Download App

Love Story : इमोशनल अत्याचार – रक्षिता को किस मोड़ पर ले गई जिंदगी ?

Love Story : रक्षिता का सामाजिक बहिष्कार तो मानो हो ही चुका था. रहीसही कसर उस के दोस्त वरुण ने पूरी कर दी थी. रक्षिता को ऐसा लग रहा था कि वह जैसे कोई सपना देख रही हो. 20 दिनों में उस की जिंदगी तहसनहस हो चुकी थी.

20 दिनों पहले रक्षिता के पापा की हार्टअटैक से मौत हो चुकी थी. पापा की मौत के बाद भाई ने अपना असली रंग दिखा दिया. कहते हैं सफलता मिलने के बाद इंसान अपना असली रंग दिखाता है, लेकिन यहां तो दुख की घड़ी में भाई ने रक्षिता को अपना असली चेहरा दिखा दिया था.

अब क्या किया जाए. मां पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी. दादी की भी एक साल पहले मृत्यु हो गई थी. रक्षिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसे ऐसे दिन भी देखने पड़ेंगे.

रिश्तेदारों के सामने भाई ने हाथ नचा कर पुष्टि कर दी थी कि रक्षिता की वजह से ही पापा की मृत्यु हुई. बूआ, जो उसे बहुत मानती थीं, ने भी साफ कह दिया था, ‘ऐसी लड़की से वे कोई नाता नहीं रखना चाहतीं.’

उस के भाई ने उस से साफतौर पर कह दिया था, ‘अब घर वापस आने की जरूरत नहीं है. तुम्हारी शादी पर खर्च करने की मेरी कोई मंशा नहीं है.’ उस ने दिल्ली जाने का टिकट उस के हाथ में थमा दिया.

‘कोई बात नहीं, कम से कम वरुण तो साथ देगा ही. अब जब समस्या आ ही गई है तो समाधान भी ढूंढ़ना ही पड़ेगा,’ अपनी आंखें पोंछते हुए रक्षिता ने मन ही मन सोचा.

दिल्ली आ कर उस ने दोबारा औफिस जौइन कर लिया. रक्षिता ने वरुण से मिलने की काफी कोशिश की पर वरुण ने उस से दोबारा मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. रक्षिता ने सोचा कि हो सकता है वरुण औफिस के काम में बिजी हो.

एक दिन जब कैंटीन में रक्षिता की सपना से मुलाकात हुई तब उसे हकीकत मालूम हुई. सपना ने बताया, ‘‘रक्षिता, मैं तुम्हें एक बात बताना चाहती हूं. उम्मीद है कि तुम इसे हलके में नहीं लोगी.’’

‘‘पर बताओ तो सही बात क्या है,’’ रक्षिता परेशान होते हुए बोली.

‘‘वरुण कह रहा था कि तुम्हारे रोनेधोने की कहानियां सुनने का स्टेमिना उस में नहीं है.’’

यह सुनते ही रक्षिता के चेहरे की हवाइयां उड़ गईं. अब उसे मालूम हो गया था कि वरुण उस से कटाकटा सा क्यों रहता है. उस के प्यार ने ही तो उसे हिम्मत बंधाई थी. उसी के बलबूते उस ने अपने भाई की बातों का बहिष्कार किया था. उस से लड़ी थी, लेकिन अब तो सारी उम्मीदें चकनाचूर होती नजर आ रही थीं.

वरुण के प्यार में वह काफी आगे बढ़ चुकी थी.

पापा की मृत्यु ने उसे अंदर तक झकझोर दिया था. उस के बाद भाई ने और अब वरुण की बेवफाई ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था.

उस के मन में अब तरहतरह के खयाल आ रहे थे. अब क्या होगा. कौन शादी करेगा उस से. पापा की मृत्यु के बाद उन की नौकरी उस के भाई को मिल चुकी थी. घर और थोड़ीबहुत प्रौपर्टी पर भाई ने पहले ही अपना कब्जा जमा लिया था. रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. अब रक्षिता को पता चल गया था कि वह दुनिया में अकेली है. उस का संघर्ष सही माने में अब शुरू हुआ है.

पहली बार पता चला कि लड़के सामाजिक सुरक्षा, भावनात्मक सुरक्षा, रिश्तों की सुरक्षा के साथ पैदा होते हैं. खाली हाथ तो सिर्फ लड़कियां ही पैदा होती हैं.

लोग रक्षिता को लैक्चर देते कि तुम खुद सफल हो कर दिखाओ ताकि वरुण तुम्हें छोड़ने के निर्णय को ले कर पछताए. पर वह किसकिस को समझाए. ऐसा तो फिल्मों में ही संभव है. और रिश्तों की सुरक्षा के बिना वह कितना व क्या कर लेगी.

धीरेधीरे समय बीतने लगा और रक्षिता ने अब किसी प्राइवेट इंस्टिट्यूट में इवनिंग क्लासेस ले कर एलएलबी की पढ़ाई शुरू कर दी. उस ने सोचा कि एक डिगरी भी हो जाएगी और खाली समय भी आराम से कट जाएगा.

नीलेश से उस की वहीं मुलाकात हुई थी. लेकिन वह अब लड़कों से इतना उकता चुकी थी कि उन से बातें करने में भी कतराती थी. नीलेश एक अंगरेजी अखबार में काम करता था. एमबीए करने के बाद उस ने एक दैनिक न्यूजपेपर के विज्ञापन विभाग में नौकरी जौइन की थी. अब एलएलबी की पढ़ाई रक्षिता के साथ कर रहा था.

अब तक बेवकूफ बनी रक्षिता को इतनी समझ आ चुकी थी कि जिंदगी बिताने के लिए एक साथी की अहम जरूरत होती है और इस के लिए जरूरी नहीं कि उसे प्यार किया जाए. प्यार का दिखावा भी किया जा सकता है लेकिन फिर से दिल लगा बैठी तो पता नहीं कितनी तकलीफ होगी.

नीलेश से उस का मेलजोल इस कदर बढ़ा कि धीरेधीरे बात शादी तक पहुंच गई. दिखावा ही सही, पर रक्षिता ने शादी करने में देरी नहीं की. नीलेश की मां ने भी खुलेदिल से रक्षिता को स्वीकार किया. सब ने प्रेमविवाह होने के बावजूद उस का खूब स्वागत किया था और भरपूर प्यार दिया था. पर रक्षिता ने मन की गांठें नहीं खोलीं. उसे लगता था कि एक बार भावनात्मक रूप से जुड़ गई तो गई काम से.

उस के व्यवहार से ससुराल में सभी खुश थे. गलती से भी उस ने कोई कटु शब्द नहीं बोला था. उसे गुस्सा आता ही नहीं था. बातचीत वह बहुत ज्यादा नहीं करती थी. जब भी कोई किसी की बुराई शुरू करता तो वह वहां से खिसक जाती थी.

लेकिन उस की आंखें उस दिन खुलीं जब नीलेश की मां अपनी बहन को बता रही थी, ‘‘बड़ा शौक था मुझे अपनी बहू में बेटी ढूंढ़ने का. वह तो बिलकुल मशीन है. आज तक मैं उस की सास ही हूं, मां नहीं बन पाई.’’

यह सुन कर रक्षिता अपने इमोशंस रोक न सकी और उस पर हुए इमोशनल अत्याचार आंसू बन कर बहने लगे. आंसुओं के साथ बहुतकुछ बह रहा था.

Hindi Kahani : घरौंदा – रेखा की आंखे क्या कहती है ?

Hindi Kahani : दिल्ली से उस के पति का तबादला जब हैदराबाद की वायुसेना अकादमी में हुआ था तब उस ने उस नई जगह के बारे में उत्सुकतावश पति से कई प्रश्न पूछ डाले थे. उस के पति अरुण ने बताया था कि अकादमी हैदराबाद से करीब 40 किलोमीटर दूर है. वायुसैनिकों के परिवारों के अलावा वहां और कोई नहीं रहता. काफी शांत जगह है. यह सुन कर रेखा काफी प्रसन्न हुई थी. स्वभाव से वह संकोचप्रिय थी. उसे संगीत और पुस्तकों में बहुत रुचि थी. उस ने सोचा, चलो, 3 साल तो मशीनी, शहरी जिंदगी से दूर एकांत में गुजरेंगे.

अकादमी में पहुंचते ही घर मिल गया था, यह सब से बड़ी बात थी. बच्चों का स्कूल, पति का दफ्तर सब नजदीक ही थे. बढि़या पुस्तकालय था और मैस, कैंटीन भी अच्छी थी. पर इसी कैंटीन से उस के हृदय के फफोलों की शुरुआत हुई थी. वहां पहुंचने के दूसरे ही दिन उसे कुछ जरूरी कागजात स्पीड पोस्ट करने थे, इसलिए उन्हें बैग में रख कर कुछ सामान लेने के लिए वह कैंटीन में पहुंची. सामान खरीद चुकने के बाद घड़ी देखी तो एक बजने को था. अभी खाना नहीं बना था. बच्चे और पति डेढ़ बजे खाने के लिए घर आने वाले थे. सुबह से ही नए घर में सामान जमाने में वह इतनी व्यस्त थी कि समय ही न मिला था. कैंटीन के एक कर्मचारी से उस ने पूछा, ‘‘यहां नजदीक कोई पोस्ट औफिस है क्या?’’

‘‘नहीं, पोस्ट औफिस तो….’’

तभी उस के पास खड़े एक व्यक्ति, जो वेशभूषा से अधिकारी ही लगता था, ने उस से अंगरेजी में पूछा था, ‘‘क्या मैं आप की मदद कर सकता हूं? मैं उधर ही जा रहा हूं.’’ थोड़ी सी झिझक के साथ ही उस के साथ चल दी थी और उस के प्रति आभार प्रदर्शित किया था. रेखा शायद वह बात भूल भी जाती क्योंकि नील के व्यक्तित्व में कोई असाधारण बात नहीं थी लेकिन उसी शाम को नील उस के पति से मिलने आया था और फिर उन लोगों में दोस्ती हो गई थी. नील देखने में साधारण ही था, पर उस का हंसमुख मिजाज, संगीत में रुचि, किताबीभाषा में रसीली बातें करने की आदत और सब से बढ़ कर लोगों की अच्छाइयों को सराहने की उस की तत्परता, इन सब गुणों से रेखा, पता नहीं कब, दोस्ती कर उस के बहुत करीब पहुंच गई थी. नील की पत्नी, अपने बच्चों के साथ बेंगलुरु में रहती थी. वह अपने पिता की इकलौती बेटी थी और विशाल संपत्ति की मालकिन. अपनी संपत्ति को वह बड़ी कुशलता से संभालती थी. बच्चे वहीं पढ़ते थे. छुट्टियों में वे नील के पास आ जाते या नील बेंगलुरु चला जाता. लोगों ने उस के और उस की पत्नी के बारे में अनेक अफवाहें फैला रखी थीं. कोई कहता, ‘बड़ी घमंडी औरत है, नील को तो अपनी जूती के बराबर भी नहीं समझती.’ दूसरा कहता, ‘नहीं भई, नील तो दूसरी लड़की को चाहता था, लेकिन पढ़ाई का खर्चा दे कर उस के ससुर ने उसे खरीद लिया.’ स्त्रियां कहतीं, ‘वह इस के साथ कैसे खुश रह सकती है? उसे तो विविधता पसंद है.’

लेकिन नील इन सब अफवाहों से अलग था. वह जिस तरह सब से मेलजोल रखता था, उसे देख कर यह सोचना भी असंभव लगता कि उस की पत्नी से पटती नहीं होगी. रेखा को इन अफवाहों की परवा नहीं थी. दूसरों की त्रुटियों में उसे कोई रुचि नहीं थी. जल्दी ही उसे अपने मन की गहराइयों में छिपी बात का पता लग गया था, और तब गहरे पानी में डूबने वाले व्यक्ति की सी घुटन उस ने महसूस की थी. ‘यह क्या हो गया?’ यही वह अपनेआप से पूछती रहती थी. रेखा को पति से कोई शिकायत नहीं थी, बल्कि वह उसे प्यार ही करती आई थी. अपने बच्चों से, अपने घर से उसे बेहद लगाव था. शायद इसी को वह प्यार समझती थी. लेकिन अब 40 की उम्र के करीब पहुंच कर उस के मन ने जो विद्रोह कर दिया था, उस से वह परेशान हो गईर् थी. वह नील से मिलने का बहाना ढूंढ़ती रहती. उसे देखते ही रेखा के शरीर में एक विद्युतलहरी सी दौड़ जाती. नील के साथ बात करने में उसे एक विचित्र आनंद मिलता, और सब से अजीब बात तो यह थी कि नील की भी वैसी ही हालत थी. रेखा उस की आंखों का प्यार, याचना, स्नेह, परवशता-सब समझ लेती थी और नील भी उस की स्थिति समझता था.

वहां के मुक्त वातावरण में लोगों का ध्यान इस तरफ जाना आसान नहीं था. और इसी कारण से दोनों दूसरों से छिप कर मानसिक साहचर्य की खोज में रहते और मौका मिलते ही, उस साहचर्य का आनंद ले लेते. अजीब हालत थी. जब मन नील की प्रतीक्षा में मग्न रहता, तभी न जाने कौन उसे धिक्कारने लगता. कई बार वह नील से दूर रहने का निर्णय लेती पर दूसरे ही क्षण न जाने कैसे अपने ही निर्णय को भूल जाती और नील की स्मृति में खो जाती. रेखा अरुण से भी लज्जित थी. अरुण की नील से अच्छी दोस्ती थी. वह अकसर उसे खाने पर या पिकनिक के लिए बुला लाता. ऐसे मौकों पर जब वह मुग्ध सी नील की बातों में खो जाती, तब मन का कोई कोना उसे बुरी तरह धिक्कारता. रेखा के दिमाग पर इन सब का बहुत बुरा असर पड़ रहा था. न तो वह हैदराबाद छोड़ कर कहीं जाने को तैयार थी, न हैदराबाद में वह सुखी थी. कई बार वह छोटी सी बात के लिए जमीनआसमान एक कर देती और किसी के जरा सा कुछ कहने पर रो देती. अरुण ने कईर् बार कहा, ‘‘तुम अपनी बहन सुधा के पास 15-20 दिनों के लिए चली जाओ, रेखा. शायद तुम बहुत थक गई हो, वहां थोड़ा अच्छा महसूस करोगी.’’

रेखा की आंखें, इन प्यारभरी बातों से भरभर आतीं, लेकिन बच्चों के स्कूल का बहाना कर के वह टाल जाती. ऐसे में उस ने नील के तबादले की बात सुनी. उस का हृदय धक से रह गया. इस की कल्पना तो उस ने या नील ने कभी नहीं की थी. हालांकि दोनों में से एक को तो अकादमी छोड़ कर पहले जाना ही था. अब क्या होगा? रेखा सोचती रही, ‘इतनीजल्दी?’ एक दिन नील का मैसेज आया. उस ने स्पष्ट शब्दों में पूछा था, ‘‘क्या तुम अरुण को छोड़ कर मेरे साथ आ सकती हो?’’ बहुत संभव है कि फिर हमें एक साथ, एक जगह, रहने का मौका कभी न मिले. मैं तुम्हारे बिना कैसे रहूंगा, पता नहीं. पर, मैं तुम्हें मजबूर भी नहीं करूंगा. सोच कर मुझे बताना. सिर्फ हां या न कहने से मैं समझ जाऊंगा. मुझे कभी कोईर् शिकायत नहीं होगी.’’ रखा ने मैसेज कई बार पढ़ा. हर शब्द जलते अंगारे की तरह उस के दिल पर फफोले उगा रहा था. आगे के लिए बहुत सपने थे. अरुण से भी बेहतर आदमी के साथ एक सुलझा हुआ जीवन बिताने का निमंत्रण था.

और पीछे…17 साल से तिनकातिनका इकट्ठा कर के बनाया हुआ छोटा सा घरौंदा था. प्यारेप्यारे बच्चे थे, खूबियों और खामियों से भरपूर मगर प्यार करने वाला पति था. सामाजिक प्रतिष्ठा थी, और बच्चों का भविष्य उस पर निर्भर था.

लकिन उन्हीं के साथ, उसी घरौंदे में विलीन हो चुका उस का अपना निजी व्यक्तित्व था. कितने टूटे हुए सपने थे, कितनी राख हो चुकी उम्मीदें थीं. बहुत से छोटेबड़े घाव थे. अब भी याद आने पर उन में से कभीकभी खून बहता है. चाहे प्रौढ़त्व ने अब उसे उन सब दुखों पर हंसना सिखा दिया हो पर यौवन के कितने अमूल्य क्षणों का इसी पति की जिद के लिए, उस के परिवार के लिए उस ने गला घोंट लिया. शायद नील के साथ का जीवन इन बंधनों से मुक्त होगा. शायद वहां साहचर्य का सच्चा सुख मिलेगा. शायद… लेकिन पता नहीं. अरुण के साथ कई वर्ष गुजारने के बाद अब वह क्या नील की कमजोरियों से भी प्यार कर सकेगी? क्या बच्चों को भूल सकेगी? नील की पत्नी, उस के बच्चे, अरुण, अपने बच्चे-इन सब की तरफ उठने वाली उंगलियां क्या वह सह सकेगी?

