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‘चंद्रयान 2’: पाकिस्तान ने चंद्रयान को लेकर भारत पर कसा तंज

भले ही चंद्रयान-2 पूरी तरह सफल न रहा लेकिन इसरो के वैज्ञानिकों ने पूरी कोशिश की.मिशन चंद्रयान 2 का कुछ ही दूरी पर था विक्रम लैंडर जब इसरो के वैज्ञानिकों से उसका संपर्क टूट गया. इसरो के अध्यक्ष और सभी वैज्ञानिक बहुत हताश औऱ निराश हैं लेकिन इसरो पूरा भारत तुम्हारे साथ खड़ा है और आज नहीं तो कल कामयाबी जरूर मिलेगी.इसरो के अध्यक्ष के.सिवन ने जब घोषण कर बताया कि संपर्क टूट गया है तो वो काफी दुखी थें.उनके आंख में आंसू आ गया हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें अपने गले लगाते हुए सांत्वना भी दिया.

पूरा  देश काफी उत्साहित था. 978 करोड़ रुपये में मिशन चंद्रयान 2 चांद को छूने ही वाला था लेकिन तभी एक दुखद खबर आई कि विक्रम लैंडर योजना के अनुरुप ही चल रहा था लेकिन 2.1 किमी पहले ही उसका भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन से संपर्क टूट गया. जब इसरो ने इसकी आधिकारिक घोषणा की तो सभी देशवासियों की उम्मीदें टूट गई और सारे वैज्ञानिक भी परेशान हो गए प्रधानमंत्री ने वहां से जाने से पहले सबको शुभकामनाएं दी लेकिन इसरो के अध्यक्ष जब मोदी के गले लगे तो उनके आंखों में आंसू थे वो भावुक पल देखकर किसी को भी रोना आ जाएगा.

इस वक्त पूरा देश इसरो के वैज्ञानिकों के साथ खड़ा है और उन्हें पूरी उम्मीद है कि एक दिन हम जरूर सफल होंगे.भारत की कोशिश बेकार नहीं जाएगी.इसरो पर आज पूरे देश को गर्व है. हालांकि पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आता है उसने भारत को ट्रोल करना शुरु कर दिया. पाकिस्तान के रेल मंत्री शेख रशीद ये कहते हैं कि उनके पास पाव भर के और आधे पाव के भी बम हैं. अब इस मंत्री की बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि ये मंत्री कैसा है कुछ और कहने की जरूरत नहीं हैं और फिर भी पाक भारत को धमकी देता है और चंद्रयान के विफल होने पर भारत पर कटाक्ष करता है.पाकिस्तान के विज्ञान और तकनीकि मंत्री फवाद ने ट्वीट कर लिखा है कि “जो काम नहीं आता, पंगा नहीं लेते ना..डियर इंडिया” इस मंत्री के बड़बोले बोल से अबतक आप ये तो समझ ही गए होंगे ही पाकिस्तान हमेशा पाकिस्तान ही रहेगा. क्योंकि उसे दूसरे मुल्कों को ट्रोल करने के सिवा कुछ भी नहीं आता है अब भाई  पाक मंत्री फवाद की बातों से तो यही लगता है.लेकिन पाकिस्तान तुम देखना भारत इस कामयाबी को जरूर हांसिल करेगा.

अरे भारत तो वो देश है जिसने पाकिस्तान से बहुत बाद में 1969 में इंडियन स्पेस रिसर्च और्गेनाइजेशन (इसरो) बनाया और छह साल के अंदर ही 1975 में अपना पहला सेटेलाइट आर्यभट्ट अंतरिक्ष में भेजा था. हिंदुस्तान ने हमेशा वैज्ञानिकों का सम्मान किया है और हिंदुस्तान को पूरा भरोसा है कि भले ही इस बार संपर्क टूटा है लेकिन उम्मीद अभी बाकी है और एक दिन ये सफलता भारत को जरूर मिलेगी. हमें यकीन है इसरो ये कामयाबी जरूर हांसिल करेगा और ये साबित करेगा कि भारत किसी भी देश से कम नहीं है. भारत के अंदर हर काम को करने का हौसला है और भारत कभी भी पीछे नहीं हटेगा.

योगी के गले की फांस बन रहे स्वामी चिन्मयानंद

उन्नाव के विधायक कुलदीप सेंगर के बाद पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री और बीजेपी के नेता स्वामी चिन्मयानंद पर लगे आरोप उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गले की फांस बन गये है. उन्नाव और शाहजहांपुर की घटना के बहाने योगी आदित्यनाथ की जातीय घेराबंदी की जा रही है. दोनों मामले में मुख्यमंत्री की बदनामी का सबब बन रही है. असल में कुलदीप सेंगर और स्वामी चिन्मयानंद दोनो ही ठाकुर जाति के लोग है. कुलदीप सेंगर के मामले में योगी के साथ उत्तर प्रदेश के डीजीपी तक पर जातिगत आधार पर आरोप लगाये गये थे. स्वामी चिन्मयानंद के मामलें में जाति के साथ ही साथ संत की छवि और पहनावा भी आरोपों को हवा देने का काम कर रही है.

इस बारे में खुद स्वामी चिन्मयानंद ने कहा कि मेरी बदनामी की आड़े में मुख्यमंत्री की छवि को नुकसान पहुंचाने की साजिश रची जा रही है. मैं पूरी तरह से निर्दोश हूं. उन्नाव कांड में भी विधायक कुलदीप सेंगर ने कहा कि लड़की के साथ हुई सडक हादसे से मेरा कोई मतलब नहीं है. कुलदीप मामले में पीड़ीता लडकी और उसके परिवार के साथ हुये सडक हादसे की जांच कर रही सीबीआई कोर्ट के आदेश के बाद भी 45 दिन में मामले की चार्जशीट दाखिल नहीं कर पा रही है. सीबीआई बारबार से कोर्ट से समय बढाने की मांग कर रही है.

खुद ही राजस्थान गई लड़की: 

जिस लड़की के गायब होने का आरोप स्वामी चिन्मयानंद पर लग रहा था वह खुद ही अपने दोस्त के साथ राजस्थान गई थी. एलएलएम यानि मास्टर औफ लौ की पढ़ाई करने वाली छात्रा ने 24 अगस्त 2019 को एक वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करके पूर्व केंद्रीय गृह राज्यमंत्री और बीजेपी के नेता स्वामी चिन्मयानंद पर शोषण का आरोप लगाया. इसके बाद लड़की गायब हो गई. 30 अगस्त को लड़की के पिता ने शाहजहांपुर कोतवाली में धारा 364 और धारा 506 के तहत मुकदमा दर्ज कराया. पुलिस ने चिन्मयानंद के खिलाफ धमकी और अपहरण की धाराओं में केस दर्ज कर लड़की तलाश शुरू कर दी. लड़की तलाश के लिये पोस्टर लगाये गये. जिसको लेकर लड़की की जानकारी उजागर करने आरोप पुलिस को झेलना पड़ा.

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इस दौरान उच्च न्यायलय ने मामले का संज्ञान लेते हुये सनुवाई शुरू कर दी. जस्टिस आर भानुमति और एएस बोपन्ना ने कहा कि लड़की को अकेला नहीं छोड सकते. कानून लड़की और उसके अधिकारों की रक्षा करेगा. लड़की और उसके भाई को सरकारी सुरक्षा में मनचाही जगह पर पढ़ने का अधिकार है. इस बीच छात्रा की बरामदगी राजस्थान से की गई. वहां से उसे दिल्ली ले जाया गया.

उत्तर प्रदेश के डीजीपी ओपी सिंह ने बताया ‘बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद ने इस संबंध में एक एफआईआर दर्ज कराई थी. एफआईआर के मुताबिक लड़की (ला छात्रा) उनसे 5 करोड़ रुपये मांग रही थी और पैसे न देने पर मीडिया में जाने की धमकी दी थी. इस मामले में उचित कानूनी कार्रवाई की जाएगी. ‘ कुलदीप सेंगर और चिन्मयानंद मामले में जितनी जल्दी कोर्ट का फैसला आयेगा. सच्चाई पर से परदा उतनी जल्दी ही उठेगा. सच बाहर आने तक इसकी आड़ में राजनीतिक रोटियां भी सेंकी जाती रहेगी. राजनीतिक कारणों से ही यह मसले इतने उलझ गये है कि इनका सच बाहर आना सरल नहीं रह गया है.

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DID7: इस शो पर दिखी करीना और सोनम की खास बौन्डिंग, किया धमाकेदार डांस

जी टीवी पर प्रसारित होने वाले शो “डांस इंडिया डांस” में करीना कपूर जज कर रही हैं. करीना के इस शो में आए दिन सेलेब्स अपनी फिल्म को प्रमोट करने आते रहते हैं. हाल ही में सोनम कपूर अपनी फिल्म “द जोया फैक्टर” को प्रमोट करने डांस इंडिया डांस में पहुंचीं.

इस शो के मंच पर करीना कपूर और सोनम कपूर के बीच की  काफी अच्छी बौन्डिंग नजर आई. दोनों ने फिल्म “वीरे दी वेडिंग” के सौन्ग “तारीफें” पर जमकर डांस किया. करीना और सोनम कपूर का डांसिंग वीडियो सोशल मीडिया पर  खूब वायरल हो रहा है.

वीडियो में करीना कपूर खान ब्लू और सिल्वर ग्लिटरी लौन्ग गाउन में नजर आ रही हैं. जबकि सोनम कपूर पिंक कलर की ट्रैडिशन ड्रेस में काफी स्टनिंग लग रही हैं. करीना और सोनम के बीच की मस्ती देखते ही बनती है. दर्शकों को भी अपनी फेवरेट एक्ट्रेसेज का ये रूप काफी पसंद आ रहा है.

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इनके काम की बात करो तो करीना कई प्रोजेक्ट्स में बिजी चल रही हैं. करीना, इरफान खान के साथ फिल्म हिंदी मीडियम के सीक्वल में नजर आने वाली है. गुड न्यूज फिल्म में करीना, कियारा आडवाणी और दिलजीत दोसांझ जैसे सितारों के साथ नजर आएंगी.

इसके अलावा वे करण जौहर के प्रोजेक्ट तख्त का भी हिस्सा हैं. वे लंबे समय बाद अक्षय कुमार के साथ भी काम करने जा रही हैं. सोनम कपूर की फिल्म “द जोया फैक्टर” की बात करें तो ये जोया सोलंकी नाम की एक लड़की की कहानी है. यह फिल्म 20 सितंबर को रिलीज होने वाली है.

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‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: कार्तिक के चाचा के एक्सट्रा मैरिटल अफेयर का होगा खुलासा

स्टार प्लस पर प्रसारित होने वाला  सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में जल्द ही दर्शकों को एक नया धमाकेदार ट्विस्ट देखने को मिलने वाला है. फिलहाल इस सीरियल की कहानी  नायरा, कार्तिक, वेदिका  और कैरव के इर्द गिर्द ही घूम रही है. पीछले एपिसोड में आपने देखा कि नायरा की खास दोस्त लीजा की रीएंट्री हुई है. और वो अपने रिलेशनशिप को लेकर काफी परेशान है,  लीजा ने नायरा को बताया है कि उसके बौयफ्रेंड ने उसे छोड़ दिया है. ये सुनकर नायरा सन्न हो जाती  है और वह लीजा से वादा करती है कि वह उसके बौयफ्रेंड से जरूर मिलवाएगी.

अगर आपने ये शो देखा है तो आपको पता ही होगा कि लीजा किसी और को नहीं बल्कि कार्तिक के चाचा और सुरेखा के पति आखिलेश को ही डेट कर रही है. जल्द ही इस सीरियल की कहानी  अखिलेश और लीजा के एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर पर फोकस होने वाली है.

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पीछले एपिसोड में  आपने देखा  कि जब नायरा  इस मामले में सुवर्णा से मदद मांगती है तो वह उसे बताती है कि लीजा के बौयफ्रेंड का नम्बर गोयनका कम्पनी के ही किसी एम्प्लौई का है. इस सीरियल के अपडेट के अनुसार जैसे ही नायरा गोयनका कम्पनी में जाकर इस नम्बर के बारे में पता करने जाएगी, वह वहीं पर कार्तिक से टकरा जाएगी. जब कार्तिक को नायरा से लीजा के बारे में पता चलेगा तो वो उसे खूब खरी खोटी सुनाएगा कि आखिर वह उससे सारी चीजें क्यों छिपाने लगी है?

