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Best Hindi Story : पैंशन – अतुल भाभी की कौन सी सच्चाई को छुपा रहा था?

Best Hindi Story : ‘ट्रिनट्रिन…’

अतुल औफिस जाने के लिए तैयार हो ही रहा था कि तभी मोबाइल की घंटी बज गई. एक पल को वह झुंझला सा गया. औफिस में आज वैसे भी बहुत काम था, ऊपर से ये फोन… उस ने एक उड़ती हुई नजर कलाई में बंधी घड़ी पर डाली, “पौने 10 बज चुके हैं…”

चिंता और परेशानी की लकीरें अतुल के माथे पर उभर आईं. उस ने जल्दी से दूसरे पैर को भी जूते में घुसाया और शर्ट की ऊपर की जेब में रखे मोबाइल को टटोला. सुशीला भाभी… इस वक्त… वह भी इतने दिनों बाद…? न जाने क्यों अचानक से दिल की धौंकनी की रफ्तार बढ़ गई थी. जब से भैया इस दुनिया से गए हैं तब से एक अजीब सा डर उस के मन में बैठ गया था. अतुल वहीं पास पड़े सोफे में धंस गया.

‘हैलो अतुल भइया, मैं बोल रही हूं…’

“प्रणाम भाभी, कैसी हो आप? घर में सब ठीक तो है न?”

‘वैसे तो सब ठीक है, पर दिनेश…’

“क्या हुआ दिनेश को…? सब ठीक तो है न भाभी?”

भाभी का गला दिनेश का नाम लेते ही न जाने क्यों रुंध गया.

सुशीला भाभी नकुल भैया की पत्नी थी. आज से लगभग 7 साल पहले एक सड़क दुर्घटना में भइया की मृत्यु हो गई थी. घर भर में खुशियों का दीप जलाने वाले भैया की तसवीर के आगे दीपक जलता देख न जाने क्यों कलेजा कट कर रह जाता था. भइया अपने पीछे भाभी और 3 बच्चों को छोड़ कर गए थे.

भइया की अचानक हुई मृत्यु से भाभी की तो मानो दुनिया ही उजड़ गई. 2 बच्चे स्कूल जाते थे और दिनेश ने अभी पिछले साल ही कालेज में प्रवेश लिया था. भइया अपनी छोटी सी दुनिया में बहुत खुश थे. भइया एक सरकारी महकमे में प्रथम श्रेणी के अधिकारी थे. घर में सुखसुविधा की सारी चीजें उपलब्ध थीं. भाभी पहननेओढ़ने और घूमने की बहुत शौकीन थी. जब भी वे कहीं से घूम कर आती तो वहां से की गई खरीदारी और बातों का पुलिंदा ले कर निशा के पास बैठ जाती.

अतुल एक सरकारी विद्यालय में अध्यापक की नौकरी कर रहा था. वैसे तो किसी भी चीज की कोई कमी न थी, पर भइया जैसे ठाठबाट भी नहीं थे. भइया की शानोशौकत और लाल बत्ती गाड़ी देख कर निशा अकसर मुझ से लड़ने बैठ जाती, पर…

‘हैलो, हैलो… भइया, आप मेरी बात सुन रहे हैं न.’

अतुल जैसे सोते से जागा, “जी भाभी…”

‘पता नहीं भइया, दिनेश को क्या हो गया है? दिनभर गुमसुम सा बैठा रहता है, कुछ पूछो तो फूटफूट कर रोने लगता है. मैं ने सोचा कि औफिस की कोई परेशानी होगी, पर ऐसा कुछ भी नहीं है. आज इस बात को 15-20 दिन हो गए, पर कुछ भी सुधार नहीं है. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं, कहां जाऊं… रातरात भर न जाने क्या सोचता रहता है.’

‘‘भाभी, धीरज रखिए. आप ने पहले क्यों नहीं बताया? मैं भी इधर बोर्ड के इम्तिहानों में ड्यूटी लग जाने से बिजी था. आप को फोन भी नहीं कर पाया, पर आप को तोे करना चाहिए था.’’

अतुल ने कुछ शिकायती लहजे में कहा. अतुल की आवाज सुन कर निशा भी कमरे में आ गई.

भाभी का स्वर मद्धिम पड़ गया, ‘अतुल भइया, दिनेश की हालत सुन कर मेरे मम्मीपापा से रहा नहीं गया, वे तो एक हफ्ते से यहीं पड़े हैं और परसों घबरा कर मेरा भाई भी आ गया.’

भाभी की बात सुन कर अतुल के दिल को बड़ा धक्का लगा. भाभी उसे 5 किलोमीटर की दूरी पर सूचित नहीं कर
सकी और वहां उन के मांबाप और भाई 300 किलोमीटर की दूरी से आ गए. क्रोध का बुलबुला जितनी तेजी से उभरा, उतनी ही तेजी से न जाने कहां लुप्त हो गया.

“ठीक है भाभी, मैं शाम को आता हूं,” कह कर अतुल ने फोन रख दिया.

निशा की तीर सी निगाहें उस के ऊपर ही थीं. कुछ देर तक वह अतुल को ही देखती रही. अभी कुछ दिन पहले ही तो वो भाभी के प्रति नाराजगी जाहिर कर रहा था.

बच्चे तो उस वक्त छोटे थे, पर भाभी वो कैसे सब भूल गई. कभी भूल से भी वे फोन भी नहीं करती.

“…तो कब जा रहे हैं?” उस के कथन में एक व्यंग्यात्मक चुभन थी.

अतुल शायद उस की सवालिया आंखों से बचना चाहता था. उस ने सिर
झुकाए हुए ही उस के सवाल का जवाब दिया, “निशा, दिनेश की तबीयत कुछ ठीक नहीं है, भाभी काफी परेशान हैं. मुझे जाना…”

“क्यों? मायके वाले कहां हैं…? हम से पहले तो उन को खबर की जाती है, आज क्या हुआ?”

“निशा, तुम औरतों को कुछ समझ नहीं आता. न समय देखती हो और न मौका. जब देखो तब शुरू हो जाती हो. दिक्कत होगी तभी फोन किया है.”

निशा अतुल की बातों को सुन तिलमिला सी गई, “तुम मर्दों के भी समझ में कुछ नहीं आता. कल तक भाभी ऐसी हैं, वैसी हैं… आज वही बात मैं ने कह दी तो गलत हो गई. 20 साल गुजार दिए आप के साथ, पर जब खुद के परिवार की बात आती है, तो मैं बाहर वाली ही बन कर रह जाती हूं.”

निशा लगातार बड़बड़ा रही थी, पर अतुल ने उस की बात का कोई जवाब नहीं दिया. अतुल ने मोटरसाइकिल की चाबी उठाई और औफिस की ओर चल दिया.

आज औफिस में काम करने में मन नहीं लग रहा था. भाभी की आवाज कानों में गूंज रही थी, ‘भैया, दिनेश की तबीयत ठीक नहीं है.’

अतुल की आंखों के सामने साढ़े 7 साल पहले का वह मंजर एक बार फिर घूम गया, जब भइया की मृत देह पर पछाड़े खाती हुई भाभी और बच्चों ने उस से पूछा था कि अब उन का क्या होगा? भइया की इंश्योरैंस पौलिसी दिलाने के लिए अतुल को न जाने कितने पापड़ बेलने पड़े थे. दफ्तर के चक्कर लगातेलगाते उस के जूते घिस गए थे. अफसरों के हाथपैर जोड़जोड़ कर किसी तरह दिनेश की मर्सी ग्राउंड’ पर नौकरी लगवाई थी, पर आज…

तबीयत ठीक न होने का बहाना कर के अतुल औफिस से जल्दी ही निकल गया था. अतुल ने मोटरसाइकिल भाभी की तरफ मोड़ ली.

अतुल भाभी के घर पहुंचा, तो घर के गेट पर से ही लोहबान और अगरबत्ती की महक आ रही थी. घर में पूजा है और भाभी ने हमें बुलाया तक नहीं… एक विचार ने उस के दिमाग में जन्म लिया ही था, उस ने सिर झटक कर उसे वही गेट के बाहर छोड़ दिया और अतुल धड़धड़ाते हुए घर में घुस गया.

घर का मंजर कुछ और ही था. दिनेश आंखें बंद किए बैठा था और पंडितजी जोरशोर से मंत्रोच्चार कर आहुतियां हवनकुंड में डाल रहे थे. यह मंजर देख अतुल कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया. तभी भाभी की नजर अतुल पर पड़ी और वह उसे दूसरे कमरे में ले कर चली गई.

नकुल भैया फोटोफ्रेम में मुसकरा रहे थे. अतुल कुछ पूछता, उस से पहले हाथ में पानी का गिलास पकड़ाते हुए भाभी ने कहा, ‘‘मेरी मम्मी ने पंडितजी को दिखाया था, तो उन्होंने बताया कि किसी बाहरी हवा के प्रभाव से दिनेश की यह हालत हो गई है. शायद किसी ने कुछ कर दिया है.’’

भाभी की निगाह में एक अजीब सा संदेह था, जैसे वह अतुल से ही कुछ पूछना चाह रही हो.

अतुल ने वितृष्णा से मुंह फेर लिया. अतुल सोच रहा था कि अच्छा हुआ निशा को साथ नहीं लाया, वरना वह तो…

तभी पंडितजी ने आरती के लिए पुकार लगाई, उन की पुकार सुन कर अतुल भी सभी के साथ आरती में शामिल होने के लिए उठ गया. प्रसाद वितरण के साथ सभी अपनेअपने कामों में लग गए.

अतुल ने भइया के सासससुर के पैर छुए और उन के पास ही बैठ गया. भाभी चाय बनाने चली गई और भाभी के मातापिता बुढ़ापे का रोना रो कर कमरे में आराम करने चले गए. अतुल बैठक में अकेला ही रह गया. कितना बदल गया था सबकुछ… जिस घर में हंसी के ठहाके लगते थे, आज एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.

एक अजीब सी अजनबियत का अहसास हो रहा था. निशा और वह भैया के जीवित रहते हमेशा आते रहते थे, पर वक्त के साथ कितना कुछ बदल गया था. भैया की तसवीर अचानक से उसे धुंधली सी दिखाई देने लगी थी. तभी किसी के पैर की आहट के आभास से वो सतर्क हो गया और पैंट की बाईं जेब से रूमाल निकाल कर आंखें पोछ लीं.

यह तो दिनेश था, फूल सा चेहरा कुम्हला कर छोटा सा हो गया था. अभी कुछ ही दिन पहले तो वह बाजार में मिला था. अतुल जब भी उसे देखता था, तो उसे भइया की याद आ जाती. भइया ने न जाने क्याक्या सपने देखे थे उस के लिए, पर आज वह उन की जगह पर क्लर्की कर रहा था. यह सोच कर अतुल का मन न जाने कैसा हो गया.

“कैसे हो दिनेश?”

न जाने क्या सोच कर उस की आंखें भर आईं. अतुल ने बड़े प्यार से उस के कंधे पर हाथ रखा, बहुत दिनों से दिल में घुमड़ता हुआ दर्द का सैलाब आज सारे बंधन को तोड़ कर निकलने को बेताब था. दिनेश फूटफूट कर रो पड़ा. कुछ देर तक वह वैसा ही रोता रहा. अतुल ने भी उसे चुप कराने का प्रयास नहीं किया. उस की हिचकी बंध गई थी. अचानक से वह उठा और कमरे के बाहर चला गया.

अतुल बड़ी देर तक असमंजस की स्थिति में बैठा रहा, तभी दिनेश हाथ में कागज का एक टुकड़ा ले कर अतुल के पास आया और बोला, ‘‘चाचाजी, ये औफिस से 20 दिन पहले एक पत्र आया था. पापा की मृत्यु के साढ़े 7 साल हो गए हैं. अजेश और बृजेश भी अब बालिग हो गए हैं, पापा की पैंशन अब आधी हो जाएगी. इस महंगाई के दौर में आधी पैंशन और मेरी नाममात्र की तनख्वाह के साथ 2 बेरोजगार भाइयों और एक विधवा मां का गुजारा भला कैसे होगा?”

अतुल निःशब्द उसे देखता रह गया. शायद उस के सवालों का जवाब किसी के पास नहीं था.

Best Hindi Story : वक्त के धमाके – कथा एक नौजवान के टूटतेबिखरते सपनों की

Best Hindi Story : विदेश जा कर कुछ बनने का सपना रवि ने बचपन से ही देखा था पर सीमित साधनों की वजह से उसे लगता था कि शायद उस का सपना कभी साकार नहीं हो पाएगा. वक्त ने उस का साथ दिया और एक ऐसा जरिया निकल आया कि वह न केवल जापान पहुंच गया बल्कि उसे एक ऐसा दोस्त मिल गया जिस ने उस की जिंदगी को एक नई दिशा दे दी.

एक तरफ प्रशांत महासागर की अथाह गहराइयां और दूसरी ओर माउंट फूजी की बर्फ से ढकी गगनचुंबी चोटियों के बीच दूर तक फैली हरियाली का सीना चीरती हुई ‘शिनकानसेन’ (बुलेट ट्रेन का जापानी नाम) तेज रफ्तार से भागती जा रही थी. आरक्षित कोच की शानदार सीट पर सिर रखे, आंखें बंद किए रवि का मन उस से भी तेज गति से अतीत की ओर भाग रहा था.

तकरीबन 1 साल हुआ जब उस से रवि की मुलाकात हुई थी. बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा परिणाम का अखबार हाथ में आते ही पिताजी ने आसमान सिर पर उठा लिया था. मां ने बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उन का फैसला पत्थर की लकीर जो था. चंद जरूरी कपड़े साथ में ले जाने की उसे इजाजत मिली थी. घर से निकलते समय अपने ही जन से नजरें मिलाने की भी उस में हिम्मत न थी. आखिर उन की तकलीफों से वह वाकिफ था.

सरकारी महकमे का एक ईमानदार बाबू किस प्रकार परिवार की गाड़ी खींचता था, उस से छिपा तो न था. बड़ा बेटा होने के नाते उस से उम्मीदें भी बहुत थीं. ‘पढ़ नहीं सकते हो तो महकमे से लोन ले कर एक छोटीमोटी दुकान खुलवा सकता हूं’, कहा था पिताजी ने, लेकिन वह जिंदगी जीना उस का ख्वाब होता तब न. बचपन से एक ही सपना पाल रखा था कि विदेश जाऊंगा, कुछ बनूंगा.

जून की तपती दोपहरी में कुछ सुकून के पल तलाश करने के लिए वह दिल्ली स्थित ‘जापान कल्चरल सेंटर’ के बाहर एक पेड़ की छांव में बैठा ही था कि तभी गेट से एक जापानी बाला बाहर आई और फुटपाथ के पास खड़ी हो गई. उसे शायद किसी टैक्सी का इंतजार था. भीषण गरमी से उस का सफेद दूध सा दमकता चेहरा लाल हो गया था. उस जापानी युवती को परेशान देख कर रवि के मन में परमार्थ की भावना जागी. कुछ ठिठकते कदमों के साथ उस के थोड़ा नजदीक गया और धड़कते दिल से अंगरेजी में पूछा कि क्या तुम अंगरेजी में बातचीत कर सकती हो. उस ने बेहद पतली आवाज में अंगरेजी में जवाब दिया, ‘यस अफकोर्स.’ और इसी के साथ ही उस में साहस का संचार हुआ, बोला, ‘डू यू नीड ऐनी हेल्प?’ ‘नो थैंक्स, एक्चुली आई अराइव्ड हियर लास्ट नाइट एंड बाई टुमारो मार्निंग आई हैव टु फ्लाई फौर जयपुर, सो ड्यूरिंग दीज फ्यू आवर्स आई विश टू सी सम गुड प्लेसिज हियर.’

