धूप का टुकड़ा बरामदे में प्रवेश कर चुका था. सूरज की कोमल किरणों के स्पर्श का अनुभव करते हुए रविवार की सुबह, अखबार पढ़ने के लोभ से मैं कुरसी पर पसर गई. अभी मैं ने अखबार खोला ही था कि दरवाजे की घंटी बज उठी.

दरवाजे पर मौसीजी को देख कर मैं ने लपक कर दरवाजा खोला.

मौसीजी के इस तरह अचानक आ जाने से मैं किसी बुरी आशंका से घबरा गई थी. पर वे काफी खुश नजर आ रही थीं.

‘‘बात ही कुछ ऐसी है, स्नेहा. मैं खुद आ कर तुम्हें खबर देना चाहती थी. राघव को हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया है.’’

‘‘अरे वाह, मौसीजी, बधाई हो.’’

मौसीजी के बेटे राघव की सफलता पर मैं खुशी से झूम उठी थी. राघव भैया इंजीनियरिंग की पढ़ाई समाप्त कर चुके थे, लेकिन उन की जिद थी कि एमबीए करेंगे तो हार्वर्ड से ही. हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर मनुष्य यदि ठान ले तो क्षमता और परिश्रम का योग उसे मंजिल तक पहुंचा कर ही दम लेता है.

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‘‘चलती हूं, ढेर सारा काम पड़ा है,’’ कह कर मौसीजी उठ खड़ी हुईं. मैं मौसीजी को जाते हुए देखती रही. और मेरा मन अतीत की गहराइयों में डूबता चला गया.

मेरी मां और मौसीजी बचपन की सहेलियां थीं. इत्तेफाक से शादी के बाद दोनों को ससुराल भी एक ही महल्ले में मिली. बचपन की दोस्ती अब गाढ़ी दोस्ती में बदल गई थी. मां की जिंदगी में अनगिनत तूफान आए. जबजब मां विचलित हुईं तबतब मौसीजी ने मां को सहारा दिया. उन के द्वारा कहे गए एकएक शब्द, जिन्होंने हमारा पथप्रदर्शन किया था,

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