 

लेकिन जब  कार्तिकको  पता चलेगा कि लीजा के बायफ्रेंड का नम्बर कम्पनी में ही मौजूद किसी शख्स है तो उसे काफी झटका लगेगा. इसके बाद कार्तिक नायरा की मदद करने के लिए कहेगा. रिपोर्ट के मुताबिक जल्द ही इस शो में अखिलेश का खुलासा होने वाला है. अब इस सीरियल में ये देखना दिलचस्प होगा कि  अखिलेश का सच सामने आने के बाद सुरेखा और बाकी परिवार वाले किस तरह से रिएक्ट करते है.

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चंदे का धंधा

  लेखक: सुनीत गोस्वामी

कोई भी धार्मिक काम बिना चंदे के नहीं होता. मेहनत की कमाई चंदे के माध्यम से ज्यादातर धार्मिक आयोजनों और अनुष्ठानों में जाती है. आम जनता चंदों से परेशान है, फिर भी धर्म के नाम पर अपनी जेब ढीली करने में कोताही नहीं बरतती. इसलिए चंदे का धंधा खूब फलफूल रहा है.

आगरा एक ऐतिहासिक शहर है. यहां मुगलकाल और ब्रिटिशकाल के कई स्मारक मौजूद हैं. आगरामथुरा राजमार्ग पर जिला मुख्यालय से लगभग 6-7 किलोमीटर दूर एक मुगल स्मारक है, अकबर का मकबरा यानी अकबर टौंब. जहां यह स्मारक स्थित है, उस क्षेत्र को सिकंदरा कहा जाता है.

सिकंदरा से उत्तर की तरफ यहां से दोढ़ाई किलोमीटर दूर एक गांव है कैलास. यमुना किनारे एक तरफ जंगल से घिरा यह स्थल मुख्यतया धार्मिक स्थल है. यहां शिव का एक प्राचीन मंदिर है. इस के बारे में कहा जाता है कि यहां स्थित 2 शिवलिंग परशुराम और इन के पिता जयदग्नि द्वारा स्थापित हैं. बाद में भक्तों ने यहां मंदिर बनवा दिया था.

बहरहाल, जो भी हो, कैलास का यह मंदिर काफी पुराना था, यह सच है. लेकिन 20-25 साल से यह नए स्वरूप में खड़ा है. यहां लाल पत्थर की जगह अब भव्य मार्बल और संगमरमर के पत्थर लगे हैं. मंदिर की ऊंचाई भी आकाश को छूती नजर आती है. और यह सारा कमाल हुआ है चंदे के धंधे से. ऐसा एक नहीं, कई मंदिर और हैं जो चंदे और चढ़ावे से आज विशाल रूप लिए हुए हैं. अब तो ट्रस्ट के नाम पर चंदा उगाही होती है जिस में एक नहीं, कई महंतपुजारियों का हिस्सा होता है जो बराबरबराबर बंटता है और बंटवारे में जहां तीनपांच हुआ, तो वहीं आपस में लड़ाईझगड़ा शुरू हो जाता है.

महंतपुजारी आने वाले भक्तों से रसीद काट कर चंदा वसूलते हैं. और शहर में घूमघूम कर धनपतियों से भी उन की धार्मिक भावनाओं का दोहन कर के चंदा वसूला जाता है.

कुल मिला कर बात यह है कि चाहे कैलास का शिव मंदिर हो या फिर देश के कोनेकोने में बने मंदिर, इन मंदिरों के नाम पर करोड़ों का चंदा वसूला जाता है. इस चंदे से मंदिरों का भव्य निर्माण तो होता ही है, साथ ही महंतोंपुजारियों की जीवनशैली भी भव्य हो जाती है. अब इन लोगों ने आमदनी के लिए दूसरे मंदिर भी बना लिए हैं. महंतपुजारी अब 4 पहियों की गाडि़यों में सफर करते हैं और भोगवादी जीवन जीते हैं.

तरीके और भी हैं

हमारे देश और समाज में कई ऐसे आयोजन होते हैं जिन का संचालन चंदे की रकम से होता है. कुछ धूर्त लोग एक कमेटी या संस्था बना कर ऐसे कामों का आयोजन करते हैं. सार्वजनिक मेले, मंदिर में मूर्ति स्थापना, भंडारों का आयोजन, होलिका दहन, धार्मिक कथाओं का आयोजन, कवि सम्मेलन, देवी जागरण आदि ऐसे कई काम हैं जो आम आदमी के आर्थिक चंदे से किए जाते हैं.

सवाल यह है कि आम आदमी किसी के दबाव में आ कर आखिर ऐसे कामों में सहयोग क्यों करे? कवि सम्मेलनों और मुशायरों को ही लें. यह बात अपनी जगह ठीक है कि एक अच्छी कविता हमें बहुत कुछ देती है. एक वैचारिक कविता हमें श्रेष्ठ होने के लिए प्रेरित भी करती है. कविताएं हमारा मनोरंजन भी करती हैं. लेकिन इस का अर्थ यह नहीं हो जाता कि कविता के नाम पर हम कुछ भी सुनने के लिए बाध्य किए जाएं. लेकिन कुछ मक्कार तथाकथित कवियों के दबाव में आ कर हमें यह सब झेलना पड़ता है.

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आज के कमाऊ माहौल में तमाम ऐसे कवि पैदा होने लगे हैं जो कविता के नाम पर फूहड़ हास्य और तुकबंदियां करते हैं. ऐसे ही कथित कवि और शायर कवि सम्मेलनों और मुशायरों का आयोजन करते हैं. इन की नजर कुछ धनसंपन्न लोगों पर होती है.

धूर्त कवि और शायर दबाव दे कर उन से चंदा वसूलते हैं. इतना ही नहीं, ये आयोजक साधारण लोगों से भी यथासंभव चंदा वसूलते हैं. आयोजन पर थोड़ाबहुत खर्च करने के बाद शेष बची रकम आयोजकसंयोजक की जेब में जाती है. और वे इस रकम को अपनी ऐयाशी के शौक पर खर्च करते हैं.

भंडारे का खेल

हमारे समाज में एक बड़ा आयोजन होता है भंडारे का. हमारे देश में हर साल कितने भंडारे होते हैं, इस का सहीसही आकलन कठिन है. आमतौर पर नवरात्रों में मां दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए सार्वजनिक भोज अर्थात भंडारे का आयोजन होता है. फिर किसी धार्मिक कथा का आयोजन हो या किसी साधुमहात्मा की पुण्यतिथि वगैरह हो, तो भी भंडारों का आयोजन किया जाता है.

यह एक ऐसा काम है जिस से आवश्यकता से अधिक चंदा इकट्ठा कर लिया जाता है. किसी भंडारे में 500 लोगों ने भी भोजन किया तो प्रचार यही किया जाता है कि ढाईतीन हजार लोगों ने खाना खाया. और ऐसे ही झूठे आंकड़ों के आधार पर हर साल चंदा वसूली की जाती है.

चंदा वसूलते समय यह कह कर दबाव बनाया जाता है कि अरे, इतने हजार लोगों का खाना है, इतने पैसों से क्या होगा, और दो. और इस बात को सत्य ही समझिए कि धार्मिक भंडारों में दिया जाने वाला चंदा एक मोटा धंधा है. जितना बड़ा आयोजन, उतना ही तगड़ा चंदा.

कुछ बड़े भंडारों में तो लाखों का चंदा किया जाता है. आधा खर्च करने के बाद भी आधे की बचत हो जाती है. छोटेमोटे भंडारों में भी 10-20 हजार रुपए की बचत मामूली बात है. जो लोग कमेटी बना कर या किसी मंदिर से जुड़ कर भंडारे करवाते हैं, उन का मकसद यह कतई नहीं होता कि वे भूखों को खाना खिलाएं. यदि ऐसा होता तो ये लोग रोज ही अपने यहां किसी एक वंचित को तो भोजन करा ही सकते हैं. सार्वजनिक भोजन के नाम पर चंदा और चंदे के नाम पर कमाई ही इन का मुख्य मकसद होता है.

आम आदमी है त्रस्त

किसी मंदिर में किसी देवीदेवता की मूर्ति स्थापना करनी हो तो चंदा. होली जलाने के लिए लकडि़यां लानी हों तो चंदा. दशहरे पर रावण भी चंदे की रकम से पाटा जाता है. देवी जागरण और मेलों के आयोजनों में भी चंदा वसूली की जाती है. समाज के जो धूर्त लोग चंदे का धंधा करते हैं, वे कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देते. दरअसल, इस अवैध वसूली पर ही उन की शराबखोरी और ऐयाशी फलतीफूलती है.

कई मामलों में चंदा वसूली पूरी तरह से आर्थिक शोषण की तरह हो जाती है. कई बार यह देखा गया है कि 10-12 युवाओं का टोला आता है. ये लोग शराब पिए हुए होते हैं. पूरे अधिकार के साथ मुंहमांगी रकम की मांग करते हैं. अगर सामने वाला उतनी रकम नहीं देना चाहता, तो ये लोग बदतमीजी पर उतर आते हैं. यहां तक कि गालीगलौज करते हैं और धमकियां देते हैं.

जिन लोगों से इन्हें मनमाफिक चंदा नहीं मिलता है, उन्हें ये तरहतरह से परेशान करते हैं. राह चलते उस परिवार की लड़कियों को छेड़ते हैं. या फिर रात में उस आदमी के मकान के बाहर कीचड़ वगैरह फेंक देते हैं. मकान की दीवारों पर अश्लील गालियां लिख देते हैं. जो लोग कम चंदा देते हैं उसे यह चंदा मंडली सार्वजनिक तौर पर जलील करती है. उसे यह कह कर जलील किया जाता है कि यह तो नंगा है. बेचारा बहुत गरीब है. भीख मांगमांग कर तो खाना खाता है. एक आम और शरीफ आदमी के लिए यह जलालत असहनीय हो जाती है. इस तरह वह अपना पेट काट कर भी चंदा दे देता है.

राहजनी जैसा है यह

अब आप ही सोचिए कि इस तरह चंदावसूली क्या किसी राहजनी से छोटा काम है. लेकिन मजे की बात है कि कानून में इसे अपराध घोषित नहीं किया गया है. कायदे से चंदे के नाम पर जबरन वसूली को अपराध ही माना जाना चाहिए और इन मामलों में पुलिस में अभियोग भी पंजीकृत होने चाहिए. यह जरूरी नहीं है कि ब्लैकमेलिंग या हथियार के बल पर धनउगाही को ही क्राइम माना जाए. धमका कर अथवा धर्म और भगवान के नाम पर धन उगाहना भी एक जरायम पेशा है. और इस तरह पैसा वसूलना भी एक जरायम पेशा है. सरकार को आम आदमी के इस कष्ट पर ध्यान देना चाहिए.

चंदा वसूलने वालों से यह सवाल पूछना स्वाभाविक है कि आखिर धर्म और भगवान के ठेकेदार वे क्यों हैं. आखिर किस ने उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी है कि धार्मिक परंपराओं का निर्वाह करें. फिर अगर वे ऐसा चाहते हैं तो उन्हें यह सब अपनी कमाई में से क्यों नहीं करना चाहिए.

हकीकत यह है कि किसी भी आयोजन में चंदा वसूलने वाले उस में अपना एक रुपया भी नहीं लगाते. हां, बचत जरूर कर लेते हैं. मजे की बात यह भी है कि किसी आयोजन में कितना चंदा आया और कितना खर्र्च हुआ, इस का कोई हिसाबकिताब नहीं रखा जाता.

