो खिलौना मिल जाएगा. सारे दिन गोद में ले घूमती फिरेगी. ऐसे तो हो गई उस की पढ़ाई. न, न, समझा दूंगी, समर की वजह से नंबर कम आए तो खैर नहीं. वैसे समझदार है दम्मो, मेरी हर बात मान लेती है. विचारों में खोए हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला.

दरवाजे पर अम्मा खड़ीं थीं. इन 4 महीनों में चेहरा बिलकुल बदल गया था, उम्र 10 साल बढ़ गई थी. तबीयत खराब थी शायद इसलिए. खैर, अब मैं आ गई हूं, अम्मा का पूरा खयाल रखूंगी.

अम्माबाबूजी के पैर छू समर को उन की गोद में थमा दिया. अम्मा की आंखों से झरझर आंसू बह निकले. दिल धक्क से रह गया.

‘सब ठीक तो है न, दम्मो, दम्मो कहीं नज़र नहीं आ रही, अम्मा, कहां है?’

मैं ने बौखला कर दम्मो को पुकारा. कोई जवाब नहीं आया. मैं तेजी से घर के अंदर की ओर दौड़ी. अम्मा के कमरे में कदम रखा और मैं जड़ हो गई. दम्मो बिस्तर पर थी. पथराई हुई आंखें, तिरछा मुंह. शरीर में सिर्फ हड्डियां बची थीं. 4 महीने पहले जिस हंसतीखेलती बच्ची को छोड़ कर गई थी, आज वह जिंदा लाश बनी हुई थी.

दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं बेहोश हो कर गिर गई.

“मां, चाचाचाची आ गए.” समर की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी. उठ कर बाहर आई, सामने रीना थी. बिलखती हुई मुझ से लिपट गई.

“दीदी, क्या कह कर आप को सांत्वना दूं. दम्मो हमारी ननद थी लेकिन आप की तो बेटी ही थी. उस की देखभाल करने के लिए आप ने दूसरी संतान के बारे में भी नहीं सोचा.”

“रात के 2 बज रहे हैं रीना, तुम तो सुबह आने वाले थे, फिर?”

“भाभी, आप को इस हाल में अकेले कैसे छोड़ सकते थे हम,” उमेश भैया ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

दुख तो हम सभी को था. उन की भी तो छोटी बहन थी. मैं ने इतने साल दम्मो की देखभाल की तो उमेश भैया और रीना ने अम्माबाबूजी का खयाल रखा. वहीं नरेश भैया और जया लगातार आर्थिक रूप से सहयोग करते रहे. बिना पूरे परिवार की मदद के यह लंबी तपस्या संभव नहीं थी.

“मुझे आज भी वह दिन याद है भाभी, आप को मायके गए 15 दिन हुए थे. दोपहर में अम्मा आराम कर रही थीं और दम्मो पढ़ रही थी. तभी पड़ोस में रहने वाली उस की सहेली उसे खेलने के लिए बुलाने आई. दम्मो उस के साथ खेलने चली गई. दोनों केले खाती हुई छत पर जा पहुंचीं. न जाने कहां से काल बन कर बंदरों का झुंड आ गया. वह लड़की केले फेंक भाग गई लेकिन दम्मो ने केले फेंकने की जगह और कस कर पकड़ लिए. उन केलों के लिए बंदरों ने दम्मो को बुरी तरह खदेड़ा और छत पर, जिस तरफ़ मुंडेर नहीं थी वहां, से दम्मो सिर के बल आंगन में आ गिरी,” बात पूरी करतेकरते उमेश की हिचकी बंध गई.

“दम्मो को तुरंत डाक्टर के यहां ले कर गए. उन्होंने दिल्ली रैफर कर दिया. बहुत मुश्किल वक्त था, तुम डिलीवरी के लिए मायके में थीं. अम्मा सदमे में थीं. बस, हम तीनों भाई एकदूसरे को हौसला देते दम्मो को ले दिल्ली पहुंचे. सारे टैस्ट हुए, अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाया. डाक्टर अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि दम्मो के दिमाग में गहरी चोट लगी है जिस की वज़ह से उस के ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है. वह पार्शियली पैरालाइज्ड थी,” जगत ने दम्मो के पार्थिव शरीर की ओर देखते हुए कहा.

हां, अब शरीर ही तो रह गया था. वो जो कभी घर की रौनक थी, पूरे परिवार की जान थी, सिर्फ 7 साल की उम्र में जिंदा लाश बन गई और अगले 30 साल ऐसे ही बिस्तर पर रही. बहुत मुश्किल था हमारे लिए अपनी लाडली को इस तरह तिलतिल कर हर दिन मरते देखना. मैं रातदिन उस की सेवा कर रही थी, हर संभव प्रयास कर रही थी जिस से उसे ठीक किया जा सके लेकिन…उसे ठीक नहीं होना था और नहीं हुई. उस की पथराई आंखों में हर रोज़ कुछ सवाल तैरते थे जैसे कह रही हो, क्यों भाभी, मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?

इस अबोले सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था.

“मंजू, नरेश और जया पहुंचने वाले हैं, तैयारी करो.”

खिड़की से बाहर देखा, आसमान में हलकी लालिमा छा गई थी.

“कैसी सुबह आई है आज, जगत, हमारी दम्मो को ले जाने.”

“दम्मो को ले जाने नहीं, मंजू, उसे मुक्त करने. आज हमारी दम्मो सारे कष्टों से छूट गई है.”

हां, सच ही तो है, दम्मो 30 साल की सज़ा से मुक्त हो गई है, फिर से लौट आने के लिए. बस, इस बार आए तो खुश रहने के लिए आए, चहकने के लिए आए और लंबी व स्वस्थ उम्र ले कर आए. अनायास ही मेरे हाथ जुड़ गए और आंखों से दो बूंद आंसू ढुलक पड़े.

लेखिका : संयुक्ता त्यागी

Online Hindi Story : मिट्टी का तेल – किस वहम की शिकार थी चिंकी

Online Hindi Story : अपने ससुर उमाशंकर की बात सुन कर चिंकी बेचैन हो गई थी. ससुराल में बहू को जला कर मार डालने की खबरें आएदिन अखबारों में छपती ही रहती हैं. अब तो वह बाथरूम में रखी मिट्टी के तेल की बोतल जबजब देखती विचार उस के मन में तबतब गलत आ जाते.

उमाशंकर ने ठठा कर हंसते हुए कहा, ‘‘जिस घर में बहुएं हों वहां मिट्टी का तेल जरूर होना चाहिए.’’ उन के इस परिहास पर कोई हंसा नहीं बल्कि एक सन्नाटा छा गया. उन्हें बेतुका मजाक करने की आदत थी पर इस की भी कोई सीमा तो होनी चाहिए.

बूआ और फूफा गुड़गांव से अपने बेटे और नई बहू के साथ मिलने आए थे. दिन भर का कार्यक्रम था. खाना खा कर उन्हें वापस जाना भी था. उमाशंकर ने भी अपने बेटे अतुल की शादी कुछ माह पहले ही की थी. शादी के बाद बूआ और फूफा पहली बार आए थे. स्वागत का विशेष प्रबंध था.

उमाशंकर की पत्नी राजरानी ने झिड़क कर कहा, ‘‘कुछ तो सोच कर बोला करो. बहुएं घर में हैं और सुन भी रही हैं.’’

उमाशंकर ने झिड़की की परवा न कर हंसते हुए कहा, ‘‘अरे यार, उन्हें ही तो सुना रहा हूं. समय पर चेतावनी मिल जाए तो आगे कोई गड़बड़ नहीं होगी और तुम भी आराम से उन पर राज कर सकोगी.’’

‘‘मुझे ऐसा कोई शौक नहीं,’’ राजरानी ने समझदारी से कहा, ‘‘मेरी बहू सुशील, सुशिक्षित और अच्छे संस्कार वाली है. कोई शक?’’

गुड़गांव से आए फूफाजी उठ कर कुछ देर पहले हलके होने के लिए बाथरूम गए थे. जब लौटे तो हंस रहे थे.

कौशल्या ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘किस बात पर हंस रहे हो? बाथरूम में जो पोस्टर चिपका हुआ है उसे पढ़ कर आए हो?’’

‘‘अजीबोगरीब पोस्टर बाथरूम और अपने कमरे में चिपकाना आजकल के नौजवान लड़केलड़कियों का शौक है, पर मुझे हंसी उस पर नहीं आ रही है,’’ फूफाजी ने उत्तर दिया.

‘‘तो फिर?’’ कौशल्या ने पूछा.

फूफाजी ने उमाशंकर से पूछा, ‘‘क्यों भई, बाथरूम में मिट्टी का तेल क्यों रखा हुआ है?’’

उमाशंकर ने जोरदार हंसी के साथ जो उत्तर दिया उस से न चाहते हुए भी दोनों नई बहुएं सहम गईं.

रात के अंधेरे में चिंकी ने बेचैनी से पूछा, ‘‘पिताजी क्या सच कह रहे थे?’’

‘‘क्या कह रहे थे?’’ अतुल ने चिंकी का हाथ पकड़ कर खींचते हुए पूछा.

‘‘वही मिट्टी के तेल वाली बात,’’ चिंकी ने हाथ छुड़ाते हुए कहा.

‘‘ओ हो, तुम भी कितनी मूर्ख हो,’’ अतुल ने चिढ़ कर कहा, ‘‘पिताजी मजाक कर रहे थे और उन्हें मजाक करने की आदत है. तुम औरतों की कमजोरी यही है कि मजाक नहीं समझतीं. अब उस दिन बिना बात तुम्हारी मम्मी भी भड़क गई थीं.’’

‘‘मेरी मां तुम्हारी भी तो कुछ लगती हैं. बेचारी कितनी सीधीसादी हैं. उन का मजाक उड़ाना कोई अच्छी बात थी?’’ चिंकी ने क्रोध से कहा, ‘‘मेरी मां के बारे में कभी कुछ मत कहना.’’

‘‘अच्छा बाबा माफ करो,’’ अतुल ने प्यार से चिंकी को फिर पास खींचा, ‘‘अब तो चुप हो जाओ.’’

‘‘मैं चुप कैसे रह सकती हूं,’’ चिंकी ने शंका से पूछा, ‘‘बताओ न, क्या पिताजी सच कह रहे थे?’’

अब अतुल चिढ़ गया. खीज कर बोला, ‘‘हां, सच कह रहे थे. तो फिर? और यह भी सुनो. इस घर में पहले भी 3-4 बहुएं जलाई जा चुकी हैं और शायद अब तुम्हारी बारी है.’’

चिंकी छिटक कर दूर हो गई. उस रात समझौते की कोई गुंजाइश नहीं थी.

अगले दिन सबकुछ सामान्य था क्योंकि सब अपने- अपने काम रोज की तरह कर रहे थे. कोई तनाव नहीं. सबकुछ एक बदबू के झोंके की तरह उड़ गया था. फिर भी चिंकी जितनी बार बाथरूम जाती, मिट्टी के तेल की बोतल को नई दृष्टि से देखती थी और तरहतरह के दुष्ट विचार मन में आ जातेथे.

एकांत पा कर मां के नाम पत्र लिखा. सारी बातें विस्तार से लिखीं कि शादी में कहीं दहेज में तो कोई कमी नहीं रह गई? लेनेदेने में तो कहीं कोई चूक नहीं हो गई? अतुल को तो किसी तरह मना लेगी, पर ससुर के लिए आने वाली होली पर सूट का कपड़ा और सास के लिए कांजीवरम वाली साड़ी जो जानबूझ कर नहीं दी गई थी, अब अवश्य दे देना. हो सके तो अतुल के लिए सोने की चेन और सास के लिए कंगन भी बनवा देना. पता नहीं कब क्या हो जाए? वैसे माहौल देखते हुए ऐसी कोई आशंका नहीं है. ऊपर से सब का व्यवहार अच्छा है और प्यार से रखते हैं.

पत्र पढ़ कर मां घबरा गईं.

‘‘मेरा मन तो बड़ा घबरा रहा है,’’ मां ने कहा, ‘‘आप जाइए और चिंकी को कुछ दिनों के लिए ले आइए.’’

‘‘अब ऐसे कैसे ले आएं?’’ पिताजी ने चिंता से कहा, ‘‘चिंकी ने किसी की शिकायत भी तो नहीं की है. ले आने का कोई कारण तो होना चाहिए. हम दोनों का रक्तचाप ठीक है और मधुमेह की भी शिकायत नहीं है.’’

‘‘यह कोई हंसने की बात है,’’ मां ने आंसू रोकते हुए कहा, ‘‘कुछ तो बात हुई होगी जिस से चिंकी इतना परेशान हो गई. जो कुछ उस ने मांगा है वह होली पर दे आना. मेरी बेटी को कुछ हो न जाए.’’

‘‘कुछ नहीं होगा. तुम बेकार में दुखी हो रही हो,’’ पिताजी ने कहा, ‘‘उमाशंकरजी को हंसीमजाक करने की आदत है. दहेज के लिए उन्होंने आज तक कोई शिकायत नहीं की.’’

‘‘आदमी का मन कब फिर जाए कोई कह सकता है क्या? आप समझा कर अतुल को एक चिट्ठी लिख दीजिए,’’ मां ने कहा.

‘‘मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा,’’ पिताजी ने दृढ़ता से कहा, ‘‘हां, तुम चिंकी को जरूर लिख दो. कोई चिंता की बात नहीं है. सब ठीक हो जाएगा.’’

मां ने नाराजगी से पति को देखा और चिंकी को सांत्वना का पत्र लिखने बैठ गईं.

होली आई तो अतुल और चिंकी को घर आने की दावत दी. दामाद का खूब सत्कार हुआ. कुछ अधिक ही.

चिंकी ने मां को अलग ले जा कर पूछा, ‘‘आप ने सूट का कपड़ा और साड़ी खरीदी?’’

‘‘नहीं, तेरे पिताजी नहीं मानते. कहते हैं कि फालतू देने से लालच बढ़ जाता है. फिर कोई मांग भी तो नहीं की. हां, अतुल के लिए सोने की चेन बनवा दी है,’’ मां ने प्यार से कहा.

‘‘मां, बस तुम भी…चिंकी ने निराशा से कहा,’’ भुगतना तो मुझे ही पड़ेगा. आप को क्या. बेटी ब्याह दी, किस्सा खत्म. क्या अखबार नहीं पढ़तीं? टीवी नहीं देखतीं? हर रोज बहुओं के साथ हादसे हो रहे हैं.’’

‘‘बेटी, तेरे सासससुर ऐसे नहीं हैं,’’ मां ने समझाने की कोशिश की.

‘‘ठीक है मां…’’ चिंकी ने गिरते आंसुओं को थाम लिया.

जब बेटी और दामाद को बिदा किया तो ढेरों मिठाई और पकवान साथ में दिया. हजारहजार रुपए से टीका भी कर दिया.

अतुल ने विरोध किया, ‘‘मम्मीजी, इतना सब देने की क्या जरूरत है?’’

‘‘बेटा, करना तो बहुत कुछ चाहते थे पर अभी तो इतना ही है,’’ सास ने कहा, ‘‘तुम सब खुश रहो यही मन की इच्छा है.’’

‘‘मम्मीजी, आप का आशीर्वाद है तो सब ठीक ही होगा,’’ अतुल ने जल्दी से कहा, ‘‘अब चलें, देर हो रही है.’’

‘‘उमाशंकरजी और अपनी मम्मी को हमारा आदर सहित प्रणाम कहना,’’ पिताजी ने कहा.

ससुराल आने पर चिंकी बाथरूम गई तो मिट्टी के तेल की बोतल को अपनी जगह पाया. पता नहीं क्या होगा? सासससुर को शिकायत का कोई अवसर नहीं देगी. वैसे धीरेधीरे अतुल को रास्ते पर लाना होगा. जल्दी से जल्दी दूसरा घर या तबादले का प्रबंध करना पड़ेगा. मन के किसी एक कोने में आशंका का दिया जल रहा था.

छुट्टी का दिन था. रात हो चली थी. अतुल किसी काम से बाहर गया हुआ था. अचानक घर की रोशनी चली गई. घोर अंधेरा छा गया. अकसर आधे घंटे में बिजली आ जाती थी, पर आज बहुत देर हो गई.

अंधेरे में क्या करे कुछ सूझ नहीं रहा था.

उमाशंकर ने टटोलते हुए कहा, ‘‘राजरानी, एक टार्च थी न, कहां है? कुछ याद है.’’

‘‘आप की मेज की दराज में है,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘पर उस का क्या करोगे? बैटरी तो है नहीं. बैटरी लीक कर गई थी तो फेंक दी थी.’’

उधर रसोई में टटोलते हुए और कुछ बर्तन इधरउधर गिराते हुए राजरानी बड़बड़ा रही थी, ‘‘मरी माचिस भी कहां रख दी, मिल ही नहीं रही है. और यह अतुल भी पता नहीं अंधेरे में कहां भटक रहा होगा.’’