उस की बातें खत्म होने से पहले वह बोल उठा, ‘इफ यू डोंट माइंड एंड फील कंफर्टेबल, इट वुड बी माई प्लेजर टु शो यू सम ब्यूटीफुल एंड हिस्टोरिकल प्लेसिज?’

एक पल के लिए गहरी खामोशी छा गई थी, उस युवती के मुंह से निकलने वाली हां या ना पर रवि के पूरे सपने पल भर टिके रहे. ‘ओह श्योर,’ ने रवि की तंद्रा भंग की और वह सातवें आसमान पर जा पहुंचा था.

शाम होतेहोते दिल्ली की वे तमाम ऐतिहासिक चीजें रवि ने जापानी युवती को दिखाईं जिन से एक पर्यटक वाकई अभिभूत हो उठता है. रवि के लिए सब से महत्त्वपूर्ण था उस का सुखद सामीप्य. एक वाक्य बोलने से पहले उस के खूबसूरत होंठों से जो खिलखिलाहट उभरती थी और बातोंबातों में रवि की नाक को पकड़ कर हिला देने का जो उस का अंदाज था, उस ने उसे रवि के दिल के बेहद करीब पहुंचा दिया.

दिल्ली के कई पर्यटन स्थलों को देखतेदेखते उन्हें शाम हो गई. दोनों को भूख लगी थी. एक अच्छे रेस्तरां में खाना खाने के बाद वे टहलते हुए इंडिया गेट की ओर निकल गए थे. चांदनी चारों ओर बिखरी थी, बोट क्लब की ओर से आती ठंडी हवाएं, माहौल को और भी खुशनुमा बना रही थीं. चलतेचलते मिकी ने उस की उंगलियों को अपनी हथेली में भर कर बहुत ही गंभीर स्वर में कहा था, ‘रवि, मैं दुनिया के बहुत से देशों में गई हूं और अनेक दोस्त भी बनाए हैं लेकिन तुम वास्तव में उन दोस्तों में एक बेहतरीन दोस्त हो. मैं तुम्हारे देश से मधुर यादों को ले कर जापान जाऊंगी. मेरी इच्छा है कि तुम जापान आओ. भविष्य में यदि तुम कभी अपने देश को छोड़ कर जापान आने के लिए मानसिक रूप से तैयार होना तो मुझे लिखना, मैं तुम्हारे लिए टिकट और वीजा के लिए जरूरी पेपर भेज दूंगी. कल सुबह 8 बजे से पहले तुम मुझे पार्क होटल के रिसेप्शन पर आ कर मिलना. मैं तुम्हें अपना जापान का पता व टेलीफोन नंबर दे दूंगी.’

बहुत मुश्किल से रवि तब  सिर्फ ‘यस’ बोल सका था. चेतना जा चुकी थी वह सिर्फ जड़वत सा खड़ा रह गया था. शायद इतनी बड़ी खुशी का बोझ उस से उठाया नहीं जा रहा था. बचपन का एक सपना शायद सच होने जा रहा था. तभी उस की नाक को पकड़ कर मिकी ने हिलाया तो मानो वह नींद से जाग गया.

‘रवि, अब तुम जाओ, उम्मीद करती हूं कि कल सुबह मुलाकात होगी.’ इतना कह कर मिकी चली गई थी और रवि उस के कदमों की आखिरी आवाज भी सुनने को बेचैन ठगा सा वहीं खड़ा रहा.

कुछ देर बाद रवि अपने ठिकाने पर जा कर सो गया. वह पास की एक बेंच पर लेट गया था. रात सरकती रही और वह मिकी और अपने भविष्य के बारे में सोचता ही जा रहा था. सोचतेसोचते कब आंख लग गई पता ही नहीं चला और सुबह आंख खुली रवि ने सब से पहले घड़ी को देखा तो 8 बज चुके थे. वह हांफते हुए होटल के रिसेप्शन पर पहुंचा तो पता चला कि मिकी की फ्लाइट 8.45 बजे की थी और वह 8 बजे से पहले ही होटल से जा चुकी थी. जिस बेल ब्वाय ने उस का कमरा साफ किया था उस ने बताया कि मिकी काफी देर तक लौबी में बैठी थी. उस की मायूस निगाहें मानो किसी को तलाश रही थीं.

रवि को लगा कि उस का सबकुछ लुट चुका है. वह भीतर से बिलकुल टूट गया, फिर भी उसे जीना है क्योंकि अब तो उसे जिंदगी का मकसद मिल गया था. मिकी को पाने की एक अटूट चाहत ने उस के भीतर जन्म ले लिया था.

हलके झटके के साथ ट्रेन रुकी तो रवि ने आंखें खोलीं और उस का मन अतीत से वर्तमान में आ गया. एक सहयात्री ने रवि के पूछने पर बताया कि यह हमामातसुचो स्टेशन है. लगभग आधा सफर खत्म हो चुका है. भारत के स्टेशनों से कितना भिन्न, जगमगाता प्लेटफार्म, कोई शोरशराबा नहीं, इतना साफसुथरा फर्श कि पैर भी रखने को दिल न करे. उतरने और चढ़ने वालों का अनुशासन देख जापान की सभ्यता से रवि थोड़ाबहुत परिचित हो रहा था. ट्रेन सरकने लगी और कुछ ही क्षणों में फिर तूफानी रफ्तार पकड़ ली. रवि एक बार फिर आंखें बंद कर अतीत में खो गया.

तब दोचार दिन तलाश करने पर रवि को पास ही के एक छोटे से रेस्तरां में काम मिल गया था जिस से पेट की भूख और छत की समस्या का हल हो गया. लगभग रोजाना समय निकाल कर एक उम्मीद दिल में लिए रवि उसी पेड़ के नीचे आ बैठता था. इस दौरान उस ने बहुत जापानी चेहरे देखे लेकिन वह चेहरा दोबारा देखने की चाहत लिए एक साल गुजर गया.

ऐसे ही एक दिन शाम को रवि पेड़ के नीचे उदास बैठा था कि तभी एक आटोरिकशा ब्रेक की तेज आवाज के साथ आ कर रुका तो उस की तंद्रा भंग हुई. रवि ने देखा कि एक जापानी नौजवान आटो से उतरा और आटो वाले को किराया देने के बाद अपने मोटे से पर्स को तंग जींस की पिछली जेब में खोंस कर लापरवाह ढंग से सीढि़यों की तरफ बढ़ा. महज 2 सीढि़यां चढ़ते ही उस युवक का पर्स जेब से निकल कर वहीं गिर गया, लेकिन उस से अनजान वह जापानी नौजवान आगे बढ़ता गया. रवि ने आसपास किसी को न देख कर धीरे से जा कर पर्स उठाया और पेड़ के नीचे आ कर उसे खोल कर देखा तो उस में हजार के नोट भरे थे. धड़कते दिल से रवि ने उसे तुरंत बंद किया. उस के अनुमान से लगभग 40-50 नोट रहे होंगे. इस का मतलब भारतीय करेंसी में तो ये लाखों में होंगे. एक पल को उस के दिमाग में आया कि ये रुपए अगर वह पिताजी को जा कर दे दे तो उन की तमाम परेशानियां दूर हो सकती हैं, लेकिन दूसरे ही पल उस की आत्मा धिक्कार उठी कि रवि, यदि यह धन तुम ने अपने पास रखा तो शायद जीवन भर अपने को माफ न कर सकोगे. इस को वापस करना होगा. तभी बेचैनी की हालत में वह जापानी नौजवान बाहर आता दिखाई पड़ा. उस की निगाहें जमीन के भीतर से भी कुछ निकाल लेने को आतुर थीं. रवि हौले से उस के करीब आ कर बोला, ‘एक्सक्यूज मी, आई हैव योर वालेट. यू ड्राप्ड इट हियर,’ कह कर पर्स उस के हाथों में थमा दिया.

उस जापानी नौजवान के चेहरे पर जो खुशी और कृतज्ञता के भाव आए और धन्यवाद से संबंधित जितने भी शब्द उसे आते थे, कहे. उन्हें सुन कर रवि गौरवान्वित हो उठा था. पर्स निकाल कर युवक ने चंद नोट उसे थमाने चाहे थे, लेकिन उस ने जो किया था उस के बदले में कुछ पैसे ले कर खुद से शर्मिंदा नहीं होना चाहता था. रवि की ऐसी अभि- व्यक्ति को सुन कर जापानी नौजवान ने आश्चर्यमिश्रित ढंग से उस की ओर देखा और बोला, ‘आई एम वेरी मच इंप्रेस्ड, मे आई डू समथिंग फौर यू?’

इसी सवाल का तो रवि को इंतजार था और एक झटके में उस के मुंह से निकला, ‘आई विश टु कम टु जापान?’

एक पल को उन दोनों के बीच गहरी खामोशी छा गई. फिर उस जापानी नौजवान ने धीरे से रवि के कंधे पर हाथ रख कर बोला, ‘डू यू नो एनी रेस्टोरेंट अराउंड दिस एरिया? आई एम हंग्री.’

करीब 5 मिनट पैदल चलते ही रवि का रेस्टोरेंट था, संयोग से कोने की एक मेज खाली थी. उस ने रवि को जबरदस्ती अपने पास बिठाया और भोजन के दौरान ही रवि ने अपनी जिंदगी के हर पहलू, हर सपने को खोल कर उस के सामने रख दिया.

इस दौरान जापानी नौजवान कुछ भी नहीं बोला, सिर्फ खाता रहा और रवि की बातें सुनता रहा. भोजन समाप्त करने के बाद वह रवि को अपने बारे में बताने लगा. अभी हाल ही में उस की शादी हुई है और करीब एक बरस पहले उस के पिता प्लास्टिक के एक छोटेमोटे कारखाने को उस के कंधों पर छोड़ कर हार्टअटैक से चल बसे थे.

पिछले एक साल में उस के अथक परिश्रम से उस की ‘खायशा’ (कंपनी) की काफी तरक्की हुई. घूमनेफिरने का उसे बचपन से शौक है, इसलिए काम की जिम्मेदारी अपनी पत्नी को सौंप कर वह एक सप्ताह की भारत यात्रा पर निकल पड़ा था. एक पल रुक कर उस ने गिलास में रखा पानी पीया और आगे बताने लगा कि आने वाले दिनों में उस की कंपनी में काफी काम बढ़ने वाला है, लिहाजा उसे कुछ नए कर्मचारियों की जरूरत है. अगर तुम लंबे अरसे तक जापान में रहना चाहते हो और मेरे साथ काम करना पसंद करो तो मैं तुम्हें अपनी कंपनी में जगह दे सकता हूं, लेकिन जापान में बहुत मेहनत से काम करना होता है, जहां तक तुम्हारी ईमानदारी का सवाल है उस से तो मैं परिचित हो चुका हूं और तमाम नसीहतें देता चला गया.

रवि के कानों में सीटियां बज रही थीं. एक साल में दूसरी बार ऐसा अवसर आया था. वह अपनी सुध खो बैठा था ‘व्हाट डू यू डिसाइड?’ चौंक कर यथार्थ में आया रवि उस का हाथ थाम कर थरथराते होंठों से सिर्फ इतना बोल सका, ‘आई विल डू माई बेस्ट.’

मेरे ऐसे भाग्य होंगे, यह मैं ने सोचा न था. उस के रेस्तरां का पता नोट कर वह जापानी नौजवान बोला, ‘आई हैव टु फ्लाई फौर मुंबई टुनाइट एंड आफ्टर स्पेंडिंग 2 डेज ओवर दियर आई विल बी बैक टु जापान, सून आई विल सेंड औल द डाक्यूमेंट्स, सो जस्ट वेट फौर माई लेटर.’ उसे टैक्सी में बिठा कर एक उमंग मन में लिए रवि तब वापस रेस्तरां में आ गया था. भीड़ बढ़ने लगी थी.

उस जापानी नौजवान के जाने के बाद हरेक दिन रवि के लिए एक बरस की तरह गुजरा और ठीक 15वें दिन रेस्टोरेंट के काउंटर पर कैशियर ने उसे बड़ा सा लिफाफा पकड़ाया. एक कोने में जापान लिखा देख वह भागता हुआ अंदर गया और कांपती उंगलियों से लिफाफा खोला. वीजा से संबंधित सारे कागजात और एक ‘ओपन डेटेड’ एयर टिकट था. छोटे से पत्र में उस ने लिखा था कि शीघ्र आने की कोशिश करो.

खुशी के मारे उस की आंखों में आंसू आ गए. आगे के 10 दिन तूफान की सी तेजी से गुजरे. लगातार 5 दिन तक जापानी दूतावास के चक्कर काटने के बाद वीजा मिला और फिर जाने का समय आ गया था. पिताजी के स्नेहयुक्त नसीहत भरे अल्फाज ‘बेटा रवि, ईमानदारी का साथ मत छोड़ना तो खुशियां तुम से दूर नहीं रह पाएंगी,’ को रवि ने आत्मसात कर लिया था. छोटी बहन को सीने से लगा कर द्रवित हृदय से विदा ली थी.

ओसाका इंटरनेशनल एअरपोर्ट से क्लियरेंस की तमाम औपचारिकताएं पूरी होने के बाद उसे कार्यक्रम के अनुसार ओसाका स्टेशन से टोकियो के लिए बुलेट ट्रेन पर सफर करना था.

आंखें खुलीं तो रवि अतीत से बाहर आया. बाहर अंधेरा हो चला था. दूर टिमटिमाती रोशनियां दिखाई पड़ने लगी थीं. सहयात्री ने बताया कि टोकियो आने वाला है. फ्रेश होने की नीयत से रवि टायलेट गया. जब वह बाहर आया तो चारों तरफ जगमगाता शहर था. ट्रेन टोकियो में प्रवेश कर चुकी थी. आगामी कुछ ही मिनटों में ट्रेन रवि के अंतिम पड़ाव यानी वेनो स्टेशन पर पहुंचने वाली थी.

पश्चिम के दरवाजे से बाहर निकलते ही आरक्षण काउंटर के पास वह जापानी नौजवान रवि का इंतजार कर रहा था. दोनों गले मिले. रवि को उस ने बताया कि महज 10 मिनट की दूरी पर उस का अपार्टमेंट है. जगमगाता शहर और उस पर से आतिशबाजियों का मंजर (कुछ ही दूर पर बहती सुमिदा नदी के तट पर हर साल इसी दिन आतिशबाजी का उत्सव होता है जिसे ‘हानाबी’ कहते हैं) किसी भी नए इनसान को भौंचक कर देने के लिए पर्याप्त था.