किसी भी आम आदमी को यह अधिकार है ही नहीं कि वह चंदे की रकम का हिसाबकिताब देख सके. जब सूचना के अधिकार के तहत हम सरकारी खर्च का ब्योरा देख सकते हैं, तो इन चंदे वालों का हिसाबकिताब देखने का अधिकार हमें क्यों नहीं होना चाहिए? लेकिन ऐसा करने की हिम्मत भी आम आदमी में नहीं है. क्योंकि इन गुंडे चंदेबाजों से कौन लड़ाई मोल ले. यह मामला सचमुच एक आम आदमी के लिए बेहद दयनीय हो जाने वाला है.

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महंगाई के दौर में चंदे का धंधा करने वालों ने अपनी धनराशि भी बढ़ा दी है. छोटे से छोटे आयोजन में भी वे 101 रुपए से कम लेते ही नहीं. बड़े आयोजनों में यह धनराशि 1000, 5,000 और 10,000 रुपए तक होती है. जो परिवार 15-20 हजार रुपए कमा कर अपनी औसत जिंदगी जीता है, उस के लिए साल में कईकई बार चंदा देना कितना बड़ा दर्र्द है, यह समझा जा सकता है.

मेरे एक परिचित को अपनी बच्ची की दवाई के पैसे चंदेबाजों को देने पड़े. अपना मानसम्मान बचाने की खातिर वह चंदा देने से मना कर ही नहीं सकता था. इस तरह के न जाने कितने लोग हैं, जो चंदेबाजों से परेशान रहते हैं.

धन हमारी जिंदगी के लिए बहुत कुछ माने रखता है. लेकिन बहुत कुछ खो कर भी धन कमाने के कोई माने नहीं हैं. और इस तरह चंदेबाजों को भी अपना बहुत कुछ खोना पड़ता है. उन्हें अपनी सहज मनुष्यता खोनी पड़ती है. उन्हें लोगों से मिलने वाला प्यार खोना पड़ता है. उन के लिए लोगों के दिलों में शुभकामनाएं नहीं उठतीं, बद्दुआएं निकलती हैं. इसलिए जहां सरकार को चाहिए कि वह जबरन चंदा वसूली पर प्रभावी रोक लगाए, वहीं चंदेबाजों को भी ऐसा गिरा हुआ धंधा करने से बाज आना चाहिए.     द्य

पाप कटाने का कारोबार

पाप मुक्ति का प्रमाणपत्र जारी करने वाले एक पंडित नंदकिशोर से बातचीत की तो उन्होंने जो बताया वह खालिस धार्मिक बकवास थी, जो हर जगह अलग तरीके से सुनने को मिल जाती है. कभी औरंगजेब ने गोतमेश्वर मंदिर की एक मूर्ति तुड़वा दी थी, नतीजतन, एकाएक ही भगवान के क्रोध से बेमौसम आंधीतूफान आ गया था, जंगली ततैयों ने औरंगजेब की सेना पर हमला कर दिया था. इस से घबरा कर उस  ने मंदिर बनवाने का संकल्प लिया, तब कहीं जा कर हालात सामान्य हो पाए.

मगर हकीकत में यह मंदिर भोलेभोले आदिवासियों को लूटने का अड्डा है, जिन्हें लगता है कि उन से पाप होते हैं और उन की सजा से बचने के लिए बेहतर यही है कि 11 रुपए दे दिए जाएं. आदिवासियों की गरीबी के लिहाज से पहले ये 11 रुपए बहुत हुआ करते थे. नकद दक्षिणा के साथसाथ लोग अनाज भी खूब चढ़ाते थे.

पंडित की मानें तो अब से कुछ साल पहले तक पाप मुक्ति प्रमाणपत्र में पाप का प्रकार भी वर्णित रहता था. मसलन, वध, चोरी, गर्भपात, बलात्कार, प्राणघातक हमला, गौहत्या और ब्रह्म अपमान वगैरह. आपराधिक मामलों में दोषी इस प्रमाणपत्र को अदालत में पेश करने लगे, तो समन पुजारियों को भी जारी होने लगे.

अदालती झंझटों से बचने के लिए प्रमाणपत्र से इस कौलम को हटा दिया गया. भगवान ने भी इस फेरबदल पर कोई एतराज नहीं जताया. किसे, कब, कितने पाप करने हैं, यह तो वह जन्म के साथ ही लिख चुका है. सो, मुक्ति और माफी के इस प्रावधान से धर्मग्रंथों का दोहरापन ही उजागर होता है.

दक्षिणा का फंडा : इस प्रतिनिधि ने गंदे पानी में नहाने से असमर्थता जाहिर की तो पंडितजी बोले, ‘कोई बात नहीं, मन में स्नान कर लो या फिर कुछ बूंदें सिर पर डाल लो, स्नान संपन्न हो जाएगा.’ इस धूर्तता के जवाब में यह कहने पर कि आप भी मन में मान लो कि 11 रुपए दे दिए और प्रमाणपत्र दे दो, तो पंडितजी भड़क उठे. प्रमाणपत्र उन्होंने तभी दिया जब 12 रुपए उन की हथेली में घूस की तरह रख दिए गए. दोष यानी पाप निवारण का शुल्क 10 रुपए है, एक रुपया गऊ मुख का और एक रुपया प्रमाणपत्र की छपाई का लिया जाता है.

गोतमेश्वर मंदिर से हर साल औसतन 50 हजार प्रमाणपत्र पाप मुक्ति के जारी होते हैं. यानी 6 लाख रुपए बैठेबिठाए पंडित को मिल जाते हैं. इस से दोगुनी राशि का अनाज भी दान में आता है.

विज्ञान के इस युग में इस तरह के मंदिर और प्रमाणपत्र सभ्यता व समझदारी पर सवालिया निशान लगाते हैं कि लोगों को क्यों अपने पापी होने का भ्रम है? और क्या मुक्ति इतनी सस्ती है कि महज 12 रुपए में वे नए पाप करने का लाइसैंस हासिल कर लें?

दरअसल, यह तामझाम बताता है कि हम अभी भी पिछड़े, असभ्य और कायर हैं. इसीलिए मुक्ति के नाम पर धर्मस्थलों और पंडों के मुहताज हैं. दिमागी दिवालिएपन की यह हद है कि ताजी हवा और तर्कों से लोग कोई वास्ता न रखते गंवार ही रहना चाहते हैं.

पंडों को यह हक है कि वे कागज का एक टुकड़ा जारी कर विभिन्न जातियों को मजबूर कर सकते हैं कि दोषी यानी मरजी से जिंदगी जीने वाले को वापस लिया जाए, तो जाहिर है कि यह अदालतों की बेबसी की भी एक बड़ी मिसाल है जिस पर सभी खामोश हैं. और यह खामोशी जातिवाद, कट्टरवाद, खाप पंचायतों और पंडावाद को बढ़ावा देने वाली साबित हो रही है. समाज अभी भी धर्म से नियंत्रित और संचालित हो रहा है. अदालतें तो धर्म के सामने बौनी सी लगती हैं जिस का प्रमाण गोतमेश्वर मंदिर का पाप मुक्तिप्रमाण पत्र है.

धर्म के दुकानदारों को हमेशा से ही पापियों की सख्त जरूरत रही है. इसलिए पाप की परिभाषा व उदाहरण आएदिन बदलते रहते हैं. छोटी जाति वाले को छू लेना पहले सा बड़ा पाप नहीं रहा. वजह, उस की जेब में आ गया पैसा है. लिहाजा, उसे भी धर्म के मकड़जाल में फंसा लिया गया है. नतीजा यह हुआ कि पढ़ालिखा कल का अछूत धर्मग्रंथों में वर्णित पाप से डरने लगा और बचने के लिए पैसा चढ़ाने लगा.

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फिल्म समीक्षाः ‘नेटवर्क’

बंगला फिल्म: ‘नेटवर्क’

रेटिंग: 4 स्टार

अवधिः 1 घंटा 52 मिनट

निर्माताः प्रीति बसु और सप्ताश्व बसु

लेखक व निर्देशकः सप्ताश्व बसु

लेखकः रिनी घोष और सप्ताश्व बसु

संगीतकारः डब्बू,राज डे, अविराज और चिरंतन

कलाकार: सास्वत चटर्जी, सव्यसाची चक्रवर्ती, रिनी घोष, इंद्रजीत मजुमदार, कार्तिकेय त्रिपाठी, भास्कर बनर्जी, इरानी घोष, सयोनी घोष,  सप्तरिशि रौय, अक्षय कपूर, रानू बसु ठाकुर

फिल्म व टीवी इंडस्ट्री की पृष्ठभूमि की रोमांचक फिल्म ‘‘नेटवर्क’’ वर्तमान समय में गोपनीयता   अतिक्रमण व निजिता हनन के मुद्दे को मनोरंजक तरीके से उठाती है. आज जब हम सभी कई तरह की निगरानी /सर्विलेंस में है, तब यह फिल्म निजिता हनन व गोपनीयता अतिक्रमण के ज्वंलत मुद्दे पर बात करती है.

कहानीः

फिल्म की कहानी के केंद्र में मशहूर फिल्मकार अभिजीत गांगुली (सास्वत चटर्जी) हैं, जिन्होंने अब अपनी प्रसिद्धि खो दी है. वास्तव में वह अपनी बेटी पूजा की मृत्यु के बाद एक चलती-फिरती परछाई बन कर रह गए थे. धीरे धीरे वह लोगों से कट गए, जिसके चलते अब उन्हें कोई नहीं पहचानता. जब उन्हें अपनी कैंसर की बीमारी के बारे में पता चलता है, और डाक्टर कह देते हैं कि अब उनकी उम्र केवल एक वर्ष के लिए ही रह गयी है, तब वह ईलाज करवाने की बजाय अपने पास मौजूद संसाधनों की मदद से अपने करियर की अंतिम फिल्म बनाकर अपनी खोई हुई शोहरत को पुनः वापस हासिल हासिल करने के लिए प्रयास शुरू करते हैं. उनके पास एक बेहतरीन कहानी है, जिसे एक बहुत बड़े फिल्म निर्माता अरविंदम चक्रवर्ती (सव्यासाची चक्रवर्ती) पैसे के बल पर खरीदना चाहते हैं. मगर अभिजीत गांगुली सीधे मना कर देते हैं. फिर वह राज (इंद्रजीत मजुमदार) और श्रेया (रिनी घोष) जैसे कइ दूसरे प्रतिभाशाली कलाकारों और तकनीशियन के एक समूह के साथ फिल्म का निर्माण शुरू करते हैं. फिल्म का प्रोमो बन जाता है. आधे से अधिक शूटिंग हो जाती है. अभिजीत गांगुली, श्रेया को अपनी बेटी पूजा की तरह मानते हैं. वह श्रेया व राज पर पूरा भरोसा करते हैं. मगर अभिजीत गांगुली को पता ही नही चलता है कि अरविंदम चक्रवर्ती ने राज को खरीद लिया है.राज व श्रेया निजी जीवन में एक दूसरे से प्रेम करते हैं. इसलिए राज के इशारे पर श्रेया, अभिजीत गांगुली से गलत कागज पर हस्ताक्षर करवाकर उनके साथ धोखाधड़ी करती है. जिससे वे बर्बाद हो जाते हैं. पता चलता है कि अरविंदम चक्रवर्ती ने राज और श्रेया के साथ ही नए नाम से उनकी ही कहानी पर फिल्म बनाकर रिलीज कर दी. फिल्म सफल होती है. राज और श्रेया स्टार बन जाते हैं.

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पर अभिजीत गांगुली मरने से पहले हार नहीं मानना चाहते. वह टीवी का एक रियालिटी शो ‘‘देअर लाइफ‘‘ नाम से एक अनोखा शो बनाते हैं. यह टीवी शो नामचीन फिल्म कलाकारों व सेलिब्रिटी की लाइफ स्टाइल से संबंधित है. अर्जुन चटर्जी (सप्तरिशि रौय) को सामने रखकर राज व श्रेया की जिंदगी को अपने टीवी रियालिटी शो में पेश करने के लिए अग्रीमेट करते हैं. फिर इस टीवी शो के माध्यम से वह राज, श्रेया व अरविंदम चक्रवर्ती सहित उन सभी व्यक्तियों से पहर एपीसोड में एक एक करके बदला लेना शुरू करते है, जिन्होंने उन्हें धोखा दिया था.