अगर अचानक अंधेरा हो जाए तो बहुत देर तक कुछ नहीं सूझता. राजरानी, उमाशंकर और चिंकी तीनों ही कुछ न कुछ ढूंढ़ रहे थे, पर कभी दीवार से तो कभी फरनीचर से और कभी दरवाजे से टकरा जाते थे.

कमरे में टटोलते हुए चिंकी के हाथ में कुछ आया. स्पर्श से ध्यान आया कि कुछ दिन पहले उस ने एक लैंप देखा था. शायद वही है. पता नहीं कब से पड़ा था. अब बिना तेल के तो जल नहीं सकता.

उसे ध्यान आया, मिट्टी के तेल की बोतल बाथरूम में रखी है. कुछ तो करना होगा. दीवार के सहारे धीरेधीरे कमरे से बाहर निकली. पहला कमरा सास का था. फिर टीवी रूम था. आगे वाला बाथरूम था. दरवाजा खुला था. कुंडी नहीं लगी थी. एक कदम आगे कमोड था. बोतल तक हाथ पहुंचने के लिए कमोड पर पैर रख कर खड़े होना था. चिंकी यह सब कर रही थी, पर न जाने क्यों उस का दिल जोरों से धड़क रहा था.

जैसे ही बोतल हाथ लगी उसे मजबूती से पकड़ लिया. आहिस्ता से नीचे उतरी. फिर से दीवार के सहारे अपने कमरे में पहुंची. अब लैंप का ढक्कन खोल कर उस में तेल डालना था. अंधों की तरह एक हाथ में लैंप पकड़ा और दूसरे हाथ में बोतल. कुछ अंदर गया तो कुछ बाहर गिरा.

लो कितनी मूर्ख हूं मैं? चिंकी बड़बड़ाते हुए बोली. अब माचिस कहां है? माचिस इतनी देर से उस की सास को नहीं मिली तो उसे क्या मिलेगी? सारी मेहनत बेकार गई. अतुल तो सिगरेट भी नहीं पीता.

तभी चिंकी को ध्यान आया कि पिछले माह वह अतुल के साथ एक होटल में गई थी. होटल की ओर से उस के नाम वाली माचिस हर ग्राहक को उपहार में दी गई थी. अतुल ने वह माचिस अपनी कोट की जेब में डाल ली थी. माचिस को अभी भी जेब में होना चाहिए.

जल्दी से तेल की बोतल नीचे रखी और कपड़ों की अलमारी तक पहुंची. सारे कपड़े टटोलते हुए वह कोट पकड़ में आया. गहरी सांस ली और जेब में हाथ डाला. माचिस मिल गई. वह बहुत खुश हुई. जैसे ही जलाने लगी बोतल पर पैर लगा और सारा तेल गिर कर फैल गया.

उमाशंकर ने पूछा, ‘‘राजरानी, मिट्टी के तेल की बदबू कहां से आ रही है? क्या तुम ने तेल की बोतल तो नहीं गिरा दी?’’

‘‘अरे, मैं तो कब से यहां रसोई में खड़ी हूं,’’ राजरानी ने कहा, ‘‘मरी माचिस ढूंढ़ रही हूं.’’

‘‘अब छोड़ो भी माचिसवाचिस,’’ उमाशंकर ने कहा, ‘‘यहां आ जाओ और बैठ कर बिजली आने का इंतजार करो.’’

चिंकी ने माचिस जलाई और गिरी बोतल को हाथ में उठा लिया.

उमाशंकर ने लाइट की चमक देखी तो चिंकी के कमरे की ओर आए और वहां जो नजारा देखा तो सकपका गए. झट से दौड़ कर गए और चिंकी के हाथ से जलती माचिस की तीली छीन ली और अपने हाथ से मसल कर उसे बुझा दी.

‘‘लड़की तू कितनी पागल है?’’ उमाशंकर ने डांट कर कहा, ‘‘तू भी जलती और सारे घर में आग लग जाती.’’

तभी बिजली आ गई और सब की आंखें चौंधिया गईं. चिंकी ने जो दृश्य देखा समझ गई कि वह कितनी बड़ी भूल करने जा रही थी. घबरा कर कांपने लगी.

उमाशंकर ने हंस कर उसे झूठी सांत्वना दी, ‘‘मरने की बड़ी जल्दी है क्या?’’

और चिंकी को जो शर्म आई वह कभी नहीं भूली. शायद भूलेगी भी नहीं.

Motivational Story : नई पीढ़ी – अपने निर्णय पर अडिग स्त्री

Motivational Story : ससुराल वालों के सामने अचला हमेशा झुकती ही आई थी. चुप, अपने में ही घुटती रही लेकिन आज उस के आत्मसम्मान और आत्मबल के लिए जो लोग सामने खड़े थे उन्हें देख वह हैरान थी.

अचला ने फ्लैट लौक किया और चाबी देने के लिए सीढि़यों से ऊपर चढ़ गई. पति राजीव से काफी बहस के बाद आपसी सहमति से यह तय हुआ कि फ्लैट वापस किराए पर चढ़ा दिया जाएगा. ऊपर रहने वाले परिवार को चाबी इसीलिए दे रही थी ताकि पीछे से कोई किराएदार आए तो उसे फ्लैट दिखाया जा सके.

मन बहुत भारी हो रहा था. केवल भारी ही नहीं, बल्कि चीत्कार कर रहा था. बचपन से अपने हक के लिए लड़तेलड़ते उस ने पहली बार खुद को हारने के लिए राजी कर लिया था. 50 साल की उम्र की होने के बाद और सभी पारिवारिक जिम्मेदारियों को यथासंभव निभाने के बाद भी वह पति का इतना विश्वास नहीं जीत पाई थी कि अपने ही फ्लैट में अपनी मरजी से कुछ दिन बिता सके.

चाबी ऊपर दे कर सीढि़यों से नीचे उतरते हुए एकएक कर उस के अरमान नीचे गिर रहे थे. आज उन्हें रोकने की कोई कोशिश भी उस की तरफ से नहीं हो रही थी. आंसुओं के सैलाब को जैसेतैसे रोक लिया था. उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिस इंसान के लिए अपने वजूद को भी भुला देगी वह बच्चों के संभल जाने पर अपने परिवार में जा कर मिल जाएगा और उसे ही गलत ठहराएगा.

नीचे उतर कर उस ने दोनों बैग उठाए और सामने सड़क पर आ गई. ईरिक्शा वाला थोड़ी दूरी पर था. उसे अपने पास बुलाने के लिए हाथ से इशारा किया और मोबाइल चैक करने लगी. किसी फोन या मैसेज के इंतजार में सबकुछ चैक कर लिया. हर दिन की तरह आज भी कुछ नहीं था. पति का, बेटियों का या ससुराल वालों का कोई फोन या मैसेज नहीं था.

ईरिक्शा में बैठ कर इधरउधर दोनों ओर यों ही देख रही थी आंसुओं को छिपाने की कोशिश में. जाने कब वापस इस शहर में आना हो. हो भी या न हो.

बस स्टैंड पहुंच कर पता चला कि अभी आधा घंटा लगेगा बस को पहुंचने में. वहीं एक चाय की दुकान पर बैठ कर चाय का और्डर दिया और आतेजाते यात्रियों को देखने लगी.

‘‘अचला,’’ किसी ने जोर से पुकारा. पीछे मुड़ कर देखा तो कोई नहीं था. सिर को झटका. 28 साल पहले इसी तरह इसी जगह पर राजीव ने आ कर आवाज लगाई थी. वह उन दोनों की पहली मुलाकात थी. सगाई हो चुकी थी लेकिन घर में इतनी आजादी नहीं थी कि लड़का और लड़की शादी से पहले एकदूसरे से मिल सकें. राजीव स्वतंत्र विचारों के थे, इसलिए उन्होंने घर पर बिना कुछ बताए अचला को मिलने के लिए बुलाया था. अपनी मां की पसंद पर उन्हें पूरा भरोसा था लेकिन फिर भी जीवनभर के बंधन में बंधने से पहले खुद भी जीवनसंगिनी से एक बार मिल कर बातें करना चाहते थे वे.

‘फोटो से कहीं ज्यादा ही सुंदर हो तुम तो,’ प्यारभरी नजरों से अचला को ताकते हुए उन्होंने पहला वाक्य बोला था.

‘फोटो तो ऐसे ही खिंचवाई हुई थी. अचानक से मांगी तो देनी पड़ी. मैं ने मामी से कहा था कि नई खिंचवा लेती हूं पर मेरी कोई सुने तब न,’ सीधीसादी अचला ने फोटो का पूरा विवरण दे दिया था.
‘तुम तो बहुत पढ़ीलिखी हो. नौकरी भी करना चाहती हो. मेरी नौकरी तबादले वाली है, निभा पाओगी?’

दूसरे प्रश्न के जवाब में अचला थोड़ी सी घबराई लेकिन तुरंत जो मन में आया वह जवाब दे दिया, ‘‘नौकरी तो करना चाहती हूं. पिताजी ने सब से ऊपर हो कर पढ़ाया है मु झे, लेकिन बाकी की जिम्मेदारियों से ऊपर नौकरी नहीं है.’

जवाब सुन कर जैसे संतुष्ट हो गए थे राजीव. दोनों ने चाय खत्म की. कुछ इधरउधर की बातें हुईं. आगे के जीवन के बारे में कुछ भी नहीं पूछा था अचला ने. उस की इसी बात पर फिदा हो गए थे राजीव. रात की गाड़ी से अपने शहर वापस चले गए राजीव और अचला अपने घर आ गई. छोटी बहन ने बहुत शिकायत की या यों कहें कि डांट ही लगाई थी उसे.

‘मैडम, पूछना तो था कि शादी के बाद कहां रखेगा तु झे. उस की मां बहुत तेज है. बड़े लड़के को ही सब मानती है. सबकुछ अपने ही नियंत्रण में रखती है. सारे निर्णय भी खुद ही लेती है. इसीलिए तुम से मिलने आया होगा बेचारा. तुम तो ठहरी सीधी गाय. पढ़लिख कर भी सब बराबर कर दिया तू ने तो.’

‘जो मां से ऊपर हो कर मिलने आ सकता है वह रहने का ठिकाना भी बना ही लेगा.’
खयालों में खोई हुई अचला ने जवाब दिया था. काश, उसी समय सच को जान गई होती, जमाने के रिवाज को पहचान गई होती. लड़के शादी तो मरजी से कर लेते हैं मगर उस के बाद के फैसले मांबाप के अनुसार ही लेते हैं. 28 साल बाद उसी तारीख को उसी जगह दोनों मिले. अचला अपने घर से आई और राजीव अपने शहर से. आते ही राजीव ने वह सबकुछ बोल दिया जो उन्हें सम झा कर भेजा गया था.

‘अच्छी तरह सोच लो, अचला. भाईभाभी को यों तुम्हारा अकेले आ कर फ्लैट में रहना अच्छा नहीं लगता है. कुछ दिनों के लिए ही इधर आती हो तो उन के साथ ही रहा करो.’

अचला तिलमिला उठी थी. इतने सालों की वफादारी का यह सिला दिया है उस के जीवनसाथी ने. जब तक अपने परिवार से दूर थे, सबकुछ अचला से सलाह कर के ही करते थे. इसीलिए यह फ्लैट भी लिया गया था परंतु घरवालों के संपर्क में आते ही सबकुछ भूल गए. यह भी कि अचला के मातापिता भी अब नहीं हैं. उस ने लड़के को जन्म नहीं दिया, इसीलिए सासससुर ने घर भी बड़े लड़के को सौंप दिया. आहत हो कर भी उस ने अपना पक्ष रखना चाहा.

‘आप जानते हैं राजीव, भाभी का व्यवहार मेरे साथ बिलकुल भी अच्छा नहीं है. घर भी उतना बड़ा नहीं है. आप की मम्मीजी अब चुप हो गई हैं. भाभी कुछ भी बोलती हैं तो सब चुपचाप सुनती रहती हैं. गलती उन की हो, तब भी मु झ से ही सम झौते की अपेक्षा की जाती है और सब से बड़ी बात, वह घर तुम्हारे पापा का नहीं, भाई का है. आज नहीं तो कल, वे मना कर ही देंगे वहां जा कर रहने के लिए. भाभी के घरवालों का हस्तक्षेप भी बढ़ता ही जा रहा है.’
अचला की बात पूरी होने से पहले ही राजीव ने जवाब दे दिया.

‘हां, तो तब नहीं आएंगे उन के घर. तब तक तो निभाओ. इस समाज में सभी लोग उन्हें जानते हैं. तुम यहां आ कर अकेली रहती हो तो लोग उन्हें बोलते हैं. पूरा परिवार एकसाथ है. बस, तुम्हें ही अलग आ कर रहने की जिद है. कुछ सोचो, बदनामी होती है उन की. तुम्हारे कहने से फ्लैट अलग ले लिया है लेकिन जब तक मेरे मांबाप हैं, मैं उसी घर में रहना चाहता हूं. तुम्हारे लिए मैं सब से संबंध नहीं तोड़ सकता.’

‘मैं यहां आ कर कोई गलत काम नहीं कर रही हूं. हमारा फ्लैट है. उसी में आ कर रहती हूं. ये सब बातें तुम्हें ही बोलते हैं वे लोग. मैं 10 दिनों से अकेली रह रही हूं, मेरे पास एक फोन तक भी नहीं किया कभी. तुम सम झते क्यों नहीं हो?’

अचला की आवाज में तल्खी थी. पूरा परिवार तो उस का विरोध शादी के पहले दिन से ही कर रहा था. अब राजीव भी उन की टोली में शामिल हो गए थे. फ्लैट पर आने से पहले ननद को भी उस ने आने के लिए फोन किया. सासससुर को भी अपने साथ आ कर रहने के लिए कहा परंतु किसी का कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला. उलटे, राजीव को भड़का दिया. उन्होंने जैसे ताना कसा.

‘मीरा को भी तुम ने फोन किया था लेकिन वह भी बड़े भाई से ऊपर हो कर तुम्हारे पास आने को तैयार नहीं हुई.’

‘बच्चों से मेरी भी बात हुई थी. अभी छुट्टी नहीं हुई है. छुट्टी होते ही आने के लिए बोल रहे थे.’

अचला ने तर्क दिया तो राजीव हंस कर बोले, ‘तुम्हें लगता है कि वह अपनी मां से ऊपर हो कर तुम से मिलने आएंगे? फिर यहां कोई सुविधा नहीं है. बिना एसी आजकल किसी को नींद नहीं आती है. सम झा करो परिस्थितियों को.’
अचला ने फिर से अपना पक्ष रखा.

‘राजीव, जब हम यहां आ जाएंगे तब भी वे लोग आएंगे हमारे पास. यही घर होगा. हम भी वहीं होंगे तो फिर अभी क्या समस्या है? क्यों बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है.’
राजीव मुंह घुमा कर दूसरी तरफ चले गए.

अचला और बहस नहीं करना चाहती थी. जल्दीजल्दी चाय खत्म की और फ्लैट पर वापस लौट आई. रहरह कर अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. क्यों उस ने राजीव के पूछने पर मना नहीं किया था इस शहर में फ्लैट खरीदने को? क्यों राजीव की भावनाओं को प्राथमिकता दी?

बीते साल किसी फिल्म की तरह आंखों में तैर गए थे. छोटी बेटी के पैदा होते ही घरवालों का व्यवहार और भी कटु हो गया था. अचला का जैसे अस्तित्व ही भुला दिया गया था. रसोई के मामलों में या फिर मेहमानों के आनेजाने में हर जगह जेठानी अपनी बात को ही बड़ा रखने लगी थी. ससुर तो सेवानिवृत्ति के बाद से ही चुप हो गए थे. सास भी अब बुढ़ापे के कारण शारीरिक रूप से अक्षम सी हो गई थी.

पहले जिस औरत की कड़क आवाज से पूरा घर कांप जाया करता था, आज मुश्किल से ही कोई बात पूरी बोल पाती थी. चुप रह कर जैसे अपनी इज्जत बचा लेती थी. जेठानी अब नई हाकिम बन गई थी. उस के साथ सास और ननद ने जो भी कुछ किया वह पूरा बदला अचला से लेना चाहती थी. राजीव ने अचला का साथ दिया और दोनों बेटियों के साथ अचला को भी अपने साथ ले गए. उन की नौकरी दूसरे शहर में थी.

बेटियां बड़ी हो गईं. पढ़ाई में अच्छी थीं तो आगे की पढ़ाई के लिए पुणे और बेंगलुरु में चली गईं. अचला अब अकेली हो गई थी. राजीव सेवानिवृत्ति के बाद गृहनगर वापस लौट जाना चाहते थे. यही सोचते हुए भाई के घर से दूर शहर के दूसरे कोने पर एक फ्लैट खरीद लिया था. 2 साल किराए पर दे कर रखा. अचला और राजीव दोनों ही भाई के ही घर पर आतेजाते रहे. राजीव की खूब खातिर होती. उस के साथ खूब बातचीत होती. हर बात में उसे विशेष महत्त्व दिया जाता. उस के सामने उस की राय को मान दिया जाता.