कार उस शानदार अपार्टमेंट के पोर्च में जा लगी थी. रवि अब कुछ थकान का अनुभव कर रहा था. ड्राइंगरूम से अटैच्ड बाथरूम में गरम पानी के बाथटब में नहा कर रवि ने थकान उतारी और जब फ्रेश हो कर बाहर निकला तो देखा वह जापानी नौजवान अपना पसंदीदा पेय ले कर बैठा था. रवि ने सिर्फ एक कप कौफी पीने की इच्छा जाहिर की.

वह अंदर गया और रवि सोफे की पुश्त पर सिर टिका कर आंखें बंद कर दिल के उस हिस्से को छूने लगा जिस पर मिकी का नाम लिखा था. किसी भी सूरत में उसे ढूढ़ना होगा, रवि ने सोचा.

‘‘मि. रवि, प्लीज मीट टु माई वाइफ, मिकी,’’ और साथ में बेहद पतली आवाज में ‘हेलो’ के स्वर ने रवि की तंद्रा भंग की. झटके के साथ आंखें खोलीं और वह चेहरा जिसे रवि करोड़ों में भी पहचान सकता था, उस के सामने था. उस की मिकी उस के सामने खड़ी थी. नजरें मिलाते ही मिकी ने आंखें जमीन में गाड़ दी थीं. बहुत संयम के साथ वह सिर्फ ‘हेलो’ बोल सका था. दोस्त से मुखातिब हो कर बोला, ‘आई एम सौरी, ड्यू टु जेटलैक (टाइम जोन बदलने से होने वाली भारी थकान) आई एम फीलिंग अनवेल,’ इतना कह कर रवि सोफे में धंस सा गया. दूर सुमिदा नदी के तट पर हानाबी के धमाके कानों में गूंज रहे थे.

Emotional Story : झूठ कहा था उस ने – शादी के दिन अनीता की ऐसी क्या मजबूरी थी ?

Emotional Story : अनीता नाम बताया था उस ने. उम्र करीब 40 वर्ष, सिंपल साड़ी, लंबी चोटी, चेहरे पर कोई मेकअप नहीं. आंखों में एक अजीब सा कुतुहल जो उसे खास बनाता था.

2-4 दिनों से देख रहा हूं उसे. हमारी यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफैसर बन कर आई है और मैं अर्थशास्त्र पढ़ाता हूं. साहित्य में रुचि होने की वजह से मैं अकसर लाइब्रेरी में 1-2 घंटे बिताता हूं. वह भी अकसर वहीं बैठी दिख जाती.

एक दिन मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप भी साहित्य में रुचि रखती हैं?’’

‘‘जी हां, बड़ेबड़े कवियों की कविताएं और शायरी पढ़ना खासतौर पर पसंद है. मैं भी छोटीमोटी कविताएं लिख लेती हूं.’’

‘‘वाह तब तो खूब जमेगी हमारी,’’ मैं उत्साहित हो कर बोला.

उस की आंखों में भी चमक उभर आई थी. हमारी बनने लगी. अकसर हम लोग लाइब्रेरी में पुरानी किताबें निकालते और फिर घंटों चर्चा करते. व्याख्याओं के लिए लाइब्रेरी में 2 कमरे अलग थे, जिन में शीशे के दरवाजे थे, ताकि बातचीत से दूसरे डिस्टर्ब न हों.

एक दिन मैं ने सवाल दागा, ‘‘मैं ने अकसर देखा है आप घंटों यहां रुक जाती हैं. घर में पति वगैरह इतंजार…’’ मैं ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

वह हंस पड़ी, ‘‘नहीं, मेरे घर में पति नाम का जीव नहीं जो चाबुक ले कर मेरा इंतजार कर रहा हो.’’

‘‘चाबुक ले कर?’’ मैं हंसा.

‘‘जी हां, पति चाबुक ले कर इंतजार करे या फूल ले कर, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं, क्योंकि मैं कुंआरी हूं.’’

‘‘कुंआरी?’’ मैं चौंका और फिर कुरसी उस के करीब खिसका ली, ‘‘यानी आप ने अब तक शादी नहीं की. मगर क्यों?’’

‘‘कभी पढ़ने का जनून रहा तो कभी पढ़ाने का… शायद एक वजह यह भी है कि आप जैसा कायदे का शख्स मुझे मिला ही नहीं.’’

‘‘तो क्या मैं आप को मिलता और प्रपोज करता तो आप मुझ से शादी कर लेतीं?’’ मैं ने शरारती लहजे में कहा.

‘‘सोचती तो जरूर,’’ उस ने भी आंखें नचाते हुए कहा.

‘‘वैसे आप को बता दूं घर में मेरा भी कोई इंतजार करने वाली नहीं.’’

‘‘क्या आप भी कुंआरे हैं.’’

‘‘कुंआरा तो नहीं पर अकेला जरूर हूं. बीवी शादी के 2 साल बाद ही एक दुर्घटना में…’’

‘‘उफ, सौरी… तो आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की? कोई बच्चा है?’’

‘‘हां, बेटा है. बैंगलुरु में पढ़ रहा है.

अभी तक बीवी को नहीं भूल पाया हूं,’’ कहते हुए मैं उठ खड़ा हुआ, ‘‘मेरी क्लास का समय हो रहा है. चलता हूं,’’ कह मैं चला आया.

उस पल अपनी बीवी का खयाल मुझे उद्वेलित कर गया था. मैं स्वयं को संभाल नहीं पाया था, इसलिए चला आया. मेरी संवेदनशीलता को उस ने भी महसूस किया था.

अगले दिन वह स्वयं ही मुझ से बात करने आ गई.

बोली, ‘‘आई एम सौरी…

आप वाइफ की बात करते हुए काफी इमोशनल हो गए थे.’’

‘‘हां, दरअसल मैं उस से बहुत प्यार करता था… उस के बाद बेटे को मैं ने ही संभाला. आज वह भी मुझ से दूर है तो थोड़ा दिल भर आया था.

‘‘मैं समझ सकती हूं. वैसे मुझे लग रहा है कि आप संवेदनशील होने के साथसाथ बहुत प्यारे इनसान भी हैं. मुझे इस तरह के लोग बहुत पसंद हैं.’’

‘‘ओके तो… आप मुझे लाइक करने लगी हैं,’’ उस की बात का रुख अपनी फेवर में करने का प्रयास करते हुए मैं हंस पड़ा. वह कुछ बोली नहीं. बस नजरों से स्वीकृति देती हुई मुसकरा दी.

माहौल में रोमानियत सी छा गई. मैं ने धीरे से उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया और फिर दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे.

समान रुचि और एकजैसे हालात होने के साथसाथ एकदूसरे को पसंद करने की वजह से हम अब अकसर खाली समय साथ ही बिताने लगे थे. मैं अकसर उस के खयालों में गुम रहने लगा. न चाहते हुए भी लाइब्रेरी के चक्कर लगाता.

44 साल की उम्र में आशिकों जैसी अपनी हालत और हरकतें देख कर मुझे हंसी भी आती और मन में एक महका सा एहसास भी जगता.

कई महीने इसी तरह बीत गए. वक्त के साथ हम एकदूसरे के काफी करीब आ गए थे. वह मुझे अच्छी तरह समझने लगी थी. पर मैं अकसर सोचता कि क्या मैं भी उसे समझ पाया हूं? जब मैं उस के पास नहीं होता तो अकसर उसे गुमसुम बैठा देखता जबकि मैं उसे सदा मुसकराता देखना चाहता था.

एक दिन मैं ने उस से कह ही दिया, ‘‘अनीता, क्या तुम्हें नहीं लगता कि अब हमें शादी कर लेनी चाहिए? तुम कहो तो तुम्हारे मातापिता से मिलने आ जाऊं?’’

सुन कर वह एकटक मुझे देखने लगी. उस के चेहरे पर एक पल को उदासीनता सी फैल गई. मुझे डर लगा कि कहीं वह मेरा प्रस्ताव अस्वीकार न कर दे. पर अगले ही पल वह मुसकराती हुई बोली, ‘‘दरअसल, मेरे पापा तो बिजनैस के सिलसिले में विदेश गए हुए हैं. मम्मी अकेली मिल कर क्या करेंगी? ऐसा करते हैं कुछ दिन रुक जाते हैं. फिर तुम मेरे घर आ जाना.’’

मुझे क्या ऐतराज हो सकता था? अत: सहज स्वीकृति दे दी. उस दिन वह काफी देर तक मुझे अपने घर वालों के बारे में बताती रही. मैं आंखों में आंखें डाले उस की बातें सुनता रहा.

वह अपने पापा के काफी करीब थी. कहने लगी, ‘‘मेरे पापा मुझ पर जान छिड़कते हैं. यदि मेरी आंखों में नमी भी नजर आ जाए तो वे अपने सारे काम छोड़ कर मुझे मनाने और खुश करने में लग जाते हैं… जब तक मैं हंस न दूं उन्हें चैन नहीं मिलता.’’

‘‘अच्छा तो तुम्हारे पापा क्या बिजनैस करते हैं?’’

‘‘ऐक्सपोर्टइंपोर्ट का बिजनैस है.’’

‘‘ओके और मम्मी?’’

‘‘मम्मी हाउसवाइफ हैं. घर को इतने करीने से सजा कर रखती हैं कि तुम देख कर दंग रह जाओगे. कोई भी चीज इधर से उधर हो जाए तो समझ जाना कि उन के गुस्से से बच नहीं सकोगे.’’

‘‘अच्छा तो मुझे इस बात का खयाल रखना होगा,’’ मैं ने मुसकराते हुए कहा तो वह मेरे सीने से लग गई. मैं ने देखा उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘क्या हुआ,’’ मैं ने पूछा, पर वह कुछ नहीं बोली.

‘‘बहुत प्यार करती हो अपने पेरैंट्स से… तभी शादी का इरादा नहीं,’’ मैं ने कहा.

मेरी बात सुन कर वह हंस पड़ी, ‘‘हां शायद मैं अपने पेरैंट्स को छोड़ कर कहीं जाना ही नहीं चाहती.’’

‘‘चिंता न करो, तुम कहोगी तो हम उन्हें भी साथ ले चलेंगे… वे हमारे साथ रहेंगे. ठीक है न?’’

वह कुछ नहीं बोली. बस प्यार भरी नजरों से मुझे देखती रही. मुझे लगा जैसे उसे मेरी बात पर यकीन नहीं हो रहा. पर मैं ने भी अपने मन में दृढ़ फैसला कर लिया कि अनीता के मातापिता को अपने साथ रखूंगा. आखिर उस के पेरैंट्स मेरे भी तो पेरैंट्स हुए न.

पेरैंट्स के अलावा अनीता अकसर अपने भाई और भाभी का जिक्र भी करती थी. उस ने एक दिन विस्तार से सारी बात बताई कि उस का एक ही भाई है, जो उसे बेहद प्यार करता है. मगर भाभी का स्वभाव कुछ ठीक नहीं. भाभी ने शादी के बाद से भाई को अपने नियंत्रण में रखा हुआ है.

‘‘चलो, आज मैं तुम्हारे घर वालों से मिल लेता हूं,’’ एक दिन फिर मैं ने अनीता से कहा तो वह थोड़ी खामोश हो गई. फिर बोली, ‘‘कुछ महीनों के लिए पापा के साथ मम्मी भी गई हैं… वैसे मैं ने उन से तुम्हारी सारी बातें शेयर की हैं… उन्हें इस शादी से कोई ऐतराज नहीं. मैं ने उन्हें आप का फोटो भी दिखाया है… ऐसा करते हैं नितिन, मैं तुम्हारे घर वालों से मिल लेती हूं.’’

‘‘मेरा बेटा भी फिलहाल घर पर नहीं है,’’ मैं ने कहा.

‘‘यह तो बड़ी मुश्किल है. पर देखो, मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी…’’

‘‘मतलब?’’

‘‘मतलब तुम शादी की तारीख तय करो. तब तक मम्मीपापा भी आ जाएंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक रहेगा. मगर तुम एक बार फिर सोच लो. शादी के लिए पूरी तरह तैयार हो न?’’

‘‘बिलकुल… मैं तनमनधन से आप की बनने को तैयार हूं,’’ अनीता ने हंसते हुए कहा तो मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा.

उस रात मैं बड़ी देर तक जागता रहा. अनीता ही मेरे खयालों में छाई रही. रहरह कर उस का चेहरा मेरी आंखों के सामने आ जाता. दिल में एक भय भी था कि कहीं उस के मातापिता तैयार नहीं हुए तो? भाईभाभी ने किसी बात पर ऐतराज किया तो? मगर अनीता की संशयरहित हां ने मेरी हिम्मत बढ़ाई थी. मैं ने ठीक 12 बजे अनीता को फोन किया.

‘‘अगले महीने की पहली तारीख को हम सदा के लिए एक हो जाएंगे. कैसा रहेगा?’’

‘‘बहुत अच्छा… तुम यह डेट फाइनल कर लो.’’

‘‘मगर तुम्हारे मम्मीपापा और भाई? वे लोग पहुंच तो जाएंगे न?’’

‘‘मैं उन्हें अभी बता देती हूं,’’ खुशी से चहकती हुई अनीता ने कहा तो मेरी सारी शंकाएं दूर हो गईं.

अगले ही दिन मैं ने अपने खास लोगों को शादी की सूचना दे दी. बेटे से तो यह बात बहुत पहले ही शेयर कर ली थी. वह बहुत खुश था. हम ने तय किया कि कोर्ट मैरिज कर के रिश्तेदारों को पार्टी दे देंगे.

धीरेधीरे समय गुजरता गया. शादी का दिन करीब आ गया. यूनिवर्सिटी में भी सब को इस की सूचना मिल चुकी थी. हमारे रिश्ते से सब खुश थे.

शादी से 1 सप्ताह पहले जब मैं ने अनीता से उस के घर वालों के बारे में पूछा तो वह बोली कि सब आ जाएंगे…

मैं ने अपनी सहमति दे दी. शादी का दिन भी आ गया. मेरा बेटा 4 दिन पहले आ चुका था. हम घर से सीधे कोर्ट जाने वाले थे. इसी पार्टी में मेरे और अनीता के सभी परिचितों और रिश्तेदारों को मिलना था. वैसे मेरे बहुत ज्यादा रिश्तेदार शहर में नहीं थे और शहर से बाहर के रिश्तेदारों को मैं ने बुलाया नहीं था. अनीता ने अपने रिश्तेदारों के बारे में कुछ ज्यादा नहीं बताया था.

ठीक 11 बजे हमें कोर्ट पहुंचना था. मैं 10 बजे ही पहुंच गया. 11 बज गए पर अनीता नहीं आई. फोन किया तो फोन व्यस्त मिला. मैं बेचैनी से उस का इंतजार करने लगा. करीब 12 बजे अनीता अपनी 2-3 महिला मित्रों के साथ आई. एक वृद्ध आंटी और उन का बेटा भी था. मैं अनीता को अलग ले जा कर उस के घर वालों के बारे में पूछने लगा.

वह थोड़ी घबराई हुई सी थी. बोली, ‘‘मम्मीपापा और भाई सब एकसाथ आ रहे हैं… ट्रेन लेट हो गई है. अब वे टैक्सी कर के आएंगे.’’