नहीं…नहीं…इतनी शक्ति अब उस के पास नहीं बची है. काश, नील पहले मिलता. रेखा रोई. खूब रोई. कई दिन उलझनों में फंसी रही. उस शाम जब उस ने अरुण के  साथ पार्टी वाले हौल में प्रवेश किया तो उस की आंखें नील को ढूंढ़ रही थीं. उस का मन शांत था, होंठों पर उदास मुसकान थी. डीजे की धूम मची थी. सुंदर कपड़ों में लिपटी कितनी सुंदरियां थिरक रही थीं. पाम के गमले रंगबिरंगे लट्टुओं से चमक रहे थे और खिड़की के पास रखे हुए लैंप स्टैंड के पास नील खड़ा था हाथ में शराब का गिलास लिए, आकर्षक भविष्य के सपनों, आत्मविश्वास और आशंका के मिलेजुले भावों में डूबताउतराता सा. अरुण के साथ रेखा वहां चली गई. ‘‘आप के लिए क्या लाऊं?’’ नील ने पूछा. रेखा ने उस की आंखों में झांक कर कहा, ‘‘नहीं, कुछ नहीं, मैं शराब नहीं पीती.’’

नील कुछ समझा नहीं, हंस कर बोला, ‘‘मैं तो जानता हूं आप शराब नहीं पीतीं, पर और कुछ?’’

‘‘नहीं, मैं फिर एक बार कह रही हूं, नहीं,’’ रेखा ने कहा और वहां से दूर चली गई. अरुण आश्चर्य से देखता रहा लेकिन नील सबकुछ समझ गया था.

Best Hindi Story : निर्णय – रजनी को क्यों कोई पढ़ने नहीं देता था ?

Best Hindi Story : रजनी कब से बस स्टैंड पर खड़ी थी. घंटों उसे इस तरह से अकेले खड़े देख कर आसपास के शोहदे इकट्ठे होने लगे थे. अचानक एक आया और उस के बगल से धक्का सा मारता हुआ निकल गया. रजनी खिसिया कर रह गई. अपनी इस हालत पर रोना आ गया उसे. उसे लगा, वह इसी लायक है. कब से खड़ी है. अनिश्चय की अवस्था थी तो यहां तक आई ही क्यों? अब क्या करे, कहां जाए, लौट जाए. अभी भी क्या बिगड़ा है. घर जा कर निर्भय से कह देगी कि यों ही कहीं निकल गई थी. उसे क्या पता चलेगा कि रजनी के मन में क्या चल रहा था और वह क्या सोच कर घर से निकली थी. लौटने का रास्ता तो अभी भी खुला ही है. परंतु वापस लौटने का अर्थ है उन्हीं स्थितियों में पुन: वापस लौट जाना जिन से वह दूर भाग जाना चाहती है. क्या वह मायके जाने वाली बस में चढ़े? बस स्टौप पर खड़ेखड़े ही उस को अपना अतीत याद आ गया.

5 भाईबहनों में तीसरे नंबर की रजनी की सुंदरता ही उस की सब से बड़ी पूंजी थी. उस के खिले हुए गोरे रंग के आगे सूरज की धूप भी फीकी लगती. बचपन से ही घरबाहर के लोगों की बातों से उस के अंदर अपनी इस विशिष्टता का एहसास हो गया था. उस ने पढ़ाई में परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं समझी.

सुंदर लड़कियों को पढ़ने की क्या जरूरत? उन के सपनों का राजकुमार तो घोड़े पर सवार हो कर आता है, फिल्मी हीरो की तरह ले जाता है और जीवन भर उन के लिए पलकपांवड़े बिछा कर रखता है. यही सुंदर सा ख्वाब रजनी का भी था. उस के पापा भी लड़कियों को ज्यादा शिक्षित करने और बड़ी उम्र तक घर बिठाए रखने के हिमायती नहीं थे. 18 वर्ष की होतेहोते उस के लिए योग्य वर की खोज शुरू हो गई थी. बड़ी लड़की की शादी तो उन्होंने 18 वर्ष की उम्र में ही कर दी थी.

रजनी की सोच भी इस स्तर से ऊंची न उठ पाई. किसी तरह से इंटर पास कर घर बैठ कर अपने लिए योग्य वर मिलने का इंतजार करने लगी. इतना अवश्य हुआ कि उस ने स्वयं को सिलाईकढ़ाई व पाककला में निपुण कर लिया था. घर के कामकाज में कुशल रजनी मां की लाड़ली थी. एक दिन रजनी इस घर को छोड़ कर चली जाएगी, यह सोच कर ही मां का कलेजा कांप जाता. पर यथार्थ तो यही था. मां जानती थीं कि आज नहीं तो कल, रजनी को जाना ही है.

आज रजनी को देखने कुछ लोग आ रहे थे. छोटी बहन कितनी उत्साहित है. रजनी कम बेचैन नहीं है. उसे देखने आने वाला कैसा होगा, उस से क्याक्या पूछेगा, यही सब सोच रही है. वह अच्छी लगे, इस के लिए खुद को उस ने ढंग से सजायासंवारा है. सुंदर सलोनी रजनी से कौन ब्याह करना न चाहेगा, उसे खुद पर पूरा विश्वास था और हुआ भी ऐसा ही.

निर्भय उसे देखने आया और एक ही नजर में हां कर गया. वह खुद सांवला था और गोरीचिट्टी रजनी को देखते ही अपनेआप को भूल गया.

सांवले या काले लड़कों को गोरी दुलहन की बड़ी चाह होती है और लड़कों का कोई रंग थोड़े ही देखा जाता है. नानी कहती थीं लड़का तो घी का लड्डू होता है, टेढ़ा भी हो तो भी कोई बात नहीं. रजनी भी इसी सोच का एक हिस्सा थी. अपनी खुद की सोच विकसित करने का न उसे माहौल मिला था न उस में खुद इस की क्षमता थी. बस, समय के बहाव में बहती चली गई और जैसा होता गया उसे स्वीकारती गई. इसी तरह ब्याह कर रजनी निर्भय के घर आ गई.

बड़ा सा संयुक्त परिवार था निर्भय का. सास, ससुर, जेठ, जेठानी, देवर, ननद कोई सा रिश्ता बाकी न था. रजनी से सभी को बड़ी अपेक्षाएं थीं. सुघड़, कार्यकुशल, सब का आदरसम्मान करने वाली बहू की छवि सब रजनी में देखना चाहते थे. रजनी भी सब की अपेक्षाओं पर खरी उतरने के प्रयास में लग गई. पर इन सब के बीच उस का एक निजी अस्तित्व भी था, मन में बसी इच्छाएं भी थीं.

निर्भय के साथ समय बिताने, घूमनेफिरने जैसी सहज इच्छाएं थीं जो हर नईनवेली के दिल में विवाह के शुरू के दिनों में होती हैं. परंतु शादी के शुरू के दिनों में ही रजनी के समक्ष निर्भय का व्यक्तित्व उजागर हो गया. परिवार के लोग, परिचित उसे मस्तमौला कहते. जहां जाता वहीं का हो कर रह जाता. घर पर कोई उस का इंतजार कर रहा है, परिवार के लोग उस से कुछ अपेक्षाएं रखते हैं, इन सब बातों का उसे कोई खयाल न था. नईनवेली पत्नी के प्रति भी उसे आकर्षण न था. बस, सारा दिन बिता कर रात को घर आ कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता. खाना भी बाहर खा आता. वह रजनी को चाहता तो था पर उस चाहत को अभिव्यक्त करना और रजनी की भावनाओं को समझने व उन्हें महत्त्व देने की न उस में समझ थी न इच्छा.

संयुक्त परिवार में रहते हुए पत्नी को ले कर कहीं घूमने जाने की हिम्मत वह नहीं जुटा पाता. परिवार के अन्य सदस्यों के साथ ही रजनी का समय कटता. यहांवहां घूमते रहना निर्भय का शगल था. उस ने ठेकेदारी के लिए रजिस्ट्रेशन करा रखा था. काम मिलने के लिए अफसरों के साथ लगा रहता. विभागीय अधिकारियों को भी अपने चारों ओर घूमने वाले कारिंदे चाहिए होते हैं, सो वे निर्भय को अपने साथ लिए रहते. आवश्यकअनावश्यक वे जहां भी दौरे पर जाते निर्भय को बुलावा आ जाता और निर्भय साथ चल देता. दिन या समय की उसे कोई चिंता न रहती.

रजनी सोचती, यदि इसी तरह जीवन काटना था तो निर्भय ने उस से विवाह ही क्यों किया. रजनी मायके जाती, चाहे जितने दिन रह आए, वह कभी उसे लिवाने न आता. हमेशा वह अपने भाई के साथ ही वापस आती. ससुराल आ कर फिर उसी माहौल में कुछ समय में ही उस का मन विरक्त हो जाता और फिर वह मायके आ जाती. और कोई ठिकाना तो था नहीं.

अकेली कहां जाती. इतनी शिक्षा और आत्मविश्वास भी नहीं था कि वह खुद के बूते कुछ करने की सोचती. रजनी मन मसोस कर रह जाती. क्यों उस ने मन लगा कर पढ़ाई नहीं की. आज वह अपने पैरों पर खड़ी होती तो इस तरह मुहताज न होती. कभी ससुराल कभी मायके के बीच पेंडुलम बनी रजनी को अपना जीवन इतना व्यर्थ लगने लगा कि कई बार आत्महत्या जैसे विचार भी उस के मन में आने लगे थे.

मायके आ कर रजनी मम्मी, पापा, भाई, बहनों के साथ स्वयं को खुश रखने की कोशिश करती, सब के अनुसार खुद को ढाल कर चलने की कोशिश करती ताकि उस का बारबार मायके आना किसी को अखरे नहीं. मां उस की मनोस्थिति को समझती थीं. परंतु फिर भी, जब मन उकता जाता तो वह फिर ससुराल लौट जाती, यही उस के जीवन का ढर्रा बन गया था.

liteनिर्भय की बहुत ज्यादा कमाई नहीं थी कि वह पत्नी को आर्थिक रूप से ही खुश रख सके. इसी तरह 10 वर्ष बीत गए. घिसटतीघिसटती रसहीन जिंदगी. रजनी का लावण्य भी फीका पड़ गया. पर इतना अवश्य हो गया कि नन्हा अभिनव उस की गोद में आ गया. रजनी का समय अभिनव के प्यारदुलार, देखभाल में कटने लगा. उसे लगा जैसे उस के जीवन के वसंत में नए पुष्प खिल गए हों. बेटे के जन्म से निर्भय के व्यक्तित्व में भी कुछ स्थायित्व आया. वह अब घर पर ज्यादा समय देने लगा.

रजनी को लगा अब उस का जीवन व्यवस्थित हो जाएगा. पर अभिनव अभी 6 माह का भी नहीं हुआ था कि निर्भय फिर वही अपनी पुरानी जीवनशैली पर लौट आया. सुबह जाता तो फिर पता ही न होता कब लौटेगा, कहां गया है, कहां खाना खाया, कहां रहा, कुछ बताने की उसे आवश्यकता नहीं थी. रजनी कुछ पूछने की कोशिश करती तो उसे चुप करा देता. औरत को इतना अधिकार कहां कि पति से पूछताछ करे.

कभीकभी तो वह कईकई दिन वापस न आता. कोई स्थायी कामधंधा करने की वह सोचता नहीं. रजनी के ससुर ने अनेक बार उसे घर के पास ही जनरल स्टोर की दुकान खोल लेने की सलाह दी पर उस ने कभी उन की बात पर ध्यान न दिया. निर्भय को तो बड़ेबडे़ अफसरों के साथ घूमने, गेस्टहाउसों में रुकने, साहबों की पत्नियों की चाटुकारिता करने की आदत पड़ गई थी. घरपरिवार के साथ स्थायित्व के साथ रहना उसे सुहाता नहीं था.

पत्नी, बच्चे की उसे कोई चिंता न थी. वे तो परिवार के सदस्यों के साथ सुरक्षित थे ही. जीवित रहने, पेट भरने के सिवा भी पत्नी की कुछ इच्छाएं होती हैं, इस बात पर निर्भय अपना दिमाग जाया ही नहीं करना चाहता था.

रजनी सोचती कि वह क्या करे, उस का जीवन क्या बन कर रह गया है. अकेली वह कुछ कर नहीं सकती. पति का साथ उस के हिस्से में नहीं है. अपने बच्चे को वह अच्छी परवरिश कैसे देगी. उसे अच्छे स्कूल में कैसे पढ़ाएगी. रजनी का दिमाग जैसे फटने लगता. अगर वह आत्महत्या कर लेगी तो अभिनव का क्या होगा? वह अपनेआप को संभालने की कोशिश करती परंतु लौट कर फिर उसी उलझन में उलझ जाती.

रजनी के पिता बीमार पड़ गए तो वह मायके आई थी. उस की दीदी, जीजाजी में कुछ अनबन चल रही थी. अचानक हालात इतने बिगड़ गए कि दीदी ने चूहे मारने की दवा खा ली. 3 बच्चों को बिलखता छोड़ वह इस संसार से विदा हो गई. जीजाजी पुलिस केस में फंस गए. रजनी आई तो बीमार पिता को देखने थी, पर यहां दीदी के बच्चों की देखभाल में व्यस्त हो गई. अपने पारिवारिक जीवन से तो उसे पहले ही कोई लगाव न था और अब तो अभिनव, दीदी के बच्चों के बीच वह भूल ही गई कि उस का अपना एक पति और ससुराल भी है. याद रखने योग्य कुछ ऐसा था भी नहीं, जो स्मृतियों में जिंदा रहता. इसलिए आसानी से भूल भी गई. अब तो यही घर उसे अपना लगने लगा. पतिव्रता, शादीशुदा जैसे शब्दों के माने समझने को उस का दिल तैयार ही न होता.

6 माह होने को आए, रजनी ससुराल नहीं गई. लेकिन निर्भय आज उसे लेने आ रहा था. क्या वह वापस चली जाए? क्या निर्भय बदल गया होगा? अगर वह चली गई तो दीदी के बच्चों का क्या होगा जिन्होंने उसे अपनी मां का दरजा दे दिया है.

सवालों की उधेड़बुन के बीच रजनी वापस आ गई निर्भय के घर. आखिर वह उस की पत्नी है. उस का असली घर तो यही है. निर्भय अभिनव का पिता है. 15 दिन भी नहीं बीते कि रजनी को महसूस हो गया कि यहां कुछ भी नहीं बदला है. निर्भय वही है. उसे रजनी की कोई परवा नहीं है. उसे वापस लेने तो वह इसलिए चला गया था क्योंकि लोगों के सवालों का जवाब देतेदेते वह परेशान हो गया था और घर वालों का बड़ा दबाव था. पर रजनी तो वापस फिर उसी कैदखाने में आ गई जहां न उस के होने का कोई महत्त्व है और न उस के अस्तित्व का किसी को एहसास है.

आज रजनी इस बस स्टौप पर खड़ी है, वापस जाने के लिए. दीदी के बच्चों की देखभाल के लिए कोई नहीं है. सब से ज्यादा, वहां उस के होने का कोई महत्त्व तो है. वह हाड़मांस की कोई पुतली नहीं है, जीतीजागती इंसान है. उस का अपना एक अस्तित्व है. निर्भय के साथ सारा जीवन इस तरह से काटने की कल्पना से ही उसे घबराहट होने लगती. नहीं, वह निर्भय के पास वापस नहीं जाएगी. वह वहीं जाएगी जहां उस की कद्र है, उस के होने का कोई महत्त्व है और जहां लोगों को उस की जरूरत है. रजनी अपना बैग उठा कर बस में चढ़ गई.

Romantic Story : कितने दिल – रमन जी क्यों इतनी मेहनत कर रहे थे ?

Romantic Story :  ‘‘किसी ने क्या खूब कहा है कि जो रिश्ते बनने होते हैं बन ही  जाते हैं, नियति के छिपे हुए आशयों को कौन जान सका है. इस का शाहकार और कारोबार ऐसा है कि अनजानों को कैसे भी और कहीं भी मिला सकता है.‘‘

वे दोनों भी तकरीबन एक महीने से एकदूसरे को जानने लगे थे. रोज शाम को अपनेअपने घर से टहलने निकलते और पार्क में बतियाते.

आज भी दोनों ने एकदूसरे को देखा और मुसकरा कर अभिवादन किया.‘‘तो सुबह से ही सब सही रहा आज,‘‘ रमा ने पूछ लिया, तो रमनजी ने ‘‘हां‘‘ कह कर जवाब दिया.

और फिर दोनों में सिलसिलेवार मीठीमीठी गपशप भी शुरू हो गई.रमा उन से 5 साल छोटी थी, मगर उन की बातें गौर से सुनती और अपना विचार व्यक्त करती.

रमनजी ने उस को बताया था कि वो परिवार से बहुत ही नाखुश रहने लगे हैं क्योंकि सब को अपनीअपनी ही सूझती है. सब की अपनी मनपसंद दुनिया और अपने मनपसंद अंदाज हैं.

रमनजी का स्वभाव ही ऐसा था कि जब भी गपशप करते तो अचानक ही पोंगा पंडित जैसी बातें करने लगते. वे कहते, ‘‘रमाजी पता है, तो वह तुरंत कहती ‘जी, नहीं…नहीं’ पता है.

तब भी वे बगैर हंसे अपनी रौ में बोलते रहते, ‘‘इस दुनिया में दो ही पुण्य फल हैं – एक, तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा, तुम जो चाहो वह मिल जाए.‘‘

यह सुन कर रमाजी खूब हंसने लगतीं, तो रमनजी अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते, “प्रभु की शरण में सब समाधान मिल जाता है. परमात्मा में रमा हुआ मन और तीर्थ में दानपुण्य करने वाले को सभी तरह की शंका का समाधान मिल जाता है.‘‘

“और हां रमाजी सुनिए, यह जो जीवन है वो भले ही कितना भी लंबा हो, नास्तिक बन कर और उस परमात्मा को भूल कर छोटा भी किया जा सकता है.‘‘

यह सब सुन कर रमाजी अपनी हंसी दबा कर कहतीं, ‘‘अच्छाजी, तो आप का आश्रम कहां है? जरा दीक्षा लेनी थी.‘‘

यह सुन कर रमनजी काफी गंभीर और उदास हो जाते, तो वे मन बदलने को कुछ लतीफे सुनाने लगतीं. वे उन से कहतीं, ‘‘गुरुजी, जो तुम को हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे…‘‘

उक्त गीत में नायक नायिका से क्या कहना चाहता है, संक्षेप में भावार्थ बताओ रमनजी…रमनजी सवाल सुन कर बिलकुल सकपका ही जाते. वे बहुत सोचते, पर उन से तो उत्तर देते ही नहीं बनता था.

