लेखिका – संयुक्ता त्यागी
मैं खुद को इस पल से दूर, बहुत दूर, ले जाना चाहती हूं. दिमाग की नसें खिंच रही हैं. मुझे किसी अंधेरे कोने में छिप कर बैठना है लेकिन उसे छोड़ कर कैसे चली जाऊं. अभी तो उसे विदा करने की जिम्मेदारी बाकी है. रहरह कर अम्मा के शब्द मेरे कानों में गूंज रहे हैं, ‘मंजू, अब तू ही संभाल इसे, आज से विदाई तक की जिम्मेदारी तेरी.’
उन की बात सुन मेरे आंचल से खेल रही 4 साल की दम्मो ने मेरी तरफ देखा, ‘तुम मुझे विदा करोगी, भाभी?’
उस की बड़ीबड़ी बोलती आंखों में चमक आ गई थी. मैं ने मुसकरा कर हां कहा तो खुश हो गई.
‘ऐसी ही लाल साड़ी लाना मेरे लिए और सुंदर सी मेहंदी लगाना.’
अचानक करंट सा लगा, मैं दम्मो से किए अपने वादे को भूल कैसे गई? जल्दी से उठ अपनी अलमारी से उस की विदाई के लिए सहेज कर रखी लाल साड़ी ढूंढने लगी. निचले हिस्से में सब से पीछे रखी साड़ी को निकाल हाथ में लिया तो फिर रुका नहीं गया, कलेजे से लगा फफक पड़ी.
बहुत चाव से खरीदी थी अम्मा ने यह साड़ी दम्मो की शादी के लिए. कितना हंसी थी मैं कि अम्मा ने तो 4 साल की दम्मो की शादी की तैयारी भी शुरू कर दी है. तब कौन जानता था कि भविष्य की मुट्ठी में दम्मो के लिए क्या कैद है.
यहीं एकांत में रो लेना चाहती हूं. वो आंसू जिन्हें आज तक फर्ज के पीछे रोका हुआ था, जिन्हें दम्मो के सामने कभी आंखों तक आने की इजाज़त नहीं दी थी, आज उन आंसुओं का बांध टूट गया था. मेरी दम्मो चली गई थी.
“मां, आप इस तरह टूटोगी तो…” कहती हुई नैना की आवाज़ भर्रा गई. मैं ने उस के हाथ में साड़ी पकड़ा दी.
“देख नैना, सुबह इस साड़ी को पहना देना और मेहंदी लगा देना दम्मो के दोनों हाथों में.”
“मेहंदी?”
“दम्मो को बचपन में मेहंदी का बहुत शौक था, उस ने मुझ से वादा लिया था कि मैं उसे मेहंदी लगा कर विदा करूंगी,” बहू को बताते हुए मैं ने खुद को बामुश्किल संभाला.
“मैं थोड़ी देर अकेली रहना चाहती हूं, नैना.”
नैना चली गई और मेरे मन में न जाने कितने दबे विचार सिर उठाने लगे.
पिछले एक हफ्ते से हम सब जानते थे कि दम्मो के पास अब ज्यादा वक्त नहीं बचा, वह भी जानती थी, शायद तभी, अपनी पथराई आंखों को एकटक मेरे चेहरे पर टिकाए रहती. मैं भी उस के पास से नहीं हटी थी, जाने क्या कहना चाहती थी. क्या था उस के मन में, कोई समझ नहीं पा रहा था. कल शाम जब मैं ने उस के दोनों हाथ अपने हाथों में ले कहा, ‘दम्मो, अगली बार मेरी बेटी बन कर आना.’
एक हलकी सी मुसकराहट तैर गई थी उस निर्जीव चेहरे पर, शायद यही सुनना चाहती थी. उस के बाद उस ने आंखें नहीं खोलीं. आज जब धीरेधीरे नव्ज साथ छोड़ने लगी तो मैं घबरा गई. जानती थी कि वो जाएगी लेकिन उस पल लग रहा था किसी तरह इसे रोक लो. कोई मेरी दम्मो को रोक ले. पिछले 30 वर्षों से मैं उसे संभाल रही थी, आगे भी संभाल लूंगी. बस, दम्मो को जाने मत दो. जगत ने दम्मो के माथे पर आशीर्वाद भरा हाथ रखा, “दम्मो, तेरे सारे कष्ट, सारे पूर्वकर्मों के लेख आज पूरे हो गए. जा बेटा, अब तू जा.”
और अगले ही पल उस की कमजोर कलाई में फड़फड़ाती नव्ज शांत हो गई. शायद, दम्मो जाने के लिए जगत की अनुमति चाह रही थी.
