झारखंड में भाजपा के बारीडीह मंडल के आईटी सहसंयोजक कुमार विश्वजीत के 26 वर्षीय बेटे आशीष ने 16 अगस्त को अपने घर के पंखे से लटक कर जान दे दी. आशीष को डर था कि औटो सैक्टर में आने वाली भारी मंदी के चलते उस की नौकरी चली जाएगी और उस के घर का खर्च चलना मुश्किल हो जाएगा. आशीष टाटा मोटर्स के लिए जौबवर्क करने वाली कंपनी औटोमेटिक एक्सेल में काम कर रहा था.
आशीष के पिता कुमार विश्वजीत भी जौब इनसिक्योरिटी से ग्रस्त हैं. भारतीय जनता पार्टी के सदस्य होने के साथ ही वे टाटा स्टील के लिए कौंटै्रक्ट पर काम करते हैं. उन का कहना है कि उन की कंपनी टिस्को में भी कठिन ट्रेनिंग के बाद कर्मचारियों का टैस्ट लिया जा रहा था. ज्यादातर कर्मचारियों को डर था कि अगर वे टैस्ट में फेल हुए, तो अगले दिन उन का गेटपास तक नहीं बनेगा.
कुमार विश्वजीत कई दिनों से अपनी नौकरी को ले कर चिंतित थे और कुछ दिनों पहले ही आशीष से इस बारे में बातचीत भी हुई थी कि अगर उन की नौकरी चली जाएगी तो घर का खर्चा कैसे चलेगा. तब आशीष ने बताया था कि उस की नौकरी पर भी खतरा मंडरा रहा है. जौब इनसिक्योरिटी ने आखिरकार आशीष की जान ले ली. बारबार नौकरी खोने से उसे जान खोना ज्यादा आसान लगा. उस की पत्नी सदमे में है. अभी एक साल पहले ही जून 2018 में दोनों ने प्रेमविवाह किया था.
ये भी पढ़ें- विसर्जन हादसा: ये खुद जिम्मेदार हैं अपनी मौत के या फिर भगवान
गहरा रहा है संकट
आर्थिक मंदी की वजह से औटो सैक्टर का हाल सब से खराब है. इस सैक्टर में मंदी की वजह से अब तक लाखों कर्मचारियों की नौकरियां जा चुकी हैं और कितने ही इस डर के साथ जी रहे हैं.
जमशेदपुर के एक अन्य युवा इंजीनियर प्रभात कुमार ने भी अपनी नौकरी गंवाने के बाद बर्मा माइंस इलाके में खुद को आग के हवाले कर दिया. प्रभात कुमार औटो इंडस्ट्री में इंजीनियर था. उस की कंपनी भी टाटा मोटर्स के लिए जौबवर्क करती है. टाटा मोटर्स में क्लोजर के कारण कंपनी ने प्रभात को नौकरी से निकाल दिया था.
गौरतलब है कि प्रभात को झारखंड सरकार ने प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत ट्रेनिंग दिलवाई थी. उस के पिता तारकनाथ भी टाटा स्टील के कर्मचारी थे. अब रिटायरमैंट के बाद वे औटो चलाते हैं. इकलौते बेटे को खो देने के गम से वे अब शायद ही कभी उबर पाएं.
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार न्यू इंडिया का नारा दे कर एक बार फिर सत्ता में है. सरकार कहती है कि 2024-25 तक वह भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डौलर यानी 36,00,00,00,00,00,000 रुपए की अर्थव्यवस्था बना देगी. सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने लोकसभा में 2019-20 का बजट पेश करते हुए बाकायदा इस का विजन पेश किया और कहा कि इस विजन का मुख्य आधार निवेश प्रेरित विकास और रोजगार सृजन है.
उन का कहना है कि देश को अगले 5 वर्षों में ‘5 ट्रिलियन डौलर इकोनौमी’ की अर्थव्यवस्था बनाना मोदी सरकार का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है. इस के ठीक अगले दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वाराणसी में भाजपा कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अगले 5 वर्षों में ‘5 ट्रिलियन डौलर इकोनौमी’ का सपना दिखाया.