रमाजी कुछ पल बाद खुद ही कह देतीं, ‘‘रमनजी, इस गाने में नायक नायिका से कह रहा है कि ठीक है, तुम से माथा फोड़ी कौन करे.‘‘उस के बाद दोनों ही जोरदार ठहाके लगाते.

अकसर रमनजी उपदेशक हो जाते. वे कहते कि मेरे मन में ईश्वर प्रेम भरा है और मैं तुम को भी यही सलाह इसलिए नहीं दे रहा कि मैं बहुत समझदार हूं, बल्कि मैं ने गलतियां तुम से ज्यादा की हैं. और इस राह में जा कर ही मुझे सुकून मिला है इसलिए.

तो रमाजी भी किसी वामपंथी की मानिंद बोल उठतीं, ‘‘रमनजी, 3 बातों पर निर्भर करता है हमारा भरोसा. हमारा अपना सीमित विवेक, हम पर सामाजिक दबाव और आत्मनियंत्रण का अभाव.‘‘

अब इस में मैं ने अपने भरोसे की चीज तो पा ली है और खुश हूं कि हां, वो कौन सी चीज ढूंढी, यह तो समझने वालों ने समझ ही लिया होगा, मगर रमनजी तब भी रमाजी के मन को नहीं समझ पाते थे.

रमनजी की भारीभरकम बातें सुन कर पहलेपहल रमा को ऐसा लगता था कि वे शायद बहुत बड़े कुनबे का बोझ ढो रहे होंगे. बहुत सहा होगा और इसीलिए अब उन को उदासी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है.

फिर एक दिन रमा ने जरा खुल कर ही जानना चाहा कि या इलाही आखिर ये माजरा क्या है. रमा उन से बोलीं कि मैं अब 60 पूरे कर रही हूं और मैं 65 ऐसा कह कर रमनजी हंस दिए.

‘‘मेरा मतलब यह है कि मेरे बेटेबहू मुझे कहते हैं जवान बूढी,‘‘ हंसते हुए रमाजी ने कहा.

‘‘अच्छा… अच्छा,‘‘ रमनजी ने गरदन हिला कर जवाब दिया. वे जराजरा सा मुसकरा भी दिए.

‘‘मैं जानना चाहती हूं कि आप को कितने लोग मिल कर इतना दुखी कर रहे हैं कि आप परेशान ही नजर आते हो,‘‘ रमाजी ने गंभीरता से पूछा.

रमाजी में बहुत ही आत्मीयता थी. वो रमनजी के साथ बहुत चाहत से बात करती थीं. यही कारण था कि रमनजी ने बिना किसी संकोच के सब बता दिया कि वे सेवानिवृत्ति बस कंडक्टर रहे हैं और इकलौते बेटे को 5 साल की उम्र से उन्होंने अपने दम पर ही पाला. कभी सिगरेट, शराब, सुपारी, पान, तंबाकू किसी को हाथ तक नहीं लगाने दिया.

पिछले साल ही बेटे का विवाह हो गया है. आज स्थिति ऐसी है कि वह और उस की पत्नी बस अपने ही हाल में मगन हैं. बहू एक स्टोर चलाती है और बेटा जूतेचप्पल की दुकान. दोनों का अलगअलग अपना काम है और बहुत अच्छा चल रहा है.

‘‘ओह, तो यह बात है. आप को यह महसूस हो रहा है कि अब आप की कोई पूछ ही नहीं रही है न,‘‘ रमा ने कहा. “मगर, पूछ तो अब आप की नजर में भी कम ही हो गई होगी. अब आप को यह पता लग गया कि मैं बस कंडक्टर था,” रमनजी फिर उदास हो गए.

उन की इस बात पर रमाजी हंस पडीं और बोलीं कि कोई भी काम छोटा नहीं होता. दूसरा, आप हर बात पर उदासी को अपने पास मत बुलाया कीजिए. यह थकान की जननी है और थकान बिन बुलाए ही बीमारियों को आप के शरीर में प्रवेश करा देती है.

“आप को पता नहीं कि मैं खुद भी ऐसी ही हूं, मगर मेरा यह अंदाज ऐसा है कि फिर भी मेरे बेटेबहू मुझ को बहुत प्यार करते हैं, क्योंकि मैं मन की  बिलकुल साफ हूं.

“मैं ने 20 साल की उम्र में प्रेम विवाह किया और 22 साल की उम्र में पति को उस की प्रेमिका के पास छोड़ कर अपने बेटे को साथ ले कर निकल पड़ी. उस के बाद पलट कर भी नहीं देखा कि उस बेवफा ने बाकी जिंदगी क्या किया और कितनी प्रेमिकाएं बनाईं, कितनों का जीना दूभर किया.‘‘

‘‘मैं मातापिता के पास आ कर रहने लगी और 22 साल की उम्र से बेटे की परवरिश के साथ ही बचत पर अपना पूरा ध्यान लगा दिया.‘‘

‘‘मेरा बेटा सरकारी स्कूल और कालेज में ही पढ़ा है. अब वह एक शिक्षक है और पूरी तरह से सुखी है. ‘‘हां, तो मैं बता रही थी कि मेरे पीहर मे बगीचे हैं, जिन में 50 आम के  पेड़ हैं, 50 कटहल, और इतने ही जामुन और आंवले के. मैं ने इन की पहरेदारी का काम किया और पापा ने मुझे बाकायदा पूरा वेतन दिया.

‘‘जब मेरा बेटा 10वीं में आया, तो मेरे पास पूरे 20 लाख रुपए की पूंजी थी. मेरे भाई और भाभी ने मुझे कहीं जाने नहीं दिया.

‘‘मेरी उन से कभी अनबन नही हुई. वे हमेशा मुझे चाहते रहे क्योंकि उन के बच्चों को मेरे बेटे के रूप मे एक मार्गदर्शक मिल रहा था. और मेरी वो पूंजी बढती गई.‘‘

‘‘मगर, बेटे की नौकरी पक्की हो गई थी और उस ने विवाह का इरादा कर लिया था, इसलिए हम लोग यहां इस कालोनी में रहने लगे. पिछले साल ही मेरे बेटे का विवाह हुआ है.

‘‘अपनी बढ़िया बचत से और जीवनशैली के बल पर ही मैं आज करोड़पति हूं, मगर सादगी से रहती हूं. अपना सब काम खुद करती हूं और कभी भी उदास नहीं रहती.

‘‘पर, आप तो हर बात पर गमगीन हो जाते हैं. इतने दिनों से आप की व्यथा सुन कर मुझे तो यही लगता है कि आप पर बहुत ही अत्याचार किया जा रहा है. इस तरह आप लगातार दुख में भरे रहे तो दुनिया से जल्दी ही विदा हो जाओगे.

‘‘आप हर बात पर परेशान रहते हो. यह मुझ को बहुत विचलित कर देता है. सुनो…मेरे मन में

एक आइडिया आया है. “आप एक काम करो. मैं कुछ दिन के लिए आप के घर चलती हूं. वहां का माहौल बदलने की कोशिश करूंगी. मैं तो हर जगह सामंजस्य बना लेती हूं. मैं 20 साल पीहर में रही हूं.‘‘‘‘मगर, आप को ऐसे कैसे…? कोई तो वजह होगी ना मेरे घर चलने की. वहां मैं क्या कहूंगा?‘‘ रमनजी बोले.

‘‘अरे, बहुत ही आसान है. मेरी बात गौर से सुनो. आज आप एक गरम पट्टी बांध कर घर वापस जाओ. कह देना कि यह कलाई अब अचानक ही सुन्न हो गई है. कोई सहारा देने वाला तो चाहिए ना. जो हाथ पकड़ कर जरा संभाल ले.‘‘

‘‘फिर मैं आप के दोस्त की  कोई रिश्तेदार हूं. आप कह देना कि बुढ़िया है, मगर ईमानदार है. मेरा पूरा ध्यान रख लेगी वगैरह. वे भी सोचेंगे कि चलो, सही है बैठेबैठे सहायिका भी मिल गई.‘‘

‘‘कोशिश कर के देखता हूं,‘‘ रमनजी ने कहा और पास के मेडिकल स्टोर से गरम पट्टी खरीद कर अपने घर की  तरफ जाने वाली गली में चले गए.

रमाजी का तीर निशाने पर लगा. एक सप्ताह की तैयारी कर रमाजी उन के घर पहुंच गई थीं.रमाजी के आने से पहले रमनजी के बेटेबहू ने उन की एक अलग ही इमेज बना रखी थी और उन को एक अति साधारण महिला समझा था, मगर जब आमनासामना हुआ तो रमाजी का आकर्षक व्यक्तित्व देख कर उन्होंने रमाजी के पैर छू लिए.

यह देख रमाजी ने भी खूब दिल से आशीर्वाद दिया. रमाजी को तो पहली नजर में रमनजी के बेटेबहू बहुत ही अच्छे लगे.खैर, सब की अपनीअपनी समझ होती है, यह सोच कर रमाजी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचीं और सब आने वाले  समय पर छोड़ दिया.

अगले दिन सुबह से ही रमाजी ने मोरचा संभाल लिया था. रमनजी अपनी कलाई वाले दर्द पर कायम थे और बहुत ही अच्छा अभिनय कर रहे थे.

रमाजी को सुबह जल्दी उठने की आदत थी, इसलिए सब के जागने तक वे नहाधो कर चमक रही थीं, वे खुद चाय पी चुकी थीं, रमनजी को भी 2 बार चाय मिल गई थी. साथ ही, वो हलवा और पोहे का नाश्ता तैयार कर चुकी थीं.

यह देख बेटेबहू भौंचक थे. इतना लजीज नाश्ता कर के वे दोनों गदगद थे. बेटाबहू दोनों अपने काम पर निकले तो रमनजी ने हाथ चलाया और रसोई में बरतन धोने लगे. रमाजी ने बहुत मना किया तो वो जिद कर के मदद करने लगे क्योंकि वो जानते थे कि 3 दिन तक बाई छुट्टी पर रहेगी.

शाम को बेटेबहू रमाजी को कह कर गए थे कि आज वो बाहर से पावभाजी ले कर आएंगे, इसलिए रमाजी भी पूरी तरह निश्चिंत रहीं और आराम से बाकी काम करती रहीं. उन्होंने आलू के चिप्स बना दिए और साबूदाने के पापड़, गमलों की  सफाई कर दी.

एक ही दिन में रमाजी की इतनी मेहनत देख कर रमनजी का परिवार हैरत में था. रात को सब ने मिलजुल कर पावभाजी का आनंद लिया.रमनजी और रमाजी रोज शाम को लंबी सैर पर जा रहे थे. कुछ जानने वालों ने अजीब निगाहों से देखा, मगर दोनों ने इस की परवाह नहीं की.

इसी तरह पूरा एक सप्ताह निकल गया. कहां गुजर गया, कुछ पता ही न चला.रमनजी और उन के बेटेबहू रमाजी के दिल से प्रशंसक  हो चुके थे. वो चाहते थे कि रमाजी वहां कुछ दिन और रहें. ऐसा देख रमनजी का चेहरा निखर उठा था. उन की उदासी जाने कहां चली गई थी. बेटेबहू उन से बहुत प्रेम से बात करते थे. वातावरण बहुत ही खुशनुमा हो गया था.

रमाजी अपने मकसद में कामयाब रहीं. उन को कुछ सिल्क की  साड़ियां  उपहार में मिलीं, क्योंकि रमाजी ने रुपए लेने से मना कर दिया था.रमाजी वहां से चली गईं और रमनजी को शाम की सैर पर आने को कह गईं. पर, शाम को रमाजी सैर पर नहीं आ सकीं.

रमनजी को उन्होंने संदेश भेजा कि वो सपरिवार 2 दिन के लिए कहीं बाहर जा रही हैं.रमनजी ने अपना मन संभाला, मगर तकरीबन एक सप्ताह गुजर गया और रमाजी नहीं आईं. रमनजी के किसी संदेश का जवाब भी नहीं दिया.

रमनजी को फोन करते हुए कुछ संकोच होने लगा, तो वह मन मसोस कर रह गए. पूरा महीना ऐसे ही निकल गया. लगता था, रमनजी और बूढ़े हो गए थे.मगर वो रमाजी के बनाए आलू के चिप्स और पापड़ खाते तो लगता कि रमाजी यहीं पर हैं और उन से बातें कर रही हैं.

एक शाम उन का मन सैर पर जाने का हुआ ही नहीं. वो नहीं गए. अचानक देखते क्या हैं कि रमाजी उन के घर के दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गई हैं. वे एकदम हैरान रह गए. अरे, ये क्या हुआ. पीछेपीछे उन के बेटेबहू भी आ गए. अब तो रमनजी को सदमा लगा. वो अपनी जगह से खड़े हो गए.

बहू ने कहा कि रमाजी अब यहां एक महीना रहेंगी. और हम उन के गुलाम बन कर रहेंगे.रमनजी ने कारण जानना चाहा, तो बहू ने बताया कि उस की छोटी बहन अभी होम साइंस पढ़ रही है. उस को कालेज के अंतिम प्रोजैक्ट में अनुभवी महिला के साथ समय बिताना है, डायरी बनानी है इसलिए…‘‘

‘‘ओ हो अच्छा… बहुत अच्छा,’’ बहू बहुत ही सही निर्णय. कहते समय रमनजी के चेहरे पर लाली आ गई. मगर उन के परिवार से बात कर ली. वो अचानक पूछ बैठे.  परिवार मना कैसे करता. मेरी बहन और रमा आंटी तो फेसबुक दोस्त हैं. और रमाजी का परिवार तो समाजसेवा का  शौकीन है. है ना रमा आंटी,‘‘

रमनजी की बहू चहक उठी. रमाजी ने अपने व्यवहार की दौलत से अपने जीवन में कितने सारे दिल जीत लिए थे.

National Highway : असुविधाओं पर टोल टैक्स?

National Highway : जम्मूकश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) को एक अहम आदेश में कहा है कि यदि राजमार्ग पर उचित रखरखाव नहीं है और निर्माण का काम चल रहा है तो वहां यात्रियों से टोल वसूलना अनुचित है.

डेढ़दो दशक पीछे अगर आप सड़क मार्ग से एक शहर से दूसरे शहर जाते थे तो एक्सप्रेसवे के मुकाबले समय भले कुछ ज्यादा लगता था मगर रास्ते भर ढाबे पर रुकरुक कर खाना और चाय पानी का लुत्फ़ उठाते हुए गंतव्य पर पहुंचना बहुत रोमांचक होता था. वो ढाबे पर असली घी में तड़की पंचमेल दाल और तंदूर से निकली गरमगरम रोटी जिस पर मक्खन की एक टिकिया रखी होती थी, आज सोचो तो मुंह में पानी भर आता है.

कभीकभी तो रास्ते में पड़ने वाले खेतखलिहानों में गाड़ी रोक कर फोटो शूट भी कर लेते थे. गन्ने के खेत मिल गए तो दोचार गन्ने तुड़वा कर गाड़ी में रख लिए और रास्ते भर चूसते गए. आम के मौसम में हाईवे के किनारे आम के ढेर लगाए बैठे किसानों से कितने सस्ते में मीठे रसीले आम खरीद लिए जाते थे. 10-15 किलो से कम तो लेते ही न थे. गाड़ी की डिग्गी खुशबूदार आमों से भर जाती थी. ये आम रिश्तेदारों और दोस्तों में भी बांटे जाते थे. शहतूत, जामुन, सेब, खुबानी जैसे फल भी हाईवे के किनारे खूब बिकते और बहुत सस्ते होते थे. क्योंकि बीच में कोई दलाल नहीं होता था. किसान ने अपने खेत से फल तोड़े और सड़क पर बेचने बैठ गया. शाम तक जेब नोटों से भर जाती थी, दूसरे दिन फिर ताजे फल तोड़े और बेचने बैठ गए. किसान और ग्राहक दोनों खुश.

अब हाईवे पर ऐसे नज़ारे ढूंढने से भी नहीं मिलते. तमाम बड़े शहरों को एक्सप्रेस वे द्वारा जोड़ कर शंघाई जैसा लुक देने की हसरत में मोदी सरकार ने किसानों और हाईवे से गुजरने वाले यात्रियों दोनों का नुकसान ही किया है. एक तो किसानों की कृषि भूमि अधिग्रहित कर कर के ऊंचेऊंचे एक्सप्रेसवे बना दिए गए हैं और लगातार बनाए जा रहे हैं, जिन पर किसान अपने फल, सब्जी, लकड़ी का सामान आदि बेचने के लिए नहीं बैठ सकता. दूसरे जिन किसानों की जमीनों पर ये एक्सप्रेसवे बने हैं, उन एक्सप्रेसवे पर वे किसान ही नहीं चल सकते. क्योंकि उन पर तो फर्राटा भरती बड़ीबड़ी लग्जरी गाड़ियां दौड़ती हैं, जिन के बीच ना तो किसानों के ट्रैक्टर चल सकते हैं और ना उन गरीबों की साइकिलें या मोटरसाइकिलें, उन के लिए इन एक्सप्रेसवेज के नीचे धूल उड़ाती कच्ची सड़कें पड़ी हैं जो बारिशों में कीचड़ से भर जाती हैं और गर्मियों में गर्द उड़ाती हैं. अमीरों की मोटरों के लिए बने एक्सप्रेसवे तो चमकाए जाते हैं मगर गरीब की सड़क के बड़ेबड़े गड्ढे सरकार को कभी नजर नहीं आते. इन एक्सप्रेसवे ने समाज में अमीर और गरीब की खाई को और ज्यादा चौड़ा कर दिया है.

