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हरी लाल चूड़ियां : कामवाली बाई सुन्दरी की कहानी

मेरी कामवाली बाई सुन्दरी हफ्ते में एकाध दिन तो काम से गायब ही रहती थी, मगर एक अच्छी बात उसमें थी कि जिस दिन वह नहीं आती थी, उस दिन अपनी बेटी या बहू को काम करने के लिए भेज देती थी. मेरा परिवार मेरठ शहर में नया आया था. पति सिंचाई विभाग में अधिकारी थे. सरकारी नौकरी थी. दो-तीन साल में ट्रांस्फर होता ही रहता था. पहले तो वे अकेले ही आए थे, फिर जब रहने के लिए ठीक-ठाक घर किराए पर मिल गया, तो मुझे और दोनों बच्चों को भी ले आए. बच्चे अभी छोटे थे. माधवी दो साल की थी और राहुल पांचवे साल में चल रहा था. दोनों बच्चों के साथ नए घर में सामान एडजेस्ट करना मुश्किल टास्क था. फिर झाड़ू-पोछा, बर्तन-खाना मेरे अकेले के बस की बात न थी. इसलिए नौकरानी की जरूरत तो थी ही. कई दिनों की खोजबीन के बाद पीछे की मलिन बस्ती से यह सुन्दरी मिली थी.

सुन्दरी नाम की ही सुन्दरी थी, रंग ऐसा कि छांव में खड़ी हो तो नजर ही न आए. हां, सज-संवर कर खूब रहती थी. माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी, लाल चटख सिंदूर से पूरी भरी हुई मांग, दोनों हाथों में दर्जन-दर्जन भर चूड़ियां, गले में लंबा सा मंगलसूत्र, पांव में बिछिया, पायल पूरे सोलह सिंगार के साथ काम पर आती थी. हम तो चाह कर भी सुहाग का पूरा श्रृंगार नहीं कर पाते थे. बस बिन्दी भर लगा ली. यही बहुत था.

सुन्दरी स्वभाव की नरम थी और काम में तेज. ऐसी ही उसकी बहू और बेटी भी थीं. सुन्दरी छुट्टी करती तो उसकी बेटी सुकुमारी ही ज्यादा आती थी. सुकुमारी सांवले रंग की भरी-भरी सी लड़की थी. उम्र यही कोई सत्रह-अट्ठारह बरस की होगी. सुन्दरी जितनी सजधज के साथ आती थी, उसकी बेटी सुकुमारी उतनी ही साधारण वेशभूषा में रहती थी. हल्के रंग का सलवार-कुरता, सीने पर ठीक से ओढ़ा हुआ दुपट्टा, तेल लगे बालों की कस की गुंथी हुई लंबी चोटी और श्रृंगार के नाम पर आंखों में काजल तक नहीं. सुन्दरी जितनी बकर-बकर करती थी, उसके उलट उसकी बेटी बड़े शांत स्वभाव की थी. चुपचाप पूरे घर का काम चटपट निपटा देती थी.

मैं नोटिस करती थी कि अक्सर झाड़ू-पोछा करते वक्त सुकुमारी मेरी ड्रेसिंग टेबल के शीशे के सामने चंद सेकेंड रुक कर अपने को जरूर निहारती थी. मैं उसे देखकर मन ही मन मुस्कुरा देती थी. जवान लड़की थी, मन में भविष्य के रंगीन सपने डोलते होंगे. हर लड़की के मन में इस उम्र में सपनों की तरंगें डोलती हैं. ड्रेसिंग टेबल के कोने में रखे चूड़ीदान में लटकी रंग-बिरंगी चूड़ियों की तरफ भी सुकुमारी का विशेष आकर्षण दिखता था. कभी-कभी मैं सोचती कि सुन्दरी खुद तो इतनी साज-संवार के साथ रहती थी, उसकी बहू भी पूरा श्रृंगार करके आती थी, मगर बेटी के कान में सस्ती सी बाली तक नहीं डाली थी उसने.

एक दिन मैं कमरे में पलंग पर बैठी अपनी बेटी माधवी के साथ खेल रही थी. सुकुमारी फर्श पर पोछा लगा रही थी. पोछा लगाते हुए जब वह ड्रेसिंग टेबल के सामने पहुंची तो चूड़ीदान की चूड़ियों में उसकी नजर अटक गई. मैंने हौले से उसे पुकारा, ‘सुकुमारी…’

वह अचकचा कर खड़ी हो गई, ‘जी, मेमसाब…’

‘जरा वह ड्रॉर खोलना… देखो उसमें एक डिब्बा है… निकाल कर दो…’ मैंने ड्रेसिंग टेबल की ड्रॉर की तरफ इशारा करके कहा.

वह जल्दी से डिब्बा निकाल लायी. मैंने डिब्बा उसके हाथ में रख दिया. नई चूड़ियों का डिब्बा था. मंहगी लाख की चूड़ियां थीं, हरी-लाल जड़ाऊं चूड़ियां. मैंने सोचा पहनती तो हूं नहीं, उसे ही दे दूं. जब से खरीदी हैं, यूं ही डिब्बे में बंद पड़ी हैं.

सुकुमारी ने पहले तो डिब्बा लेने में आनाकानी की, मगर मेरे इसरार पर उसने रख लिया. जाते वक्त बड़ी प्यारी मुस्कान मुझ पर और बच्चों पर डाल कर गयी. मेरे दिल को खुशी हुई. किसी के होंठों पर मुस्कान लाने की खुशी और तसल्ली.

दूसरे दिन उसकी मां सुन्दरी आयी तो उसके हाथ में चूड़ियों का वही डिब्बा था. आते ही बोली, ‘मेमसाब, ये लीजिए अपनी चूड़ियों का डिब्बा…’

मैंने हैरानी जताते हुए कहा, ‘पर ये तो मैंने कल सुकुमारी को दिया था…’

‘मेमसाब, आप ये श्रृंगार की चीजें उसको कभी मत दीजिएगा, वह बाल-विधवा है, श्रृंगार करना उसके लिए पाप है. हमारे में विधवा इन्हें छू भी ले तो नरक में जाती है…’ कह कर वह डिब्बा ड्रेसिंग टेबल पर पटकर कर अपने काम में लग गयी. मैं जड़वत् खड़ी कभी डिब्बे को निहारती तो कभी सुन्दरी को… बहुत सारे सवाल मन में घुमड़ रहे थे… उन सब पर सुन्दरी एक जवाब ठोंक कर चल दी, ‘मेमसाब, उसे जीवनभर ऐसे ही रहना है बिना श्रृंगार के… आप इत्ता मत सोचो… ये उसकी तकदीर में लिखा है… ’

और मैं सोचती रह गई, ‘उम्र ही क्या है उसकी? क्यों मार दिये उसके सपने? क्यों खत्म कर दी उसकी जिन्दगी? किसने लिखी है उसकी तकदीर…?’

आपके बेली बटन से डिस्चार्ज निकलने का क्या कारण है?

आपने कभी कभार नोटिस किया होगा की आपकी नाभी में बिना कुछ किए भी इतना मैल या फिर रूई सी कहां से आ जाती है। ऐसा वातावरण में होने वाले प्रदूषण और धूल मिट्टी के कारण होता है। अगर आप नाभी को समय से साफ नहीं करते हैं तो इसमें से एक अलग सी बदबू आने लगती है और एक डिस्चार्ज भी निकलने लगता है। अगर आप इसे ऐसे ही रहने देते हैं तो इससे कई तरह के इन्फेक्शन का खतरा भी बढ़ सकता है। इस डिस्चार्ज का रंग अलग अलग होता है जैसे यह सफेद, ब्राउन, पिला या खून जैसा हो सकता है। आइए जानते हैं इसके बारे में।

बैली बटन डिस्चार्ज के क्या कारण हैं?
बैक्टिरियल इन्फेक्शन : आपकी नाभी में बहुत सारे बैक्टीरिया इकठ्ठे हो जाते हैं और इन्हें अगर समय से ठीक नहीं किया जाए तो यह इन्फेक्शन का कारण भी बन सकते हैं। अगर आपने यहां पियर्सिंग करा रखी है तो भी इन्फेक्शन हो सकता है। यह डिस्चार्ज पीला या फिर हरे रंग का हो सकता है। इसमें कभी कभार सूजन भी आ सकती है और इसमें दर्द भी हो सकता है।

यीस्ट इन्फेक्शन : कैंडिडा एक तरह की यीस्ट होती है जो शरीर के डार्क हिस्सों में इकठ्ठी हो सकती है और इसकी वजह से आपको इन्फेक्शन हो सकता है। अगर आप नाभी को साफ नहीं रखते हैं तो यहां भी यह इन्फेक्शन हो सकता है। इसकी वजह से आपको लाल रैश हो सकते हैं और इनमें खुजली होने के साथ साथ डिस्चार्ज भी निकल सकता है।
सर्जरी : अगर आपकी हाल ही में सर्जरी हुई है खास कर पेट से जुड़ी हुई कोई सर्जरी या फिर हर्निया आदि तो भी आपको नाभी के इन्फेक्शन का रिस्क ज्यादा हो सकता है। अगर आपको नाभी से एक फ्लूड निकलता हुआ दिखता है तो आपको तुरंत डॉक्टर को बताना चाहिए क्योंकि यह इन्फेक्शन के कारण भी हो सकता है।
एपिडर्मोईड सिस्ट : यह सिस्ट शरीर में सबसे ज्यादा आम पाया जाता है। यह आपकी नाभी में भी हो सकता है। इन सिस्ट की कैविटी में केराटिन भरा हुआ होता है। इस सिस्ट के बीच में आपको एक ब्लैक हेड भी देखने को मिल सकता है। अगर यह सिस्ट इंफेक्टेड हो जाता है तो इसमें से एक फ्लूड और डिस्चार्ज निकल सकता है।

इलाज
बैली बटन के डिस्चार्ज को ठीक करने के लिए आप एंटी फंगल क्रीम या फिर पाउडर का प्रयोग कर सकते हैं। आपको हर समय अपनी नाभी को क्लीन और ड्राई रखना होगा। अगर आपको बैक्टिरियल इन्फेक्शन हो गया है तो आपके डॉक्टर आपको एंटी बायोटिक दवाई भी दे सकते हैं। अगर आपको डायबिटीज जैसी स्थिति है तो अपने डॉक्टर को जरूर बता दें क्योंकि इसके लिए आपके डॉक्टर आपको दूसरी दवाई दे सकते हैं।

अगर आपको सिस्ट है और वह ज्यादा गंभीर होता जाता है तो उसे निकालने के लिए सर्जरी का भी प्रयोग किया जा सकता है। इसके अलावा आपको भी अपने शरीर के हाइजीन का ख्याल रखना पड़ेगा। आप नाभी को रोजाना साबुन और पानी से धो सकते हैं ताकि यह हमेशा साफ और सुखी हुई रह सके।

निष्कर्ष
तो यह थे कुछ ऐसे कारण जिनकी वजह से आपकी नाभी से डिस्चार्ज निकल सकता है। हालांकि इस के पीछे की वजह जान कर इसे ठीक करना भी काफी जरूरी होता है नहीं तो इन्फेक्शन और ज्यादा बढ़ सकता है। नहाने के बाद भी रोजाना नाभी को अच्छे से साफ करें और पोंछ लें।

प्रतिष्ठा की पराजय : रमादेवी को क्यों अपनी जिद को तिलांजलि देनी पड़ी

पूरा घर ही रमादेवी को अस्तव्यस्त महसूस हो रहा है. सोफे के कुशन बिखरे हुए, दीवान की चादर एक कोने से काफी नीची खिंची हुई मुड़ीतुड़ी और फर्श पर खुशबू व पिंकू के खिलौने बिखरे हुए थे. काम वाली महरी नहीं आई, इसीलिए घर की ऐसी हालत बनी हुई थी. वैसे, उन का दिल तो चाह रहा था कि उठ कर सब कुछ व्यवस्थित कर दें, लेकिन यह घुटने का दर्द…उफ, किसी दुश्मन को भी यह बीमारी न लगे. हड़बड़ाती सी सुलभा औफिस जाने के लिए तैयार हो कर आई. सामान सहेजते हुए वह निर्देश भी देती जा रही थी, ‘‘मांजी, खुशबू को दूधभात खिला दिया है और पिंकू को दूध पिला कर सुला दिया है. उसे याद से 3-3 घंटे बाद दूध दे देना. आया आज छुट्टी पर है. सब्जी मैं ने बना दी है, फुलके बना लेना. अब मुझे समय नहीं है.’’

हवा की गति से सुलभा कमरे से बाहर चली गई और पति आलोक के साथ अपने दफ्तर की ओर रवाना हो गई. रमादेवी सबकुछ देखतीसुनती ही रह गईं. बोलने का अधिकार तो वह स्वयं ही अपनी जिद के कारण खो चुकी थीं. सच, वे कितनी बड़ी भूल कर बैठीं. अपनी झूठी शान के लिए लोगों पर प्रभाव डालने के प्रयास में उन्होंने कितना गलत निर्णय ले लिया. विचारों के भंवर में डूबतीउतराती वे पिंकू के रोने की आवाज सुन कर चौंकीं. पलंग से उतरने की प्रक्रिया में ही उन्हें 2-3 मिनट लग गए. घुटने को पकड़ कर शेष टांग को दूसरे हाथ से धीरेधीरे मलते हुए वे पैर को जमीन पर रखतीं. बहुत दर्द होता था, कभीकभी तो हलकी सी चीख भी निकल जाती. पैर घसीटते हुए वे पिंकू के पास पहुंचीं. कहना चाहती थीं, ‘अरे, राजा बेटा, इतनी जल्दी उठ गया?’ लेकिन दर्द से परेशान खीजती हुई बोल पड़ीं, ‘‘मरदूद कहीं का, जरा आराम नहीं लेने देता, सारा दिन इस की ही सेवाटहल में लगे रहो.’’