निर्देशनः

गजब की पटकथा व गजब का निर्देशन. दर्शक पूरे वक्त तक अपनी सीट पर बैठा रहता है. लेखक इस बात के लिए बधाई के पात्र है कि फिल्म देखते समय दर्शक इस बात का अनुमान ही नहीं लगा पाता कि अगले दृश्य में क्या होगा?

‘आई विटनेस’,‘प्रतिंबिंब’, ‘जिआलो’  जैसी कई लघु फिल्में  निर्देशित कर चुके 27 वर्षीय सप्तास्व बसु की बतौर निर्देशक यह पहली फीचर फिल्म है, मगर फिल्म देखकर यह कहना मुश्किल है कि यह किसी कम उम्र के निर्देशक की पहली फिल्म है. वह मूलतः इलेक्ट्रनिक्स और कम्युनीकेशन इंजीनियर हैं, तो उन्होंने अपनी इस योग्यता का भरपूर उपयोग किया है. बौलीवुड के फिल्मकारों को भी यह फिल्म देखकर कुछ तो सीख लेनी चाहिए.

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अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो अभिजीत गांगुली के किरदार में शाश्वत चटर्जी, अरविंदम चक्रवर्ती के किरदार में सव्यसाची चक्रवर्ती, श्रेया के किरदार में रिनी घोष, राज के किरदार में इंद्रजीत मजुमदार और सुभो के किरदार में कार्तिकेय त्रिपाठी ने शानदार अभिनय किया है. फिल्म के कैमरामैन प्रसेनजीत चौधरी और अंकित सेन गुप्ता बधाई के पात्र है.

कैसा हो आप का इन्नरवियर

सुमेधा अक्सर ही खेल कूद जैसी गतिविधियों से दूर रहा करती है. उसे न भागना पसंद है, न बाकी लड़कियों की तरह उछल कूद करना और न ही नाचना गाना. वह 17 वर्ष की है परंतु अपनी उम्र की बाकी सभी लड़कियों से बिलकुल अलग. उसे देखकर कभी ऐसा नहीं लगता कि वह कम्फर्टेबल है. कभी उसकी टीशर्ट बहुत ढीली होती है तो उसका वक्षस्थल भी वैसा ही दिखता है. कभी बहुत टाइट कपड़े पहन ले तो फिगर पूरी खराब दिखने लगती है. अक्सर ही वह अपनी ब्रा स्ट्रैप ठीक करती नजर आती है जिसके कारण उसे बहुत बार शर्मिंदा भी होना पड़ा है.

सुमेधा की असुविधा और शर्मिंदगी का कारण उसका अंडरगारमेंट्स का गलत चुनाव है. यही कारण है कि वह ऐसे सभी कार्यों से बचती बचाती घूमती है जिन्हे करने में आमतौर पर लड़किया आगे रहती हैं और इसी कारण उसका आत्मविश्वास डगमगा गया है.

किसी भी लड़की या महिला के लिए यह बहुत जरुरी है कि वह अंडरगारमेंट्स ऐसे चुनें जिनमे वह पूरी तरह से कम्फर्टेबल भी हो और कौंफिडेंट भी महसूस करे. आजकल बाज़ार में लड़कियों के बौडी टाइप के अनुसार अलग अलग तरह के ब्रा व पैंटी उपलब्ध हैं. ब्रा की बात करें तो इनमे लाइट पैडेड, फुल्ली पैडेड, पुशअप, मोल्डेड, स्ट्रैपलेस, ट्यूब ब्रा, स्टिक ओन ब्रा, इनविजिबल स्ट्रैप, ब्रालेट्ट, केमीब्रा और स्पोर्ट्स ब्रा जैसे विकल्प उपलब्ध हैं. वहीं पैंटी में ब्रीफ, हाई कट ब्रीफ, बौयशौर्टस, हिप्स्टर, हाई वेस्ट और थोंग जैसे विकल्प हैं. लड़कियों द्वारा अपने बौडी टाइप और शेप साइज के अनुसार ही अंडरगारमेंट्स का चुनाव किया जाना चाहिए, परन्तु ऐसी बहुत सी लड़कियां व महिलाएं हैं जो गलत अंडरगारमेंट्स का चुनाव करती हैं. जो उनकी शारीरिक संरचना को तो प्रभावित करते ही हैं साथ ही उनके कौन्फिडेंस को भी खत्म करते हैं.

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अंडरगारमेंट्स कैसे चुनें

अंडरगारमेंट्स का चुनाव करते वक़्त यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है कि वह अफोर्डेबल और कम्फर्टेबल हों. तात्पर्य ऐसे अंडरगारमेंट से है जो आपके बजट के अनुसार हो, ऐसा न हो कि आप अपने अन्य खर्चों में कटौती करके अंडरगारमेंट खरीदें जिसके लिए आपको चाहे आपकी मां हों या सास उनसे सुनते रहना पड़े. आप यदि सूझबूझ से खरीदारी करेंगी तो कम रुपयों में भी अच्छी ब्रा या पैंटी खरीद पाएंगी. कम्फर्टेबल से बात साफ़ है कि ऐसा अंडरगारमेंट हो जो आपके बौडी टाइप का हो, ऐसा न हो कि ब्रा आपने 700 की ली हो और कम्फर्ट वो 70 वाला भी न दे. निम्नलिखित कुछ ऐसे सुझाव हैं जिनसे आप अपने लिए सही अंडरगारमेंट्स चुन सकती हैं.

ब्रांड – अंडरगारमेंट्स चुनते समय सबसे जरूरी है उसकी क्वालिटी देखना. क्वालिटी की बात करें तो साफ़ तौर पर ब्रांडेड अंडरगारमेंट्स बेस्ट होते हैं. कारण साफ है कि इनका फेब्रिक अत्यधिक अच्छा होता है. यदि आप के बजट में हो तो कोशिश करें कि आप ब्रांडेड ब्रा व पैंटी खरीद सकें. ब्रांडेड ब्रा 600 से शुरू हो कर 2000 तक की हो सकती है व पैंटी की कीमत 200 से 500 के बीच होती है. हालांकि किसी मध्यम वर्गीय लड़की या महिला के लिए इन्हे खरीदना सचमुच एक मुश्किल काम है परन्तु यदि वह बहुत बड़े नहीं तो दुकानों से छोटे मोटे ब्रांड की ब्रा लें तो वह 250 तक और पैंटी 100 रूपये तक भी मिल जायगी. ज़रूरी नहीं कि आपके पास 7 -8 अंडरगारमेंट्स हों, आप 2 या 3 भी लें तो कम से कम अच्छे लें.

शेप और साइज – कभी भी अंडरगारमेंट्स खरीदते वक़्त तुक्के न मारें कि ‘शायद मेरा यह साइज है,’ या ’32 या 34 दोनों में से कोई भी दे दो.’ आपको जबतक अपना सही साइज नहीं पता होगा तबतक आप एक सही ब्रा या पैंटी नहीं खरीद सकतीं. लड़कियां अक्सर पैंटी तो सही साइज की खरीद लेती हैं लेकिन उन्हें अपना सही ब्रा साइज नहीं पता होता. एक सर्वे के अनुसार 80 फीसदी महिलाएं गलत साइज की ब्रा पहनती हैं जिनमे 70 फीसदी अपने साइज से छोटी और 10 फीसदी अपने साइज से बड़ी ब्रा पहनती हैं. अत्यधिक चौंकाने वाली बात तो यह है कि अधिकतर लड़कियां दुकानों में या बाजारों से ब्रा खरीदते वक्त कहती हैं ‘आप अपने हिसाब से देखके दे दो.’ यह पूर्ण रूप से गलत है. हर लड़की को अपना साइज पता ही होना चाहिए.

इसके साथ ही अंडरगारमेंट्स खरीदते वक़्त लड़कियों को अपनी शेप पता होनी भी आवश्यक है, जैसे यदि आपकी बौडी पीअर शेप की है तो आपको सिंपल पैंटी पहननी चाहिए परन्तु यदि आपकी बोडी शेप आवरग्लास है तो हाई वेस्ट पैंटी आप पर अच्छी लगेंगी. साथ ही अधिकतर ब्रांड्स के साइज का पैमाना अलग अलग होता है तो उसे भी अच्छी तरह चेक कर लें

फैब्रिक – अंडरगारमेंट्स चुनते समय फैब्रिक को ध्यान में रखना अतिआवश्यक है. फैब्रिक की बात करें तो पहला चुनाव आपका कौटन ही होना चाहिए. कौटन इसलिए क्योंकि यह शरीर की नमी को सोख लेता है न कि उसे जमा करता है. यदि आप कौटन पैंटी खरीद रही हैं तो 100 फीसदी कौटन न लेकर 80 फीसदी कौटन और 20 फीसदी इलास्टिन लें, पूर्ण रूप से कॉटन होने पर पैंटी ज़्यादा समय तक नहीं चलेगी न ही उसमे लचक होगी.

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लैस फैब्रिक का चुनाव करते समय ध्यान दें कि आप ब्रांड के ही अंडरगारमेंट्स लें क्योंकि साधारणतया लैस से खुजली और खाज की समस्या भी उत्पन्न हो सकती है, लैस फैब्रिक के अंडरगारमेंट्स रोजमर्रा के लिए न लेकर विशेष अवसरों के लिए ही लें.

 रंग, डिज़ाइन और कम्फर्ट

ब्रा या पैंटी खरीदते समय रंग, डिज़ाइन व कम्फर्ट को ध्यान में रखना ज़रूरी है. आप टी शर्ट अधिक पहनती हैं तो ज़ाहिर सी बात है कि आपको स्पोर्ट्स ब्रा या फुल्ली पैडेड ब्रा न पहनते हुए लाइट पैडेड ब्रा चुननी चाहिए. ऐसे ही स्कर्ट्स के साथ पहनने के लिए बॉयशॉर्टस चुनने चाहिए. रंगो का चुनाव भी अत्यधिक आवश्यक है, बेसिक तीन रंग है जो लड़कियां हर ऑउटफिट के साथ पहन सकती हैं, काला, सफ़ेद और न्यूड. इन तीन रंगो के अलावा यदि आप अत्यधिक चमक वाला रंग चुनती हैं तो ध्यान रखें कि उन्हें ऐसे रंगो के कपड़ो के साथ पहने जिनमे वो अलग से उभर कर न दिखें. रंग हमारे मूड को भी बूस्ट करने में मदद करते हैं तो कुछ गुलाबी लाल अंडरगारमेंट्स लेने में बुराई नहीं है. कम्फर्ट अत्यधिक महत्वपूर्ण है, हो सकता है देखने में आपको थोंग्स अच्छे लगें लेकिन ज्यादातर वह रोजमर्रा के लिए कम्फर्टेबल नहीं होते. इसलिए अंडरगारमेंट्स खरीदते समय ये तीनो चीज़े ध्यान में रखना आवश्यक है.

 अंडरगारमेंट्स लें, सेहत से खिलवाड़ न करें

  • यदि अंडरगारमेंट्स सही न हो तो उसके सेहत पर अत्यधिक दुष्प्रभाव पड़ते हैं. यह दुष्प्रभाव निम्नलिखित हैं:
  • टाइट पैंटी पहनने से लड़कियों में योनि रोग होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. खुजली, जलन व दाद खाज की परेशानी का भी यह बड़ा कारण हैं. दूसरी तरफ टाइट ब्रा से स्तनों का आकार बिगड़ जाता है साथ ही दर्द होना व खून जमना भी शुरू हो जाता है. यह कंधो पर परमानेंट निशान व गड्ढे बनाने लगता है. इन दोनों से ही त्वचा पर निशान पड़ने शुरू हो जाते हैं. यह रक्तस्त्राव को भी प्रभावित करता है.
  • ढीली या बड़े साइज की ब्रा से पीठ और कंधो में दर्द होने लगता है. यह आपके कम्फर्ट लेवल को भी खत्म करती है. गलत साइज की ब्रा ब्रैस्ट कैंसर के खतरे को बढ़ाती है साथ ही यह ब्रैस्ट स्किन को डैमेज करती है और स्ट्रेच मार्क्स का भी कारण बनती है.
  • सिल्क या नायलौन के फैब्रिक की पैंटी यदि रोज पहनी जाए तो उससे मॉइस्चर बहार नहीं जाता जिससे यीस्ट और फंगल इन्फेक्शन हो सकता है.
  • थोंग या जीस्ट्रिंग पैंटी रोज पहनने से यूरिन इन्फेक्शन और वैजिनल इन्फेक्शन के खतरे बढ़ जाते हैं.
  • यदि अंडरगारमेंट्स का फैब्रिक मोटा है और वह आप भाग दौड़ के समय पहनते हैं तो घर्षण के कारण आपकी त्वचा कट और छील भी सकती है.