एक्सप्रेसवे का जाल पूरे देश में बिछाने की मोदी सरकार की इच्छा ने उस वर्ग, जिन की कार रखने की हैसियत है, को भी कुछ ख़ास फायदा नहीं पहुंचाया है. फायदा बस इतना भर है कि एक्सप्रेसवे से जाने पर यात्रा के कुछ घंटे बच जाते हैं और कुछ पेट्रोलडीजल बच जाता है, मगर यात्रा का आनंद जरा भी नहीं आता. निशा अपने पति आनंद के साथ आगरा लखनऊ एक्सप्रेसवे पर अपनी कार से जा रही थीं. निशा को अचानक उल्टी हो गई. पानी की जरूरत हुई मगर आनंद को गाड़ी में पानी की बोतल नहीं मिली. शायद निशा रखना भूल गई थी. दूरदूर तक पानी मिलने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही थी. 50 किलोमीटर के बाद एक शानदार चमचमाता जलपानगृह नजर आया जहां रुक कर निशा ने अपना हाथ मुंह धोया. इस जलपानगृह पर खानेपीने के सामान के दाम इतने ज्यादा थे कि दोनों ने चिप्स के दो पैकेट से ही काम चलाया.

खानेपीने की समस्या के अलावा एक्सप्रेसवे पर गाड़ियों की रफ़्तार इतनी ज्यादा होती है कि आयदिन भयानक एक्सीडैंट होते हैं, खासतौर पर सर्दियों के दिनों में जब हाईवे गहरे कोहरे में ढंके होते हैं. यमुना एक्सप्रेस वे हो, या आगरालखनऊ एक्सप्रेसवे, इन पर आएदिन भयंकर एक्सीडैंट होते हैं. और चिकित्सा सुविधा जल्द मिलने की कोई व्यवस्था नहीं है. ज्यादातर घायल अस्पताल तक पहुंचते पहुंचते दम तोड़ देते हैं.

एक्सप्रेसवे पर जो सब से बड़ी समस्या है, वह है टोल टैक्स, जो दिनप्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है. इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि गुणवत्ता की सेवा दिए बिना टैक्स वसूलना उपभोक्ता के साथ अन्याय है. यह बात हर सरकारी व निजी महकमे पर लागू होती है. लेकिन यथार्थ में ऐसा होता नहीं है और बेहतर सेवा के बिना टैक्स वसूलने के खिलाफ लोग लोक अदालतों से ले कर विभिन्न अदालतों के दरवाजे खटखटाते रहते हैं.

हाल ही में जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाई कोर्ट ने भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) को एक अहम आदेश दिया है. कोर्ट ने कहा है कि यदि राजमार्ग पर उचित रखरखाव नहीं है और निर्माण का काम चल रहा है तो वहां यात्रियों से टोल वसूलना अनुचित है.

कोर्ट ने एनएच-44 के पठानकोट से उधमपुर तक के खंड में खराब सड़कों के कारण एनएचएआई को टोल शुल्क में 80 प्रतिशक की कमी करने का आदेश दिया है. कोर्ट ने कहा कि जब सड़कों पर निर्माण कार्य चल रहा है, जिन पर गड्ढे, मोड़ और रुकावटें हैं और जो उपयोग के योग्य नहीं हैं तो यात्रियों से पूरा टोल शुल्क वसूलना गलत है.

जब यात्रा असुविधाजनक है तो पूरा टोल लेना ना सिर्फ अनुचित है बल्कि यह एक निष्पक्ष सेवा का उल्लंघन है. टोल केवल तब लिया जाता है जब सड़कें अच्छी स्थिति में हों और उन पर यात्रियों को यात्रा करने में कोई कठिनाई न हो.

इस से पहले सुप्रीम कोर्ट भी एक्सप्रेसवे पर टोल चार्ज को ले कर टिप्पणी कर चुका है. सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, ‘अगर सड़कें खराब हैं तो इस पर सफर करने वाले टोल टैक्स भी क्यों दें? आम आदमी इस का खामियाजा क्यों भुगते? सरकार को इस की भरपाई करनी चाहिए.’ हालांकि सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी का असर न तब हुआ और न अब हो रहा है, क्योंकि खस्ताहाल हाइवे के बावजूद आम जनता टोल टैक्स देने के लिए मजबूर है.

गौरतलब है कि टोल टैक्स एक तरह का अप्रत्यक्ष कर है, जो नैशनल और स्टेट हाइवे पर इसलिए लिया जाता है, ताकि सरकार अच्छी सड़कें मुहैया करा सके, लेकिन आएदिन ऐसे समाचार हमें पढ़ने को मिलते हैं कि हाइवे जर्जर हैं, फिर भी टोल टैक्स की वसूली निरंतर जारी है. टोल टैक्स के मकडज़ाल से आम आदमी निकल भी पाएगा या नहीं, इस की कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि टोल टैक्स घटने के बजाय सालदरसाल बढ़ता जा रहा है. दूसरा, टोल टैक्स प्लाजा की अव्यवस्थाओं से वाहन चालकों को रोजाना जूझना पड़ रहा है. फास्टैग में एडवांस पैसे देने के बावजूद अधिकांश वाहन चालक हाईवे पर चलते समय स्वयं को ठगा हुआ महसूस करते हैं.

एक छोटा सा उदाहरण राजस्थान के मनोहरपुर टोल प्लाजा का है. सितंबर 2024 में सूचना के अधिकार (आरटीआई) से पता चला था कि 1900 करोड़ में बने हाइवे के 8000 करोड़ रुपए टोल टैक्स के रूप में वसूले जा चुके हैं. अब आप ही बताइए 1900 करोड़ की सड़क के 8000 करोड़ किस हिसाब से वसूल लिए गए? शायद आम आदमी सरकार के इस गणित को समझ न पाए. देश में अभी करीब 980 टोल प्लाजा नेशनल हाईवे पर चल रहे हैं. महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में सब से अधिक नैशनल हाइवे हैं और राजस्थान तीसरे नंबर पर आता है, लेकिन टोल टैक्स वसूली में राजस्थान सब से ऊपर है.

सबसे अधिक 142 टोल टैक्स प्लाजा राजस्थान में चल रहे हैं. कमाल की बात यह है कि 457 टोल प्लाजा तो पिछले 5 साल में शुरू हुए हैं. इस में भी राजस्थान जैसा राज्य सब से ऊपर है. यहां पिछले 5 साल में 58 टोल प्लाजा शुरू हुए हैं. दरअसल, टोल टैक्स प्लाजा का मकसद सड़क निर्माण और रखरखाव से जुड़ा हुआ है. यदि हाईवे को बेहतर क्वालिटी में बनाए रखना है तो वाहन चालकों से टोल टैक्स वसूला जाता है, ताकि बेहतर और सुरक्षित यात्रा सुनिश्चित की जा सके. इस में कोई हर्ज भी नहीं है, बशर्ते हाइवे उस क्वालिटी का हो. परंतु, स्थिति यह है कि हाइवे पर टोल टैक्स प्लाजा जैसेजैसे बढ़ रहे हैं, वैसेवैसे व्यवस्थाओं की पोल भी खुल रही है. जब वाहनों की संख्या टोल टैक्स प्लाजा पर बढ़ने लगी तो सरकार फास्टैग को लेकर आई, यानी टोल टैक्स प्लाजा पर गाड़ी बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के सीधा निकल जाएगी, वाहन चालक के खाते से टोल टैक्स कट जाएगा, लेकिन फास्टैग भी पूरी तरह कारगर साबित नहीं हो रहा है.

टोल टैक्स प्लाजा से गुजरना वाहन चालकों के लिए किसी पीड़ा से कम नहीं है. अधिकांश टोल टैक्स प्लाजा पर आधी लेन अकसर बंद रहती हैं. फास्टैग के बावजूद टोल कर्मी वाहन को आगेपीछे कराता है और बटन दबा कर वाहन को पास कराता है. यदि किसी वाहन का फास्टैग सही से काम नहीं कर रहा तो पीछेखड़े वाहन चालक परेशान होते हैं. इस व्यवस्था को दुरुस्त नहीं किया जा रहा है. अब सरकार के नए फास्टैग नियमों के तहत कम बैलेंस, देरी से भुगतान या ब्लैक लिस्टेड टैग वाले यूजर पर अतिरिक्त जुर्माना लग रहा है. यदि वाहन टोल पार करने से पहले 60 मिनट से अधिक समय तक फास्टैग निष्क्रिय रहता है और वाहन के टोल पार करने के 10 मिनट बाद तक निष्क्रिय रहता है तो लेनदेन अस्वीकार कर दिया जाएगा. सिस्टम ऐसे भुगतानों को अस्वीकार कर देगा. नए दिशा-निर्देशों के अनुसार यदि वाहन के टोल रीडर से गुजरने के समय से 15 मिनट से अधिक समय के बाद टोल लेन-देन अपडेट होता है तो फास्टैग यूजर को अतिरिक्त शुल्क देना पड़ सकता है, यानी सारा भार टैक्स पेयर पर है. वैसे, भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के नियम के मुताबिक अगर कोई गाड़ी 10 सेकंड से अधिक तक टोल टैक्स की कतार में फंसी रहती है तो उसे टोल टैक्स का भुगतान किए बिना जाने दिया जाना चाहिए, लेकिन ऐसे कितने उदाहरण हैं कि जब ऐसे नियम के तहत किसी गाड़ी से टोल टैक्स न वसूला गया हो?

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि अब फास्टैग से आगे बढ़ कर सरकार ग्लोबल नेवीगेशन सैटेलाइट सिस्टम तकनीक से टोल टैक्स वसूली का प्लान बना रही है. इस सिस्टम की मदद से टोल रोड पर वाहनों की आवाजाही को ट्रैक किया जाता है और हाईवे पर यात्रा की दूरी के आधार पर टोल टैक्स कट जाता है, लेकिन यह सिस्टम पूर्ण रूप से कब लागू होगा, इस से जनता को क्या वाकई राहत मिलेगी, यह अभी स्पष्ट नहीं है. सरकार ने पिछले कुछ सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर पर भारी भरकम निवेश किया है. नएनए हाईवे बनाए जा रहे हैं. एक्सप्रेसवे बनाए जा रहे हैं. देश की प्रगति के लिए यह एक सुखद चीज है, लेकिन टोल टैक्स के बहाने जनता की जेब से जरूरत से ज्यादा पैसा निकालना कहां तक उचित है?

Hindi Kahani : परख रिश्तों की – परमजीत के साथ बहन के घर पर क्या हुआ था ?

Hindi Kahani : दरवाजे की घंटी बजी तो बंटी और बबली दोनों ही दौड़े मगर जीती बबली. उस ने लपक कर दरवाजा खोला, “ओह, सनी भैया, सोनी दीदी,” कहते हुए वह बच्चों से लिपट गई. फिर दोनों ने उन दोनों का गरमजोशी से अभिवादन करते हुए स्वागत किया.

बात लगभग 10 साल पहले की है. राज और परमजीत, जो कई साल पहले पंजाब से जा कर लंदन में बस गए थे। वे कई साल बाद अपने पैतृक गांव आए थे. उन का कार्यक्रम कुछ दिन दिल्ली में आदर्श नगर में रह रहे जीजाजी पुनीत और दीदी सिमरन से मिल कर पंजाब जाने का था. 1 सप्ताह तक दोनों परिवारों ने खूब मौजमस्ती की और फिर राज अपने परिवार के साथ पंजाब अपने गांव चले गए.

दरअसल, राज 90 के दशक में उस समय लंदन गए थे जब पंजाब से लोग काम की तलाश में अवैध रूप से ब्रिटैन, कनाडा और अमेरिका जा रहे थे. देश में बेरोजगारी और खेतीबाड़ी में ज्यादा मेहनत और कम आमदनी के चलते डौलर और पाउंड में कमाई करने के लालच में लोग अपनी जमीनजायदाद बेच कर बच्चों को वैधअवैध तरीकों से विदेश भेज रहे थे.

पंजाब व देश के अन्य भागों से विदेश जाने की होड़ के चलते दलाल व ट्रैवल ऐजैंट्स ने लूट मचा रखी थी. सरकारी तंत्र में इस धंधे को ‘कबूतरबाजी’ का नाम दिया गया था।राज के पिताजी ने भी अपना जमीन का एक बड़ा हिस्सा बहुत ही कम दामों में बेच कर एक दलाल के माध्यम से वीजा लगवा कर बेटे को लंदन भेज दिया.

राज कोई ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं थे, इसलिए शुरूशुरू में तो उन्होंने पेट भरने के लिए मजदूरी तक की और पैट्रोल पंप पर भी काम किया. कई साल बाद किसी एनआरआई की मदद से टैक्सी ड्राईवर की नौकरी मिली. दिनरात काम कर के राज अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा अपने पिताजी के पास भेजते रहते थे. उन के पिताजी को बड़ा सहारा मिला और राज के छोटे भाई व बहन सिमरन की पढ़ाईलिखाई व शादी अच्छे से हो गई.

राज ने अपना रहनसहन बिलकुल सादा रखा. कुछ साल बाद अपनी जमापूंजी और कुछ लोन ले कर कई टैक्सी खरीद कर ट्रैवल सर्विस शुरू कर दी और उन की अच्छीखासी आमदनी होने लगी.

सिमरन की शादी दिल्ली के आदर्श नगर में रहने वाले पुनीत से हुई. पुनीत शादी के समय संजय गांधी ट्रांसपोर्ट नगर के पास औटो पार्टस की एक दुकान पर नौकरी करते थे. राज ने शादी के बाद भी अपनी बहन सिमरन की काफी मदद की और पुनीत को पगड़ी पर औटो पार्टस की एक दुकान दिलवा दी. पुनीत का काम चल निकला और अब तो उन्होंने मौडल टाउन में एक कोठी खरीद ली थी.

राज के अपनी बहन सिमरन और जीजा पुनीत से संबंध बहुत अच्छे थे और वे दोनों भी उन के एहसान भूले नहीं थे. सिमरन अपने भाई के जन्मदिन पर कोई न कोई उपहार अवश्य भेजती थी और राज भी हर साल रक्षा बंधन पर सिमरन को कोई न कोई उपहार जरूर भेजते थे. लगभग हर साल भारत आने पर अपने गांव जाने से पहले 2-4 दिन दिल्ली में जरूर रुकते थे. इतना ही नहीं, 2 बार तो राज ने सिमरन और पूरे परिवार की टिकट भेज कर उन्हें लंदन और यूरोप के अन्य देशों की यात्रा कराई और उन के घूमनेफिरने व खानेपीने का सारा खर्च भी उठाया.

इधर पुनीत की आमदनी बढ़ी तो भाईबहन के स्नेह के बीच उन का घमंड आड़े आने लगा. अब वे अपने खर्चे से बच्चों को विदेश यात्रा पर ले जाने लगे. उन की कोशिश रहती थी कि या तो लंदन जाएं ही नहीं या फिर जाएं तो घंटे 2 घंटे बहन के घर मिल कर किसी होटल में ही ठहरें.

सिमरन उन के इस व्यवहार से आहत तो बहुत होती थी पर क्लेश की वजह से चुप ही रहती थी. राज भी जब भारत आते तो अपने गांव जाने से पहले या वापसी में सिमरन के घर घंटे 2 घंटे के लिए मिलने आ जाते. कई बार तो वे सिमरन को एअरपोर्ट पर ही बुला लेते थे.

पिछले साल मार्च में राज और उन के परिवार का लंदन से भारत आने का कार्यक्रम बना तो सिमरन ने औपचारिकतावश राज से कम से कम 1 दिन दिल्ली में रुकने का आग्रह किया, “प्राहजी, 1 दिन तो दिल्ली हमारे यहां रुकना, गपशप करेंगे। बच्चे भी कई साल से मिले नहीं हैं.” राज मना नहीं कर पाए.

जिस दिन राज परिवार सहित दिल्ली सिमरन के घर पहुंचे उसी दिन कोरोना महामारी फैलने की वजह से देशभर में लौकडाउन की घोषणा कर दी गई. इस बार सिमरन के अलावा खुराना परिवार के किसी भी सदस्य ने राज और उन के परिवार के आने पर कोई विशेष खुशी व्यक्त नहीं की. लौकडाउन की घोषणा होते ही सब के मन में यह आशंका घर कर गई कि अब न जाने कितने दिनों तक राज और उन का परिवार यहीं टिका रहेगा.

2 दिन तो जैसेतैसे बीते मगर तीसरे दिन पुनीत की आवाज में एक तल्खी थी, “यार सिमरन, यह तुम्हारे भाई और इस की फैमिली को पंजाब भेजने का कुछ करो. कब तक हम ऐसे ही परेशान होते रहेंगे?”

“जरा धीरे बोलो, ये लोग क्या सोचेंगे? इन्हें क्या पता था कि लौकडाउन लग जाएगा. कुछ दिन की ही तो बात है,” सिमरन ने दबी जबान में कहा.