‘‘चलो फिर हम उन का इंतजार कर लेते हैं. मैं ने कहा तो वह खामोशी से बैठ गई. करीब 1 घंटा और गुजर गया. इस बीच अनीता ने 2-3 बार अपने घर वालों से बात की. वे रास्ते में ही थे.

‘‘नितिन अभी मम्मीपापा को आने में 2-3 घंटे और लग जाएंगे.’’

मैं ने स्थिति की गंभीरता समझते हुए उस की बात सहर्ष स्वीकार कर ली. हम ने कागजी काररवाई पूरी कर ली. एकदूसरे को वरमाला पहना कर पतिपत्नी बन गए. पर मन में कसक रह गई कि अनीता के घर वाले नहीं पहुंच पाए. अनीता भी बेचैन सी थी. 2 घंटे बीत गए. मैं ने अनीता की तरफ प्रश्नवाचक नजरों से देखा तो वह फिर फोन मिलाने लगी.

अचानक मैं ने देखा कि बात करतेकरते वह रोंआसी सी हो गई.

मैं दौड़ कर उस के पास गया, ‘‘क्या हुआ अनीता? सब ठीक तो है?’’

‘‘नहीं, कुछ भी ठीक नहीं,’’ वह परेशान स्वर में बोली, ‘‘मेरे मम्मीपापा का ऐक्सीडैंट हो गया है. वे जिस टैक्सी से आ रहे थे वह किसी गाड़ी से टकरा गई. भाई है उन के पास. वह उन्हें अस्पताल ले गया है. मैं अस्पताल हो कर आती हूं.’’

‘‘नहीं रुको, मैं भी चल रहा हूं,’’ मैं ने कहा तो वह एकदम असहज होती हुई बोली, ‘‘अरे नहीं नितिन, आप मेहमानोें को संभालो. मैं अकेली चली जाऊंगी. सब कुछ अकेले हैंडल करने की आदत है मुझे.’’

‘‘आदत है तो अच्छी बात है अनीता. पर अब मैं चलूंगा तुम्हारे साथ. मेहमानों को विजय देखा लेगा. बेटा जरा गाड़ी निकालना. हम अभी आते हैं,’’ मैं ने कहा और बेटे को सारी जिम्मेदारी सौंप अनीता के साथ निकल पड़ा.

रास्ते में अनीता बहुत गुमसुम और परेशान थी. मैं उस की स्थिति समझ रहा था.

‘‘अनीता, ऐक्सीडैंट नोएडा में हुआ है. अब बताओ कि उन्हें किस अस्पताल में दाखिल कराया गया है? हम नोएडा पहुंचने वाले हैं,’’ गाड़ी चलाते हुए मैं ने पूछा तो वह कुछ देर खामोश सी मुझे देखती रही. फिर धीरे से बोली, ‘‘सिटी अस्पताल.’’

मैं ने तेजी से गाड़ी सिटी अस्पताल की तरफ मोड़ दी.

‘‘अनीता, फोन कर के पूछो कि अब उन की तबीयत कैसी है? चोट कहांकहां लगी है? कोई सीरियस बात तो नहीं… और हां, यह भी पूछो कि उन्हें किस वार्ड में रखा गया है?’’

मेरी बात सुन कर भी वह खामोश रही. उसे परेशान देख मुझे भी बहुत दुख हो रहा था. अत: मैं भी खामोश हो गया.

गाड़ी अस्पताल तक पहुंच गई तो मैं ने फिर वही बात दोहराई, ‘‘अनीता प्लीज, अपने भाई से पूछा कि वे किस वार्ड में हैं?’’

वह खामोश रही तो मैं घबरा गया. उसे झंझोड़ता हुआ बोला, ‘‘अनीता तुम मेरी बात का जवाब क्यों नहीं दे रही? बताओ अनीता क्या हुआ तुम्हें? तुम्हारे मम्मीपापा कहां हैं?’’

अचानक अनीता फूटफूट कर रो पड़ी, ‘‘कहीं नहीं हैं मेरे मम्मीपापा… कहीं नहीं हैं… मैं अकेली हूं इस दुनिया में बिलकुल अकेली. कोई नहीं है मेरा.’’

उसे रोता देख मैं घबरा गया. बोला, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? मम्मीपापा ठीक हो जाएंगे… चिंता न करो अनीता. मैं चल रहा हूं न तुम्हारे साथ… तुम बस बताओ, उन्हें किस वार्ड में रखा है.’’

अनीता मेरी तरफ देखती रही. फिर भीगी पलकें पोंछती हुई बोली, ‘‘मैं ने तुम से झूठ कहा था नितिन. मेरे मम्मीपापा बचपन में ही मर गए थे… कोई भाईबहन नहीं हैं. एक बूआ थीं, जिन्होंने मुझे पालापोसा. फिर वे भी इस दुनिया से चली गईं… सालों से बिलकुल अकेली जिंदगी जी रही हूं. मैं ने तुम से झूठ कहा था कि मेरा एक परिवार है… मुझे माफ कर दो प्लीज.’’

मैं हैरान सा उसे देखता रहा. फिर पूछा, ‘‘पर ऐसा करने की वजह?’’

‘‘क्योंकि मैं तुम्हें बहुत चाहती हूं नितिन. मुझे लगता था कि यदि मैं ने सच बता दिया तो तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे… प्लीज मुझ से नाराज न होना नितिन… आई लव यू.’’

मुझे अनीता पर कतई गुस्सा नहीं आ रहा था. उलटा उस के लिए सहानुभूति महसूस हो रही थी. अत: मैं ने कहा, ‘‘झूठी कहानियां गढ़ने की कोई जरूरत नहीं थी अनीता… मैं तो खुद अकेला हूं… तुम्हारी तकलीफ कैसे नहीं समझूंगा? और हां, मैं वादा करता हूं आज के बाद तुम्हें परिवार की कभी कमी महसूस नहीं होने दूंगा… मैं हूं न तुम्हारा परिवार… हम दोनों अकेले हैं… मिल जाएंगे तो खुद परिवार बन जाएगा.’’

अनीता के चेहरे पर विश्वास की लकीरें खिंच आई थीं. उस ने सुकून के साथ अपना सिर मेरे सीने पर टिका दिया. मैं ने गाड़ी डा. संदीप के क्लीनिक की तरफ मोड़ ली. वे मेरे सहपाठी और जानेमाने मनोचिकित्सक हैं. यदि जरूरत महसूस हुई तो वे अनीता की काउंसलिंग कर उसे नई जिंदगी की बेहतर शुरुआत के लिए पूरी तरह तैयार कर देंगे.

Box Office : ‘क्रेजी’ और ‘सुपरबौयज औफ मालेगांव’ को नहीं मिले दर्शक

Box Office : इस हफ्ते दो नई फिल्में रिलीज हुईं, कहानी व एक्सपेरिमेंट के लिहाज से काफी बेहतर मानी गई मगर दर्शक नसीब नहीं हो पाए. जानिए कौन सी फिल्म हैं और क्या कारोबार है अब तक.

फरवरी माह के अंतिम यानी कि चौथे सप्ताह, 28 फरवरी को रिलीज हुई दोनों फिल्में ‘क्रेजी’ और ‘सुपरब्वौयज औफ मालेगांव’ को दर्शक न मिलने से बौलीवुड में एक नई बहस छिड़ गई है कि अब दर्शक अच्छे कंटैंट, अच्छी कहानी वाली फिल्में देखना ही नहीं चाहता. जबकि हकीकत यह है कि इस तरह की बात करने वाले लोगों के लिए ‘नाच न जाने आंगन टेढ़ा’ वाली कहावत ही फिट बैठती है. मगर इन दो फिल्मों के साथ ही तीसरे सप्ताह रिलीज हुई ‘मेरे हसबैंड की बीवी’ के उतर जाने का कुछ फायदा 14 फरवरी को रिलीज हुई ‘छावा’ को मिल गया. ‘छावा’ के निर्माता के दावे पर यकीन किया जाए तो ‘छावा’ ने तीसरे सप्ताह भर में लगभग 80 करोड़ रुपए इकट्ठा कर लिए.

सब से पहले चौथे सप्ताह, 28 फरवरी को रिलीज हुई फिल्म ‘क्रेजी’ की बात. इस फिल्म के लेखक व निर्देशक गिरीश कोहली वही शख्स हैं, जिन्होंने कभी ‘मौम’ और ‘केसरी’ फिल्में लिखी थीं. गिरीश कोहली ने इस बार लेखन के साथ निर्देशन भी कर लिया. फिल्म ‘क्रेजी’ के हीरो सोहम शाह हैं.

इस फिल्म में इस के अलावा केवल एक लड़की का अंत में 5 मिनट का किरदार है. सब से बड़ा सवाल यह है कि सोहम शाह को कितने लोग पहचानते हैं? 20 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म पूरे 7 दिन के अंदर बामुश्किल 6 करोड़ रुपए ही इकट्ठा कर सकी. इस में से निर्माता की जेब में केवल 2 करोड़ रुपए ही जाएंगे. इतनी बुरी तरह से फिल्म के असफल होने के लिए इस के निर्माता यानी कि सोहम शाह ही दोषी हैं.

सोहम शाह ने 2018 में हौरर फिल्म ‘तुम्बाड़’ का निर्माण व उस में अभिनय किया था. जिस ने उस वक्त बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा था लेकिन 2024 में जब ‘तुम्बाड़ को री रिलीज किया गया तो उस वक्त हौरर फिल्मों का जमाना चल रहा था. ‘स्त्री 2’ स्फल हो चुकी थी. इस वजह से ‘तुम्बाड़’ ने री रिलीज पर अच्छे पैसे कमा लिए तो सोहम शाह को लगा कि अब ‘क्रेजी’ भी चल जाएगी.

‘क्रेजी’ हौरर जौनर की फिल्म नहीं है. दूसरी बात फिल्म एक अहम मुद्दे पर बनी है, पर यह मुद्दा फिल्म में अंतिम 10 मिनट में उभर कर आता है. हालांकि फिल्म काफी ग्रिपिंग है और अंत तक बांधे रखती है. पूरी कहानी मोबाइल पर हो रही बातचीत से उजागर होती है. कहानी के स्तर पर काफी झोलझाल व गलती है. सोहम शाह को कोई नहीं पहचानता. अपने घमंड में चूर सोहम शाह ने फिल्म को प्रचारित ही नहीं किया. केवल ट्रेलर लौंच किया गया.

फिल्म के लेखक व निर्देशक गिरीश कोहली भी मीडिया से छिपते नजर आए. ऐसे में लोगों को पता ही नहीं चला कि ‘क्रेजी’ क्या है, किस तरह की फिल्म है. ऐसे में स्वाभाविक तौर पर दर्शक इस तरह की फिल्म से दूर ही रहेगा. पर यह खुद की गलती पर गौर करने की बजाय सारा ढीकारा दर्शक पर मढ़ रहे हैं.

बौलीवुड के गलियारों में चर्चा है कि फिल्म ‘क्रेजी’ ने बौक्स औफिस पर केवल एक करोड़ रुपए ही कमाए, बाकी तो निर्माता ने अपनी जेब से लगा दिए. सच तो सोहम शाह ही बेहतर बता सकते हैं.

दूसरी फिल्म फरहान अख्तर की कंपनी ‘एक्सेल इंटरटेनमेंट’ निर्मित ‘‘सुपरबौयज औफ मालेगांव’ है. यह फिल्म अच्छी बनी है जब मालेगांव में फिल्म इंडस्ट्री शुरू हुई थी, तब जो मालेगांव की हालत थी, उसी हूबहू चित्रित किया गया. फिल्म में इमोशंस भी हैं. पर बात वही कि ‘जंगल में मोर नाचा किस ने देखा.’

इस फिल्म का कोई प्रचार नहीं हुआ. लोगों को पता ही नहीं लगा कि इस तरह की कोई फिल्म आ रही है. मालेगांव में एक फिल्म इंडस्ट्री पनपी थी, इस बात को फिल्म उद्योग या बौलीवुड से जुडे़ लोग ही जानते हैं. आम दर्शकों को इस के बारे में कुछ नहीं पता. इस फिल्म में लगभग सभी मेथड कलाकार हैं. मगर इस फिल्म के लेखक, निर्देशक व कलाकार में से किसी ने भी इस फिल्म का कोई प्रचार नहीं किया. परिणामतः 20 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म 7 दिन में दो करोड़ रुपए ही कमा सकी, इस में से निर्माता की जेब में कुछ भी नहीं जाएगा.

Artifical Intelligence : कंप्यूटर, इंटरनैट और एआई के बाद

Artifical Intelligence : कंप्यूटर जमाजोड़ करने के लिए जाने जाते थे. टैक्नोलौजी की प्रगति के साथ धीरेधीरे कंप्यूटर अब आप के द्वारा डाले गए मैसेज, लेख, शोध ग्रंथ, रिपोर्ट, इतिहास, विज्ञान, ज्योग्राफी सब पढ़ना ही नहीं सीख गए हैं बल्कि किसी भी पूछे गए सवाल पर, जो जानकारी इंटरनैट में तैर रही है उस को खंगाल कर, जवाब देने में भी सक्षम हो गए हैं. आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस इसी को संक्षेप में कहते हैं. हालांकि, कंप्यूटर वैज्ञानिकों की नजर में आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस यानी एआई के और भी बहुत से मतलब हैं.

एक आम आदमी की याददाश्त और किसी भी तरह के तथ्यों को जांचपरख कर किसी भी निर्णय पर पहुंचने की क्षमता अब आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस वाले कंप्यूटरों में लगातार बढ़ रही है और वे सारी दुनिया की किताबों का ज्ञान पढ़ सकते हैं क्योंकि लोगों ने धीरेधीरे सारी किताबों को कंप्यूटर की बाइनरी भाषा में पहले ही डाल दिया है.

आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस के टूल पासवर्डों को भेदते हुए जानकारी के गहरे स्रोतों के पीछे तक पहुंचने की क्षमता रखते हैं क्योंकि उन्हें जिन लोगों ने कोड किया है उन्होंने हजारों नहीं बल्कि करोड़ों पैटर्नों की गिनती की कला कंप्टूटर को पहले से सिखा रखी है.

यह समझ लें कि जैसे एक युग में घोड़े और बैल को स्टीम इंजन ने पछाड़ कर निरर्थक साबित करने के साथ सिर्फ सजावटी बना दिया था वैसे ही मानव मस्तिष्क को गौण बनाने की क्षमता आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस में है.

जब आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस को मशीनों से जोड़ा जाएगा तो वे शायद मानवों से ज्यादा अच्छा काम कर सकेंगे क्योंकि मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएं होती हैं, उसे भूख भी लगती है, नींद भी आती है, वह बोर भी होता है, थकता भी है. जब मानव मस्तिष्क तेज है तो वह आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस तैयार करेगा लेकिन बाद में आराम से सोएगा.

आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस को मशीनों में डालने से वह बहुत सी बल्कि अरबों नौकरियों को खा सकता है. आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस को बनाने वाले करोड़पति, अरबपति नहीं, खरबपति हो जाएंगे. उन की कंपनियां तो अमीर होंगी ही, उन में काम करने वाले सिर्फ एक कमरे में बंद रह कर ही काफी अमीर बन जाएंगे, बड़ेबड़े उद्योगपतियों से भी ज्यादा.