अचला एक कैदी की तरह अपना समय व्यतीत करती. जेठ और ससुर से परदा करती थी, इसलिए बातचीत में शामिल ही नहीं हो पाती. बस, अंदर कमरे में बैठ कर सब की बातें सुनती रहती. आखिर राजीव से कह कर पिछले साल दीवाली पर अपने फ्लैट में आ कर रहने की शुरुआत की. दीवाली के अगले दिन आंखें खुलने से पहले ही फोन बजना शुरू हो गया. पहले सास का, फिर जेठ का और उस के बाद ससुर का.

‘दीया ही तो जलाना था. पूरी रात क्या दीवाली ही मन रही थी जो घर वापस नहीं लौटे?’ और भी कई तरह के सवाल. जैसेतैसे नहाएधोए और सामान उठा कर फिर से वापस लौट आए वहीं उसी अखाड़े में.

वर्षों तक अकेले अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच कर अचला ने थोड़े सुकून की इच्छा क्या रखी, पूरा परिवार सारे कामधाम छोड़ कर उस की इच्छा को कुचलने पर उतारू हो गया था. राजीव को बच्चों की तरह बहलायाफुसलाया जा रहा था. सास और जेठानी पूरे समय उन के आसपास ही रहने की कोशिश करते. रिश्तेदारों के सभी मसले उन के सामने ही रखे जाते और घंटों तक चर्चा चलती रहती.

जितना समय ससुराल में रहते, राजीव का एक अलग ही रूप अचला को नजर आता. वहां रहते हुए आपस में कोई बात करना संभव न हो पाता था. अचला कभी कुछ कहने की कोशिश भी करती तो छोटी सी बात बहस में बदल जाती. अचला से सभी बच कर रहते जैसे कोई अछूत हो.

घर से वापस लौट कर राजीव घर के बारे में कोई बात ही नहीं करते थे. हां, अपने घरवालों से उन की फोन पर रोज ही बात होती थी. एक अनचाही चुप्पी छा गई थी. एकदम अकेली पड़ गई थी अचला. बेटियां भी पापा की ही बात को बड़ा रखती थीं. अचला को विश्वास नहीं होता था कि यह वही घर है जिसे संजोने में उस ने अपनी जिंदगी के बेहतरीन साल दिए थे. ये वही बेटियां हैं जिन के होने के बाद उसे घरनिकाला मिल गया था और यह वही राजीव है जिस ने पहल कर के उसे उस तनावभरे माहौल से बाहर निकाला था.

समय अपनी गति से चल रहा था, बस, विचारों की गति रुक गई थी. किसी की बुरी नजर लग गई थी अचला की गृहस्थी को. काफी जद्दोजेहद के बाद आखिर हिम्मत कर के अचला ने अपनी बात राजीव के सामने रखी.

‘राजीव, फ्लैट जब से खरीदा है, बंद पड़ा हुआ है. प्रीति और नीति अब कभीकभी आती हैं. मैं सोच रही हूं कि फ्लैट पर जा कर ही रह लेती हूं. वहीं अपना बुटीक शुरू कर लूंगी. आप महीने व दोमहीने में आते रहना. आखिर जाना तो वहीं पर है.’

कई दिनों तक राजीव ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर एक दिन बताया कि छुट्टी ले कर साथ ही चलेंगे. वहां थोड़ीबहुत व्यवस्था हो जाएगी तो वापस आ जाएंगे. पहले मां का आशीर्वाद लेने की बात हुई तो अचला ससुराल जाने को तैयार हो गई. एक दिन रुकने के बाद अचला ने पूछा,
‘राजीव, कब चलना है?’

पूछते ही राजीव तुरंत जा कर रिक्शा बुला लाए और सामान ले जा कर उस में रखने लगे. चायनाश्ता कुछ भी नहीं. जेठानी रसोई के दरवाजे पर खड़ी मुसकरा रही थी. सास अचला को चायनाश्ता बनाने के लिए बोल रही थी परंतु जेठानी रसोई के दरवाजे के बीच में दोनों ओर चौखट पर हाथ रख कर खड़ी थी.
‘चलो, बैठो रिक्शा में. देर हो रही है.’

राजीव की आवाज में गुस्सा था. बस में बैठ कर राजीव थोड़ा सामान्य हुए लेकिन तब तक अचला के मनमस्तिष्क पर तनाव हावी हो चुका था. फ्लैट पर पहुंच कर भी जाने क्याक्या बड़बड़ाती रही. जो सोचा था उस का उलटा ही हुआ. इतने वर्षों तक राजीव के साथ मिल कर अपना घर बसाने का जो सपना देखा था वह टूट कर बिखर चुका था. फ्लैट की सफाई हुई. सामान भी खरीदा गया. खाना भी बना और खाया भी लेकिन वह बात नहीं थी. अपने घर का अपनापन नहीं था. घर को सजाने की योजनाएं नहीं थीं. बस, एक दिनचर्या पूरी हो रही थी.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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बैंक डूब जाए तो कितना पैसा मिलेगा आप को

अगर कोई बैंक डूब जाए, दिवालिया हो जाए तो उस में जमा रकम खातेदार को कैसे और कितनी मिलेगी, यह सवाल हर जमाकर्ता के मन में जवाब तलाशता रहता है. केंद्र सरकार डिपौजिट इंश्योरैंस एंड क्रैडिट गारंटी (डीआईसीजीसी) एक्ट के तहत इस सवाल का समाधान करती है. इस के अनुसार, अगर वह बैंक दिवालिया हो जाए जिस में खातेदार का बैंक खाता है तो बैंक के दिवालिया होने के 90 दिनों के अंदर खाते का भुगतान हो जाता है. बैंक 45 दिनों में डीआईसीजीसी को खाताधारकों का पूरा विवरण देता है. इस के बाद 45 दिनों में पैसे का भुगतान कर दिया जाता है. इस तरह से 90 दिनों में यह काम होता है.

सवाल उठता है कि कितना पैसा भुगतान किया जाता है? यदि बैंक में खाताधारक के 10 लाख रुपए जमा हैं और बैंक डूब गया तो जमाकर्ता को केवल 5 लाख रुपए ही बीमा के रूप में मिलेंगे. भारत में जिस तरह से बैंकों को आपस में मर्ज किया गया उस का कारण था कि वे दिवालिया न हों. इस के बाद भी न्यू इंडिया कोऔपरेटिव बैंक, पीएमसी या दूसरे बैंकों में घोटाले बताते हैं कि बैंक कभी भी दिवालिया हो सकते हैं. इस दशा में खाताधारक को अधिक से अधिक 5 लाख रुपए तक की बीमा राशि मिलेगी.

पहले यह राशि केवल एक लाख रुपए थी. इस को बढ़ा कर 5 लाख रुपए कर दिया गया है. बैंकिंग सैक्टर को मजबूत करने और जनता का भरोसा बढ़ाने के लिए जरूरी है कि इस राशि को बढ़ाया जाए, जिस से जमाकर्ता को उस का पूरा पैसा मिल सके. तब ही वह बैंक पर पूरा भरोसा कर पाएगा और देश का बैंकिंग सैक्टर मजबूत हो सकेगा.

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एक दिन रुक कर राजीव वापस लौट गए. अचला का आरक्षण 15 दिन बाद का था. खाली फ्लैट, न सामान था, न टीवी. बस, मोबाइल ही था उस के अकेलेपन का साथी.

राजीव का एक बार फोन आया लेकिन बात करने का वही तरीका. अचला ने फिर राजीव को फोन नहीं किया. इतने सालों में पहली बार हिम्मत जुटाई थी इस कदम को उठाने की. जो ठीक से बात न करे उसे महत्त्व न देने की. ननद का एक दिन फोन आया लेकिन उसे भी समय नहीं था कुछ दिन आ कर रुकने का. बच्चों के पास मैसेज किया. ननद की बेटी को भी मैसेज किया. सभी व्यस्त थे. अचला से आ कर मिलने का उस का सहारा बनने का किसी के पास समय ही नहीं था.

जाने की तिथि नजदीक आतेआते अचला की हिम्मत टूट गई. उस ने राजीव को मैसेज किया कि फ्लैट को वापस किराए पर चढ़ाना ही ठीक रहेगा. यहां आ कर अकेले पड़ने से बेहतर है वहीं पर किसी काम में मन लगा लेना.

मांबाप होते तो शायद स्थिति उस के पक्ष में जा सकती थी. उन के रहते हुए राजीव भी पूरी तरह अपने घरवालों के नियंत्रण में नहीं आए थे. सामान बांध कर निर्धारित तिथि पर अचला बसस्टैंड पहुंच कर बस के आने का इंतजार कर रही थी. तभी बस सामने से स्टैंड में घुसती हुई नजर आई. चाय का कप डस्टबिन में फेंक कर अचला ने अपने दोनों बैग दोनों हाथों में उठा लिए.

‘‘मामी, कहां जा रही हो? सुबह से न तो फोन उठा रही हो न मैसेज देख रही हो.’’
ननद की बेटी कृति की आवाज थी. अचला ने आश्चर्य से पीछे मुड़ कर देखा तो बेटी सान्या भी बैग हाथ में ले कर खड़ी हुई थी.
‘‘मां, हम दोनों पर आप को विश्वास नहीं था क्या?’’
अचला उस के प्रश्न पर हैरान थी. जवाब देना चाहती थी लेकिन मुंह से कुछ निकल ही नहीं पाया. बस स्टैंड पर आ कर रुक गई. सभी यात्री तेजी से अपना सामान उठा कर बस में बैठने को दौड़ पड़े.

‘‘हमारे देश में न, लोगों को सब्र ही नहीं है. सीट बुक है लेकिन फिर भी दौड़ना है.’’
सान्या गुस्से में बड़बड़ा रही थी. अचला के दोनों बैग उन दोनों ने उठा लिए.
‘‘मामी, वापस फ्लैट पर चल रहे हैं हम. आप की सीट कैंसिल करवा दी है. अब विरोध मत करना. आप की इच्छा को ऊपर रखने के लिए हमें कितनी लड़ाई लड़नी पड़ी, आप को बता नहीं सकते.’’
अचला को सम झ नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है?
‘‘मां, कृति सही बोल रही है. आप चलो, अब. बहुत भूख लगी है. हम दोनों ने कल शाम से कुछ नहीं खाया है आप के हाथ का खाना खाने के लिए.’’

सान्या ने एक हाथ से अचला का हाथ पकड़ लिया. अचला उन दोनों के आने से हैरान थी लेकिन खुद को खुश होने से नहीं रोक पा रही थी.
‘‘तुम लोग तो बोल रहे थे मैं ही जिद पर अड़ी हूं. मु झे सम झौता कर लेना चाहिए, फिर अचानक कैसे?’’

कृति ने जवाब दिया, ‘‘मामी, वह सब मम्मी और मामा के कहने से बोला था. उन्होंने ही आप को सम झाने के लिए कहा था लेकिन हम ने उन्हें ही सम झा दिया है कि आप को अपनी मरजी से, अपने फ्लैट में आ कर रहने का पूरा हक है. बड़े मामा और नानी को इस से दिक्कत होती है तो वह उन की समस्या है, आप की नहीं.’’
सान्या ने भी उस की बात का समर्थन किया.

‘‘उन लोगों को इतनी ही समाज की परवा है तो आ कर रहें आप के साथ. क्यों पापा को भड़काते रहते हैं. समाज के नाम पर खुद को सही साबित करने पर तुले हुए हैं, हां.’’
तभी सामने से ईरिक्शा आता दिखाई दिया.

ईरिक्शा में बैठ कर तीनों फ्लैट में वापस आ गईं. ऊपर से चाबी ले कर दरवाजा खोल दिया कृति ने. सान्या ने सामान उठा कर अंदर रखा.
‘‘बच्चो, नहा कर आओ, तब तक चाय बना देती हूं.’’
‘‘और पकौड़े भी,’’ अचला की बात का जवाब दे कर कृति बाथरूम में चली गई.
पुरानी पीढ़ी से अचला हार गई थी. नई पीढ़ी की लड़कियों ने उसे जिता दिया था.
‘‘मैं ने तबादले की अर्जी लगा दी है. उम्मीद है इस बार मिल ही जाएगा. तब तक तुम अकेले रह कर अपना काम शुरू कर सकती हो.’’
राजीव भी ऊपर आ गए थे. अचला ने दोनों बच्चियों को गले से लगा लिया. जो वह नहीं कर पाई, उन दोनों ने मिल कर कर दिखाया था.
‘‘आखिर, आप को बात सम झ में आ ही गई,’’ अचला ने शिकायत करते हुए कहा.
‘‘अब तुम ने अपनी सोच बच्चों के दिमाग में भी डाल दी है तो मैं अकेला क्या कर सकता था. समाज के नाम का झंडा अकेले कैसे फहरा सकता था. इसलिए, बच्चों की बात मान ली. अब तुम जीतीं, मैं हारा.’’

कृति और सान्या तालियां बजा कर हंस रही थीं. अचला समझने की कोशिश कर रही थी कि क्या हुआ, कैसे हुआ.

Hindi Story : तमाचा – आत्मग्लानि के बोझ तले दबे व्यक्ति की कथा

Hindi Story : इंसान अपने कर्मों की वजह से ऊंचा बनता है. मयंक को आज लग रहा था कि पढ़ालिखा और साहबबाबू होने के बावजूद अपने कर्मों और नीयत की वजह से वह अनपढ़जाहिल रिकशेवाले के सामने बौना है.

मयंक की नजर जैसे ही हौल में प्रविष्ट होते लालजी प्रसाद पर पड़ी तो उस की बांछें खिल गईं. तकरीबन 60 वर्षीय लालजी प्रसाद अपना प्रौविडैंट फंड निकलवाने के लिए पिछले 6 महीनों में पंद्रह से बीस चक्कर प्रौविडैंट फंड औफिस के लगा चुके थे. मयंक था कि हर बार कोई न कोई अड़ंगा लगा ही देता था और साथ ही, यह इशारा भी कर देता था कि अगर सेवापानी नहीं करोगे तो इसी तरह चक्कर ही लगाते रह जाओगे, फंड नहीं मिलेगा. लेकिन शायद या तो लालजी प्रसाद इतने सीधे थे कि मयंक का इशारा नहीं पकड़ पाते थे या फिर जानबूझ कर अनजान बने हुए थे. कारण कुछ भी हो, बात वहीं की वहीं रहती थी और मयंक झुंझला कर रह जाता था.

लालजी प्रसाद के इस रवैए से परेशान हो कर, उन की लास्ट विजिट पर मयंक ने उन से साफसाफ ही कह दिया कि, ‘अंकलजी, आप बात को समझ क्यों नहीं रहे हैं, बारबार चक्कर पर चक्कर लगाने से आप का काम नहीं होने वाला क्योंकि इस औफिस का तो सीधा सा सिद्धांत है कि फंड का 10 प्रतिशत दो और फंड लो. मैं पिछले 5-6 महीने से यही बात आप को बारबार इशारों में समझने की कोशिश कर रहा हूं लेकिन आप हैं कि समझने का नाम ही नहीं ले रहे. सो, मुझे लगा कि आप को खुल कर बता देना ही उचित होगा, बाकी आगे आप की मरजी.’

कहने को तो मयंक ने साफसाफ कह दिया था लेकिन साथ ही उस के मन में यह संशय भी था कि कहीं ऐसा न हो कि उस की बात सुन कर लालजी प्रसाद बुरी तरह से बिफर न जाएं या कोई सीन न क्रिएट कर दें जिस की वजह से लेने के देने पड़ जाएं. लेकिन उस समय उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब उस ने लालजी प्रसाद को कहते सुना, ‘अगर यही बात थी बेटा तो पहले बता देते, बेकार में इतना वक्त तो न बरबाद होता. खैर, अब तुम ने जब साफसाफ समझ ही दिया है तो अगली बार मैं तुम्हें शिकायत का मौका नहीं दूंगा.’ यह कह कर लालजी प्रसाद उस दिन औफिस से चले गए.

उस दिन के बाद से आज 10 दिनों बाद फिर लालजी प्रसाद के कदम औफिस में पड़े थे और उन पर नजर पड़ते ही उन का पिछला कथन मयंक के कानों में गूंज गया था. इसीलिए उन्हें देखते ही उस का मन खुशी से झूम उठा था कि देर से ही सही आखिरकार उस का बकरा हलाल होने को तैयार हो कर तो आया.

लेकिन उस के भीतर की खुशी कहीं उस के चेहरे से न उजागर हो जाए, इस के लिए लालजी प्रसाद पर नजर पड़ते ही न सिर्फ उस ने अपनी नजरें उन से हटा कर सामने टेबल पर रखी कंप्यूटर स्क्रीन पर जमा दीं बल्कि अपने चेहरे पर ऐसे भाव भी ले आया जैसे काम के बोझ के मारे उसे सिर उठाने की भी फुरसत न हो और उसे पता ही न हो कि औफिस में कौन आया और कौन गया.