पुनीत बिफर पड़े, “अजी छड्डो, जब पता था ऐसे हालात बन रहे हैं तो एअरपोर्ट से सीधे पंजाब निकल जाते, यहां किसलिए आ गए ?” सिमरन मन मसोस कर रह गई. उधर बच्चों ने हंगामा मचा रखा था. बंटी और बबली की 1 मिनट भी सनी और सोनी से नहीं बनती थी.

“ममा, आई कांट शेयर माई रूम विद ऐनी बडी. व्हैन विल दे गो?” बंटी गुस्से से तमतमा रहा था। कुछ समय बाद बबली भी बड़बड़ाते हुए आई,“ममा, मुझे औनलाइन क्लास अटैंड करनी हैं पर सोनी दीदी वीडियो गेम खेल रही हैं, समझाओ इन्हें.”

सिमरन ने बच्चों को समझाया, “अरे पुत्तर, तुम नहीं जानते इन के हमारे ऊपर कितने एहसान हैं. तुम यह भी भूल गए कि लंदन में मामाजी के छोटे से अपार्टमैंट में ही कितने दिन तक हमलोग रहते थे. उन्होंने कितनी बार अपने खर्चे से लंदन और कई और देशों की यात्रा हमें करवाई.”

सिमरन बड़ी दुविधा में थी. वह भाई जिस ने उस के लिए इतना सब किया था, इस महामारी में वह चाहते हुए भी उस की कोई मदद नहीं कर पा रही थी. जरा सा एकांत पाते ही वह बच्चों और पुनीत को समझाने का प्रयास करती पर सब व्यर्थ. पुनीत का पारा तो हर वक्त ही चढ़ा रहता था.

एक दिन पुनीत सिमरन पर बुरी तरह झल्ला रहा था, “सिमरन, किसी तरह कर्फ्यू पास बन जाए तो इन से पीछा छूटे.”

सिमरन भी फट पड़ी, “मेरे ऊपर क्यों झल्ला रहे हो, यह जो दिनरात सरकारी अफसरों और पुलिस वालों के यहां चक्कर लगाते रहते हो, उन्हीं से मदद क्यों नहीं ले लेते. दिनरात की चिकचिक तो खत्म होगी.”

उधर मौका मिलते ही सिमरन राज को भी समझाने का प्रयास करती. राज मन से तो बहुत दुखी था पर बहन का मन रखने के लिए कहता,“अरी बहना छड्ड भी, जीजा दिल दा वड़ा चंगा है पर वह हालात की वजह से परेशान है. फिर हमें कौन सा पता था कि लौकडाउन लग जाएगा. वैसे भी हम तो सिर्फ तेरा दिल रखने के लिए आ गए वरना एअरपोर्ट से सीधे पंजाब निकल जाते.”

ऐसे ही एक दिन सिमरन की कामवाली रजनी ने पुनीत को ऊंची आवाज में बात करते हुए सुना तो सिमरन से पूछ बैठी, “दीदी, का बात है, आजकल साहब बहुत नाराज रहते हैं.”

एक बार तो सिमरन ने अनसुना कर दिया पर उस के दोबारा पूछने पर किचन में खड़ेखड़े धीमे स्वर में सारी बात रजनी को बता दी. रजनी के चेहरे के भाव सिमरन की बातें सुनतेसुनते बदल रहे थे.

जैसे ही सिमरन ने अपनी बात पूरी की, रजनी शुरू हो गई, “दीदी, आप तो अपने भैया की इतनी तारीफ करती हैं. आज आप लोग जहां हैं, वहां तक लाने में इन का कितना हाथ है। लगता है, साहब ई सब भूल गए. अरे कौनो मदद न भी किया हो तो भी हैं तो आप के भाई ही न. मेहमान का भी तो कुछ सम्मान होता है.”

2 दिन भागदौड़ कर के पुनीत ने राज और उस के परिवार के लिए कर्फ्यू पास का इंतजाम कर लिया. हालांकि कोरोना महामारी की सरकारी गाइडलाइंस के अनुसार राज और उस के परिवार को हरियाणा पंजाब सीमा पर 1 सप्ताह के लिए क्वारंटाइन करना था पर पुनीत यह बात बड़ी सफाई से छिपा गए।

घर में कदम रखते ही वह बड़े उत्साहित स्वर में बोले, “लो राज पाजी, आप का घर जाने का इंतजाम करवा दिया.”

कुछ देर बाद पुनीत जब अपने कमरे में चेंज कर रहे थे तो सिमरन और रजनी की बातचीत उन के कानों में पड़ी. सिमरन कह रही थी, “अरी रजनी, घर में मेहमान आए हुए हैं और तू आज फिर लेट हो गई।”

“अरे का बताएं दीदी, हम तो आप को बताना ही भूल गए. जिस दिन आप के भैयाभाभी आए थे उसी दिन यूपी से हमारी ननद और ननदोई भी आए थे. 2 महीना पहले ननद की शादी हुई थी, सो हम ने उन को दिल्ली घुमाने की खातिर इंहा बुला लिए. सो थोड़ा काम बढ़ गया है पर 1-2 दिन में सब ठीक हो जाएगा। मेरी ननद भी काम में हाथ बंटाने लगी हैं.”

सिमरन के स्वर में चिंता झलक रही थी,“रजनी इतनी छोटी सी झुग्गी में कैसे गुजारा करोगी? अब तो लौकडाउन खत्म होने तक वे लोग वापस भी नहीं जा पाएंगे.”

रजनी अपनी ही धुन में बोले जा रही थी, “अरे दीदी, चिंता की कौनो बात नहीं, दिल में जगह होनी चाहिए. मेरे ससुरजी झुग्गी बस्ती के प्रधान थे. 2 झुग्गी हमारे परिवार के कब्जे में हैं, मिलजुल कर रह लेंगे. रही बात खानेपीने की, तो सरकार इस महामारी के चलते सब को मुफ्त राशन दे रही है, उसी से इन का गुजारा भी हो जाएगा. वैसे भी, अभी तो हम इन को घूमने के लिए बुलाए हैं पर कुछ समय बाद मेरे ननदोई को दिल्ली में ही काम दिलाना था.”

रजनी पल भर के लिए रुकी तो सिमरन ने हाथ के इशारे से उसे चुप कराना चाहा पर वह कहां मानने वाली थी, “आखिर भाई का बहन की खातिर कुछ तो फर्ज होता है न. इस बीमारी के खत्म होते ही मेरे पति ननदोईजी को औटो रिकशा चलाना सिखा देंगे और किराए पर औटो ले कर चलाएंगे तो इन का घरगृहस्थी भी चल जाएगा. तब तक हम तो हैं ही।”

रजनी की बातें सुनतेसुनते सिमरन की आंखें भर आईं. उधर दूसरे कमरे में कान लगा कर खड़े पुनीत को न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि रजनी यह सारी बातें उसे ही सुनाने के लिए कह रही है.

Emotional Story : सही राह – अवनि आजकल उदास क्यों रहती थी?

Emotional Story : अवनि को कालेज के लिए तैयार होते देख मां ने पूछा, “क्या बात है अवनि, आजकल कुछ उदास सी रहती हो? और यह क्या, आज फिर वही कुरता पहन लिया?” अवनि रोंआसी हो कर बोली, “अभी क्लासेज तो हो नहीं रहीं, सिर्फ गाइड ढूंढने की मशक्कत कर रही हूं.”

मम्मी ने उस के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “फिर भी सलीके से तैयार होना जरूरी है. मैं चेहरे पर मेकअप की परतें चढ़ाने को थोड़ी कह रही हूं.”

अवनि ने कहा, “ठीक है मम्मी, आगे से ध्यान रखूंगी.” मम्मी अवनि को जाते हुए देखती रही.डिपार्टमेंट में अवनि को उस की खास सहेली ईशा मिल गई जो पीएचडी की 2 साल की प्रोग्रैस रिपोर्ट सब्मिट कराने आई थी. ईशा ने अवनि से कहा, “हम दोनों ने एकसाथ गाइड ढूंढना शुरू किया था, देख मुझे 2 साल हो गए रजिस्ट्रेशन करवाए हुए, तेरी गाड़ी कहां अटक रही है?” अवनि का जवाब सुने बिना ही उसे ऊपर से नीचे तक देखते हुए ईशा आगे बोली, “यह क्या हाल बना रखा है…ढीला सा कुरता, तेल से चिपके बाल… यहां सारे लैक्चरर्स पुरुष हैं, मैडम. ऐसे ही नहीं मिल जाएंगे गाइड तुम्हें.” अवनि रोंआसी हो कर बोली, “सुबह मम्मी भी मुझे सलीके से रहने को कह रही थीं और अब तुम भी.”

ईशा ने उसे समझाते हुए कहा, “मैं तुम्हें 50 वर्ष की उम्र पार किए प्रोफैसर्स पर लाइन मारने को नहीं कह रही, लेकिन पुरुष चाहे 18 का हो या 80 का, सुंदरता उसे आकर्षित करती ही है.”

अवनि ईशा की बात समझने की कोशिश कर रही थी, फिर सोचने लगी, ‘सही ही तो कह रही है ईशा… मुझे अपने पहनावे और लुक्स पर ध्यान देना ही होगा. कल को जौब के लिए और शादी के लिए भी मेरे लुक्स को ही देखा जाएगा.’

उस दिन अवनि डिपार्टमैंट से सीधे पार्लर गई. वहीं हेयरवौश के बाद हेयरकट कराया और फिर थ्रेडिंग और फेशियल भी. बाल सैट कराने के बाद उस ने जब खुद को शीशे में देखा तो हैरान रह गई…वह सोच रही थी कि अगर स्टाइल से रहने लगूं तो किसी की नज़र मुझ पर से हटेगी ही नहीं.

घर पर मम्मी ने भी उस के हेयरकट की तारीफ की. धीरेधीरे अवनि अपनेआप को बदलती ही जा रही थी. इस ट्रांसफौर्मेशन में उसे मज़ा आ रहा था. एक दिन फिर से उस ने डिपार्टमैंट जा कर पीएचडी के लिए किसी गाइड से बात करने के बारे में सोचा. डिपार्टमैंट में सब से पहला औफिस अभिनव सर का था. अवनि ने कभी उन से बात नहीं की थी पीएचडी के बारे में. उन के बारे में अवनि ने सुना था कि वे एक बार में सिर्फ 4 स्टूडैंट्स को ही पीएचडी कराते हैं, वह भी जनरली बौयज को. आज अवनि न जाने क्यों उन के औफिस के सामने रुक गई थी और फिर झटके से दरवाजा खोल कर पूछ बैठी, “मे आई कम इन, सर?”

अभिनव सर डिपार्टमैंट के सब से वरिष्ठ प्रोफैसर थे, उम्र पचास के आसपास, लेकिन अवनि को वे किसी यंग, स्मार्ट युवक की तरह नज़र आ रहे थे. चमकता चेहरा, विशाल भुजाओं वाला कसरती शरीर. वे कोई सिनौप्सिस देखने में व्यस्त थे और अवनि उन्हें एकटक निहारे जा रही थी. पहले ऐसी नहीं थी अवनि. जब से खुद को बदला है, अब सब को ध्यान से देखने लगी थी. तभी अचानक सर का ध्यान अवनि की ओर गया. वे भूल ही गए थे कि कोई स्टूडैंट सामने बैठी है.

सर ने उस से आने का कारण पूछा. अवनि ने बिना कुछ कहे सिनौप्सिस थमा दी उन्हें. सर ने जवाब दिया, “मेरे पास कल ही एक सीट खाली हुई है लेकिन तुम से पहले 15 स्टूडैंट्स सिनौप्सिस दे कर जा चुके हैं. इतने स्टूडैंट्स में से एक को चुनना मुश्किल है.” अवनि का चेहरा उतर गया था. वह उठ कर जाने लगी तो सर ने उसे रोकते हुए कहा, “तुम बैठो, मैं पहले आओ, पहले पाओ के सिद्धांत पर काम नहीं करता. यदि तुम्हारा विषय और सिनौप्सिस मुझे पसंद आया तो मैं तुम्हें भी पीएचडी करा सकता हूं. तुम अगले सोमवार को मुझ से मिल लेना.”

सर की नजरें अवनि के चेहरे पर थीं. सर को अपनी ओर देखता पा कर अवनि की नजरें झुक गई थीं. सर ही सही, पर पहली बार कोई उसे यों गौर से देख रहा था. अवनि ने लाइट पिंक कलर का टाइटफिटिंग वाला सूट पहन रखा था जिस में से झांकते उस के उभार सुबह से कइयों की नज़र का निशाना बन चुके थे. पारदर्शी दुपट्टा जो बारबार कांधे से सरक रहा था वह किसी को भी अपने मोहपाश में बांधने को काफी था. सुर्ख गुलाबी गालों पर लहराते काले बाल कोई जादूटोना सा कर रहे थे. कभी लड़कों की तरह लंबेलंबे कदम बढ़ाने वाली अवनि धीरे से उठ कर नजाकत के साथ दरवाज़े की ओर बढ़ रही थी. उसे पूरा भरोसा था कि 16 स्टूडैंट्स में सर पीएचडी के लिए उसे ही सेलैक्ट करेंगे.

अगले सोमवार वह पहुंच गई थी अभिनव सर के औफिस में. सर औफिस में नहीं थे. सर ने फोन भी पिक नहीं किया. अवनि को अब यही डर था कि सीट हाथ से फिसल न गई हो. करीब एक घंटे के इंतज़ार के बाद अवनि बुझेमन से बाहर आने को उठी ही थी कि सामने सर को देख कर ठिठक गई. लाइट ब्लू कलर की शर्ट और ब्लैक ट्राउज़र पहने हुए सर बहुत स्मार्ट और हैंडसम लग रहे थे. सर ने उसे बैठने को कहा और फिर अवनि की आंखों में आंखें डाल कर मुसकराते हुए बोले, “तुम्हारा सिनौप्सिस मुझे पसंद आया. कुछ करैक्शन के बाद इसे फाइनल कर लेते हैं. तुम मेरे अंडर में पीएचडी कर रही हो.” अवनि की खुशी का ठिकाना न था. अवनि ने थैंक्स कहा तो सर मुसकराते हुए बोले, “तुम्हें पता चल ही गया होगा कि मैं लड़कियों को पीएचडी नहीं कराता, फिर तुम्हें क्यों करा रहा हूं…”

अवनि ने प्रश्नवाचक दृष्टि सर के चेहरे पर डाली. सर ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, “…क्योंकि तुम मुझे बाकी लड़कियों से अलग लगीं.”

अवनि को सर की बातों का अर्थ कुछकुछ समझ आ रहा था. घर आ कर उस ने बहुत देर तक खुद को शीशे में निहारा और फिर नज़रें झुका ली थीं. अवनि जल्दी से जल्दी पीएचडी पूरी कर लेना चाहती थी. वह चाहती थी कि जल्दी से जल्दी जौब लग जाए. मम्मीपापा ने उस के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया था.

अवनि रोज़ डिपार्टमैंट जाती थी और लाइब्रेरी से बुक्स इशू करवाने के बाद अभिनव सर के औफिस में ही बैठती थी. थोड़ी देर के लिए ही सही, सर औफिस जरूर आते थे. मुसकरा कर अवनि के अभिवादन का जवाब भी देते थे. किसी दिन सर डिपार्टमैंट आने में लेट हो जाते थे, तो अवनि बेचैन हो उठती थी. अवनि खुद इस बेचैनी का कारण नहीं समझ पा रही थी. कहीं इसी को प्यार तो नहीं कहते…अब तक अवनि ने अपनी जो छवि बना रखी थी, लड़के उस के आसपास भी न फटकते थे लेकिन अब तो वह हर नज़र की गरमाहट और गहराई को महसूस कर रही थी.

रोज़ की तरह अवनि अभिनव सर के औफिस आ गई थी. सर के औफिस में एक वौशरूम था जिसे अवनि अकसर यूज़ करती थी. अवनि को यही लगता था कि सर ने इस औफिस में सिर्फ उसे एंट्री दी है और वौशरूम तो उस के अलावा कोई रेयर ही यूज़ करता होगा. यही सोच कर कई बार वह डोर क्लोज़ करने में लापरवाही कर जाती थी. उस दिन भी उस ने ऐसी ही लापरवाही की.

हैंडवौश करते समय उस ने महसूस किया कि उस की ब्रा के हुक खुल गए हैं और स्टैप्स कुरते की स्लीव से बाहर की ओर आ रही हैं. उस ने ब्रा के हुक बंद करने के लिए कुरता उतारा और हुक बंद करने की कोशिश करने लगी. तभी सामने शीशे पर नज़र पड़ी तो उस ने देखा अभिनव सर खड़े हैं. वह सकपका गई. न जाने क्या सोच कर उस ने कुरता पहनने की कोशिश ही नहीं की. उसे लगा कि सर पास आ कर अवनि की ब्रा के हुक बंद कर रहे हैं, वह उन के कांपते हाथों के स्पर्श को महसूस कर रही थी और उस पर मदहोशी सी छा रही थी. तभी तेजी से दरवाज़ा बंद होने की आवाज़ से उस की तंद्रा टूटी. सर वहां नहीं थे…तो क्या सर बाहर से ही चले गए थे…अवनि समझ नहीं पा रही थी कि उसे क्या हो रहा था. अवनि ने बड़ी मुश्किल से कुरता पहना और बाहर आ गई. सर अपनी चेयर पर बैठे थे.

अवनि ने नज़रें झुकाए हुए सर से कहा, “सिनौप्सिस और लिटरेचर रिव्यू आप के बताए अनुसार तैयार कर लिए हैं.” अवनि के सुर्ख चेहरे पर पसीने की बूंदें गुलाब पर ओस का एहसास करा रही थीं.

