दिव्या और सौरभ की दोस्ती अनुराग में बदलने लगी, तो दिव्या के शुभचिंतकों ने उसे चेताया था, ‘‘दिव्या सौरभ तक तो तुम्हारी दोस्ती ठीक है, लेकिन तुम उस की मां को नहीं जानती. वे बहुत ही सख्त और तुनकमिजाज हैं. उन के साथ तुम चार दिन भी नहीं टिक पाओगी.’’
दिव्या को मिले इस सुझाव में उस का हित कम ईर्ष्या ज्यादा दिखाई दे रही थी. सौरभ जैसे अच्छी नौकरी करने वाले सुंदर, सुशील और अच्छे चरित्र वाले लड़के को भला कौन अपना नहीं बनाना चाहेगा.
दिव्या उस से अपने रूप और गुण की समानता कर रही थी. वह चाहती थी कि उस की पसंद पर उस के मातापिता गर्व करें. उन्हें उस के भविष्य को ले कर जरा भी चिंता न हो. लोग उस की पसंद पर सहज ही ईर्ष्या करें. सौरभ को ले कर ऐसा साफ दिखाई दे रहा था.
लेकिन, सौरभ की मां को ले कर लोगों के विचार दिव्या को थोड़ा परेशान जरूर कर रहे थे. उन के इस अभिप्राय में वजूद भी था. सौरभ हमेशा अपने परिवार से जुड़ा रहा. कभी किसी तरह की चर्चा या झंझट में नहीं पड़ता था. जरा भी चिंता किए बगैर सब के सामने सच कह देता था. किसी से ज्यादा मेलमुलाकात भी नहीं रखता था.
स्वभाव से सौरभ थोड़ा सख्त था, इसलिए लोग खासकर लड़कियां उसे अंतर्मुखी और घमंडी कहती थीं, पैसे वाला होने का ताना भी मारती थीं.
लोगों ने सौरभ की मम्मी के बारे कितनी भी धारणाएं क्यों न पाली हों, पर दिव्या को ऐसा कुछ भी नहीं लगता था. लेेकिन जब उन के बारे में इस तरह की बातें कुछ ज्यादा ही सुनने को मिलने लगीं, तो दिव्या के मन में भी संदेह उपजने लगा.
तब एक दिन उस ने सौरभ से पूछ ही लिया, ‘‘सौरभ, मुझे मम्मी के बारे में जो भी बातें सुनने को मिल रही हैं, उन में कितनी सचाई है?’’
पलभर तो सौरभ दिव्या को टकटकी लगाए निहारता रहा. वह दिव्या को चाहता था, इसलिए उस के ऐसा कहने में उस के लिए न कोई हैरानी की बात थी और न अनोखी. यह बुरी लगने वाली बात भी नहीं थी.
सौरभ ने कहा, ‘‘तुम मेरी मम्मी के बारे में जो जानना चाहती हो, उस के बारे में मैं जो भी बताऊंगा, उस पर तुम्हें शायद यकीन न हो. इसलिए तुम खुद ही चल कर उन से मिल लो तो ज्यादा अच्छा रहेगा और उन्हें अच्छे से जानसमझ भी लोगी. इस तरह तुम्हारे मन में जो संदेह है, दूर हो जाएगा.’’
दिव्या असमंजस में पड़ गई. उस के सवाल पर असमंजस में तो सौरभ भी पड़ गया था. शायद इसीलिए वह ज्यादा कुछ कह नहीं सका था. लेकिन जब वह जाने लगा तो बोला, ‘‘दिव्या, मैं जब भी तुम्हें मम्मी से मिलने के लिए बुलाऊं, तुम पूरी तरह से मानसिक रूप से तैयार हो कर आना.’’
इस के बाद दिव्या उलझन में रहने लगी थी. उसे सौरभ की मां से मिलने की बात पर घबराहट सी होने लगती थी, क्योंकि वह पहली बार सौरभ की मम्मी से मिलने वाली थी.
बेटे को वश में कर लेने वाली लड़की को वे जरूर परखना चाहेंगीं. वैसे तो वे दिव्या की मां की परिचित थीं, लेकिन उस ने अपनी शुरुआती पढ़ाई गुरुकुल में की, उस के बाद फाइन आर्ट का कोर्स करने शांति निकेतन चली गई थी. इसलिए उन्होंने उसे कभी देखा नहीं था. शुभचिंतक उसे होशियार कर रहे थे कि असली कसौटी पर तो अब उसे जाना है. सौरभ की मम्मी यानी अपनी होने वाली सास की परीक्षा मेें उसे हर हाल में खरा उतरना है.
एक दिन सौरभ ने हंसीहंसी में कहा था, ‘‘दिव्या, मैं ने तो तुम्हें विशेष योग्यता वाले नंबर दे दिए हैं, लेकिन अगर मम्मी ने तुम्हें पास होने लायक नंबर भी दे दिए, तो समझो कि तुम टौप कर गई.’’
जिस तरह भगवान बुद्ध की यशोधरा गाया करती थीं, उसी तरह ‘रे मन आज परीक्षा तेरी, विनती करती मैं तुझ से बात न बिगड़े मेरी’ दिव्या भी गाती हुई, दिल पर असहनीय बोझ लिए धड़कते दिल से सौरभ के कहने पर उस के घर जा पहुंची.
यहां असहनीय शब्द का उपयोग इसलिए किया गया है, क्योंकि जब सौरभ ने दिव्या को फोन कर के आने के लिए कहा था, तो उस ने पूछा था, ‘‘मुझे शादी तुम से करनी है या तुम्हारी मां से?’’
सौरभ ने बिना किसी संकोच या झिझक के जवाब दिया था, ‘‘तुम्हें मुझ से नहीं, मेरी मां के अरमानों से शादी करनी है.’’
बस, इतना कह कर सौरभ ने फोन काट दिया था. एक बार तो दिव्या के मन में आया कि वह मना कर दे, क्योंकि वह 21वीं सदी में जीने वाली लड़की थी. उस का भी अपना अस्तित्व, महत्व, गौरव और इज्जत थी. शादी दो जवां दिलों की व्यक्तिगत संपत्ति होती है. इस में किसी अन्य को दखल देने का क्या हक है.