मयंक की टेबल के नजदीक पहुंच कर लालजी प्रसाद ठिठक कर रुक गए. उन्हें उम्मीद थी कि उन के कदमों की पदचाप जरूर मयंक के कानों में पड़ी होगी, लिहाजा, वे उम्मीद कर रहे थे कि मयंक सिर उठा कर देखेगा कि कौन उस के पास आ कर खड़ा हो गया है. लेकिन मयंक ने भी ठान लिया था कि जब तक लालजी प्रसाद खुद नहीं बोलेंगे, तब तक वह यों ही कंप्यूटर स्क्रीन पर नजरें गड़ाए रखेगा जैसे उसे पता ही न हो कि कोई उस की टेबल के पास खड़ा भी है.

कुछ पल यों ही बीते और फिर आखिरकार लालजी प्रसाद को ही मयंक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हलके से खांसना पड़ा. उन के हलके से खांसते ही मयंक ने तपाक से अपनी नजरें कंप्यूटर स्क्रीन से हटा कर सामने कीं और लालजी प्रसाद को देखते हुए यों आश्चर्यचकित हो कर दिखाया जैसे लालजी प्रसाद को उस ने पहली बार देखा हो. ‘‘अरे, अंकलजी आप, कब आए?’’

‘‘बस, थोड़ी देर पहले ही,’’ अपने होंठों पर एक फीकी सी मुसकान बिखेरते हुए लालजी प्रसाद ने कहा, ‘‘लगता है आज कुछ ज्यादा ही बिजी हो?’’

‘‘अरे अंकलजी, आज क्या और कल क्या, यहां तो हर रोज काम का इतना बोझ रहता है कि क्या बताएं,’’ अपने चेहरे पर थकान के भाव लाते हुए मयंक ने अपनी टेबल के सामने पड़ी कुरसियों पर बैठने का इशारा करते हुए आगे कहा, ‘‘यह सब तो खैर चलता ही रहेगा. आप बताइए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’

‘‘हमारी तो बस एक ही सेवा है और वह तुम अच्छी तरह से जानते हो,’’ लालजी प्रसाद ने एक कुरसी पर बैठते हुए गंभीर स्वर में कहा, ‘‘और अब तो मैं सेवा शुल्क भी देने को तैयार हूं, लिहाजा तुम्हें सेवा करने में कोई परेशानी भी नहीं होनी चाहिए.’’

लालजी प्रसाद की बात सुन कर पलभर को तो मयंक सकपका गया लेकिन फिर तत्काल अपने को संभालता हुआ ऐसे स्वर में बोला जैसे बड़े ही भारीमन से यह बात कह रहा हो, ‘‘आप भी कैसी बात कर रहे हैं अंकलजी. मेरी तो दिली इच्छा होती है कि मैं निश्च्छल भाव से हर किसी की सेवा करूं लेकिन हम भी क्या करें, हमारी भी तो मजबूरी है. अब दफ्तर का जो सिस्टम है, हमें तो उसी के हिसाब से चलना पड़ेगा न.’’

‘‘बात तो तुम्हारी ठीक है, दफ्तर के सिस्टम को तो तुम इग्नोर नहीं कर सकते,’’ लालजी प्रसाद ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘खैर, तुम मुझे बताओ कि मुझे कितना देना है?’’

‘‘बताया तो था, फंड का 10 प्रतिशत,’’ मयंक ने तत्परता से कहा, ‘‘आप मुझे अपना अकाउंट नंबर बताइए. मैं चेक कर के बताता हूं कि आप का कितना बनता है.’’

लालजी प्रसाद द्वारा अपना अकाउंट नंबर बताते ही मयंक की उंगलियां कीबोर्ड पर खेलने लगीं और कुछ ही सैकंड के बाद उस ने कहा, ‘‘सबकुछ मिला कर आप का फंड बनता है 13 लाख रुपए और इस हिसाब से आप को देना है 1.3 लाख रुपए.’’

‘‘यह तो बहुत ज्यादा है,’’ लालजी प्रसाद के स्वर में निराशा साफ झलक रही थी.
‘‘आप फंड भी तो देखिए, 13 लाख रुपए.’’
‘‘बेटा, वह मेरी मेहनत की कमाई है, कोई सरकारी खैरात नहीं है,’’ मयंक की बात सुन कर थोड़ा उत्तेजित हो उठे थे लालजी प्रसाद, ‘‘हर महीने की तनख्वाह में से पैसे कटे हैं तो यह फंड जुटा है और बची हुई तनख्वाह से हम कैसे गुजारा करते थे, यह हम ही जानते हैं.’’

मयंक को भी एहसास हुआ कि वह कुछ गलत बोल गया है, लिहाजा, अपनी भूल को सुधारने की चेष्टा करते हुए वह बोल उठा, ‘‘मेरा मतलब यह नहीं था अंकलजी. खैर, अब आप यह बताइए कि करना क्या है?’’

‘‘1 लाख 30 हजार रुपए की रकम तो बहुत ज्यादा है,’’ लालजी प्रसाद ने निराशाजनक स्वर में कहा, ‘‘मैं तो ज्यादा से ज्यादा 30-40 हजार रुपए देने की उम्मीद कर रहा था.’’

‘‘अब आप मजाक कर रहे हो अंकलजी,’’ लालजी प्रसाद की बात सुनते ही मयंक ने हंसते हुए कहा, ‘‘भले ही आप को एक्जैक्ट फिगर न पता हो लेकिन अंदाजा तो होगा ही कि आप का फंड कितना बनता है और 10 प्रतिशत की बात मैं आप को बता ही चुका था. इस के बावजूद अगर आप 30-40 हजार की बात सोच रहे थे तो फिर मैं क्या ही कहूं.’’

‘‘देखो भाई, मैं अपनी क्षमता आप को बता चुका हूं और ज्यादा से ज्यादा मैं इस में 5-10 हजार और जोड़ सकता हूं. इस से आगे मेरी हिम्मत नहीं है,’’ दोटूक स्वर में कहा लालजी प्रसाद ने.

पिछली बार जब मयंक ने लालजी प्रसाद से दस प्रतिशत वाली बात कही थी तो उसे अच्छी तरह से पता था कि लालजी प्रसाद का टोटल फंड कितना है. मयंक इस खेल का पुराना खिलाड़ी था और बखूबी जानता था कि ऐसे मामलों में बार्गेनिंग होती ही है, इसलिए उस ने जानबूझ कर लालजी प्रसाद से 10 प्रतिशत की मांग की थी क्योंकि वह जानता था कि 10 प्रतिशत मागूंगा तो 5-6 प्रतिशत मिलेगा.

अब जब लालजी प्रसाद ने अपनी बात दोटूक कह दी तो मयंक समझ गया कि अब डील फाइनल करने का मौका आ चुका है. लिहाजा, उस ने भी अपने स्वर में थोड़ी गंभीरता डालते हुए कहा, ‘‘देखिए अंकलजी, जो रकम आप बोल रहे हैं उस में तो काम होने से रहा क्योंकि हमारे ऊपर भी अधिकारी हैं और हमें उन को भी जवाब देना होता है, लेकिन चूंकि आप 5-6 महीने से परेशान हो रहे हैं, इसलिए मैं ज्यादा से ज्यादा यह कर सकता हूं कि ऊपर के 30 हजार रुपए छोड़ दूं.’’

यह सुनते ही लालजी प्रसाद समझ गए कि अभी भी बार्गेनिंग की गुंजाइश बनी हुई है, लिहाजा उन्होंने भी अपना दांव चलाते हुए कहा, ‘‘भाई, मैं ज्यादा से ज्यादा 60-65 कर सकता हूं. अगर इतने में तुम लोग तैयार, तो ठीक, वरना…’’ जानबूझ कर उन्होंने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

लालजी प्रसाद की बात सुनते ही मयंक समझ गया कि अब बात फाइनल होने वाली है, लिहाजा उस ने कहा, ‘‘अंकलजी, केवल एक बात 75 हजार, हां या न?’’

लालजी प्रसाद भी समझ चुके थे कि रकम अब इस से ज्यादा और कम नहीं हो सकती है, लिहाजा उन्होंने भी कह दिया, ‘‘रकम तो अभी भी ज्यादा है लेकिन क्या करें, मजबूरी है, जैसी तुम्हारी मरजी. 75 फाइनल.’’

लालजी प्रसाद के फाइनल करते ही मयंक ने टेबल की साइड में रखी फाइलों के बंडल में से एक फाइल निकालते हुए कहा, ‘‘आप की फाइल तैयार है, केवल मेरे साइन होने बाकी हैं. इधर आप ने अपना काम किया और उधर मैं ने फाइल पर साइन करे और 10 मिनट के अंदर रकम आप के बैंक खाते में.’’

‘‘लेकिन अभी मेरे पास तो इतने पैसे नहीं हैं,’’ मयंक के बात खत्म करते ही संकोचपूर्ण स्वर में कहा लालजी प्रसाद ने, ‘‘जैसा कि मैं ने पहले ही कहा था कि मुझे 25-30 की उम्मीद थी. लिहाजा, फिलहाल मेरे पास इतने ही पैसे हैं और मेरा एटीएम कार्ड भी घर पर ही छूट गया है.’’

लालजी प्रसाद की बात सुनते ही मयंक तिलमिला उठा. उसे लगा जैसे उस के मुंह में जाते निवाले को लालजी प्रसाद ने छीन लिया हो. लिहाजा, न चाहते हुए भी उस के स्वर में तल्खी सी आ गई, ‘‘अब आप ही बताइए कि मैं क्या करूं? पैसे आप के पास हैं नहीं और एटीएम आप लाए नहीं तो फिर कैसे बनेगा काम?’’
‘‘अगर एतराज न हो तो एक बात कहूं?’’ लालजी प्रसाद ने हिचकते हुए कहा.
‘‘कहिए.’’
‘‘बैंक की ब्रांच और एटीएम मेरे घर के पास ही हैं. मैं अभी घर जा कर पैसों का इंतजाम कर लेता हूं और अगर आप बुरा न मानें और आप को परेशानी न हो तो आप शाम को औफिस के बाद घर जाते हुए पैसे मेरे घर से उठा लीजिए,’’ लालजी प्रसाद ने डरतेडरते अपना प्रस्ताव रखा.

औफिस के रिकौर्ड में लालजी प्रसाद का जो एड्रैस लिखा था वह मयंक के घर के रास्ते में ही पड़ता था. लिहाजा, कुछ क्षण तक लालजी प्रसाद के प्रस्ताव पर विचार करने के बाद मयंक ने कहा, ‘‘आप उसी एड्रैस पर रहते हैं जो इस औफिस के रिकौर्ड में दर्ज है?’’
‘‘जी हां.’’

‘‘ठीक है फिर, मैं शाम को आप से आप के घर पर मिलता हूं,’’ मयंक ने प्रोग्राम फाइनल करते हुए कहा, ‘‘मैं शाम को 7 बजे के आसपास आप के पास पहुंचता हूं और अगर प्रोग्राम में कुछ ऊपरनीचे होता है तो मैं आप को फोन कर लूंगा. हम दोनों के पास एकदूसरे के मोबाइल नंबर तो हैं ही.’’
‘‘ठीक है फिर, तो शाम को मिलते हैं,’’ कहते हुए लालजी प्रसाद उठे और मयंक का अभिवादन कर के बाहर की ओर चल दिए.

लालजी प्रसाद के बाहर जाते ही मयंक के पास वाली सीट पर बैठने वाले शर्माजी बोल उठे, ‘‘बधाई हो मयंक बाबू. मान गए आप को भी. भले ही 5-6 महीने लग गए लेकिन आप भी बकरा हलाल कर के ही माने.’’

‘‘भाई क्या करें, अगर बकरा हलाल करने से चूकेंगे तो फिर सूखी दालरोटी पर ही पलेंगे,’’ मयंक ने हंसते हुए जवाब दिया, ‘‘और अगर सूखी दालरोटी पर ही पलना है तो लानत है ऐसी सरकारी नौकरी पर.’’

‘‘सही कहते हो भाई,’’ शर्माजी ने भी हंसते हुए मयंक का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘तो फिर इसी बात पर हो जाए आज शाम को पार्टी?’’
‘‘अरे आज नहीं, कल.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘भाई, अभी माल कहां आया है,’’ मयंक ने खुलासा करते हुए शर्माजी को पूरी बात बताई.
मयंक की बात सुनते ही शर्माजी गंभीर होते हुए बोले, ‘‘भाई, सतर्क रहना, किसी लफड़े में न फंस जाना.’’
‘‘कैसा लफड़ा?’’ चौंक उठा मयंक.
‘‘भाई, न्यूज में स्टिंग के बारे में तो देखतेसुनते ही होगे,’’ शर्माजी ने अपनी शंका व्यक्त की, ‘‘कहीं ऐसा न हो कि वह अपने घर में पूरा जाल फैला कर बैठा हो और आप रंगेहाथ धर लिए जाएं.’’

‘‘सतर्क करने के लिए आप का धन्यवाद शर्माजी, लेकिन चिंता मत करो, ऐसा कुछ नहीं होगा,’’ मयंक ने पूरे विश्वास के साथ कहा, ‘‘मैं ने कोई कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं. मैं ने कोई ऐसे ही हामी नहीं भर दी है. वह गांधीनगर में स्टेट बैंक के पास रहता है और मेरा एक रिश्तेदार भी उस के घर के आसपास रहता है. मैं सीधा अपने रिश्तेदार के घर पर जाऊंगा और लालजी प्रसाद को वहीं बुलवाऊंगा और जो भी बातचीत व लेनदेन होगा, सब उसी रिश्तेदार के घर पर होगा.’’

‘‘फिर ठीक है,’’ मयंक की बात सुन कर शर्माजी कुछ आश्वस्त हुए, ‘‘लेकिन फिर भी सतर्क रहना, आजकल मोबाइल से भी बहुतकुछ हो जाता है.’’
‘‘चिंता मत करो शर्माजी, मैं पूरी तरह सतर्क रहूंगा.’’

उस समय शाम के 7 बज रहे थे जब मयंक ने गांधीनगर मैट्रो स्टेशन के बाहर कदम रखा. भले ही मैट्रो स्टेशन का नाम गांधीनगर था लेकिन वास्तव में गांधीनगर उस मैट्रो स्टेशन से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर था और वहां के लिए मैट्रो स्टेशन के बाहर से ही रिक्शे चलते थे. अभी थोड़ी देर पहले ही बारिश हो कर हटी थी और आसमान में अभी भी काले बादलों का जमघट था. वातावरण में जबरदस्त उमस थी और हवा बिलकुल बंद थी. साफ जाहिर था कि थोड़ी ही देर में बारिश फिर से शुरू हो सकती थी.

स्टेशन के बाहर ही रिक्शे वालों का स्टैंड था जहां 8-10 रिक्शेवाले मौजूद थे और आवाज लगालगा कर सवारियों को बुला रहे थे. मयंक सीधा उस रिक्शेवाले के पास पंहुचा जिस का पहला नंबर था और उस से पूछा, ‘‘हां भाई, चलोगे
गांधीनगर, स्टेट बैंक के पास?’’
‘‘चलेंगे साहब.’’
‘‘कितने पैसे?’’
‘‘जी, 50 रुपए.’’
‘‘पागल हो गए हो क्या?’’ 50 रुपए की बात सुनते ही मयंक भड़क उठा, ‘‘रोज के आनेजाने वाले हैं. गांधीनगर में चाहे कहीं भी जाओ, 20 रुपए सवारी का खुला रेट है. तुम में या तुम्हारे रिक्शे में ऐसे कौन से चारचांद लगे हैं जो तुम 50 रुपए मांग रहे हो?’’

‘‘आप की बात ठीक है साहब कि 20 रुपए सवारी का खुला रेट है लेकिन अभी थोड़ी देर पहले बारिश हो कर हटी है और आप को तो पता ही होगा कि जरा सी बारिश होते ही गांधीनगर जाने वाली सड़क पर घुटनेघुटने पानी भर जाता है और ऐसे में रिक्शा चलाना कितना मुश्किल होता है, आप समझ सकते हैं.’’
‘‘ठीक है लेकिन 50 रुपए तो बहुत ज्यादा हैं.’’
‘‘मरजी है आप की साहबजी,’’ यह कहने के साथ ही रिक्शेवाले ने बातचीत का अंत कर दिया.

मयंक ने बाकी रिक्शेवालों को टटोला लेकिन नतीजा शून्य ही रहा. जहां कुछ रिक्शेवालों ने जाने से साफसाफ मना कर दिया वहीं जो रिक्शेवाले जाने को तैयार भी हुए वे 50 रुपए से ज्यादा मांग रहे थे. जब कोई रिक्शेवाला तैयार नहीं हुआ तो मयंक की समझ में आया कि पहले रिक्शेवाले को ठुकरा कर उस ने गलती कर दी है.

बाकी रिक्शेवालों से बात करता हुआ मयंक थोड़ा आगे तक आ चुका था. उस ने वहीं से मुड़ कर देखा. पहले रिक्शेवाले को अभी तक सवारी नहीं मिली थी, लेकिन उस से फिर से बात करने पर मयंक को अपनी हेठी महसूस हो रही थी, इसलिए वह वहीं एक ओर खड़ा हो कर सोच ही रहा था कि क्या करे कि पहले रिक्शेवाला उस के पास आ कर खड़ा हो गया और बोला, ‘‘चलिए साहबजी, आप को छोड़ ही देते हैं, आप 40 रुपए दे देना.’’