सर ने उस की ओर बिना देखे ही कहा, “अगले सप्ताह डिपार्टमैंटल रिसर्च कमेटी की मीटिंग है लेकिन यह मीटिंग डिपार्टमैंट में न हो पाएगी. पास ही के कसबे के एक कालेज में मीटिंग रखी गई है क्योंकि मीटिंग के तुरंत बाद वहां एक सैमिनार होगा. यहां से 2 घंटे का रास्ता है. तुम मंडे को 11 बजे वहां पहुंच जाना. मैं भी वहीं मिलूंगा.”

अवनि के दिलोदिमाग में हलचल मची हुई थी. वह सर की ओर खिंची चली जा रही थी, जबकि सर ने ऐसा कोई इंडिकेशन उसे नहीं दिया था. उस ने सोच लिया था कि वह सर को अपनी फीलिंग्स के बारे में ज़रूर बताएगी…कहने की हिम्मत न हो तो लिख कर अपने प्यार का इज़हार करेगी. उस ने एक लैटर भी लिख लिया था.

अब डीआरसी की मीटिंग वाला सोमवार भी आ गया था. अवनि अपनी एक्टिवा से सर के बताए हुए टाउन के लिए रवाना हो गई थी. शहर से बाहर निकली ही थी कि तेज बारिश शुरू हो गई. अवनि ने एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर खुद को भीगने से बचाने की कोशिश की लेकिन पानी ने उस के कौटन सूट को भिगो ही दिया था. आसपास खड़े लोग उसे कनखियों से देख रहे थे. अवनि बिलकुल असहज हो गई थी. तभी एक चमचमाती हुई सफेद गाड़ी अवनि के सामने आ कर रुकी.

सर ही थे, हलके गुलाबी रंग की शर्ट में, बोले, “आओ, जल्दी बैठो. मीटिंग का टाइम हो रहा है.” सर ने आगे की सीट की ओर इशारा किया. अवनि झिझकती हुई गाड़ी में बैठ गई थी. उस का कुरता गीला हो गया था, उसे ठंड लग रही थी. सर ने हीटर औन कर दिया था. उस दिन की बाथरूम वाली घटना याद कर के अवनि सकुचा गई थी. फिर भी वह चाह रही थी कि सर उसे देखें. एक अलग ही तरह का रोमांच वह महसूस कर रही थी.

अभिनव सर ने उसे नौर्मल करने की कोशिश करते हुए कहा, “आराम से बैठो, रिलैक्स रहो. डीआरसी के लिए खुद को तैयार कर लो.” तभी एक झटके के साथ गाड़ी रुकी थी. गाड़ी में कोई खराबी आ गई थी. दूरदूर तक कोई नज़र नहीं आ रहा था. फोन का नैटवर्क भी गायब था. अवनि को परेशान देख सर ने कहा, “अभी 10 बजे हैं, कोई साधन मिल जाए तो 15 मिनट में पहुंच जाएंगे.” तभी एक लड़की एक्टिवा से आती दिखी जो उसी टाउन की ओर जा रही थी.

सर ने अवनि को उस लड़की के साथ भेज दिया और उस से यही कहा, “तुम पहुंचो, मैं मैनेज कर के आता हूं.”अवनि समय पर पहुंच गई थी. सर 15 मिनट बाद पहुंचे थे. उन की शर्ट पसीने में पूरी तरह भीगी हुई थी जिस से अवनि को यह अंदाजा हो गया था कि सर ने यह दूरी पैदल या दौड़ कर पूरी की है. डीआरसी की मीटिंग बढ़िया हो गई थी और अवनि का पीएचडी में रजिस्ट्रेशन भी हो गया था. सर को फाइनल डीआरसी रिपोर्ट वाली फ़ाइल देते समय उस ने वह लव-लैटर भी उसी में रख दिया था.

अवनि पीएचडी में रजिस्ट्रेशन के बाद बहुत खुश थी और सर के जवाब का भी इंतज़ार कर रही थी. अगले दिन अवनि मिठाई का डब्बा ले कर डिपार्टमैंट पहुंची तो पियून ने बताया कि सर की तबीयत खराब है. अवनि इस के लिए खुद को जिम्मेदार समझ रही थी. वह तुरंत सर के घर पहुंच गई थी. वह सर के घर पहली बार आई थी. दोतीन बार डोरबैल बजाने के बाद दरवाजा खुला. अवनि ने देखा कि दरवाजा खोलने वाले सर ही थे. सर ने उसे अंदर आने को कहा.

अवनि ने पूछा, “आप अकेले रहते हैं यहां?” सर ने जवाब दिया, “नहीं, मेरी पत्नी भी है. अभी वह कुछ दिन के लिए बेटे के पास यूएस गई हुई है.” अवनि को जैसे बिच्छु ने डंक मारा हो. वह सर को ले कर जाने क्याक्या सोचने लगी थी.

मिठाई का डब्बा वहीं टेबल पर रख कर अवनि ने पूछा था, “आप के लिए कुछ बना दूं सर?” सर ने कहा, “नहीं, मैं ठीक हूं. थोड़ी थकान है, जो आराम करने से ठीक हो जाएगी.” अवनि वापस लौटने के लिए पीछे मुड़ी तो सर ने कहा, “रुको अवनि.” अवनि चौंक गई थी. सर ने कुछ सोचते हुए कहा, “तुम बहुत अच्छी लड़की हो, तुम अपनी पीएचडी पूरी कर के अपने कैरियर पर ध्यान दो. मैं एक गाइड के रूप में हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा. तुम अपने वर्तमान और भविष्य को खुद ही आकार दे सकती हो. याद रखना, बहक कर पछताने से बेहतर है हम अपनेआप को मर्यादित रखें.”

अवनि सर का इशारा समझ रही थी. उस की आंखों पर पड़ा प्यार का चश्मा उतर गया था. सर के घर से लौटते हुए अवनि यही सोच रही थी कि अब वह किसी भी तरह के भटकाव से बच कर पूरे मनोयोग से पीएचडी पूरी करेगी. सर ने उसे मंजिल को पाने की सही राह दिखा दी थी.

Love Story : तुम्हें पाने की जिद में

Love Story : ट्रेन में बैठते ही सुकून की सांस ली. धीरज ने सारा सामान बर्थ के नीचे एडजस्ट कर दिया था. टे्रन के चलते ही ठंडी हवा के झोंकों ने मुझे कुछ राहत दी. मैं अपने बड़े नाती गौरव की शादी में शामिल होने इंदौर जा रही हूं.

हर बार की घुटन से अलग इस बार इंदौर जाते हुए लग रहा है कि अब कष्टों का अंधेरा मेरी बेटी की जिंदगी से छंट चुका है. आज जब मैं अपनी बेटी की खुशियों में शामिल होने इंदौर जा रही हूं तो मेरा मन सफर में किसी पत्रिका में सिर छिपा कर बैठने की जगह उस की जिंदगी की किताब को पन्ने दर पन्ने पलटने का कर  रहा है.

कितने खुश थे हम जब अपनी प्यारी बिटिया रत्ना के लिए योग्य वर ढूंढ़ने में अपने सारे अनुभव और प्रयासों के निचोड़ से जीतेंद्र को सर्वथा उपयुक्त वर समझा था. आकर्षक व्यक्तित्व का धनी जीतेंद्र इंदौर के प्रतिष्ठित कालिज में सहायक प्राध्यापक है. अपने मातापिता और भाई हर्ष के साथ रहने वाले जीतेंद्र से ब्याह कर मेरी रत्ना भी परिवार का हिस्सा बन गई. गुजरते वक्त के साथ गौरव और यश भी रत्ना की गोद में आ गए. जीतेंद्र गंभीर और अंतर्मुखी थे. उन की गंभीरता ने उन्हें एकांतप्रिय बना कर नीरसता की ओर ढकेलना शुरू कर दिया था.

जीतेंद्र के छोटे भाई चपल और हंसमुख हर्ष के मेडिकल कालिज में चयनित होते ही मातापिता का प्यार और झुकाव उस के प्रति अधिक हो गया. यों भी जोशीले हर्ष के सामने अंतर्मुखी जीतेंद्र को वे दब्बू और संकोची मानते आ रहे थे. भावी डाक्टर के आगे कालिज में लेक्चरर बेटे को मातापिता द्वारा नाकाबिल करार देना जीतेंद्र को विचलित कर गया.

बारबार नकारा और दब्बू घोषित किए जाने का नतीजा यह निकला कि जीतेंद्र गहरे अवसाद से ग्रस्त हो गए. संवेदनशील होने के कारण उन्हें जब यह एहसास और बढ़ा तो वह लिहाज की सीमाओं को लांघ कर अपने मातापिता, खासकर मां को अपना सब से बड़ा दुश्मन समझने लगे. वैचारिक असंतुलन की स्थिति में जीतेंद्र के कानों में कुछ आवाजें गूंजती प्रतीत होती थीं जिन से उत्तेजित हो कर वह अपने मातापिता को गालियां देने से भी नहीं चूकते थे.

शांत कराने या विरोध का नतीजा मारपीट और सामान फेंकने तक पहुंच जाता था. वह मां से खुद को खतरा बतला कर उन का परोसा हुआ खाना पहले उन्हें ही चखने को मजबूर करते थे. उन्हें संदेह रहता कि इस में जहर मिला होगा.

जीतेंद्र को रत्ना का अपनी सास से बात करना भी स्वीकार न था. वह हिंसक होने की स्थिति में उन का कोप भाजन नन्हे गौरव और यश को भी बनना पड़ता था.

मेरी रत्ना का सुखी संसार क्लेश का अखाड़ा बन गया था. अपने स्तर पर प्यारदुलार से जीतेंद्र के मातापिता और हर्ष ने सबकुछ सामान्य करने की कोशिश की थी मगर तब तक पानी सिर से ऊपर जा चुका था. यह मानसिक ग्रंथि कुछ पलोें में नहीं शायद बचपन से ही जीतेंद्र के मन में पल रही थी.

दौरों की बढ़ती संख्या और विकरालता को देखते हुए हर्ष और उन के मातापिता जीतेंद्र को मानसिक आरोग्यशाला आगरा ले कर गए. मनोचिकित्सक ने मेडिकल हिस्ट्री जानने के बाद कुछ परीक्षणों व सी.टी. स्केन की रिपोर्ट को देख कर उन की बीमारी को सीजोफे्रनिया बताया. उन्होंने यह भी कहा कि इस रोग का उपचार लंबा और धीमा है. रोगी के परिजनों को बहुत धैर्य और संयम से काम लेना होता है. रोगी के आक्रामक होने पर खुद का बचाव और रोगी को शांत कर दवा दे कर सुलाना कोई आसान काम नहीं था. उन्हें लगातार काउंसलिंग की आवश्यकता थी.

हम परिस्थितियों से अनजान ही रहते यदि गौरव और यश को अचंभित करने यों अचानक इंदौर न पहुंचते. हालात बदले हुए थे. जीतेंद्र बरसों के मरीज दिखाई दे रहे थे. रत्ना पति के क्रोध की निशानियों को शरीर पर छिपाती हुई मेरे गले लग गई थी. मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था. जिस रत्ना को एक ठोकर लगने पर मैं तड़प जाती थी वही रत्ना इतने मानसिक और शारीरिक कष्टों को खुद में समेटे हुए थी.

जब कोई उपाय नहीं रहता था तो पास के नर्सिंग होम से नर्स को बुला कर हाथपांव पकड़ कर इंजेक्शन लगवाना ही आखिरी उपाय रहता था.

इतने पर भी रत्ना की आशा और  विश्वास कायम था, ‘मां, यह बीमारी लाइलाज नहीं है.’ मेरी बड़ी बहू का प्रसव समय नजदीक आ रहा था सो मैं रत्ना को हौसला दे कर भारी मन से वापस आ गई थी.

रत्ना मुझे चिंतामुक्त रखने के लिए अपनी लड़ाई खुद लड़ कर मुझे तटस्थ रखना चाहती थी. इस दौरान मेरे बेटे मयंक और आकाश जीतेंद्र को दोबारा आगरा मानसिक आरोग्यशाला ले कर गए. जीतेंद्र को वहां एडमिट किया जाना आवश्यक था, लेकिन उसे अकेले वहां छोड़ने को इन का दिल गवारा न करता और उसे काउंसलिंग और परीक्षणों के बाद आवश्यक हिदायतों और दवाओं के साथ वापस ले आते थे.

मैं बेटों के वापस आने पर पलपल की जानकारी चाहती थी. मगर वे ‘डाक्टर का कहना है कि जीतेंद्र जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे,’ कह कर दाएंबाएं हो जाते थे.

कहां भूलता है वह दिन जब मेरे नाती यश ने रोते हुए मुझे फोन किया था. यश सुबकते हुए बहुत कुछ कहना चाह रहा था और गौरव फुसफुसा कर रोक रहा था, ‘फोन पर कुछ मत बोलो…नानी परेशान हो जाएंगी.’

लेकिन जब मैं ने उसे सबकुछ बताने का हौसला दिया तो उस ने रोतेरोते बताया, ‘नानी, आज फिर पापा ने सारा घर सिर पर उठाया हुआ है. किसी भी तरह मनाने पर दवा नहीं ले रहे हैं. मम्मी को उन्होंने जोर से जूता मारा जो उन्हें घुटने में लगा और बेचारी लंगड़ा कर चल रही हैं. मम्मी तो आप को कुछ भी बताने से मना करती हैं, मगर हम छिप कर फोन कर रहे हैं. पापा इस हालत में हमें अपने पापा नहीं लगते हैं. हमें उन से डर लगता है. नानी, आप प्लीज, जल्दी आओ,’ आगे रुंधे गले से वह कुछ न कह सका था.

तब मैं और धीरज फोन रखते ही जल्दी से इंदौर के लिए रवाना हो गए थे. उस बार मैं बेटी की जिंदगी तबाह होने से बचाने के लिए उतावलेपन से बहुत ही कड़ा निर्णय ले चुकी थी लेकिन धीरज अपने नाम के अनुरूप धैर्यवान हैं, मेरी तरह उतावले नहीं होते.

इंदौर पहुंच कर मेरे मन में हर बार की तरह जीतेंद्र के लिए कोई सहानुभूति न थी बल्कि वह मेरी बेटी की जिंदगी तबाह करने का दोषी था. तब मेरा ध्येय केवल रत्ना, यश और गौरव को वहां से मुक्त करा कर अपने साथ वापस लाना था. जीतेंद्र की इस दशा के दोषी उस के मातापिता हैं तो वही उस का ध्यान रखें. मेरी बेटी क्यों उस पागल के साथ घुटघुट कर अपना जीवन बरबाद करे.

उफ, मेरी रत्ना को कितनी यंत्रणा और दुर्दशा सहनी पड़ रही थी. जीतेंद्र सो रहे थे. उन्हें बड़ी मुश्किल से दवा दे कर सुलाया गया था.

एकांत देख कर मैं ने अपने मन की बात रत्ना के सामने रख दी थी, ‘बस, बहुत हो गई सेवा. हमारे लिए तुम बोझ नहीं हो जो जीतेंद्र की मार खा कर यहां पड़ी रहो. करने दो इस के मांबाप को इस की सेवा. तुम जरूरी सामान बांधो और बच्चों को ले कर हमारे साथ चलो.’

तब यश और गौरव सहमे हुए मेरी बात से सहमत दिखाई दे रहे थे. आखिरकार उन्होंने ही तो मुझे समस्या से उबरने के लिए यहां बुलाया था.

‘क्या सोच रही हो, रत्ना. चलने की तैयारी करो,’ मैं ने उसे चुप देख कर जोर से कहा था.

‘सोच रही हूं कि मां बेटी के प्यार में कितनी कमजोर हो जाती है. आप को इन हालात से निकलने का सब से सरल उपाय मेरा आप के साथ चलना ही लग रहा है. ‘जीवन एक संघर्ष है’ यह घुट्टी आप ने ही पिलाई है और बेटी के प्यार में यह मंत्र आप ही भूले जा रही हैं… और लोगों की तरह आप भी इन्हें पागल की उपमा दे रही हैं जबकि यह केवल एक बीमार हैं.

‘आप ने तो पूर्ण स्वस्थ और सुयोग्य जीतेंद्र से मेरा विवाह किया था न? मैं ने जिंदगी की हर खुशी इन से पाई है. स्वस्थ व्यक्ति कभी बीमार भी हो सकता है तो क्या बीमार को छोड़ दिया जाता है. इन की इस बीमारी को मैं ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया है. दुनिया में संघर्षशील व्यक्ति न जाने कितने असंभव कार्यों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं, तो क्या मैं मानव सेवा परम धर्म के संस्कार वाले समाज में अपने पति की सेवा का प्रण नहीं ले सकती.

‘जीतेंद्र को इस हाल में छोड़ कर आप अपने दिल से पूछिए, क्या वाकई मैं आप के पास खुश रह पाऊंगी. यह मातापिता की अवहेलना से आहत हैं… पत्नी के भी साथ छोड़ देने से इन का क्या हाल होगा जरा सोचिए.

‘मम्मी, आप पुत्री मोह में आसक्त हो कर ऐसा सोच रही हैं लेकिन मैं ऐसा करना तो दूर ऐसा सोच भी नहीं सकती. हां, आप कुछ दिन यहां रुक जाइए… यश और गौरव को नानानानी का साथ अच्छा लगेगा. इन दिनों मैं उन पर ध्यान भी कम ही दे पाती हूं.’

रत्ना धीरेधीरे अपनी बात स्पष्ट कर रही थी. वह कुछ और कहती इस से पहले रत्ना के पापा, जो चुपचाप हमारी बात सुन रहे थे, उठ कर रत्ना को गले लगा कर बोले, ‘बेटी, मुझे तुम से यही उम्मीद थी. इसी तरह हौसला बनाए रहो, बेटी.’