लेकिन, सरकारी व गैरसरकारी नौकरियों में छंटनी, बंदी और हताश नौजवानों की आत्महत्याएं मोदी सरकार की मजबूत होती अर्थव्यवस्था के दावे के ठीक उलट कहानी बयां कर रही हैं. लाखों लोग अपनी नौकरियां गंवा चुके हैं और करोड़ों की नौकरियों पर छंटनी की तलवार लटक रही है.
ये भी पढ़ें- क्या मंजिल तक पहुंच पाएगी स्वाभिमान से संविधान यात्रा
कराह रहे कई उद्योग
रियल एस्टेट ध्वस्त हो रहा है. मार्च 2019 के अंत तक निर्माण उद्योग में 12 लाख 80 हजार फ्लैट बिना बिके पड़े थे. कताई उद्योग में एकतिहाई उत्पादन बंद हो चुका है. जो मिलें चल रही हैं, वे भारी घाटे का सामना कररही हैं. कौटन और ब्लैंड्स स्पिनिंग इंडस्ट्री आज उसी तरह के संकट से गुजर रही है जैसा कि 2010-11 में देखा गया था.
अप्रैल से जून की तिमाही में कौटन यार्न के निर्यात में 34.6 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई. जुलाईअगस्त में तो इस में 50 फीसदी तक की गिरावट आ चुकी है.
यही हालत रही तो अगले सीजन में भारतीय बाजार में आने वाले करीब 80 हजार करोड़ रुपए की 4 करोड़ गांठ कपास का कोई खरीदार नहीं मिलेगा. नौर्दर्न इंडिया टैक्सटाइल मिल्स एसोसिएशन के अनुसार, राज्य और केंद्रीय जीएसटी और अन्य करों की वजह से भारतीय यार्न वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा के लायक नहीं रह गया है. भारतीय टैक्सटाइल इंडस्ट्री में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से करीब 10 करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है.
टैक्सटाइल इंडस्ट्री कृषि के बाद सब से ज्यादा रोजगार देने वाला सैक्टर है. ऐसे में बड़े पैमाने पर लोगों के बेरोजगार होने की आशंका है. इसलिए नौर्दर्न इंडिया टैक्सटाइल मिल्स एसोसिएशन ने सरकार से मांग की है कि वह तत्काल कदम उठा कर नौकरियां जाने से बचाए और इस इंडस्ट्री को गैरनिष्पादित संपत्ति यानी एनपीए बनने से रोके.
बिस्कुट बनाने वाली देश की सब से बड़ी कंपनी पारले प्रोडक्ट्स आगाह करती है कि कन्जंपशन में सुस्ती आने के कारण उसे और उस के साथ काम करने वाले ठेकेदार को कच्चा माल देने वालों के 8,000-10,000 लोगों की छंटनी करनी पड़ सकती है. कंपनी के कैटेगरी हेड मयंक शाह कहते हैं, ‘‘हम ने 100 रुपए प्रतिकिलो या उस से कम कीमत वाले बिस्कुट पर जीएसटी घटाने की मांग की है. ये बिस्कुट आमतौर पर 5 रुपए या कम के पैक में बिकते हैं. हालांकि, अगर सरकार ने हमारी मांग नहीं मानी तो हमें अपनी फैक्ट्रियों में काम करने वाले 8,000-10,000 लोगों को निकालना पड़ेगा. सेल्स घटने से हमें भारी नुकसान हो रहा है.’’
पारलेजी, मोनाको और मैरी गोल्ड बिस्कुट बनाने वाली पारले कंपनी की बिक्री 10,000 करोड़ रुपए सालाना से ज्यादा होती है. 10 प्लांट चलाने वाली इस कंपनी में एक लाख कर्मचारी काम करते हैं. पारले के पास 125 सहयोगी थर्ड पार्टी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट हैं. कंपनी की सेल्स का आधा से ज्यादा हिस्सा ग्रामीण बाजारों से आता है.
जीएसटी लागू होने से पहले 100 रुपए प्रतिकिलो से कम कीमत वाले बिस्कुट पर 12 फीसदी टैक्स लगाया जाता था. कंपनियों को उम्मीद थी कि प्रीमियम बिस्कुट के लिए 12 फीसदी और सस्ते बिस्कुटों के लिए 5 फीसदी का जीएसटी रेट तय किया जाएगा. हालांकि, सरकार ने 2 साल पहले जब जीएसटी लागू किया था तो सभी बिस्कुटों को 18 फीसदी के स्लैब में डाला था. इस के चलते कंपनियों को इन के दाम 5 फीसदी बढ़ाने पड़े जिस से बिक्री में भारी गिरावट आई. लगातार घाटे में जा रही कंपनी अब अपने कर्मचारियों की छंटनी करने के लिए मजबूर है.
ये भी पढ़ें- जगमोहन रेड्डी की राह पर अमित जोगी
समस्याओं से जूझता देश
कामगारों की छंटनी, रोजगार की तलाश, बाढ़ और सूखे से होने वाली मौतें और नुकसान, पानी व बिजली की कमी का संकट और असमानता जैसी समस्याओं से देश जूझ रहा है. बीएसई और एनएसई के सूचकांकों में भारी गिरावट, रुपए के अवमूल्यन, बौंड्स पर बढ़ते प्रतिफल, सरकारी क्षेत्रों के बैंकों के बढ़ते घाटे, कठोर करों, विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा हाथ खींचने और कैफे कौफी डे के प्रमोटर वी जी सिद्धार्थ की आत्महत्या के बारे में चर्चा जारी है. ऐसे में भाजपा सरकार की 5 ट्रिलियन डौलर की अर्थव्यवस्था की बात दूर की कौड़ी है.
वर्ष 2018 की ग्लोबल जीडीपी रैंकिंग में भारत 7वें स्थान पर जा गिरा है. वर्ल्ड बैंक द्वारा जारी ग्लोबल जीडीपी (ग्रौस डोमैस्टिक प्रोडक्ट) रैंकिंग में 32.22 लाख वर्ग किलोमीटर वाले भारत का स्थान 7वां दर्ज हुआ है. जबकि वर्ष 2017 में भारत 5वें नंबर पर था. वर्ल्ड बैंक की नई सूची में 20.5 लाख करोड़ डौलर की अर्थव्यवस्था के साथ अमेरिका पहले स्थान पर है.
इस लिस्ट में चीन का स्थान दूसरा है और उस की जीडीपी का आकार 13.6 लाख करोड़ डौलर है. तीसरे स्थान पर 3.77 वर्ग किलोमीटर वाला जापान है, जिस की जीडीपी लगभग 5 लाख करोड़ डौलर की है. चौथे स्थान पर
3.57 लाख वर्ग किलोमीटर वाला जरमनी (4 लाख करोड़ डौलर), 5वें पर 2.42 लाख वर्ग किलोमीटर वाला ब्रिटेन (2.8 लाख करोड़ डौलर) और छठवें पर 6.4 लाख वर्ग किलोमीटर वाला फ्रांस (2.77 लाख करोड़ डौलर) हैं. भारत 2.73 लाख करोड़ डौलर की अर्थव्यवस्था के साथ 7वें स्थान पर है.
क्यों चौपट हुई अर्थव्यवस्था
देश की अर्थव्यवस्था को चलाने के मुख्य 4 कारक हैं – सरकारी खर्च, निजी निवेश, निजी खपत और निर्यात. बीते 5 वर्षों में इन में से कोई भी कारक ठीक तरीके से नहीं चल रहा है. इसीलिए भारत की अर्थव्यवस्था चौपट है. लोकसभा में बजट पेश करने के बाद से देश की अर्थव्यवस्था, बढ़ती बेरोजगारी और मंदी पर न तो सदन में कोई बात हो रही है और न मीडिया में कोई चर्चा है.