मयंक तो मौके का इंतजार कर ही रहा था, लिहाजा वह लपक कर रिक्शे में बैठता हुआ बोला, ‘‘नहींनहीं भई, कोई बात नहीं, हम 50 ही दे देंगे.’’
मयंक के बैठते ही रिक्शेवाले ने अपने पूरे शरीर का जोर लगा कर रिक्शे को गति दे दी.

‘‘ऐसा है बाबूजी कि हम तो खुद ही किसी सवारी से ज्यादा पैसा नहीं लेना चाहते हैं लेकिन क्या करें बारिश में ऐसी मजबूरी हो जाती है कि रेट बढ़ाने पर मजबूर हो जाते हैं,’’ रिक्शे के गति पकड़ते ही रिक्शेवाले ने बिना मांगे अपनी सफाई देनी शुरू कर दी, ‘‘अभी आप वहां पहुंचेंगे तो देखिएगा कि कितना बुरा हाल है. हमें पैदल रिक्शा खींचना पड़ेगा तब कहीं जा कर आप अपनी मंजिल तक पहुंचेंगे.’’

मयंक का दिमाग तो लालजी प्रसाद से मिलने वाली रकम और औफिस के साथियों के साथ उस के बंटवारे के हिसाबकिताब में उलझ था, इसलिए उस का ध्यान रिक्शवाले की बातों की तरफ नहीं था और वह अनमने भाव से केवल ‘हूं-हूं’ कर रहा था. जबकि इन सब से बेखबर रिक्शेवाला पूरी तन्मयता से अपनी सफाई दिए जा रहा था.

थोड़ी ही देर में स्टेट बैंक का बोर्ड चमकने लगा. जैसेजैसे रिक्शा आगे बढ़ रहा था वैसेवैसे बैंक की बिल्डिंग नजदीक आती जा रही थी. अभी तक पूरे रास्ते में पानी के हलकेफुलके जमाव के अलावा ऐसा कोई जलभराव नजर नहीं आया जिस का कि अंदेशा रिक्शेवाले जाहिर कर रहे थे. लिहाजा, रिक्शा बड़ी आसानी से स्टेट बैंक तक पहुंच गया. अपने ही हिसाबकिताब में उलझे हुए मयंक को पता ही नहीं चला कि स्टेट बैंक आ चुका है. वह तो तब चौंका जब उस के कानों से रिक्शेवाले का स्वर टकराया, ‘‘बाबूजी, स्टेट बैंक आ गया. अब बताइए किधर जाना है?’’

‘‘ओह, स्टेट बैंक आ भी गया.’’ रिक्शेवाले की आवाज सुनते ही मयंक ने चौंक कर अपने इधरउधर देखा तो उसे पता चला कि वह कहां पहुंच चुका है.
‘‘अब बताइए बाबूजी, आगे किधर जाना है?’’ रिक्शवाले ने अपना प्रश्न दोहराया.
मयंक ने कुछ पल सोचा और फिर बोला, ‘‘ऐसा है, तुम मुझे यहीं उतार दो.’’
‘‘ठीक है बाबूजी,’’ कहते हुए रिक्शेवाले ने रिक्शा साइड में लगा कर रोक दिया.

रिक्शे से उतर कर मयंक ने जेब से पर्स निकाला और सौ रुपए का एक नोट निकाल कर रिक्शवाले की ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘लो, पैसे काट लो.’’

सौ का नोट देख कर रिक्शेवाले ने अपने कुरते की जेब से पैसे निकाले और बाकी पैसे वापस करने के लिए गिनने लगा.

गिनने के बाद उस ने पैसे मयंक को दे दिए और मयंक से सौ का नोट ले कर अपनी जेब में रख लिया व रिक्शे को वापस मोड़ने लगा.

मयंक ने जैसे ही रिक्शेवाले से मिले पैसे गिने तो वह चौंक गया और हंसते हुए रिक्शेवाले से बोला, ‘‘क्यों भई,
हर सवारी के साथ ऐसा ही करते हो क्या?’’
‘‘क्या हुआ बाबूजी?’’ मयंक की बात सुन कर आगे बढ़ने को तत्पर रिक्शेवाले ने रिक्शा रोक कर मयंक की ओर सवालिया नजरों से देखते हुए पूछा.
‘‘भाई, तुम ने मुझे 50 के बजाय 80 रुपए वापस कर दिए हैं,’’ मयंक ने हंसते हुए अपनी बात जारी रखी, ‘‘और अगर तुम ऐसा हर सवारी के साथ करते हो तो चल लिया तुम्हारा घर. पाल लिया तुम ने अपना और अपने बीवीबच्चों का पेट. लो, पकड़ो बाकी के पैसे,’’ मयंक ने 30 रुपए उस की ओर बढ़ाए.
‘‘नहीं बाबूजी, हम ने सही पैसे काटे हैं,’’ मयंक की बात सुन कर रिक्शेवाले ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘50 रुपए तो हम ने इसलिए मांगे थे कि रास्ते में पानी भरे होने की उम्मीद थी लेकिन जब रास्ते में पानी ही नहीं भरा है तो काहे के ज्यादा पैसे? सूखे रास्ते पर तो हिसाब से 20 ही रुपए बनते हैं न.’’

रिक्शवाले के शब्दों ने मानो मयंक को झझकर कर जगा दिया. एकाएक वह अपनेआप को उस रिक्शवाले के सामने बहुत बौना महसूस करने लगा. रिक्शेवाले के शब्दों से अपने भीतर पैदा हुई आत्मग्लानि से उबरने के प्रयास में उस ने कहा, ‘‘पानी नहीं भरा हुआ था तो क्या हुआ, हमारीतुम्हारी बात तो 50 रुपए की हुई थी न, इसलिए लो ये पैसे रख लो.’’

‘‘नहीं बाबूजी, हम ये पैसे नहीं ले सकते. हमारी मेहनत के केवल 20 रुपए बनते हैं और वह हम ले चुके हैं,’’ हाथ जोड़ कर वह आगे बोला, ‘‘हम तो अनपढ़ व जाहिल हैं लेकिन आप तो काफी पढ़ेलिखे बाबूसाहब हैं. आप तो हम से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से समझते होंगे कि जो बरकत और सुकून मेहनत की कमाई में है वह हराम की कमाई में नहीं है और ये 30 रुपए हमारे लिए हराम की कमाई होंगे जिस के कि हम कतई तलबगार नहीं हैं.’’ और अपनी बात खत्म करने के साथ ही रिक्शेवाला वहां से चल दिया.

रिक्शेवाले के मुंह से निकला एकएक शब्द मयंक को अपने गालों पर तमाचों की तरह महसूस हो रहा था. उसे लग रहा था कि जैसे रिक्शेवाले ने अपने शब्दों से उसे भरे बाजार पूरी तरह से नंगा कर दिया हो. उस की समझ में नहीं आया कि वह क्या कहे. वह किंकर्तव्यविमूढ़ सा दूर जाते रिक्शेवाले को देखता रह गया.

वह महसूस कर रहा था कि इस रिक्शवाले के मुकाबले वह कितना घटिया और नीच इंसान है. एक तरफ यह रिक्शेवाला है जो तय होने के वावजूद ज्यादा पैसे लेने के लिए इसलिए तैयार नहीं है क्योंकि रास्ते में पानी नहीं भरा था और दूसरी तरफ वह है जो अपनी पोजीशन का नाजायज फायदा उठा कर लोगों की जेबों से जबरदस्ती पैसे निकाल लेता है. एकएक कर के पिछले तकरीबन 10 वर्षों की उस की नौकरी का एकएक लमहा चलचित्र की भांति उस की आंखों के सामने से गुजरने लगा था.

वह देख रहा था कि कैसे लोग उस के सामने अपनी बेटी की शादी, अपना इलाज, पैसे की कमी की वजह से जीवनयापन में आ रही परेशानियों तथा और भी न जाने किनकिन मजबूरियों का रोतेरोते जिक्र करते हुए अपना फंड रिलीज करने की गुहार लगाते रहते थे. लेकिन मजाल है कि उस ने किसी का भी काम बिना पैसे लिए किया हो. लेकिन आज इस रिक्शेवाले के सामने वह अपनेआप को पराजित सा महसूस कर रहा था. उसे लग रहा था कि पढ़ालिखा और साहबबाबू होने के बावजूद अपने कर्मों और नीयत की वजह से वह उस अनपढ़जाहिल रिक्शेवाले के सामने कहीं नहीं ठहरता.

अपने पिछले कर्मों का बोझ उसे इस कदर महसूस हो रहा था कि उस का मन कर रहा था कि वह रेल की पटरी पर अपना सिर रख दे या फिर मैट्रो की ऊंची बिल्डिंग से छलांग लगा दे ताकि उसे अपने अंतर्मन पर लदे इस बोझ से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाए. कुछ देर वह वहीं खड़ा हुआ पता नहीं क्याक्या सोचता रहा और फिर अपने अंतर्मन पर लदे इस बोझ को लिएलिए वह सिर झुकाए धीरेधीरे एक ओर चलता चला गया.

सुबह के साढ़े 10 बज चुके थे और लालजी प्रसाद की समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्या करें. कल शाम को जब 8 बजे तक भी न तो मयंक आया और न ही उस का कोई फोन आया तो उन्होंने उस के मोबाइल पर 2-3 बार कौल की. हर बार घंटी तो बजी लेकिन उस ने फोन नहीं उठाया. उन की समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसी क्या बात हो गई जो सारी बातें तय होने के बाद न तो मयंक घर ही आया और न ही उस का फोन उठा रहा है. आज सुबह से भी वे 3-4 बार फोन लगा चुके थे लेकिन हर बार घंटी बजती थी, फोन नहीं उठा.

लालजी प्रसाद सोच रहे थे कि अगर एक बार बात हो जाती तो सारी बात साफ हो जाती कि आखिर माजरा क्या है. अभी वे यह सोच ही रहे थे कि पीएफ औफिस जाएं या न कि उन के फोन पर मैसेज आने का पिंग बजा. उन्होंने फोन उठा कर मैसेज पढ़ा तो उन्हें अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हुआ. उन्हें लगा कि उन से पढ़ने में गलती हो रही है लिहाजा उन्होंने एक बार फिर ध्यान से मैसेज पढ़ा-गलती की कोई गुंजाइश ही नहीं थी. मैसेज साफ था कि उन का फंड उन के बैंक अकाउंट में ट्रांसफर हो चुका था.

लेखक : संजीव कुमार सरीन

Best Hindi Story : मेरी सोलो यात्रा – जिंदगी में नई उर्जा भरती यात्रा की कहानी

Best Hindi Story : मेरी यात्राएं मेरे लिए ऊर्जा के समान हैं. उदासी को पीछे छोड़ खुद को खोजने की कोशिश में निकल पड़ती हूं अकेली, अनजान रास्तों पर.

यों तो मैं ने कई यात्राएं कीं लेकिन मेरी यह यात्रा अन्य से बहुत अलग थी. यात्राएं मेरे लिए हील करने का सफल व आसान उपचार हैं. जब भी मु झे अवसाद घेरने लगता है, मैं यात्राओं पर निकल जाती हूं.

यात्राओं से मु झे एक अलग ही स्तर की ऊर्जा मिलती है. कभीकभी आत्ममंथन करने पर मैं समझ नहीं पाती, क्या मैं परेशानियों, पीड़ाओं या स्वयं से डर कर यात्राओं के अंक में छिप जाना चाहती हूं या यात्राओं के माध्यम से दूर ऐसी जगह निकल जाना चाहती हूं जहां मु झे कोई न पहचाने, पीड़ा मु झे छू तक न पाए, अवसाद के काले बादल मु झ पर बरस न पाएं? लेकिन हमेशा निरुत्तर ही रह जाती हूं.

यह यात्रा भी कुछ ऐसी ही थी. जीवन में कुछ अच्छा नहीं चल रहा था. प्रेम राह भटके बादल की तरह आया और कुछ बूंदें बरसा, मेरे तृप्त जीवन को अतृप्त कर न जाने कहां अदृश्य हो गया. अभी पीड़ा कम भी न हुई थी कि सब से नजदीकी इंसान ने पीठ पर जबरदस्त वार कर घायल कर दिया.

प्रेम का दावा करने वालों के प्रेम का भयावह चेहरा देख आहत हुई. समाज द्वारा स्त्रियों पर लांछन लगाए जाते हैं लेकिन यहां तो उस के द्वारा लगाए गए, जो मेरे प्रति सम्मान की बात करता था. वह बहुत दुखद वक्त था मेरे लिए. मैं कुछ सम झ नहीं पा रही थी. मु झे कोई अपना नहीं दिख रहा था. मैं चिल्लाना चाहती थी, चीखचीख कर रोना चाहती थी, किसी के सीने से लग जाना चाहती थी.

तब, तब मु झे यात्रा याद आई. मैं खुशी की तलाश में निकल जाना चाहती थी या इन सब परिस्थितियों से कायरों की तरह निकल कर भाग जाना चाहती थी, नहीं जानती. कभीकभी जीवन के संघर्ष में कायर बन जाने में कोई बुराई नहीं. इस तरह मेरी सोलो ट्रिप और पहली हवाई यात्रा की पृष्ठभूमि तैयार हुई.

बेटे और बेटी ने मेरे लिए ग्वालियर का हवाई टिकट बुक कर दिया और मेरी झोली में खुशी का टुकड़ा डाल मेरे साथ ट्रिप की रूपरेखा तैयार करने लगे. मैं उन का यह सान्निध्य सम झ रही थी. वे इन सब बातों से जता देना चाहते थे कि मैं अकेली नहीं हूं और वे मु झ से बहुत प्रेम करते हैं जो कि मैं अच्छे से जानती थी.

तीसरे दिन मैं अपनी उड़ान भरने के लिए घर से निकल पड़ी. यात्रा की खुशी और पहली बार हवाई यात्रा के उत्साह के सम्मुख जो कुछ हुआ था उस की पीड़ा गौण हो गई. अचानक मानो मेरे पंख उग आए हों और मैं उड़ने लगी. सारी औपचारिकताएं मैं ने पहली हवाई यात्रा होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ पूरी कीं और अपने टर्मिनल पर समय से पहले पहुंच गई.

मेरे मनमस्तिष्क में अनेक विचार समंदर की लहरों के समान हिलोरें मार रहे थे. उन का आवागमन निरंतर चल रहा था. मैं किसी एक को धप्पा कह पकड़ लेना चाहती थी.

मैं सोचने लगी, आत्मनिर्भर और खुद कमाने वाली कितनी महिलाएं यों किसी यात्रा पर निकल सकती हैं? सोलो तो छोडि़ए, वे अपने दोस्तों के ग्रुप में भी नहीं निकल पातीं. उन के लिए घर की दहलीज पार करना चांद पर पहुंचने जितना ही कठिन है. उन्हें कभी फैमिली से इतर कोई विचार ही नहीं आता होगा. घर, औफिस और बच्चे, इस से आगे उन्हें सोचने ही नहीं दिया जाता जबकि मर्द घर और बच्चों से बिलकुल निश्ंिचत हो कर दोस्तों के साथ हैंगआउट, पार्टी और ट्रिप करते ही रहते हैं.

घरगृहस्थी की थकानभरी जिंदगी व औफिस की परेशानियों से पुरुष अपने दोस्तों के साथ मिल कर, 2 कश साथ में सिगरेट के खींच कर व छोटेमोटे गेटटुगेदर कर खुद को रिफ्रैश कर लेते हैं. लेकिन महिलाओं के कितने दोस्त होते हैं? यदि वर्किंग है तो औफिस में कुछ औफिशियल बातें शेयर कर लीं, बस.

सब से अधिक तो घरेलू सहायिकाएं हैं जो बेजान सी उठ कर पहले खुद के घर के उबाऊ घरेलू काम खत्म करती हैं और फिर चल देती हैं अन्य घरों में उबाऊथकाऊ काम करने जिस में कोई ऊर्जा नहीं, प्रमोशन का चांस नहीं, कोई छुट्टी नहीं, टीए- डीए कुछ नहीं, केवल यांत्रिक जीवन.

कुछ पुरुष हम से बोलते हैं कि अपनी दशा सुधारने के लिए औरतों को खुद क्रांति करनी होगी जबकि मेरे अनुसार उन की क्रांति की राह में सब से बड़ी बाधा विवाह संस्था व परिवार है. कुछ औरतों द्वारा इस का बहिष्कार करने के कारण यही तथाकथित प्रगतिशील पुरुष त्राहिमाम करने लगे हैं. यदि अन्य महिलाएं ऐसा करेंगी तब क्या ये प्रगतिशील पुरुष उन के सहयोगी बनेंगे? किसी ने कहा था कि जब तक विवाह संस्था जीवित है तब तक महिलाएं आजाद नहीं हो पाएंगी. यदि आप मंथन करेंगे तो पाएंगे कि कुछ न कर पाने की असमर्थता का मूल कारण परिवार ही होता है.