पिंकू, दादी की गोद में बैठ कर हंसनेकिलकने लगा तो रमादेवी को अपने कहे शब्दोें पर ग्लानि हो आई, ‘इस बेचारी नन्ही जान का क्या कुसूर. दोष तो मेरा ही है. मेरे ही कारण बहू अपने नन्हे बच्चों को रोता छोड़ नौकरी पर जाती है. मेरी ही तो जिद थी.’ अपनी इकलौती संतान आलोक  की रमादेवी ने बहुत अच्छी परवरिश की थी. मांबाप के प्रोत्साहन से सफलता की सीढि़यां चढ़ते हुए इंजीनियरिंग की डिगरी प्राप्त  की थी. जल्दी ही उसे एक प्रतिष्ठित कंपनी में अच्छे पद पर नौकरी मिल गई थी. आलोक की शादी के लिए रमादेवी ने जो सपने बुने थे उन में से एक यह भी था कि वह नौकरी करने वाली बहू लाएंगी. जब पति ने तर्क रखा कि उन्हें आर्थिक समस्या तो है नहीं, फिर बहू से नौकरी क्यों करवाई जाए, तो वे उत्साह से बोली थीं, ‘आप को मालूम नहीं, नौकरी करने वालों का बड़ा रोब रहता है. अपने महल्ले की सुमित्रा की बहू नौकरी करती है. सभी उसे तथा उस की सास को इतना सम्मान देते हैं मानो उन की बराबरी का हमारे महल्ले में कोई हो ही न.’

‘लेकिन उन की तो आर्थिक स्थिति कमजोर है. सुमित्रा के पति भी नहीं हैं तथा उन के बेटे की कमाई भी इतनी नहीं कि परिवार का खर्च आसानी से चलाया जा सके. मजबूरन आर्थिक सहायता के लिए उन की बहू नौकरी करती है. दोहरे कर्तव्यों के बोझ से वह बेचारी कितना थक जाती होगी. उस की कर्तव्यपरायणता के कारण ही सब उस की तारीफ करते हैं,’  पति ने समझाया था. ‘यह आप का खयाल है. मैं कुछ और ही सोचती हूं. हमारे खानदान में किसी की भी बहू नौकरीपेशा नहीं है. सोचो जरा, सभी पर हमारी धाक जमेगी कि हम कितने खुले विचारों वाले हैं, आधुनिक हैं, बहू पर कोई बंधन नहीं लगाते. इस का रोब लोगों पर पड़ेगा.’

‘तुम्हारी मति मारी गई है. लोगों पर रोब जमाने की धुन में अपने घर को कलह, तनाव का मैदान बना लें? सोचो, अगर बहू सारा दिन बाहर रहेगी तो तुम्हें उसे लाने का क्या फायदा होगा? न वह तुम्हारे साथ बैठ कर ठीक से हंसबोल सकेगी और न घर के कामों में मदद कर सकेगी,’ पति ने फिर से समझाने की कोशिश की. ‘घर के काम के लिए नौकरानी रख लेंगे. रही बात हंसनेबोलने की, तो शाम 6 बजे से रात तक क्या कम समय होता है?’

‘तुम से तो बहस करना ही व्यर्थ है’, कह कर पति चुप हो गए. आलोक के लिए लड़कियां देखने की प्रक्रिया जारी थी. रमादेवी ने कई अच्छी, शिक्षित लड़कियों को अस्वीकार कर दिया क्योंकि वे नौकरी नहीं करती थीं. आरंभ से ही घर में रमादेवी का दबदबा था, इसलिए पति व पुत्र उन के हर प्रस्ताव को मानने में ही अपनी खैर समझते थे. संयोग से जीवन बीमा कंपनी में कार्यरत सुलभा सभी को पसंद आ गई. रमादेवी को तो मानो मुंहमांगी मुराद मिल गई. खूबसूरत, कुलीन घर की बेटी और फिर अच्छी नौकरी पर लगी हुई. आननफानन बात पक्की कर दी गई. खूब धूमधाम से शादी हुई. सुलभा ने महीनेभर की छुट्टियां ली थीं. नवदंपती शादी के बाद 15 दिनों के लिए मधुमास मनाने पहाड़ों पर चले गए.

घर लौटने पर एक दिन रमादेवी ने कहा, ‘सुलभा, पहली तारीख से तुम अपनी ड्यूटी शुरू कर लो,’ उन के आदेश से सभी चौंक गए. सभी का विचार था, वे अपनी जिद भूल चुकी होंगी, लेकिन उन का सोचना गलत निकला. ‘मांजी, आप को तकलीफ होगी. मैं सवेरे 10 बजे से शाम 6 बजे तक बाहर रहूंगी. घर का सारा काम…आप के अब आराम के दिन हैं. मैं आप की सेवा करना चाहती हूं,’ पति के सुझाए विचार सुलभा ने व्यक्त कर दिए. आलोक व पिता ने सोचा, अब रमादेवी अपनी जिद छोड़ निर्णय बदल लेंगी लेकिन जब उन्होंने उन का उत्तर सुना तो मन मार कर रह गए. वे बोलीं, ‘बहू, तुम मेरी तकलीफ की चिंता मत करो. मैं घर के सारे कार्यों के लिए नौकरानी का प्रबंध कर लूंगी. तुम बेफिक्र हो कर नौकरी करो. आजकल तो अच्छी नौकरी प्रतिष्ठा का प्रतीक है. हमारा भी तो मान बढ़ेगा.’

सभी को हथियार डालने पड़े थे. सुलभा पूर्ववत नौकरी पर जाने लगी थी. ‘सुलभा, कमाल है. इतने संपन्न घराने में ब्याह होने के बाद भी तुझे नौकरी की जरूरत है, समझ नहीं आता,’ औफिस में एक दिन वीणा ने कहा. ‘हां भई, अब तो नौकरी का चक्कर छोड़ो और अपने मियां तथा सासससुर की सेवा करो. इकलौती बहू हो,’ कल्पना ने भी मजाक किया. जब सुलभा ने उन्हें असलियत बताई तो वे हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताकने लगीं कि अजीब सनकी सास है. लेकिन प्रत्यक्ष में वीणा बोली, ‘हाय सुलभा, तेरी सास तो बड़ी दिलेर है, जो सारी जिम्मेदारियां स्वयं उठा कर तुझे 8 घंटे के लिए आजाद कर देती है.’

‘हां, इस के तो मजे हैं…न खाना बनाना, न घर के कामों की चखचख. शान से औफिस आओ और घरवालों पर रोब जमाओ.’ लेकिन सुलभा को उन की बातों से कोई प्रसन्नता नहीं हुई. न चाहते हुए भी उसे मजबूरी में यह नौकरी करनी पड़ रही थी. शाम को थकहार कर जब वह लौटती तो दिल करता कि कुछ देर पलंग पर लेट कर आराम करे लेकिन संकोच के मारे ऐसा न कर पाती कि सास, पति क्या सोचेंगे? शादी से पहले वक्त काटने के लिए वह नौकरी करती थी. घर लौटते ही मां चाय की प्याली व कुछ नाश्ते से उस की दिनभर की थकान दूर कर देती थीं. कुछ देर आराम करने के पश्चात वह किसी भी सहेली के घर गपशप  के लिए चली जाती थी. मां ही सारी रसोई संभालती थी. लेकिन मायके तथा ससुराल के रीतिरिवाजों, कार्यप्रणाली वगैरा में काफी फर्क होता है, यहां तो 8 बजे ही रात का खाना भी खा लिया जाता था, सो रसोई में मदद करना जरूरी था.

शादी से पहले सुलभा का विचार था कि संपन्न घराने में तो उस से नौकरी करवाने का प्रश्न ही नहीं उठेगा. फिर वह अपने सारे शौक पूरे करेगी, घर को अपनी पसंद के अनुसार सजाएगी, बगीचे को संवारेगी, अपने चित्रकारी के शौक को उभारेगी. पति व सासससुर की सेवा करेगी. एक आदर्श पत्नी और बहू बन कर रहेगी. लेकिन यहां तो उसे किसी भी शौक को पूरा करने का समय ही नहीं मिलता था, फिर धीरेधीरे नौकरी की मजबूरी एक आदत सी बनती चली गई. खुशबू के जन्म के समय कंपनी की

ओर से 3 महीने की छुट्टियां मिली थीं, सुलभा का जी चाहता रहा कि मांजी कहें, ‘अब नौकरी को छोड़ो अपनी गृहस्थी को संभालो.’ लेकिन उस की आस दिल में ही रह गई, जब रमादेवी ने घोषणा की, ‘खुशबू के लिए आया का प्रबंध कर दिया है, वैसे मैं भी सारा दिन उस के पास ही रहूंगी.’ दिन सरकते गए. बेशक खुशबू  के लिए आया रखी गई थी, लेकिन उसे संभालती तो रमादेवी स्वयं ही थीं. आया तो उसे नहलाधुला, दूध पिला, घर का ऊपरी काम कर देती थी.

पोती को हर समय उठाए रमादेवी इधरउधर डोलती रहतीं. महल्ले में घूमघूम कर सब पर रोब डालतीं, ‘मेरी बहू तो हर पहली को 2 हजार रुपए मेरे हाथों में सौंप देती है. हम ने तो उसे बेटी की तरह पूरी सुखसुविधाएं और आजादी दे रखी है. आखिर बहू भी किसी की बेटी होती है. हम भी उसे क्यों न बेटी मानें?’ खुशबू के नामकरण के अवसर पर एक बड़ी पार्टी का आयोजन किया गया था, जिस में शहर के प्रतिष्ठित लोगों के साथसाथ समाज, बिरादरी, महल्ले के तथा सुलभा के सहकर्मियों को भी आमंत्रित किया गया. रमादेवी समारोह में पूरी तरह से इस प्रयास में लगी रहीं कि उन की बहू की अच्छी नौकरी से अधिकाधिक लोग प्रभावित हों और उन का रोब बढ़े. सुलभा अब नौकरीपेशा जीवन की अभ्यस्त हो गई थी, बल्कि अब उसे नौकरी करना अच्छा लगने लगा था, क्योंकि सुबहशाम खाने का पूरा काम मांजी व आया मिल कर कर लेती थीं. घर लौटने पर चाय पी कर वह खुशबू के साथ मन बहलाव करती. उसे दुलारती, तोतली भाषा में उस से बतियाती, अपनी ममता उस पर लुटाती. घर में खुशबू एक खिलौना थी, जिस से सारे सदस्य अपना मन बहलाते.

2 वर्ष पश्चात पिंकू का जन्म हुआ तो जैसे घर दोगुनी खुशियों से आलोकित हो उठा. रमादेवी तो जैसे निहाल हो उठीं. पहले पोती और अब पोता, उन की मनोकामनाएं पूर्ण हो गई थीं. जैसे संसारभर की खुशियां सिमट कर उन के दामन में आ गई हों. सुलभा के औफिस जाने पर अब वे पोते को गोद में ले कर, खुशबू की उंगली पकड़ घूमतीं. उन्हें खिलातीपिलातीं, बतियातीं. कुछ उम्र का तकाजा और कुछ शारीरिक थकान, अधिक काम की वजह से अब रमादेवी जल्दी थकने लगीं. एक दिन दोनों बच्चों को लिए सीढि़यां उतर रही थीं कि पैर फिसल गया. यह तो गनीमत रही कि बच्चों को ज्यादा चोट नहीं आई, लेकिन उस दिन से उन के घुटने का दर्द ठीक नहीं हुआ. हर तरह की दवा ली, मालिश की, सेंक किया, लेकिन दर्द बना ही रहा. अब तो बच्चों को संभालना भी मुश्किल सा हो गया. आया आती तो थी लेकिन अपनी मनमरजी से ही कार्य करती थी. कभी पिंकू भूख से बिलबिलाता तो दूध ही नदारद होता. कभी खुशबू की खिचड़ी की मांग होती और आया आगे दलिया रख छुट्टी कर जाती. बच्चे चीखतेचिल्लाते तो रमादेवी स्वयं उठ कर उन्हें खिलाना चाहतीं लेकिन घुटने के दर्द से कराह कर फिर बैठ जातीं.

जिस दिन घर के काम के लिए महरी भी न आती उस दिन तो पूरा घर ही अस्तव्यस्त हो जाता. आया तो मुश्किल से बच्चों का ही काम निबटाती थी. उस की मिन्नतें कर के थोड़ाबहुत काम वे करवा लेतीं. शेष तो सुलभा को ही करना पड़ता. रमादेवी अब अकसर सोचतीं, ‘बहू बेचारी भी क्याक्या करे. दफ्तर संभाले, बच्चों की देखरेख या नौकरी करे?’ रमादेवी ने सोचा, अगर पति या बेटा कहे अथवा बहू खुद ही नौकरी छोड़ने की बात करे तो वे फौरन तैयार हो जाएंगी. लेकिन कोई इस प्रश्न को उठाता ही नहीं. शायद उन की परीक्षा ले रहे हैं या उन की जिद, झूठी प्रतिष्ठा का परिणाम उन्हें दिखाना चाहते थे. अब उन्हें स्वयं की भूल महसूस हो रही थीं. सुलभा के बच्चों की परवरिश ठीक ढंग से नहीं हो रही है, यह भी वे समझ रही थीं. मां के होते भी बच्चे उस का पूरा स्नेह, दुलार नहीं पा रहे थे. उस के औफिस से लौटने पर पिंकू अकसर सोया हुआ मिलता. खुशबू भी आया के साथ कहीं घुमने या बगीचे में गई होती. यह तो एक तरह से अन्याय था. बच्चों के प्रति मां को अपने कर्तव्यों से विमुख कराना अपराध ही तो था.