केयर भी है जरूरी

  • अपने अंडरगारमेंट्स को हमेशा हाथ से धोएं. बहुत हार्ड डिटर्जेंट का प्रयोग न करके फैब्रिक के अनुसार लाइट वाशिंग सप्लीमेंट्स का प्रयोग करें.
  • अंडरगारमेंट्स को ठीक से रखना भी महत्वपूर्ण है. अपनी लैस या वायर वाली ब्रा को हेंगर पर टांग कर रखें. पैंटी को ड्रावर में अच्छे से समेटकर रखें. यदि पैडेड ब्रा है तो उसे मोड़ मरोड़ कर न रखें.
  • हो सके तो पीरियड पैंटी और अन्य दिनों की पैंटी अलग अलग रखें.
  • ज्यादा से ज्यादा 6 महीने तक किसी अंडरगारमेंट का इस्तेमाल करें.

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मोह का जाल : भाग 2

आदमी इतना तटस्थ हो सकता है, मैं ने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था. विगत एक हफ्ते में हम ने कुछ अंतरंग क्षण व्यतीत किए थे, कुछ सपने बुने थे, सुखदुख में साथ रहने की कसमें खाई थीं, क्या वह सब झूठ था?

डैडी को पता चला तो वे भी आए. उन के उदास चेहरे पर मैं नजर भी न डाल सकी. कितने प्रयत्न, कितनी खुशी से संबंध तय किया था, क्या सिर्फ एक हफ्ते के लिए?

‘‘दिवाकरजी, आप मनुज को समझा कर देखिए. यह रोग भयंकर रोग तो है नहीं, मैं सच कहता हूं, हमारे यहां न मेरी तरफ और न ही इस की मां की तरफ किसी को यह रोग है. सो, यदि प्रयास किया जाए तो ठीक हो सकता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए डैडी बोले.

‘‘भाईसाहब, अपनी तरफ से तो मैं पूर्ण प्रयास करूंगा पर नई पीढ़ी को तो आप जानते ही हैं, यह सदा अपने मन की ही करती है,’’ मेरे ससुरजी डैडी को दिलासा देते हुए बोले.

मैं डैडी के साथ अपने घर वापस लौट आई. इस तरह एक हफ्ते में सारे सुख और दुख मेरे आंचल में आ गिरे थे. इस जीवन का क्या होगा? यह प्रश्न बारबार जेहन में उभर रहा था. मां मेरे लौट आने के बाद गुमसुम हो गई थीं. डैडी अब देर से घर लौटते थे. शायद कोई भी एकदूसरे से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था.

मैं विश्वविद्यालय की पढ़ाई करना नहीं चाहती थी. 2 बार प्रीमैडिकल परीक्षा में असफल होने के पश्चात एक बार फिर प्रीमैडिकल परीक्षा में सम्मिलित होने का निर्णय सुनाया तो सभी ने स्वागत किया. परीक्षा का फौर्म भरते समय नाम के आगे कुमारी शब्द देख कर मम्मी व डैडी बिगड़ उठे, किंतु, भाई रंजन ने मेरे समर्थन में आवाज उठाई, बोले, ‘‘ठीक ही तो है. उस संबंध को लाश की तरह उठाए कब तक फिरेगी?’’

एक महीने पश्चात मनुज ने अपने वकील के माध्यम से तलाक के लिए नोटिस भिजवाया. मांपिताजी ने हस्ताक्षर करने से मना किया, किंतु मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘पतिपत्नी का संबंध मन व आत्मा से होता है. यदि मन ही एकाकार नहीं हुए तो टूटी डोर में गांठ बांधने से क्या फायदा,’’ और कागज पर हस्ताक्षर कर दिए.

जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया. परीक्षा हुई और परिणाम निकला. सफल प्रतियोगियों में मैं अपना नाम देख कर खुशी से झूम उठी.

मम्मीडैडी के उदास चेहरों पर एक बार फिर खुशी झलकने लगी थी और मुझे मेरी मंजिल मिल गई थी.

5 वर्ष की पढ़ाई पूरी हुई. मैं लड़कियों में प्रथम रही थी. योग्यता के कारण सरकारी सेवा में नियुक्ति हो गई. पूरे दिन रोगियों की सेवा करती तो अलग तरह के आनंद की प्राप्ति होती. कभीकभी लगता वह जीवन क्षणमात्र के लिए था. मेरा जन्म तो इसी के लिए हुआ है. कभी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से अपनी तुलना करती तो कभी जौन औफ आर्क से, मन में छाया कुहासा पलभर में दूर हो जाता और कर्तव्यपथ पर कदम स्वयं बढ़ने लगते.

एक दिन अस्पताल में बैठी रोगियों को देख रही थी कि एक युगल ने कमरे में प्रवेश किया. मैं उस जोड़े को देख कर चौंक गई, किंतु चेहरे पर आए परिवर्तन पर यथासंभव अंकुश लगा लिया.

‘‘कहिए, क्या तकलीफ है आप को?’’ मैं ने सामान्य होते हुए पूछा.

‘‘आप इन का चैकअप कर लीजिए. चलनेफिरने में तकलीफ होती है, पैरों में सूजन भी है,’’ युवक ने कहा.

‘‘चलिए,’’ उठते हुए मैं ने कहा व बगल के कमरे में ले जा कर युवती का पूरा चैकअप किया और फिर बताया, ‘‘कोई परेशानी की बात नहीं है, इन्हें उच्च रक्तचाप है. इसी कारण पैरों में सूजन है. दवा लिख रही हूं, समय पर देते रहिएगा. बच्चा होने तक लगातार हर 15 दिन बाद चैकअप करवाते रहिएगा.’’

‘‘जी, डाक्टर.’’

‘‘नाम?’’ दवाई का परचा लिखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘ऋचा शर्मा,’’ उत्तर युवती ने दिया.

परचे पर नाम लिखते समय न जाने क्यों हाथ कांप गया था. कुछ दवाएं व टौनिक लिख कर दिए. साथ में कुछ हिदायतें भी. वे दोनों उठ कर चले गए, किंतु दिल में हलचल मचा गए. उस दिन, दिनभर व्यग्र रही. बारबार अतीत आ कर कुरेदने लगा. जो चीज मैं पीछे छोड़ आई थी, वह क्यों फिर से मुझे बेचैन करने लगी थी. मैं ने अलमारी से वह फोटो निकाली जो विवाह के दूसरे दिन जा कर खिंचवाई थी. देख कर मैं बुदबुदा उठी थी, ‘तुम क्यों मेरे शांत जीवन में हलचल मचाने आ गए. मैं ने तुम से कुछ नहीं मांगा. तुम ने साथ चलने से इनकार कर दिया तो मैं ने अपनी राह स्वयं बना ली. तुम इस राह में फिर क्यों आ गए. कितना त्याग और बलिदान चाहते हो?’ रात अशांति में, बेचैनी में गुजरी. सुबह उठी तो रातभर जागने के कारण आंखें बोछिल थीं. अस्पताल जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, किंतु फिर भी यह सोच कर तैयार हुई कि कार्य में व्यस्त रहने पर मन शांत रहता है.

अस्पताल में कमरे के बाहर मनुज को प्रतीक्षारत पाया तो कदम लड़खड़ा गए. किंतु सहज बनने का अभिनय करते हुए उन्हें अनदेखा कर अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. मनुज भी मेरे पीछेपीछे आए थे.

‘‘माफ कीजिएगा, आप तनुजा हैं न?’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, आप को कुछ शक है क्या?’’ तेज निगाहों से देखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार व अन्याय किया है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया. कल तुम्हें देखने के बाद से ही मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा हूं. मुझे माफ कर दो, तनु.’’

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा कहिए और बाहर आप मेरे नाम की तख्ती देख लीजिए,’’ निर्विकार मुद्रा में बोली थी मैं. ‘‘आप की पत्नी की तबीयत अब कैसी है? उन का खयाल रखिएगा और हो सके तो प्रत्येक 15 दिन बाद परीक्षण करवाते रहिएगा,’’ कह कर मैं ने घंटी बजा दी, ‘‘मरीजों को अंदर भेज दो,’’ चपरासी को निर्देश देती हुई बोली.

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं, तनु,’’ मनुज ने मेरी ओर आग्रहपूर्वक देखते हुए कहा.

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा,’’ मैं ने कुमारी शब्द पर थोड़ा जोर देते हुए तीव्र स्वर में कहा. और लड़खड़ाते कदमों से मनुज चले गए.

मैं देखती रह गई. क्या यह वही व्यक्ति है जिस ने मुझे मझधार में डूबने के लिए छोड़ दिया था. किंतु यह इस समय इतना निरीह क्यों? इतना दयनीय क्यों? क्या यह सिर्फ मेरे पद के कारण है या इस के जीवन में कोई अभाव है? मुझे स्वयं पर हंसी आने लगी थी. इसे क्या अभाव होगा, जिस की इतनी प्यारी पत्नी है, पद है, मानसम्मान है.

तब तक मरीजों ने आ कर मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया और मैं कार्य में व्यस्त हो गई.

अतीत ने मुझे कुरेदा जरूर था किंतु अनजाने सुख भी दे गया था, क्योंकि वह व्यक्ति जिस ने मुझे अपमानित किया था, मानसिक पीड़ा दी थी, वह मेरे सामने निरीह व दयनीय बन कर खड़ा था. इस से अधिक सुख क्या हो सकता था? मेरे जीवन में एक और परिवर्तन आ गया था, वह तसवीर जिसे शादी के दूसरे दिन दोनों ने बड़े प्रेम से खिंचवाया था उसे देखे बिना मुझे नींद नहीं आती थी. उस तसवीर में उस का निरीह चेहरा मेरे आत्मसम्मान को सुख पहुंचाता था. इसलिए, अब वह तसवीर मेरे बेडरूम में लग गई थी.

ऋचा हर 15 दिन पश्चात आती रही, किंतु उस के साथ वह चेहरा देखने को नहीं मिला. 2 माह पश्चात लड़का हुआ. उस ने आ कर आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था, ‘‘तनुजाजी, मैं आप का गुनाहगार हूं. किंतु, आप ने बेटे के रूप में उपहार दे कर अनिर्वचनीय आनंद प्रदान किया है. शायद, आप नहीं जानती कि यह मेरी और ऋचा की तीसरी संतान है. अन्य 2 जन्म से पूर्व ही काल के गाल में समा गईं.’’

मनुज चला गया, किंतु हृदय में सुलगते दावानल को मेरे सामने प्रकट कर गया. शायद वह अपनी पूर्व 2 संतानों की असमय ही मौत का कारण तनु के साथ पूर्व में किए गए अपने गलत व्यवहार को ही समझ बैठा था, तभी इतना निरीह व कातर लगने लगा है.

कुछ दिन पश्चात ही मेरा वहां से स्थानांतरण हो गया. अतीत से संबंध कट गया. किंतु कभीकभी मेरा दिल अपने ही हाथों से मात खा जाता था. तब तड़प उठती थी, क्या मेरे जीवन में यही एकाकीपन लिखा है? मम्मीपापा का देहांत हो गया था. भाई अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त था.

कितने वर्ष यों ही बीत गए. अपने को बेसहारा पा कर मैं ने एक अनाथ बेसहारा लड़की को गोद ले लिया ताकि जीवन की शून्यता को भर सकूं. लड़की पढ़ने में तेज थी. डाक्टरी पढ़ कर अनाथ बेसहाराजनों की सेवा करना चाहती थी.