दुनिया अमीरीगरीबी का जो भेदभाव देखती रही है, वह अगले सालों में उस से कहीं ज्यादा दिख सकता है पर तब गरीब भूखा न होगा, बेघर न होगा. उस को भरपूर खाना, सुविधाएं मिलेंगी, नहीं मिलेगी तो शायद स्वतंत्रताएं नहीं मिलेंगी क्योंकि उन के विरोध करने की क्षमता आर्टिफिशियल इंटैलीजैंस पहले ही हड़प लेगी.

अगले साल दुनिया में एक और बदलाव होगा लेकिन उस का आम आदमीऔरत और घरपरिवार पर क्या असर पड़ेगा, फिलहाल इस पर अभी नहीं कहा जा सकता.

Illegal Immigrants : यूथ का अमेरिका में घुसना और अब भगाया जाना

Illegal Immigrants : मोबाइल कल्चर ने देश के युवा को किस तरह निकम्मा बना दिया है और किस तरह वे रील्स की जिंदगी को असली जिंदगी समझने लगे हैं, यह अमेरिका के नए खब्ती, डिक्टेटर टाइप प्रैसिडैंट डोनाल्ड ट्रंप द्वारा इल्लीगल इमीग्रैंट्स को देश से निकालने की लाइन में लगे 104 इंडियन यूथ्स को इंडिया भेजने से पता चल रहा है. इन यूथ्स में 33 गुजरात के हैं, 33 हरियाणा के और 31 पंजाब के.

इन सभी यूथ ने घरवालों की जमापूंजी खर्च करा कर इल्लीगल तरीके से अमेरिका में घुसने की प्लानिंग की थी. और जब ग्राहक हो तो सप्लायर्स आ ही जाते हैं. मैनपावर का काम कर रहे ट्रैवल एजेंट युवाओं के पेरैंट्स से भारत में किस्तों में पैसे लेते रहते थे और अलगअलग देशों से होते हुए ये युवा अमेरिका में इल्लीगल तरीके से घुसेड़ दिए गए. अब पकड़े गए.

इन 104 भारतियों को हथकड़ियां पहना कर अमेरिकी मिलिट्री प्लेन से भारत लाया गया. अहमदाबाद न ले जा कर हवाई जहाज को अमृतसर में उतारा गया जहां आम आदमी पार्टी की सरकार है ताकि गुजरात मौडल की इज्जत थोड़ी बची रहे. लेकिन आज सोशल मीडिया इतना तेज है कि असली बातें नकली व लुभावनी बातों के बीच से निकल ही आती हैं. अमेरिकी मिलिट्री प्लेन के अमृतसर के हवाई अड्डे पर उतरने की रील्स सामने आईं तो सोशल मीडिया ने उन रील्स की पोल खोल दी जिन में कौंपटन जैसे शहरों में 60 फीसदी इडियंस के होने की बात बताई जाती है और अमेरिका या दूसरे देशों में इंडियन ओरिजिन के बड़ेबड़े नेताओं के होने के दावे किए जाते हैं.

यह ठीक है कि इंडियन यूथ टैलेंट में किसी से कम नहीं है पर जब कोई देश उन्हें न बुलाए तो वहां जबरदस्ती चोरीछिपे छिप जाना और पूरी वहां की पौपुलेशन में घुलमिल जाना किसी भी ढंग से सही नहीं कहा जा सकता.

वे यूथ असल में रील्र्स के दीवाने उसी तरह हैं जैसे पुराने किस्म के लोग कुंभ जैसे स्टंटस के दीवाने हैं. उन्हें लगता है कि अगर इतने लोग ऐक्सेस पा रहे हैं या कुछ कर रहे हैं तो सही ही होगा. सोशल मीडिया अपनी रिपीटीटिव कैपेसिटी से यूथ की एनालिसिस और ट्रुथ ढूंढ़ने की इंस्टिंक्ट को खत्म कर देता है.

जैसे लोग कुंभ जाते समय यह भूलते रहे कि एक दिन में 1 करोड़ लोग कैसे छोटी सी जगह में डुबकी लगा सकते हैं वैसे ही सोशल मीडिया के स्लेव भूल गए कि भारत से यूरोप या अमेरिका जाना नेपाल जाने की तरह नहीं है. वहां जाने के रस्ते में न सिर्फ बड़े सुदर बीच में हैं बल्कि होस्टाइल कंट्रोल सिस्टम भी है.

इल्लीगल इमीग्रैंट्स को बाहर निकालना डोनाल्ड ट्रंप का वैसा ही हथियार है जैसा नरेंद्र मोदी का अपने देश के मुसलिम नागरिकों को परेशान कर हिंदुओं के वोटों का अपनी पार्टी के पक्ष में ध्रुवीकरण करना एक हथियार है. डोनाल्ड ट्रंप 7,50,000 इल्लीगल इंडियंस को भारत भेज पाएंगे, इस में शक है क्योंकि हर बार भारीभरकम सी-17 मिलिट्री प्लेन को आधा खाली भेजना आसान और कम खर्चीला नहीं है.

इन यूथ्स को बहकाने के लिए सोशल मीडिया पूरी तरह रिस्पौंसिबल है क्योंकि इस में फैक्ट और फिक्शन को इस तरह मिक्स कर दिया गया है कि पहले के धर्मभीरु लोगों की तरह आज का यूथ साइंस, टैक्नोलौजी पढ़ कर भी बेवकूफ बन कर रह गया है. होश संभालते ही वह मोबाइल का गुलाम हो जाता है और सोशल मीडिया पर वही उसे दिखता है जो फेसबुक, इंस्टाग्राम, यूट्यूब उसे दिखाना चाहते हैं. इन सब प्लेटफौर्मों का काम है कि देखने वालों को वही दिखाया जाए और बारबार दिखाया जाए जो वे देखना चाहते हैं.

देश से डंकी बन कर निकले यूथ्स की पहली बड़ी खेप सुर्खियां बन कर लौटी है तो शायद यूथ्स के ब्रेन में अब यह अक्ल आ जाए कि जिंदगी स्क्रीन से बाहर प्रैक्टिकली बहुत बेरहम है. चमकदमक के पीछे जो जिंदगी है वह भारत के बदबूदार, बेरोजगारी से भरे, बिखरे शहरों से कम बदतर नहीं है.

New Trend : देसी कम्युनिटी में जेनजी का शोऔफ कल्चर

New Trend : आज की पीढ़ी हर कदम पर दिखावा करने वाली है. क्या सच में दुनिया के सामने दिखावा जरूरी है? क्या आप इन ट्रैंड्स को फौलो नहीं करेंगे तो सोसाइटी आप को नकारा समझेगी? दोस्तों के सामने कूल बनने का सब से महंगा तरीका है जेनजी में शोऔफ का कल्चर.

सोशल मीडिया पर एक वायरल वीडियो में मंदिर में फूल बेचने वाली एक महिला और उस का बेटा मोबाइल स्टोर पर कैश के साथ आईफोन खरीद रहे थे. खरीदारी के बारे में पूछा गया, तो मां ने बताया कि उस का बेटा आईफोन खरीदने की जिद में तीन दिन की भूख हड़ताल पर चला गया था. वीडियो को सोशल मीडिया पर खूब शेयर किया गया, जिस पर ज्यादातर लोगों ने बेटे को अपनी मां की मेहनत की कमाई को फोन पर खर्च करने के लिए फटकार लगाई.

इस वाकेआ पर ‘घर में नहीं दाने अम्मा चली भुनाने’ वाली कहावत बिलकुल सटीक बैठती है. और यही हाल भारत के लगभग सभी जेनजी (1998 से 2012 के बीच पैदा होने वाले) का है. आज यह पीढ़ी शोऔफ के नशे में चूर है. यह खुद को व्यक्त करने, फैशन, स्टाइल और लाइफस्टाइल को सोशल मीडिया पर दिखाने के मामले में हमेशा ऐक्टिव रहती है.

आज की यंग जेनरेशन खुद को सोसाइटी में फिट करने में जुटी पड़ी है. अपनी बराबरी, किसी हाईफाई पर्सनैलिटी से कर बैठते हैं और सोचते हैं कि काश, वे भी ऐसे बन जाएं. वे उन का लाइफस्टाइल कौपी करने की कोशिश करते हैं और ऐसे में खुद की फाइनैंशियल कंडीशन पर ध्यान न दे कर हवाबाजी करने लगते हैं.

हाल ही में मशहूर पंजाबी सिंगर दिलजीत दोसांझ और कोल्डप्ले के कौंसर्ट्स पूरे भारत में हुए. इन कौंसर्ट्स का क्रेज इतना ज्यादा था कि इस के टिकट मिनटों में बिक गए थे. बुकिंग के दौरान ‘बुक माय शो’ की वैबसाइट क्रैश हो गई और इन के टिकट की कीमतों ने हर किसी को हैरान कर दिया. टिकटों की कीमत 38 हजार रुपए से शुरू हो कर 3 लाख रुपए तक थी. इस के बावजूद लोग इसे खरीदने के लिए पागल हुए जा रहे थे. ये सब किस लिए? क्या इन कौंसर्ट्स में न जाने से उन का अस्तित्व नहीं रहेगा या सोसाइटी उन्हें अपनाएगी नहीं? इस का जवाब एक ही है कि वे सोशल मीडिया में ‘कूल’ दिखेंगे.

आज की पीढ़ी हर कदम पर दिखावा करने वाली है. क्या सच में दुनिया के सामने दिखावा जरूरी है? आज की डेट में इस सवाल का जवाब हर किसी की प्रायोरिटी पर डिपैंड करता है, क्योंकि हम एक मैटीरियलिस्टिक वर्ल्ड में रह रहे हैं. आज की पीढ़ी बहुत अलग है. ब्रैंडों पर बहुत खर्च करती है. युवा सोशल मीडिया की वर्चुअल दुनिया में रह रहे हैं.

हमें लगता है कि वे पैसा बरबाद कर रहे हैं और अगर उन्हें नौकरी के बिना कठिन समय का सामना करना पड़ा तो वे क्या करेंगे? लेकिन वे सोचते हैं कि उन्हें एक जीवन मिला है, इसलिए उन्हें हर चीज का आनंद लेना होगा. कोरोना के बाद से यंग जेनरेशन को लगता है कि पैसे से कुछ भी खरीदा जा सकता है और सोसायटी में इस का शोऔफ करने से उन्हें सैटिस्फैक्शन का एहसास होता है. सोशल स्टेटस बरकरार रखने के लिए दिखावा करना जरूरी हो गया है.

इन कारणों से जेनजी है शोऔफ में चूर-

· सोशल मीडिया का प्रभाव : जेनजी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म्स इंस्टाग्राम, फेसबुक, यूट्यूब आदि पर बहुत ऐक्टिव होते हैं. इन प्लेटफौर्म्स पर लोग अपनी जिंदगी के ‘बेस्ट’ मोमैंट्स साझा करते हैं, ताकि वे लाइक्स, कमैंट्स, और फौलोअर्स पा सकें. यह डिजिटल दुनिया में खुद को दिखाने और वैलिडेशन पाने का तरीका बन गया है.

· स्मार्टफोन और टैक्नोलौजी का असर : जेनजी के पास हमेशा स्मार्टफोन और इंटरनैट का एक्सेस होता है, जिस से वे हर समय अपडेट रहते हैं और नए ट्रैंड्स और फैशन से जुड़ते हैं.

· सोशल वैलिडेशन की चाह : सोशल मीडिया पर दिखावे के साथ जुड़ा हुआ एक कारण यह भी हो सकता है कि जेनजी अपने समाज में या अपने दोस्तों के बीच वैलिडेशन पाने की कोशिश करते हैं. वे दिखाते हैं कि वे ट्रैंड्स के साथ हैं या उन का जीवन ‘परफैक्ट’ है, ताकि वे दूसरों से अच्छा महसूस कर सकें.

एक दोस्त ने आईफोन लिया तो बाकियों के मन भी आ जाता है कि यह तो अब पूरे कैंपस में कूल दिखेगा और हम भौंडे. इसी होड़ में बाकी भी इस दिखावे का हिस्सा बन जाते हैं.

· इन्फ्लुएंसर कल्चर : आजकल बहुत से जेनजी लोग सोशल मीडिया पर इन्फ्लुएंसर के रूप में काम कर रहे हैं. उन के लिए दिखावा करना एक तरह से अपनी ब्रैंड को प्रमोट करने का हिस्सा बन चुका है. वे जिस तरह से अपनी जिंदगी और चीजें पेश करते हैं, वे उन के फौलोअर्स को अट्रैक्ट करने के लिए होती हैं. ऐसे इन्फ्लुएंसर लोगों को गुमराह कर के अपने फेक वर्ल्ड को प्रमोट करते हैं.

इंडियन ऐक्ट्रेस लारा दत्ता ने हाल में युवाओं को एन्करेज करते हुए एक इंटरव्यू में कहा, “मैं दुनियाभर के युवाओं को यह बताना चाहती हूं कि आप जिन इन्फ्लुएंसर को देखते हैं, जिन में हम (सैलिब्रिटीज) भी शामिल हैं, जिन का जीवन अद्भुत है, यह जरूरी नहीं कि वे चीजें हमारी हों या हम ने अपने दम पर हासिल की हों.”

बहुत सारे ऐक्टरऐक्ट्रेस हर पार्टी या इवैंट में बहुत अच्छे से सजधज कर आते हैं, डिजाइनर कपड़े पहनते हैं. वह सारा हेयर और मेकअप और शानदार गहने आदि सब उधार लिया हुआ होता है. बाद में वह सब वापस चला जाता है. इसलिए इस पर विश्वास न करें. यह रिऐलिटी नहीं है. युवा लोग शोऔफ और सोशल वैलिडेशन में फंस गए हैं. वे वह कर रहे हैं जो सोशल मीडिया उन को परोस रहा रहा है. उन्होंने युवाओं से इसे इग्नोर करने की सलाह दी है.

एक सोसाइटी में सुमित, अजय और अमन खास दोस्त हैं. तीनों कालेज में पढ़ते हैं. एक दिन सुमित ने न्यू कार ला कर अपने दरवाजे पर खड़ी कर दी. हवाबाजी मारने के लिए अपने दोनों दोस्तों को कार दिखाने के लिए बुलाया और सब के बीच कूल बन गया. उस की न्यू कार देख कर अजय ललचा गया और सोचने लगा, मैं भी पापा से बोल कर इस से अच्छी कार लूंगा. वहीं कुछ दिनों बाद अमन ने अपना बर्थडे एक क्लब में सैलिब्रेट किया. उस के बाद से अब हर साल ये तीनों दोस्त अपना बर्थडे किसी महंगे रैस्टोरैंट या क्लब में ही सैलिब्रेट करते हैं. यानी, ये अब एक तरह का ट्रैंड बन चुका है कि कोई भी पड़ोसी या दोस्त कुछ करता है तो उस के पीछे बाकी लोग भी होड़ में जुट जाते हैं, चाहे उन की जेब अलाउ करे या न.