नहीं, अब और अन्याय वे नहीं होने देंगी. उन की तानाशाही के कारण ही सभी सदस्य चुपचाप अपने मानसिक तनावों में ही जबरन घुटघुट कर जी रहे हैं. उन के सामने कोई कुछ नहीं प्रकट करता, लेकिन वे इतने समय तक कैसे नहीं समझ पाईं? अचानक औफिस से लौटती सुलभा का कुम्हलाया चेहरा आंखों के सामने घूम गया. बेचारी को व्यर्थ ही नौकरी के जंजाल में फंसा दिया. यही तो उस के हंसनेखेलने के दिन हैं, लेकिन उन्होंने उसे बेकार के मानसिक तनावों में उलझा दिया. रमादेवी ने निर्णय ले लिया कि अब वे अपनी झूठी प्रतिष्ठा, रोबदाब को तिलांजलि देंगी. शाम सुलभा के औफिस से लौटने पर कह देंगी, ‘अब अपना घर, बच्चे संभालो. नौकरी की कोई आवश्यकता नहीं है.’ उन के निर्णय से सभी को आश्चर्य तो होगा ही, साथ ही शायद सभी सोचेंगे, वे हार गई हैं, उन का निर्णय गलत था. लेकिन इस हार से उन्हें कोई अफसोस या ग्लानि नहीं होगी, क्योंकि इस हार से सभी को लाभ होगा, उन्हें खुद भी.

गठबंधन रिश्तों का

विश्वास रिश्तों में एक डोर की तरह होता है. आपसी विश्वास उतना ही मजबूत होना चाहिए जितना कि एक गठबंधन. जब हम किसी पर विश्वास करते हैं या कोई हम पर विश्वास करता है तो उस में पूरी ईमानदारी होनी चाहिए. 
ऐसे न जाने कितने किस्से हैं जो हमें बताते हैं कि किसी पर आंख मूंद कर कैसे भरोसा कर सकते हैं. और ऐसे किस्सों की भी कमी नहीं है जब  आप किसी के सामने अपना कलेजा निकाल कर रख दें तो भी उसे विश्वास नहीं होता कि आप वाकई उस के विश्वासपात्र हैं. वह आप पर हमेशा अविश्वास करता है.
आंख मूंद कर न करें विश्वास
किसी पर अंधविश्वास और किसी पर किसी हाल में विश्वास न होना ‘स्टेट औफ माइंड’ की करामात है यानी यह एक मनोदशा है और यह मनोदशा विश्वास से पैदा होती है और विश्वासघात से टूटती है. एक बार विश्वास बन जाए तो लोग आंख मूंद कर भरोसा करते हैं और एक बार किसी पर से विश्वास टूट जाए तो उस पर कभी भरोसा नहीं होता. 
दरअसल, विश्वास का धागा टूट जाने पर अगर उसे दोबारा जोड़ भी दिया जाए तो उस में गांठ तो पड़ ही जाती है. इसलिए प्यार में, आपसी संबंधों में और दांपत्य जीवन में आपसी विश्वास को कभी न टूटने दें क्योंकि एक बार आपसी विश्वास टूटा तो वह कभी नहीं जुड़ता. यदि जुड़ भी गया तो गांठ पड़ ही जाती है और रिश्तों में पहले जैसी मधुरतानहीं रहती.
विश्वास एकतरफा नहीं होता. पतिपत्नी के आपसी संबंधों का मामला हो, दोस्त से दोस्ती का मामला हो, प्रेमिका या प्रेमी से प्रेम का मामला हो, हर जगह आपसी विश्वास का आधार दोनों तरफ से होता है. संबंध कोई भी हो, उस की मजबूती पूरी तरह से विश्वास पर आधारित होती है, चाहे मामला दोस्त का हो, जीस्त का हो या जीवनसाथी का. जीवन का हर पहलू आपसी विश्वास से रचापगा होता है.
हद तो यह है कि आपसी विश्वास की जरूरत वहां भी पड़ती है जहां हम यह जान भी नहीं रहे होते कि यहां आपसी विश्वास की क्या उपयोगिता है. हम सफर कर रहे होते हैं और सफर में अपने पड़ोसी यात्री के साथ आपसी विश्वास का रिश्ता बनाते हैं. अगर यह खरा उतरता है यानी आप के उतरने तक पड़ोसी यात्री के साथ आप का आपसी विश्वास मजबूत रहता है तो कई बार सफर के ऐसे रिश्ते ताउम्र के रिश्ते बन जाते हैं और बिछड़ जाने के बाद भी दोस्तीयारी कायम रहती है.
विश्वास की डोर
आपसी विश्वास की ही डोर हमारे और पड़ोसी के बीच भी बंधी होती है. अगर हमारा आपसी विश्वास डगमगा जाता है तो फिर हम आह भर कर यही कहते हैं, ‘हम पड़ोसी चुन नहीं सकते.’ विश्वास शीशे की तरह नाजुक होता है जिस पर जरा सी चोट का प्रभाव काफी गहरा होता है. लेकिन विश्वास की डोर की मजबूती भी इस कदर होती है कि वक्त का बड़े से बड़ा तूफान भी इस को तोड़ नहीं पाता.
बरतें ईमानदारी
आपसी विश्वास न तो होशियारी से बनता है न समझदारी से. यह ईमानदारी से बनता है. यह सहजता से विकसित होता है. अगर आप किसी के प्रति ईमानदाराना झुकाव रखते हैं तो आप को कभी बताने की जरूरत नहीं पड़ती. उस के साथ आप के सहज विश्वासपूर्ण रिश्ते बन जाते हैं. लेकिन आपसी विश्वास को सजगता से भी विकसित किया जा सकता है. मगर इस के लिए सतत रूप से प्रयासरत व ईमानदार रहना होगा. बातबात पर शकशुबहे, गलतफहमियां, हिचकिचाहट संबंधों पर इस कदर हावी न हों कि आपसी विश्वास को दृढ़ बनाने, फलनेफूलने के लिए मौका ही न मिले. दरअसल, आपसी विश्वास बड़ी मेहनत और मशक्कत से हासिल किया जाता है. इसे पोषित करने में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. विश्वास को मजबूती देने के लिए धैर्य और समर्पण की जरूरत होती है. तभी रिश्तों का गठबंधन जीवनपर्यंत चलता है.
शीशे की तरह नाजुक
किसी के साथ आपसी विश्वास को मजबूत करने के लिए जरूरी नहीं है कि उस पर आप अपना ही नजरिया थोपें. साथी, हमसफर या पड़ोसी के साथ बेहतर आपसी संबंध बनाने का एक जरिया यह भी है कि उस के नजरिए को तवज्जुह दें. भले आप उस से सहमत न हों फिर भी उस की काट यों न करें कि उसे वह अपना अपमान समझे. हां, अपने नजरिए को साफतौर पर व्यक्त करें और यह संदेश देने की भी कोशिश करें कि आप उस के नजरिए से अपने तर्कों के चलते सहमत नहीं हैं. लेकिन व्यक्तिगत रूप से आप उस के प्रति न कटु विचार रखते हैं और न ही कोई निजी पूर्वाग्रह. इस से आप का प्रतिद्वंद्वी भी प्रभावित होगा. आप के नजरिए को समझेगा व अपने नजरिए की खामी को ईमानदारी से देखेगा और अगर वाकई उसे लगता है कि आप सही हैं तो वह आप के नजरिए को स्वीकार भी करेगा और आपसी रिश्तों को बनाने में सहयोग देगा.
संतुष्टि और सम्मान जरूरी
किसी के साथ संबंधों के मामले में आत्मसंतुष्टि का रवैया अपनाएं. क्योंकि एक आत्मसंतुष्ट व्यक्ति न केवल अपने प्रति ईमानदार होता है बल्कि अपने साथी की शारीरिक, मानसिक जरूरतों को भी समझने का जज्बा रखता है. आत्मसंतुष्टि के भाव से ही आपसी विश्वास का भाव मजबूत होगा, विशेषकर दांपत्य जीवन में मधुर और सार्थक संबंध आपसी विश्वास की बदौलत ही अधिक मजबूती से टिके होते हैं.
आपसी विश्वास मजबूत करने का एक जरिया यह भी है कि अपने सारे अहं त्याग कर पूर्ण समर्पण की भावना को अपने अंदर मजबूत करें. एकदूसरे के प्रति सम्मानभाव आपसी विश्वास को बढ़ाता है. अपनेआप में विश्वास भी आपसी संबंधों को मजबूती देता है. स्वयं को दूसरों के प्यार के काबिल समझना भी अपने प्रति एक बड़ा सम्मान है. संबंधों के विविध आयामों में निरंतरता द्वारा ही संबंधों की डोर को मजबूती मिलती है.

तेहरान के कसाई का दर्दनाक अंत

ईरान के राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी का हैलिकौप्टर क्रैश में निधन हो गया. वे 63 साल के थे. अजरबैजान से सटी सीमा पर एक डैम का उद्घाटन करने के बाद लौटते समय उन का हैलिकौप्टर 19 मई की शाम करीब 7 बजे खराब मौसम के चलते लापता हो गया था. हैलिकौप्टर में इब्राहिम रईसी, विदेश मंत्री होसैन अमीर अब्दुल्लाहियन समेत पायलट और को-पायलट के साथ क्रू चीफ, हेड औफ सिक्योरिटी और बौडीगार्ड भी सवार थे. हैलिकौप्टर में मौजूद सभी 9 लोग मारे गए.

राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की मौत पर जहां कुछ देशों ने अफसोस जाहिर किया तो कई बहुत खुश हैं. इजराइल के कई यहूदी धर्मगुरुओं ने रईसी की मौत पर सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की है. उन में से एक यहूदी धर्मगुरु मीर अबूतबुल ने राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी को ‘तेहरान का जल्लाद’ कहते हुए अपनी फेसबुक पोस्ट में आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया. अबुतबुल लिखते हैं, ‘वो यहूदियों को सूली पर लटकाना चाहता था, इसलिए ईश्वर ने एक हैलिकौप्टर क्रैश में उस के और इजराइल से नफरत करने वाले उस के सभी साथियों को सजा दी.’ अबुतबुल ने लिखा कि रईसी को ईश्वर का दंड मिला है.

राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की हैलिकौप्टर हादसे में मौत पर सब से ज्यादा जश्न ईरान के कुर्दिस्तान इलाके में मनाया जा रहा है. वहां साकेज शहर में लोग आतिशबाजी कर के रईसी की मौत का जश्न मना रहे हैं. साकेज ईरान में हिजाब के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का चेहरा बनी मेहसा अमीनी का गृहनगर है. मेहसा अमीनी वह 22 साल की कुर्द लड़की जिस में जीवन जीने की चाह थी, मगर वह खुद को किसी के आदेश पर सिर से पांव तक लबादे में ढंक कर नहीं रखना चाहती थी.

आजादखयाल की मेहसा अमीनी ईरान की रूढ़िवादी सोच का शिकार हुई और मार डाली गई. मेहसा ने ईरान में हिजाब के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा लिया था, जिस के चलते वह ईरान की मोरल पुलिस के निशाने पर आ गई थी. बिना हिजाब के बाहर निकलने पर रईसी की मोरल पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और बेरहमी से उस की पिटाई की. इतनी बेरहमी से की कि अमीनी ने अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया. सिर्फ 22 साल की मेहसा अमीनी के लिए ईरान ही नहीं, बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी लोगों ने अपनी आवाज उठाई. मेहसा अमीनी के शहर में ईरान के राष्ट्रपति रईसी के खिलाफ लोगों में काफी गुस्सा है, जो अब रईसी की मौत के बाद सामने आ रहा है.

दरअसल, धार्मिक रूढ़िवादिता से ग्रस्त, खुद को और खुद के धर्म को ही श्रेष्ठ समझने वाले लाखों इंसानों की मौत के जिम्मेदार तानाशाहों की मौतों पर मानवता अफसोस करने के बजाय संतोष का अनुभव करती है. बेनिटो मुसोलिनी, एडोल्फ हिटलर, जोसेफ स्टालिन, माओ त्से तुंग, मुअम्मर गद्दाफी, सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाहों का अंत दर्दनाक हुआ और दुनिया ने संतोष की सांस ली.

दुनिया में कई देश हैं जहां धर्म के अंधे तानाशाह लगातार मानवता का खून बहा रहे हैं और दुनिया उन के अंत का इंतजार कर रही है. उन्हें कभी भी किसी अच्छे काम के लिए याद नहीं किया जाएगा. जब भी उन की तसवीर सामने आएगी, वे मासूमों की लाशों के ढेर पर अट्ठास करते दिखाए जाएंगे. इस में शक नहीं कि इब्राहिम रईसी भी एक रूढ़िवादी अत्याचारी नेता था. उस का अति रूढ़िवादी इतिहास रहा है और वह अत्याचार के गंभीर आरोपों से घिरा रहा है. दुनिया उसे तेहरान के कसाई के नाम से जानती है.

इब्राहिम रईसी ने राष्ट्रपति बनने से पहले ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्लाह अली खामेनाई के अधीन न्यायपालिका के अंदर विभिन्न पदों पर काम किया. 1988 में ईरानइराक युद्ध के अंत में वे उस समिति का हिस्सा थे जिस ने हजारों राजनीतिक कैदियों को मौत की सजा सुनाई.

साल 1988 में राजनीतिक विरोधियों को खत्म करने के लिए ईरान में 4 सदस्यीय कमेटी का गठन किया था. इन 4 सदस्यों में इब्राहिम रईसी भी शामिल थे. इस कमेटी को ईरान में अनौपचारिक रूप से ‘डेथ कमेटी’ भी कहा गया. इस समयावधि में राजनीतिक कैदियों को फांसी देने का सिलसिला चला, जिस में, एक अनुमान के मुताबिक, करीब 5,000 राजनीतिक विरोधियों को फांसी दी गई, इन में स्त्री, पुरुष और बच्चे तक शामिल थे.

मारे गए लोगों में अधिकांश लोग ईरान के पीपुल्स मुजाहिदीन संगठन के समर्थक थे. फांसी के बाद इन सभी को अज्ञात सामूहिक कब्रों में दफना दिया गया. मानवाधिकार कार्यकर्ता इस घटना को मानवता के विरुद्ध अपराध बताते हैं. हजारों की संख्या में लोगों को मौत के घाट उतारने के कारण इब्राहिम रईसी को ‘तेहरान का कसाई’ कहा जाने लगा. इब्राहिम रईसी की क्रूरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हिटलर की तरह उन्होंने मासूम बच्चों तक को फांसी का हुक्म सुनाया और प्रमुख मानवाधिकार वकीलों को कैद की सजा दी, जिस के चलते अमेरिका ने रईसी पर 2019 से प्रतिबंध लगाया था.