रत्ना के निर्णय ने मेरे अंतर्मन को झकझोर दिया था. ऐसा लगा कि मेरी शिक्षा अधूरी थी. मैं ने रत्ना को जीवन संघर्ष मानने का मंत्र तो दिया मगर सहजता से जिम्मेदारियों का वहन करते हुए कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने का पाठ मुझे रत्ना ने पढ़ाया. मैं उस के सिर पर हाथ फेर कर भरे गले से सिर्फ इतना ही कह पाई थी, ‘बेटी, मैं तुम्हारे प्यार में हार गई लेकिन तुम अपने कर्तव्यों की निष्ठा में जरूर जीतोगी.’

कुछ दिन रत्ना और बच्चों के साथ गुजार कर मैं धीरज के साथ वापस आ गई थी. हम रहते तो ग्वालियर में थे मगर मन रत्ना के आसपास ही रहता था. दोनों बेटे अपने बच्चों और पत्नी के परिवार में खुश थे. मैं उन की तरफ से निश्चिंत थी. हम सभी चिंतित थे तो बस, रत्ना पर आई मुसीबत से. धीरज छुट्टियां ले कर मेरे साथ हरसंभव कोशिश करते जबतब इंदौर पहुंचने की.

रत्ना के ससुर इस मुश्किल समय में रत्ना को सहारा दे रहे थे. उन्होंने बडे़ संघर्षों के साथ अपने दोनों बेटों को लायक बनाया था. जीतेंद्र ही आर्थिक रूप से घर को सुदृढ़ कर रहे थे. हर्ष तब मेडिकल कालिज में पढ़ रहा था. इसलिए घर की आर्थिक स्थिति डांवांडोल होने लगी थी. बीमारी की वजह से जीतेंद्र को महीनों अवकाश पर रहना पड़ता था. अनेक बार छुट्टियां अवैतनिक हो जाती थीं. दवाइयों का खर्च तो था ही. काफी समय आगरा में अस्पताल में भी रहना पड़ता था.

जब कभी जीतेंद्र कालिज जाते तो रत्ना भी साथ जाती थी. रत्ना के कालिज  में उन के सहयोगियों से सहानुभूति और सहयोग की प्रार्थना की थी कि वे लोग जीतेंद्र की मानसिक स्थिति को देखते हुए उन के साथ बहस या तर्क न करें. जीतेंद्र को संतुलित रखने के लिए रत्ना साए की तरह उन के साथ रहती.

जीतेंद्र को बच्चों के भरोसे छोड़ कर रत्ना बाहर कहीं नौकरी करने भी नहीं जा सकती थी. इसलिए घर पर ही बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था. जिस दिन जीतेंद्र कुछ विचलित दिखते थे रत्ना को ट्यूशन वाले बच्चों को वापस भेजना पड़ता था, क्योंकि एक तो वह उन बच्चों को जीतेंद्र का कोपभाजन नहीं बनाना चाहती थी और दूसरे, वह नहीं चाहती थी कि आसपड़ोस के बच्चे जीतेंद्र की असंतुलित मनोदशा को नमकमिर्च लगा कर अपने परिजनों में प्रचारित करें. इस कारण सामान्य दिनों में उसे अधिक समय ट्यूशन में देना पड़ता था.

गृहस्थी की दो पहियों की गाड़ी में एक पहिए के असंतुलन से दूसरे पहिए पर सारा दारोमदार आ टिका था. सभी साजोसामान से भरा घर घोर आर्थिक संकट में धीरेधीरे खाली हो रहा था. यश और गौरव को शहर के प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल से निकाल कर पास के ही एक स्कूल में दाखिला दिला दिया था ताकि आनेजाने के खर्च और आर्थिक बोझ को कुछ कम किया जा सके. मासूम बच्चे भी इस संघर्ष के दौर में मां के साथ थे. वे कक्षा में अव्वल आ कर मां की आंखों में आशा के दीप जलाए हुए थे.

रत्ना जाने किस मिट्टी की बनी थी जो पल भर भी बिना आराम किए घर, बच्चों, ट्यूशन और पति सेवा में कहीं भी कोई कसर न रखना चाहती थी.

मेरे बेटे मयंक और आकाश अपनी लाड़ली बहन रत्ना की मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते पर स्वाभिमानी रत्ना ने आर्थिक सहायता लेने से विनम्र इनकार कर दिया था. उस का कहना था कि अपने परिवार के खर्चों के बाद एक गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए आप को अपने परिवार की इच्छाओं का गला घोंटना पडे़गा. भाई, आप का यह अपनापन और सहारा ही काफी है कि आप मुश्किल वक्त में मेरे साथ खडे़ हैं.

इन हालात की जिम्मेदार जीतेंद्र की मां खुद को निरपराधी साबित करने के लिए चोट खाई नागिन की तरह रत्ना के खिलाफ नईनई साजिशें रचती रहतीं. छोटे बेटे हर्ष और पति की असहमति के बावजूद जीतेंद्र को दूरदराज के ओझास्यानों के पास ले जा कर तंत्र साधना और झाड़फूंक करातीं जिस से जीतेंद्र की तबीयत और बिगड़ जाती थी. जीतेंद्र के विचलित होने पर उसे रत्ना के खिलाफ भड़का कर उस के क्रोध का रुख रत्ना  की ओर मोड़ देती थीं. केवल रत्ना ही उन्हें प्यारदुलार से दवा खिला पाती थी. लेकिन तब नफरत की आंधी बने जीतेंद्र को दवा देना भी मुश्किल हो जाता था.

जीतेंद्र को स्वयं पर भरोसा मजबूत कर अपने भरोसे में लेना, उन्हें उत्साहित करते हुए जिंदादिली कायम करना उन की काउंसलिंग का मूलमंत्र था.

सहनशक्ति की प्रतिमा बनी मेरी रत्ना सारे कलंक, प्रताड़ना को सहती चुपचाप अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती रही. यश और गौरव को हमारे साथ रखने का प्रस्ताव वह बहुत शालीनता से ठुकरा चुकी थी. ‘मम्मी, इन्हें हालात से लड़ना सीखने दो, बचना नहीं.’ वाकई बच्चे मां की मेहनत को सफल करने में जी जान से जुटे थे. गौरव इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर पूणे में नौकरी कर रहा है. यश इंदौर में ही एम.बी.ए. कर रहा है.

हर्ष के डाक्टर बनते ही घर के हालात कुछ पटरी पर आ गए थे. रत्ना की सेवा, काउंसलिंग और व्यायाम से जीतेंद्र लगभग सामान्य रहने लगे थे. हां, दवा का सेवन लगातार चलते रहना है. अपने बेटों की प्रतियोगी परीक्षाओं में लगातार मिल रही सफलता से वे गौरवान्वित थे.

रत्ना की सास अपने इरादों में कामयाब न हो पाने से निराश हो कर चुप बैठ गई थीं. भाभी को अकारण बदनाम करने की कोशिशों के कारण हर्ष की नजरों में भी अपनी मां के प्रति सम्मान कम हुआ था. हमेशा झूठे दंभ को ओढे़ रहने वाली हर्ष की मां अब हारी हुई औरत सी जान पड़ती थीं.

ट्रेन खुली हवा में दौड़ने के बाद धीमेधीमे शहर में प्रवेश कर रही थी. मैं अतीत से वर्तमान में लौट आई. इत्मिनान से रत्ना की जिंदगी की किताब के सुख भरे पन्नों तक पहुंचतेपहुंचते मेरी ट्रेन भी इंदौर पहुंच गई.

स्टेशन पर रत्ना और जीतेंद्र हमें लेने आए थे. कितना सुखद एहसास था यह जब हम जीतेंद्र और रत्ना को स्वस्थ और प्रसन्न देख रहे थे. शादी में सभी रस्मों में भागदौड़ में जीतेंद्र पूरी सक्रियता से शामिल थे. उन्हें देख कर लग ही नहीं रहा था कि यह व्यक्ति ‘सीजोफेनिया’ जैसे जजबाती रोग की जकड़न में है.

गौरव की शादी धूमधाम से हुई. शादी के बाद गौरव और नववधू बड़ों का आशीर्वाद ले कर हनीमून के लिए रवाना हो गए. शाम को मैं, धीरज, रत्ना और जीतेंद्र में चाय पीते हुए हलकीफुलकी गपशप में मशगूल थे. तब जीतेंद्र ने झिझकते हुए मुझ से कहा, ‘‘मम्मीजी, आप ने रत्ना के रूप में एक अमूल्य रत्न मुझे सौंपा है जिस की दमक से मेरा घर आलोकित है. मुझे सही मानों में सच्चा जीवनसाथी मिला है, जिस ने हर मुश्किल में मेरा साथ दिया है.’’

बेटी की गृहस्थी चलाने की सूझबूझ और सहनशक्ति की तारीफ सुन कर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया.

‘‘रत्ना, मेरा दुर्व्यवहार, इतनी आर्थिक तंगी, सास के दंश, मेरा इलाज… कैसे सह पाईं तुम इतना कुछ?’’ अनायास ही रत्ना से मुसकरा कर पूछ बैठे थे जीतेंद्र.

रत्ना शरमा कर सिर्फ इतना ही कह सकी, ‘‘बस, तुम्हें पाने की जिद में.’’

Best Short Story : मेरी जिंदगी जो मैंने खुद बनाई

Best Short Story : उस दिन मैं अनन्या की कायल हो गई जब उसने कहा कि ये मेरी जिंदगी है जो मैनें खुद बनाई है… मेरी जिंदगी मेरी तकदीर मैंने खुद लिखी है. क्योंकि मुझे ऐसा लगता है ये वो लड़की है जिसने बेइज्जती सही लोगों के ताने सहे साथ ही  जौब के लिए परेशान हुई लेकिन आखिरकार उसने वो हांसिल किया जो पाना चाहती थी और उसकी जिंदगी में उसने ये पाने के लिए जो मेहनत की है मैं उसे समझ सकती हूं. ये बात तब की है जब अनन्या स्कूल में थी उसका पढ़ाई में बिल्कुल भी मन नहीं लगता था उसके पापा टीचर थे लेकिन फिर भी उसे पढ़ाई में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी.

उसके कुछ दोस्त थे जिनसे हमेशा उसके नंबर कम आते थे और उसे बुरा लगता था कि मेरे नंबर कम आते हैं.अनन्या जिस स्कूल में थी वहां उसके पापा पहले टीचर रह चुके थे इसलिए अनन्या को औऱ भी बुरा लगता था क्योंकि सारे टीचर कहते थे कि तुम्हारे पापा टीचर हैं और तुम एक दम गधी. क्लास में भी कई बार उसे शर्मिंदा होना पड़ता था.

अब अनन्या की जिंदगी का दूसरा पड़ाव शुरु होने वाला था उसकी स्कूलिंग खत्म हो गई औऱ उसने ग्रेजुएशन के लिए कई फार्म भरे अनन्या ने अब ठान लिया था कि उसे अब कुछ करना है और अपनी जिंदगी में आगे बढ़ना है ताकि वो सबके मुंह बंद कर सके.उसने खूब मेहनत की और एक बढ़िया से कॉलेज में एडमिशन हुआ. अनन्या के कुछ रिश्तेदार थे जो उसे बिल्कुल ही गवार औऱ पागल समझते थे अनन्या के मुंह पर ही उसे गवार औऱ पागल कह दिया करते थे.अनन्या बहुत सीधी थी वो बस हंस कर चली जाती थी.लेकिन धीरे-धीरे वक्त बीतता गया और अनन्या ने ठान लिया कि अब उसे बाहर जाकर पढ़ाई करनी होगी क्योंकि बिना  बाहर गये इस शहर में कुछ भी नहीं होगा और वक्त बीतने लगा अनन्या ने मेहनत तो खूब की थी और उसने अपनी आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जाने का रास्ता निकाला और बाहर के एक कॉलेज की इंटरेन्स इग्ज़ाम क्लियर किया और फाइनली वो बाहर गयी लोगों ने फिर भी उसका मजाक उड़ाया कि बाहर जाकर क्या करेगी पढ़ाई करके वापस घर आकर घर बैठेगी लेकिन उन्हें शायद ये नहीं पता था कि अनन्या कुछ बहुत बड़ा करने वाली है.अनन्या को पढ़ाई करते वक्त ही कौलेज में प्लेसमेंट मिला लेकिन इससे पहले भी वो जौब के लिए बहुत परेशान हुआ करती थी…. लेकिन प्लेसमेंट के बाद एक दिन विदेश चली गई वहां की एक बहुत बड़ी कंपनी में उसे जॉब मिली धीरे-धीरे वो सोशल मीडिया पर एक्टिव होने लगी थी इसलिए सभी जान गए की वो कहां है औऱ क्या कर रही है….

कई सालों बाद वो अपने घर आयी और तब वही रिश्तेदार उससे इज्जत से बात कर रहे थें लेकिन यही कि किस्मत अच्छी थी जो वहां पहुंच गई अनन्या ने तब बोला उस दिन बिना हंसे कि ये मेरी जिंदगी है जो मैंने खुद बनाई है…. और मेरी तकदीर जो मैंने खुद लिखी है.और वही टीचर और दोस्त जो अनन्या का मज़ाक बनाते थे वो उसे फेसबुक और इंस्टाग्राम पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज रहे थे क्योंकि अब अनन्या ने खुद को प्रूफ कर दिया था कि जरूरी नहीं है जो लोग पढ़ाई में कमजोर हैं वो कभी आगे नहीं बढ़ सकते हैं. लेकिन अनन्या ने ये बात साबित कर दी थी की अगर आप चाहें तो अपनी जिंदगी खुद बना सकते हैं बस मन में लगन होनी चाहिए.

Best Hindi Story : शक – क्या थी ऋतिका की शर्त

Best Hindi Story : ऋतिका हंसमुंख और मिलनसार स्वभाव की तो थी ही, पुरुष सहकर्मियों के साथ भी बेहिचक बात करती थी. साथ काम करने वाली लड़कियों के साथ शौपिंग पर भी चली जाती थी और वहां खानेपीने का बिल भी दे देती थी. लेकिन जब कोई लड़की उसे अपने घर पर बुलाती थी तो वह मना कर देती थी.

‘‘लगता है इस के घर में जरूर कुछ गड़बड़ है तभी यह नहीं चाहती कि कोई इस के घर आए और यह किसी के घर जाए,’’ आरती बोली.

‘‘मुझे भी यही लगता है, क्योंकि फिल्म देखने या रेस्तरां चलने को कहो तो तुरंत मान जाती है और बिल भरने को भी तैयार रहती है,’’ मीता ने जोड़ा, तो सोनिया और चंचल ने भी सहमति में सिर हिलाया.

‘‘इतनी अटकलें लगाने की क्या जरूरत है?’’ पास बैठे राघव ने कहा, ‘‘ऋतिका बीमार है, इसलिए आप सब उसे देखने के बहाने उस का घर देख आओ.’’

‘‘उस के पापा टैलीफोन विभाग के आला अफसर हैं और शाहजहां रोड की सरकारी कोठी में रहते हैं, इतनी जानकारी तो जाने के लिए काफी नहीं है,’’ मीता ने लापरवाही से कहा.

बात वहीं खत्म हो गई. अगले सप्ताह ऋतिका औफिस आ गई. उस के पैर में मोच आ गई थी, इसलिए चलने में अभी भी दिक्कत हो रही थी. शाम को उसे छुट्टी के बाद भी काम करते देख कर राघव ने कहा, ‘‘मैं ने आप का कोई काम भी पैंडिंग नहीं रहने दिया था, फिर क्यों आप देर तक रुकी हैं?’’

‘‘धन्यवाद राघवजी, मैं काम नहीं नैट सर्फिंग कर रही हूं.’’

‘‘मगर क्यों?’’

‘‘मजबूरी है. चार्टर्ड बस तक चल कर नहीं जा सकती और पापा को लेने आने में अभी देर है.’’

‘‘तकलीफ तो लगता है आप को बैठने में भी हो रही है?’’

‘‘हो तो रही है, लेकिन पापा मीटिंग में व्यस्त हैं, इसलिए बैठना तो पड़ेगा ही.’’

‘‘अगर एतराज न हो तो मेरे साथ चलिए.’’

‘‘इस शर्त पर कि आप चाय पी कर जाएंगे.’’

‘‘ठीक है, अभी और्डर करता हूं.’’

‘‘ओह नो… मेरा मतलब है मेरे घर पर.’’

‘‘इस में शर्त काहे की… किसी के भी घर जाने पर चायनाश्ते के लिए रुकना पड़ता ही है.’’

ऋतिका ने पापा को मोबाइल पर आने को मना कर दिया. फिर राघव के साथ घर पहुंच गई. मां भी विनम्र थीं. कुछ देर बाद ऋतिका के पापा भी आ गए. वे भी राघव को ठीक ही लगे. कुल मिला कर घर या परिवार में कुछ ऐसा नहीं था जिसे ऋतिका किसी से छिपाना चाहे. बातोंबातों में पता चला कि वे लोग कई वर्षों से हैदराबाद में रह रहे थे और उन्हें वह शहर पसंद भी बहुत था.

‘‘इन की तो विभिन्न जिलों में बदली होती रहती थी, लेकिन मैं बच्चों के साथ हमेशा हैदराबाद में ही रही. बहुत अच्छे लोग हैं वहां के… अकेले रहने में कभी कोई परेशानी नहीं हुई,’’ ऋतिका की मां ने बताया.

‘‘यहां तो अभी आप की जानपहचान नहीं हुई होगी?’’ राघव ने कहा.