चर्चा है तो बस जम्मूकश्मीर विभाजन की, मुसलमानों से जुड़े विवादास्पद विधेयकों को सदन में पारित कराने की, नरेंद्र मोदी सरकार के दबदबे की, पाकिस्तान की खस्ता हालत की, कांग्रेस पार्टी के नेतृत्वविहीन हो जाने की, या पी चिदंबरम की गिरफ्तारी की.
कई मशहूर अर्थशास्त्री और वित्त विशेषज्ञ सरकार को बारबार आगाह कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था एक ऐसा क्षेत्र है, जिस में बाहुबल वाला राष्ट्रवाद काम नहीं करता है. इस के उलट, यह अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का काम कर सकता है. लेकिन अंधभक्त सरकार न तो किसी की बात सुनने की इच्छुक है, न वह कुछ समझना चाहती है.
देश की जीडीपी की वृद्धि दर लगातार गिर रही है. पूरे वर्ष के लिए 6.8 फीसदी और 2018-19 की आखिरी तिमाही में 5.8 फीसदी रहने के बाद 2019-20 की पहली तिमाही में इस के उठने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती है. आरबीआई और अन्य बैंकिंग क्षेत्रों के अनुमान के मुताबिक यह 2019-20 में 6.9 फीसदी से ज्यादा नहीं रहेगी. जबकि मोदी सरकार, जो 5 ट्रिलियन डौलर की अर्थव्यवस्था हो जाने का सपना दिखा रही है, के लिए जीडीपी दर अगले 5 सालों में लगातार 8 फीसदी से ज्यादा रहनी चाहिए.
आर्थिक फ्रंट पर लगातार नाकाम रही मोदी सरकार भारतीय रिजर्व बैंक से बड़ी रकम की मांग करती रही थी. बैंक के 2 गवर्नर इसी वजह से इस्तीफा दे चुके हैं. अब, आखिरकार गैरअर्थशास्त्री भूमिका वाले मौजूदा गवर्नर ने मोदी सरकार की हां में हां मिला दी है.
आरबीआई से लिया पैसा
चरमराती अर्थव्यवस्था से उबरने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने मोदी सरकार को 24.8 अरब डौलर यानी लगभग 1.76 लाख करोड़ रुपए लाभांश और सरप्लस पूंजी के तौर पर देने का फैसला किया. यह फैसला सरकार के दबाव में है या आरबीआई की अपनी इच्छा से, इस को ले कर खुसुरफुसुर जारी है.
मोदी सरकार की नजर बहुत लंबे समय से आरबीआई के इस रिजर्व फंड पर थी और आरबीआई पर इस बात के लिए लगातार दबाव बनाया जा रहा था कि वह अपना रिजर्व फंड सरकार को दे दे. आरबीआई के गवर्नर रहे रघुराम राजन से ले कर उर्जित पटेल तक के इस्तीफों के पीछे आरबीआई की स्वायत्तता को बरकरार रखने और रिजर्व फंड सरकार को देने का दबाव ही कारण रहा है.
आसान भाषा में इस बात को समझें तो एक ऐसा घर जहां घर के सारे सदस्य कमाते हैं, फिर भी उस घर के खर्चे इतने हैं कि पैसा न तो बच रहा है और न ही किसी के लिए कोई नई चीज घर में आ रही है. मगर इसी घर में एक बुजुर्ग है जो बहुत समझदार है. उस ने अपना पैसा बचा कर रखा है. उस के पास धीरेधीरे कर के पैसे तभी जमा हुए जब घर के लोगों ने अपनी कमाई से उसे थोड़ेथोड़े दिए.
यह दिमागदार बुजुर्ग अपना पैसा पागलों की तरह खर्च नहीं करता है. वह बिलकुल भी शाहखर्च नहीं है, वह पैसे की वैल्यू समझता है और यह पैसा उस ने उस दिन के लिए रख रखा है, जब कोई बड़ी आफत घर पर आन पड़े. लेकिन बाकी लोग बिना सोचेसमझे अनापशनाप खर्च कर रहे हैं. उसी पैसे के बल पर बाजार से जरूरत पड़ने पर कर्ज मिल जाता है.