मैं अभी इन लहरों के उतारचढ़ाव में बह ही रही थी कि मेरे फोन की रिंग ने समंदर की इन गहराइयों से मु झे बाहर खींच लिया. मैं ने फोन देखा और बिना किसी भाव के फोन काट दिया. मैं जिस से भाग रही थी वह फोन के माध्यम से मेरे पीछेपीछे हवाई अड्डे आ पहुंचा था और मैं उसे अपनी यात्रा का अतिक्रमण नहीं करने देना चाहती थी, इसीलिए फोन को फ्लाइट मोड पर डाल दिया.

तभी चैक-इन की घोषणा हुई और मैं इतने वेग से भागी मानो वे मु झे छोड़ जाएंगे. पलक झपकते ही मैं अपनी विंडो सीट पर थी, ऊर्जा से भरी और सभी परेशानियों को उसी टर्मिनल पर छोड़ कर. प्लेन धीरेधीरे रेंगने लगा और मेरी धड़कन बढ़ने लगी. कई तरह के नकारात्मक और सकारात्मक विचार मेरे दिमाग में डूबने और तैरने लगे लेकिन मैं खुश थी, बहुत खुश.

कुछ ही देर में हम बादलों के बीच में थे. जो बादल धरती से दिखाई देते थे, मैं आज उन के बीच थी. मन करता किसी तरह स्पर्श कर लूं, जोकि असंभव था. एकाएक कालिदास की मेघदूतम स्मृतिपटल में घूमने लगी. मन कल्पनाओं के बादल में उड़ने लगा, क्या ये बादल भी किसी का प्रेमसंदेश ले कर उड़ रहे हैं? क्या ये मेरे दूत बनेंगे? क्या ये मेरे कहने पर उसे प्रेमवर्षा में भिगो कर सराबोर करेंगे? मैं अधेड़ उम्र में एक षोडशी की भांति खुद से ही शरमा गई और खुद को संभालने की कोशिश करने लगी. किसी ने सच ही कहा है कि ‘प्रेम वही जो प्रौढ़ावस्था में किशोरावस्था ला दे.’ अब उस के स्मृतिमेघ मु झ पर मूसलाधार बरसने लगे और मैं बाहर उन बादलों को देखदेख न जाने कब तक उस वर्षा में भीगती रही.

ये श्वेत मेघ हिम से ढके हिमालय के शिखर जान पड़ते थे. मानो चहुंओर बर्फ ने संपूर्ण हिमालय को अपने अंक में समेट लिया हो. कहींकहीं पर बादलों के बीच में नीला आकाश यों नजर आता था जैसे हिमखंडों के बीच नीले निर्मल पानी का सरोवर.

मैं इन बादलों में विचरण कर ही रही थी कि नीचे छोटेछोटे घर, खेतखलिहान व बारीक धागे की डोर सी नदी नजर आने लगी और इस तरह प्लेन के साथसाथ मेरी कल्पनाओं की भी लैंडिंग हो गई.

एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही दिल्ली की ही तरह गरमी बहुत अधिक थी, गरमी से बुरा हाल था. मैं जल्द से जल्द किसी होटल में पहुंच फ्रैश हो कर घूमने निकल जाना चाहती थी. एयरपोर्ट के बाहर टैक्सी पंक्तियों में खड़ी थीं. मैं ने उन पंक्तियों को पार किया और सहूलियत के अनुसार एक औटो ले लिया और उसे उचित दर के होटल में ले चलने को कहा.

थोड़ी देर में हम एक होटल के बाहर थे. मैं ने औटो का किराया दे कर औटो वाले को फारिग कर दिया. बैग और सूटकेस घसीटते मैं होटल के अंदर पहुंची. रिसैप्शन पर बैठे आदमी से रूम के बारे में पूछा. उस ने मु झे घूरा, पूछा, ‘‘अकेली हो?’’ मैं ने भी लापरवाही और विश्वास के साथ जवाब दिया, ‘‘हां, क्यों?’’ उस ने क्यों का जवाब दिए बिना बेरुखी से 1,500 रुपए बताए और कड़ी आवाज में बोला, ‘‘तीसरी मंजिल है और हां, लिफ्ट नहीं है.’’ मानो वह रूम न देना चाहता हो और साथ ही, चाहता हो कि मैं खुद ही मना कर दूं.

मैं चाहती तो उस से मोलभाव कर किराया कम करवा सकती थी लेकिन मु झे नीरस, रूखे और खड़ूस लोग बिलकुल नहीं पसंद. मैं ने मन ही मन निर्णय लिया कि यहां रूम 500 रुपए में भी मिल जाए तो भी मैं लेने वाली नहीं. मैं होटल से निकल कर चिलचिलाती धूप में दूसरा होटल खोजने निकल पड़ी. कुछ आगे जा कर एक होटल मिला जो बहुत सही लगा. सो, दोचार सीढि़यां चढ़ी ही थी कि अंदर से एक कर्मचारी तुरंत आया और मेरे हाथ से बैग ले लिया व दूसरे ने गेट खोल दिया.

रिसैप्शन पर बैठे व्यक्ति ने मुझ से वही सवाल दागा, ‘‘आप अकेली हैं?’’ अब मैं थोड़ा चिढ़ गई और बिना जवाब दिए उस पर सवाल का पलटवार करते हुए पूछा, ‘‘क्यों, क्या ग्वालियर में औरतों के अकेले आने पर बैन है?’’ वह हंसने लगा और रूम का किराया वही 1,500 रुपए बताया.

मेरे दिमाग में सभी पढ़े हुए यात्रा वृत्तांत घूमने लगे. हमें कम से कम खर्चीली यात्रा करनी चाहिए. यदि सभी सुविधाएं चाहिए तो यात्रा का क्या मजा. मेरा ध्यान सिर्फ सुरक्षा पर केंद्रित था. मैं ने उस से मोलभाव करना शुरू किया तो अंत में वह 1,000 रुपए पर मान गया. इस दौरान उस ने बताया कि प्रतियोगी परीक्षा के कारण रूम मिलना मुश्किल है.

यह समस्या मैं अपनी नैनीताल की यात्रा के दौरान भुगत चुकी थी. मैं ने सुरक्षा की दृष्टि से रूम और होटल का मुआयना किया और चैकइन कर लिया. उन्होंने मु झे होटल का नंबर दिया कि कभी बाहर कोई प्रौब्लम हो तो इस नंबर पर कौल करना, अपने होटल का नाम याद रखना वगैरहगैरह. मानो उन पर मैं एक जिम्मेदारी की भांति लद गई हूं, मानो उन के कंधों पर टनों भार रख दिया गया हो.

दुनिया कुछ पाशविक मर्दों के कारण असुरक्षित हुई और कैद महिलाएं हुईं या उन्हें एक जिम्मेदारी के रूप में स्थापित कर दिया गया. मानो वे मानवी न हो कर मात्र एक जिम्मेदारी हैं. बस, किसी भी तरह से निभ जाए. मैं अपना बैग उठा कर अपने रूम में जा ही रही थी कि एक कर्मचारी ने मु झ से बैग ले लिया और रूम में ले गया. जो भी हो, इस होटल का स्टाफ मिलनसार तो था. अब तक 2 बज चुके थे और मैं धूप में ही घूमने निकल पड़ी.

मैं किसी यात्रा पर निकलती हूं तो उस पर पूरा शोध कर के निकलती हूं. मैं ने निश्चय किया था कि अन्य जगहों पर घूम पाऊं या नहीं, गोपाचल पर्वत जरूर जाना है. गोपाचल पर्वत पर 7वीं से 15वीं शताब्दी के मध्य प्रकृति की गोद में पर्वतों के शीर्ष पर चट्टानों को काट कर मूर्तियां बनाई गई हैं. यह स्मारक बनने से पहले यहां घास के मैदान हुआ करते थे जहां ग्वाले गाय चराने आते थे. माना जाता है कि संभवतया इसीलिए इस का नाम गोपाचल पर्वत पड़ा. यहां पहुंचने का रास्ता बाद में कभी बने जैन मंदिर के पास से गुजरता है.

मैं औटो से वहां पहुंची. मु झे देख मंदिर का एक व्यक्ति आया और उस ने मु झे बताया कि गोपाचल मंदिर 5 बजे खुलेगा, अभी बंद है. मेरे होमवर्क के अनुसार, मंदिर बंद नहीं होना चाहिए था. मु झे उस के बोलने के तरीके में कुछ पूर्वाग्रह टाइप भी लग रहा था. मैं कहीं न कहीं उस के टालने का मूल कारण सम झ रही थी. उसे शायद मेरे पाश्चात्य पोशाक से परेशानी थी. फिर मु झे लगा मैं शायद ज्यादा सोच रही हूं, सो, अपने जूते पहन निकल गई वहां से. वापस होटल जाती तो थकान से नींद आ जाती और मेरा आज का दिन व्यर्थ हो जाता.

मैं ने चिडि़याघर जाने का निश्चय किया क्योंकि फोर्ट थोड़ा दूर था और बंद होने का समय हो रहा था. धूप बहुत थी. आसपास पानी की दुकानें नहीं थीं. बोतल का पानी खत्म हो चुका था. लेकिन मेरे घुमक्कड़ मन ने हार न मानी.

नीचे उतर कर कुछ दूर पैदल चल मेन रोड पर आ गई. वहां से शेयरिंग औटो रिकशा में बैठी जिस में कुछ लड़कियां थीं. मैं ने उन से बातचीत शुरू कर दी और वहां के बारे में पूछा. वे बहुत मिलनसार प्यारी लड़कियां थीं. उन्होंने बड़े उत्साह से वहां के पर्यटन स्थलों के बारे में बताया. अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच कर उन्होंने विदा ली और रिकशे वाले ने रिकशा चिडि़याघर की ओर मोड़ लिया.

चिडि़याघर पहुंच कर मालूम चला कि शुक्रवार को वह बंद ही रहता है. अब थोड़ी झुं झलाहट हुई. 5 बजे तक कहीं भी समय व्यतीत करना था जिस में समय का दुरुपयोग नहीं बल्कि सदुपयोग हो. रिकशे वाले ने मु झे गूजरी महल जाने की राय दी जोकि ग्वालियर किले का हिस्सा था और जिस चोटी के शीर्ष पर किला था उसी के तल में गूजरी महल भी था. मैं ने मस्तिष्क में सभी योजना बना ली, गूजरी महल देख कर गोपाचल जाऊंगी और किला भ्रमण कल करूंगी. मैं वापस रिकशे में बैठ गई और गूजरी महल पहुंच किराया दे कर टिकट लेने पहुंची.

अंदर पहुंच कर मैं गूजरी महल में रखे पुरातन मूर्तिकला और स्मारक देख अलग ही कल्पनाओं में खो गई. तभी एक युवक आ कर उन प्रतिमाओं से संबंधित जानकारी देने लगा और मैं पूर्ण ध्यान लगा सुन रही थी. दोचार प्रतिमाओं से संबंधित जानकारी देने के बाद उस ने बताया कि मु झे आगे अकेले ही सब देखना होगा या फिर उसे गाइड के रूप में नियुक्त करना होगा. यह कुछ ऐसा था जैसे किसी को पहले नशे का आदी बनाया जाए और फिर नशीले पदार्थों से कमाया जाए. खैर, मु झे सब जानने का उत्साह था, इसीलिए मैं ने हामी भर दी.

हम ने विभिन्न कालों की विभिन्न प्रकार की मूर्तियां, कलाकृतियां देखीं जिन में 5वीं सदी की नायिकाओं की अलगअलग प्रकार की केशसज्जा दिखाई गई थी. मैं देख कर विस्मित थी, कितनी अद्भुत रचनात्मकता थी उस काल में भी. उस में खूबसूरत शालभन्जिका की प्यारी सी मुसकान वाली प्रतिमा भी थी.

आज हम कई नवीन उपकरणों का प्रयोग करते हैं और तब उन्होंने सीमित उपकरणों से ये आश्चर्यचकित कर देने वाले चमत्कार कर दिए. गूजरी महल का पूरा संग्रहालय देखने के पश्चात अब हम महल देखने लगे. गाइड ने बताया कि राजा मान सिंह तोमर की 9वीं रानी मृगनयनी थी जो गूजर जाति से संबंधित होने के कारण गूजरी भी कहलाती थी.

बताया जाता है कि एक बार राजा मान सिंह तोमर शिकार के लिए जा रहे थे. रास्ते में राई गांव में 2 भैंसें आपस में लड़ रही थीं. कोई भी उन्हें हटा नहीं पा रहा था. यहां तक कि राजा के सैनिकों व योद्धाओं ने भी प्रयत्न कर छोड़ दिया. तभी भीड़ को चीरती हुई एक कन्या आई जिस के सिर पर पानी का मटका था. उस कन्या ने एक हाथ से मटका संभालते हुए अपनी बुद्धिमत्ता व साहस से उन दोनों भैंसों को अलग कर दिया. यह देख राजा अचंभित हो गए और कन्या के प्रेम में पड़ गए.

इतिहास में कई ऐसी कहानियां दफन हैं जिन में लड़कियों के साहस व बुद्धिमानी के कारण बड़ेबड़े योद्धा या राजेमहाराजे बड़ेबड़े युद्ध तो जीत गए लेकिन प्रेम में हार गए. लड़की पर आसक्त राजा ने विवाह प्रस्ताव भिजवाया जिसे उस लड़की ने 3 शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया.

पहली शर्त यह थी कि वह उन की अन्य 8 रानियों के साथ नहीं रहेगी, सो, उसे अलग से महल चाहिए, जो आज गूजरी महल के नाम से प्रसिद्ध है. दूसरी शर्त के अनुसार राजा कहीं भी जाएंगे वह भी उन के साथ जाएगी. तीसरी व अंतिम शर्त यह थी कि वह अपने ही गांव का पानी पिएगी यानी राई गांव का ही पानी पिएगी. तीसरी शर्त कठिन थी परंतु राजा ने उस काल की अत्याधुनिक तकनीक प्रयोग कर प्रेम में यह कार्य भी सरल कर दिखाया.

हम पूरा महल घूम चुके थे और गाइड का भी काम खत्म हो चुका था. मैं ने उस की पेमैंट की और अब अकेले ही किला घूम रानी व उस की सखियों की अठखेलियां, कल्लोल, आनंद क्रीड़ाएं व उस प्रेम की उपस्थिति महसूस करने लगी. उस युग को जीने की कोशिश करने लगी. अकेले घूमने का रत्तीभर भी पछतावा नहीं था. मैं ने वहां कुछ वीडियोज बनाए व फोटोज क्लिक कीं ताकि जब मन करे, इन पलों को फोटो के माध्यम से फिर से जी पाऊं. वक्त अब फिर से गोपाचल जाने का संकेत कर रहा था, सो, मैं बाहर निकली और एक औटो ले लिया.

गोपाचल पहुंच मैं ऊपर पर्वत पर पहुंचने के लिए उत्साहित थी. जल्दीजल्दी जूते खोले ही थे कि सुबह वाला मंदिर का वह व्यक्ति फिर आ गया और बोला कि आज मंदिर बंद है (जबकि वह कोई मंदिर नहीं है). बस, अब मेरी सहनशीलता की सीमा समाप्त हो चुकी थी. मैं ने उस से थोड़ी ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘आप झूठ बोल रहे हैं न? आप को मेरे पाश्चात्य कपड़ों से शायद कुछ परेशानी है जो मैं सुबह ही भांप चुकी थी. मैं वापस नहीं जाने वाली.’’ इस तरह मैं उस पर प्रश्नों के वार पर वार करते जा रही थी, साथ ही, अनजान शहर में अकेले होते हुए इस तरह झगड़ने के कारण मन ही मन डर भी रही थी.

मुझे लगता है कि निडर से निडर इंसान को भी डर लगता है. लेकिन जो इस डर पर जय पा जाए वही निडर कहलाता है. शोरशराबा सुन मंदिर के अन्य लोग भी आ गए. अब मैं ने अपनी सुरक्षा हेतु वीडियो भी बनाना शुरू कर दिया और सभ्यता के साथ प्रश्नों की बौछार किए जा रही थी. मंदिर के महासचिव द्वारा किसी व्यक्ति को मु झे जाने देने का संदेश दे कर भेजा गया और मैं बहुत खुश हुई.

अब मैं पर्वत पर चढ़ने लगी. प्राकृतिक सुंदरता चारों ओर बिखरी हुई थी. यदि सक्षम होती तो वह मनोहर खूबसूरत दृश्य समेट कर रख लेती. प्राकृतिक सौंदर्य का आंखों द्वारा मधुर पान करते हुए मैं शीर्ष पर पहुंच गई. वहां का दृश्य देख मैं कुछ देर निस्तब्ध अवाक खड़ी रही. पर्वतों को काट कर बनाए गए उन मंदिरों को देख मेरे होश उड़ गए. वहां एक अलग ही शांति का वास था. सुकून ही सुकून पसरा हुआ था.