‘‘पासपड़ोस में हो गई है. वैसे रिश्तेदार बहुत हैं यहां, लेकिन अभी उन से मिले नहीं हैं. ऋतु पत्राचार से एमबीए की पढ़ाई कर रही है, इसलिए औफिस के बाद का सारा समय पढ़ाई में लगाना चाहती है और हम भी इसे डिस्टर्ब नहीं करना चाहते. मिलने के बाद तो आनेजाने का सिलसिला शुरू हो जाएगा न.’’

राघव को ऋतिका की सहेलियों से मेलजोल न बढ़ाने की बात तो समझ आ गई, लेकिन एमबीए करने की बात छिपाने की नहीं.

यह सुन कर कि राघव के मातापिता सऊदी अरब में और बहन अपने पति के साथ सिंगापुर में रहती है और वह यहां अकेला, ऋतिका की मां ने आग्रह किया, ‘‘कभी घर वालों की याद आए तो आ जाया करो बेटा, अच्छा लगेगा तुम्हारा आना.’’

‘‘जी जरूर,’’ कह राघव ऋतिका की ओर मुड़ा, ‘‘आप डिस्टर्ब तो नहीं होंगी न?’’

‘‘कभीकभार कुछ देर के लिए चलेगा,’’ ऋतिका शोखी से मुसकाराई, ‘‘मगर यह एमबीए वाली बात औफिस में किसी को मत बताइएगा प्लीज.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि चंद घंटों की पढ़ाई के बाद सफलता की कोई गारंटी तो होती नहीं तो क्यों व्यर्थ में ढिंढोरा पीट कर अपना मजाक बनाया जाए. पास हो गई तो पार्टी कर के बता दूंगी.’’

राघव ने औफिस में किसी को ऋतिका के घर जाने की बात भी नहीं बताई. कुछ दिनों के बाद ऋतिका ने उसे डिनर पर आने को कहा.

‘‘आज मेरे छोटे भाई ऋषभ का बर्थडे है. वह तो आस्ट्रेलिया में पढ़ रहा है, लेकिन मम्मी उस का जन्मदिन मनाना चाहती हैं पकवान बगैरा बना कर… अब उन्हें खाने वाले भी तो चाहिए… आप आ जाएं… पापा के औफिस और पड़ोस के कुछ लोग होंगे… मम्मी खुश हो जाएंगी,’’ ऋतिका ने आग्रह किया.

न जाने का तो सवाल ही नहीं था. ऋतिका ने अन्य मेहमानों से उस का परिचय अपने सहकर्मी के बजाय अपना मित्र कह कर कराया. उसे अच्छा लगा.

अगले सप्ताहांत चंचल ने सभी को बहुत आग्रह से अपने भाई की सगाई में बुलाया तो सब सहर्ष आने को तैयार हो गए.

‘‘माफ करना चंचल, मैं नहीं आ सकूंगी,’’ ऋतिका ने विनम्र परंतु इतने दृढ़ स्वर में कहा कि चंचल ने तो दोबारा आग्रह नहीं किया, लेकिन राघव ने मौका मिलते ही अकेले में कहा, ‘‘अगर आप अकेले जाते हुए हिचक रही हों तो मुझे आप ने मित्र कहा है, मित्र के साथ चलिए.’’

‘‘मित्र कहा है सो बता देती हूं कि मैं इस तरह के पारिवारिक समारोहों में कभी नहीं जाती.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि ऐसे समारोहों में ही सहेलियों की मामियां, चाचियां अपने चहेतों के लिए लड़कियां पसंद करती हैं. सहेलियों के भाई और उन के दोस्त तो ऐसी दावतों में जाते ही लड़कियों को लाइन मारने लगते हैं. वैसे सुरक्षित लड़के भी नहीं हैं, कुंआरी कन्याओं के अभिभावक भी गिद्ध दृष्टि से शिकार का अवलोकन करते हैं.’’

‘‘आप मुझे डरा रही हैं?’’

‘‘कुछ भी समझ लीजिए… जो सच है वही कह रही हूं.’’

‘‘खैर, कह तो सच रही हैं, फिर भी मुझे तो जाना ही पड़ेगा, क्योंकि औफिस से आप के सिवा सभी जा रहे हैं.’’

कुछ रोज बाद राघव को एक दूसरी कंपनी में अच्छी नौकरी मिल गई. ऋतिका बहुत खुश हुई.

‘‘अब हम जब चाहें मिल सकते हैं… औफिस की अफवाहों का डर तो रहा नहीं.’’

राघव की बढि़या नौकरी मिलने की खुशी और भी बढ़ गई. मुलाकातों का सिलसिला जल्दी दोस्ती से प्यार में बदल गया और फिर राघव ने प्यार का इजहार भी कर दिया.

ऋतिका ने स्वीकार तो कर लिया, लेकिन इस शर्त के साथ कि शादी सालभर बाद भाई के आस्ट्रोलिया से लौटने पर करेगी. राघव को मंजूर था क्योंकि उस के पिता को भी अनुबंध खत्म होने के बाद ही अगले वर्ष भारत लौटने पर शादी करने में आसानी रहती और वह भी नई नौकरी में एकाग्रता से मेहनत कर के पैर जमा सकता था.

भविष्य के सुखद सपने देखते हुए जिंदगी मजे में कट रही थी कि अचानक उसे टूर पर हैदराबाद जाना पड़ा. औफिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने उसे वहां अपनी बहन को देने के लिए एक पार्सल दिया.

‘‘मेरी बहन और जीजाजी डाक्टर हैं, उन का अपना नर्सिंगहोम है, इसलिए वे तो कभी दिल्ली आते नहीं किसी आतेजाते के हाथ उन्हें यहां की सौगात सोहन हलवा, गज्जक बगैरा भेज देता हूं. तुम मेरी बहन को फोन कर देना. वे किसी को भेज कर सामान मंगवा लेंगी.’’

मगर राघव के फोन करने पर डा. माधुरी ने आग्रह किया कि वह डिनर उन के साथ करे. बहुत दिन हो गए किसी दिल्ली वाले से मिले हुए… वे उसे लेने के लिए गाड़ी भिजवा देंगी.

माधुरी और उस के पति दिनेश राघव से बहुत आत्मीयता से मिले और दिल्ली के बारे में दिलचस्पी से पूछते रहे कि कहां क्या नया बना है बगैरा. फिर उस के बाद उन्होंने अजनबियों के बीच बातचीत के सदाबहार विषय राजनीति और भ्रष्टाचार पर बात शुरू कर दी.

‘‘कितने भी अनशन और आंदोलन हो जाएं, कानून बन जाएं या सुधार हो जाएं सरकार या सत्ता से जुड़े लोग नहीं सुधरने वाले,’’ माधुरी ने कहा, ‘‘उन के पंख कितने भी कतर दिए जाएं, उन का फड़फड़ाना बंद नहीं होता.’’

‘‘प्रकाश का फड़फड़ाना फिर याद आ गया माधुरी?’’ दिनेश ने हंसते हुए पूछा.

राघव चौंक पड़ा. यह तो ऋतिका के पापा का नाम है. उस ने दिलचस्पी से माधुरी की ओर देखा, ‘‘मजेदार किस्सा लगता है दीदी, पूरी बात बताइए न?’’

माधुरी हिचकिचाई, ‘‘पेशैंट से बातचीत गोपनीय होती है, मगर वे मेरे पेशैंट नहीं थे,

2-3 साल पुरानी बात है और फिर आप तो इस शहर के हैं भी नहीं. एक साहब मेरे पास अबौर्शन का केस ले कर आए. पर मेरे यह कहने पर कि हमारे यहां यह नहीं होता उन्होंने कहा कि अब तो और कुछ भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि वे टैलीफोन विभाग में चीफ इंजीनियर हैं. मैं ने बड़ी मुश्किल से हंसी रोक कर उन्हें बताया कि हमारे यहां तो प्राय सभी फोन, रिलायंस और टाटा इंडिकौम के हैं, सरकारी फोन अगर है भी तो खराब पड़ा होगा. उन की शक्ल देखने वाली थी. मगर फिर भी जातेजाते अन्य सरकारी विभागों में अपनी पहुंच की डुगडुगी बजा कर मुझे डराना नहीं भूले.’’

तभी नौकर खाने के लिए बुलाने आ गया. खाना बहुत बढि़या था और उस से भी ज्यादा बढि़या था स्नेह, जिस से मेजबान उसे खाना खिला रहे थे. लेकिन वह किसी तरह कौर निगल रहा था.

होटल के कमरे में जाते ही वह फूटफूट कर रो पड़ा कि क्यों हुआ ऐसा उस के साथ? क्यों भोलीभाली मगर संकीर्ण स्पष्टवादी ऋतिका ने उस से छिपाया अपना अतीत? वह संकीर्ण मानसिकता वाला नहीं है.

जवानी में सभी के कदम बहक जाते हैं. अगर ऋतिका उसे सब सच बता देती तो वह उसे सहजता से सब भूलने को कह कर अपना लेता. ऋतिका के परिवार का रिश्तेदारों से न मिलनाजुलना, ऋतिका का सहेलियों के घर जाने से कतराना और उन के परिवार के लिए सटीक टिप्पणी करना, डा. माधुरी के कथन की पुष्टि करता था.

लौटने पर राघव अभी तय नहीं कर पाया था कि ऋतिका से कैसे संबंधविच्छेद करे. इसी बीच अकाउंट्स विभाग ने याद दिलाया कि अगर उस ने कल तक अपने पुराने औफिस का टीडीएस दाखिल नहीं करवाया तो उसे भारी इनकम टैक्स भरना पड़ेगा.

राघव ने तुरंत अपने पुराने औफिस से संपर्क किया. संबंधित अधिकारी से उस की अच्छी जानपहचान थी और उस ने छूटते ही कहा कि तुम्हारे कागजात तैयार हैं, आ कर ले जाओ. पुराने औफिस जाने का मतलब था ऋतिका से सामना होना जो राघव नहीं चाहता था.‘‘औफिस के समय में कैसे आऊं नमनजी, आप किसी के हाथ भिजवा दो न प्लीज.’’

‘‘आज तो मुमकिन नहीं है और कल का भी वादा नहीं कर सकता. वैसे मैं तो आजकल 7 बजे तक औफिस में रहता हूं, अपने औफिस के बाद आ जाना.’’

राघव को यह उचित लगा, क्योंकि ऋतिका 5 बजे की चार्टर्ड बस से चली जाएगी. अत: उस के बाद वह इतमीनान से नमनजी के पास जा सकता है.

6 बजे के बाद नमनजी कागज ले कर जब वह लौट रहा था तो लिफ्ट का इंतजार करती ऋतिका मिल गई.

‘‘तुम अभी तक घर नहीं गईं?’’ वह पूछे बगैर नहीं रह सका.

‘‘एक प्रोजैक्ट रिपोर्ट पूरी करने के चक्कर में रुकना पड़ा. लेकिन तुम कहां गायब थे रविवार के बाद से?’’

‘‘सोम की शाम को अचानक टूर पर हैदराबाद जाना पड़ गया, आज ही लौटा हूं.’’

‘‘अच्छा किया जाने से पहले घर नहीं आए वरना मम्मी न जाने कितने पार्सल पकड़ा देतीं अपनी सखीसहेलियों के लिए.’’

‘‘पार्सल तो फिर भी ले कर गया था बड़े साहब की बहन डा. माधुरी के लिए,’’ राघव ने पैनी दृष्टि से ऋतिका को देखा, ‘‘तुम तो जानती होगी डा. माधुरी को?’’

ऋतिका के चेहरे पर कोई भाव नहीं आया और वह लापरवाही से कंधे झटक कर बोली, ‘‘कभी नाम भी नहीं सुना. पापा को फोन कर दूं कि वे सीधे घर चले जाएं मैं तुम्हारे साथ आ रही हूं. पहले कहीं कौफी पिलाओ, फिर घर चलेंगे.’’

राघव मना नहीं कर सका और फिर घर पर डा. माधुरी का नाम बता कर प्रकाश और रमा की प्रतिक्रिया देखने की जिज्ञासा भी थी.

रमा के चेहरे पर तो डा. माधुरी का नाम सुन कर कोई भाव नहीं आया, मगर प्रकाश जरूर सकपका सा गए. रमा के आग्रह के बावजूद राघव खाने के लिए नहीं रुका और यह पूछने पर कि फिर कब आएगा उस ने कुछ नहीं कहा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि मांबेटी सफल अदाकारा की तरह डा. माधुरी को न जानने का नाटक कर रही थीं या उन्हें बगैर कुछ बताए प्रकाश साहब अबौर्शन की व्यवस्था करने गए थे.

कुछ भी हो ऋतिका को निर्दोष तो नहीं कहा जा सकता. लेकिन चुपचाप सब बरदाश्त भी तो नहीं हो सकता. यह भी अच्छा ही था कि अभी न तो सगाई हुई थी और न इस बारे में परिवार के अलावा किसी और को पता था, इसलिए धीरेधीरे अवहेलना कर के किनारा कर सकता है. रात इसी उधेड़बुन में कट गई.

सुबह वह अखबार ले कर बरामदे में बैठा ही था कि प्रकाश की गाड़ी घर के सामने रुकी. उन का आना अप्रत्याशित तो नहीं था, मगर इतनी जल्दी आने की संभावना भी नहीं थी.

‘‘रात तो खैर अपनी थी जैसेतैसे काट ली, लेकिन दिन को तो तुम्हें भी काम करना है और मुझे भी और उस के लिए मन का स्थिर होना जरूरी है, इसलिए औफिस जाने से पहले तुम से बात करने आया हूं,’’ प्रकाश ने बगैर किसी भूमिका के कहा, ‘‘यहीं बैठेंगे या अंदर चलें?’’

‘‘अंदर चलिए अंकल,’’ राघव विनम्रता से बोला और फिर नौकर को चाय लाने को कहा.

‘‘मैं नहीं जानता डा. माधुरी ने तुम से क्या कहा, मगर जो भी कहा होगा उसे सुन कर तुम्हारा विचलित होना स्वाभाविक है,’’ प्रकाश ने ड्राइंगरूम में बैठते हुए कहा, ‘‘और यह सोचना भी कि तुम से यह बात क्यों छिपाई गई. वह इसलिए कि किसी की जिंदगी के बंद परिच्छेद बिना वजह खोलना न मुझे पसंद है और न ऋतु को. मैं ने अपनी भतीजी रुचि को हैदराबाद में एक सौफ्टवेयर कंपनी में जौब दिलवाई थी.

वह हमारे साथ ही रहती थी.

‘‘सौफ्टवेयर टैकीज के काम के घंटे तो असीमित होते हैं, इसलिए हम ने रुचि के देरसवेर आने पर कभी रोक नहीं लगाई और इस गलती का एहसास हमें तब हुआ जब रुचि ने बताया कि वह मां बनने वाली है, उस की सहेली का भाई उस से शादी करने को तैयार है, लेकिन कुछ समय यानी पैसा जोड़ने के बाद, क्योंकि उस की जाति में दहेज की प्रथा है और उस के मातापिता बगैर दहेज के विजातीय लड़की से उसे कभी शादी नहीं करने देंगे. पैसा जोड़ कर वह मांबाप को दहेज दे देगा.

‘‘फिलहाल रुचि को गर्भपात करवाना पड़ेगा. हम भी नहीं चाहते थे कि रुचि के मातापिता को इस बात का पता चले. अत: मैं ने गर्भपात करवाने की जिम्मेदारी ले ली. जिन अच्छे डाक्टरों से संपर्क किया उन्होंने साफ मना कर दिया और झोला छाप डाक्टरों से मैं यह काम करवाना नहीं चाहता था. बहुत परेशान थे हम लोग. तब हमें परेशानी से उबारा ऋतु और ऋषभ ने.

‘‘ऋतु को आईआईएम अहमदाबाद में एमबीए में दाखिला मिल गया था और ऋषभ भी अमेरिका जाने की तैयारी कर रहा था. दोनों ने कहा कि जो पैसा हम ने उन की पढ़ाई पर लगाना है, उसे हम रुचि को दहेज में दे कर उस की शादी तुरंत प्रशांत से कर दें. और कोई चारा भी नहीं था. मुझ में अपने भाईभाभी की नजरों में गिरने और लापरवाह कहलवाने की हिम्मत नहीं थी. अत: इस के लिए मैं ने अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा दिया.

‘‘खैर, रुचि की शादी हो गई, बच्चा भी हो गया और उस के बाद दोनों को ही बैंगलुरु में बेहतर नौकरी भी मिल गई. ऋतु ने भी पत्राचार से एमबीए कर लिया और ऋषभ भी आस्ट्रेलिया चला गया. इस में रुचि और प्रशांत ने भी उस की सहायता करी.’’

‘‘मगर मेरा हैदराबाद में रहना मुश्किल हो गया. लगभग सभी नामीगिरामी

डाक्टरों के पास मैं गया था और उन सभी से गाहेबगाहे क्लब या किसी समारोह में आमनासामना हो जाता था. वे मुझे जिन नजरों से देखते थे उन्हें मैं सहन नहीं कर पाता था. मैं ने कोशिश कर के दिल्ली बदली करवा ली. सोचा था वह प्रकरण खत्म हो गया. लेकिन वह तो लगता है मेरी बेटी की ही खुशियां छीन लेगा.

‘‘तुम्हें मेरी कहानी मनगढंत लगी हो तो मैं रुचि को यहां बुला लेता हूं. उस के बच्चे की उम्र और डा. माधुरी की बताई तारीखों से सब बात स्पष्ट हो जाएगी.’’

‘‘इस सब की कोई जरूरत नहीं है पापा.’’

अभी तक अंकल कहने वाले राघव के ऋतिका की तरह पापा कहने से प्रकाश को लगा कि राघव के मन में अब कोई शक नहीं है.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें