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अतीत की यादें: चेतन के जीवन का क्या अध्याय था?

फोन की घंटी बजी तो चोंगा उठाने पर आवाज आई, ‘‘डायरैक्टर साहब हैं?’’

‘‘कौन बोल रहे हैं?’’

‘‘जी, मैं रामनिवास बोल रहा हूं. जरा साहब से बात करा दीजिए.’’

‘‘कहिए, मैं बोल रहा हूं.’’

‘‘मुझे आप से कुछ जरूरी बात करनी है. क्या मैं अभी 5 मिनट के लिए आ सकता हूं.’’

‘‘आप 3 बजे दफ्तर में आ जाइए.’’

‘‘अच्छी बात है. मैं 3 बजे आप के दफ्तर में हाजिर हो जाऊंगा.’’ चेतन ऊंचे पद पर हैं. उद्योग विभाग में निदेशक हैं. उन के पास नगर के बड़ेबड़े उद्योगपति और व्यापारी आते रहते हैं. रामनिवास शहर के बड़े व्यापारी हैं. कुछ  साल पहले मामूली हैसियत के थे, लेकिन अब वे करोड़पति हैं. शहर में उन की धाक है. चेतन इस नगर में 1 साल से हैं. वे सभी व्यापारियों को जानते हैं. उन्हें यह भी पता है कि कौन व्यापारी कैसा है. ठीक 3 बजे रामनिवास आ गए. चपरासी के द्वारा परची भेजी तो चेतन ने उन्हें फौरन बुला लिया. अभिवादन के बाद उन्होंने कहा, ‘‘आप से मिलने की बड़ी इच्छा थी. कई दिनों से आने की सोच रहा था. पर आप तो जानते ही हैं कि हम व्यापारियों की जिंदगी में बीसियों झंझट लगे रहते हैं.’’

चेतन ने उन की ओर देखा, फिर पूछा, ‘‘कहिए, मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’ उन के इस प्रश्न पर रामनिवास भीतर ही भीतर कुछ बुझ से गए. फिर संभल कर बोले, ‘‘आप की सालगिरह आ रही है, सोचा, मुबारकबाद दे दूं. आप जैसे अफसर मिलते कहां हैं. साहब, सारा शहर आप की बड़ी तारीफ करता है.’’ चेतन अकसर ऐसी बातें सुनते रहते हैं. जानते हैं कि इस के पीछे असलियत क्या है. उन्होंने कहा, ‘‘बोलिए, काम क्या है?’’

रामनिवास धीरे से बोले, ‘‘कोई खास काम तो नहीं है, आप के पास हमारी एक फाइल है. आप के दस्तखत होने हैं. उस पर दस्तखत कर दें तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’

इतना कहतेकहते उन्होंने अपने बैग में से एक बड़ा लिफाफा निकाल कर चेतन के सामने रख दिया और बोले, ‘‘साहब, आप बुरा मत मानिए, हमारे घर में एक परंपरा है कि जब किसी से मिलने जाते हैं तो कुछ भेंट ले जाते हैं.’’ चेतन व्यापारियों के हथकंडे अच्छी तरह जानते हैं. मन ही मन उन्हें बड़ी खीझ हुई. आखिर सेठ ने यह जुर्रत कैसे की? क्या ये सोचते हैं कि मैं इतना भोला या मूढ़ हूं जो इन के जाल में फंस जाऊंगा? इन का लिफाफा मुझे खरीद लेगा? उसी समय एक आकृति उन के सामने आ खड़ी हुई. वह कह रही थी, पैसा हाथ का मैल है. आदमी की सब से बड़ी दौलत उस का चरित्र है. यह आकृति चेतन की मां की थी. वह क्षणभर उस की ओर देखती रही और फिर गायब हो गई. चेतन ने मन के ज्वार को दबाने की कोशिश की. पर वे अपनी कोशिश में पृरी तरह सफल न हुए. उन्होंने लिफाफे को रामनिवास की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘‘आप ने बड़ी कृपा की, जो मिलने आए. पर इतना याद रखिए कि सारे अफसर एक से नहीं होते. आप ने बहुत दुनिया देखी है, पर थोड़ाबहुत अनुभव हमें भी है.’’

तभी चपरासी ने एक चिट ला कर उन्हें दी. चिट देख कर चेतन ने कहा, ‘‘क्षमा कीजिए, मुझे एक मीटिंग में जाना है.’’

वे उठ खड़े हुए. रामनिवास भी नमस्कार कर के चले गए. यह चेतन के जीवन की पहली घटना नहीं थी. अनेक बार उन के सामने ऐसे प्रलोभन आए थे, पर कभी उन्होंने एक पैसा तक न छुआ. इतना ही नहीं, अपना खर्चा निकाल कर जो बचता, उसे वे जरूरतमंदों को दे देते. आज जाने क्यों, मां की उन्हें बारबार याद आ रही थी. मां ने जिन बातों के बीज अपने लाड़ले बेटे के मन में सदा के लिए बो दिए थे उन बातों को उन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ कर के भी दिखा दिया था. उन की मां एक रियासत के दीवान की लड़की थीं. उन के चारों ओर बड़े ठाटबाट थे, लेकिन उन का तनिक भी उन में रस न था. उन का विवाह भी एक बड़े घराने में हुआ. वहां भी किसी तरह की कोई कमी न थी. पर मां उस सब के बीच ऐसे रहीं, जैसे कीचड़ के बीच कमल रहता है. चेतन उन का अकेला बेटा था, पर रिश्तेदारों के 1-2 बच्चे हमेशा उन के घर पर बने रहते थे. मां सब को खिला कर खातीं और सब को सुला कर सोतीं.

मां की मृत्यु हो गई पर चेतन को उन की एकएक बात याद है. घर में खूब पैसा था और मां का हाथ खुला था. जिसे तंगी होती, वही आ जाता और कभी खाली हाथ न लौटता. जाने कितने पैसे उन्होंने दूसरों को दिए, उस में से चौथाई भी वापस न आया.

चेतन कभीकभी उन से कहता, ‘मां, तुम यह क्या करती हो?’

तब उन का एक ही जवाब होता, ‘अरे, बड़ी परेशानी में है. पैसा न लौटा पाई तो क्या हुआ, हमारे यहां तो कोई कमी आने वाली है नहीं, उसे सहारा मिल जाएगा.’

ऐसी 1-2 नहीं, बीसियों घटनाएं चेतन अपनी आंखों देखता. पैसा न आता तो न आता, किंतु मां पर उस का कोई असर न होता.

देश आजाद हुआ. जमींदारी खत्म हो गई. लेकिन मां जैसी की तैसी बनी रहीं. उन्होंने पैसे पर कभी मुट्ठी नहीं बांधी. दिनभर काम में लगी रहतीं और रात को चैन से सोतीं.

वे लोग एक देहात में रहते थे. चेतन ने स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद मां से कहा, ‘मैं आगे पढ़ना चाहता हूं.’

‘तो पढ़, तुझे रोकता कौन है?’ मां ने सहज भाव से उत्तर दिया.

चेतन ने कहा, ‘आप ने तो कह दिया कि पढ़. पर मां, शहर का खर्चा बहुत है.’

मां ने सहज भाव से कहा, ‘तू उस की चिंता क्यों करता है, उस का प्रबंध हम करेंगे.’

चेतन उम्र के लिहाज से छोटे थे, पर बड़े समझदार थे. देखते थे, आमदनी कम हो गई है और खर्च बढ़ गया है. यही बात उन्होंने मां से कह दी तो वे खूब हंसीं, फिर बोलीं, ‘चेतन, तू हमेशा पागल ही रहेगा. अरे, तुझे क्या लेनादेना है आमदनी और खर्चे से. तुझे पढ़ना है, पढ़. इधरउधर की फालतू बातें क्यों करता है? मेरे पास बहुत जेवर हैं. वे किस दिन काम आएंगे? आखिर मांबाप अपने बच्चों के लिए नहीं करेंगे तो किस के लिए करेंगे?’

यह सुन कर चेतन का जी भर आया था. मां की गोद में सिर रख कर वे रो पड़े थे. बड़े प्यार से मां उस के सिर पर हाथ फेरती रही थीं. चेतन को लगा कि मां का हाथ आज भी उन के सिर को सहला रहा है. उन की  आंखें डबडबा आईं. चेतन शहर में पढ़ने चले गए. मां बराबर खर्चा भेजती रहीं. चेतन ने भी खूब मेहनत से पढ़ाई की. वजीफा मिला तो मां को सूचना दी. वे बड़ी खुश हुईं. उन्हें भरोसा था कि उन का बेटा आगे चल कर बहुत नाम कमाएगा.  धीरेधीरे समय गुजरता गया. चेतन की पढ़ाई का 1 साल रह गया कि अचानक एक दिन उन्हें घर से सूचना मिली, मां बीमार हैं. वे घर पहुंचे तो मां बिस्तर पर पड़ी थीं. उन का ज्वर विषम हो गया था. बहुत दुबली हो गई थीं. चेतन को देख कर उन की आंखें चमक उठीं. उन्होंने बैठने का प्रयत्न किया पर बैठ न पाईं. चेतन ने उन्हें सहारा दे कर बिठाया. मां का हाल देख कर उन्हें रोना आ गया.

मां ने एक बार पूरा जोर लगा कर कहा, ‘बेटा, तू रोता है? अरे, मैं जल्दी ही अच्छी हो जाऊंगी.’

पर मां अच्छी न हुईं, 2 दिन बाद ही उन की जीवनलीला समाप्त हो गई. मां के प्यार से वंचित हो कर चेतन अपने को असहाय सा अनुभव करने लगे. साथ ही, उन्हें यह चिंता भी सताने लगी कि घर में पिताजी अकेले रह गए हैं, अब उन का क्या होगा. पर संयोग से घर में पुराना नौकर था, उस ने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. चेतन पढ़ाई पूरी करने के लिए शहर चले गए पर कई दिनों तक उन का मन बड़ा बेचैन रहा.

एक दिन जब वे होस्टल के कमरे में बैठे थे, उन्होंने देखा, दरवाजे पर कोई खड़ा है. वे उठ कर दरवाजे पर आए तो पाया कि क्लास की रंजना है. वे सकपका से गए और बोले, ‘कहिए.’

रंजना ने मुसकराते हुए कहा, ‘क्यों, अंदर आने को नहीं कहेंगे?’

‘नहींनहीं, आइए,’ चेतन ने कमरे का दरवाजा पूरी तरह खोल दिया. कमरे में एक ही कुरसी थी, वह उन्होंने रंजना को दे दी और स्वयं पलंग पर बैठ गए. थोड़ी देर दोनों चुप रहे, फिर रंजना ने कहा, ‘मैं एक काम से आई हूं.’

‘बताइए?’ चेतन ने उत्सुकता से उस की ओर देखा.

‘मुझे एक निबंध लिखना है, लेकिन सूझता नहीं कि क्या लिखूं. आप की मदद चाहती हूं.’

इतना कह कर उस ने सारी बात विस्तार से बता दी और अंत में कहा, ‘यह निबंध एक प्रतियोगिता में जाएगा, पर समय कम है.’

चेतन का वह प्रिय विषय था. उन्होंने बिना समय खोए निबंध लिखवा दिया. रंजना तो यह सोच कर आई थी कि वे कुछ मोटीमोटी बातें बता देंगे और उन के आधार पर वह निबंध लिख डालेगी. लेकिन उन्होंने तो सारा निबंध स्वयं लिखवा दिया और ऐसा कि हजार कोशिश करने पर रंजना वैसा नहीं लिख सकती थी. उन का आभार मानते हुए वह चली गई.

कुछ समय बाद एक दिन पुस्कालय में रंजना मिल गई तो चेतन ने पूछा, ‘कहिए, उस निबंध का क्या हुआ?’

रंजना मारे शर्म के गड़ गई. बोली, ‘क्षमा कीजिए, मैं आप को बता नहीं पाई. वह निबंध प्रतियोगिता में प्रथम आया और उस पर मुझे 100 रुपए का पुरस्कार मिला.’

‘बधाई,’ चेतन ने कहा, ‘आप को मिठाई खिलानी चाहिए.’

रंजना के अंदर का तार झंकृत हो उठा. बोली, वह निबंध तो आप का था, बधाई आप को मिलनी चाहिए.’

चेतन ने मुसकराते हुए कहा, ‘यह कह कर मेरी मिठाई मत मारिए, वह पक्की रही, क्यों?’

रंजना ने चेतन की ओर देख कर  निगाह नीची कर ली. पर वह मन ही  मन चाह रही थी कि वे कुछ कहें. लेकिन चेतन को किसी से मिलना था. वे चले आए और रंजना खोई सी खड़ी रही.

इस के तीसरे दिन रंजना की वर्षगांठ थी. अगले दिन वह कालेज से सीधी चेतन के होस्टल गई. चेतन वहां नहीं थे. थोड़ी देर उन्होंने राह देखी और फिर एक परचे पर लिखा, ‘कल मेरी वर्षगांठ है. आप जरूर आइएगा. मुझे बड़ी खुशी होगी. मुझे ही क्यों, सारे घर को अच्छा लगेगा. मैं राह देखूंगी, रंजना.’

उस के जाने के बाद चेतन लौटे तो उन्हें रंजना का नोट मिला, जिसे पढ़ कर उन्होंने रंजना के मन में झांकने के कोशिश की. थोड़ी ऊहापोह के बाद उन्होंने सोचा कि हो न हो, वह उन के नजदीक आना चाहती हो. क्या यह उचित होगा?

तभी उन्हें मां की बात याद आई, ‘इंसान की सब से बड़ी दौलत उस का चरित्र है.’ वे सोचने लगे, लेकिन चरित्र का अर्थ क्या है? मन का संयम. चरित्रवान वही है जो अपने को वश में रखता है. उन्होंने अपने मन को टटोला. रंजना के प्रति उन के मन में सहानुभूति थी, वासना का लेशमात्र भी नहीं था. वे बुदबुदाए, ‘तब मुझे वहां जरूर जाना चाहिए.’

वर्षगांठ के दिन उपहार में एक पुस्तक ले कर वे रंजना के घर गए. रंजना उन्हें देख कर बड़ी खुश हुई. उस ने उन्हें अपने मातापिता से मिलवाया. चेतन जितनी देर रहे, रंजना उन के आसपास चक्कर लगाती रही. आयोजन छोटा सा था, ज्यादातर घर के लोग थे. खापी कर चेतन चले आए.

इस के बाद रंजना उन से 2-3 बार मिली. पर मारे संकोच के वह मन की बात उन से कह न पाई. उस के लिए जिस साहस की जरूरत थी वह रंजना में नहीं था.

चेतन की पढ़ाई पूरी हो गई. परीक्षा भी समाप्त हो गई. जिस शाम को वे घर के लिए रवाना होने वाले थे, रंजना उन के पास आई. उस ने चेतन के पैर छुए और बिना उस के कुछ कहे कुरसी पर बैठ गई. वह अपने मन को पूरी तरह खोल कर उन के सामने रख देने का संकल्प कर के आई थी. उस ने कहना आरंभ किया, ‘अब आगे आप का क्या विचार है?’

‘घर जा रहा हूं. जैसा पिताजी कहेंगे, करूंगा,’ चेतन ने मुसकरा कर कहा, ‘पर आप का इरादा क्या है?’

रंजना जानती थी कि पढ़ाई पूरी हो जाने पर लड़कियों का क्या भविष्य होता है. पर उस ने वह कहा नहीं. बस, इतना बोली, ‘अभी कुछ सोचा नहीं है.’

चेतन ने मुक्तभाव से कहा, ‘पढ़ाई पूरी हो गई. अब आप को क्या सोचना है. वह काम तो आप के मातापिता करेंगे.’

यह सुन कर रंजना का चेहरा आरक्त हो गया. धरती को पैर के नाखून से कुरेदती हुई बोली, ‘क्या यह संभव हो सकता है…?’ आगे के शब्द उस के होंठों के पीछे रह गए. चेतन ने उसे आगे कुछ भी कहने को मौका न दिया. बोले, ‘रंजनाजी, आप को एक भाई चाहिए था, मुझे एक बहन की जरूरत थी. हालात और वक्त ने दोनों की इच्छा पूरी कर दी. क्यों, है न?’ चेतन के चेहरे पर इतनी सात्विकता थी और शब्दों में इतनी निश्छलता कि रंजना भीतर से भीग सी गई. उसे ऐसा लगा, मानो चेतन ने उसे गंगा की निर्मल धारा मेें डुबकी लगवा कर उस के तप्त हृदय को शीतल कर दिया हो. वह भारी मन ले कर आई थी, हलका मन ले कर लौटी.

बात बहुत पुरानी थी, लेकिन शाम को अपने बंगले के बरामदे में कुरसी पर बैठे चेतन अतीत की याद में ऐसा खो गए कि उन्हें पता भी न चला कि कब शाम बीत गई और कब उन का सेवक आ कर बत्ती जला गया. उन के मन में आनंद हिलोरें ले रहा था. जीवन के रणक्षेत्र की इस विजय से उन का रोमरोम पुलकित हो रहा था.

दबे पांव दस्तक देता है हैपेटाइटिस

लिवर हमारे शरीर का अहम हिस्सा है. खाना पचाना, ब्लीडिंग रोकना, ऐनर्जी स्टोर कर इन्फैक्शन से लड़ना इस का अहम काम है. लिवर मानव शरीर का खास अंग है। इस अंग की खासियत यह है कि कोई भी नुकसान होने पर खुद ही भरपाई कर लेता है. अगर लिवर में लंबे समय तक सूजन या इन्फैक्शन रहे तो इस को स्थाई तौर पर नुकसान पहुंच सकता है. लिवर में इसी तरह की बीमारी का नाम है हैपेटाइटिस।

हैपेटाइटिस के प्रकार

हैपेटाइटिस एक तरह का वायरस है। ए, बी, सी, डी और ई हैपेटाइटिस वायरस अलगअलग गुणों वाले होते हैं. हैपेटाइटिस के ए.बी.सी. और ई मूल वायरस हैं और डी वायरस बहुत कम मामलों में सामने आता है। इसलिए इसे डेल्टा वायरस कहते हैं.

लक्षण और नुकसान के आधार पर हैपेटाइटिस के डी और बी, ए और ई और बी और सी वायरस को एकसाथ रखा जा सकता है.

डी और बी

डी वायरस बहुत कम मामलों में सामने आता है और यह वायरस अगर बी से मिल कर प्रतिकिया करता है तो काफी घातक होता है. अमूमन मामलों में ही इन का संयोग होता है, अगर इन का संयोग होता है तो लिवर पर तेज प्रहार का खतरा होता है। कई मामलों में यह प्रहार इतना घातक होता है कि पेट के कैंसर होने की संभावना हो जाती है.

ए और ई

ए और ई  वायरस पानी और खाने के जरीए शरीर में आता है. उलटी, बुखार और पीलिया का होना इस के प्रमुख लक्षण हैं. 2-6 सप्ताह में इस इन्फैक्शन का लक्षण सामने आता है. इस तरह के इन्फैक्शन में एक बात खास है कि यह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहते हैं. अधिकतर मामलों में इस तरह का इन्फैक्शन खुुदबखुद खत्म हो जाता है. 1-2 मामलों में ही यह इन्फैक्शन खतरनाक होता है.

बी और सी

बी और सी वायरस प्रदूषित सूई के सेवन से, अल्कोहल, स्टेरायड और प्रदूषित खून के जरीए यह शरीर में आता है. कई बार यह इन्फैक्शन यलो फीवर, डेंगू, टीबी, कैंसर आदि कई तरह के बुखार से और कई तरह के ऐलर्जी वाले रोगों की वजह से होता है. अमूमन इन्फैक्शन का लक्षण 4-6 सप्ताह में सामने आता है. इस इन्फैक्शन को समय रहते नहीं पहचाना गया तो इस का खतरा व्यापक स्तर पर हो जाता है. इस तरह का मामला उन्हीं केसों में सामने आता है, जिन्हें बचपन में ही हैपेटाइटिस का यह इन्फैक्शन हो चुका होता है.

भूख न लगना, वजन कम होना, रंग काला होना, खून की उलटी होना, पेट में पानी का भरा रहना, बुखार का आनाजाना, पीलिया का लगातार रहना होना, यूरिन का रंग गहरा होना इस के प्रमुख लक्षण हैं. एक बात खास है कि इस तरह के इन्फैक्शन में लक्षण जल्दी सामने नहीं आते हैं.

बचाव के उपाय

हैपेटाइटिस इन्फैक्शन का कोई लक्षण अगर मरीज में दिखें या इस से संबंधित कोई शंका हो तो तुरंत डाक्टर की सलाह लें। शुरुआती स्तर पर अगर डाक्टरी जांच को ज्यादा तवज्जो दिया जाए तो जल्द ही मरीज इस के प्रभाव से बाहर निकल कर स्वस्थ हो सकता है. हैपेटाइटिस के टीकों का पूरा चरण जरूर लें। ये टीके हैपेटाइटिस के वायरस से हमारे शरीर को बचाते हैं.

यह भी जानें :

• 50% मौत हैपेटाइटिस में शराब पीने से होती है.

• एकचौथाई हैपेटाइटिस के मामले पीलिया से सामने आते हैं.

• कई बार (ए-ई) मामलों में हैपेटाइटिस का प्रभाव सामान्य जांच प्रक्रिया को पूरा करने के बाद 4-6 हफ्ते में चली जाती है.

• हैपेटाइटिस के ए, बी, सी और ई मूल वायरस हैं और डी डेल्टा वायरस है.

• हैपेटाइटिस डी, बी वायरस का संयोग घातक होता है.

• हैपेटाइटिस का डी वायरस गिनेचुने मामलों में सामने आता है, इसलिए यह डेल्टा के नाम से जाना जाता है.

• हैपेटाइटिस का इलाज संभव है, बशर्ते रोग के बारे में डाक्टर समय के अंदर सबकुछ समझ ले.

• हैपेटाइटिस के टीकों का पूरा चरण हमें जरूर लेना चाहिए। यह हैपेटाइटिस के वायरस से प्रतिरक्षा करने के लिए हमारे शरीर को ताकत देता है.

“भगवान जगन्नाथ नरेंद्र मोदी के भक्त हैं” वाला बयान कहीं भाजपा का गणित न बिगाड़ दे

जब कोई भाजपा का चेहरा, बड़ा नाम बातोंबातों में अचानक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘ईश्वर’ से भी आगे बताने लगे तो समझने की बात है कि अंदर खाने क्या भावना काम कर रही है. उड़ीसा के पुरी लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार संबित पात्रा जो एक समय तो भाजपा के चेहरे माने जाते थे और हर टीवी चैनल पर सुर्खियों में रहते थे डिबेट इन्हीं से प्रारंभ होती थी और इन्हीं पर खत्म होती थी. एक स्थानीय टीवी चैनल से कहने लगे, “भगवान जगन्नाथ मोदी के भक्त हैं.”
यह बात कहना यह बताता है कि संबित पात्रा जैसे मंजे हुए भाजपा के चेहरे की सोच क्या है और आने वाले वक्त में अगर यह सत्ता सीन हो जाएं तो इंतेहा हो जाएगी. शायद यही कारण है कि संबित पात्रा के बातों को सुन कर उड़ीसा राज्य में आक्रोश फैल गया.

फिर जैसा कि बाद में होता है उन्होंने इसे ‘जुबान की फिसलन’ बता दिया. पात्रा की इस टिप्पणी के बाद उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भाजपा से भगवान जगन्नाथ को राजनीति में न घसीटने की अपील कर सदाशयता का परिचय दिया.
लोकसभा चुनाव लड़ रहे संबित पात्रा पुरी में एक रोड शो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ शामिल हुए थे. इसी दरमियान एक समाचार चैनल से साक्षात्कार के समय संबित पात्रा ने स्थानीय उड़िया में कहा, “भगवान जगन्नाथ मोदी के भक्त हैं, और हम सभी मोदी के परिवार के सदस्य है.” यह अंध भक्ति की पराकाष्ठा कही जा सकती है, जब पढ़ेलिखे संबित पात्रा जैसे लोग भेड़ बकरी की तरह व्यवहार करने लगे तो समझना चाहिए कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में देश किस दिशा में जा रहा है.
कुल मिला कर के संबित पात्रा के इस बयान और विवाद के बाद कम से कम उड़ीसा में भाजपा का सुपड़ा साफ होना स्पष्ट दिखाई दे रहा है.
देशभर में आक्रोश दिखा

संबित पात्रा बहुत बातें करते हैं, यह, देश में चर्चा का विषय रहा है. बोलने में उन्हें कोई मात देदे यह आसान नहीं होता. दरअसल, एक शिक्षित और भाजपा के नेतृत्व के संरक्षण में संबित पात्रा ने कुछ ऐसा कह दिया कि सीधासीधा इसे नरेंद्र मोदी की अंधभक्ति कहा जा सकता है और प्रभु जगन्नाथ का घोर अपमान भी.
यही कारण है कि जब लोगों ने संबित पात्रा के मुख से इन शब्दों को सुना तो आक्रोश फैल गया. ऐसे में एक संवेदनशील मुख्यमंत्री का दायित्व नवीन पटनायक में संभाला और उन लोगों को शांत कराया.

नवीन पटनायक ने कहा, “ऐसा कर के पात्रा ने उड़िया अस्मिता को गहरी चोट पहुंचाई है.” वहीं अरविंद केजरीवाल ने कहा, “घमंड की पराकाष्ठा.”
संबित पात्रा ने जब महसूस किया कि यह गलती हो गई है तो बाद में स्पष्ट किया, “यह सिर्फ जुबान फिसलने के कारण हुआ और वह यह कहना चाहते थे, ‘प्रधानमंत्री मोदी भगवान जगन्नाथ के परम ‘भक्त’ हैं.”

नवीन पटनायक ने कहा, “महाप्रभु श्रीजगन्नाथ ब्रह्मांड के स्वामी हैं. महाप्रभु को दूसरे इंसान का भक्त कहना भगवान का अपमान है. यह पूरी तरह निंदनीय है. इस से भावनाएं आहत हुई हैं और दुनियाभर में करोड़ों जगन्नाथ भक्तों तथा उड़िया लोगों की आस्था को ठेस पहुंची है.”
मुख्यमंत्री पटनायक ने कहा, “भगवान उड़िया अस्मिता के सब से बड़े प्रतीक हैं. मैं इस बयान की कड़ी निंदा करता हूं और मैं भाजपा से अपील करता हूं कि वह भगवान को किसी भी राजनीतिक चर्चा में शामिल न करें. ऐसा कर के आपने उड़िया अस्मिता को गहरी चोट पहुंचाई है और इसे उड़ीसा के लोग लंबे समय तक याद रखेंगे.”
दूसरी ओर कांग्रेस ने भी पात्रा से माफी की मांग की और उन पर भगवान जगन्नाथ के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगाया. संबित पात्रा ने मुख्यमंत्री के पोस्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “हम सभी की जुबान कभीकभी फिसल जाती है.”
उन्होंने कहा, “आज पुरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रोड शो की भारी सफलता के बाद मैं ने कई मीडिया चैनलों को कई बयान दिए. हर जगह मैं ने उल्लेख किया कि मोदी जी श्री जगन्नाथ महाप्रभु के परम भक्त हैं.”

पात्रा ने कहा, “एक बयान के दौरान गलती से मैं ने ठीक इस के विपरीत कह दिया, मुझे पता है कि आप भी इसे जानते और समझते हैं. इसे मुद्दा न बनाया जाए. हम सभी की जुबान कभीकभी फिसल जाती है.”
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी भाजपा नेता और पुरी से उम्मीदवार संबित पात्रा के बयान की निंदा की. उन्होंने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, “मैं भाजपा नेता के इस बयान की कड़ी निंदा करता हूं. वे सोचने लगे हैं कि वे भगवान से ऊपर हैं. यह अहंकार की पराकाष्ठा है. भगवान को मोदी का भक्त कहना भगवान का अपमान है.”
हो सकता है संबित पात्रा अपनी जगह सही हों और उन की जुबान फिसल गई हो मगर जिस तरह की हरकतें भाजपा के नेता करते रहे हैं उस से कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं उन के दिल में जो बात है वह बाहर छलक आता है. दूसरी बात राजनीति में भगवानों को लाने की जरूरत ही क्या है? जैसे एक दफा संबित पात्रा ने कन्हैया कुमार के साथ टीवी डिबेट में नरेंद्र मोदी को देश का माईबाप बता दिया था. तब भी संबित पात्रा की बड़ी आलोचना हुई थी.

दरअसल, देश की बड़े नेताओं और चेहरों से अपेक्षा की जाती है कि वह जो भी कहें बहुत ही सोचसमझ कर के कहें. अगर हम प्रभु जगन्नाथ के संदर्भ में दिए गए बयान की बात करें तो समझने वाली बात है कि जब उन्होंने यह कहा होगा तो थोड़ी ही देर में उन्हें इस का एहसास भी हो गया होगा. वह चाहते तो उसे प्रसारित करने से रोक सकते थे. इसी तरह टीवी चैनल भी आज भक्ति की पराकाष्ठा पर हैं उन के द्वारा भी इसे रोका जा सकता था मगर देखिए इस सब के बाद भी संबित पात्रा का कथन प्रसारित हो गया और उन्हें अपने कदम पीछे करने पड़े. अब भाजपा को तो इस का नुकसान उड़ीसा के साथसाथ अनेक लोकसभा सीटों पर झेलना पड़ सकता है.

आस्था नहीं, हताशा की वजह से बढ़ रहा धार्मिक माहौल

पूरी दुनिया में धर्म का असर साफतौर पर दिखने लगा है. इस का सब से बड़ा कारण हताशा है. तमाम उदाहरण ऐसे हैं जिन से पता चलता है कि हताशा में घिरा इंसान धर्म की शरण में चला जाता है. इस सदी का सब से बड़ा उदाहरण कोरोना के रूप में सामने आया, जिस में पूरी दुनिया के लोग फंसे हुए थे. इस से बाहर निकलने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था. भारत में थाली बजाने, दीपक जलाने, ताली बजाने जैसे कामों के साथ ‘गो कोरोना गो’ जैसा माहौल बनाया गया. हताशा का माहौल यह था कि गिलोय जैसे खरपतवार का इतना प्रयोग हुआ कि बाद में इस के प्रभाव से पेट की तमाम बीमारियां हो गईं.

रामदेव ने अपनी एक दवा पेश की जिस के बारे में कहा कि यह उन को भी लाभ देगी जिन को कोरोना हो गया है और उन को भी कोरोना से बचाएगी जिन को कोरोना नहीं हुआ है. दुनिया में कोई ऐसी दवा नहीं होती जो बचाव और इलाज दोनो करे. बुखार की दवा इलाज कर सकती है लेकिन लक्षण दिखने के पहले इस का प्रयोग किया जाए तो वह बुखार को रोक नहीं सकती. बीमारी को रोकने के लिए अलग दवा का प्रयोग होता है और इलाज के लिए दूसरी दवा का प्रयोग होता है. रामदेव ने अपनी दवा की खासीयत बताई कि वह बचाव और इलाज दोनों करेगी. हताशा में फंसे लोगों ने इस पर यकीन भी कर लिया.

कोरोना के बाद कई तरह के शोध बताते हैं कि कोरोना की हताशा ने लोगों के मन में धर्म का प्रभाव बढ़ाने का काम किया. चर्च में लोग कोविड-19 प्रतिबंधों के साथ प्रार्थना कर रहे थे. कैम्ब्रिज के नेतृत्व वाले 2 अध्ययनों से पता चलता है कि गैरधार्मिक लोगों की तुलना में धार्मिक लोगों में मनोवैज्ञानिक संकट कम हो गया था. वर्किंगपेपर के रूप में जारी कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक नए अध्ययन के अनुसार, 2020 और 2021 में यूके के कोविड-19 लौकडाउन के दौरान धार्मिक आस्था वाले लोगों ने धर्मनिरपेक्ष लोगों की तुलना में कम स्तर की नाखुशी और तनाव का अनुभव किया.

कैम्ब्रिज के नेतृत्व वाले शोध से पता चलता है कि जो लोग व्यक्तिगत रूप से कोविड संक्रमण का अनुभव करने के बाद बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य में भी धार्मिक विश्वास को बनाए रहे उन की हालत में कुछ हद तक सुधार हुआ था. यह अध्ययन 2021 की शुरुआत के दौरान अमेरिकी लोगों पर हुआ था.
कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि कुल मिला कर इन अध्ययनों से पता चलता है कि वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल जैसे संकट के खिलाफ धर्म ने एक ढाल के रूप में कार्य किया. कैम्ब्रिज के भूमि अर्थव्यवस्था विभाग के प्रोफैसर शौन लारकाम और नवीनतम अध्ययन के सह लेखक ने कहा, “लोग पारिवारिक पृष्ठभूमि, जन्मजात गुणों या नए या मौजूदा संघर्षों से निबटने के कारण धार्मिक बन सकते हैं.

“कोविड-19 महामारी एक असाधारण घटना थी जो लगभग एक ही समय में सभी को प्रभावित कर रही थी, इसलिए हम पूरे समाज के नकारात्मक प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं. इस को मापने का एक अवसर मिला कि कुछ लोगों के लिए किसी संकट से निबटने में धर्म महत्त्वपूर्ण था.”
लारकाम और उन के कैम्ब्रिज सहयोगियों प्रोफैसर श्रेया अय्यर और डा. पोवेन शी ने पहले 2 राष्ट्रीय लौकडाउन के दौरान यूके में 3,884 लोगों से एकत्र किए गए सर्वेक्षण डेटा का विश्लेषण किया और इस की तुलना महामारी से पहले डेटा से की. उन्होंने पाया कि जबकि लौकडाउन सार्वभौमिक नाखुशी में वृद्धि से जुड़ा था, उन लोगों के लिए दुखी महसूस करने में औसत वृद्धि 29 फीसदी कम थी जो खुद को एक धर्म से संबंधित बताते थे.

कोरोना के दौरान पूजास्थल भले ही बंद थे या सीमित कर दिए गए थे लेकिन लोगों की धर्म के प्रति भावना बढ़ी थी. उस का कारण यह था कि चारों तरफ हताशा का माहौल था. लोगों को लग रहा था कि धर्म ही इस से बाहर निकाल सकता है. कोरोना के खत्म होने के बाद भी लौकडाउन का प्रभाव तमाम तरह की परेशानियां ले कर आया. इन में एक सब से बड़ी दिक्कत हो रही है अचानक होने वाली मृत्यु. हार्ट की बीमारियों के कारण युवाओं में मौत की घटनाएं बढ़ रही हैं.

असफलता में फंसे लोग ज्यादा धार्मिक

भारत में इस बीच लोगों में धर्म का प्रभाव बढ़ गया. धर्म का ही प्रभाव था कि लोगों में दानपुण्य की चाहत बढ़ गई. इस के अलगअलग रूप देखने को मिले. भूखे को खाना और प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम माना जाता है. लोग मंदिरों के दर्शन के साथ ही साथ इन कामों में लग गए. जहां सामान्य दिनों में खानापानी बेचने का काम होता था, कोरोना में लोग मुफ्त यह काम करने लगे.
उन के मन में यह डर था कि कोरोना में जीवन रहेगा या नहीं, कुछ पता नहीं. ऐसे में सेवा कर के पुण्य कमा सकते हैं. डाक्टर, दवाएं और पैसा होते हुए भी लोगों की जान जा रही थी. इस हताशाभरे दौर में उस की आस्था ही सहारा बन रही थी. उस डर और हताशा ने धर्म के प्रति आस्था को बढ़ावा दिया. कुंडली दिखाना, हाथों की उंगली में रत्न पहनना. जादूटोना कराना ऐसे तमाम माध्यम हैं जिन के जरिए लोग अपनी हताशा से निकलने का काम करते हैं.

मंदिरों में जाने वाले ज्यादातर लोग वे हैं जो कुछ न कुछ मांगने जाते हैं. आज का युवा इतना धार्मिक इसलिए होता जा रहा है क्योंकि उस के पास नौकरी नहीं है, काम करने के लिए नहीं है. आपस में प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है. पड़ोसी का बच्चा सरकारी नौकरी पा गया तो उस का अलग दबाव बढ़ जाता है. वह निराशभाव से धर्म की शरण में जाता है. तमाम मंदिर ऐसे हैं जिन के बारे में कहा जाता है कि यहां मनौती मांगने से चाहत पूरी होती है. परीक्षा पास आती है तो युवा परीक्षा पास करने की गुजारिश ले कर यहां आते हैं.

मुकदमा चल रहा हो तो लोग यहां आते हैं मुकदमे के पक्ष का फैसला अपने पक्ष में कराने के लिए. बीमार हैं तो मनौती मांगने आते हैं कि बीमारी ठीक हो जाए. हर काम की आस धर्म, पूजा, मंदिर पर टिकी होती है. जब इन को पता चलता है कि इस मंदिर के दर्शन से होगा तो वहां जाएंगे, जब किसी पूजा से काम होने वाला होगा तो वह करवाएंगे. यह बढ़ती धार्मिक आस्था के कारण ही होता है.

बड़ेबड़े अमीर लोग भी अपनी दुकान के आगे नीबूमिर्ची लगवाते हैं, जिस से उन की दुकान पर किसी की नजर न लगे. डाक्टरों के औपरेशन थिएटर में भगवान की मूर्ति या फोटो होती है. वाहनचालक अपने आगे भगवान रखते हैं जिस से कोई ऐक्सिडैंट न हो. धर्म और आस्था ने इतनी गहराई तक पैठ बना ली है कि हताशा और निराशा का इलाज कराने के लिए मैंटल हैल्थ वाले अस्पताल और डाक्टर के पास इलाज की जगह पूजापाठ और मंदिरों में जाते हैं. वे दवा की जगह अंगूठी और रत्नों में इलाज खोजने लगते हैं.
जैसेजैसे बेरोजगारी बढ़ेगी, कामधंधे नहीं होंगे, बीमारियां बढ़ेंगी, मुकदमेझगड़े होंगे, हताशा और निराशा बढ़ेगी; वैसेवैसे धर्म के प्रति आस्था की ओर लोग धकेले जाएंगे. निराशहताश लोगों को यही हल दिखाई देगा. वे मंदिरमंदिर भटकेंगे और भगवान से आशीर्वाद में नौकरी मांगेंगे.

संघी बनते वाइस चांसलर

चुनावों में जब सभाओं और नुक्कड़ मीटिंगों में बहुतकुछ बोलना होता है तो नपेतुले शब्द नहीं रह जाते और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस तरह से अनापशनाप आरोप देशीविदेशी नेताओं पर लगा रहे हैं वह कोई आश्चर्य की बात नहीं. आश्चर्य की बात तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी का वह कथन है जिस में उन्होंने, एक छोटी सभा में, कहा कि भारत के विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलरों को देख लो, सारे आरएसएस के नजर आएंगे.

आरएसएस कोई विधिवत संस्था नहीं है. यह एक पौराणिक सोच की वकालत करने वाली और उसे देश पर फिर से थोपने वाले लोगों को ढीलाढाला समूह है. इस के समर्थक शाखाओं में जाते या कभी गए हों, जरूरी नहीं लेकिन वे सभी पूजापाठी और वर्णव्यवस्था, पुनर्जन्म, देवीदेवताओं के प्रचार को शिक्षा का अहम हिस्सा मानते हैं. राहुल के बयान पर 200 वाइस चांसलरों ने आपत्ति की है तो लगता है कि राहुल गांधी ने मर्म पर चोट पहुंचा कर ठीक ही किया है.

ये वाइस चांसलर चाहे कितना कह लें कि उन का न आरएसएस से संबंध नहीं, वे आरएसएस द्वारा ही नियुक्त किए गए हैं और वे कर वही रहे हैं जो आरएसएस देश की शिक्षा के बारे में कराना चाहती है. थोड़ी सी खोज पर जो मिलता है वह स्पष्ट करता है कि देश के वाइस चांसलर नौलेज यानी ज्ञान को तथ्य व तर्क का समावेश नहीं, बल्कि पौराणिक कथाओं की जानकारी और मंत्रों की देन मानते हैं.

सरकारी सहायताप्राप्त संपूर्णानंद संस्कृत यूनिवर्सिटी के वाइस चासंलर प्रोफैसर बिहारी लाल शर्मा ने 9 अप्रैल, 2024 को हिंदू नववर्ष के मौके पर विश्वविद्यालय परिसर में एक यात्रा आयोजित कराई और उस में सम्मिलित हुए. जवाहरलाल नेहरू की वाइस चांसलर संतीश्री धुलीपटी पंडित ने 17, अप्रैल, 2024 के आसपास प्रैस ट्रस्ट औफ इंडिया को दिए इंटरव्यू में कहा कि उन्हें गर्व है कि उन्हें संघी वाइस चांसलर कहा जा रहा है. वे आरएसएस से संबंधों को स्वीकार करती हैं.
अक्तूबर 2023 में केंद्र द्वारा नियुक्त राज्यपाल ने केरल के कलामंडल विश्वविद्यालय में अंनतकृष्णन को वाइस चांसलर नियुक्त किया जो पौराणिकता को फिर से देश के मन पर थोपने में विश्वास रखते हैं. यह वही सोच है जो आरएसएस की है.

जिस देश में विश्वविद्यालयों के नाम से पौराणिक सोच टपकती हो उस देश के विश्वविद्यालयों के उपकुलपति पौराणिक सोच से दूर कैसे हो सकते हैं, जैसे नारायण गुरु ओपन यूनिवर्सिटी, बाबा फरीद यूनिवर्सिटी औफ हैल्थ साइसैंस. मध्य प्रदेश में राज्यपाल ने आदेश दिया कि वाइस चांसलरों को कुलगुरु कहा जाए. यह भी एक पुरातनपंथी सोच है. दिल्ली में हिंदू कालेज, देशबंधु कालेज, वेंकटैश्वर जैसे कालेज हैं जो पौराणिकता को सिद्ध करते हैं.

राहुल गांधी ने ऐसा क्या विशेष कह दिया कि ढेर सारे वाइस चांसलर सच को झुठलाने पर लग गए. ये वाइस चांसलर भला साबित कर सकते हैं कि क्या यह वैज्ञानिक सोच तार्किक है, पूजापाठी, जनेऊधारी, कलेवा बांधने, व्रतउपवास करने वाली नहीं? आरएसएस का एजेंडा राजनीतिक नहीं धार्मिक है. उसे राजनीतिक सत्ता नहीं, शिक्षा और समाज पर नियंत्रण चाहिए. सो, राहुल गांधी ने जो कहा है, सही ही है.

बच्चे भी हो रहे हैं हाई ब्लडप्रैशर का शिकार

हाई ब्लडप्रैशर या उच्च रक्तचाप की बीमारी आमतौर पर 40 पार के लोगों में या बुजुर्गों में देखी जाती थी. बच्चों में इस का असर नहीं होता था और न ही कभी डाक्टर बच्चों का ब्लडप्रैशर नापते थे. लेकिन अब यह सोच बदल रही है. बच्चों में भी अब हाई ब्लडप्रैशर की समस्या तेजी से बढ़ रही है.

मोटापे के कारण बच्चे हाई ब्लडप्रैशर का शिकार हो रहे हैं. ब्लडप्रैशर अधिक होने की वजह से उन को दिल की बीमारियां भी घेर रही हैं. हृदय की सतहों की मोटाई भी ज्यादा हो रही है. नाड़ियों में बैड कोलैस्ट्रौल जम रहा है जिस से खून का बहाव बाधित हो रहा है. बच्चों में आंखों की रोशनी घट रही है. दिल्ली के एम्स में ऐसे 60 बच्चों की जांच की गई जो मोटापे से पीड़ित थे. इस जांच के बाद सामने आया कि 60 में से 40 फीसदी यानी 24 बच्चे हाई ब्लडप्रैशर के शिकार हैं. इन सभी बच्चों की उम्र 18 वर्ष से कम थी. इन 24 बच्चों में से 68 प्रतिशत बच्चों में ब्लडप्रैशर का असर हार्ट पर भी नजर आया. कुछ बच्चों में और्गन फेल्योर के लक्षण भी देखे गए.

हाई ब्लडप्रैशर एक साइलैंट किलर है. इस का सब से ज्यादा असर हमारे दिल पर पड़ता है. अगर ब्लडप्रैशर को नियंत्रित न रखा गया तो इस से अचानक हार्ट अटैक या ब्रेन हेमरेज होने का खतरा रहता है.

बच्चों में हाई ब्लडप्रैशर 2 टाइप के होते हैं- प्राइमरी हाई ब्लडप्रैशर और सैकंडरी हाई ब्लडप्रैशर. प्राइमरी हाई ब्लडप्रैशर टीनएजर्स और एडल्ट्स में ज्यादा कौमन है. यह अकसर लाइफस्टाइल फैक्टर्स की वजह से होता है, जैसे बहुत ज्यादा नमक और मसालों के सेवन से यह समस्या पैदा होती है. अगर मातापिता में से किसी को हाई ब्लडप्रैशर की समस्या है, तो कई बार बच्चों में भी इस के लक्षण दिखते हैं. यह लक्षण मोटापे की वजह से जल्दी नजर आते हैं.

सैकंडरी हाई ब्लडप्रैशर के सामान्य कारण हैं, किडनी डिसऔर्डर, हाइपरथाइरौडिस्म, हार्मोनल से जुड़ी समस्याएं, हार्ट या ब्लड वेसल्स डिसऔर्डर, नींद से जुड़े डिसऔर्डर, स्ट्रैस लेना अथवा कुछ मैडिसिन के साइड इफैक्ट्स.

कोरोनाकाल में जब बच्चे घरों में बंद हुए तो उन के पास करने को बस दो या तीन काम ही थे – औनलाइन पढ़ाई करना, मोबाइल फोन पर समय बिताना और खाना. उस दौरान चूंकि मातापिता दोनों ही घर पर रहे इसलिए महिलाओं ने और कहींकहीं तो पुरुषों ने भी अपनी पाककला का खूब प्रदर्शन किया. खूब तेल, घी, नमक, मसाले वाला खाना लोगों के घरों में बना और बच्चों ने खूब लुत्फ उठाया. यहां तक कि बर्गर, पीजा, रोल, चाउमीन जैसे बच्चों को लुभाने वाली चीजें भी मांओं ने खूब बना बना कर खिलाईं.

नतीजा यह हुआ कि बच्चों का वजन इस दौरान खूब बढ़ा. खेलकूद और शारीरिक एक्टिविटी न होने से एक्स्ट्रा एनर्जी शरीर में फैट के रूप में जमा होती गई. इस से नाड़ियों में खून का प्रवाह बाधित हुआ और इस की वजह से बच्चों में हाई ब्लडप्रैशर की समस्या पैदा हुई.

अब जबकि कोरोना को गए डेढ़ साल से ऊपर हो रहा है मगर खेल के मैदान में अभी भी बच्चों की संख्या उस तरह नहीं बढ़ी है जैसी कोरोनाकाल से पहले हुआ करती थी. खेल को ले कर बच्चे आलसी हो गए हैं. उन्हें मोबाइल फोन पर गेम खेलने में मजा आता है. शारीरिक एक्टिविटी न होने से बच्चे हाई ब्लडप्रैशर का शिकार हो रहे हैं.

पढ़ाई और कंपीटिशन का स्ट्रैस इन दिनों बच्चों पर हावी है. हर मांबाप की इच्छा है कि उन का बच्चा एग्जाम में 90 प्रतिशत से अधिक नंबर लाए. मांबाप की इच्छाओं का भारी दबाव बच्चे झेल रहे हैं. वे आधा दिन स्कूल में पढ़ते हैं, फिर ट्यूशन में और उस के बाद घर में. अन्य गतिविधियां करने के लिए उन के पास समय नहीं बचता है जिस से वे स्ट्रैस से मुक्त हो सकें. यह स्ट्रैस ब्लडप्रैशर बढ़ाता है.

फास्ट फ़ूड का चलन इस तेजी से भारत में बढ़ा है कि अब भुट्टा, गन्ने आ जूस, बेल का शरबत, भेलपुड़ी जैसी चीजें तो बच्चे चखना ही नहीं चाहते हैं. उन को सिर्फ मेक्डोनाल्ड, पिज्जा हट, सब जैसी जगहों पर फ़ास्ट फ़ूड खाने में आनंद आता है. फास्ट फूड में पड़ने वाला सोडियम साल्ट, अजीनोमोटो, नमक, चीज़, मैदा और बटर शरीर में जा कर जमता है और बच्चों में मोटापा बढ़ता है.

अब तो स्कूलकालेज की कैंटीन से भी देसी चीजें गायब हो चुकी हैं. कढ़ी चावल, राजमा चावल, पूरी सब्जी या वेज थाली की जगह पिज्जा, रोल, समोसे, फिंगर चिप्स, चीज सैंडविच, नूडल्स, चाउमीन, कोल्ड ड्रिंक आदि ने ले ली है. स्कूलकालेज की कैंटीन्स में बच्चे इसी तरह का खाना खा रहे हैं और वजन बढ़ा रहे हैं. खेलकूद, पीटी, व्यायाम जैसी चीजें स्कूली गतिविधियों से बाहर हो चुकी हैं. लिहाजा, बच्चों में किडनी, लिवर, ब्रेन और दिल की बीमारियां बढ़ रही हैं.

बहुत जरूरी है कि हम समय रहते चेत जाएं. फास्ट फूड से बच्चों को अलग करें. इस के साथ ही दिन में कम से कम 2 घंटे उन को खेलने के लिए मैदान में भेजें. हाइपरटैंशन का सब से आसान और सटीक इलाज है हैल्दी लाइफस्टाइल और नियमित दवाएं. हैल्दी डाइट से हाइपरटैंशन को कंट्रोल किया जा सकता है. बच्चों को डेली डाइट में ताजे फल, सब्जियां, साबुत अनाज और लो फैट डेयरी प्रोडक्ट्स दें. नमक और सैचुरेटेड फैट का का इस्तेमाल खाने में कम करें. खुद भी रैगुलर ऐक्सरसाइज करें और बच्चों को भी इस की आदत डलवाएं. इस के साथ ही पूरी नींद लेना बहुत जरूरी है. 8 से 10 घंटे की नींद बच्चे को ऊर्जावान और हैल्दी बनाती है.

लाइफस्टाइल में बदलाव ला कर ही हम अपने बच्चों को ऐसी खतरनाक बीमारियों से बचा सकते हैं. बच्चों का समयसमय पर हैल्थ चैकअप कराना बहुत जरूरी हैं. आंख की रोशनी कम होने की शिकायत बच्चा करे तो सिर्फ चश्मा ही नहीं बनवाएं बल्कि उस के शुगर और बीपी की जांच भी करवाएं. खाने में नमक की मात्रा कम करें और बच्चे का वजन कंट्रोल में रखें. अगर बच्चे में सिरदर्द, दिल की धड़कन बढ़ने या नाक से खून आने जैसे लक्षण दिखें तो फौरन उस का ब्लडप्रैशर चैक करवाएं. ये लक्षण अधिक रक्तचाप या उच्च रक्तचाप का संकट बताते हैं, जिस के लिए तत्काल चिकित्सा देखभाल की आवश्यकता होती है. इस में लापरवाही न करें.

ध्वनि प्रदूषण का दिल पर असर

ध्वनि प्रदूषण ऐसी समस्या है जो हमें धीरेधीरे नुकसान पहुंचाती है. ध्वनि प्रदूषण की वजह से भारत में हर साल हजारों लोग अपनी सुनने की क्षमता खो देते हैं. हमारे कान एक निश्चित ध्वनि की तीव्रता को ही सुन सकते हैं. ऐसे में तेज ध्वनि कानों को नुकसान पहुंचा सकती है. ज्यादा शोर की वजह से लोगों को रात में नींद भी नहीं आती और इस से उन्हें तनाव व बेचैनी की शिकायत भी हो जाती है. पिछले कुछ सालों में हार्ट पेशेंट की संख्या काफी तेजी से बढ़ी है. खासकर युवा भी हार्ट अटैक का शिकार हो रहे हैं और इस का एक खास कारण ध्वनि प्रदूषण भी है.

हाल ही में जर्नल सर्कुलेशन रिसर्च में प्रकाशित एक स्टडी में ट्रैफिक नौइस और हार्ट अटैक के बीच संबंध पाया गया है. अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं की टीम ने बड़े पैमाने पर आंकड़ों का विश्लेषण किया और पाया कि यातायात के शोर से स्ट्रोक, मधुमेह और दूसरी हार्ट संबंधी बीमारियों के विकास की संभावना बढ़ जाती है.

शोध में पाया गया कि सड़क यातायात के शोर में हर 10 डेसीबल की वृद्धि के साथ हृदय रोग का खतरा 3.2 प्रतिशत बढ़ जाता है.

रात के समय होने वाला यातायात का शोर नींद में खलल डालने का काम करता है. ऐसे में नींद की कमी रक्त वाहिकाओं में तनाव हार्मोन के स्तर को बढ़ा देती है जिस से सूजन, हाई ब्लडप्रैशर और रक्त वाहिका संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है.

जरमनी के मेनज विश्वविद्यालय चिकित्सा केंद्र के वरिष्ठ प्रोफैसर और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक थौमस मुंजेल का कहना है कि यह महत्त्वपूर्ण है कि यातायात शोर को अब सबूतों के आधार पर हृदय रोगों के लिए एक जोखिम कारक के रूप में मान्यता दी गई है. ऐसे में ट्रैफिक शोर में कमी के उपायों को करना बहुत ही आवश्यक हो जाता है. बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के कई कारण हो सकते हैं.

ध्वनि प्रदूषण की सब से बड़ी वजह ट्रैफिक

इस ध्वनि प्रदूषण की सब से बड़ी वजह ट्रैफिक को माना जाता है. जो लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां ट्रैफिक ज्यादा होता है उन्हें इन परेशानियों का सामना करना पड़ता है. ऐसे इलाके में रहने वाले लोगों के लिए ध्वनि प्रदूषण एक बहुत बड़ी चुनौती बन गया है.

सैंट्रल रोड रिसर्च इंस्टिट्यूट ने कुछ समय पहले 5 महानगरों के ध्वनि प्रदूषण पर एक रिसर्च की और उस में पाया कि जो लोग सड़क के किनारे बने घरों में रहते हैं वे कभी चैन से नहीं सो पाते. सामान्य तौर पर 2 लोगों के बीच की बातचीत 40 डेसिबल की ध्वनि पर होती है लेकिन जो लोग सड़क के ट्रैफिक के आसपास रहते हैं उन्हें लगातार 60 डेसिबल की ध्वनि सुननी पड़ती है. करीब 17.1 प्रतिशत लोगों पर इस का बुरा असर पड़ता है. इसी तरह 70 डेसिबल ध्वनि हो तो 29.4 प्रतिशत, 75 डेसिबल ध्वनि पर 39.6 प्रतिशत और 80 डेसिबल ध्वनि हो तो 49.6 प्रतिशत लोगों पर बुरा असर पड़ता है. वे अनिद्रा और चिड़चिड़ेपन का शिकार हो जाते हैं. दिल्ली में दिन के ट्रैफिक का शोर औसत 77 से 80 डेसिबल और रात में 55 से 65 डेसिबल रहता है. यानी, दिन में दिल्ली की आधी जनता ध्वनि प्रदूषण से परेशान रहती है.

भारत की सड़कों पर तेजी से बढ़ती गाड़ियां

अगर आप विश्व के उन 10 शहरों को देखें जहां ट्रैफिक की समस्या सब से ज्यादा है तो उस सूची में आप को दिल्ली और मुंबई के नाम भी दिख जाएंगे. हाल ही में एक रिपोर्ट आई थी और उस में भी ट्रैफिक जाम के मामले में मुंबई तथा दिल्ली शीर्ष 10 शहरों में शामिल थे.

ट्रैफिक कंजेशन के मामले में मुंबई विश्व में पहले नंबर पर थी तो दिल्ली चौथे पायदान पर थी. यह हालत सिर्फ दिल्ली और मुंबई की ट्रैफिक व्यवस्था की नहीं है बल्कि भारत के कमोबेश हर महानगर की यही स्थिति है. आप बेंगलुरु को देख लो, चेन्नई या गुवाहाटी पर नजर डालें, हर जगह आप को ऐसे ही हालात दिखेंगे.

बढ़ती हुई गाड़ियां और ध्वनि प्रदूषण

भारत की सड़कों पर चलने वाले वाहनों की संख्या देखें तो इन में हाल के दशकों में कई गुना वृद्धि हुई है. मिनिस्ट्री औफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमैंटेशन की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2001 से 2016 के दौरान रजिस्टर्ड गाड़ियों की संख्या में करीब 400 फीसदी बढ़ोतरी हुई है. 2001 में लगभग 5.5 करोड़ रजिस्टर्ड गाड़िया थीं लेकिन 2016 आतेआते यह आंकड़ा 17.5 करोड़ पहुंच गया था. पिछले 8 सालों में यह आंकड़ा कहां पहुंचा होगा, यह आप समझ ही सकते हैं. यह वृद्धि कारों और दुपहिया वाहनों में सब से ज्यादा हुई. जीवनशैली में आते सुधारों और औटो लोन की उपलब्धता ने वाहन खरीद को काफी आसान बना दिया है. पहले गाड़ियों का सपना सिर्फ उच्चवर्ग की पहुंच में होता था लेकिन अब मध्यवर्ग भी गाड़ियों का मुख्य उपभोक्ता बन चुका है.

सड़कों का निर्माण और रखरखाव

एक तरफ हर साल लाखों नई गाड़ियां सड़कों पर आ रही हैं तो उसी के मुताबिक सड़कों का निर्माण करना भी जरूरी है और इस बात का ध्यान भी रखना होगा कि सड़कें बनें तो वे टिकाऊ भी हों. मगर ऐसा है नहीं. टूटीफूटी और गड्ढों से भरी सड़कें न सिर्फ ट्रैफिक जाम को बढ़ाती हैं बल्कि हर साल न जाने कितने लोगों की मौत की वजह भी बनती हैं.

पार्किंग की समस्या से बढ़ती मुश्किलें

आप किसी भी शहर, कसबे में जाएं तो आप को सड़कों पर अवैध रूप से खड़ी गाड़ियां दिख ही जाएंगी. शहरों में तो यह हालत और भी बदतर हैं. सरकारी नाकामी की वजह से लोगों ने सड़कों को ही अपनी पार्किंग की जगह बना ली है. लोग सरकारी जगहों को भी अपनी समझ कर स्कूटर या गाड़ी खड़ी कर देते हैं.

दरअसल, जिस हिसाब से गाड़ियां बढ़ी हैं उस अनुपात में पार्किंग स्पेस के बारे में कभी कोई योजना ही नहीं बनी. अवैध पार्किंग के कारण सड़कें ही गायब होती जा रही हैं और गाड़ियां खड़ी होने की वजह से चलने की जगह ही नहीं.

सिंगापुर जैसे देशों में देखें तो वहां नई गाड़ी खरीदने पर न सिर्फ भारीभरकम टैक्स देना पड़ता है बल्कि सड़क पर गाड़ी चलाने के लिए अलग से परमिट भी लेना पड़ता है. इस के अलावा एरिया लाइसैंस प्रणाली के तहत चुनिंदा क्षेत्र में प्रवेश के लिए अलग से लाइसैंस लेना होता है. वहां अवैध पार्किंग रोकने के लिए एक हौटलाइन नंबर भी है जिस पर कोई भी इस की सूचना दे सकता है. हमारे यहां भी अगर सरकार कठोर नियम बनाए और भारीभरकम जुर्माने का प्रावधान करे तो समस्या थोड़ी सुधर सकती है.

पुरानी खराब हो रही बसों की वजह से भी लगता है जाम

दिल्ली में सफर करते हुए अक्सर रुकी हुई खराब बस के कारण होने वाले ट्रैफिक जाम से हम सब को जूझना पड़ता है. दिल्ली ट्रैफिक पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक जुलाई 2022 से जून 2023 के बीच दिल्ली में हर दिन औसतन 79 डीटीसी या क्लस्टर बसें खराब हुईं जिन में से प्रत्येक को ठीक करने में लगभग 40 मिनट लगे. सुबह और शाम के व्यस्त घंटों में ऐसा होने का सीधा मतलब है लंबा जाम.

चूंकि राजधानी में ज्यादातर फ्लाईओवर और सड़कें दो लेन वाली हैं इसलिए हर बार किसी वाहन के खराब होने पर घंटों की परेशानी होती है. एक लेन के अवरुद्ध हो जाने से हौर्न बजाने वाली कारों, टेंपो, औटो रिकशा, मोटरसाइकिल और हर तरह के अन्य वाहनों की कतार सड़क को जाम कर देती हैं. बेकरार चालक एकदूसरे का रास्ते काट कर आगे निकलने की कोशिश करते हैं जिस से समस्या और बढ़ जाती है.

ये बसें 10 से 12 साल पुरानी हैं और अकसर अपनी क्षमता से ज्यादा यात्रियों को ले जाते हुए गड्ढेदार सड़कों पर चलती हैं. एक बस औसतन रोज 200 किलोमीटर चलती है जिस का मतलब है कि वह 14 साल में 10 लाख किलोमीटर से भी ज्यादा चल चुकी होगी. कागजों पर एक डीटीसी बस का प्रमाणित जीवन 12 साल या 7.5 लाख किलोमीटर है. लेकिन 2019 में सरकार ने उन के परिचालन जीवन को 15 साल तक बढ़ाने का फैसला किया.

दिल्ली यातायात पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक पिछले वर्षों में बसों के खराब होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं. जुलाई 2022 में कुल 809 खराबी की सूचना मिली थी. अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर 2022 में यह आंकड़ा क्रमशः 977, 1,192 और 2,132 तक बढ़ गया. जनवरी 2023 में 3,029 खराबी देखी गईं. जून 2023 में 3,145.

सीएनजी से चलने वाली बसों में उम्र बढ़ने के साथ इंजन के गरम होने, शौर्ट सर्किट और अन्य समस्याएं आने की संभावना रहती है. दिल्ली की सड़कों पर वाहनों की संख्या उन की क्षमता से लगभग पांच से छह गुना ज्यादा है. स्वाभाविक रूप से अगर सड़क के बीच में कोई बस खराब हो जाती है तो उस जगह के आसपास अन्य वाहनों की आवाजाही से जाम लग जाता है. जाम का सीधा मतलब है ध्वनि प्रदूषण. एक बार जाम वाले इलाके में फंस कर देखिए, हौर्न की आवाजें दादीनानी याद दिला देती हैं. दिमाग की नसें फटने लगती हैं. ऐसे में बेचारे दिल की क्या हालत होती होगी.

मनोरंजन के साधन

मनोरंजन के उपकरण जैसे टीवी, रेडियो, टेप रिकौर्डर, म्यूजिक सिस्टम (डीजे) आदि ध्वनि प्रदूषण के प्रमुख कारक हैं. खासकर शादी समारोह, धार्मिक आयोजन, मेला, पार्टी और अन्य प्रकार के फंक्शन में लाउडस्पीकर के उपयोग से जिस तरह का ध्वनि प्रदूषण होता है उस का एहसास सब को होगा. फंक्शन भले ही बहुत दूर गली के दूसरे कोने में हो मगर उस डीजे और म्यूजिक सिस्टम वगैरह की पहुंच पूरे महल्ले में होती है. कान में उंगली या ईयरप्लग डाल कर बैठिए तो भी राहत नहीं मिलती. इन से उत्पन्न होने वाली तीव्र ध्वनि शोर के साथसाथ बीमारियों का कारण बनती है.

निर्माण कार्य

कंस्ट्रक्शन साइट पर होने वाले शोर से भी ध्वनि प्रदूषण फैलता है. कहीं न कहीं निर्माण कार्य होता ही रहता है. भवनों, घरों, पुलों, ब्रिज और सड़कों, फैक्ट्रियों वर कारखानों समेत विभिन्न प्रकार के निर्माण के दौरान होने वाला शोर सब को परेशान करता है.

आतिशबाजी

आतिशबाजी यानी पटाखे जलाना पर्यावरण प्रदूषण का सब से बड़ा कारण है. साथ ही, यह ध्वनि प्रदूषण के लिए भी उतना ही जिम्मेदार है. कोईकोई पटाखे तो इतनी भयंकर आवाज से फूटते हैं कि कमजोर दिल वाले अचानक से कांप उठते हैं.

ध्वनि प्रदूषण से बचाव के उपाय

  • सरकार और आम लोगों के संयुक्त प्रयासों से ध्वनि व शोर की तीव्रता को कम कर ध्वनि प्रदूषण कम किया जा सकता है.
  • व्यस्त सड़कों, खासकर रिहायशी इलाकों, में ध्वनि अवरोधक लगाने से शोर का स्तर 10 डेसिबल तक कम किया जा सकता है.
  • सड़क निर्माण में कम आवाज पैदा करने वाली डामर का उपयोग करने से शोर का स्तर 3-6 डेसिबल तक कम हो सकता है.
  • शहरी सड़क यातायात के शोर को कम करने के लिए साइकिल और सार्वजनिक परिवहन जैसे वैकल्पिक परिवहन को अपनाने की सलाह दी जा सकती है.
  • सड़क किनारे पौधारोपण कर पौधों की लंबी कतार खड़ी कर के ध्वनि प्रदूषण को कंट्रोल किया जा सकता है. हरे पौधे ध्वनि की तीव्रता को 10 से 15 डीबी तक कम कर सकते हैं.
  • हौर्न के अनुचित उपयोग को बंद कर ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है.
  • प्रैशरहौर्न पर रोक, इंजन व मशीनों की समय पर मरम्मत और एक बेहतर ट्रैफिक व्यवस्था के जरिए ध्वनि प्रदूषण को कम किया जा सकता है.
  • ऐसे उपकरणों का निर्माण करना जो शोर या ध्वनि की तीव्रता को कम करें.
  • अनावश्यक ध्वनि पैदा करने वालों के खिलाफ कानून बना कर उस का कड़ाई से पालन करवाना चाहिए.

रंग प्यार के : रिटायरमैंट के बाद रमेशजी के साथ क्या हुआ

आज रमेशजी के रिटायरमैंट के दिन औफिस में पार्टी थी. इस अवसर पर उन का बेटा वरूण बहू सीता और बेटी रोमी अपनी पति के साथ आई हुई थी. सभी खुश थे. उन की पत्नी उर्वशी की खुशी आज देखते ही बनती थी. रमेशजी की फरमाइश पर वह आज ब्यूटीपार्लर से सज कर आई थी. उन्हें देख कर कोई उन की उम्र का अंदाजा भी नहीं लगा सकता था. वह बहुत सुंदर लग रही थी.

विदाई के क्षणों में औफिस के सभी कर्मचारी भावुक हो रहे थे. यहां रमेशजी ने पूरे 30 बरस तक नौकरी की थी. वे हर कर्मचारी के सुखदुख से परिचित थे. यह उन के कुशल व्यवहार का परिणाम था कि वे औफिस के हर कर्मचारी के परिवार के साथ पूरी तरह जुड़े हुए थे. उन्होंने हरेक के सुखदुख में पूरा साथ दिया था. जैसाकि हरेक के साथ होता है, इस अवसर पर सब उन:की तारीफ कर रहे थे लेकिन अंतर इतना था कि उन की तारीफ झूठी नहीं थी. कहने वालों की आंखें बता रही थीं कि उन्हें रमेशजी के रिटायरमैंट पर कितना दुख हो रहा है.

हर कोई उन के बारे में कुछ न कुछ अपना अनुभव बांट रहा था. यह देख कर उर्वशी की आंखें फिर नम हो गई थीं. रमेशजी ने उन्हें कभी इतना कुछ नहीं बताया था जितना आज औफिस के कर्मचारी बता रहे थे. उन के साथ काम करने वाले आया फफकफफक कर रो पड़ी, “बाबूजी, आज लगता है जैसे मेरा यहां कोई नहीं रहा.”

“ऐसा नहीं कहते शांति. यहां पर इतने लोग हैं.”

“आप मेरे पिता समान हैं. आप के रहते मुझे लगता था मेरे ऊपर कोई परेशानी नहीं आएगी. आप सब संभाल लेंगे. अब क्या होगा?”

“तुम ऐसा क्यों सोचती हो ? कुदरत न करे तुम्हें परेशानी का सामना करना पड़े,” रमेशजी उसे समझाते हुए बोले.

ढेर सारे उपहारों के साथ देर रात तक बच्चों के साथ वे घर लौट आए थे. सभी थके हुए थे. कुछ देर बाद वे सो गए. उर्वशी को भी नींद आ रही थी. उसे सुबह जल्दी उठना था. रोज सुबह 5 बजे उठ कर वह सब से पहले रमेशजी को चाय थमाती और उस के बाद घर के और कामों में लग जाती. आज जैसे ही अलार्म बजा, उर्वशी ने देखा रमेशजी उस के लिए चाय ले कर खड़े थे.

“तुम कब उठे?”

“अभी थोड़ी देर पहले उठा हूं.”

“चाय बनाने की क्या जरूरत थी?”

“यह तुम नहीं समझोगी उर्वशी. मेरे दिल में बड़ी तमन्ना थी रिटायरमैंट के बाद मैं भी तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं.”

“आज सुबह चाय पिला कर तुम ने मेरा पूरा रूटीन खराब कर दिया.”

“वह कैसे?”

“मेरे दिन की शुरुआत तुम्हारे लिए कुछ करशके होती थी.”

“अब छोड़ो इस बात को और मेरे साथ बैठ कर आराम से चाय का आनंद लो. अभी बच्चे सो रहे हैं. तब तक हमतुम बातें करते हैं.”

“बातों के लिए सारा दिन पड़ा है.”

“अच्छा, बताओ चाय कैसी बनी है? मुझे एक ही काम आता है. इस के अलावा तुम ने मुझे कभी कुछ करने नहीं दिया.”

“तुम्हारे पास इन सब के लिए फुरसत कहां थी? सुबह से ले कर शाम तक परिवार के लिए काम करते रहते थे.”

“यह सब तुम्हारे सहयोग के कारण ही  संभव हो सका, उर्वशी वरना मेरे बस का कुछ नहीं था.”

“कैसे बातें करते हो? आज तुम्हारी  मेहनत की बदौलत दोनों बच्चे अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं. यह सब तुम्हारे कारण संभव हुआ है.”

“उर्वशी मैं ने जीवन में केवल काम पर ध्यान दिया. मेरी कमाई का सही उपयोग तुम ने किया. तुम्हीं ने बच्चों और उन की पढ़ाई पर ध्यान दिया. मुझे कभी इन बातों का एहसास भी नहीं होने दिया.”

“अब सुबह से मेरी ही तारीफ करते रहोगे या मुझे काम भी करने दोगे?”

“मेरा बड़ा मन था रिटायरमैंट के बाद तुम्हारे साथ काम में हाथ बंटाऊ.”

“रहने दो, तुम्हारे साथ काम करने में मुझे घंटों लग जाएंगे. घर पर बच्चे आए हैं. मुझे जल्दी से सारा काम निबटाना है.”

“जैसी तुम्हारी मरजी,” कह कर रमेशजी योगासन करने लगे और उर्वशी अपने काम पर लग गई.
उन्होंने सोच लिया था कि वे पत्नी को हर प्रकार का सुख देने का प्रयास करेंगे. नौकरी करते हुए उन्होंने कभी परिवार की जिम्मेदारी नहीं उठाई. वे एक ईमानदार और मेहनती इंसान थे. छुट्टी के एवज में काम करने के उन्हें रुपए मिलते थे इसीलिए उन्होंने कभी बेवजह छुट्टी तक नहीं ली. वे उर्वशी तथा बच्चों को घुमाने भी न ले जाते. उन की आय के साधन इतने नहीं थे कि वे बच्चों और पत्नी को आलीशान जिंदगी दे सकें. यह बात उन्हें बहुत खटकती थी लेकिन मजबूर थे.

इस उम्र में आ कर उन के पास समय और थोड़ेबहुत रुपए भी थे जो उन्हें रिटायरमैंट पर मिले थे. वे इस से उर्वशी की उन इच्छाओं को पूरा करना चाहते थे जिसे वे नौकरी में तवज्जो न दे सके थे. कुछ देर बाद बच्चे सो कर उठ गए. वे अभी तक कल की पार्टी की ही चर्चा कर रहे थे. 2 दिनों बाद वरूण और सीता को जाना था.

वरूण बोला,”पापा, आप दोनों हमारे साथ चलिए.”

कुछ दिन हमें घर पर सुकून से समय गुजारने दो बेटा.”

“मेरा घर भी आप का ही घर है.”

“यह बात तो है लेकिन इस घर पर इतने साल गुजारे हैं लेकिन कभी इसे इतना समय नहीं दे सका जितना देना चाहिए था.”

“आप यह बात दिमाग से निकाल दीजिए. आप ने जो किया वह अपनी क्षमताओं से बढ़ कर किया और हमें इस पद तक पहुंचाया.”

“इस में मेरा नहीं तुम्हारी मम्मी का योगदान ज्यादा है.”

“मम्मी आप की अर्धांगिनी हैं. उन्होंने हर सुखदुख में आप का पूरा साथ दिया है.”

“मैं चाहता हूं अब रिटायरमैंट के बाद उसे पहले कहीं घुमाने ले चलूं.”

“अच्छा सैकंड हनीमून मनाना चाहते हैं.”

“आजकल के जमाने में शायद बच्चे इसे यही कहते हैं लेकिन हम ने कभी परिवार के साथ रह कर अपना पहला हनीमून भी नहीं मनाया. घरगृहस्थी में ऐसे फंसे रहे कि इस बारे में सोचने की न तो फुरसत थी और न ही कोई आकांक्षा. तुम्हारी मम्मी ने अपनी ओर से कभी कुछ नहीं मांगा. मैं अब उसे वह सब देना चाहता हूं जिस की वह हकदार थी.”

“ठीक है पापा, आप जो करना चाहें वह करें और जब फुरसत मिल जाए तब प्लीज हमारे पास चले आना. हम भी मम्मी को कुछ दिन के लिए आराम देना चाहते हैं.”

2 दिन मम्मीपापा के साथ घर पर बिता कर वरूण और सीता वापस चले गए थे .अगले दिन रोमी भी चली गई. उर्वशी और रमेशजी को घर सूना मसूना लग रहा था.

“उदास मत हो, उर्वशी. हम दोनों भी कहीं घूमने चलते हैं.”

“मुझे तो घर पर ही अच्छा लगता है.”

“अपना घर तो अपना होता है लेकिन बदलाव के लिए कभीकभी घर से बाहर घूमने भी जाना चाहिए. दुनिया बहुत बड़ी है. उस का अनुभव भी लेना चाहिए.”

“अब इस उम्र में अनुभव ले कर क्या करेंगे?”

“सीखने की कोई उम्र थोड़े ही होती है? अपना सामान पैक कर लो. मैं ने घूमने के लिए 2 हवाई टिकट पहले ही बुक करा दी है.”

“मुझ से पूछे बगैर ही?”

“जानता था तुम इस के लिए राजी नहीं होगी इसलिए पूछने की जरूरत नहीं समझी.”

“हम कहां जा रहे हैं?”

“कश्मीर घूमेंगे. कुछ दिन ठंडी वादियों का मजा उठाएंगे. दिल में गुलमर्ग घूमने की बड़ी तमन्ना थी. अब जा कर पूरी होगी.”

उन के कहने पर उर्वशी ने अपनी तैयारी शुरू कर दी. यह उस की पहली हवाई यात्रा थी. उसे हवाई जहाज में बैठने में डर लग रहा था, यह बात रमेशजी महसूस कर रहे थे.

“डरो नहीं. मैं हूं न तुम्हारे साथ.”

“इतने रुपए खर्च करने की क्या जरूरत थी?”

“बस हर समय एक ही बात बोलती हो. अब रूपए बचाने की जरूरत क्या है? अपना घर है. बच्चे अच्छी नौकरी कर रहे हैं. हमारे पास जो कुछ है उसे घूमनेफिरने पर खर्च करेंगे.”

“मुझे फुजूलखर्ची पसंद नहीं.”

“ऐसा मत कहो उर्वशी. घूमनाफिरना कभी बेकार नहीं जाता. तुम यहां की सुंदर वादियों में घूम कर अपनेआप को तरोताजा महसूस करोगी.”

रमेशजी की बात सच थी. उर्वशी के मन में भी कब से कश्मीर देखने की इच्छा थी लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर आतेआते वह मुरझा गई थी. रमेशजी के उत्साह ने उसे हवा दी तो वह फिर से तरोताजा हो गई. हफ्तेभर तक दोनों कश्मीर की वादियों में घूमते रहे. रमेशजी उन की हर इच्छा का सम्मान कर रहे थे. लगता ही नहीं था कि वे 60 बरस के हो गए हैं. वे दोनों अपनेआप को उम्र के इस पड़ाव पर भी युवा महसूस कर रहे थे.

1 हफ्ते बाद वे अपने साथ कश्मीर की ढेर सारी यादें ले कर वापस लौट आए थे.

रमेशजी बोले,”मेरी एक इच्छा तो पूरी हो गई.”

“और भी कोई इच्छा पूरी करना चाहते हो?”

“इच्छाओं का क्या है. एक पूरी होती है 10 सिर उठा लेती हैं. मैं तुम्हारे लिए बहुत कुछ करना चाहता हूं, उर्वशी.

अब हमारेतुम्हारे पास समय ही समय है. जब जी चाहेगा उन्हें पूरा कर लेंगे. काम को कभी टालना नहीं चाहिए. मौका मिलते ही उसे प्राथमिकता दे कर पूरा कर लेना चाहिए,” रमेशजी बोले.

अब वे अब उर्वशी की हर तरह से मदद करने के लिए तत्पर रहते. यह बात उर्वशी भी अच्छी तरह जानती थी. रिटायरमैंट के 2 महीने कब बीत गए पता ही नहीं चला. वरूण बारबार फोन कर के उन्हें अपने पास बुला रहा था और रमेशजी इसे टाले जा रहे थे.

“एक बार वरूण और सीता के पास हो कर आ जाते हैं. उसे भी अच्छा लगेगा. कितना कह रहा है.”

” तुम जानती हो उस के पास जा कर क्या होगा? वह हमें ड्राइंगरूम में सजे शोपीस की तरह एक जगह पर बैठा देगा और कुछ नहीं करने देगा. मैं ऐसी जिंदगी नहीं जीना चाहता.”

“आजकल के जमाने में ऐसी औलाद कहां मिलती है जो मम्मी और पापा का इतना खयाल रखे.”

“जानता हूं फिर भी मैं अपने को उस माहौल में ढाल नहीं पाता. मैं ने इतने बरस बड़े बाबू की नौकरी की है. काम में मेरा दिल लगता है. खाली बैठे समय ही नहीं कटता. यह बात उसे कैसे समझाऊं?” रमेशजी बोले तो उर्वशी चुप हो गई.

वह जानती थी वरूण उन का बहुत खयाल रखता है. इसी कारण रमेशजी का समय काटे नहीं कटता था.

“तुम उसे समझा दो. हम कुछ समय बाद आएंगे.”

“ठीक है, कह दूंगी. एक बार उस की इच्छा का भी मान रख लो.”

रिटायरमैंट के बाद रमेशजी सही माने में जीवन का मजा ले रहे थे. एक शाम वे शहर के मशहूर लच्छू हलवाई से उर्वशी के लिए समोसे ले कर आ रहे थे. तभी वह घट गया जिस की उन्हें कल्पना तक नहीं थी. एक तेज मोटरसाइकिल सवार ने उन्हें टक्कर मार दी. वे इस टक्कर से दूर गिर पड़े. उन के दिमाग पर चोट आई थी और मोटरसाइकिल का पहिया पैर पर चढ़ गया था. उर्वशी धक रह गई. उस ने तुरंत वरूण और रोमी को खबर की. दूसरे दिन ही वे घर पहुंच गए. रमेशजी को अभी होश नहीं आया था. उर्वशी का रोरो कर बुरा हाल था. तीसरे दिन उन्हें होश आया.

“डाक्टर, पापा बोल क्यों नहीं रहे?”

“सिर पर चोट के कारण इन के दिमाग में खून का थक्का जम गया है. इस के कारण इन्हें पैरालिसिस अटैक पड़ा है. इसी वजह से ये जबान नहीं चला पा रहे हैं.”

“यह क्या कह रहे हैं डाक्टर?”

“वही जो मरीज की हालत बता रही है. इनका बायां हाथ और पैर भी काम नहीं कर रहा है और उसी पैर की हड्डियां भी टूट गईं जिस पर प्लास्टर चढ़ाना है.”

“ऐसा मत कहिए, डाक्टर. इन्हें चलने में कितने दिन लगेंगे?” वरुण ने पूछा.

“अभी कुछ कहना मुश्किल है. कुछ दिन इंतजार कीजिए. उस के बाद ही सही स्थिति सामने आ पाएंगी.”

उर्वशी के लिए एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. वरूण और रोमी मम्मी को ढांढस बंधा रहे थे.

” हिम्मत रखिए मम्मी, पापा ठीक हो जाएंगे.”

“कभी सोचा नहीं था कि ऐसी नौबत आएगी.”

“आप ही टूट जाएंगी तो पापा का क्या होगा?” रोमी बोली.

उर्वशी कुछ देर के लिए शांत हो गई लेकिन पति की हालत देख कर उसे रोना आ रहा था. 1 हफ्ते बाद भी रमेशजी बोलने की स्थिति में नहीं थे. उन का मुंह थोड़ा तिरछा हो गया था और जबान नहीं चल रही थी. डाक्टर ने पैर में प्लास्टर चढ़ा दिया था.
होश आने पर उर्वशी को देख कर रमेशजी की आंखों में आंसू बहने लगे. उर्वशी ने झट से उन्हें पोंछ दिया.

“मैं आप की आंखों में आंसू नहीं देख सकती. आप जल्दी ठीक हो जाएंगे. हिम्मत रखिए.”

रमेशजी ने कुछ बोलना चाहा लेकिन जबान ने साथ नहीं दिया. दाएं हाथ के इशारे से उन्होंने कुछ कहा. उर्वशी ने उन का हाथ अपने हाथों में ले लिया और उन्हें हिम्मत बंधाने लगी. 2 हफ्ते हौस्पिटल में रहने के बाद वे घर आ गए थे. वरूण ने उन के लिए नर्स का इंतजाम कर दिया था. डाक्टर ने पहले ही बता दिया कि उन की स्थिति में सुधार बहुत धीरेधीरे होगा. किसी चमत्कार की उम्मीद मत रखिएगा.
डाक्टर की बात सही थी. 1 महीने बाद उन की जबान थोड़ीबहुत चलने लगी और वह हकलाते हुए अपनी बात कहने लगे. पापा की हालत में सुधार देख कर वरूण उन्हें अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन उर्वशी ने मना कर दिया.

“तुम चिंता मत करो, बेटा. यहां पर मैं हूं और हमारे बहुत सारे रिश्तेदार भी हैं. सब से बड़ी बात डाक्टर यहीं पर हैं जो उन्हें देख रहे हैं. कोई ऐसी बात होगी तो मैं तुम्हें इत्तिला कर दूंगी. तुम वापस काम पर जाओ. कब तक यहां रहोगे?”

“आप अकेले इतना सब कुछ कैसे संभालेंगी मम्मी?”

“तुम मेरी हिम्मत हो, बेटा. मेरी चिंता मत करना मैं उन्हें देख लूंगी,” कहते हुए उर्वशी की आंखें भर आई थीं.
वह जानती थी कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी उस ने जीवन में कभी नहीं उठाई. पहली बार किसी तरह हिम्मत जुटा कर उसे करने के लिए तैयार हो गई थी. भारी मन से वरूण काम पर चला गया. रोमी कुछ दिन पहले चली गई थी. अब घर पर रमेशजी और उर्वशी रह गए. डेढ़ महीने बाद पैर से प्लास्टर कट गया था लेकिन वे चलने की स्थिति में नहीं थे. उन के दाहिने हाथों और पैरों ने काम करना बंद कर दिया था.

नर्स उन के सारे काम कर रही थी. रमेशजी उस के साथ अपने को असहज महसूस करते. जीवन में उन्होंने कभी किसी पराई स्त्री को छुआ नहीं था. यह बात उन्होंने उर्वशी को बता दी. उन की भावनाओं का खयाल करते हुए वह नर्स की जगह खुद ही उन के काम करने लगी. शुरू मे बड़ी परेशानी हुई लेकिन धीरेधीरे आदत पड़ गई. वह व्हीलचेयर में बैठाकर उन्हें बाथरूम तक ले जाती. उन्हें नहलाधुला कर बरामदे में बैठा देती. आतेजाते लोगों को देख कर रमेशजी का मन लगा रहता. उन की स्थिति बिलकुल एक छोटे बच्चे की तरह हो गई थी.

दिमाग में चोट आने की वजह से अकसर वे चुप ही रहते. मिलने आने वाले उन्हें अपने तरीके से समझाने की कोशिश करते. यह बात उन्हें बड़ी अखरती थी. वे खुद भी एक पढ़ेलिखे और जिम्मेदार इंसान थे. वे जानते थे कि इस उम्र में उन के लिए ऐसी हालत में क्या उचित है और क्या अनुचित. लेकिन जब शरीर का कोई अंग काम करने बंद कर दे तो वे क्या कर सकते थे. हर एक का नसीहत देना उन्हें चिड़चिड़ा बना रहा था. यह बात उर्वशी भी महसूस कर रही थी लेकिन वह किसी को कुछ कहने से रोक नहीं सकती थी.

एक दिन रमेश जी बोले,”उर्वशी, लोग मुझ से मिलने क्यों चले जाते हैं?”

“तुम्हारा हालचाल पता करने आते हैं.”

“मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता. मुझे हुआ क्या है? मैं तुम्हारे अलावा किसी पर बोझ नहीं हूं फिर लोगों को मुझ से इतनी सहानुभूति क्यों है?”

“सब का बात करने का अपना तरीका होता है. आप उन की बात का बुरा मत माना करो.”

“एक ही बात सब लोग कहें तो बुरी  लगती है. मुझे यह सब पसंद नहीं. तुम उन्हें यहां आने से मना कर दिया करो.”

“बात समझने की कोशिश कीजिए. हम दुनिया से कट कर नहीं रह सकते,” उर्वशी ने अपनी असमर्थता जाहिर की तो रमेशजी को अच्छा नहीं लगा.

ऐसी हालत में उन्हें किसी से सहानुभूति नहीं हिम्मत चाहिए थी. ऐसी हालत में हरकोई उन्हें सहानुभूति के साथ 2-4 बातें भी सुना रहा था. यह बात वे सहन नहीं कर पा रहे थे. एक झटके में उन के सारे सपने बिखर गए थे. क्या सोचा था और क्या हो गया? ऊपर से दुनियाभर की बातें यह सब उन के लिए असहनीय हो रहा था. उर्वशी भी मजबूर थी. हफ्ते में एक दिन डाक्टर घर आ कर देख जाते. दोपहर में एक नर्सिंगअसिस्टैंट आ कर जरूरी काम कर चला जाता. इस के अलावा उन की सारी जरूरतें उर्वशी पूरा कर रही थी.

वह महसूस कर रही थी कि रमेशजी दिनप्रतिदिन चिड़चिड़े होते जा रहे हैं. आज तक उन्होंने किसी से ऊंची आवाज में बात नहीं की थी. अपशब्दों का इस्तेमाल करना तो दूर की बात थी. अब जरा सा मन की बात न होती तो वे अपना आपा खो देते और उर्वशी के लिए कुछकुछ बोलने लगते.

एक दिन तो हद ही हो गई. उर्वशी किचन में काम कर रही थी. रमेशजी ने उन्हें आवाज लगाई. शायद वह सुन न सकी. कुछ देर बाद जब वह उन के पास आई तो उन्होंने सामने मेज पर रखा हुआ खाली गिलास उठा कर उस पर दे मारा. संयोग था कि उर्वशी ने हाथ से गिलास रोक दिया वरना उस से उसे चोट लग सकती थी.

“यह क्या कर रहे हो?”

“कब से आवाज दे रहा हूं तुझे सुनाई नहीं देता. अब तुम्हारे लिए भी मैं एक बेकार की चीज हो गया?”

” कैसी बातें करते हो? मैं किचन में खाना बना रही थी. कुकर की सीटी में मुझे आप की आवाज नहीं सुनाई दी.”

“मैं तुम जैसी औरतों से तंग आ गया हूं. मैं तुम्हारा चेहरा भी नहीं देखना चाहता. तुम मुझे छोड़ कर चली क्यों नहीं जाती?”

उन की कर्कश बात सुन कर उर्वशी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ. उसे बहुत बुरा लगा फिर भी उन की तबीयत को ध्यान में रख कर उस ने इसे दिमाग से निकाल दिया और उन की खिदमत में लगी रही. उर्वशी का ठंडा व्यवहार रमेशजी को रास नहीं आया. उस दिन से वे हर समय उसे उकसाने की बात करते रहते. उर्वशी भी पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी जो उन की बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखा रही थी.

1 हफ्ते बाद डाक्टर गुप्ता से उर्वशी ने उन के बदले हुए व्यवहार की चर्चा की. वे बोले,”जैसाकि इन की रिपोर्ट बता रही है. इन की तबीयत में पहले से कोई गिरावट नहीं आई है.”

“फिर यह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?”

“यह बात मेरी समझ से परे है. दिमाग की सूजन भी धीरेधीरे कम हो रही है.”

“पता नहीं यह हर समय गुस्से में क्यों रहते हैं? मुझे अपने नजदीक बिलकुल सह नहीं पाते. ऐसीऐसी बात कहते हैं कि कई बार झेलना मुश्किल हो जाता है. वे मेरे पति हैं इसीलिए मैं उन्हें अनसुना करने की कोशिश करती हूं लेकिन मैं भी इंसान हूं. दिल पर उन की बातों का बहुत समय तक असर रहता है.”

“आप चिंता मत करें. मैं 2-3 दिनों में किसी मनोचिकित्सक को अपने साथ ले कर आऊंगा. वहीं उन से बातोंबातों में जानने की कोशिश करेंगे आखिरी इन्हें हुआ क्या है? घर में कोई ऐसीवैसी बात तो नहीं हुई जिस से उन का अहम आहत हो गया हो?”

“नहीं डाक्टर, यहां हम दोनों के अलावा कोई है भी नहीं. कभीकभी मिलने के लिए रिश्तेदार आ जाते हैं. इन्हें उन से भी बात करना पसंद नहीं आता.”

“रमेशजी के साथ जबरदस्ती न किया करें.”

“मिलने आने वालों को मैं नहीं रोक सकती लेकिन इन से दूर बैठाने की कोशिश जरूर करूंगी. इन के बदले व्यवहार से मैं बहुत आहत हो जाती हूं. प्लीज, कुछ कीजिए.”

2 दिन बाद डाक्टर गुप्ता अपने साथ मनोचिकित्सक विपिन को ले कर आ गए थे. उन्हें देख कर रमेशजी ने पूछा,”यह कौन है?”

“मरीजों को देखने मेरे साथ कभीकभी विपिनजी भी चले आते हैं. मैं उन का दवाई से इलाज करता हूं और यह बातों से. यह भी हमारे इलाज का एक हिस्सा है.” यह सुन कर रमेशजी ने उन के लिए हाथ जोड़ दिए.

“आप कैसे हैं?”

“एक अपाहिज आदमी कैसा हो सकता है?”

“मानता हूं तकलीफ आप के शरीर पर  है. उसे मन पर मत लगने दीजिए. मन स्वस्थ हो तो शरीर भी स्वस्थ होने  लगता है .”

“मेरी हालत अब मेरे जाने के बाद ही सुधरेगी.”

“आप अपनी सोच बदलने की कोशिश कीजिए रमेशजी.”

“यह कहना जितना आसान है करना उतना ही मुश्किल होता है,” रमेशजी बोले.

डाक्टर विपिन ने उन्हें अपनी बातों में उलझा दिया था. तभी वहां उर्वशी पानी ले कर आ गई. रमेशजी के चेहरे के भाव देख कर उन्हें समझते देर न लगी कि वे पत्नी को ले कर परेशान हैं.

” लगता है, घर वाले आप पर ध्यान नहीं दे रहे.”

“ऐसी बात नहीं है, उर्वशी मेरा जरूरत से ज्यादा खयाल रखती है. यही बात मैं पचा नहीं पा रहा हूं. इस औरत ने जीवनभर मेरे लिए इतना कुछ किया. अब जब मेरे करने का वक्त आया तो मेरी ऐसी हालत हो गई. मुझ से यह सब सहन नहीं होता.”

“क्या वे आप को ले कर परेशान रहती हैं?”

“कुदरत का धन्यवाद कि मुझे उर्वशी जैसी पत्नी मिली है. उस ने मेरी हालत को अपना भाग्य समझ कर स्वीकार कर लिया है. जरा सोचिए,  पति के रूप में उसे इस ढलती उम्र में क्या मिला? मैं अब उसे जीवन का कोई सुख नहीं दे सकता.”

“क्या वह आप से कुछ अपेक्षा रखती है?”

“वह आज भी मेरे लिए पूरी तरह समर्पित है. यही सोच कर मैं परेशान हूं. मेरे जीवन का अंत हो जाता तो कम से कम उर्वशी को कष्टों से मुक्ति मिल जाती.”

“ऐसा नहीं सोचते. कभी उस की नजरों से देखने की कोशिश कीजिए कि उन के लिए आप क्या हैं? उन्होंने आप से दिलोजान से प्रेम किया है. आप का भी फर्ज बनता है उस के प्यार का मान रखें.”

“प्यार एकतरफा हो तो उस से क्या हासिल हो जाएगा? मैं ने उस के मन में बहुत सारी उम्मीदें जगाई थीं. मुझे क्या पता था मेरी ऐसी हालत हो जाएगी. अब मैं उन्हें पूरा नहीं कर सकता. यह सोच कर मुझे बहुत कष्ट होता है. मैं चाहता हूं कि वह मुझे छोड़ कर चली जाए. तब उस के सारे कष्ट खत्म हो जाएंगे. मेरा क्या है? मैं  ऐसी हालत में किसी अस्पताल के कोने में भी पड़ा रह सकता हूं.”

“यह आप की सोच है उस की नहीं.”

दरवाजे पर खड़ी उर्वशी सबकुछ सुन रही थी. उस के लिए भी अपने को रोकना मुश्किल हो रहा था. किसी तरह मुंह में रूमाल ठूंस कर उस ने अपनी हिचकियां रोकीं. वह समझ गई रमेशजी उस से क्या चाहते हैं ? ऐसी हालत में भी उन्हें अपने से ज्यादा पत्नी की चिंता खाए जा रही थी. डाक्टर के समझाने का रमेशजी पर अच्छा असर पड़ा था. कुछ देर बाद डा गुप्ता विपिन को साथ ले कर चले गए.

उन के जाते ही उर्वशी उन के लिए पानी ले कर आ गई. डाक्टर के साथ बात कर के उन का गला सूख गया था. उस ने हौले से पानी का गिलास उठा कर उन के मुंह से लगाया तो रमेशजी अपनेआप को न रोक सके. उन्होंने उर्वशी का हाथ पकड़ लिया और फूटफूट कर रोने लगे. उर्वशी भी उन के गले लग कर रो पड़ी. कुछ देर बाद अपने को संयत कर रमेश जी बोले,”मुझे माफ कर दो उर्वशी, मैं स्वार्थी हो गया था.”

“माफी तो मुझे मांगनी चाहिए जो आप की भावनाओं को समझ न सकी.”

“तुम्हें मेरे कारण इस उम्र में कितनी परेशानियां उठानी पड़ रही हैं.”

“ऐसा नहीं कहते. तुम्हारे अलावा मैं कुछ और सोच भी नहीं सकती. आइंदा कभी दूर जाने की बात मत कहना,” उर्वशी बोली तो रमेशजी ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया और बोले,”तुम ही मेरी दुनिया हो. मुझ से दूर मत जाना उर्वशी वरना मैं जी नहीं पाऊंगा.”

उर्वशी ने बड़े प्यार से उन के माथे पर हाथ फेरा. एक बच्चे की तरह रमेशजी ने उस का हाथ पकड़ कर चूम लिया. रमेशजी को लगा जैसे उर्वशी के रूप में उन की दिवंगत मां उसे सहला रही हैं. उम्र के इस पड़ाव पर स्त्री के अनेक रूप में से उन्हें उर्वशी का वात्सल्य रूप स्पष्ट नजर आ रहा था.

आखिर हमें आना है जरा देर लगेगी

चेतनाजी सुबह से ही अनमनी सी थीं. कितनी खुश हो कर इतने दिनों से अपने बेटे के आने की तैयारियों में व्यस्त थीं. उन का बेटा विवान बहुत सालों पहले अमेरिका में जा कर रहने लगा था. एक बेटी थी नित्या, उस की भी शादी हो चुकी थी. जब से पता चला कि उन का बेटा विवान इतने सालों बाद अमेरिका से भारत आ रहा है, तब से उस की पसंद के बेसन के लड्डू, मठरी, उस की पसंद का कैरी का अचार, और भी न जाने क्याक्या बना रही थीं. भले शरीर साथ नहीं देता, पर बेटे के मोह में न जाने कहां से इतनी ताकत आ गई थी.

महेशजी, उन के पति उन को इतना उत्साहित और व्यस्त देख चिढ़ कर कहते भी,”मैं जब तुम से कुछ बनाने को कहता हूं तो कहती हो मेरे घुटनों में दर्द है. अब कहां से इतनी ताकत आ गई?”

चेतनाजी बड़बड़ करती बोलीं,”अरे, अपनी उम्र और सेहत को तो देखो, जबान को थोड़ा लगाम दो. इस उम्र में सादा खाना ही खाना चाहिए.”

पर आज सुबह उन के बेटे विवान का फोन आया,”पापा, मैं नहीं आ पाऊंगा. इतनी छुट्टियां नहीं मिल रहीं और जो थोड़ी बची हैं उस में बच्चे यहीं घूमना चाहते हैं.”

अपने बेटे की बात सुन महेशजी ने कहा भी,”बेटा, तुम्हारी मां तो कब से तुम्हारा इंतजार कर रही है, उस को दुख होगा.”

“ओह पापा, आप तो समझदार हो न, मां को समझा दो, अगली बार जरूर आ जाऊंगा,” कहते हुए विवान ने फोन रख दिया.

इधर महेशजी खुद से ही बोले,’हां बेटा, मैं तो समझदार ही हूं, इसलिए तेरी मां को मना करता हूं. पर वह बेवकूफ पता नहीं कब अपना मोह छोड़ेगी, कब अक्ल आएगी उसे…’

चेतनाजी ने सब सुन लिया था. महेशजी ने जैसे ही उन्हें देखा, वे कुछ कहते उस से पहले ही चेतनाजी अपने आंसूओं को छिपाती बोलीं,”अरे, काम होगा उसे,अब कोई फालतू थोड़ी न है, आखिर इतनी बड़ी कंपनी में है और वैसे भी कोई पड़ोस में तो रहता नहीं, जो जब मन आया मुंह उठाए और चला आए.” वे नहीं चाहती थीं कि महेशजी अपने बेटे के खिलाफ कुछ भी बोले. इसलिए वे कुछ कहते उस से पहले खुद ही उस की सफाई में बोले जा रही थी.

महेश जी बोले,”बन गई अपने बेटे की वकील, शुरू हो गई तुम्हारी दलील. और तुम जो इतने दिनों से उस के लिए तैयारी कर रही थी, कितनी बेचैन थी तुम्हारी ये आंखें उसे देखने के लिए.”

चेतनाजी फिर किसी कुशल वकील की तरह दलील देने लगीं,”अरे, मेरा क्या है, कुछ काम नहीं है इसलिए बना लिया, अब चुप रहो, काम करने दो मुझे,” कहती वे बिना बात कमरे की अलमारियों को साफ करने लगीं. आदत थी उन की यह. जब भी दुखी होतीं खुद को और ज्यादा व्यस्त कर लेतीं पर महेश जी से उन की उदासी, उन की छटपटाहट छिपी नहीं थी. उन्होंने चेतनाजी को कुछ नहीं बोला और खुद रसोई में जा कर 2 कप चाय बनाई और चेतनाजी को जबरदस्ती बुला कर कुरसी पर बैठाया और चाय का कप पकड़ाया. चेतनाजी महेशजी का सामना करने से कतरा रही थीं. डर था उन्हें, उन के अंदर जो गुबार था कहीं वह फट न पड़े. महेशजी उन की हालत समझ रहे थे. उन्होंने चाय पीते हुए कहा बोला,”मुझ से छिपाओगी अपने आंसू, बहने दो इन्हें, कर लो अपने दिल को हलका.”

महेशजी के इतना कहते ही चेतनाजी के सीने में दबा बांध टूट गया. वे बच्चों के जैसे फूटफूट कर रो पड़ीं. महेशजी ने अपनी चाय का कप टेबल पर रखा और चेतनाजी के हाथ में पकड़ा कप भी ले कर टेबल पर रख दिया और उन्हें सीने से लगा लिया,”कब तक अपने को दुखी करोगी.” चेतनाजी कुछ नहीं बोलीं, बस महेशजी के सीने में मुंह छिपाए सिसकती रहीं.

जाने कब तक वे आंसू बहा अपना मन हलका करने की कोशिश कर रही थीं. मन में भरा दुख कम भले न हो पर कुछ समय के लिए हलका तो होता ही है और जब आंसू बहाने को अपना कंधा हो तो कौन अपना दुख, अपना गम बांटना नहीं चाहेगा.

महेशजी ने भी आज उन्हें नहीं रोका, रो लेने दिया. काफी देर बाद जब चेतनाजी बहुत रो लीं, महेशजी ने उन्हें पानी पिलाया.

चेतनाजी पानी पी गिलास को रखती हुई बोलीं,”मेरी तो हमेशा से पूरी दुनिया ही बच्चे हैं पर उन की व्यस्त दुनिया में हमारे लिए समय ही नहीं. आप मुझे कितना समझाते थे, पर मैं ने आप की तरफ ध्यान ही नहीं दिया. सच कितनी खराब हूं मैं, कितने नाराज होंगे आप मुझ से. सब को प्यार देने के कारण आप को प्यार देने में भी कंजूसी करी. आप को सब से बाद में रखा. कभी दो घड़ी आप के लिए फुरसत नहीं निकाली.” चेतनाजी मानों आज पछता रही थीं.

महेशजी हंसते हुए बोले,”अरे, क्या मैं जानता नहीं तुम कितनी खराब हो…”

महेशजी के ऐसा बोलने से चेतनाजी ने उन्हें देखा तो उन की हंसी से समझ गई कि वे अभी भी उसे परेशान कर रहे हैं.

महेशजी मुसकराते हुए बोले,”तुम मुझे कितना प्यार करती हो यह बताने की जरूरत नहीं. हां, यह अलग बात है कि तुम ने कभी मुझे आई लव यू नहीं बोला,” कहते हुए उन्होंने चेतनाजी को हलकी सी आंख मारी. चेतनाजी इस उम्र में भी शर्म से लाल हो गईं.

महेशजी उन की आंखों में देखते हुए बोले,”पर तुम्हारे प्यार और त्याग के आगे बोलने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई. हमारे रिश्ते की यही खासियत तो इसे सब से अलग बनाती है, जहा कुछ कहने, सुनने, सफाई देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती.”

चेतनाजी को महेशजी की बात से थोड़ा सुकून मिला. कप में पड़ी चाय ठंडी हो चुकी थी. वे कप उठाती बोलीं,”आप बैठो, तब तक मैं दूसरी चाय बना कर लाती हूं.”

जैसे ही वे उठने लगीं, एकदम से उन के घुटने में दर्द उठा. महेशजी ने उन्हें आंख दिखा चुपचाप बैठने को कहा और दर्द का तेल ले कर आए और उन के पास नीचे बैठ कर उन के घुटने की मालिश करने लगे. चेतनाजी ने मना भी किया पर महेशजी के गुस्से में छिपे प्यार के कारण कुछ नहीं बोलीं. चेतनाजी उन को देख रही थीं तो महेश जी बोले,”क्या देख रही हो?”

चेतना जी गहरी सांस लेती हुई बोलीं,”यही कि सारे रिश्तों के लिए जिस रिश्ते की परवाह नहीं करी फिर भी जिंदगी के हर मोड़ पर मेरा इतना साथ दिया.”

महेशजी जी बोले,”पगली, तेरामेरा रिश्ता है ही ऐसा. चाहे इस को हम रोज सीचें या न सीचें, यह तो किसी जंगली पौधे की तरह अपनेआप फलताफूलता है.”

महेशजी प्यार से चेतनाजी के घुटने की मालिश कर रहे. वे मालिश करते हुए बोले,”पूरी जिंदगी बच्चों और मेरे पीछे भागने का नतीजा है, जो आज इन घुटनों ने भी जवाब दे दिया.”