वहां 26 गुफाएं थीं जिन में मंदिरों का निर्माण किया गया था. चट्टानों पर सुंदरसुंदर नक्काशी मन मोह रही थी. मैं ने खुद को ऊपर आने की लड़ाई लड़ने के लिए शाबाशी दी. यदि मैं ने जिद न की होती तो मैं ये आश्चर्यचकित कर देने वाली कृतियां कभी न देख पाती. कुछ देर वहां की प्राकृतिक शांति को अपने अंदर समेट कर व उन कृतियों की सुंदरता को आंखों में बसा कर मैं वहां से निकल गई.

नीचे पहुंची तो मेरे लिए महासचिव से मिलने का संदेश था. मैं चाहती तो अस्वीकार कर सकती थी लेकिन मेरी जिज्ञासु प्रवृत्ति ने मु झे ऐसा करने से रोक लिया. मैं उन के औफिस में पहुंची तो उन्होंने बड़ी शालीनता और मृदुभाषी बन मेरा परिचय लिया और फिर संस्कृति पर मोरल पौलिसिंग करने लगे. मैं ने भी उन से हार न मानी और लिंगभेद पर प्रश्न दागने लगी कि आखिर क्यों पुरुष का नग्न शरीर प्राकृतिक है और औरत की देह अश्लील? उन के पास इस का कोई उत्तर नहीं था. बस, नियम थे जो युगों से औरतों के लिए बने थे.

उन्होंने बताया कि जैनी महापुरुष बेशक नग्न रहते हैं लेकिन महिलाओं के लिए 6 गज (अच्छे से याद नहीं शायद इस से भी अधिक हो) के बड़े से कपड़े का प्रावधान है जिसे वह कमर से ऊपर ही बांधती हैं. मु झे लगा कि धर्म पर बहस करना व्यर्थ है, सो, मैं ने जाने की आज्ञा मांगी और उन्होंने दोबारा आने के लिए बोल कर आज्ञा दे दी.

होटल आ कर मैं ने अपना खाना और्डर किया और कल की यात्रा का ढांचा तैयार करने लगी. मु झे गूजरी महल में मिले एक युवक का ध्यान आया जो ड्राइवर और गाइड दोनों ही था. अपने दिमाग पर जोर देते हुए मैं ने उस का नाम याद किया और अपने फोन पर नाम ढूंढ़ ही रही थी कि उस का मैसेज दिख गया. यह पहली बार था जब मैं ने यात्रा के दौरान अपना फोन बहुत ही कम चैक किया, इसीलिए मालूम ही नहीं चला कि कब यह मैसेज आया. उस ने भी कल की योजना के बारे में पूछा था कि क्या वह तैयार रहे, क्या उसे बुक किया जा रहा है?

मैं ने उसे फोन किया और उस ने मु झे ग्वालियर फोर्ट के चार्ज बताए. मैं ने उसे पूरा ग्वालियर घुमाने का पूछा और वहां के पर्यटन स्थल के बारे में जानकारी ली. उस ने मु झे बताया कि अगर ऐसा है तो वह कल पहले सिंधिया महल दिखाएगा जो अब होटल में परिवर्तित हो चुका है. मैं ने उस से कहा, ‘‘मु झे सिंधिया महल नहीं देखना जहां अब कोई प्राचीनता नहीं और न ही प्राकृतिकता. फिर मैं क्यों 250 रुपए दे कर पूंजीपतियों की पूंजी बढ़ाने में मदद करूं. हम ने कल के घूमने की योजना तैयार कर ली. इतने में खाना आ गया, खाना खा कर मैं ने कुछ पृष्ठ पुस्तक के पढ़े और सो गई.

दूसरे दिन गाइड वक्त से गाड़ी के साथ हाजिर हो गया. मैं भी तैयार बैठी थी. हम लोग निकल पड़े अपनी आगे की यात्रा पर. हम पहले सूर्य मंदिर गए जोकि बहुत ही खूबसूरत था, तेली मंदिर, तानसेन और उन के गुरु के मकबरे, रानी लक्ष्मीबाई की समाधि होते हुए हम अब ग्वालियर फोर्ट के रास्तों पर थे. इस दौरान मेरी गाइड से अच्छी दोस्ती हो गई. उस का नाम शिवा था. शिवा अपने प्रोफैशन के बारे में बता रहा था. उस ने अपनी पूर्व प्रेमिका, जोकि विदेशी थी, की वीडियो फोटो दिखाई, उस के बारे में बात की.

आगे का अंश बौक्स के बाद 

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इन्हें आजमाइए

  • हर महीने अपनी आय और खर्च का हिसाब रखें. इस से आप समझ पाएंगे कि पैसा कहां जा रहा है और फुजूलखर्ची कैसे रोकनी है.
  • वर्किंग कपल दिनभर की भागदौड़ में थोड़ा वक्त निकाल कर साथ बैठें, जैसे चाय पिएं, फिल्म देखें या टहलने जाएं. ये छोटे पल रिश्ते को गहरा करते हैं.
  • प्रैग्नैंसी के दौरान मानसिक शांति के लिए ध्यान, गहरी सांस या पसंदीदा काम करें. तनाव बच्चे और मां दोनों के लिए नुकसानदेह हो सकता है.
  • मीडिया और इंटरनैट का इस्तेमाल सोचसमझ कर करें. अनजान लोगों से बात न करें और अपनी निजी जानकारी (जैसे फोटो या पता) शेयर करने से बचें ताकि सुरक्षित रहें.
  • गरमी में चेहरे पर सनस्क्रीन जरूर लगाएं और पसीने से बचने के लिए बारबार चेहरा धोएं. गरमी में रैशेज या जलन से बचने के लिए कौटन के कपड़े पहनें.
  • टीनऐज में दोस्तों का असर बहुत पड़ता है. ऐसे दोस्त बनाएं जो पौजिटिव सोच रखते हों और अच्छे कामों के लिए प्रेरित करें.
  • यूनीक गार्डनिंग के लिए ऐक्सरसाइज गार्डन, हर्ब गार्डन, बटरफ्लाई गार्डन या मिनी जंगल तैयार करें.

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उस ने बताया कि ओरछा में उस का दोस्त रहता है, जिस ने विदेशी से शादी की और वहीं सैटल हो गया. उस ने बताया, ओरछा के उस गांव में अधिकतर लड़के विदेशी लड़कियों से शादी कर विदेशों में ही बस गए हैं. मु झे यह सोच कर आश्चर्य हो रहा था कि लड़कियों को जरा सी बात पर गोल्ड डिगर की उपाधि दे दी जाती है लेकिन यह सामान्य है. यदि भारतीय लड़की गलती से लड़के के साथ अलग रहने लगे तो क्रूर कहलाई जाती है, यहां तो लड़कों के परिवार वाले गर्व के साथ बताते हैं कि उन के बेटे बाहर उन की बहुओं के साथ रहते हैं. नैतिकता और नियम भी परिस्थिति और सुविधाओं पर निर्भर रहते हैं. उस ने बताया कि वह भी जल्द ही विदेश में बस जाएगा और इस तरह धीरेधीरे हम अच्छे हमसफर और दोस्त बन गए.

अब हमारी गाड़ी ग्वालियर फोर्ट की जिगजैग सड़कों पर दौड़ रही थी. जल्द ही हम ने टिकट लिए और ग्वालियर फोर्ट घूमने लगे. यह फोर्ट कम से कम 12 किलोमीटर में फैला हुआ है.

मध्य प्रदेश के किलों की यह विशेष खासीयत है कि इन के स्तंभों, दीवारों और छतों को बहुत ही सुंदर नक्काशी से अलंकृत किया गया है. यहां के छोटे से छोटे पत्थर भी मानो अपने अलंकरण पर इतरा रहे हों. किले, दीवारें, छत, खंडित मूर्तियां, खंडहर की ओर बढ़ते भवन एवं पत्थर तक अपनी सुंदरता के मद में फूलते हुए और खूबसूरत बन पड़ते हैं. मैं उन खूबसूरत नक्काशियों को स्पर्श कर, उन शिल्पकारों की भावनाओं को तलाश रही थी जिन्होंने आज भी इन पत्थरों को अपने शिल्प के माध्यम से जीवंत रखा हुआ था. उन्होंने जब पहली बार अपना संपूर्ण शिल्प कौशल देखा होगा तो क्या महसूस किया होगा, कितने भावुक होंगे?

मैं इन सब बातों की कल्पना कर बहुत अचंभित थी. मैं ने देखा कि गार्ड लोगों से अब किला खाली करने का आग्रह कर रहा है. मु झे यों लगा जैसे समय आज अपनी गति से दोगुने वेग से बढ़ रहा है. हम वहां से सासबहू मंदिर पहुंचे जो उस के ही निकट था. जिस का एक नाम सहस्त्रबाहू भी है. संभव है कि सासबहु, सहस्त्रबाहू का अपभ्रंश रूप हो. यह 11वीं सदी में निर्मित विष्णु का मंदिर है. खूबसूरत नक्काशीदार इस मंदिर को काफी क्षति पहुंचाई गई है. इस मंदिर में अभी कोई भी मूर्ति नहीं और न ही यहां पूजा होती है. मैं ने शिवा से अब चाय की मांग की. वहां से निकल कर हम चाय पीने के लिए सुंदर और प्यारीप्यारी वनस्पतियों के बीच बनी छोटी सी दुकान पर चाय पीने लगे.

8 बजने को थे. पेड़पौधे खुशनुमा मौसम की खुशी में झूम रहे थे. हम चाय पी कर फोर्ट से शहर का नाइटव्यू देखने के बाद चौपाटी जाने की योजना बना ही रहे थे कि फोन फिर बज उठा. अनजान नंबर देख एक बार तो न उठाने का निर्णय लिया क्योंकि मैं कभी अनजान नंबर नहीं उठाती, फिर मु झे याद आया कि मैं तो एक चलतीफिरती जिम्मेदारी हूं, होटल वालों का हो सकता है और यह उन्हीं का फोन था. उन्होंने कहा कि 8 बज चुके हैं, उन्हें फिक्र हो रही थी, इसीलिए फोन कर लिया. मैं ने उन का आभार प्रकट किया और थोड़ी देर बाद पहुंचने को कह दिया.

मुझे उन का फोन करना थोड़ा ठीक भी लगा. खैर, हम ने नाइटव्यू देखा और चौपाटी से खापी कर होटल को निकल गए. ग्वालियर में यह मेरी अंतिम रात थी. कल सुबह की फ्लाइट थी. शिवा ने मु झे आश्वासन दिया कि कल वह वक्त से होटल पहुंचेगा और मु झे एयरपोर्ट छोड़ेगा. मैं ने उस से कहा कि कोई प्रैशर नहीं है छोड़ने का, वह चाहे तो अपने लिए टूरिस्ट देख सकता है. लेकिन उस ने कहा कि वह सच में एक दोस्त को छोड़ने जाना चाहता है. हम ने एकदूसरे से शुभरात्रि कह अलविदा लिया.

दूसरे दिन सुबह जल्दीजल्दी पूरी पैकिंग कर टाइम से होटल का हिसाबकिताब किया ही था कि शिवा की गाड़ी आ पहुंची. पहली बार किसी शहर को छोड़ते हुए कुछ छूटता सा महसूस हो रहा था. होटल के सभी स्टाफ से मैं ने विदा ली और सभी स्टाफ वाले यों पंक्ति से खड़े थे मानो घर से कोई करीबी मेहमान जा रहा हो. सब ने बारीबारी अलविदा कहा. सच में, मैं ने इस से पहले कभी ऐसा महसूस नहीं किया और न ही किसी होटल ने मु झे ऐसा महसूस करवाया. उन्होंने मेरा बैग गाड़ी में रखवाया और हम एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े. हम ने रास्ते में बहुत बातें कीं. एयरपोर्ट पहुंच कर यादों में सहेजने के लिए सैल्फी ली और शिवा से भी विदा ली. उस ने कहा कि वह दिल्ली आएगा तो हम मिलेंगे.

मेरा एक सफर समाप्त हो चुका था. मैं फ्लाइट के लिए निकल पड़ी एक नए सफर के लिए.

लेखिका : कशिश नेगी

Social Media का सतही ज्ञान, माहौल को बनाता है खतरनाक

Social Media : सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर भारतपाक टकराव की खबरों को इस तरह से दोहराया गया जैसे पौराणिक कथाओं में एक ही बात को बारबार दोहराया जाता है और लोग उसे सच मान लेते हैं.

भारत और पाकिस्तान के बीच टकराव के समय सोशल मीडिया और टीवी चैनलों ने जिस तरह से माहौल का खतरनाक बनाया वह अद्भुत था. सोशल मीडिया पर सतही ज्ञान साफसाफ दिख रहा था. जिन को युद्व की परिभाषा, कूटनीति, अंतरराष्ट्रीय कानून, दो देशों के बीच संबंध उन के आपसी समझौतों का नहीं पता वह सोशल मीडिया पर इस तरह से बोल रहे थे जैसे यह उन के लिए मूलीगाजार खरीदने जैसा काम हो. जिस ने कभी घर के बाहर मोहल्ले की लड़ाई नहीं देखी, गोली नहीं चलाई वह न्यूक्लियर वार पर ऐसे ज्ञान दे रहा हो जैसे परमाणु बम उस की जेब में पड़ा हो.

टीवी चैनल इस तरह से युद्व की कमेंट्री कर रहे थे जैसे युद्ध न हो कर वह आईपीएल मैच हो. देश में पहली बार सोशल मीडिया के जमाने में भारतपाक के बीच टकराव टीवी चैनलों और सोशल मीडिया पर दिख रहा था. टीवी चैनलों ने भारतीय सेना को पाकिस्तान में घुसा दिखा दिया. नेवी का कराची बंदरगाह पर हमला दिखा दिया.

पाकिस्तान सेना के प्रमुख जनरल आसिम मुनीर को हटाने और नया सेना प्रमुख शमशाद मिर्जा को बनवा दिया. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को ले कर खबरें देने लगे. ऐसा लगा जैसे रात में ही पाकिस्तान में तख्तापलट हो जाएगा.

पहलगाम में आतंकी हमले के भारत ने पाकिस्तान में आतंकी हमलावरों और उन के ठिकानों को खत्म करने की बात कही थी. भारत ने पाकिस्तान को भारत में मिलाने, पाकिस्तान से युद्व करने जैसी कोई बात नहीं कही थी. सोशल मीडिया और टीवी चैनलों ने ऐसा नैरेटिव बना दिया जैसे भारत व पाकिस्तान का युद्व खतम हुआ हो.

इस की तुलना 1971 के युद्व से की जाने लगी और पूछा जाने लगा कि पाकिस्तान के चार टुकड़े क्यों नहीं किए गए? सवाल यह भी उठने लगा कि सीजफायर क्यों हुआ? अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ले कर तमाम सवाल होने लगे. यह लोग इस को अभिव्यक्ति की आजादी से जोड़ देते हैं.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

1987 अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है. यह बोलने, सुनने और राजनीतिक, कलात्मक और सामाजिक जीवन में भाग लेने का अधिकार है. इस में ‘जानने का अधिकार’ भी शामिल है. जब आप अपने विचार औनलाइन या औफलाइन देते हैं तो आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहे होते हैं. जब आप अपनी सरकार की उस के वादों पर खरा न उतरने के लिए आलोचना करते हैं, तो आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहे होते हैं.

जब आप धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक प्रथाओं पर प्रश्न उठाते हैं या बहस करते हैं, तो आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहे होते हैं. जब आप किसी शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में भाग लेते हैं या उस का आयोजन करते हैं, तो आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहे होते हैं.

जब आप कोई कलाकृति बनाते हैं तो आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहे होते हैं. जब आप किसी समाचार लेख पर टिप्पणी करते हैं चाहे आप उस का समर्थन कर रहे हों या उस की आलोचना कर रहे हों. तो आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने अधिकार का प्रयोग कर रहे होते हैं.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता राजनीतिक असहमति, विविध सांस्कृतिक अभिव्यक्ति, रचनात्मकता और नवाचार के साथसाथ आत्मअभिव्यक्ति के माध्यम से व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए मौलिक है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संवाद को सक्षम बनाती है, समझ का निर्माण करती है और सार्वजनिक ज्ञान को बढ़ाती है.

जब हम विचारों और सूचनाओं का स्वतंत्र रूप से आदानप्रदान कर सकते हैं, तो हमारा ज्ञान बढ़ता है, जिस से हमारे समुदायों और समाजों को लाभ होता है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें अपनी सरकारों से सवाल पूछने में भी सक्षम बनाती है, जो उन्हें जवाबदेह बनाए रखने में मदद करती है.

सवाल पूछना और बहस करना स्वस्थ है. इस से बेहतर नीतियां और अधिक स्थिर समाज बनते हैं. यहां यह भी समझना जरूरी है कि सवाल किस तरह से पूछे जाएं? मखौल उड़ाते हुए और अपमानजनक, शब्द, विचार और फोटो या वीडियो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं का उल्लघंन करते हैं.