दम्मो, दमयंती नाम था उस का, 3 भाइयों की छोटी लाड़ली बहन. मेरी शादी दम्मो के सब से बड़े भाई जगत से हुई थी. शादी से पहले जब पता लगा कि ननद सिर्फ 3 साल की है तो मेरी बहनें चिढ़ाया करतीं, ‘इतनी छोटी ननद है जीजी, गोदी में खिलाना.’
‘चलो अच्छा है ननद वाला रोब न जमाएगी, लेकिन तेरे लिए जिम्मेदारी जरूर बनेगी.’
‘मेरी जिम्मेदारी क्यों होगी वह? उस के अम्माबाबूजी हैं तो फिर 2 भाभियां और भी तो आएंगी.’
अल्हड़ उम्र थी मेरी, जिम्मेदारी शब्द सुनते ही चिढ़ जाती. बस, मैं ने मन ही मन फैसला कर लिया था कि मैं इस बच्ची से दूरी बना कर रखूंगी क्योंकि मुझे किसी तरह की जिम्मेदारी में नहीं फंसना. यह मैं सोच रही थी लेकिन विधि ने कुछ और ही सोचा हुआ था.
फेरों के समय दम्मो आ कर मुझ से बिलकुल सट कर बैठ गई. घूंघट की वजह से मैं उसे ठीक से देख नहीं पा रही थी और वह किसी तरह मेरा चेहरा देखने की लगातार कोशिश कर रही थी. कभी घूंघट के बाहर आंखें गड़ाती तो कभी घूंघट खींचती, उस की इस कोशिश पर मुझे हंसी आ रही थी.
ससुराल पंहुची तब भी दम्मो मेरी साड़ी का छोर पकड़े मेरे साथ ही थी. एक कमरे में बैठा दिया गया और जैसे ही मेरा घूंघट ऊपर किया गया, दम्मो खुशी से नाचने लगी, ‘अरे वाह, मेरी भाभी तो बहुत सुंदर हैं. देखो अम्मा, तुम से भी सुंदर हैं.’
उस की इस बालसुलभ हरकत पर न चाहते हुए भी मुझे प्यार आ गया. तब पहली बार उसे गौर से देखा- दूधिया रंग, बड़ीबड़ी बोलती आंखें और कंधे तक झूलते घुंघराले बाल. दम्मो के लिए जो पूर्वाग्रह मेरे मन में था, एक ही पल में जाता रहा. कितनी प्यारी बच्ची है, भला इस से कोई कैसे दूर रह सकता है.
फोन की घंटी से सोच का सिलसिला टूट गया. स्क्रीन पर छोटी देवरानी जया का नाम था.
“हां जया, 2 घंटे हो गए. बस, ख़ामोशी से चली गई हमारी दम्मो. सुबह किस टाइम तक आ जाओगे? उमेश भैया और रीना भी सुबह आएंगे. रात में ही निकलने को कह रहे थे, मैं ने मना कर दिया. जल्दबाजी से क्या होगा, वह तो चली ही गई.”
फोन कटने के बाद फिर अतीत में पहुंच गई. मेरे बाद दम्मो की 2 भाभियां आईं. रीना और जया. दोनों ही अच्छे स्वभाव की और सुलझी हुई हैं लेकिन दम्मो की जान मुझ में ही बसती थी.
अम्मा ने दम्मो को पूरी तरह से मुझे सौंप दिया था. सारे हक दे दिए थे, जो एक मां के होते हैं- लाड़ प्यार, पढ़ाना, डांटना सब.
तितली सी दम्मो मेरे इर्दगिर्द घूमती रहती. घुंघराले बाल उलझ जाते तो किसी को हाथ नहीं लगाने देती थी. तब मैं उसे बातों में लगा कर हौले से तेल लगाते हुए एकएक लट सुलझाती.
‘दम्मो, अच्छे से पढ़ाई कर ले और गणित के सारे सवाल मुझ से समझ ले, फिर मैं चली जाऊंगी तो कौन समझाएगा?’
‘तुम कहां जाओगी, भाभी?’
‘मायके जाना है मुझे 4 महीने के लिए.’
‘चार महीने, क्यों भाभी, पहले तो इतने दिन के लिए कभी नहीं गईं तुम?’
‘ओहो, कितने सवाल करती है यह लड़की.’
‘बताओ न, भाभी.’
‘तेरे लिए छोटा सा भतीजा या भतीजी लेने जाना है, अब खुश?’
‘सच्ची, फिर तो तुम जाओ. मैं पढ़ लूंगी और देखना, इस बार सब से अच्छे नंबर ला के दिखाऊंगी.’