आज जेनजी में एक तरह का ‘फोमो’, जिसे फियर औफ मिसिंग आउट कहा जाता है, पैदा हो रहा है. यह सोशल मीडिया की देन है. आएदिन एक नया ट्रैंड मार्केट में देखने को मिलता है, जैसे हाल ही में यूट्यूबर मिस्टर बीस्ट की ब्रैंड फीस्टेबल्स जब भारत में लौंच हुई तो लोग इसे खरीदने के लिए इतने पागल हुए जैसे लंगर बंट रहा हो. अगर इन के प्राइस की बात करें तो आप अपना सिर पकड़ लेंगे. इस के 35 ग्राम चौकलेट का रेट 400 रुपए है और एक आधा लिटर ड्रिंक का रेट 900 रुपय है. इस के बावजूद भारी मात्रा में यूथ ने इसे खरीदा और सोशल मीडिया पर फ्लेक्स करने से चूके नहीं. आखिरकार, खरीदा ही इसलिए था.

आजकल जेनजी अपने कैरियर, रिलेशनशिप, फैमिली प्रैशर आदि से जूझ रहा है. वेह अकसर अपने डिसीजन को ले कर कन्फ्यूज रहता है. ऐसे में उस का साथ देती है रिटेल थेरैपी. मन उदास होने पर झट से शौपिंग मौल चले गए, कुछ सामान खरीद लिया या घर बैठे ही और्डर कर दिया. इस तरह की टैक्निक उन्हें खुशी देती है. इसे ही रिटेल थेरैपी कहा जाता है.

हालांकि यह हरेक की चौइस है कि वह अपन मरजी से कुछ भी खरीदे या जितना मरजी खर्चा करे. लेकिन यह समझना भी जरूरी है कि हमारी इच्छाओं का कोई अंत नहीं है. दूसरों की बराबरी या सोशल वैलिडेशन पैसे और समय दोनों की बरबादी है.

लेखिका : कुमकुम

Public Relations : क्रिकेट से ले कर फिल्मों तक में बढ़ता पीआर कल्चर

Public Relations : बौलीवुड कलाकार हों, क्रिकेटर हों या फिर हों सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स, सभी की चकाचौंधभरी दुनिया के बारे में जानने के लिए सभी उत्सुक रहते हैं, खासकर इन की पर्सनल लाइफ के बारे में. बाहर खबरों में क्या जाए, इस के लिए ये पीआर रखते हैं. जहां इस से कुछ का फायदा होता है, वहीं कुछ को भारी नुकसान उठाने पड़ते हैं.

जब किसी फिल्म के प्रमोशन की योजना बनाई जाती है तो पीआर (पब्लिक रिलेशंस) एजेंसी यह सुनिश्चित करती है कि विभिन्न प्लेटफौर्म्स पर उसे कवरेज मिले. फिल्म में नजर आने वाले सितारों के इंटरव्यू की योजना बनाने से ले कर उन के बारे में खबरें छपवाने तक, सब पीआर एजेंसी का काम होता है.

इस दौरान सितारों की छवि को विशेष रूप से ध्यान में रखा जाता है. पीआर एजेंटों का काम फिल्म के निर्माण के दौरान से ही शुरू हो जाता है. पीआर एजेंट फिल्म की रिलीज से पहले और बाद में दर्शकों का ध्यान खींचने के लिए प्रचार स्टंट करते हैं. पीआर एजेंसी का मकसद सिर्फ इतना होता है कि जो ऐक्टर अपनी पहली फिल्म में काम करने वाले हैं, उन के बारे में पब्लिक पहले से कुछ जानती हो या उन की ब्रैंडिंग इस तरह की जाए कि फिल्म हिट होने से पहले ही पब्लिक की नजर में वह ऐक्टर हिट हो जाए.

क्रिकेटर्स के लिए क्या काम करती है पीआर एजेंसी

क्रिकेटर अकसर अपनी सार्वजनिक छवि, विज्ञापन, सोशल मीडिया उपस्थिति और मीडिया इंटरैक्शन को मैनेज करने के लिए पीआर एजेंसियों के साथ कोलैबोरेट (साथ मिल कर काम) करते हैं. पीआर एजेंसियां क्रिकेटरों को एक साफसुथरी पब्लिक इमेज बनाए रखने में मदद करती हैं, उन की मार्केट वैल्यू को बढ़ाती हैं और उन्हें शीर्ष ब्रैंडों से जोड़ कर आकर्षक विज्ञापन सौदों पर बातचीत करती हैं, जिस से क्रिकेटरों की कमाई के साधन बढ़ जाते हैं.

पीआर एजेंसी को एक व्यक्ति या बहुत से व्यक्ति मिल कर चलाते हैं, जिसे क्लाइंट को फेमस करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है, जनता को अपने क्लाइंट से रूबरू कराना, ताकि वे पब्लिक के लिए अनजान न रहें बल्कि उन का चेहरा ही उन की मूवी की पहचान बने. ये पीआर एजेंसी चलाने वाले अपने क्लाइंट की अच्छी बातों को बड़ाचढ़ा कर जनता के सामने पेश करते हैं और उन की पब्लिसिटी करते हैं.

जैसे नवाजुद्दीन सिद्दीकी की बात करें तो वे अपनी फिल्म के लिए बहुत कम पीआर का सहारा लेते हैं. यही वजह है कि उन की फिल्म कब आई, इस के बारे में लोगों को कम ही जानकारी होती है, जैसा हाल ही में उन की फिल्म ‘अफवाह’ के साथ हुआ. वह फिल्म कब आई और चली गई, किसी को पता न चला. लेकिन वे अपनी पीआर जरूर करवाते हैं. उन्हें ग्राउंडेड पर्सन, साधारण और गरीब दिखाने की खूब रील्स चलाई जाती हैं, उन के स्ट्रगल के किस्से खूब उछाले जाते हैं, जैसे पंकज त्रिपाठी अकसर अपने लिए पब्लिसिटी करवाते हैं.

दूसरी ओर शाहरुख खान की ‘पठान’ का पीआर कुछ इस तरह से किया गया कि लोगों के मुंह पर इस फिल्म के आने से पहले ही इस का नाम चढ़ गया. इसी का नतीजा था कि इस फिल्म ने काफी अच्छा बिजनैस किया.

पीआर एजेंसी वाले किस तरह अपने क्लाइंट को फेमस करते हैं?

हम सभी को यह लगता है कि जब फिल्म बन जाती है तो रिलीज डेट से कुछ दिनों पहले ही फिल्म के ऐक्टर अपनी फिल्म का प्रमोशन करने के लिए कई प्लेटफौर्म पर जाते हैं. लेकिन सच यह है कि यह काम फिल्म बनने के बाद नहीं बल्कि कलाकारों की कास्टिंग होने से पहले ही प्रीप्रोडक्शन के दौरान शुरू कर दिया जाता है. फिल्म के ऐक्टर की हर छोटीबड़ी बात को जनता के बीच लाया जाता है, ताकि वह ऐक्टर पहले ही जनता के बीच लोकप्रिय हो जाए.

जब प्रोडक्शन और पोस्ट-प्रोडक्शन की बारी आती है तो फिल्म के सेट से सितारों की तसवीरें सामने लाई जाती हैं. उन के वीडियो पीआर एजेंसी वाले हर सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर डाल देते हैं, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक उन की जानकारी पहुंच सके, ताकि उन की फिल्म में कहानी में दम हो या न वह फिल्म ऐक्टर के नाम पर चल जाए. सितारों के सोशल मीडिया अकाउंट पर जानकारी साझा की जाती है जिस से ज्यादा दर्शकों तक आसानी से पहुंचा जा सके.

इस के अलावा, जानबूझ कर ये पीआर एजेंसी वाले अपने क्लाइंट से कई तरह के सोशल वर्क करवाते हैं और इस का प्रचार बढ़चढ़ कर किया जाता है. जैसे अगर उन्होंने किसी गरीब बच्चे की छोटीसी मदद की हो, तो वे उसे पूरी कवरेज देते हैं और हाईलाइट करते हैं.

पहले और आज के पीआर कल्चर में काफी बदलाव

पीआर कल्चर बढ़ता जा रहा है. यह इतने खराब तरीके से बढ़ रहा है कि यह इंसान का पूरा कैरेक्टर ही चेंज कर देता है. पीआर कल्चर पहले भी था. पीआर के जरिए सैलिब्रिटीज केवल अपनी बात जनता तक पहुंचाते थे. वे खुद ओपन इंटरव्यू देते थे, लोगों से मिलते थे, ताकि लोग सीधे उन से जुड़ सकें. लेकिन अब उस में काफी बदलाव आ गया है. पीआर पब्लिसिटी में आधे से ज्यादा झूठ होता है, फेक होता है, क्योंकि अब यह मात्र पैसा कमाने का आसान जरिया बन गया है. क्रिकेट खेलना और फिल्मों में काम करने के अलावा यह सैलिब्रिटीज का एक साइड बिजनैस बन गया है, जिस के लिए वे खुद और पीआर एजेंसी किसी भी हद तक जा सकते हैं.

सैलिब्रिटीज अपनी मार्केट बनाए रखने के लिए पीआर का सहारा लेते हैं. वे एकदूसरे को गिराने की फ़िराक में रहते हैं. क्रिकेटर विराट कोहली का अपना पीआर है और रोहित शर्मा का अपना. ये स्टार पीआर के सहारे ट्वीट करवाते हैं, सोशल मीडिया पर बज बनवाते हैं. ये ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि इन से इन की मार्केट जुड़ी हुई है. रोहित शर्मा की जब तक मार्केट में बात रहेगी, उस का हल्ला रहेगा, तब तक उसे मार्केट यानी बिसनैस मिलता रहेगा, एड मिलते रहेंगे. ये सब इंटरकनैक्ट होता है. ये सब पब्लिसिटी का गेम है. जो क्रिकेटर या ऐक्टर फ्लौप हैं, चल नहीं पा रहे मगर उन का पीआर अच्छा है, तो उन का नाम मार्केट में बना रहता है.

जैसे विराट कोहली चल ही नहीं रहा है. साल में एक मैच में चल जाता है, तो बहुत हल्ला हो जाता है. लेकिन उस की पीआर इतनी स्ट्रौंग है कि उस का ग्राउंड में रहना ही खबर है, उस का चलनाफिरना, हंसनाबोलना खबर है. इस तरह की मार्केटिंग इन्हें रिटायर होने नहीं दे रही और नए प्लेयर्स को आने नहीं दे रही. अगर रिटायर हो गए तो इन की मार्केट वैल्यू डाउन हो जाएगी. जब ये ग्राउंड में नहीं होंगे, खेलने नहीं जाएंगे, तो लोग इन के बारे में बात क्यों करेंगे. इन्हें देखने भी नहीं जाएंगे. इस तरह ये पीआर स्पोर्ट्समैनशिप को खराब कर रहे हैं. इन सब के पीआर हैं.

पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धौनी का अपना पीआर है. धौनी रिटायर हो चुके हैं लेकिन आईपीएल से रिटायर नहीं हुए हैं. वे पीआर का सहारा ले कर खुद के सिम्प्लिसिटी होने का बखान करवाते हैं. दिक्कत यह है कि मार्केट का प्रैशर इतना है कि वे रिटायर ही नहीं हो पा रहे बावजूद इस के कि वे ठीक से भाग नहीं पाते, घुटनों में तकलीफ रहती है. यही वजह भी है कि वे खेलने भी 7वें या 8वें नंबर पर आते हैं. लेकिन पीआर इतना धांसू है कि उन्हें सैल्फलेस प्लेयर कह प्रचारित किया जाता है, कहा जाता है कि वे यंग प्लेयर्स को मौका देते हैं.

सवाल यह कि जब आप में खेलने की कैपेसिटी नहीं है, तो खेल क्यों रहे हैं? आप इसलिए खेल रहे हैं क्योंकि पीआर आप को खिलवा रहा है. वह इसलिए खिलवा रहा है क्योंकि आप खेलेंगे तो आप का मार्केट बना रहेगा. आप खेलेंगे तो आप पर पैसा लगेगा, लोग सट्टा भी लगाएंगे, आप को एड मिलेगा. यह सब एकदूसरे से जुड़ा हुआ है. हार्दिक पंड्या का पीआर है. हर क्रिकेटर का पीआर है. आप में स्किल्स हैं या नहीं, आप चल रहे हैं या नहीं, आप फौर्म में हैं या नहीं— यह बात नहीं रह गई. आप का पीआर स्ट्रौंग है, आप की चर्चाएं पीआर चलवा रहा है, आप का बज है तो आप मैदान में हैं. इस बात को इस से समझा जा सकता है कि आजकल ग्राउंड में क्रिकेट से ज्यादा फुजूल का ड्रामा देखने को मिलता है.

ज्यादा पीआर करने के नुकसान

बहुत ज्यादा पीआर करने के अपने ही नुकसान हैं. नए आए ऐक्टर्स पीआर पर इतने निर्भर हो जाते हैं कि वे ऐक्टिंग की तरफ ध्यान ही नहीं दे पाते. इन से फिर जो स्किल्स निकलनी भी थीं, वे नहीं निकल पातीं. इन्होंने हर जगह बढ़चढ़ कर इतना अपने को दिखा दिया कि फिर ये लोग एक्सपैक्टेशन को मैच ही नहीं कर पाते. इस से इन का फायदा कम, नुकसान ज्यादा हो रहा है.

इन को लगता है, ‘हम तो चर्चा में आ गए हैं, हमारा पीआर इतना स्ट्रौंग है, हम को ये चर्चाएं बनाए रखती हैं.’ आप अपनी ब्रैंडिंग तो बड़ी कर लेते हो लेकिन आप की लिमिटेशन इतनी कम होती है कि आप पेशे में खरे नहीं उतर पाते. आप फिर छोटे रोल के लायक भी नहीं रह जाते, क्योंकि पब्लिक इमेज के चलते छोटे रोल आप करेंगे और बड़े रोल अपनी कमजोर स्किल्स के आधार पर मिलेंगे नहीं.

जैसे, ऐक्टर टाइगर श्राफ है. इसे जबरदस्ती का हीरो बनाया जा रहा है. आया था बड़ा धूमधाम कर के, उछलकूद कर रहा था, गुलाटियां कर रहा था. अंत में वह फ्लौप ही हुआ. उस के पास उछलने और ऐक्शन के अलावा कोई स्किल नहीं है. कोई डायरैक्टर टाइगर से इमोशनल सीन नहीं करवा सकता. टाइगर की शुरुआत में जो एकदो फिल्में आईं, उन में उसे बड़ाचढ़ा कर दिखाया गया कि इसे तो ताइक्वांडो आता है, यह अगला सुपरस्टार ह. मगर आगे फुस्स हो गया.

पीआर बताता रहा कि ये कलाबाजियां करता है, इसे फाइटिंग अच्छी आती है. अच्छा दिखता है तो सर्कस या एमएमए उस के लिए अच्छा प्रोफैशन हो सकता है. फिल्म में जा रहे हो, तो आप को ऐक्टिंग सही से आनी ही चाहिए. लेकिन उसे यही नहीं आती.