हालांकि, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ईरान के राष्ट्रपति डा. सैयद इब्राहिम रईसी की मौत पर शोक जताया है. सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में उन्होंने लिखा है–“ईरान के राष्ट्रपति डा. सैयद इब्राहिम रईसी के दुखद निधन से गहरा दुख और सदमा लगा है. भारतईरान के द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने में उन के योगदान को हमेशा याद किया जाएगा. उन के परिवार और ईरान के लोगों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदना. दुख की इस घड़ी में भारत ईरान के साथ खड़ा है.”

इब्राहिम रईसी की छवि हमेशा एक कट्टरपंथी और तानाशाह नेता की रही है. भारत में भी बीते 10 सालों में धार्मिक कट्टरता बढ़ी है. यहां भी देश को तानाशाही की तरफ धकेलने के प्रयास बहुत तेजी से हो रहे हैं. इसलिए रईसी की मौत से भारत के शासक को झटका लगना स्वाभाविक है. मगर एकडेढ़ दशक पीछे चले जाएं तो तानाशाही की शुरुआत से पहले भारत और ईरान का रिश्ता काफी अच्छा रहा है. दोनों काफी सालों से बिजनैस करते रहे हैं. ईरान भारत को कच्चा तेल देता रहा है.

वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान भारतईरान व्यापार 13.13 अरब डौलर का था, जिस में 8.95 अरब डौलर का भारतीय इंपोर्ट शामिल था और उस में 4 अरब डौलर से ज्यादा का कच्चे तेल का आयात था. हालांकि, साल 2019-20 में ईरान के साथ भारत के व्यापार में तेज गिरावट देखने को मिली थी. विशेष रूप से क्रूड औयल का आयात 2018-19 में 13.53 अरब डौलर की तुलना में घट कर महज 1.4 अरब डौलर रह गया था. भारत ने 2018-19 में लगभग 23.5 मिलियन टन ईरानी कच्चे तेल का आयात किया था.

भारत ईरान से कच्चे तेल के अलावा सूखे मेवे, रसायन और कांच के बरतन भी खरीदता है. वहीं, भारत की ओर से ईरान को निर्यात किए जाने वाले प्रमुख सामान में बासमती चावल शामिल है. वित्त वर्ष 2014-15 से ईरान भारतीय बासमती चावल का दूसरा सब से बड़ा आयातक देश रहा है और वित्त वर्ष 2022-23 में 998,879 मीट्रिक टन भारतीय चावल खरीदा था. बासमती चावल के अलावा इंडिया ईरान को चाय, कौफी और चीनी का भी निर्यात करता है.

इब्राहिम रईसी की मौत से भारत और ईरान के ट्रेड बिजनैस पर कोई असर नहीं देखने को मिलेगा. उस का बड़ा कारण यह है कि भारत और ईरान का रिश्ता काफी पुराना है. हाल ही में रईसी के वक्त चाबहार डील भी हुई है. कहा जाता है कि ईरान काफी समय से भारत के साथ चाबहार डील करना चाह रहा था. इसलिए इस पर भी कोई खास असर नहीं देखने को मिलेगा. हालांकि अगर मिडिल ईस्ट में इस घटना को ले कर टैंशन होती है तब बिजनैस पर थोड़ा असर देखने को मिलेगा और चाबहार के मैनेजमैंट और औपरेशन का काम थोड़ा पिछड़ सकता है.

तानाशाहों को मिलती हैं दर्दनाक मौतें

जरमन का तानाशाह एडोल्फ हिटलर अपनी जाति-धर्म को दुनिया में सब से श्रेष्ठ समझता था. उस ने लिखा– “जरमन रेस सभी जातियों से श्रेष्ठ है, इसलिए उन्हें ही विश्व का नेतृत्व करना चाहिए.” फासिस्ट विचारधारा उग्र राष्ट्रवाद के समर्थक हिटलर के मन में साम्यवादियों और यहूदियों के प्रति घृणा थी.

एडोल्फ हिटलर 20वीं सदी का सब से क्रूर तानाशाह था. 1933 में हिटलर जब जरमनी की सत्ता पर काबिज हुआ, उस ने 6 साल में करीब 60 लाख यहूदियों की हत्या गैस चैंबर्स में डाल कर बड़े क्रूर तरीके से की. इन में 15 लाख तो सिर्फ बच्चे थे. मगर पूरी दुनिया में मौत का तांडव कर चुका हिटलर सोवियत सेनाओं से घिरने के बाद अंत में अपनी हार से इतना टूटा कि बर्लिन में जमीन से 50 फुट नीचे बने बंकर में अपनी प्रेमिका के साथ कई दिनों तक छिप कर रहने के बाद एक दिन उस ने गोली मार कर अपनी प्रेमिका इवा ब्राउन के साथ आत्महत्या कर ली. आत्महत्या करने से कुछ घंटे पहले ही अपनी प्रेमिका ईवा ब्राउन से शादी की थी.

29 अप्रैल, 1945. रविवार की सुबह, 4 बजे थे. इटली के मिलान शहर में भारी सन्नाटा था. एक पीले रंग का लकड़ी का ट्रक शहर के सब से मशहूर चौक ‘पियाजाले लोरेटो’ पर आ कर रुका. खाकी वरदी में 10 सिपाही एक दूसरी वैन से निकल कर ट्रक के पीछे चढ़े. उन्होंने ट्रक से कुछ भारी सामान निकाल कर चौक पर बने गोल चक्कर के अंदर फेंका. आसपड़ोस के जो लोग वहां थे, उन्हें अंधेरे में कुछ समझ नहीं आया. जब सिपाही चले गए तो सामान को करीब से जा कर देखा. पता लगा ये 18 लाशें थीं. इटली में उस समय लाशें देखना कोई बड़ी बात नहीं थी. होती भी कैसे, दूसरा विश्व युद्ध जो चल रहा था और इटली इस में सक्रिय भूमिका में था. लेकिन इन लोगों की आंखें तब खुलीं रह गईं जब इन की नजर इन में से एक लाश पर गई. लाश थी उस तानाशाह की जिस ने इन लोगों पर 21 वर्षों तक शासन किया था- तानाशाह बेनिटो मुसोलिनी. एक बौडी उस की प्रेमिका क्लारेटा पेटाची की भी थी. 16 अन्य लाशें मुसोलिनी के करीबी सैनिकों की थीं.

सुबह 7 बजे तक चौक पर 5 हजार लोगों की भीड़ इकठ्ठा हो गई. भीड़ गुस्से में थी, नारे लगा रही थी, देखते ही देखते लाशों को पत्थर मारे जाने लगे. भीड़ में से 2 लोग मुसोलिनी की लाश के पास गए और उस के जबड़े में जोर से लात मारी. एक महिला ने अपनी पिस्टल को लोड किया और मुसोलिनी के शव पर एक के बाद एक 5 गोलियां मार दीं और बोली, ‘बेटों की मौत का बदला आज पूरा हुआ.’ 1935 में मुसोलिनी ने उस के 5 बेटों को विद्रोही करार दे कर मरवा दिया था.

अमेरिकी इतिहासकार ब्लेन टेलर लिखते हैं कि इस के बाद नारे लगाती भीड़ में से एक महिला चाबुक ले कर मुसोलिनी के पास जाती है. उस पर तड़ातड़ चाबुक चलाती है. इतनी तेज कि मुसोलिनी की एक आंख बाहर निकल आती है. एक आदमी मुसोलिनी के मुंह में मरा हुआ चूहा डालता है और बारबार चीखता है, ‘डूचे तुझे लैक्चर देने का बहुत शौक है, अब दे लैक्चर.’ बता दें कि इटली के लोग बेनिटो मुसोलिनी को डूचे भी कहा करते थे.

तभी एक 6 फुट का आदमी मुसोलिनी की लाश को पकड़ कर हवा में उठाता है. तभी भीड़ से आवाज आती है- और ऊंचा, और ऊंचा. फिर कुछ लोग आगे आते हैं और मुसोलिनी को सड़क के किनारे लगे एक स्टैंड पर उलटा लटका देते हैं. उस की प्रेमिका क्लारेटा के शव को भी उलटा लटकाया जाता है. लोगों ने उस की लाश पर अपना गुस्सा उतारा. उन पर पत्थर मारे, जूते और कोड़े मारे. तानाशाहों का अंत भयावह तरीके से ही होता है.

इराक के राष्ट्रपति रहे सद्दाम हुसैन को भी दुनिया ‘तानाशाह’ कह कर बुलाती है. ऐसा तानाशाह जिस ने जम कर कत्लेआम मचाया. 1980 का समय था, ईरान में इसलामिक क्रांति शुरू हो गई थी. इस क्रांति को कमजोर करने के लिए इराक ने पश्चिमी ईरान में सेना उतार दी और शुरू हुआ इराकईरान युद्ध. इसी बीच, जुलाई 1982 में सद्दाम हुसैन पर एक आत्मघाती हमला हुआ. इस में सद्दाम हुसैन बच तो गए लेकिन इस के बाद उस ने कत्लेआम मचा दिया. सद्दाम हुसैन ने शियाबहुल दुजैल गांव में 148 लोगों की हत्या करवा दी. ईरान के साथ इराक ने 8 वर्षों तक युद्ध लड़ा. इस युद्ध में लाखों लोगों की जानें गईं. 1988 में दोनों देशों के बीच युद्धविराम हुआ.

सद्दाम हुसैन की कहानी हेल बजा नरसंहार का जिक्र किए बिना अधूरी है. ईरानइराक युद्ध के दौरान ही यह नरसंहार हुआ था. हेल बजा इराकी शहर था जिस की सीमा ईरान से सटी हुई थी. यहां कुर्द लोग रहते थे. सद्दाम हुसैन को इन से नफरत थी. मार्च 1988 से ही हेला बजा में इराकी सेना तबाही मचाने लगी थी. उसी दौरान हेला बजा शहर पर कैमिकल अटैक हुआ. इस हमले में लोग बच न जाएं, इसलिए 2 दिनों पहले से इराकी सेना ने इतने बम बरसाए कि लोगों के घरों के खिड़कीदरवाजे टूट जाएं. उन के पास ऐसा कुछ न बचे जिस की आड़ में वे अपनी जान बचा सकें.

यह कैमिकल हमला इतना खतरनाक था कि यह शहर लाशों का शहर बन गया और जो बच गए वो बीमारियों की फैक्ट्री बन गए. कैमिकल अटैक के लिए हेला बजा चुनने की 2 वजहें थीं. पहली यह कि यहां कुर्द लोग रहते थे, दूसरी यह कि जब ईरानी सेना इराक में घुसी तो हेला बजा के कुर्दों ने उन का स्वागत किया. कैमिकल अटैक कर सद्दाम हुसैन को यह बताना था कि बगावत का अंजाम क्या होता है.

2003 में अमेरिका और ब्रिटेन की संयुक्त सेना ने इराक पर हमला कर सद्दाम को गिरफ्तार किया. उस वक्त वह एक बंकर में छिपा हुआ था और इसी के साथ इराक में तानाशाह सद्दाम के शासन का अंत हो गया. सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने बगदाद में फांसी पर लटकाया.

चीन का तानाशाह माओत्से तुंग लेनिन और कार्ल मार्क्स का प्रशंसक था. उस ने लेनिनवादी और मार्क्सवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़ कर एक नया सिद्धांत दिया, जिसे ‘माओवाद’ कहा जाता है. चीन की क्रांति को कामयाब बनाने के पीछे माओत्से तुंग का हाथ रहा. चीन में ‘माओ’ को क्रांतिकारी, राजनीतिक विचारक और कम्युनिस्ट दल का सब से बड़ा नेता माना गया. चीन का यह तानाशाह अपने विरोधियों को पसंद नहीं करता था. जो कोई भी उस का विरोध करता था उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था. मानवाधिकारों के हनन और चीन के लोगों पर उस के विनाशकारी नतीजों के लिए उस की नीतियों की आलोचना होती है. हालांकि, इस के बावजूद चीनी समाज और वहां की राजनीति पर माओ के प्रभाव को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है.

माओ 20वीं सदी के 100 सब से ज्यादा प्रभावशाली लोगों में शामिल था. उस ने जमीन और फसलों को ले कर कई तरह की योजनाएं शुरू कीं. छोटे कृषि समूहों का तेजी से बड़े सरमाएदार लोगों के समुदायों में विलय कर दिया. बहुत से किसानों को बड़े पैमाने पर इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के साथ ही लोहे और स्टील के उत्पादन पर काम करने का आदेश दिया. निजी खाद्यान उत्पादन पर पाबंदी लगा दी, जानवरों और खेती के उपकरणों को सरकारी संपत्ति घोषित कर दिया.

माओ की योजनाएं चीन के लिए घातक साबित हुईं. साथ ही, प्राकृतिक आपदाओं का असर इतना बढ़ा कि चीन में इतिहास का सब से बड़ा अकाल पड़ा. इस में 1958 से 1962 के बीच 4 साल के दौरान एक करोड़ से ज्यादा लोगों मौत के मुंह में समां गए. एक करोड़ से ज्यादा लोगों के मर जाने के बावजूद माओ के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत किसी में नहीं थी. वह इतना ताकतवर था कि जो कोई भी उस का विरोध करने की हिम्मत करता, उसे जीवनभर के लिए जेल में डाल दिया जाता था.

माओ ने मीडिया पर ऐसा शिकंजा कसा था कि चीन का मीडिया आज तक उस शिकंजे से बाहर नहीं निकल पाया है. बाद में चीन के मीडिया की हालत यह हो गई थी कि जब साल 1976 में माओ की मौत के बाद देंग शियाओ पिंग ने चीन की सत्ता संभाली तो किसी को कानोंकान खबर तक न हुई.