दम्मो 7 साल की थी. पढ़ने में होशियार. सब कहते, इस की भाभी पढ़ाती है न, इसलिए इतनी होशियार है. लेकिन मेरी दम्मो थी ही अनोखी.
‘चलती हूं अम्मा,’ मायके जाते वक्त अम्मा का आशीर्वाद लिया, ऐसा लग रहा था कुछ छूट रहा है. मन बेचैन था, शायद अनहोनी की दस्तक सुन रहा था. गाड़ी में बैठी तो धड़कन तेज़ हो गई, मैं गाड़ी से उतर गई.
‘अम्मा, जी बहुत घबरा रहा है.’
‘क्यों परेशान होती है बिटिया, सब अच्छा होगा.’
अम्मा को लगा कि मैं अपनी डिलीवरी को ले कर घबरा रही हूं जबकि ऐसा नहीं था. दम्मो का माथा चूमा.
‘अम्मा, मेरी दम्मो का खयाल रखना.’ पता नहीं क्यों ये शब्द मेरे मुंह से निकले.
मायके में सब मेरा पूरा खयाल रख रहे थे लेकिन मेरा मन उस बच्ची की आंखों में अटका हुआ था. जाने क्या प्यार था हमारे बीच कि मैं उसे हर दिन याद करती. जगत को जब भी चिट्ठी भेजती तो दम्मो के बारे में जरूर पूछती. आज की तरह वीडियोकौल करना संभव होता तो मैं पक्का दिन में कई बार उसे वीडियोकौल करती.
डेढ़ महीने बाद नन्हा समर मेरी गोद में आ गया. पापा ने चिट्ठी की जगह फोन किया ताकि खुशखबरी पहुंचने में वक्त न लगे. मेरी ससुराल में फोन नहीं था, इसलिए पापा ने, बस, खबर करवा दी कि लड़का हुआ है.
मुझे उम्मीद थी कि इस खबर को सुन अगले ही दिन कोई न कोई आएगा. काश, दम्मो को भी ले आएं. कितनी खुश होगी छोटे से भतीजे को गोद में ले कर. अगले एक हफ्ते तक ससुराल से न कोई आया और न ही किसी ने फोन किया. पापा को चिंता हुई तो उन्होंने दोबारा फोन किया, पता चला अम्मा की तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए कोई नहीं आ पाया.
करीब 15 दिनों बाद जगत आए. चेहरा बुझा हुआ था मानो किसी गहरी समस्या से जूझ रहे हों.
‘अम्मा कैसी हैं?’
‘ठीक हैं.’
‘और दम्मो, उस ने आने की ज़िद की होगी, ले आते उसे, मैं भी मिल लेती उस से.’
‘मिल लेना, थोड़े दिनों में तो घर आ ही जाओगी,’ जगत की आवाज में बेचैनी थी. वे मुझ से आंखें चुरा रहे थे. मैं ने सोचा, हो सकता है अम्मा की तबीयत को ले कर परेशान हों.
2 महीने बाद मैं ससुराल लौट रही थी. रास्तेभर जाने क्याक्या सोचती रही. अम्मा समर को देख खुश हो जाएंगी, बिल्कुल जगत पर गया है न और दम्मो, उसे तो खिलौना मिल जाएगा. सारे दिन गोद में ले घूमती फिरेगी. ऐसे तो हो गई उस की पढ़ाई. न, न, समझा दूंगी, समर की वजह से नंबर कम आए तो खैर नहीं. वैसे समझदार है दम्मो, मेरी हर बात मान लेती है. विचारों में खोए हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला.
दरवाजे पर अम्मा खड़ीं थीं. इन 4 महीनों में चेहरा बिलकुल बदल गया था, उम्र 10 साल बढ़ गई थी. तबीयत खराब थी शायद इसलिए. खैर, अब मैं आ गई हूं, अम्मा का पूरा खयाल रखूंगी.
अम्माबाबूजी के पैर छू समर को उन की गोद में थमा दिया. अम्मा की आंखों से झरझर आंसू बह निकले. दिल धक्क से रह गया.
‘सब ठीक तो है न, दम्मो, दम्मो कहीं नज़र नहीं आ रही, अम्मा, कहां है?’
मैं ने बौखला कर दम्मो को पुकारा. कोई जवाब नहीं आया. मैं तेजी से घर के अंदर की ओर दौड़ी. अम्मा के कमरे में कदम रखा और मैं जड़ हो गई. दम्मो बिस्तर पर थी. पथराई हुई आंखें, तिरछा मुंह. शरीर में सिर्फ हड्डियां बची थीं. 4 महीने पहले जिस हंसतीखेलती बच्ची को छोड़ कर गई थी, आज वह जिंदा लाश बनी हुई थी.