इसी का नतीजा है कि टाइगर श्राफ की पिछली कुछ फिल्में टिकट खिड़की पर बुरी तरह पिटी हैं. इन में ‘बड़े मियां छोटे मियां’, ‘गणपथ’ और ‘हीरोपंती 2’ जैसी फिल्मों के नाम शामिल हैं. उन की आखिरी हिट फिल्म थी ‘बागी 3’, जो 2020 में आई थी. वह भी जबरदस्ती की हिट थी. अब टाइगर के पास कोई भी फिल्म नहीं बची है. प्रोड्यूसर्स उसे अपनी फीस घटाने की सलाह दे रहे हैं, क्योंकि उस की मार्केट वैल्यू पिछले कुछ समय में बहुत गिरी है. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वह पीआर के नीचे दब गया. वह अपनी स्ट्रैटजी नहीं समझ पा रहा.

जाह्नवी कपूर, वरुण धवन भी फ्लौप ही हो रहे हैं. जितना पीआर ने इन्हें हाइप दिया होता है उतना ही जल्दी ये मुंह के बल गिरते हैं. सैफ अली खान के बेटे इब्राहिम अली खान, आमिर खान के सुपुत्र जुनैद खान, श्रीदेवी की बेटी खुशी कपूर, अजय देवगन के भतीजे अमन देवगन, रवीना टंडन की बेटी राशा और अमीरों के अमीर खानदान से आने वाले वीर पहाड़िया- इन सभी को देख ऐसा लग रहा है जैसे इन का बौलीवुड में डैब्यू नहीं हो रहा, बल्कि इन सभी नेपो किड्स की लौंचिंग हो रही है. जैसे ये अब चांद पर पहुंचने वाले हैं. दिक्कत यह है कि ये ऐक्टिंग करने आए हैं मगर औडियंस कंफ्यूज है कि किस की ऐक्टिंग ज्यादा खराब है.

इन नेपो किड्स का आपस में ही कंपैरिजन हो रहा है. पता नहीं कहां से अचानक ही सभी के इंस्टाग्राम की फीड में इन नेपो किड्स की पेड पीआर वाली रील्स आने लग जाती हैं. अभी अमन देवगन और राशा का पीआर चल ही रहा था, उन की मूवी ‘आज़ाद’ का पीआर अभी खत्म भी नहीं हुआ था, उस से पहले ही ‘स्काई फोर्स’ मूवी ने फ़ोर्सफुली बनाए जा रहे ऐक्टर वीर पहाड़िया की पीआर स्टार्ट हो गई.

राशा का पीआर इस तरह चल रहा है कि उसे कैटरीना कैफ़ से कंपेयर किया जा रहा है. हालांकि कैटरीना आज भी ऐक्टिंग सीख रही है लेकिन फिर भी वह इस से तो काफी अच्छी ऐक्टिंग कर लेती है. इन पीआर एजेंसियों ने इन नेपो किड्स के लिए इतना माहौल बना दिया है कि वे ज्यादा ऐक्टिंग अच्छी कर के करेंगे भी क्या? उन्हें पता है, हमारा कंपीटिशन तो अनन्या पांडे है. सो, अच्छी ऐक्टिंग करने का फायदा भी क्या?

राशा अभी 19 साल की हैं और उन का कैरियर स्टार्ट भी हो गया है. जस्ट स्कूल खत्म हुआ और उस के वैकेशन शुरू हुए. इस वैकेशन में उस ने एक मूवी भी फिनिश कर डाली. वहीं, देश में अकसर युवा पूरी जिंदगी सरकारी नौकरी की तैयारी करते हुए बूढ़े हो जाते हैं और फिर भी उन्हें नौकरी नहीं मिलती.

हीरो वीर पहाड़िया का पीआर उलटा पड़ा, बुरी तरह ट्रोल हुए

अभिनेता वीर पहाड़िया हाल ही में ‘स्काई फ़ोर्स’ फिल्म में नजर आए हैं. उन के नानाजी एक्स सीएम रहे हैं. उन के पापा बड़े बिजनेसमैन हैं. उन का अंबानियों के साथ उठनाबैठना है. उन की अच्छीखासी लौबी है. वह पहली ही फिल्म 150 करोड़ की करता है. वह ऐसा है, जो पहली बार परदे पर आता है, जिसे इतनी बड़ी फिल्म मिल गई, इतने बड़े बजट की. वह भी अक्षय कुमार के अपोजिट.

फिल्म में उस की चाहे जैसी भी ऐक्टिंग है, उस ने सोशल मीडिया में अपने पीआर पर काफी खर्चा किया. यही वजह है कि हर जगह वही छाया हुआ है. भले ही वह फिल्मों में चले या न, सोर्स औफ इनकम तो बना ही लेगा. क्या ऐसा ही औरी के साथ नहीं है. जबरदस्ती का इन्फ्लुएंसर है. अपनी पीआर करा के वायरल इन्फ्लुएंसर बन गया, वरना उस के पास ऐसा कौन सा टैलेंट है कि कोई उसे देखे.

मगर हकीकत यह है कि वीर की ओवर पीआर के चलते उस का फायदा कम, नुक़सान ज्यादा हुआ है. सारी पीआर एजेंसियों ने मिल कर सोशल मीडिया पर ऐसी गंद मचाई कि इस इंसान को हीरो नहीं, जोकर बना कर छोड़ दिया. हर मीम पेज की पहली पसंद बन गया है वीर. आधे लोगों को तो पता भी नहीं है कि इस के साथ ‘स्काई फ़ोर्स’ में अक्षय कुमार भी हैं. अक्षय कुमार भी बोल रहा होगा, ‘भला हो ऐसी पीआर एजेंसियों का, जिन्होंने अक्षय कुमार के फ्लौप होने का ठप्पा वीर पहाड़िया के सिर पर लगा दिया.’

इतने लोगों का पेड प्रमोशन सोशल मीडिया पर देखा है, पर इस इंसान के साथ जो हो रहा है, वह नहीं देखा. इस मूवी एवरेज थी. अगर यह बंदा अपनी मार्केटिंग खुद न करवाता, तो हो सकता है कि लोग इस की तारीफ करते. लोगों को खुद से डिसाइड करने दो कि उन्हें आप की ऐक्टिंग कैसी लगती है. आप फिल्म का प्रमोशन करो, न कि अपना. फिल्म अच्छी होगी, आप का काम अच्छा होगा तो लोग खुद तारीफ करेंगे. मगर वीर का पीआर पहली ही फिल्म से उसे सुपरस्टार बताने लगा.
जाहिर है, उन्हें भी अब तक पता चल गया होगा कि जो भी पीआर एजेंसी उस ने हायर कीं, वे उस के कैरियर के लिए डिज़ास्टर साबित हुईं और उस का पैसा पूरी तरह से वेस्ट हो गया है.

रवीना टंडन की बेटी राशा ने भी पीआर में बहुत पैसा लगाया है. आमिर खान का बेटा जुनेद खान, शाहरुख खान की बेटी सुहाना खान जब ये मूवी में आए, तो बस हर तरफ वही दिख रहे थे. जब इन की कोई चीज आती है, तो हर तरफ सिर्फ यही दिखते हैं. दरअसल ये लोगों के दिमाग को काबू में कर लेते हैं. ये लोग अपना पीआर कुछ इस तरह करवाते हैं कि ये पूरे टाइम चर्चा में बने रहें. इन का फोकस ऐक्टिंग से ज्यादा पीआर पर होता है.

लेकिन आमिर खान का बेटा जुनैद खान अपनी पहली फिल्म ‘महाराज’ से चर्चा में था. उस में उस ने ठीकठाक ऐक्टिंग की थी. उस की मूवी की तारीफ़ भी हुई. लेकिन औडियंस का फीडबैक इस तक नहीं पहुंचा, वरना ‘लवयापा’ जैसी मूवी सेलैक्ट करने से पहले दस बार सोचता. इन पीआर एजेंसियों को हायर करना भी काफी बुरा है. इन एजेंसियों ने इस मूवी को फ्लौप बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अगर लोग जुनैद खान और खुशी कपूर की प्रमोशनल रील्स न देखते, तो गलती से कपल्स टाइम पास करने थिएटर में पहुंच भी जाते. लेकिन औडियंस को एक डिस्क्लेमर मिल गया. अब वे इस मूवी को अपने रिस्क पर ही देखेंगे.

सच तो यह है कि इन नेपो किड्स को अपने पीआर से ज्यादा अपनी ऐक्टिंग और मूवी के सेलैक्शन पर ध्यान देना चाहिए. अगर इन की फिल्में अच्छी होंगी, तो लोग अपनेआप ही इन्हें प्यार देंगे. पब्लिक अपनेआप ही इन लोगों की फैन बन जाएगी. रणबीर कपूर इस का अच्छा उदाहरण हैं. उन की फर्स्ट फिल्म ‘सांवरिया’ फ्लौप हुई थी, लेकिन उस के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और बाद में अपनी बेहतरीन मूवीज से यह साबित कर दिया कि वे नेपो किड तो हैं लेकिन साथ ही बेहतरीन ऐक्टर भी हैं. उन्होंने दरअसल चैलेंजिंग रोल किए और दर्शकों को यह यकीन दिलाने में सफल हुए कि वे अच्छे ऐक्टर हैं. अपनी ऐक्टिंग के दम पर ही उन्होंने अपनी फैनफौलोइंग क्रिएट की है.

युवाओं को पीआर के इस खेल को समझना चाहिए

आज के टाइम में सोशल मीडिया पर जो दिख रहा है वह सारा कंटैंट पैसा लगा कर या पीआर के जरिए करवाया जा रहा है. अगर कोई गाना पसंद आता है, तो उस की पब्लिसिटी में काफी मोटी रकम खर्च कर दी जाती है. इतनी बार आप को वह गाना दिखाई और सुनाई देगा कि आप की जबान पर वह अपनेआप चढ़ जाएगा. गाना दिमाग में बैठ जाएगा, लिरिक्स आप के मुंह पर चढ़ जाएंगे, चाहे वह कितना भी खराब क्यों न हो. युवाओं को समझदारी रखनी है कि इन फालतू चीजों में अपना टाइम वेस्ट न करें. आप जो ये सब चीजें देख रहे हैं, बहुत सारा कंटैंट प्लांटेड तरीके से सोशल मीडिया पर फैलाया जाता है. आप इंटरनैट से सिर्फ वही खोजें जो आप के काम का है.

Hindi Story : वक्त का पहिया – सोच बदलते मातापिता की कथा

Hindi Story : ‘‘आज फिर कालेज में सेजल के साथ थी?’’ मां ने तीखी आवाज में निधि से पूछा.

‘‘ओ हो, मां, एक ही क्लास में तो हैं, बातचीत तो हो ही जाती है, अच्छी लड़की है.’’

‘‘बसबस,’’ मां ने वहीं टोक दिया, ‘‘मैं सब जानती हूं कितनी अच्छी है. कल भी एक लड़का उसे घर छोड़ने आया था, उस की मां भी उस लड़के से हंसहंस के बातें कर रही थी.’’

‘‘तो क्या हुआ?’’ निधि बोली.

‘‘अब तू हमें सिखाएगी सही क्या है?’’ मां गुस्से से बोलीं, ’’घर वालों ने इतनी छूट दे रखी है, एक दिन सिर पकड़ कर रोएंगे.’’

निधि चुपचाप अपने कमरे में चली गई. मां से बहस करने का मतलब था घर में छोटेमोटे तूफान का आना. पिताजी के आने का समय भी हो गया था. निधि ने चुप रहना ही ठीक समझा.

सेजल हमारी कालोनी में रहती है. स्मार्ट और कौन्फिडैंट.

‘‘मुझे तो अच्छी लगती है, पता नहीं मां उस के पीछे क्यों पड़ी रहती हैं,’’ निधि अपनी छोटी बहन निकिता से धीरेधीरे बात कर रही थी. परीक्षाएं सिर पर थीं. सब पढ़ाई में व्यस्त हो गए. कुछ दिनों के लिए सेजल का टौपिक भी बंद हुआ.

घरवालों द्वारा निधि के लिए लड़के की तलाश भी शुरू हो गई थी पर किसी न किसी वजह से बात बन नहीं पा रही थी. वक्त अपनी गति से चलता रहा, रिजल्ट का दिन भी आ गया. निधि 90 प्रतिशत लाई थी. घर में सब खुश थे. निधि के मातापिता सुबह की सैर करते हुए लोगों से बधाइयां बटोर रहे थे.

‘‘मैं ने कहा था न सेजल का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, सिर्फ 70 प्रतिशत लाई है,’’ निधि की मां निधि के पापा को बता रही थीं. निधि के मन में आया कि कह दे ‘मां, 70 प्रतिशत भी अच्छे नंबर हैं’ पर फिर कुछ सोच कर चुप रही.

सेजल और निधि ने एक ही कालेज में एमए में दाखिला ले लिया और दोनों एक बार फिर साथ हो गईं. एक दिन निधि के पिता आलोकनाथ बोले, ‘‘बेटी का फाइनल हो जाए फिर इस की शादी करवा देंगे.’’

‘‘हां, क्यों नहीं, पर सोचनेभर से कुछ न होगा,’’ मां बोलीं.

‘‘कोशिश तो कर ही रहा हूं. अच्छे लड़कों को तो दहेज भी अच्छा चाहिए. कितने भी कानून बन जाएं पर यह दहेज का रिवाज कभी नहीं बदलेगा.’’

निधि फाइनल ईयर में आ गई थी. अब उस के मातापिता को चिंता होने लगी थी कि इस साल निकिता भी बीए में आ जाएगी और अब तो दोनों बराबर की लगने लगी हैं. इस सोचविचार के बीच ही दरवाजे की घंटी घनघना उठी.

दरवाजा खोला तो सामने सेजल की मां खड़ी थीं, बेटी के विवाह का निमंत्रण पत्र ले कर.

निधि की मां ने अनमने ढंग से बधाई दी और घर के भीतर आने को कहा, लेकिन जरा जल्दी में हूं कह कर वे बाहर से ही चली गईं. कार्ड ले कर निधि की मां अंदर आईं और पति को कार्ड दिखाते हुए बोलीं, ‘‘मैं तो कहती ही थी, लड़की के रंगढंग ठीक नहीं, पहले से ही लड़के के साथ घूमतीफिरती थी. लड़का भी घर आताजाता था.’’

‘‘कौन लड़का?’’ निधि के पिता ने पूछा.

‘‘अरे, वही रेहान, उसी से तो हो रही है शादी.’’

निधि भी कालेज से आ गई थी. बोली, ‘‘अच्छा है मां, जोड़ी खूब जंचेगी.’’ मां भुनभुनाती हुई रसोई की तरफ चल पड़ीं.

सेजल का विवाह हो गया. निधि ने आगे पढ़ाई जारी रखी. अब तो निकिता भी कालेज में आ गई थी. ‘निधि के पापा कुछ सोचिए,’ पत्नी आएदिन आलोकनाथजी को उलाहना देतीं.

‘‘चिंता मत करो निधि की मां, कल ही दीनानाथजी से बात हुई है. एक अच्छे घर का रिश्ता बता रहे हैं, आज ही उन से बात करता हूं.’’