अरमान आनंद की एक कविता है- ‘तानाशाह’. वे लिखते हैं-

तानाशाह

आदतन अमर होना चाहता है
और यह तब तक चाहता है
जब तक वह मर नहीं जाता
तानाशाह को डर हथियारों से नहीं लगता
तानाशाह को सब से ज्यादा डर
भीड़ में खड़े उस आखिरी आदमी के विचारों से लगता है
जिस के मुंह में इंकलाब बंद है
वही आखिरी आदमी उस का पहला निशाना है
लो,
मेरी खोपड़ी से निकाल लो मेरा दिमाग
शहर की जिस भी गली से गुजरता दिखे तानाशाह का टैंक
उस टैंक के नीचे डाल देना
मेरा यकीन है :

तानाशाह के चीथड़े उड़ जाएंगे.

दीप जल उठे : आखिर क्यों प्रतिमा की सासु मां उसे बहू नहीं बेटी मानने लगींं

दफ्तर से आतेआते रात के 8 बज गए थे. घर में घुसते ही प्रतिमा के बिगड़ते तेवर देख श्रवण भांप गया कि जरूर आज घर में कुछ हुआ है वरना मुसकरा कर स्वागत करने वाली का चेहरा उतरा न होता.

सारे दिन महल्ले में होने वाली गतिविधियों की रिपोर्ट जब तक मुझे सुना न देती उसे चैन नहीं मिलता था. जलपान के साथसाथ बतरस पान भी करना पड़ता था. अखबार पढ़े बिना पासपड़ोस के सुखदुख के समाचार मिल जाते थे. शायद देरी से आने के कारण ही प्रतिमा का मूड बिगड़ा हुआ है.

प्रतिमा से माफी मांगते हुए बोला, ‘‘सौरी, मैं तुम्हें फोन नहीं कर पाया. महीने का अंतिम दिन होने के कारण बैंक में ज्यादा काम था.’’

‘‘तुम्हारी देरी का कारण मैं समझ सकती हूं, पर मैं इस कारण दुखी नहीं हूं,’’ प्रतिमा बोली.

‘‘फिर हमें भी तो बताओ इस चांद से मुखड़े पर चिंता की कालिमा क्यों?’’ श्रवण ने पूछा.

‘‘दोपहर को अमेरिका से बड़ी भाभी का फोन आया था कि कल माताजी हमारे पास पहुंच रही हैं,’’ प्रतिमा चिंतित होते हुए बोली.

‘‘इस में इतना उदास व चिंतित होने कि क्या बात है? उन का अपना घर है वे जब चाहें आ सकती हैं.’’ श्रवण हैरानी से बोला.

‘‘आप नहीं समझ रहे. अमेरिका में मांजी का मन नहीं लगा. अब वे हमारे ही साथ रहना चाहती हैं.’’ प्रतिमा ने कहा.

‘‘अरे मेरी चंद्रमुखी, अच्छा है न, घर में रौनक बढ़ेगी, बरतनों की उठापटक रहेगी, एकता कपूर के सीरियलों की चर्चा तुम मुझ से न कर के मां से कर सकोगी. सासबहू मिल कर महल्ले की चर्चाओं में बढ़चढ़ कर भाग लेना,’’ श्रवण चटखारे लेते हुए बोला.

‘‘तुम्हें मजाक सूझ रहा है और मेरी जान सूख रही है,’’ प्रतिमा बोली.

‘‘चिंता तो मुझे होनी चाहिए, तुम सासबहू के शीतयुद्ध में मुझे शहीद होना पड़ता है. मेरी स्थिति चक्की के 2 पाटों के बीच में पिसने वाली हो जाती है. न मां को कुछ कह सकता हूं, न तुम्हें.’’

कुछ सोचते हुए श्रवण फिर बोला, ‘‘मैं तुम्हें कुछ टिप्स देना चाहता हूं. यदि तुम उन्हें अपनाओगी तो तुम्हारी सारी परेशानियां एक झटके में उड़नछू हो जाएंगी.’’

‘‘यदि ऐसा है तो आप जो कहेंगे मैं करूंगी. मैं चाहती हूं मांजी खुश रहें. आप को याद है पिछली बार छोटी सी बात से मांजी नाराज हो गई थीं.’’

‘‘देखो प्रतिमा, जब तक पिताजी जीवित थे तब तक हमें उन की कोई चिंता नहीं

थी. जब से वे अकेली हो गई हैं उन का स्वभाव बदल गया है. उन में असुरक्षा की भावना ने घर कर लिया है. अब तुम ही बताओ, जिस घर में उन का एकछत्र राज था वो अब नहीं रहा. बेटों को तो बहुओं ने छीन लिया. जिस घर को तिनकातिनका जोड़ कर मां ने अपने हाथों से संवारा, उसे पिताजी के जाने के बाद बंद करना पड़ा.

‘‘उन्हें कभी अमेरिका तो कभी यहां हमारे पास आ कर रहना पड़ता है. वे खुद को बंधन में महसूस करती हैं. इसलिए हमें कुछ ऐसा करना चाहिए जिस में उन्हें अपनापन लगे. उन को हम से पैसा नहीं चाहिए. उन के लिए तो पिताजी की पैंशन ही बहुत है. उन्हें खुश रखने के लिए तुम्हें थोड़ी सी समझदारी दिखानी होगी, चाहे नाटकीयता से ही सही,’’ श्रवण प्रतिमा को समझाते हुए बोला.

‘‘आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करने को तैयार हूं,’’ प्रतिमा ने आश्वासन दिया.

‘‘तो सुनो प्रतिमा, हमारे बुजुर्गों में एक ‘अहं’ नाम का प्राणी होता है. यदि किसी वजह से उसे चोट पहुंचती है, तो पारिवारिक वातावरण प्रदूषित हो जाता है यानी परिवार में तनाव अपना स्थान ले लेता है. इसलिए हमें ध्यान रखना होगा कि मां के अहं को चोट न लगे बस… फिर देखो…’’ श्रवण बोला.

‘‘इस का उपाय भी बता दीजिए आप,’’ प्रतिमा ने उत्सुकता से पूछा.

‘‘हां… हां… क्यों नहीं, सब से पहले तो जब मां आए तो सिर पर पल्लू रख कर चरणस्पर्श कर लेना. रात को सोते समय कुछ देर उन के पास बैठ कर हाथपांव दबा देना. सुबह उठ कर चरणस्पर्श के साथ प्रणाम कर देना,’’ श्रवण ने समझाया.

‘‘यदि मांजी इस तरह से खुश होती हैं, तो यह कोई कठिन काम नहीं है,’’ प्रतिमा ने कहा.

‘‘एक बात और, कोई भी काम करने से पहले मां से एक बार पूछ लेना. होगा तो वही जो मैं चाहूंगा. जो बात मनवानी हो उस बात के विपरीत कहना, क्योंकि घर के बुजुर्ग लोग अपना महत्त्व जताने के लिए अपनी बात मनवाना चाहते हैं. हर बात में ‘जी मांजी’ का मंत्र जपती रहना. फिर देखना मां की चहेती बहू बनते देर नहीं लगेगी,’’ श्रवण ने अपने तर्कों से प्रतिमा को समझाया.

‘‘आप देखना, इस बार मैं मां को शिकायत का कोई मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘बस… बस… उन को ऐसा लगे जैसे घर में उन की ही चलती है. तुम मेरा इशारा समझ जाना. आखिर मां तो मेरी ही है. मैं जानता हूं उन्हें क्या चाहिए,’’ कहते हुए श्रवण सोने के लिए चला गया.

प्रतिमा ने सुबह जल्दी उठ कर मांजी के कमरे की अच्छी तरह सफाई करवा दी. साथ ही उन की जरूरत की सभी चीजें भी वहां रख दीं.

हम दोनों समय पर एयरपोर्ट पहुंच गए. हमें देखते ही मांजी की आंखें खुशी से चमक उठीं. सिर ढक कर प्रतिमा ने मां के पैर छुए तो मां ने सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया.

पोते को न देख कर मां ने पूछा, ‘‘अरे तुम मेरे गुड्डू को नहीं लाए?’’

‘‘मांजी वह सो रहा था.’’ प्रतिमा बोली.

‘‘बहू… आजकल बच्चों को नौकरों के भरोसे छोड़ने का समय नहीं है. आएदिन अखबारों में छपता रहता है,’’ मांजी ने समझाते हुए कहा.

‘‘जी मांजी, आगे से ध्यान रखूंगी,’’ प्रतिमा ने मांजी को आश्वासन दिया.

रास्ते भर भैयाभाभी व बच्चों की बातें होती रहीं.

घर पहुंच कर मां ने देखा जिस कमरे में उन का सामान रखा गया है उस में उन की

जरूरत का सारा सामान कायदे से रखा था. 4 वर्षीय पोता गुड्डू दौड़ता हुआ आया और दादी के पांव छू कर गले लग गया.

‘‘मांजी, आप पहले फ्रैश हो लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं,’’ कहते हुए प्रतिमा किचन की ओर चली गई.

रात के खाने में सब्जी मां से पूछ कर बनाई गई.

खाना खातेखाते श्रवण बोला, ‘‘प्रतिमा कल आलू के परांठे बनाना, पर मां से सीख लेना तुम बहुत मोटे बनाती हो,’’ प्रतिमा की आंखों में आंखें डाल कर श्रवण बोला.

‘‘ठीक है, मांजी से पूछ कर ही बनाऊंगी.’’ प्रतिमा बोली.

मांजी के कमरे की सफाई भी प्रतिमा कामवाली से न करवा कर खुद करती थी, क्योंकि पिछली बार कामवाली से कोई चीज छू गई थी, तो मांजी ने पूरा घर सिर पर उठा लिया था.

अगले दिन औफिस जाते समय श्रवण को एक फाइल न मिलने के कारण वह बारबार प्रतिमा को आवाज लगा रहा था. प्रतिमा थी कि सुन कर भी अनसुना कर मां के कमरे में काम करती रही. तभी मांजी बोलीं, ‘‘बहू तू जा, श्रवण क्या कह रहा सुन ले.’’

‘‘जी मांजी.’’

दोपहर के समय मांजी ने तेल मालिश के लिए शीशी खोली तो प्रतिमा ने शीशी हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मांजी मैं लगाती हूं.’’

‘‘बहू रहने दे. तुझे घर के और भी बहुत काम हैं, थक जाएगी.’’

‘‘नहीं मांजी, काम तो बाद में भी होते रहेंगे. तेल लगातेलगाते प्रतिमा बोली, ‘‘मांजी, आप अपने समय में कितनी सुंदर दिखती होंगी और आप के बाल तो और भी सुंदर दिखते होंगे, जो अब भी कितने सुंदर और मुलायम हैं.’’

‘‘अरे नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, हां तुम्हारे बाबूजी जरूर कभीकभी छेड़ दिया करते थे. कहते थे कि यदि मैं तुम्हारे कालेज में होता तो तुम्हें भगा ले जाता.’’ बात करतेकरते उन के मुख की लालिमा बता रही थी जैसे वे अपने अतीत में पहुंच गई हैं.

प्रतिमा ने चुटकी लेते हुए मांजी को फिर छेड़ा, ‘‘मांजी गुड्डू के पापा बताते हैं कि आप नानाजी के घर भी कभीकभी ही जाती थीं, बाबूजी का मन आप के बिना लगता ही नहीं था. क्या ऐसा ही था मांजी?’’

‘‘चल हट… शरारती कहीं की… कैसी बातें करती है… देख गुड्डू स्कूल से आता होगा,’’ बनावटी गुस्सा दिखाते हुए मांजी नवयौवना की तरह शरमा गईं. शाम को प्रतिमा को सब्जी काटते देख मांजी बोलीं, ‘‘बहू तुम कुछ और काम कर लो, सब्जी मैं काट देती हूं.’’

मांजी रसोईघर में गईं तो प्रतिमा ने मनुहार करते हुए कहा, ‘‘मांजी, मुझे भरवां शिमलामिर्च की सब्जी बनानी नहीं आती, आप सिखा देंगी? ये कहते हैं, जो स्वाद मां के हाथ के बने खाने में है, वह तुम्हारे में नहीं.’’

‘‘हां… हां… क्यों नहीं, मुझे मसाले दे मैं बना देती हूं. धीरेधीरे रसोई की जिम्मेदारी मां ने अपने ऊपर ले ली थी. और तो और गुड्डू की मालिश करना, उसे नहलाना, उसे खिलानापिलाना सब मांजी ने संभाल लिया. अब प्रतिमा को गुड्डू को पढ़ाने के लिए बहुत समय मिलने लगा. इस तरह प्रतिमा के सिर से काम का भार कम हो गया था.’’

साथसाथ घर का वातावरण भी खुशनुमा रहने लगा. श्रवण को प्रतिमा के साथ कहीं घूमने जाना होता तो वह यही कहती कि मां से पूछ लो, मैं उन के बिना नहीं जाऊंगी. एक दिन पिक्चर देखने का मूड बना. औफिस से आते हुए श्रवण 2 पास ले आया. जब प्रतिमा को चलने के लिए कहा तो वह झट से ऊंचे स्वर में बोल पड़ी, ‘‘मांजी चलेंगी तो मैं चलूंगी अन्यथा नहीं.’’ वह जानती थी कि मां को पिक्चर देखने में कोई रुचि नहीं है. उन की तूतू, मैंमैं सुन कर मांजी बोलीं, ‘‘बहू, क्यों जिद कर रही हो? श्रवण का मन है तो चली जा. गुड्डू को मैं देख लूंगी.’’ मांजी ने शांत स्वर में कहा.

‘अंधा क्या चाहे दो आंखें’ वे दोनों पिक्चर देख कर वापस आए तो उन्हें खाना तैयार मिला. मांजी को पता था श्रवण को कटहल पसंद है, इसलिए फ्रिज से कटहल निकाल कर बना दिया. चपातियां बनाने के लिए प्रतिमा ने गैस जलाई तो मांजी बोलीं, ‘‘प्रतिमा तुम खाना लगा लो रोटियां मैं सेंकती हूं.’’