एक दिन घर के लोग उस बुजुर्ग से कहते हैं कि घर की हालत बहुत खराब हो गई है. हमारे पास पैसा नहीं बचा है. लोगों की नौकरी जाने वाली है. सारा कामधंधा चौपट हो गया है, हमें अपना पैसा दे दो. सब उस की चिरौरी करने लगते हैं. वह नहीं मानता है तो उस पर दबाव डालते हैं. इतना दबाव डालते हैं कि अंत में बुजुर्ग हथियार डाल देता है और अपनी जमापूंजी में से बहुत बड़ा हिस्सा दे देता है, मगर इस डर के साथ कि यह पैसा भी डूब जाएगा.
बस, यही हालत मोदी सरकार की है. सरकार को आरबीआई के सरप्लस रिजर्व से वह पैसा चाहिए जो आरबीआई को अपने कामधाम से मिलता है. हर वित्तीय वर्ष में सरकार की नजर इस पैसे पर रही है. इस पैसे को पाने के लिए सरकार 2014 से ही उस पर दबाव बना रही थी. पहले उस ने 3.96 लाख करोड़ रुपए की मांग की. आरबीआई ने नहीं दिया. फिर सरकार ने आरबीआई के कामों में दखल देना शुरू कर दिया. गवर्नर उर्जित पटेल ने इसी बात पर इस्तीफा दिया था. बावजूद इस के, सरकार की हरकतें नहीं रुकीं.
गौरतलब है कि जिस दिन शक्तिकांत दास आरबीआई के गवर्नर बने उसी दिन साफ हो गया था कि अब सरकार जो चाहेगी, वह आरबीआई को करना होगा. वजह यह कि शक्तिकांत दास आईएएस अधिकारी रहे हैं, सरकार के निकट और प्रिय हैं और वित्त मंत्रलाय में प्रवक्ता के तौर पर काम कर चुके हैं. दास ने मोदी सरकार की नोटबंदी का भी काफी समर्थन किया था.
आरबीआई से पैसा निकलवाने के लिए दास और सरकार की आपसी रजामंदी से पूर्व गवर्नर बिमल जालान की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई थी. इसी कमेटी ने 26 अगस्त को सरकार को 1.76 लाख करोड़ रुपए देने के लिए कहा था.
ये भी पढ़ें- जरूरत तो फाइनेंशियली फिट होने की है!
ऐसा नहीं है कि आरबीआई ने इस से पहले सरकार को पैसा नहीं दिया. आरबीआई अपने कंटिनजैंसी फंड का एक हिस्सा सरकार को देती रही है. बीते साल आरबीआई ने सरकार को 68 हजार करोड़ रुपए दिए थे. उस के पहले लगभग 40 हजार करोड़ रुपए सरकार ले चुकी है. उस के पहले 2 साल लगभग 65 हजार करोड़ रुपए और साल 2014 में 52 हजार करोड़ रुपए मोदी सरकार आरबीआई से ले चुकी है. आरबीआई हर साल अपनी कमाई में से मोदी सरकार को हिस्सा दे रही है. लेकिन यह पहला मौका है जब हर साल का दुगनातिगुना रिजर्व सरकार को मिल रहा है.
यही सरकार यह कह कर सत्ता में आई थी कि वह विदेश में जमा सारा कालाधन वापस ले कर आएगी. भ्रष्ट नेताओं और पूंजीपतियों का स्विस बैंक में जमा सारा धन निकालेगी और आज इस सरकार की यह हालत हो गई है कि वह अपने ही घर में डाका डालने को मजबूर है. हाल ही में पूर्व आरबीआई गवर्नर डी सुब्बाराव ने कहा था कि आरबीआई के रिजर्व पर ‘धावा बोलना’ सरकार के ‘दुस्साहस’ को दर्शाता है.