दिमाग ने काम करना बंद कर दिया, आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं बेहोश हो कर गिर गई.
“मां, चाचाचाची आ गए.” समर की आवाज से मैं वर्तमान में लौटी. उठ कर बाहर आई, सामने रीना थी. बिलखती हुई मुझ से लिपट गई.
“दीदी, क्या कह कर आप को सांत्वना दूं. दम्मो हमारी ननद थी लेकिन आप की तो बेटी ही थी. उस की देखभाल करने के लिए आप ने दूसरी संतान के बारे में भी नहीं सोचा.”
“रात के 2 बज रहे हैं रीना, तुम तो सुबह आने वाले थे, फिर?”
“भाभी, आप को इस हाल में अकेले कैसे छोड़ सकते थे हम,” उमेश भैया ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.
दुख तो हम सभी को था. उन की भी तो छोटी बहन थी. मैं ने इतने साल दम्मो की देखभाल की तो उमेश भैया और रीना ने अम्माबाबूजी का खयाल रखा. वहीं नरेश भैया और जया लगातार आर्थिक रूप से सहयोग करते रहे. बिना पूरे परिवार की मदद के यह लंबी तपस्या संभव नहीं थी.
“मुझे आज भी वह दिन याद है भाभी, आप को मायके गए 15 दिन हुए थे. दोपहर में अम्मा आराम कर रही थीं और दम्मो पढ़ रही थी. तभी पड़ोस में रहने वाली उस की सहेली उसे खेलने के लिए बुलाने आई. दम्मो उस के साथ खेलने चली गई. दोनों केले खाती हुई छत पर जा पहुंचीं. न जाने कहां से काल बन कर बंदरों का झुंड आ गया. वह लड़की केले फेंक भाग गई लेकिन दम्मो ने केले फेंकने की जगह और कस कर पकड़ लिए. उन केलों के लिए बंदरों ने दम्मो को बुरी तरह खदेड़ा और छत पर, जिस तरफ़ मुंडेर नहीं थी वहां, से दम्मो सिर के बल आंगन में आ गिरी,” बात पूरी करतेकरते उमेश की हिचकी बंध गई.
“दम्मो को तुरंत डाक्टर के यहां ले कर गए. उन्होंने दिल्ली रैफर कर दिया. बहुत मुश्किल वक्त था, तुम डिलीवरी के लिए मायके में थीं. अम्मा सदमे में थीं. बस, हम तीनों भाई एकदूसरे को हौसला देते दम्मो को ले दिल्ली पहुंचे. सारे टैस्ट हुए, अच्छे से अच्छे डाक्टर को दिखाया. डाक्टर अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि दम्मो के दिमाग में गहरी चोट लगी है जिस की वज़ह से उस के ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है. वह पार्शियली पैरालाइज्ड थी,” जगत ने दम्मो के पार्थिव शरीर की ओर देखते हुए कहा.
हां, अब शरीर ही तो रह गया था. वो जो कभी घर की रौनक थी, पूरे परिवार की जान थी, सिर्फ 7 साल की उम्र में जिंदा लाश बन गई और अगले 30 साल ऐसे ही बिस्तर पर रही. बहुत मुश्किल था हमारे लिए अपनी लाडली को इस तरह तिलतिल कर हर दिन मरते देखना. मैं रातदिन उस की सेवा कर रही थी, हर संभव प्रयास कर रही थी जिस से उसे ठीक किया जा सके लेकिन…उसे ठीक नहीं होना था और नहीं हुई. उस की पथराई आंखों में हर रोज़ कुछ सवाल तैरते थे जैसे कह रही हो, क्यों भाभी, मेरे ही साथ ऐसा क्यों हुआ?
इस अबोले सवाल का मेरे पास कोई जवाब नहीं था.
“मंजू, नरेश और जया पहुंचने वाले हैं, तैयारी करो.”
खिड़की से बाहर देखा, आसमान में हलकी लालिमा छा गई थी.
“कैसी सुबह आई है आज, जगत, हमारी दम्मो को ले जाने.”
“दम्मो को ले जाने नहीं, मंजू, उसे मुक्त करने. आज हमारी दम्मो सारे कष्टों से छूट गई है.”
हां, सच ही तो है, दम्मो 30 साल की सज़ा से मुक्त हो गई है, फिर से लौट आने के लिए. बस, इस बार आए तो खुश रहने के लिए आए, चहकने के लिए आए और लंबी व स्वस्थ उम्र ले कर आए. अनायास ही मेरे हाथ जुड़ गए और आंखों से दो बूंद आंसू ढुलक पड़े.