‘‘नहीं मांजी, आप थक गई होंगी, आप बैठिए, मैं गरमगरम रोटियां बना कर लाती हूं.’’ प्रतिमा बोली. ‘‘सभी एकसाथ बैठ कर खाएंगे, तुम बना लो प्रतिमा,’’ श्रवण बोला.

एकसाथ सभी को खाना खाते देख मांजी की आंखें नम हो गईं. श्रवण ने पूछा तो मां बोलीं, ‘‘आज तुम्हारे बाबूजी की याद आ गई. आज वे होते तो तुम सब को देख कर बहुत खुश होते.’’

‘‘मां मन दुखी मत करो,’’ श्रवण बोला.

प्रतिमा की ओर देख कर श्रवण बोला, ‘‘कटहल की सब्जी ऐसे बनती है. सच में मां… बहुत दिनों बाद इतनी स्वादिष्ठ सब्जी खाई है. मां से कुछ सीख लो प्रतिमा…’’

‘‘मांजी सच में सब्जी बहुत स्वादिष्ठ है… मुझे भी सिखाना…’’

‘‘बहू… खाना तो तुम भी स्वादिष्ठ बनाती हो.’’

‘‘नहीं मांजी, जो स्वाद आप के हाथ के बनाए खाने में है वह मेरे में कहां?’’ प्रतिमा बोली.

श्रवण को दीवाली पर बोनस के पैसे मिले तो देने के लिए उस ने प्रतिमा को आवाज लगाई. प्रतिमा ने आ कर कहा, ‘‘मांजी को ही दीजिए न…’’ श्रवण ने लिफाफा मां के हाथ में रख दिया. मांजी लिफाफे को उलटपलट कर देखते हुए रोमांचित हो उठीं. आज वे खुद को घर की बुजुर्ग व सम्मानित सदस्य अनुभव कर रही थीं. श्रवण व प्रतिमा जानते थे कि मां को पैसों से कुछ लेनादेना नहीं है. न ही उन की कोई विशेष जरूरतें थीं. बस उन्हें तो अपना मानसम्मान चाहिए था.

अब घर में कोई भी खर्चा होता या कहीं जाना होता तो प्रतिमा मां से जरूर पूछती. मांजी भी उसे कहीं घूमने जाने के लिए मना नहीं करतीं. अब हर समय मां के मुख से प्रतिमा की प्रशंसा के फूल ही झरते. दीवाली पर घर की सफाई करतेकरते प्रतिमा स्टूल से जैसे ही नीचे गिरी तो उस के पांव में मोच आ गई. मां ने उसे उठाया और पकड़ कर पलंग पर बैठा कर पांव में मरहम लगाया और गरम पट्टी बांध कर उसे आराम करने को कहा.

यह सब देख कर श्रवण बोला, ‘‘मां मैं ने तो सुना था बहू सेवा करती है सास की, पर यहां तो उलटी गंगा बह रही है.’’

‘‘चुप कर, ज्यादा बकबक मत कर, प्रतिमा मेरी बेटी जैसी है. क्या मैं इस का ध्यान नहीं रख सकती,’’ प्यार से डांटते हुए मां बोली.

‘‘मांजी, बेटी जैसी नहीं, बल्कि बेटी कहो. मैं आप की बेटी ही तो हूं.’’ प्रतिमा की बात सुनते ही मांजी ने उस के सिर पर हाथ रखा और बोलीं, ‘‘तुम सही कह रही हो बहू, तुम ने बेटी की कमी पूरी कर दी.’’

घर में होता वही जो श्रवण चाहता, पर एक बार मां की अनुमति जरूर ली जाती. बेटा चाहे कुछ भी कह दे, पर बहू की छोटी सी भूल भी सास को सहन नहीं होती. इस से सास को अपना अपमान लगता है. यह हमारी परंपरा सी बन चुकी है. जो धीरेधीरे खत्म भी हो रही है. मांजी को थोड़ा सा मानसम्मान देने के बदले में उसे अच्छी बहू का दर्जा व बेटी का स्नेह मिलेगा, इस की तो उस ने कल्पना ही नहीं कीथी. प्रतिमा के घर में हर समय प्यार का, खुशी का वातावरण रहने लगा. दीवाली नजदीक आ गई थी. मां व प्रतिमा ने मिल कर पकवान बनाए. लगता है इस बार की दीवाली एक विशेष दीवाली रहेगी, सोचतेसोचते श्रवण बिस्तर पर लेटा ही था कि अमेरिका से भैया का फोन आ गया. उन्होंने मां के स्वास्थ्य के बारे में पूछा और बताया कि इस बार मां उन के पास से नाराज हो कर गई हैं. तब से मन बहुत विचलित है.

यह तो हम सभी जानते हैं कि नंदिनी भाभी और मां के विचार कभी नहीं मिले, पर अमेरिका में भी उन का झगड़ा होगा, इस की तो कल्पना भी नहीं की थी. भैया ने बताया कि वे माफी मांग कर प्रायश्चित करना चाहते हैं अन्यथा हमेशा उन के मन में एक ज्वाला सी दहकती रहेगी. आगे उन्होंने जो बताया वह सुन कर तो मैं खुशी से उछल ही पड़ा. बस अब 2 दिन का इंतजार था, क्योंकि 2 दिन बाद दीवाली थी.

इस बार दीवाली पर प्रतिमा ने घर कुछ विशेष प्रकार से सजाया था. मुझे उत्साहित देख कर प्रतिमा ने पूछा, ‘‘क्या बात है, आप बहुत खुश नजर आ रहे हैं?’’

अपनी खुशी को छिपाते हुए मैं ने कहा, ‘‘तुम सासबहू का प्यार हमेशा ऐसे ही बना रहे बस… इसलिए खुश हूं.’’

‘‘नजर मत लगा देना हमारे प्यार को,’’ प्रतिमा खुश होते हुए बोली. दीवाली वाले दिन मां ने अपने बक्से की चाबी देते हुए कहा, ‘‘बहू लाल रंग का एक डब्बा है उसे ले आ.’’ प्रतिमा ने जी मांजी कह कर डब्बा ला कर दे दिया. मां ने डब्बा खोला और उस में से खानदानी हार निकाला.  हार प्रतिमा को देते हुए बोलीं, ‘‘लो बहू,

ये हमारा खानदानी हार है, इसे संभालो. दीवाली इसे पहन कर मनाओ, तुम्हारे पिताजी की यही इच्छा थी.’’  हार देते हुए मां की आंखें खुशी से नम हो गईं.

प्रतिमा ने हार ले कर माथे से लगाया और मां के पैर छू कर आशीर्वाद लिया. मुझे बारबार घड़ी की ओर देखते हुए प्रतिमा ने पूछा तो मैं ने टाल दिया. दीप जलाने की तैयारी हो रही थी तभी मां ने आवाज लगा कर कहा, ‘‘श्रवण जल्दी आओ, गुड्डू के साथ फुलझडि़यां भी तो चलानी हैं. मैं साढ़े सात बजने का इंतजार कर रहा था, तभी बाहर टैक्सी रुकने की आवाज आई. मैं समझ गया मेरे इंतजार की घडि़यां खत्म हो गईं.

मैं ने अनजान बनते हुए कहा, ‘‘चलो मां सैलिब्रेशन शुरू करें.’’

‘‘हां… हां… चलो, प्रतिमा… आवाज लगाते हुए कुरसी से उठने लगीं तो नंदिनी भाभी ने मां के चरणस्पर्श किए… आदत के अनुसार मां के मुख से आशीर्वाद की झड़ी लग गई, सिर पर हाथ रखे बोले ही जा रही थीं… खुश रहो, आनंद करो… आदिआदि.’’

भाभी जैसे ही पांव छू कर उठीं तो मां आश्चर्य से देखती रह गईं. आश्चर्य  के कारण पलक झपकाना ही भूल गईं. हैरानी से मां ने एक बार भैया की ओर एक बार मेरी ओर देखा. तभी भैया ने मां के पैर छुए तो खुश हो कर भाभी के साथसाथ मुझे व प्रतिमा को भी गले लगा लिया. मां ने भैयाभाभी की आंखों को पढ़ लिया था. पुन: आशीर्वचन देते हुए दीवाली की शुभकामनाएं दीं मां की आंखों में खुशी की चमक देख कर लग रहा था दीवाली के शुभ अवसर पर अन्य दीपों के साथ मां के हृदयरूपी दीप भी जल उठे. जिन की ज्योति ने सारे घर को जगमग कर दिया.

पत्नी की खूबसूरती के कारण मुझे चिढ़ होने लगी है, क्या करूं?

सवाल

मेरी पत्नी काफी खूबसूरत है और जब भी कोई हमारे घर आता है तो वह मेरी पत्नी की खूबसूरती की तारीफ किए बिना नहीं रह पाता. मुझे पत्नी से चिढ़ होने लगी है, क्योंकि उस के कारण कोई मेरी तरफ देखता भी नहीं है. समझ नहीं आ रहा है कि मेरी सोच सही है या नहीं?

जवाब

आप को तो खुश होना चाहिए था कि आप की वाइफ इतनी खूबसूरत है. असल में ऐसी भावना मन में तब आती है जब दोनों में से एक कम खूबसूरत होता है और हम उसे देख कर बस, यही सोचते हैं कि काश, हम भी इतने खूबसूरत होते कि सैंटर औफ अट्रैक्शन बन पाते. लेकिन आप को यह समझना होगा कि यह सब कुदरत का दिया हुआ होता है जिस पर हमारा बस नहीं चलता. इसलिए इसे पौजिटिव लेते हुए खुशी से जिएं.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

बच्चों की तुनकमिजाजी का हश्र

पिंटू बेंगलुरु में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था. उस के मांबाप ने उस को ले कर बड़ेबड़े सपने देखे थे. बेटा इंजीनियर बनेगा. परिवार और गांव का नाम रोशन करेगा. सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि पिंटू के भाई की हत्या कर दी गई. भाई की हत्या की खबर सुन कर वह घर आया. क्रियाकर्म होने के बाद पिंटू वापस बेंगलुरु नहीं जाने की जिद करने लगा. घर वालों ने उसे समझायाबुझाया लेकिन वह पढ़ाई करने के लिए जाने को तैयार ही नहीं हुआ. वह बस यही रट लगाता रहा कि उसे अपने बड़े भाई की हत्या का बदला लेना है.

इंजीनियर बनने का सपना देखने वाला पिंटू बदले की आग में जलने लगा और फिर एक दिन उस ने अपने भाई के हत्यारे की हत्या कर डाली. हत्या के आरोप में उसे जेल हो गई. पिंटू बताता है कि जेल में रहने के दौरान उस की जानपहचान कई अपराधियों से हुई. उसे लगा कि अब वह जेल से छूट ही नहीं पाएगा और उस की जिंदगी जेल में ही गुजर जाएगी. क्योंकि उस के पिता बब्बन सिंह ने गुस्से में कह दिया था कि वे उस का केस नहीं लड़ेंगे और न ही जमानत की कोशिश करेंगे. अपनी जिंदगी और कैरियर के बरबाद होने का दर्द अब पिंटू को महसूस हो रहा है. वह कहता है कि अगर वह कानून पर भरोसा कर अपने भाई के हत्यारे को सजा दिलाने के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देता तो कुछ और ही नतीजा होता. हत्यारे को सजा होती और उस की जिंदगी चौपट न होती.

पिंटू ने बताया कि जेल में अपराधियों से दोस्ती होने के साथ कई तरह के अपराधों की प्लानिंग होने लगी. उस ने छोटेछोटे अपराधियों का गैंग बना लिया. छोटीमोटी लूट, चोरी, डकैती आदि के मामलों के अपराधी जेल के अंदरबाहर होते रहते हैं. पिंटू बचपन से ही पढ़ाई में अच्छा था और उस की अंगरेजी बहुत अच्छी थी, इस वजह से जेल में बंद कैदी उस की काफी इज्जत करते थे और उस की बातों को सुनते थे. जेल में ही अपराधियों का गिरोह बना कर उस ने अपहरण और रंगदारी वसूली का काम चालू कर दिया. हत्या के साथसाथ अब उस के माथे पर बड़ीबड़ी कंपनियों से रंगदारी वसूलने के आरोप भी लग चुके हैं.

पिंटू के पिता ने भले ही गुस्से में उसे जेल से छुड़ाने की कोशिश न करने की धमकी दी हो पर समय के साथ उन का दिल पसीजा और उन्होंने उस का केस लड़ने के लिए वकील कर लिया. पिछले 4 सालों से पुलिस थाना, कचहरी और वकील के घर के चक्कर लगा कर थक चुके 65 साल के बब्बन बताते हैं कि अगर पिंटू उन की बात मान कर इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए बेंगलुरु लौट जाता तो उन के बुढ़ापे को थाना और कचहरी के जंजाल में नहीं फंसना पड़ता. एक बेटे की तो हत्या हो गई और दूसरे ने जीतेजी मौत से भी बदतर जिंदगी चुन ली.

जेल में बंद पिंटू जो कुछ भी झेल रहा है वह उस के बुरे कामों का नतीजा है, लेकिन पिंटू के बूढ़े पिता और घरपरिवार वाले अपने गांव, रिश्तेदारों व दोस्तों के सामने रोज जिल्लत व अपमान झेल रहे हैं. पिंटू का छोटा भाई संटू कहता है कि गांव में उस का रहना दूभर हो गया है. जहां भी जाओ, लोग फब्तियां कसते हैं, क्रिमिनल का भाई कहते हैं. पिताजी की जिंदगी का एक ही मकसद रह गया है, पिंटू का केस लड़ना. हर डेट को वे कचहरी में हाजिरी लगाते हैं. वहां उन की पिंटू से भेंट हो जाती है. वे बेटे को दिलासा देते हैं, समझाते हैं पर उन सब का पिंटू पर कोई असर नहीं होता है. जेल में वह ठाट से रह कर अपराध को अंजाम दे रहा है. उसी को अब उस ने अपना जीवन मान लिया है.