करीब 5 वर्ष पूर्व न्यूमोनिया बीमारी से पीडि़त हो कर अस्पताल में भरती हुई थी. उस की मासूम नीली आंखों में न जाने क्या था कि मन उसे अपनाने को मचल उठा था. अनाथाश्रम से उठा कर घर लाई तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. पिछले वर्ष ही मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में उस का चयन हुआ और पढ़ाई के लिए उसे इलाहाबाद जाना पड़ा और मैं फिर एक बार अकेली हो गई थी.

जीवन मेरे साथ आंखमिचौली खेल रहा था. सुखदुख एक ही सिक्के के 2 पहलू हो चले थे. एक दिन अपने कमरे में बैठी अपने संस्मरण लिख रही थी कि नौकर ने आ कर बताया कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है. मैं बाहर निकल कर आई तो वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, शर्मा साहब का लड़का बेहद बीमार है. आप शीघ्र चलिए.’’

अपना बैग उठाया तथा कार में उस अनजान आदमी को बैठा कर चल पड़ी. ऐसे अवसरों पर अनजान व्यक्ति के साथ जाते समय मन में बेहद उथलपुथल होती थी, किंतु यह सोच कर चल पड़ती कि हर आदमी बुरा नहीं होता, फिर किसी पर अविश्वास क्यों और किसलिए, इंसान को अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए. हमारा कर्तव्य हमारे साथ, उस का कर्तव्य उस के साथ. यही तो मेरी विचारधारा थी, जीवनदर्शन था.

कार के पहुंचते ही एक आदमी तेजी से उधर से बाहर आया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप को तकलीफ हुई होगी, लेकिन मजबूर था. प्रतीक्षित को 104 डिगरी बुखार है.’’

‘‘चलिए,’’ तब तक हम रोशनी में पहुंच चुके थे.

‘‘अरे तनु, तुम. ओह, माफ कीजिएगा तनुजाजी, मुझ से गलती हो गई,’’ मनुज एकदम हड़बड़ा कर बोले.

मैं भी एकदम चौंक उठी थी. इस जिंदगी में यह दोबारा अप्रत्याशित मिलन किसलिए? सोच ही नहीं पा रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘प्रतीक्षित कहां है?’’

अंदर गए तो देखा वह बुखार में तप रहा था. आंखें बंद थीं, किंतु मुंह से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे. नब्ज देखी तो टायफायड के लक्षण नजर आए. ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए दवा बैग से निकाल कर खिला दी. अन्य दवाइयां परचे पर लिख कर देते हुए बोली, ‘‘ये दवाएं बाजार से मंगवा लीजिए तथा ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखिए और हाथ, पैर व तलवे की भी मालिश कीजिए.’’

मनुज उस के हाथों को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगे तथा चिंतित व घबराए स्वर में बोले, ‘‘डाक्टर साहब, मेरा प्रतीक्षित बच जाएगा न? यही मेरा जीवन है. मेरे जीवन की एकमात्र पूंजी.’’

लगभग एक घंटे पश्चात बंद पलकों में हलचल हुई तथा होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘प…पानी… पानी…’’

मनुज ने तत्काल उठ कर उस के मुंह में चम्मच से पानी डाला. दवा के असर के कारण वह पानी पी कर फिर सो गया.

‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए. आवश्यकता पड़ने पर बुला लीजिएगा,’’ घड़ी पर निगाह डालते हुए मैं ने कहा.

‘‘चलिए, मैं आप को छोड़ आता हूं,’’ मनुज ने मेरा बैग उठाते हुए कहा.

रातभर बेचैन रही. प्रतीक्षित के लिए न जाने क्यों अनजाने ही लगाव हो गया था. मैं जितना ही उस की भोली व मासूम सूरत से भागने का प्रयास करती वह उतनी ही और करीब आती जाती. ऋचा नजर नहीं आ रही थी, लेकिन पूछने का साहस भी नहीं कर पाई.

सुबह अस्पताल जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट की तो न जाने कैसे स्टियरिंग मनुज के घर की ओर मुड़ गया. जब वहां जा कर कार खड़ी हुई तब होश आया कि अनजाने में कहां से कहां आ गई. वह कैसी स्थिति थी, मैं नहीं जानती. दिल पर अंकुश रख कर गाड़ी बैक करने ही वाली थी कि नौकर दौड़ादौड़ा आया, ‘‘डाक्टर साहब, आप की कृपा से प्रतीक्षित भैया होश में आ गए हैं. साहब आप को ही याद कर रहे हैं.’’

न चाहते हुए भी उतरना पड़ा. मुझे वहां उपस्थित देख कर मनुज आश्चर्यचकित रह गए. उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं बिना बुलाए उन के बेटे का हालचाल पूछने आऊंगी.

‘‘प्रतीक्षित कैसा है? कल उस के ज्वर की तीव्रता देख कर मैं भी घबरा गई थी. सो, उसे देखने चली आई,’’ मनुज के चेहरे पर अंकित प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए मैं बोली.

मनुज ने प्रतीक्षित से मेरा परिचय करवाया तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मैं ठीक हो जाऊंगा न, तो खूब पढ़ूंगा और आप की तरह ही डाक्टर बनूंगा. फिर आप की तरह ही सफेद कोट पहन कर, स्टेथोस्कोप लगा कर बीमार व्यक्तियों को देखूंगा.’’

‘‘अच्छा बेटा, पहले ठीक हो जा, ज्यादा बातें मत करना, आराम करना. समय पर दवा खाना. मुझ से पूछे बिना कुछ खानापीना मत. अच्छा, मैं चलती हूं.’’

‘‘आंटी, आप फिर आइएगा, आप को देखे बिना मुझे नींद ही नहीं आती है.’’

‘‘बड़ा शैतान हो गया है, बारबार आप को तंग करता रहता है,’’ मनुज खिसियानी आवाज में बोले.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चा है,’’ मैं कहती, पर अप्रत्यक्ष में मन कह उठता, ‘तुम से तो कम है. तुम ने तो जीवनभर का दंश दे दिया है.’

मैं जानती थी कि मेरा वहां बारबार जाना उचित नहीं है. कहीं मनुज कोई गलत अर्थ न लगा लें. मनुज की आंखों में मेरे लिए चाह उभरती नजर आई थी. किंतु मेरी अत्यधिक तटस्थता उन्हें सदैव अपराधबोध से दंशित करती रहती. प्रतीक्षित के ठीक होने पर मैं ने जाना बंद कर दिया. वैसे भी प्रतीक्षित के साथ मेरा रिश्ता ही क्या था? सिर्फ एक डाक्टर व मरीज का. जब बीमारी ही नहीं रही तो डाक्टर का क्या औचित्य.

एक दिन शाम को टीवी पर अपनी मनपसंद पिक्चर ‘बंदिनी’ देख रही थी. नायिका की पीड़ा मानो मेरी अपनी पीड़ा हो, पुरानी भावुक पिक्चरों से मुझे लगाव था. जब फुरसत मिलती, देख लेती थी. तभी नौकर ने आ कर सूचना दी कि कोई आया है. मरीजों का चैकअप करने वाले कमरे में बैठने का निर्देश दे कर मैं गई, सामने मनुज और प्रतीक्षित को बैठा देख कर चौंक गई.

‘‘कैसे हो, बेटा? अब तो स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा?’’ मैं स्वर को यथासंभव मुलायम बनाते हुए बोली.

‘‘हां, स्कूल तो जाना प्रारंभ कर दिया है किंतु आप से मिलने की बहुत इच्छा कर रही थी. इसलिए जिद कर के डैडी के साथ आ गया. आप क्यों नहीं आतीं डाक्टर आंटी अब हमारे घर?’’

‘‘बेटा, तुम्हारे जैसे और भी कई बीमार बच्चों की देखभाल में समय ही नहीं मिल पाता.’’

‘‘यदि आप नहीं आ सकतीं तो क्या मैं शाम को या छुट्टी के दिन आप के घर मिलने आ सकता हूं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उत्तर तो दे दिया था, किंतु क्या मनुज पसंद करेंगे.

‘‘घर में भी सदैव आप की बात करता है, डाक्टर आंटी ऐसी हैं, डाक्टर आंटी वैसी हैं,’’ फिर थोड़ा रुक कर मनुज बोले, ‘‘आप ने मेरे पुत्र को जीवनदान दे कर मुझे ऋणी बना दिया है. मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा.’’

‘‘वह तो मेरा कर्तव्य था,’’ मेरे मुख से संक्षिप्त उत्तर सुन कर मनुज कुछ और कहने का साहस न जुटा सके, जबकि लग रहा था कि वे कुछ कहने आए हैं. और मैं चाह कर भी ऋचा के बारे में न पूछ सकी. प्रतीक्षित इतने दिन बीमार रहा. वह क्यों नहीं आई, क्यों उस की खबर नहीं ली.

उस दिन के पश्चात प्रतीक्षित लगभग रोज ही मेरे पास आने लगा. मेरा काफी समय उस के साथ बीतने लगा. एक दिन बातोंबातों में मैं ने उस से उस की मां के बारे में पूछा, तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मां याद तो नहीं हैं, सिर्फ तसवीर देखी है, लेकिन डैडी कहते हैं कि जब मैं 3 साल का था, तभी मां की मौत हो गई थी.’’

मन हाहाकार कर उठा था. एक को तो उस ने स्वयं ठुकरा दिया और दूसरी स्वयं उसे छोड़ कर चली गई. प्रकृति ने उसे उस के अमानवीय व अमानुषिक कृत्य के लिए दंड दे दिया था. अब मुझे भी प्रतीक्षित के आने की प्रतीक्षा रहती. उस की स्मरणशक्ति व बुद्धि काफी तीव्र थी. जो एक बार बता देती, भूलता नहीं था. किसी भी नई चीज, नई वस्तु को देख कर उस के उपयोग के बारे में बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता तथा मैं भी यभासंभव उस के प्रश्नों का समाधान करती.

स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी थी. मेरी सहायता से प्रतीक्षित ने मौडल बनाया. मौडल देख कर वह अत्यंत प्रसन्न था.

प्रदर्शनी के पश्चात वह सीधा मेरे घर आया. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैं अपने शयनकक्ष में लेटी आराम कर रही थी. दौड़ता हुआ आया व खुशी से चिल्लाता हुआ बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, आप कहां हो? देखो, मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है. और आंटी, गवर्नर ने हमारी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया था और उन्होंने ही पुरस्कार दिया. आप को मालूम है, उन के साथ मेरी फोटो भी खिंची है. उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की,’’ पलंग पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप की तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘लगता है थोड़ा बुखार हो गया है. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘आप सब की देखभाल करती हैं किंतु अपनी नहीं,’’ तभी उस की नजर स्टूल पर रखे फोटो पर गई. हाथ में उठा कर बोला, ‘‘आंटी, यह तसवीर तो पापा की है, साथ में आप भी हैं. इस में आप दोनों जवान लग रहे हैं. यह तसवीर आप ने कब और क्यों खिंचवाई?’’

जिस का मुझे डर था वही हुआ, इसीलिए कभी उसे शयनकक्ष में नहीं लाती थी. वह फोटो मेरी अहम संतुष्टि का साधन बनी थी, सो, चाह कर भी अंदर नहीं रख पाई थी. मेरा अब कोई संबंध भी नहीं था मनुज से, लेकिन यदि तथ्य को छिपाने का प्रयत्न करती तो वह कभी संतुष्ट न हो पाता तथा कालांतर में मेरी उजली छवि में दाग लग सकता था. सो, सबकुछ सचसच बताना पड़ा.

वस्तुस्थिति जान कर वह उबल पड़ा था कि यह डैडी ने अच्छा नहीं किया. मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि डैडी ऐसा भी कर सकते हैं. मैं अभी डैडी से जा कर इस का उत्तर मांगता हूं कि उन्होंने आप के साथ ऐसा क्यों किया? मैं बीमार हो जाऊं तो क्या वे मुझे भी छोड़ देंगे? वह जाने को उद्यत हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटा, मैं ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा. जीवनपथ पर जैसे भी चली जा रही हूं, चलने दो, अब आखिरी पड़ाव पर मेरी भावनाओं, मेरे विश्वास, मेरे झूठे आत्मसम्मान को ठेस मत पहुंचाना तथा किसी से कुछ न कहना,’’ कहतेकहते एक बार फिर उस के सम्मुख आंसू टपक पड़े.