लड़के वालों से मिल के उन के आने का दिन तय हुआ. निधि के मातापिता आज खुश नजर आ रहे थे. मेहमानों के स्वागत की तैयारियां चल रही थीं. दीनानाथजी ठीक समय पर लड़के और उस के मातापिता को ले कर पहुंच गए. दोनों परिवारों में अच्छे से बातचीत हुई, उन की कोई डिमांड भी नहीं थी. लड़का भी स्मार्ट था, सब खुश थे. जाते हुए लड़के की मां कहने लगीं, ‘‘हम घर जा कर आपस में विचारविमर्श कर फिर आप को बताते हैं.’’

‘‘ठीक है जी,’’ निधि के मातापिता ने हाथ जोड़ कर कहा. शाम से ही फोन का इंतजार होने लगा. रात करीब 8 बजे फोन की घंटी बजी. आलोकनाथजी ने लपक कर फोन उठाया. उधर से आवाज आई, ‘‘नमस्तेजी, आप की बेटी अच्छी है और समझदार भी लेकिन कौन्फिडैंट नहीं है, हमारा बेटा एक कौन्फिडैंट लड़की चाहता है, इसलिए हम माफी चाहते हैं.’’

आलोकनाथजी के हाथ से फोन का रिसीवर छूट गया.

‘‘क्या कहा जी?’’ पत्नी भागते हुए आईं और इस से पहले कि आलोकनाथजी कुछ बताते दरवाजे की घंटी बज उठी. निधि ने दरवाजा खोला. सामने सेजल की मां हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए खड़ी थीं और बोलीं, ’’मुंह मीठा कीजिए, सेजल के बेटा हुआ है.’’

अब सोचने की बारी निधि के मातापिता की थी. ‘वक्त के साथ हमें भी बदलना चाहिए था शायद.’ दोनों पतिपत्नी एकदूसरे को देखते हुए मन ही मन शायद यही समझा रहे थे. वैसे काफी वक्त हाथ से निकल गया था लेकिन कोशिश तो की जा सकती थी.

Emotional Story : दरवाजा खोल दो मां – क्या हुआ था उस दिन सपन के साथ ?

Emotional Story : 10वीं क्लास तक स्मिता पढ़ने में बहुत तेज थी. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था, पर 10वीं के बाद उसके कदम लड़खड़ाने लगे थे. उस को पता नहीं क्यों पढ़ाईलिखाई के बजाय बाहर की दुनिया अपनी ओर खींचने लगी थी. इन्हीं सब वजहों के चलते वह पास में रहने वाली अपनी सहेली सीमा के भाई सपन के चक्कर में फंस गई थी. वह अकसर सीमा से मिलने के बहाने वहां जाती और वे दोनों खूब हंसीमजाक करते थे.

एक दिन सपन ने स्मिता से पूछा, ‘‘तुम ने कभी भूतों को देखा है?’’

‘‘तुम जो हो… तुम से भी बड़ा कोई भूत हो सकता है भला?’’ स्मिता ने हंसते हुए मजाकिया लहजे में जवाब दिया.

सपन को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी, इसलिए अपनी बात को आगे रखते हुए पूछा, ‘‘चुड़ैल से तो जरूर सामना हुआ होगा?’’

‘‘नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ है. तुम न जाने क्या बोले जा रहे हो,’’ स्मिता ने खीजते हुए कहा.

तब सपन उसे एक कमरे में ले कर गया और कहा, ‘‘मेरी बात ध्यान से सुनो…’’ कहते हुए स्मिता को कुरसी पर बैठा कर उस का हाथ उठा कर हथेली को चेहरे के सामने रखने को कहा, फिर बोला, ‘‘बीच की उंगली को गौर से देखो…’’ आगे कहा, ‘‘अब तुम्हारी उंगलियां फैल रही हैं और आंखें भारी हो रही हैं.’’

स्मिता वैसा ही करती गई और वही महसूस करने की कोशिश भी करती गई. थोड़ी देर में उस की आंखें बंद हो गईं. फिर स्मिता को एक जगह लेटने को बोला गया और वह उठ कर वहां लेट गई.

सपन ने कहा, ‘‘तुम अपने घर पर हो. एक चुड़ैल तुम्हारे पीछे पड़ी है. वह तुम्हारा खून पीना चाहती है. देखो… देखो… वह तुम्हारे नजदीक आ रही है. स्मिता, तुम डर रही हो.’’

स्मिता को सच में चुड़ैल दिखने लगी. वह बुरी तरह कांप रही थी. तभी सपन बोला, ‘‘तुम्हें क्या दिख रहा है?’’

स्मिता ने जोकुछ भी देखा या समझने की कोशिश की, वह डरतेडरते बता दिया. वह यकीन कर चुकी थी कि चुड़ैल जैसा डरावना कुछ होता है, जो उस को मारना चाहता है.

‘‘प्लीज, मुझे बचाओ. मैं मरना

नहीं चाहती,’’ कहते हुए वह जोरजोर से रोने लगी.

सपन मन ही मन बहुत खुश था. सबकुछ उस की सोच के मुताबिक चल रहा था.

सपन ने बड़े ही प्यार से कहा, ‘‘डरो नहीं, मैं हूं न. मेरे एक जानने वाले पंडित हैं. उन से बात कर के बताता हूं. ऐसा करो कि तुम 2 घंटे में मुझे यहीं मिलना.’’

‘‘ठीक है,’’ कहते हुए जैसे ही स्मिता मुड़ी, सपन ने उसे टोका, ‘‘और हां, तुम को किसी से कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है. मुझ पर यकीन रखना. सब सही होगा.’’

स्मिता घर तो आ गई, पर वे 2 घंटे बहुत ही मुश्किल से कटे. पर उसे सपन पर यकीन था कि वह कुछ न कुछ तो जरूर करेगा.

जैसे ही समय हुआ, स्मिता फौरन सपन के पास पहुंच गई.

सपन तो जैसे इंतजार ही कर रहा था. उस को देखते ही बोला, ‘‘स्मिता, काम तो हो जाएगा, पर…’’

‘‘पर क्या सपन?’’ स्मिता ने डरते हुए पूछा.

‘‘यही कि इस काम के लिए कुछ रुपए और जेवर की जरूरत पड़ेगी. पंडितजी ने खर्चा बताया है. तकरीबन 5,000 रुपए मांगे हैं. पूजा करानी होगी.’’

‘‘5,000 रुपए? अरे, मेरे पास तो 500 रुपए भी नहीं हैं और मैं जेवर कहां से लाऊंगी?’’ स्मिता ने अपनी बात रखी.

‘‘मैं नहीं जानता. मेरे पास तुम्हें चुड़ैल से बचाने का कोई दूसरा रास्ता नहीं है,’’ थोड़ी देर कुछ सोचने का दिखावा करते हुए सपन बोला, ‘‘तुम्हारी मां के जेवर होंगे न? वे ले आओ.’’

‘‘पर… कैसे? वे तो मां के पास हैं,’’ स्मिता ने कहा.

‘‘तुम्हें अपनी मां के सब जेवर मुझे ला कर देने होंगे…’’ सपन ने जोर देते हुए कहा, ‘‘अरे, डरती क्यों हो? काम होने पर वापस ले लेना.’’

स्मिता बोली, ‘‘वे मैं कैसे ला सकती हूं? उन्हें तो मां हर वक्त अपनी तिजोरी में रखती हैं.’’

‘‘मैं नहीं जानता कि तुम यह सब कैसे करोगी. लेकिन तुम को करना ही पड़ेगा. मुझे उस चुड़ैल से बचाने की पूजा करनी है, नहीं तो वह तुम्हें जान से मार देगी.

‘‘अगर तुम जेवर नहीं लाई तो बस समझ लो कि तब मैं तुम्हें जान से मार दूंगा, क्योंकि पंडित ने कहा है कि तुम्हारी जान के बदले वह चुड़ैल मेरी जान ले लेगी और मुझे अपनी जान थोड़े ही देनी है.’’

उसी शाम स्मिता ने अपनी मां से कहा, ‘‘मां, आज मैं आप का हार पहन कर देखूंगी.’’

स्मिता की मां बोलीं, ‘‘चल हट पगली कहीं की. हार पहनेगी. बड़ी तो हो जा. तेरी शादी में तुझे दे दूंगी.’’

स्मिता को रातभर नींद नहीं आई. थोड़ा सोती भी तो अजीबअजीब से सपने दिखाई देते.

अगले दिन सीमा स्मिता के पास आ कर बोली, ‘‘भैया ने जो चीज तुझ से मंगवाई थी, अब उस की जरूरत नहीं रह गई है. वे सिर्फ तुम्हें बुला रहे हैं.’’

जब स्मिता ने यह सुना तो उसे बहुत खुशी हुई. वह भागती हुई गई तो सपन उसे एक छोटी सी कोठरी में ले गया और बोला, ‘‘अब जेवर की जरूरत नहीं रही. चुड़ैल को तो मैं ने काबू में कर लिया है. चल, तुझे दिखाऊं.’’

स्मिता ने कहा, ‘‘मैं नहीं देखना चाहती.’’

सपन बोला, ‘‘तू डरती क्यों है?’’

यह कह कर उस ने स्मिता का चुंबन ले लिया. स्मिता को उस का चुंबन लेना अच्छा लगा.

थोड़ी देर बाद सपन बोला, ‘‘आज रात को जब सब सो जाएं तो बाहर के दरवाजे की कुंडी चुपचाप से खोल देना. समझ तो गई न कि मैं क्या कहना चाहता हूं? लेकिन किसी को पता न चले, नहीं तो तेरे पिताजी तेरी खाल उतार देंगे.’’

स्मिता ने एकदम से पूछा, ‘‘इस से क्या होगा?’’

सपन ने कहा, ‘‘जिस बात की तुम्हें समझ नहीं, उसे जानने से क्या होगा?’’

स्मिता ने सोचा, ‘जेवर लाने का काम बड़ा मुश्किल था. लेकिन यह काम तो फिर भी आसान है.’

‘‘अगर तू ने यह काम नहीं किया तो चुड़ैल तेरा खून पी जाएगी,’’ सपन ने एक बार फिर डराया.

तब स्मिता ने कहा, ‘‘यह तो बताओ कि दरवाजा खोलने से होगा क्या?’’

‘‘अभी नहीं कल बताऊंगा. बस तुम कुंडी खोल देना,’’ सपन ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा.

‘‘खोल दूंगी,’’ स्मिता ने चलते हुए कहा.

‘‘ठाकुरजी को हाथ में ले कर बोलो कि जैसा मैं बोल रहा हूं, तुम वही करोगी?’’ सपन ने जोर दे कर कहा.

स्मिता ने ठाकुर की मूर्ति को हाथ में ले कर कहा, ‘‘मैं दरवाजा खोल दूंगी.’’

पर सपन को तो अभी भी यकीन नहीं था. पता नहीं क्यों वह फिर से बोला, ‘‘मां की कसम है तुम्हें.

कसम खा?’’

आज न जाने क्यों स्मिता बहुत मजबूर महसूस कर रही थी. वह धीरे से बोली, ‘‘मां की कसम.’’

जब स्मिता घर गई तो उस की मां ने पूछा, ‘‘तेरा मुंह इतना लाल क्यों हो रहा है?’’

जब मां ने स्मिता को छू कर देखा तो उसे तेज बुखार था. उन्होंने स्मिता को बिस्तर पर लिटा दिया. शाम के शायद 7 बजे थे.

स्मिता के पिता पलंग पर बैठे हुए खाना खा रहे थे. स्मिता पलंग पर पड़ीपड़ी बड़बड़ाए जा रही थी.

जब स्मिता को थर्मामीटर लगाया गया, उस को 102 डिगरी बुखार था. रात के 9 बजतेबजते स्मिता की हालत बहुत खराब हो गई. फौरन डाक्टर को बुलाया गया. स्मिता को दवा दी गई.

स्मिता के पिताजी के दोस्त भी आ गए थे. स्मिता फिर भी बड़बड़ाए जा रही थी, पर उस पर किसी परिवार वाले का ध्यान नहीं जा रहा था.

स्मिता को बिस्तर पर लेटेलेटे, सिर्फ दरवाजा और उस की कुंडी ही दिखाई दे रही थी या उसे चुड़ैल का डर दिखाई दे रहा था. कभीकभी उसे सपन का भी चेहरा दिखाई पड़ता था. उसे लग रहा था, जैसे चारों लोग उसी के आसपास घूम रहे हैं और तभी वह जोर से चीखी, ‘‘मां, मुझे बचाओ.’’

‘‘क्या बात है बेटी?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘दरवाजे की कुंडी खोल दो मां. मां, तुम्हें मेरी कसम. दरवाजे की कुंडी खोल दो, नहीं तो चुड़ैल मुझे मार देगी.

‘‘मां, तुम दरवाजे को खोल दो. मां, मैं अच्छी तो हो जाऊंगी न? मां तुम्हें मेरी कसम,’’ स्मिता बड़बड़ाए जा

रही थी.

स्मिता के पिताजी ने कहा, ‘‘लगता है, लड़की बहुत डरी हुई है.’’

स्मिता की बत्तीसी भिंच गई थी. शरीर अकड़ने लगा था. यह सब स्मिता को नहीं पता चला. वह बारबार उठ कर भाग रही थी, जोरजोर से चीख रही थी, ‘‘मां, दरवाजा खोल दो. खोल दो, मां. दरवाजा खोल दो,’’ और उस के बाद वह जोरजोर से रोने लगी.

मां ने कहा, ‘‘बेटी, बात क्या है? बता तो सही? क्या सपन ने कहा है ऐसा करने को?’’

‘‘हां मां, खोल दो नहीं तो एक चुड़ैल आ कर मेरा खून पी जाएगी,’’ स्मिता ने डरी हुई आवाज में कहा.

अब उस के पिताजी के कान खड़े हो गए. उन्होंने फिर से पूछा, ‘‘साफसाफ बताओ, बात क्या है?’’

‘‘पिताजी, मुझे अपनी गोद में लिटा लीजिए, नहीं तो मैं…

‘‘पिताजी, सपन ने कहा है कि जब सब सो जाएं तो चुपके से दरवाजा खोल देना. अगर दरवाजा नहीं खोला तो चुड़ैल मेरा खून पी जाएगी.’’

वहीं ड्राइंगरूम में बैठेबैठे ही स्मिता के पिताजी ने किसी को फोन किया था. शायद पुलिस को. थोड़ी देर में कुछ पुलिस वाले सादा वरदी में एकएक कर के चुपचाप उस के मकान में आ कर दुबक गए और दरवाजे की कुंडी खोल दी गई.

रात के तकरीबन 2 बजे जब स्मिता तकरीबन बेहोशी में थी तो उसे कुछ शोर सुनाई दे रहा था. पर तभी वह बेहोश हो गई. आगे क्या हुआ ठीक से उस को मालूम नहीं. पर जब उसे होश आया तो घर वालों ने बताया कि 5 लोग पकड़े गए हैं.

सब से ज्यादा चौंकाने वाली बात यह कि इन पकड़े गए लोगों में से एक सपन और एक चोरों के गैंग का आदमी भी था जिस के ऊपर सरकारी इनाम था.

बाद में वह इनाम स्मिता को मिला. स्मिता 10 दिनों के बाद अच्छी हो गई.

अब स्मिता के अंदर इतना आत्मविश्वास पैदा हो गया था कि एक क्या वह तो कई चुड़ैलों की गरदन पकड़ कर तोड़ सकती थी.

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