बच्चों में धैर्य की कमी

आज बच्चों की तुनकमिजाजी आम होती जा रही है. जरा सा उन के मन मुताबिक काम नहीं हुआ तो उन का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचता है. कोई लड़की प्यार में धोखा खा कर गले में दुपट्टा बांध कर पंखे से लटक जाती है तो कोई लड़का इम्तिहान में कम नंबर लाने की वजह से पिता से डांट खाने के बाद किसी पुल से नदी में छलांग लगा देता है. मांबाप ने प्रेमिका से विवाह की मंजूरी नहीं दी तो कोई अपार्टमैंट की छत से कूद कर जान दे देता है तो कोई लड़का महंगे मोबाइल फोन को पाने के लिए अपने ही दोस्त की जान ले लेता है. किसी बच्चे को अपने साथी का ज्यादा नंबरों से पास होने पर इतना गुस्सा आता है कि उसे मार कर अपने रास्ते से ही हटा डालता है.

इस तरह की ढेरों वारदातें हमारे आसपास घटित हो रही हैं. खेलने और पढ़ने की उम्र में बातबेबात किसी की जान लेने व खुदकुशी करने की वारदातें इतनी तेजी से बढ़ रही हैं कि हर परिवार भय के माहौल में जीने लगा है. पता नहीं कब किस बात पर उन का बच्चा कोई गलत कदम उठा ले. मासूमों में आखिर इतना गुस्सा कैसे बढ़ गया है कि वे जान लेने या जान देने में जरा भी नहीं हिचकते?

आज के दौर में हम तकनीकी तौर पर भले ही मजबूत हो गए हैं पर बरदाश्त करने और धैर्य रखने की ताकत काफी कम होती जा रही है. समाजविज्ञानी अजय मिश्रा कहते हैं कि आसानी से किसी चीज को हासिल करने, जरा सा विरोध व डांट को प्रेस्टिज इश्यू बना लेने और समझौता करने की मानसिकता में कमी आने की वजह से ही मासूम गुस्सैल और अपराधी बनते जा रहे हैं. कोई भी गलत कदम उठने पर बदनामी के डर से युवा खुदकुशी जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं, लेकिन खुदकुशी करने वाले यह सोचतेसमझते नहीं हैं कि खुद को मिटा कर वे क्या पा लेते हैं? खुदकुशी न तो किसी परेशानी का हल है और न ही यह हिम्मत वालों का काम है. यह तो साफसाफ कमजोरों की और गैरकानूनी हरकत है.

हर बड़ेछोटे शहर में खुदकुशी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. इस के पीछे की सब से बड़ी वजह क्या है? कोई इसे कच्ची उम्र की वजह बताता है तो कोई तेजी से बदलती जीवनशैली को. कोई बच्चों के प्रति उन के गार्जियन्स की लापरवाही और उपेक्षा को दोष देता है तो कोई बच्चों में हर चीज को तुरतफुरत पाने के उतावलेपन को जिम्मेदार ठहराता है और कोईकोई तो परिवार के लोगों के बीच बढ़ती संवादहीनता को खुदकुशी की बड़ी वजह करार देता है.

मगध विश्वविद्यालय के प्रोफैसर अरुण कुमार प्रसाद का मानना है कि खुदकुशी करने से पहले अगर आदमी जरा सा सोचे कि खुदकुशी किसी भी समस्या का हल नहीं है. समस्या से लड़ कर ही उस का हल ढूंढ़ा जा सकता है, न कि उस से भाग कर. खुदकुशी करने वाले अपने परिवार वालों के लिए कई मुसीबतें और समस्याएं ही छोड़ जाते हैं.

पिछले साल 25 अक्तूबर को पटना के चित्रगुप्त नगर इलाके में 21 साल की लड़की आर्या की खुदकुशी के बाद उस के परिवार वाले पुलिस, अदालत, वकीलों के चक्कर लगाने को मजबूर हैं. आर्या के मां और पिता दोनों नौकरी करते हैं और अब वे काम से छुट्टी ले कर थानाकचहरी के चक्कर लगा रहे हैं. रिश्तेदारों और पड़ोसियों की तिरछी नजरों को और फब्तियों को अलग ही झेल रहे हैं. रिटायर्ड पुलिस अफसर आर के सिंह कहते हैं कि बच्चों और गार्जियन्स के बीच तालमेल की कमी से न बच्चे अपने मांबाप से खुल कर बातें कर पाते हैं न ही मांबाप के पास बच्चों की दिक्कतों को सुनने व समझने की फुरसत है. ऐसे हालात में बच्चे सही और गलत के बारे में सोचे बगैर ही कोई फैसला ले लेते हैं.

सच के पैर: भैया-भाभियों की असलियत जानकर क्या था गुड्डी का फैसला

लेखक- परम दत्त झा

बूआजी आएंगी फलमिठाई लाएंगी, नई किताबें लाएंगी सब को खूब पढ़ाएंगी…’ छोटी गा रही थी.

‘बूआजी आते समय मेरे लिए नई ड्रैसेज जरूर ले आना,’ दूसरी की मांग होती. इस तरह की मांगें हर साल गरमी की छुट्टियां आते ही भाइयों के बच्चों की होती. जिन्हें गुड्डी मायके जाते ही पूरा करती. मगर एक बार जब वह मायके गई, तो बड़े भैयाभाभी की बातचीत सुन उस के पांव तले की जमीन ही जैसे खिसक गई.

‘‘बड़ी मुश्किल से दोनों का तलाक कराया,’’ भाभी कह रही थीं.

‘‘और क्या, अगर तलाक नहीं होता तो क्या गुड्डी हमें इतना देती? देखना, बड़ी की शादी में कम से कम 10 लाख उस से लूंगा,’’ भैया कह रहे थे.

‘‘बदले में क्या देते हैं हम लोग? हर साल एक मामूली साड़ी पकड़ा देते हैं. वह इतने में भी अपना सर्वस्व लुटा रही है,’’ हंसते हुए उस की भाभी ने कहा तो वह जैसे धड़ाम से जमीन पर आ गिरी. सच में उस का शोषण तीनों भाइयों ने किया है. उसे याद आ गई 20 वर्ष पूर्व की घटना. उस के विवाह के लिए लड़का देखा जा रहा था. पिताजी तीनों बेरोजगार बेटों की लड़ाई व बहुओं की खींचतानी झेल न पाए और गुजर गए. फिर तो उस की शादी के लिए रखे क्व5 लाख वे सब खूबसूरती से डकार गए.

उस का विवाह उस से लगभग दोगनी उम्र के व्यक्ति रमेश से कर दिया गया और दहेज तो दूर सामान्य बरतनभांडे तक उसे नहीं दिए गए. यह देख मां से न रहा गया. वे बोल पड़ीं, ‘‘अरे थोड़े जेवर और जरूरी सामान तो दो, लोग क्या कहेंगे?’’ ‘‘आप चुप रहें मां. हमें अपनी औकात में शादी करनी है. सारा इसे दे देंगे, तो मेरी बेटियों की शादी कैसे होगी?’’ बड़ा भाई डांट कर बोला तो वे चुप रह गईं. फिर तो गुड्डी ससुराल गई और उस के बाद उस की पढ़ाई और नौकरी तक इन सबों ने कभी झांका तक नहीं. रमेश पत्नी को पढ़ाने के पक्षधर थे, इसलिए उन के सहयोग से उस ने बीए की परीक्षा पास की. उस के कुछ दिनों बाद बैंक की क्लैरिकल परीक्षा पास कर ली, तो बैंक में नौकरी लग गई. रमेश पढ़ीलिखी पत्नी चाहते थे परंतु कमाऊ पत्नी नहीं. अत: जैसे ही उस की नौकरी लगी उन्होंने समझाने की कोशिश की, ‘‘क्या तुम्हारा नौकरी करना इतना जरूरी है?’’

‘‘हां क्यों न करें. इतनी औरतें करती हैं. फिर बड़ी मुश्किल से लगी है,’’ उस ने सरलता से जवाब दिया.

‘‘फिर बच्चे होंगे, तो कौन पालेगा?’’

‘‘क्यों, दाई रख लेंगे. आजकल बहुत से लोग रखते हैं. मैं भविष्य की इस छोटी सी समस्या के लिए नौकरी नहीं छोड़ सकती.’’ इस दोटूक जवाब पर रमेश कुछ नहीं बोले. पर उन का जमीर इस बात को स्वीकार न कर सका कि लोग उन्हें जोरू का गुलाम या जोरू की कमाई खाने वाला कहें. इधर उस के मायके के लोग उस की नौकरी की खबर सुनते ही मधुमक्खी के समान आ चिपके. पतिपत्नी की लड़ाई में हमेशा मायके वाले फायदा उठाते हैं. यहां भी यही हुआ. मायके वालों के उकसाने पर वह तलाक का केस कर नौकरी पर चली गई. बाद में आपसी सहमति पर तलाक हो भी गया. इस के बाद इस दूध देती गाय का भरपूर शोषण सब ने किया. कभी बड़े भैया की लड़की का फार्म भरना है तो कभी किसी की बीमारी में इलाज का खर्च, तो कभी कुछ और. ऐसा कर के हर साल वे सब इस से अच्छीखासी रकम झटक लेते थे.

उस वक्त गुड्डी का वेतन 30 हजार था. उस में से सिर्फ 10 हजार किराए के मकान में रहने, खानेपीने वगैरह में जाते थे. बाकी भाइयों की भेंट चढ़ जाता था. मगर उस दिन की भैयाभाभी की बातचीत ने उस के मन को हिला कर रख दिया. उस के बाद वह 4 दिन की छुट्टियां ले कर किसी काम से मधुबनी गई थी, तो वहां संयोगवश उस के पति साइकिल पर फेरी लगाते दिख गए. ‘‘ये क्या गत बना रखी है?’’ औपचारिक पूछताछ के बाद उस ने पहला प्रश्न किया.

‘‘कुछ नहीं, बस जी रहे हैं, तुम कैसी हो?’’ उन्होंने डबडबाई आंखों को संभालते हुए प्रश्न किया.

‘‘मैं ठीक हूं, आप की पत्नी और बच्चे?’’ उस का दूसरा प्रश्न था.

‘‘पत्नी ने मुझे छोड़ कर नौकरी का दामन थामा, तो बिन पत्नी बच्चे कहां से होते?’’ उन्होंने जबरदस्ती हंसने का प्रयास करते हुए कहा.

‘‘गांव में कौनकौन है?’’ पिताजी का निधन तुम्हारे सामने हो गया था. तुम्हारे जाने के 1 साल बाद मां गुजर गईं और सभी भाइयों ने परिवार सहित दूसरे शहरों को ठिकाना बना लिया,’’ उन का सीधा उत्तर था.

‘‘और आप?’’

इस प्रश्न पर वे थोड़ा सकुचा गए. फिर बोले, ‘‘मैं यहीं मधुबनी में रहता हूं. सुबह से शाम ढले तक कारोबार में लगा रहता हूं. सिर्फ रात में कमरे में रहता हूं.’’ ‘‘मुझे अपने घर ले चलिए,’’ कह कर वह जबरदस्ती उन के साथ उन के घर में गई. वहां एक पुरानी चारपाई, एक गैस स्टोव व जरूरत भर का थोड़ा सा सामान था. उसे बैठा कर वे सब्जी व जरूरी समान की व्यवस्था करने गए तब तक उस ने सारे समान जमा दिए. उन के लौट कर आते ही सब्जीरोटी बना कर उन्हें खिलाई और खुद खाई. उस रात वह उन के बगल में लेटी तो उन के सिर पर उंगलियां फेरते उस ने पूछा, ‘‘आप ने दूसरी शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘क्यों, क्या एक शादी काफी नहीं है? जब पहली पत्नी ने ही साथ नहीं दिया, तो दूसरी की बात मैं ने सोची ही नहीं.’’ इस जवाब से वह टूट गई. दोनों रात में एक हो गए. आंसुओं ने नफरत के बांध को तोड़ दिया.

अगले दिन चलते समय उस ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चल कर वहीं रहिए.’’ ऐसा न जाने किस जोश में आ कर वह बोल उठी थी. पर रमेश ने बात को संभाला, ‘‘यह ठीक नहीं होगा. हम दोनों तलाकशुदा हैं वैसी दशा में मेरा तुम्हारे साथ रहना…’’

‘‘ठीक है, मैं दरभंगा में रहती हूं. आप महीने में 1 बार वहां आ सकते हैं?’’ उस ने पूछा. ‘‘मिलने में कोई बुराई नहीं है,’’ रमेश ने फिर बात को संभाला. फिर बस स्टैंड तक जा कर बस में बैठा आए और हाथ में 200 रख दिए. प्यार की भूखी गुड्डी इस व्यवहार से गदगद हो गई. दूसरी ओर अपने सगे भैयाभाभी की कही बात उसे तोड़ रही थी. सच कड़वा होता है मगर यह इतना कड़वा था कि इसे झेल पाना मुश्किल हो रहा था. उस के यही सब सोचते जब उस के मोबाइल की घंटी बजी तो वह वर्तमान में लौटी.

‘‘क्यों इस बार छुट्टी में नहीं आ रही हो?’’ उस के बड़े भैया का स्वर था.

‘‘नहीं, इस बार आना नहीं हो सकता,’’ उस ने विनम्रता से जवाब दिया.

‘‘क्यों, क्या हो गया?’’

‘‘कुछ नहीं भैया, बस जरूरी काम निबटाने हैं.’’ इस जवाब पर फोन कट गया. इस के बाद वह कई महीने मायके तो नहीं गई पर हर माह मधुबनी हो आती थी. रमेश उसे प्यार से घर लाते, उस का पूरा ध्यान रखते और भरपूर सुख देते. उन के साथ रात गुजारने में उसे असीम सुख मिलता था. वह इस प्यार से गदगद रहती. उस के जाते वक्त हर बार रमेश 100-200 या साड़ी हाथ में अवश्य रखते. फिर प्रेम से बस में चढ़ा आते. सब से बड़ी बात यह कि उन्होंने आज तक यह नहीं पूछा था कि अब वह किस पद पर है वेतन कितना मिलता है?

