Supreme Court को संविधान में जो अधिकार मिले हैं वे मूलतया यह देखने को मिले हैं कि संविधान का सरकारें ढंग से पालन करती हैं, संविधान के दायरे के अंदर ही कानून बनाती हैं और जनता को ऐसे कानून या प्रशासनिक निर्णय नहीं सहने पड़ते जो संवैधानिक कानूनों या खुद संविधान के खिलाफ हों.

उम्मीद यह थी कि वोटों से चुन कर आई सरकारें जनता की तकलीफों को समझेगी और सुप्रीम कोर्ट से पहले जनता की सुनेंगी, सुप्रीम कोर्ट को दिखावटी संस्था बना देंगी. हुआ उलटा. आज सुप्रीम कोर्ट सब की सुन रही है, देरसवेर सही, और दोनों पक्षों की सुन कर फैसले देती है.

आम जनता संसद और विधानसभाओं से निकले कानूनों व सरकारी अट्टालिकाओं से लाउडस्पीकरों के जरिए थोपे फैसलों और फरमानों से ज्यादा खुश है. सुप्रीम कोर्ट सब की सुन कर फैसले देती है, जबकि सरकार बंद कमरों में फैसले करती है.

आजकल तो सरकारों ने मंत्रिमंडलों तक की सुनना बंद कर दिया है. सरकारों ने बाबुओं की फौज जमा कर ली जो अपने निजी हितों के अनुसार फैसले लेते हैं, जनता की न तो उन तक पहुंच है, न वे सुनते हैं. उन के कान केवल अंबानियों और अडानियों जैसों के लिए खुलते हैं जहां से उन को जमीनजायदादें, बच्चों के लिए विदेशी दौरे, विदेशों में सैटल होने की सुविधाएं मिल रही हैं.

इस बाबूडम को केवल सुप्रीम कोर्ट हड़का पाती है. नेताओं को तो मालूम भी नहीं होता कि सुप्रीम कोर्ट में क्या चल रहा है, कौन से सवाल पूछे जा रहे हैं, कौन से जवाब दिए जा रहे हैं. यह काम बाबुओं की फौज करती है, वही सुप्रीम कोर्ट में पेश होती है, वही अपने वकीलों को अपना पक्ष सुनाती है.

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