सोशल मीडिया ने बदल दिया माहौल

पहले जब चौराहों पर चर्चा होती थी तब इन का दायरा 8-10 लोग होते थे. चर्चा आपस में होती थी दोनों पक्ष एकदूसरे से तर्क कर लेते थे. बात एक सीमित दायरे में रहती थी. समाचार पत्रों में जो लेख प्रकाशित होते थे उन के साथ भी लोग सहमत और असहमत होते रहते थे. इस के लिए वह संपादक के नाम पत्र में इस बात का जिक्र करते थे. वह अपने तर्क देते थे जिन को समाचार पत्रों में प्रकाशित भी किया जाता था. तर्क लिख कर देने होते थे तो तर्क देने वाला किताबों से पढ़ कर तर्क जुटा लेता था.

सोशल मीडिया पर चर्चा एक पक्षीय होती है. सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वाला जरूरी नहीं कि अपनी सफाई दे या जो उस की पोस्ट के विपरीत जो बातें हैं उन के जवाब दे. सोशल मीडिया पर तर्क की जगह कुर्तक ज्यादा होते हैं. कई बार ऐसे लोग तर्क देने लगते हैं जिन को उस विषय में पता ही नहीं होता है. ताजा उदाहरण भारत व पाकिस्तान टकराव के समय देखने को मिला.

कई ऐसे फोटो और वीडियों दोनो ही पक्षों ने बना कर पोस्ट और फारवर्ड किए जो बेहद आपत्तिजनक हैं. सूचनाएं बेहद भ्रामक हैं. यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं का उल्लघंन है.

इन में सोशल मीडिया से भी बड़ी भूमिका टीवी चैनलों की रही है. अर्नब गोस्वामी ने रिपब्लिक भारत पर कहा ‘अमेरिका कौन होता है सीजफायर कराने वाला?’ वह अपने अलगअलग कार्यक्रमों में इस तरह की बातें करते रहे जिन का कोई जमीनी आधार नहीं है.

सीजफायर पर बात करते अर्नब गोस्वामी ने कहा कि ‘पाकिस्तान और अमेरिका ने एक प्रेम कहानी मिल कर लिखी है. जिस में चीन कह रहा कि मोहब्बत उस से और कहानी अमेरिका से’. यह बात केवल रिपब्लिक भारत की बात नहीं है.

दूसरे चैनलों ने भी इसी तरह की रिपोर्ट पेश की गई. जिस का कोई आधार नहीं था. इन में श्वेता सिंह, चित्रा त्रिपाठी और रूबिका लियाकत जैसे कई एंकरों ने 7 मई की रात जिस तरह से पाकिस्तान के बारें में खबरें दी उन की सुबह कोई खबर नहीं थी.

कई खबरें तो चैनलों से हट गई. खबरों में कुछ होता था और उन के थंबनेल पर कुछ और लिखा होता था. इस तरह से दर्शक पूरी तरह से भ्रमित थे. उन को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें?

टीवी के एंकर जिस तरह से एक तरफ से दूसरी तरफ कूदकूद कर बता रहे थे उसे देख कर यह नहीं लग रहा था कि कोई युद्ध की रिपोर्ट दिखाई दे रही. उस को देख कर लग रहा था जैसे आईपीएल क्रिकेट मैच या फिर चुनावी मतगणना चल रही थी.

टीवी चैनलों पर होड़ लगी थी कि कौन कितनी बड़ी झूठ फेंक सकता है. किसी ने कराची बंदरगाह उड़वा दिया तो किसी ने इस्लामाबाद कब्जा करा दिया.

कुछ चैनलों ने पाकिस्तान के सेना प्रमुख आसिफ मुनीर को हटवा शमशाद अहमद को सेना प्रमुख बना दिया. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ का तख्ता पलट करा दिया.

कुछ चैनलों ने इस बात को फैलाने का काम भी किया जैसे आसिफ मुनीर को पकड़ लिया गया है और उस को भारत लाया जा रहा है. उस पूरी रात ऐसा माहौल पूरे देश में बना दिया जैसे सुबह भारत व पाकिस्तान में अपना झंडा फहरा देगा. इस तरह की रिपोर्टिंग दोनों ही तरफ से हुई. हिंदू जैसे अखबार ने एक गलत खबर अपने डिजिटल एडीशन में पोस्ट की बाद में उस को हटाया और माफी मांग ली.

खराब हुआ माहौल

टीवी, सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया ने पूरे देश का महौल खराब कर दिया. देश को लगा जैसे भारत व पाकिस्तान युद्ध हो रहा है. 1971 की तरह भारत व पाकिस्तान के कम से कम 2 टुकड़े ब्लूचिस्तान और पीओके तो कर ही देगा. इन खबरों की वजह से देश की जनता को भी यह उम्मीद जग गई. वह यह भूल ही गए कि यह युद्व नहीं है. यह भारत की आतंकियों के खिलाफ जंग थी. जिस का पाकिस्तान की सेना से कोई मतलब नहीं था. यह सारे हमले मिसाइल के जरिए हो रहे थे. सेनाएं आमनेसामने नहीं थी.

8 मई को जब देश ने देखा कि सोशल मीडिया और टीवी चैनलों ने देश में युद्ध सा माहौल बना दिया तो भारत सरकार की तरफ से इस की एक गाइडलाइन जारी हुई. जिस के तहत कहा गया कि कोई भी टीवी चैनल अपनी खबरों को दिखाते समय युद्व का सायरन नहीं बजाएगा.

युद्ध के वीडिया बिना सच्चाई जाने नहीं दिखाएगा. इस तरह से खबरें न दिखाई जाएं जिस से देश का माहौल खराब हो. इस के बाद भी जनता यह मान चुकी थी कि भारत व पाकिस्तान युद्ध हो रहा है. इन खबरों का असर यह हुआ कि जब दोनों देशों के बीच हमले रोकने के बात हुई तो जनता को बेहद निराशा हुई.

जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक दिन पहले तक हीरो थे उन को लोग बुराभला कहने लगे. इन की शिकायत एक थी कि बिना पाकिस्तान के टुकड़े किए युद्व विराम क्यों हुआ? युद्व विराम की घोषणा अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने क्यों की? इस की सफाई देने के लिए 2 बार सेना ने प्रेस कान्फ्रैंस की और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपना संदेश भी दिया.

इस के बाद भी जनता के सवाल कायम है कि सीजफायर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कहने पर क्यों किया? यही नहीं जनता ने यह खोज निकाला है कि गौतम अडानी को लाभ दिलाने के लिए नरेंद्र मोदी ने युद्व को बीच में रोक दिया.

यह हालात बनाने में सोशल मीडिया के सतही ज्ञान और टीवी चैनलों की गैर जिम्मेदारी भरी रिपोर्टिंग रही है. इस ने जनता के मन पर इतना गहरा असर डाला कि लोग उसे ही सही मानने लगे हैं. जिस तरह से पौराणिक कथाओं में बारबार एक ही बात दोहराई जाती है जिस को लोग सच मान लेते हैं उसी तरह से टीवी चैनलों और सोशल मीडिया की खबरों को सच मान लिया गया.

अब सवाल मोदी और ट्रंप की दोस्ती पर उठ रहे हैं. यह कहा जा रहा है कि ट्रंप ने मोदी को धोखा दिया है. डिप्लोमेसी को न समझने वाले लोग भी डिप्लोमेसी की बात बता रहे हैं.

हमारा समाज पौराणिक काल से तर्क की जगह सुनीसुनाई बातों पर यकीन करने वाला रहा है. रामायण में धोबी की कही सुनी बात पर राजा राम ने अपनी पत्नी सीता का घर से निकाल कर जंगलों में भेज दिया. आज भी सच से ज्यादा तेज अफवाहें फैलती हैं. कहीं आदमी पत्थर का बन जाता है तो कहीं मूर्तियां दूध पीने लगती हैं.

सोशल मीडिया के जमाने में इस तरह की अफवाहें खूब फैल रही हैं. टीवी चैनल कभी स्वर्ग में सीढ़ी लगा रहे हैं तो कभी 2 हजार के नोट में चिप लगा रहे हैं. युद्ध काल में इस तरह की खबरें न केवल भ्रम फैलाती हैं बल्कि सेना के मनोबल पर भी असर डालती हैं.

Hindi Poem : माना जीवन इतना आसान नहीं

Hindi Poem : माना जीवन में अँधियारा है.
जुगनू कब रातों से हारा है.
माना रास्ता आसान नहीं है.
गिरना तेरी पहचान नहीं.

वक्त की ठोकरे बहुत हैं.
समय की पाबंदी भी है साथ तेरे.
कठिन रास्ता अनजान सफर है.
मंजिल अभी दूर बहुत है.

कितनी दूर कितनी पास.
इसका हिसाब कौन रखेगा.
तेरे साथ कौन चलेगा.
चलना तुझे अकेले ही होगा.

मंजिल पर पहुंच कर.
मुस्कुराना भी तुझे ही होगा.
अभी अपने हट को बांध कर रख.
अपने इरादों पर नजर रख.

सफर की कहानी रोचक होगी.
आगे इतिहास की कहानी वही होगी.
सपनों की उड़ान बड़ी ऊंची होगी.
खुद से ही लड़ाई होगी.

खुद की कहानी होगी.
खुद से ही हार कर जीत की जुबानी होगी.

लेखिका : Anupama Arya

Hindi Kahani : फेसबुक – क्या राशी और श्वेता भी हो गई धोखाधड़ी का शिकार ?

Hindi Kahani : कालेज में फ्री पीरियड में जैसे ही श्वेता ने अपनी सहेली अमिता और राशी को अपने बौयफ्रैंड रोहन के बारे में बताया तो राशी हैरान होते हुए बोली, ‘‘तू बड़ी छिपीरुस्तम निकली, पिछले 6 महीने से तुम दोनों का चक्कर चल रहा है और हमें तू आज बता रही है.’’

‘‘तो तुम ने कौन सा अपने जयपुर वाले बिजनैसमैन बौयफ्रैंड संचित से हमें अभी तक मिलवाया है,’’ श्वेता ने पलट कर जवाब दिया.

‘‘प्लीज, दोनों लड़ो मत. चलो, कैंटीन चलते हैं, बाकी बातें वहीं कर लेना,’’ अमिता दोनों को चुप कराते हुए बोली.

तीनों क्लास रूम से उठ कर कैंटीन की तरफ चल दीं.

राशी ने 3 बर्गर और हौट कौफी और्डर करते हुए श्वेता से पूछा, ‘‘चल छोड़, अब यह बता, तुम मिले कहां? रोहन के परिवार में कौनकौन है? हमें उस से कब मिलवा रही है?’’

‘‘क्या एक के बाद एक सवालों की बौछार कर रही है, आराम से एकएक कर के पूछ,’’ अमिता ने राशी को टोका.

‘‘अभी तो मैं ही रोहन से नहीं मिली तो तुम्हें कैसे मिलवाऊं,’’ श्वेता ने मजबूरी जताई.

‘‘तो पिछले 6 महीने से तुम एक बार भी नहीं मिले,’’ राशी ने हैरानी से पूछा.

‘‘तो तुम कौन सा संचित से मिली हो,’’ श्वेता ने उसी लहजे में राशी से पूछा.

‘‘संचित बिजनैस के सिलसिले में अकसर विदेश जाता है, उस ने तो मुझे अपने साथ सिंगापुर चलने के लिए कहा था, पर मैं ने ही मना कर दिया. शादी के बाद उस के साथ दुनिया घूमूंगी,’’ राशी चहकते हुए बोली.

‘‘चलो, चलो, बर्गर खाओ, ठंडा हो रहा है,’’ अमिता ने कहा.

‘‘अच्छा, यह तो बता रोहन दिखता कैसा है, उस का कोई फोटो तो दिखा,’’ राशी श्वेता का मोबाइल उठाते हुए बोली.

‘‘अभी उस की आर्मी की ट्रेनिंग पूरी नहीं हुई है, इसलिए उस ने कोई फोटो नहीं भेजा,’’ श्वेता ने जवाब दिया, ‘‘सुनो, कल उस का बर्थडे है, मैं तुम सब को ट्रीट दूंगी,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘क्या तू ने रोहन के लिए कोई गिफ्ट नहीं भेजा,’’ अमिता ने श्वेता से पूछा.

‘‘क्यों नहीं, मैं ने उस की मनपसंद घड़ी कोरियर से एक हफ्ते पहले ही भेज दी थी,’’ श्वेता बोली.

‘‘पिछले महीने तेरे बर्थडे पर रोहन ने क्या दिया,’’ राशी ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘उस ने कहा कि वह ट्रेनिंग खत्म होते ही दिल्ली आएगा और मुझे मनपसंद शौपिंग कराएगा,’’ श्वेता चहकते हुए बोली.

‘‘ग्रेट,’’ राशी ने कहा.

‘‘एक मिनट, मुझे तो तुम दोनों के बौयफ्रैंड्स में कुछ गड़बड़ लग रही है,’’ अमिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘तेरा कोई बौयफ्रैंड नहीं है, इसलिए तू हम से जलती है,’’ राशी तुनक कर बोली.

तीनों कैंटीन से आ कर क्लास रूम में बैठ गईं, पर अमिता का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था, वह यही सोचती रही कि जिन लड़कों को इन्होंने देखा नहीं, उन से मिली नहीं, उन के सपनों में खो कर अपना कीमती समय बरबाद कर रही हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि इन दोनों को एक ही लड़का बेवकूफ बना रहा हो, लेकिन इन्हें समझाना बहुत मुश्किल है. उस ने मन ही मन एक प्लान बनाया और कालेज की छुट्टी के समय दोनों से बोली, ‘‘सुनो, तुम दोनों संडे को मेरे घर आ जाओ, मैं घर पर अकेली हूं, मम्मीपापा कहीं बाहर जा रहे हैं.’’

राशी और श्वेता दोनों संडे को 11 बजे अमिता के घर पहुंच गईं. अमिता दोनों के लिए गरमागरम मैगी बना कर लाई. इसी बीच अमिता अपना लैपटौप भी उठा लाई और दोनों से बोली, ‘‘चलो, आज रोहन और संचित से चैटिंग करते हैं.’’

यह सुन कर श्वेता ने जल्दी से अपना फेसबुक अकाउंट ओपेन किया और रोहन से चैटिंग करने लगी.

‘‘सुन, तू उसे यह मत बताना कि मेरी सहेलियां भी साथ हैं. उस से उस के कुछ फोटो मंगा,’’ अमिता ने श्वेता को सलाह दी.

‘‘6 महीने में रोहन को पूरा विश्वास हो गया था कि श्वेता उस के जाल में पूरी तरह फंस चुकी है, इसलिए उस ने अपने कुछ फोटो उसे भेज दिए.’’

फोटो देखते ही राशी चौंक उठी और बोली, ‘‘ये तो संचित के फोटो हैं.’’

अमिता उसे शांत करते हुए बोली, ‘‘चौंक मत, संचित और रोहन अलग न हो कर एक ही शख्स है, यह न तो आर्मी में है और न ही बिजनैसमैन. यह तुम दोनों को अपने अलगअलग नामों से बेवकूफ बना रहा है.’’

‘‘यह तू क्या कह रही है, क्या तू इसे जानती है?’’ राशी ने अमिता से पूछा.

उस ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम ही सोचो, तुम ने अपने बौयफ्रैंड्स को महंगे गिफ्ट भेजे, लेकिन उन्होंने तुम्हें कुछ नहीं दिया, मिलने के मौकों को टाला, यह तो अच्छा है कि तुम दोनों समय रहते बच गईं.’’

‘‘आजकल सोशल नैटवर्किंग साइट्स पर आएदिन ऐसे किस्से सुनने को मिल रहे हैं. इसलिए इन सब से सावधान रहना चाहिए,’’ उस ने आगे कहा.

‘‘पर मुझे तो रोहन ने अपना एड्रैस दिया था, जिस पर मैं ने गिफ्ट भेजे हैं,’’ श्वेता ने कहा.

‘‘मेरी भोली सहेली, जब तक तुम उस का पता करने उस के एड्रैस पर पहुंचोगी तब तक वह शातिर वहां से भाग चुका होगा, ऐसे लोग बहुत शातिर होते हैं, इसलिए कभी भी वे एक एड्रैस पर लंबे समय तक नहीं ठहरते. बस, अपना उल्लू सीधा किया और नौदो ग्यारह हो गए.’’ अमिता ने कहा.

‘‘कम औन, पहले अपनी ग्रैजुएशन पूरी करो फिर बौयफ्रैंड बनाना,’’ उस ने दोनों को सुझाव दिया.

‘‘तू ठीक कहती है अमिता, तू ने हमें हकीकत से परिचित करवा कर समय रहते बचा लिया, न जाने यह हमें कितना बेवकूफ बनाता,’’ राशी बोली.

‘‘चलो, तुम दोनों किसी अनहोनी से बच गईं अन्यथा ताउम्र उन्हें इस का खमियाजा भुगतना पड़ता. आओ, इसी बात पर पकौड़े बनाते हैं,’’ कह कर अमिता दोनों सहेलियों को ले कर किचन की ओर बढ़ गई.

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