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, मां, किंतु आप को न्याय दिलाने का प्रयत्न अवश्य करूंगा,’’ दृढ़ निश्चय व दृढ़ कदमों से वह कमरे से बाहर चला गया था.

किंतु उस के मुखमंडल से निकला, ‘मां’ शब्द उस के जाने के पश्चात भी वातावरण में गूंज कर उस की उपस्थिति का एहसास करा रहा था, कैसा था वह संबोधन… वह आवाज, उस की सारी चेतना…संपूर्ण अस्तित्व सिर्फ एक शब्द में खो गया था. जिस मोह के जाल को वर्षों पूर्व तोड़ आई थी, अनायास ही उस में फंसती जा रही थी…कैसा है यह बंधन? कैसे हैं ये रिश्ते? अनुत्तरित प्रश्न बारबार अंत:स्थल में प्रहार करने लगे थे.

पहचान : भाग 1

बाढ़ राहत शिविर के बाहर सांप सी लहराती लंबी लाइन के आखिरी छोर पर खड़ी वह बारबार लाइन से बाहर झांक कर पहले नंबर पर खड़े उस व्यक्ति को देख लेती थी कि कब वह जंग जीत कर लाइन से बाहर निकले और उसे एक कदम आगे आने का मौका मिले.

असम के गोलाघाट में धनसिरी नदी का उफान ताडंव करता सबकुछ लील गया है. तिनकातिनका जुटाए सामान के साथ पसीनों की लंबी फेहरिस्त बह गई है. बह गए हैं झोंपड़े और उन के साथ खड़ेभर होने तक की जमीन भी. ऐसे हालात में राबिया के भाई 8 साल के अजीम के टूटेफूटे मिट्टी के खिलौनों की क्या बिसात थी.

खिलौनों को झोंपड़ी में भर आए बाढ़ के पानी से बचाने के लिए अजीम ने न जाने क्याक्या जुगतें की, और जब झोंपड़ी ही जड़ से उखड़ गई तब उसे जिंदगी की असली लड़ाई का पता मालूम हुआ.

राबिया ने 20 साल की उम्र तक क्याक्या न देखा. वह शरणार्थी शिविर के बाहर लाइन में खड़ीखड़ी अपनी जिंदगी के पिछले सालों के ब्योरे में कहीं गुम सी हो गई थी.

राबिया अपनी मां और छोटे भाई अजीम को पास ही शरणार्थी शिविर में छोड़ यहां सरकारी राहत कैंप में खाना व कपड़ा लेने के लिए खड़ी है. परिवार के सदस्यों के हिसाब से कंबल, चादर, ब्रैड, बिस्कुट आदि दिए जा रहे थे.

2 साल का ही तो था अजीम जब उस के अब्बा की मौत हो गई थी. उन्होंने कितनी लड़ाइयां देखीं, लड़ीं, कब से वे भी शांति से दो वक्त की रोटी को दरबदर होते रहे. एक टुकड़ा जमीन में चार सांसें जैसे सब पर भारी थीं. कौन सी राजनीति, कैसेकैसे नेता, कितने छल, कितने ही झूठ, सूखी जमीन तो कभी बाढ़ में बहती जिंदगियां. कहां जाएं वे अब? कैसे जिएं? लाखों जानेअनजाने लोगों की भीड़ में तो बस वही चेहरा पहचाना लगता है जो जरा सी संवेदना और इंसानियत दिखा दे.

पैदा होने के बाद से ही देख रही थी राबिया एक अंतहीन जिहाद. क्यों? क्यों इतना फसाद था, इतनी बगावत और शोर था?

अब्बा के पास एक छोटी सी जमीन थी. धान की रोपाई, कटाई और फसल होने के बाद 2 मुट्ठी अनाज के दाने घर तक लाने के लिए उन्हें कितने ही पापड़ बेलने पड़ते. और फिर भूख और अनाज के बीच अम्मी की ढेरों जुगतें, ताकि नई फसल होने तक भूख का निवाला खुद ही न बन जाएं वे.

इस संघर्ष में भी अम्मी व अब्बा को कभी किसी से शिकायत नहीं रही. न तो सरकार से, न ग्राम पंचायती व्यवस्था से और न जमाने से. जैसा कि अकसर सोनेहीरों में खेलने वाले लोगों को रहती है. शिकायत भी क्या करें? मुसलिम होने की वजह से हर वक्त वे इस कैफियत में ही पड़े रहते कि कहीं वे बंगलादेशी घुसपैठिए न करार दे दिए जाएं. अब्बा न चाहते हुए भी इस खूनी आग की लपटों में घिर गए.

वह 2012 के जुलाई माह का एक दिन था. अब्बा अपने खेत गए हुए थे. खेत हो या घर, हमेशा कई मुद्दे सवाल बन कर उन के सिर पर सवार रहते. ‘कौन हो?’ ‘क्या हो?’ ‘कहां से हो?’ ‘क्यों हो?’ ‘कब से हो?’ ‘कब तक हो?’

इतने सारे सवालों के चक्रव्यूह में घिरे अब्बा तब भी अमन की दुआ मांगते रहते. बोडो, असमिया लोगों की आपत्ति थी कि असम में कोई बाहरी व्यक्ति न रहे. उन का आंतरिक मसला जो भी हो लेकिन आम लोग जिंदगी के लिए जिंदगी की जंग में झोंके जा चुके थे.

अब्बा खेत से न लौटे. बस, तब से भूख ने मौत के खौफ की शक्ल ले ली थी. भूख, भय, जमीन से बेदखल हो जाने का संकट, रोजीरोटी की समस्या, बच्चों की बीमारी, देशनिकाला, अंतहीन अंधेरा. घर में ही अब्बा से या कभी किसी पहचान वाले से राबिया ने थोड़ाबहुत पढ़ा था.

पागलों की तरह अम्मी को कागज का एक टुकड़ा ढूंढ़ते देखती. कभी संदूकों में, कभी बिस्तर के नीचे, कभी अब्बा के सामान में. वह सुबूत जो सिद्ध कर दे कि उन के पूर्वज 1972 के पहले से ही असम में हैं. नहीं मिल पाया कोई सुबूत. बस, जो था वह वक्त के पंजर में दफन था. अब्बा के जाने के बाद अम्मी जैसे पथरा गईर् थीं. आखिरकार 14 साल की राबिया को मां और भाई के लिए काम की खोज में जाना ही पड़ा.

कभी कहीं मकान, कभी दुकान में जब जहां काम मिलता, वह करती. बेटी की तकलीफों ने अम्मी को फिर से जिंदा होने को मजबूर कर दिया. इधरउधर काम कर के किसी तरह वे बच्चों को संभालती रहीं.

जिंदगी जैसी भी हो, चलने लगी थी. लेकिन आएदिन असमिया और अन्य लोगों के बीच पहचान व स्थायित्व का विवाद बढ़ता ही रहा. प्राकृतिक आपदा असम जैसे सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए नई बात नहीं थी, तो बाढ़ भी जैसे उनकी जिंदगी की लड़ाई का एक जरूरी हिस्सा ही था. राबिया अब तक लाइन के पहले नंबर पर पहुंच गई थी.

सामने टेबल बिछा कर कुरसी पर जो बाबू बैठे थे, राबिया उन्हें ही देख रही थी.

‘‘कार्ड निकालो जो एनआरसी पहचान के लिए दिए गए हैं.’’

‘‘कौन सा?’’ राबिया घबरा गई थी.

बाबू ने थोड़ा झल्लाते हुए कहा, ‘‘एनआरसी यानी नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का पहचानपत्र, वह दिखाओ, वरना सामान अभी नहीं दिया जा सकेगा. जिन का नाम है, पहले उन्हें मिलेगा.’’

‘‘जी, दूसरी अर्जी दाखिल की हुई है, पर अभी बहुतों का नाम शामिल नहीं है. मेहरबानी कर के सामान दे दीजिए. मैं कई घंटे से लाइन में लगी हूं. उधर अम्मी और छोटा भाई इंतजार में होंगे.’’

मिलने, न मिलने की दुविधा में पड़ी लड़की को देख मुहरवाले कार्डधारी पीछे से चिल्लाने लगे और किसी डकैत पर टूट पड़ने जैसा राबिया पर पिल पड़ते हुए उसे धकिया कर निकालने की कोशिश में जुट गए. राबिया के लिए जैसे ‘करो या मरो’ की बात हो गई थी. 2 जिंदगियां उस की राह देख रही थीं. ऐसे में राबिया समझ चुकी थी कि कई कानूनी बातें लोगों के लिए होते हुए भी लोगों के लिए ही तकलीफदेह हो जाती हैं.

बाबू के पीछे खड़े 27-28 साल के हट्टेकट्टे असमिया नौजवान नीरद ने राबिया को मुश्किल में देख उस से कहा, ‘‘आप इधर अंदर आइए. आप बड़े बाबू से बात कर लीजिए, शायद कुछ हो सके.’’

राबिया भीड़ के पंजों से छूट कर अंदर आ गई थी. लोग खासे चिढ़े थे. कुछ तो अश्लील फब्तियां कसने से भी बाज नहीं आ रहे थे. राबिया दरवाजे के अंदर आ कर उसी कोने में दुबक कर खड़ी हो गई.

नीरद पास आया और एक मददगार की हैसियत से उस ने उस पर नजर डाली. दुबलीपतली, गोरी, सुंदर, कजरारी आंखों वाली राबिया मायूसी और चिंता से डूबी जा रही थी. उस ने हया छोड़ मिन्नतभरी नजरों से नीरद को देखा.

नीरद ने आहिस्ते से कहा, ‘‘सामान की जिम्मेदारी मेरी ही है, मैं राहत कार्य निबटा कर शाम को शिविर आ कर तुम्हें सामान दे जाऊंगा. तुम अपना नाम बता दो.’’

राबिया ने नाम तो बता दिया लेकिन खुद की इस जिल्लत के लिए खुद को ही मन ही मन कोसती रही.

नीरद भोलाभाला, धानी रंग का असमिया युवक था. वह गुवाहाटी में आपदा नियंत्रण और सहायता विभाग में सरकारी नौकर था. नौकरी, पैसा, नियम, रजिस्टर, सरकारी सुबूतों के बीच भी उस का अपना एक मानवीय तंत्र हमेशा काम करता था. और इसलिए ही वह मुश्किल में पड़े लोगों को अपनी तरफ से वह अतिरिक्त मदद कर देता जो कायदेकानूनों के आड़े आने से अटक जाते थे.

उस ने राबिया से कहा, ‘‘अभी मैं तुम्हें यहां से सामान दे दूं तो नैशनल रजिस्टर में नाम दर्ज का अलग ही बखेड़ा खड़ा होगा. तुम्हारे परिवार का नाम छूटा है इस पहचान रजिस्टर में.’’

‘‘क्या करें, हम भी उन 40 लाख समय के मारों में शामिल हैं, जिन के सरकारी रजिस्टर में नागरिक की हैसियत से नाम दर्ज नहीं हैं. अब्बा नहीं हैं. जिंदगी जीने के लाले पड़े हुए हैं. नाम दर्ज करवाने के झमेले कैसे उठाएं?’’

‘‘ठीक है, तुम लोग पास ही के सरकारी स्कूल में बने शरणार्थी शिविरों में रह रहे हो न. मैं काम खत्म कर के 6 बजे तक सामान सहित वहां पहुंच जाऊंगा. तुम फिक्र न करो, मैं जरूर आऊंगा?’’

शिविर में आ कर राबिया की आंखें घड़ी पर और दिल दरवाजे पर अटका रहा. 2 कंबल, चादर और खानेपीने के सामान के साथ नीरद राबिया के पास पहुंच चुका था.