‘‘क्यों आप को मेरे बारे में कुछ नहीं जानना?’’ एक बार उस ने पूछा था.

‘‘जानता तो हूं कि तुम बैंक में हो,’’ उन्होंने सहज भाव से जवाब दिया. उन की सब से बड़ी बात यह थी कि वे अपने ऊपर 1 पैसा भी नहीं खर्च करने देते थे, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह उन की ओर झुकती चली गई. एक दिन अचानक बहुत दिनों से मायके न जाने पर उस की मां, बड़े, मझले और छोटे भैयाभाभी सभी आए. मझले को मैडिकल में लड़के का ऐडमिशन कराने हेतु 1 लाख चाहिए थे, वहीं बड़े भैया बड़ी लड़की की शादी हेतु पूरे 5 लाख की मांग ले कर आए थे. इसी प्रकार छोटा भी दुकान हेतु पुन: 2 लाख की मांग ले कर आया था. उन सब की मांग सुन कर वह फट पड़ी, ‘‘क्यों आप लोग अपना इंतजाम खुद नहीं कर सकते, जो जबतब आ जाते हैं? मेरी भी शादी हुई थी, तब आप तीनों ने क्या दिया था?’’

इस पर सब सकपका गए मगर छोटा बेहयाई से बोला, ‘‘हमारे पास नहीं था, इसलिए नहीं दिया. तुम्हारे पास है तभी न ले रहे हैं.’’ ‘‘कुछ नहीं, पहले पिछला हिसाब करो. मुझ से जो लिया लौटाओ. मेरे पास सब लेनदेन लिखा है.’’ तभी उस के पति का फोन आ गया. ‘‘क्यों क्या हुआ, कैसे हैं आप?’’

‘‘बस 2 दिन से थोड़ा सा बुखार है. तुम्हारी याद आ रही थी, इसलिए फोन कर दिया.’’ पति का थका स्वर सुन कर वह तुरंत बोली. ‘‘रात की बस पकड़ कर मैं आ रही हूं आप चिंता न करें.’’ फिर वह फोन रख कर जल्दीजल्दी जाने का समान पैक करने लगी.

‘‘क्या हुआ अचानक कहां चल दीं?’’ मां ने घबरा कर पूछा.

‘‘जा रही होगी गुलछर्रे उड़ाने,’’ मझला भाई बोला. ‘‘सुनो, अपनी औकात में रह कर बोला करो. ये मेरे पति का फोन था.’’ यह सुन कर सभी की आंखें फटी रह गईं.

‘‘तलाकशुदा पति से तेरा क्या मतलब?’’ उस की मां बोलीं.

‘‘मां, मतलब तो शादी के बाद भाइयों का भी बहन की आमदनी या जायदाद से नहीं होता पर मेरे भाई तो बहन को दूध देती गाय समझ पैसा लूटते रहे. जब वापस देने की बारी आई तो बहाने करने लगे.’’ उस का यह रूप देख सब भौचक्के थे.

‘‘और हां मां, आप सब ने मिल कर मेरी शादी इसलिए तुड़वाई ताकि मेरे पैसे पर ऐश कर सकें.’’

‘‘बेटा, तुम गलत समझ रही हो,’’ मां ने फिर समझाना चाहा. ‘‘सच क्या है मां यह तुम भी जानती हो. पूरे 5 लाख जो पापा ने मेरी शादी के लिए रखे थे, इन तीनों ने डकार लिए थे. एक फटा कपड़ा तक नहीं दिया था. फिर 4 साल तक हाल नहीं पूछा. लेकिन जैसे ही नौकरी मिली चट से आ कर सट गए और तुम मां हो कर हां में हां मिलाती रहीं.’’ यह कड़वा सच उन सब के कानों में सीसे की तरह उतर रहा था. ‘‘आप लोग जाएं क्योंकि मुझे रात की बस से उन के पास जाना है. जब मेरा पूरा पैसा देने लायक हो जाएं तो आइएगा.’’ इतना कह कर वह तैयार हो कर घर से निकली, तो वे सब हाथ मलते ऐसे पछता रहे थे जैसे कारूं का खजाना हाथ से निकल गया हो और वह तेजी से बस स्टैंड की ओर बढ़ती जा रही थी.

कही आप भी तो नहीं हैं पीसीओडी की शिकार

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में महिलाएं अपने स्वास्थ्य की अनदेखी कर देती हैं, जिस का खमियाजा उन्हें विवाह के बाद भुगतना पड़ता है. लड़कियों को पीरियड्स शुरू होने के बाद अपने स्वास्थ्य पर खासतौर से ध्यान देने की आवश्यकता होती है. महिलाओं के चेहरे पर बाल उग आना, बारबार मुहांसे होना, पिगमैंटेशन, अनियमित रूप से पीरियड्स का होना और गर्भधारण में मुश्किल होना महिलाओं के लिए खतरे की घंटी है.

चिकित्सकीय भाषा में महिलाओं की इस समस्या को पोलीसिस्टिक ओवरी डिजीज यानी पीसीओडी के नाम से जाना जाता है. इस समस्या के होेने पर महिलाओं, खासकर कुंआरी लड़कियों को समय रहते चिकित्सकीय जांच करानी चाहिए. ऐसा नहीं करने पर महिलाओं की ओवरी और प्रजनन क्षमता पर असर तो पड़ता ही है साथ ही, आगे चल कर उच्च रक्तचाप, डायबिटीज और हृदय से जुड़े रोगों के होने का खतरा भी बढ़ जाता है.

आज करीब 30 प्रतिशत महिलाएं इस बीमारी से ग्रस्त हैं जबकि चिकित्सकों का मानना है कि इस बीमारी की शिकार महिलाओं की संख्या इस से कई गुना अधिक है. उचित ज्ञान न होने व पूर्ण चिकित्सकीय जांच न होने की वजह से महिलाएं इस समस्या से जूझ रही हैं.

पीसीओडी बीमारी के बारे में गाइनीकोलौजिस्ट डा. शिखा सिंह का कहना है कि यह एक हार्मोनल डिसऔर्डर है. पीरियड्स के पहले और बाद में महिलाओं के शरीर में बहुत तेजी से हार्मोन में बदलाव आते हैं जो कई बार इस बीमारी का रूप ले लेते हैं.

डा. शिखा की मानें तो हर महीने महिलाओं की दाईं और बाईं ओवरी में पीरियड्स के बाद दूसरे दिन से अंडे बनने शुरू हो जाते हैं. ये अंडे 14-15 दिनों में पूरी तरह से बन कर 18-19 मिलीमीटर साइज के हो जाते हैं. इस के बाद अंडे फूट कर खुद फेलोपियन ट्यूब्स में चले जाते हैं और अंडे फूटने के 14वें दिन महिला को पीरियड शुरू हो जाता है लेकिन कुछ महिलाओं, जिन्हें पीसीओडी की समस्या है, में अंडे तो बनते हैं पर फूट नहीं पाते जिस की वजह से उन्हें पीरियड नहीं आता.

आगे उन का कहना है कि ऐसी महिलाओं को 2 से 3 महीनों तक पीरियड नहीं आने की शिकायत रहती है, जिस की सब से बड़ी वजह है कि फूटे अंडे ओवरी में ही रहते हैं और एक के बाद एक उन से सिस्ट बनती चली जाती हैं. लगातार सिस्ट बनते रहने से ओवरी भारी लगनी शुरू हो जाती है. इसी ओवरी को पोलीसिस्टिक ओवरी कहते हैं.

इतना ही नहीं, इस के कारण ओवरी के बाहर की कवरिंग कुछ समय बाद सख्त होनी शुरू हो जाती है. सिस्ट के ओवरी के अंदर होने के कारण ओवरी का साइज धीरेधीरे बढ़ना शुरू हो जाता है. ये सिस्ट ट्यूमर तो नहीं होतीं पर इन से ओवरी सिस्टिक हो चुकी होती है, जिस से अल्ट्रासाउंड कराने पर कभी ये सिस्ट दिखाई देती हैं तो कभी नहीं. दरअसल, अंडों के ओवरी में लगातार फूटने के चलते ओवरी में जाल बनना शुरू हो जाता है. धीरेधीरे ओवरी के अंदर जालों का गुच्छा बन जाता है. इसलिए सिस्ट का पूरी तरह से पता नहीं चल पाता है.

डा. शिखा के मुताबिक पीसीओडी होने के कारणों का पूरी तरह से पता नहीं चल पाया है लेकिन चिकित्सकों की राय में लाइफस्टाइल में बदलाव, आनुवंशिकी व जैनेटिक फैक्टर का होना मुख्य वजहें हैं.

क्या हैं सिस्ट के लक्षण

ओवरी में बिना अंडों के न फूटने की वजह से जो सिस्ट बनती हैं उन में एक तरल पदार्थ भरा होता है. यह तरल पदार्थ पुरुषों में पाया जाने वाला हार्मोन एंड्रोजन होता है, क्योंकि लगातार सिस्ट बनती रहती हैं तो महिलाओं में इस हार्मोन की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है, जिस की वजह से युवतियों के शरीर पर पुरुषों की तरह बाल उगने लगते हैं. इसे हरस्यूटिज्म कहते हैं. इस तरह महिलाओं के चेहरे, पेट और जांघों पर बाल उगने लगते हैं.

एंड्रोजन की अधिकता के कारण शरीर की शुगर इस्तेमाल करने की क्षमता भी दिनप्रतिदिन कम होती जाती है, जिस की वजह से शुगर का स्तर भी बढ़ता चला जाता है, जिस से खून में वसा की मात्रा बढ़नी शुरू हो जाती है और यही वसा महिलाओं में मोटापे का कारण बनती है.

मोटापा अधिक होने के कारण महिलाओं में इस्ट्रोजन नामक हार्मोन ज्यादा बनने की संभावना बढ़ जाती है. इस स्थिति में लिपिड लेवल भी बढ़ा हुआ होता है जिस की वजह से ब्लड वैसल्स में फैट सैल्स बढ़ जाते हैं और ब्लड की नलियों में चिपक कर उन्हें संकीर्ण बना देते हैं. ये सैल्स ब्लड सप्लाई करने वाली नलियों को ब्लौक भी कर देते हैं.

महिलाओं में इस्ट्रोजन अधिक मात्रा में बनता है तो ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन भी ज्यादा बनता है, जिस की वजह से माहवारी में अनियमितता पाई जाती है. साथ ही, काफी दिनों तक इस्ट्रोजन ही बनता जाता है और उसे बैलेंस करने वाला प्रोजैस्ट्रोन बन नहीं पाता. यदि गर्भाशय में इस्ट्रोजन बहुत दिनों तक काम करता है, तो महिलाओं को यूटेराइन कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है.

अगर किसी महिला में पीसीओडी के लक्षण हैं तो उसे इस बीमारी की जांच के लिए पैल्विक अल्ट्रासाउंड कराना चाहिए. इस के अलावा हार्मोनल और लिपिड टैस्ट होते हैं. हार्मोन के सीरम स्तर पर ग्लूकोज टौलरैंस आदि की जांच की जाती है. इस से बौडी में ग्लूकोज की सही मात्रा की जानकारी मिल जाती है.

16 से 18 साल की लड़की के पीरियड अनियमित होने पर उस का इतना ही इलाज किया जाता है कि पीरियड्स नौर्मल हो जाएं. जिस तरह से हर महीने कौंट्रासैप्टिव दिए जाते हैं उसी तरह से उसे कौंबिनैशन हार्मोन की दवाएं दी जाती हैं. डा. शिखा ने बताया कि सामान्य रूप से एक लड़की को 11 साल की उम्र में पीरियड्स होने लगते हैं. पीरियड शुरू होने के 4-5 साल बाद यदि वह अनियमित होने लगे तो डाक्टरी सलाह और जांच करा लेनी चाहिए.

पीसीओडी से पीडि़त युवती की शादी हो जाने पर उसे पीरियड की अनियमितता और गर्भधारण जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. इस स्थिति में उस की माहवारी को नियमित करने और अंडा समय पर पक सके, इस का इलाज किया जाता है.

इस के अलावा इन महिलाओं की गर्भधारण के दौरान अन्य गर्भवती महिलाओं की तुलना में ज्यादा देखभाल करनी पड़ती है क्योंकि इन में गर्भपात की आशंका बहुत ज्यादा बनी रहती है. इसलिए गर्भधारण करने के 3 महीने तक यदि गर्भ ठहरा रहता है तो फिर वे एक सामान्य महिला की तरह रह सकती हैं. इस के बाद डिलीवरी में किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं आती है.

पीसीओडी की शिकार महिलाओं में बारबार गर्भपात के आसार ज्यादा होते हैं. इसलिए यदि कोई बड़ी उम्र की महिला गर्भवती होती है तो हो सकता है वह प्रीडायबिटिक हो. ऐसी स्थिति में महिलाओं को चाहिए कि समयसमय पर डायबिटीज की जांच कराती रहें और यदि किसी महिला का वजन अधिक है तो उसे व्यायाम और अन्य शारीरिक कसरत से अपना वजन घटाना चाहिए ताकि गर्भधारण के दौरान महिला और उस के गर्भ में पल रहे शिशु को किसी भी प्रकार की शारीरिक समस्याओं से दोचार न होना पड़े.

इन महिलाओं को दिन में एक बार में ज्यादा खाना खाने से बचना चाहिए. ज्यादा खाना खाने के बजाय उन्हें बारबार थोड़ीथोड़ी मात्रा में खाना खाना चाहिए. वे कम कार्बोहाइड्रेट और वसायुक्त भोजन लें, मीठी चीजों से परहेज करें ताकि शरीर में इंसुलिन का स्तर अधिक न हो. ऐसी तमाम बातों का ध्यान रख कर पीसीओडी से ग्रस्त महिला गर्भवती हो कर मां बनने का सुख प्राप्त कर सकती है.

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