महेशजी के ऐसा बोलने से चेतनाजी जैसे अपनी यादों में कहीं खो गईंI वे महेशजी से बोलीं,”आप को याद है जब विवान घुटनों पर चलना सीख ही रहा था, कितना परेशान करता था मुझे. एक पल यहां तो एक पल वहां. मैं तो उस के पीछे भागतीभागती परेशान हो जाती थी.”

चेतनाजी की आंखों में आज भी बिलकुल वही चमक आ गई जैसी तब आई होंगी जब विवान घुटनों पर चलना सीख रहा था. महेशजी उन के घुटने में मालिश करते हुए बोले,”तभी तो उस के पीछे भागतेभागते खुद के घुटनों में दर्द करवा लिया और अब मालिश मुझ से करवा रही हो.”

चेतनाजी बनावटी गुस्से में बोलीं, “जाओ रहने दो, मालिश क्या कर रहे हो आप तो एहसान जता रहे हो.”

महेशजी हंसते हुए बोले,”गुस्सा तो तुम्हारी नाक पर बैठा रहता है पर आज भी सब का गुस्सा बस मुझ पर ही उतरता है. अरे बाबा, मैं तो मजाक कर रहा हूं. मेरा बस चले तो अपनी हीरोइन को पलकों पर बैठा कर रखूं.”

चेतनाजी उन्हें झिडकते हुए बोली,”कुछ तो शर्म करो, बुढ़ापा आ गया और यहां इन को दीवानगी सूझ रही है. अरे, किसी ने सुन लिया तो कहेगा कि बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम…”

महेशजी बोले,”बोलता है तो बोलने दो. अब मुझे किसी की परवाह नहीं. जवानी के दिनों तो हम ने घरगृहस्थी और जिम्मेदारियों में बिता दी, अब दो घड़ी फुरसत मिली तो ये पल भी गंवा दूं… सब की परवाह करते पहले ही बहुत कुछ गंवा चुका, अब गंवाने की भूल नहीं कर सकता,” कहते हुए वे चेतनाजी की गोद में किसी बच्चे की जैसे सिर रख लेट गए.

चेतनाजी को भी उन पर किसी बच्चे की ही तरह प्यार आया. वे उन के बालों में हाथ फिराने लगीं. महेशजी उन की गोद में लेटेलेटे ही बोले,”पता है, जब तुम विवान और बेटी नित्या में व्यस्त रहती, कितनी ही दफा मैं ने मूवी की टिकट, जो मैं कितना खुश हो ले कर आता था, बिना तुम्हें बताए फाड़ देता. घर पर मूड बना कर आता आज कैंडल लाइट डिनर करेंगे पर घर आता तो देखता कभी तुम बेटे की नैपी बदलने में व्यस्त हो तो कभी बेटी की पढ़ाई में.”

चेतनाजी को उन की आवाज में उन अनमोल पलों को खोने की कसक महसूस हो रही थी. उन्होंने उन के सिर को अपनी गोद से हटाया तो महेश जी बोले,”कभी तो 2 घड़ी मेरे पास बैठा करो, तुम को तो मेरे लिए फुरसत ही नहीं, अब कहां चल दीं?”

पर चेतनाजी बिना उन की सुने चल दीं. महेशजी तुनकते रहे. चेतनाजी जब आईं तो उन के हाथों में तेल था. महेश जी से बोलीं,”आप को तो उलटा पड़ने की आदत है. इधर आओ,” और वे कुरसी पर बैठ महेशजी के बालों में मालिश करने लगीं.

महेशजी बोले,”अरे, क्या कर रही हो, मुझे जरूरत नहीं. अभी तुम्हारे हाथों में दर्द हो जाएगा.

चेतना जी बोलीं,”अरे बाबा, मैं तो तुम्हारा कर्ज चुका रही हूं, नहीं तो सुनाते रहोगे.”

महेशजी रूठते हुए बोले,”बस, क्या इतना ही समझी मुझे?”

चेतनाजी उन्हें मनाती हुई बोलीं,”तुम भी न मजाक भी नहीं समझते. हर बात को गंभीरता से ले लेते हो और बच्चों की जैसे रूठ जाते हो. अब क्या बच्चों की जैसे मनाऊं भी…”

दोनों पतिपत्नी किसी बच्चे की तरह बेसाख्ता हंसने लगे. चेतनाजी उन के बालों में मालिश करती बोलीं,”याद है, जब मैं दोनों बच्चों के बालों में मालिश करती तो तुम कभीकभी गुस्सा हो कहते कि कभी तो मेरे बालों में भी कर दिया करो मालिश…और मुझे मलाल भी होता. मन बनाती आज तो इन की शिकायत दूर करूंगी और दोनों बच्चों से फ्री हो कर जब तुम्हारे पास तुम्हारे बालों में मालिश करने आती, तब तक तुम मेरे इंतजार में घोड़े बेच कर सो चुके होते. सच, जब तुम्हें देखती तो खुद पर गुस्सा भी आता.”

वे दोनों अपनी यादों में खोए थे, इतने में काली घटाएं छा गईं. चेतनाजी लड़खड़ाते कदमों से बाहर कपड़े उठाने को भागीं. मसाले भी धूप लगाने को रखे थे, वह भी उठाने थे. तब तक महेशजी रसोई में चाय बनाने लगे, साथ में विवान के लिए बनाए लड्डू और मठरी भी ले आए. अब तो चेतनाजी भी कुछ नहीं कहेंगी, नहीं तो उन को हाथ भी नहीं लगाने देतीं, कहतीं कि सब तुम ही खा जाओगे, कुछ विवान के लिए भी छोड़ोगे क्या?

पर अब जब विवान ही नहीं आ रहा तो किस के लिए बचाती. महेशजी ने चेतनाजी को चाय पकड़ाई और दोनों बरामदे में रखे झूले पर बैठ गए. बाहर बारिश शुरू हो गई थी.

महेशजी बोले,”याद है, तुम्हारा कितना मन था इस झूले को घर लाने का? इस पर हम दोनों बैठे, गप्पें लड़ाएं, चाय पिएं. मैं कितनी खुशी से यह झूला लाया था, तुम भी इसे देख कितना खुश थीं पर कसक मन में ही रह गई. कभी तुम बच्चों के टिफिन में व्यस्त, कभी चूल्हेचौके में. मैं अकेला चाय पी लेता और तुम भी ठंडी चाय एक घूंट में खत्म कर जाती और यह झूला हमारा और हमारी फुरसत में बिताए पलों का इंतजार ही करता रह गया.”

महेशजी मठरी खाते बोले,”तुम्हारे हाथों में तो आज भी जादू है,” कह उन्होंने चेतनाजी के हाथ चूम लिए. आज चेतनाजी ने भी अपना हाथ नहीं छुड़ाया. महेश जी उन के हाथों को अपने हाथ में ले बोले,”बेटे के बहाने सही, कम से कम मुझे लड्डू और मठरी तो खाने को तो मिल रहे हैं. नहीं तो मैं तो स्वाद ही भूल गया था.”

भले महेशजी ने यह बात मजिक में कही थी, पर आज चेतनाजी को भी बहुत दुख हुआ. आज उन्होंने भी महेशजी को खाने से नहीं रोका. उन को तो आज महेशजी को यों खाते देख तसल्ली सी मिल रही थी, साथ ही दुख भी था. हमेशा बच्चों की पसंद के आगे उन की पसंद पर ध्यान ही नहीं दिया. वे कुछ बनाने को कहते तो बस यही कहती कि बच्चों को यह सब पसंद नहीं. और महेशजी भी बच्चों की पसंद में ही खुश हो जाते.

बाहर बारिश जोर पकड़ चुकी थी. इधर महेशजी और चेतनाजी अपने यादों में डूब चाय की चुसकियां ले रहे थे. चेतना जी बोलीं,”मुझ से ही क्या कह रहे हो, इधर जब बच्चे बड़े हो रहे, अपनी अपनी पढ़ाई में व्यस्त हो गए और जब मुझे थोड़ा समय मिला तो तुम अधिकतर काम से बाहर रहने लगे.”

महेशजी भी उन दिनों को याद करते हुए बोले,”क्या करता चेतना, बच्चों की भविष्य के लिए काम भी तो ज्यादा करना था. उन की पढ़ाई, उनकी शादियां…”

चेतनाजी चाय के खाली कप और प्लेट रखते हुए बोलीं,”सच, आप के बिना न जाने कितनी रातें तकिए पर करवटें बदलते बिताई. बच्चों के पास जाती तो वे बेचारे अपनी पढ़ाई में व्यस्त. सच, कितनी बातें होतीं तुम से साझा करने को और ये बातें भी तो दगाबाज होती हैं. जब आप होते तो या तो याद ही नहीं रहती या बताने को समय नहीं होता और जब आप नहीं होते तो सोचती आप आओगे तो यह कहूंगी, आप आओगे तो वह कहूंगी. और जब आप आते तो या तो मैं व्यस्त या आप व्यस्त. सच, जिंदगी के कितने ही अनगिनत पल यों ही गंवा दिए. हर रिश्ते को संवारने में अपने रिश्ते को बेतरतीब कर दिया.”

महेशजी को चेतनाजी की आंखों में कसक और नमी साफ दिख रही थी. वे चेतनाजी का हाथ अपने हाथों में ले बोले,”फिर भी देखो, जब सारे रिश्ते बेतरतीब हो गए, तो हमारा रिश्ता ही सब से ज्यादा संवर गया. पहले तुम कितना भिनभिनाती थीं. 1 कप चाय भी नहीं बनाती थीं और अब हमारी महारानीजी को बैड टी के बिना उठने की आदत नहीं.”

दोनों बातों में मशगूल थे कि तभी चेतनाजी शरमाती हुई बोलीं,”पता है, आज गाने की ये पंक्तियां बिलकुल हमारे रिश्ते पर सटीक बैठती हैं…”

महेशजी ने आंखों से ही जैसे पूछा, कौनसा गाना?

चेतना जी महेशजी को देख कर गुनगुनाने लगीं,”आखिर तुम्हें आना है, जरा देर लगेगी…”

उस गाने को आगे बढ़ाते महेशजी बोले,”बारिश का बहाना है, जरा देर लगेगी…”

दोनों एकदूसरे से सिर सटा कर हंसने लगे. महेशजी हंसते हुए बोले,”सही कहा, देरसवेर ही सही, हमें एकदूसरे के पास ही आना है. इसी बात पर आज तो प्याज के पकोड़े हो जाएं. बारिश में मजा आ जाएगा.”

वे उठ कर रसोई में जा ही रही थीं कि तभी उन की बेटी नित्या का फोन का फोन आ गया,”पापा, मैं कल आ रही हूं, कुछ दिन आप के पास ही रहूंगी, मां से कहना कि अब रोज उन के हाथों का स्वादिष्ठ खाना चाहिए.”

फोन स्पीकर पर ही था. महेशजी अपनी बेटी से बोले,”बेटा, तेरी मां सब सुन रही है तू खुद ही बोल दे.”

नित्या बोली,”मां, तुम्हें तो मेरी पसंदनापसंद पता ही हैँ न…”

चेतनाजी हंसती हुई बोलीं, “हां बेटा, तू बस जल्दी आजा, सब तेरी पसंद का बनेगा.”

फोन कट चुका था, चेतना जी बोलीं,”सुनोजी, अब कोई पकोड़े नहीं. मैं कुकर में खिचड़ी चढ़ा रही हूं. कल से वैसे ही सब आप की बेटी की पसंद का खाना बनेगा और दोनों बापबेटी मेरी सुनोगे नहीं. थोड़ा अपनी सेहत का भी सोचो. और हां, अब काम करने दो, आप को तो कोई काम नहीं पर यहां तो 70 काम हैं,” यह कहती वे रसोई की तरफ बढ़ गईं. बेटी की आने की खुशी उन के चेहरे के साथ उन की चाल में भी झलक रही थी.

महेशजी चेतनाजी को जाते देख गाने लगे,”आखिर तुम्हें आना है…”

उन की बात काटती चेतनाजी बोलीं,”तुम्हें नहीं… हमें, आखिर हमें आना है…जरा देर लगेगी…”

दोनों की हंसी की आवाज से पूरा घर खनक रहा था. जो घर बेटे के नहीं आने से कुछ देर पहले उदास था, वही घर अब बेटी के आने से खुश था. इधर महेशजी के मोबाइल पर विवान का मैसेज आया,”पापा, अब तो मां खुश है न, दीदी को बताया तो वे बोलीं कि चिंता मत कर मैं हूं न…”

महेशजी ने विवान को खुश रहने का आशीर्वाद दिया और दिल की इमोजी भेजी. सच, बच्चों के इतनाभर करने से मांबाप झट से सब भूल जाते हैं.

तभी रसोई से चेतनाजी बोलीं,”अब यह मोबाइल में क्या खिचड़ी पका रहे हो, इधर आ कर जरा हाथ बंटा दो.”

महेशजी उठते हुए बोले,”खिचड़ी मैं नहीं तुम पका रही हो…” और दोनों फिर हंसने लगे.

मैं 4 साल छोटे लड़के से प्यार करती हूं, क्या करूं?

सवाल
मैं तलाकशुदा हूं. मेरे 3 बच्चे हैं. मैं 4 साल छोटे लड़के से प्यार करती हूं. हम दोनों ने चुपके से शादी की. अब वह मुझ से दूरदूर भागने लगा है जिस की वजह से मैं बहुत परेशान रहती हूं. मेरा दिल करता है कि आत्महत्या कर लूं मगर बच्चों के लिए जी रही हूं. मेरे पास जो कुछ था, जमीनजायदाद, पैसा, सबकुछ मैं उस को दे चुकी हूं. अब वह मुझ से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहा है. जबकि मैं उस से बहुत प्यार करती हूं. अब वह किसी और से शादी करने वाला है. दिनोंदिन मेरा मानसिक संतुलन बिगड़ता जा रहा है.

जवाब
आत्महत्या समस्या का समाधान नहीं. यह सच है कि आप की समस्या की वजह स्वयं आप हैं, पर इस समस्या से निकलने और आगे बढ़ने का मार्ग भी आप को ही ढूंढ़ना पड़ेगा. सब से पहले तो यह समझ लीजिए कि प्रेम अंधा होता है. इस अंधे प्रेम में ही आप यह नहीं देख सकीं कि वह युवक आप से क्या चाहता है.

अब तक आप ने अपने दिल की बहुत सुन ली. अब आप को अपने बच्चों के बारे में सोच कर फैसले लेने चाहिए. उस लड़के का खयाल पूरी तरह से अपने दिल से निकाल दीजिए. आप ने उस लड़के से चुपके से शादी की थी तो जाहिर है कि आप उस पर किसी तरह का हक नहीं जता सकतीं. शुरुआत में ही कुछ भी देते समय आप को लिखित कागजी कार्यवाही करनी चाहिए थी. पर चूंकि आप ने ऐसा नहीं किया, तो अब अच्छा यही होगा कि उसे पूरी तरह भूल कर सिर्फ अपने बच्चों के लिए जीने का प्रयास करें और नए सिरे से जिंदगी की शुरुआत करें.

 

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

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