अम्मी तो धन्यवाद करते बिछबिछ जाती थीं. राबिया ने बस एक बार नीरद की आंखों में देखा. नीरद ने भी नजरें मिलाईं. क्या कुछ अनकहा सा एकदूसरे के दिल में समाया, यह तो वही जानें, बस, इतना ही कह सकते हैं कि धनसिरी की इस बाढ़ ने भविष्य के गर्भ में एक अपठित महाकाव्य का बीज ला कर रोप दिया था.

शरणार्थी शिविर में रोज का खाना तो दिया जाता था लेकिन नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स में जिन का नाम नहीं था, बिना किसी तकरार के वे भेदभाव के शिकार तो थे ही, इस मामले में आवाज उठाने की गुंजाइश भी नहीं थी क्योंकि स्थानीय लोगों की मानसिकता के अनुरूप ही था यह सबकुछ.

बात जब गलतसही की होती है, तब यह सुविधाअसुविधा और इंसानियत पर भी रहनी चाहिए. लेकिन सच यह है कि लोगों की तकलीफों को करीब से देखने के लिए हमेशा एक अतिरिक्त आंख चाहिए होती है.

बेबसी, अफरातफरी, इतिहास की खूनी यादें, बदले की झुलसाती आग, अपनेपरायों का तिकड़मी खेल और भविष्य की भूखी चिंता. राबिया के पास इंतजार के सिवा और कुछ न था.

नीरद जबजब आ जाता, राबिया, अजीम और उन की अम्मी की सांसें बड़ी तसल्ली से चलने लगतीं, वरना वही खौफ, वही बेचैनी.

राबिया नीरद से काफीकुछ कहना चाहती, लेकिन मौन रह जाती. हां, जितना वह मौन रहती उस का अंतर मुखर हो जाता. वह रातरातभर करवटें लेती. भीड़ और चीखपुकार के बीच भी मन के अंदर एक खाली जगह पैदा हो गई थी उस के. राबि?या के मन की उस खाली जगह में एक हरा घास का मैदान होता, शाम की सुहानी हवा और पेड़ के नीचे बैठा नीरद. नीरद की गोद में सिर रखी हुई राबिया. नीरद कुछ दूर पर बहती धनसिरी को देखता हुआ राबिया को न जाने प्रेम की कितनी ही बातें बता रहा है. वह नदी, हां, धनसिरी ही है. लेकिन कोई शोर नहीं, बदला नहीं, लड़ाई और भेदभाव नहीं. सब को पोषित करने वाली अपनी धनसिरी. अपनी माटी, अपना नीरद.

आज शाम को किराए के अपने मकान में लौटते वक्त आदतानुसार नीरद आया. नीरद के यहां आते अब महीनेभर से ऊपर होने को था.

राबिया एक  कागज का टुकड़ा झट से नीरद को पकड़ा उस की नजरों से ओझल हो गई.

अपनी साइकिल पर बैठे नीरद ने कागज के टुकड़े को खोला. असमिया में लिखा था, ‘‘मैं असम की लड़की, तुम असम के लड़के. हम दोनों को ही जब अपनी माटी से इतना प्यार है तो मैं क्या तुम से अलग हूं? अगर नहीं, तो एक बार मुझ से बात करो.’’

नीरद के दिल में कुछ अजीब सा हुआ. थोड़ा सा पहचाना, थोड़ा अनजाना. उस ने कागज के पीछे लिखा, ‘‘मैं तुम्हारी अम्मी से कल बात करूंगा?’’ राबिया को चिट्ठी पकड़ा कर वह निकल गया.

चिट्ठी का लिखा मजमून पढ़ राबिया के पांवों तले जमीन खिसक गई. ‘‘पता नहीं ऐसा क्यों लिखा उस ने? कहीं शादीशुदा तो नहीं? मैं मुसलिम, कहीं इस वजह से वह गुस्सा तो नहीं हो गया? क्या मैं ने खुद को असमिया कहा तो बुरा मान गया वह? फिर जो भी थोड़ाबहुत सहारा था, छिन गया तो?’’

राबिया का दिल बुरी तरह बैठ गया. बारबार खुद को लानत भेज कर भी जब उस के दिल पर ठंडक नहीं पड़ी तो अम्मी के पास पहुंची. उन्हें भरसक मनाने का प्रयास किया कि वे तीनों यहां से चल दें. जो भी हो वह नीरद को अम्मी से बात करने से रोकना चाहती थी.

अम्मी बेटी की खुद्दारी भी समझती थीं और दुनियाजहान में अपने हालात भी, कहा, ‘‘बेटी, बाढ़ से सारे रास्ते कटे पड़े हैं. कोई ठौर नहीं, खाना नहीं, फिर जिल्लत जितनी यहां है, उस से कई गुना बाहर होगी. जान के लाले भी पड़ सकते हैं. नन्हे अजीम को खतरा हो सकता है. तू चिंता न कर, मैं सब संभाल लूंगी.’’

शाम को कुछ रसद के साथ नीरद हाजिर हुआ और सामान राबिया को पकड़ा कर अम्मी के पास जा बैठा. अम्मी का हाथ अपने हाथों में ले कर उस ने कहा, ‘‘राबिया की वजह से आप से और अजीम से जुड़ा. अब मैं सचमुच यह चाहता हूं कि आप तीनों मेरे साथ गुवाहाटी चलें. जब मेरा यहां का काम खत्म हो जाए तब मैं आप सब से हमेशा के लिए बिछुड़ना नहीं चाहता. गुवाहाटी में मैं राबिया को एक एनजीओ संस्था में नौकरी दिलवा दूंगा. अजीम का दाखिला भी स्कूल में हो जाएगा. आप सिलाई वगैरह का कोई काम देख लेना. और रहने की चिंता बिलकुल न करिए. वहां हमारा अपना घर है. आप को किसी चीज की कोई चिंता न होने दूंगा.’’

राबिया की तो जैसे रुकी हुई सांस अचानक चल पड़ी थी. बारिश में लथपथ हवा जैसे वसंत की मीठी बयार बन गई थी. अम्मी ने नीरद के गालों को अपनी हथेलियों में भर कर कहा, ‘‘बेटा, जैसा कहोगे, हम वैसा ही करेंगे. अब तुम्हें हम सब अपना ही नहीं, बल्कि जिगर का टुकड़ा भी मानते हैं.’’

अजीम यहां से जाने की बात सुन नीरद की पीठ पर लद कर नीरद को दुलारने लगा. नीरद ने राबिया की ओर देखा. राबिया मारे खुशी के बाहर दौड़ गई. वह अपनी खुशी की इस इंतहा को सब पर जाहिर कर शर्मसार नहीं होना चाहती थी जैसे.

महीनेभर बाद वे गुवाहाटी आ गए थे. नीरद के दोमंजिला मकान से लगी खाली जगह में एक छोटा सा आउटहाउस किस्म का था, शायद माली आदि के लिए. छत पर ऐसबेस्टस था. लेकिन छोटा सा 2 कमरे वाला हवादार मकान था. बरामदे के एक छोर पर रसोई के लिए जगह घेर दी गई थी. वहां खिड़की थी तो रोशनी की भी सहूलियत थी. पीछे छोटा सा स्नानघर आदि था. एक अदद सूखी जमीन पैर रखने को, एक छत सिर ढांपने को, बेटी राबिया की एनजीओ में नौकरी, अजीम का सरकारी स्कूल में दाखिला और खुद अम्मी का एक टेलर की दुकान पर सिलाई का काम कर लेना- इस से ज्यादा उन्हें चाहिए भी क्या था.

पर बात यह भी थी कि उन के लिए इतना पाना ही काफी नहीं रहा. नैशनल रजिस्टर औफ सिटिजन्स का सवाल तलवार बन कर सिर पर टंगा था. अगर जी लेना इतना आसान होता तो लोग पीढ़ी दर पीढ़ी एक आशियाने की तलाश में दरबदर क्यों होते? क्यों लोग अपनी कमाई हुई रोटी पर भी अपना हक जताने के लिए सदियों तक लड़ाई में हिस्सेदार होते? नहीं था इतना भी आसान जीना.

अभी 3-4 दिन हुए थे कि नीरद की मां आ पहुंची उन से मिलने. राबिया की मां ने सोचा था कि वे खुद ही उन से मिलने जाएंगी, लेकिन नीरद ने मना कर दिया था. जब तक वे दुआसलाम कर के उन के बैठने के लिए कुरसी लातीं, नीरद की मां ने तोप के गोले की तरह सवाल दागने शुरू किए.

ट्रैक्टर से चलने वाला है ये हार्वेस्टर

देश के ज्यादातर किसान अब खेती में आधुनिक यंत्रों का इस्तेमाल करने लगे हैं. फसल की कटाई व थ्रेशिंग का काम अब कृषि यंत्रों से होने लगा है. ज्यादातर किसानों द्वारा ट्रैक्टर का इस्तेमाल करना सामान्य सी बात हो गई है और लगता है कि इसी बात को ध्यान में रखते हुए महिंद्रा कृषि यंत्र निर्माता कंपनी ने ट्रैक्टर के सहयोग से चलने वाला हार्वेस्टर बनाया है जो फसल की कटाई और थ्रेशिंग का काम आसानी से करता है.

महिंद्रा बैक पैक हार्वेस्टर

यह यंत्र ट्रैक्टर पर लगा होता है. बैक पैक हार्वेस्टर गेहूं, चावल, जई और इसी तरह की दूसरी फसलों की कटाई करता है. यह यंत्र छोटे और मध्यम दर्जे के किसानों के लिए बड़े ही काम का है. इस के इस्तेमाल से किसान खुद अपनी फसल की कटाई, गहाई के अलावा दूसरे किसानों की फसल कटाई वगैरह का भी काम कर सकता है जिस में अतिरिक्त आमदनी हो सकती है.

इस यंत्र की खूबी : यह बैक पैक हार्वेस्टर दमदार, मजबूत और खेती के काम के लिए भरोसेमंद है. इसे खास तरीके से बनाया गया?है जो?ट्रैक्टर पर आसानी से रखा जा सकता?है. छोटे खेतों में भी इसे आसानी से मोड़ा जा सकता?है. इस के कटर बार 7 फुट के बने हैं. कम पुरजे और आसान तकनीक से बनाए गए इस हार्वेस्टर को इस्तेमाल करना आसान है.

चूंकि यह हार्वेस्टर ट्रैक्टर से संचालित होता?है, इसलिए किसानों को जरा भी कठिनाई नहीं आती. महिंद्रा ट्रैक्टर के साथ फायदे : 540 आरपीएम पर ज्यादा पीटीओ शक्ति (पावर) मौजूद होने के चलते ईंधन की खपत कम होती है. ड्रम में फंसी सामग्री अवशेषों को आसानी से बाहर फेंक देता है.

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ट्रैक्टर माउंटेड कंबाइन हार्वेस्टर 

गेहूं, धान जैसी फसल कटाई और उस की थ्रेशिंग के लिए महिंद्रा कंबाइन हार्वेस्टर बेहतर काम करता है. फसल काटते समय ट्रैक्टर हार्वेस्टर पर माउंटेड होता?है जिस के द्वारा ही हार्वेस्टर सही दिशा में चलता है.

फसल कटने के दौरान अनाज यंत्र में लगे टैंक में इकट्ठा होता जाता है और शेष भूसा व अवशेष खेत में ही रह जाते हैं. जब टैंक अनाज से भर जाता?है तो हार्वेस्टर में लगे पाइप के जरीए इसे किसी दूसरे ट्रैक्टरट्रौली में भर लिया जाता है.

यह कंबाइन हार्वेस्टर फसल कटाई, थ्रेशिंग व अनाज की सफाई करता है. साथ ही, अनाज को बोरों में भी भरता है. हार्वेस्टर का मौडल बी. 525 है.

जब फसल कटाई का काम नहीं है, उस समय ट्रैक्टर से कंबाइन हार्वेस्टर को उतार लिया जाता है और ट्रैक्टर से खेती के दूसरे काम किए जा सकते?हैं.

इस हार्वेस्टर को महिंद्रा के?ट्रैक्टर अर्जुन (नोवो) 605 के साथ बेहतर तालमेल?है, जिस में 57 एचपी की शक्ति है. इस में ईंधन की खपत भी कम होती है और इसे ट्रैक्टर के साथ जोड़ना और हटाना भी आसान है.

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