आरबीआई का सरकार को पैसे देने का मतलब है कि सरकार खोखली हो चुकी है, उस के पास पैसे नहीं हैं. देश में मंदी है. और अब बड़ी मुसीबत सामने है क्योंकि पैसा छोटामोटा नहीं है, 1.76 लाख करोड़ रुपए है.
अर्थशास्त्री विवेक कौल कहते हैं कि जिस किस्म के स्लोडाउन में अभी हम हैं, मुझे तो नहीं लगता कि यह स्लोडाउन जल्दी खत्म होने वाला है. अगले साल अगर ऐसी ही कुछ हालत रही और टैक्स कलैक्शन धीमा ही रहा, तो फिर पैसा कहां से आएगा? उस हिसाब से आरबीआई से इतनी बड़ी धनराशि लेना एक गलत उदाहरण है. अभी तक सरकार के पास पैसे नहीं होते थे तो कभी एलआईसी से जुगाड़ कर के, ओएनजीसी ने एचपीसीएल को खरीदा जैसी तिकड़मबाजी कर के काम चलता था. अब आप आरबीआई के आगे कहां जाएंगे?
यह महत्त्वपूर्ण सवाल है कि इस साल तो आरबीआई से पैसा आ गया है, लेकिन अगले साल क्या होगा? सरकार की कोशिश होनी चाहिए थी कि अर्थव्यवस्था को ठीक किया जाए. लेकिन सरकार की शाहखर्ची किसी तरह कम नहीं हो रही है. आरबीआई से मिला 1.76 लाख करोड़ रुपया सरकार कहां और किस तरह खर्च करने वाली है, इस का कोई ब्योरा सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की ओर से अभी तक सामने नहीं रखा गया है.
इस में दोराय नहीं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में आई कमजोरी से सरकार बड़े दबाव में है. भारतीय मुद्रा रुपया अमेरिकी डौलर की तुलना में 72 के पार चला गया है. सरकार ने टैक्स कलैक्शन का जो लक्ष्य रखा था उसे पाने में वह पूरी तरह नाकाम रही है. जीएसटी की वजह से जितनी रैवेन्यू यानी राजस्व की प्राप्ति की उम्मीद सरकार ने की थी, उतनी नहीं हुई. नोटबंदी का आइडिया भी सफल नहीं हुआ और जीडीपी भी लगातार गिरावट की ओर जा रही है.
लगातार चौथी तिमाही में आर्थिक वृद्धि दर में गति नहीं आ पाई है. यही नहीं, कई सरकारी संस्थान और मंत्रालय इस वक्त दिक्कत में हैं. कई चीजें घाटे में चली गई हैं. आरबीआई से मिले पैसे को सरकार किस तरह इस्तेमाल करेगी कि ये सारी चीजें पटरी पर आ जाएं. सवाल यह उभरता है कि क्या मोदी सरकार आरबीआई से पैसे ले कर अर्थव्यवस्था में मजबूती ला पाएगी या यह पैसा भी डूब जाएगा?
गिरता रुपया, घटता निवेश
आज भारतीय रुपए की हालत बद से बदतर हो चुकी है. रुपया इस वक्त एशिया की सब से खराब हालत वाली मुद्रा बन चुका है. अमेरिकी डौलर के मुकाबले अगस्त माह में यह 3.4 फीसदी तक गिर चुका है.
भारत में देशी और विदेशी निवेश लगातार घट रहा है. जून 2019 में समाप्त तिमाही में नई परियोजनाओं (निजी और सरकारी) में निवेश पिछले 15 वर्षों में सब से कम यानी 71,337 करोड़ रुपए रहा. इस तिमाही में पूरी हुई परियोजनाओं का मूल्य गिर कर 5 वर्षों में साल के न्यूनतम स्तर यानी 64,494 करोड़ रुपए पर आ गया. अप्रैलजून 2019 में रेलवे को कोयला, सीमेंट, पैट्रोलियम, उर्वरक, लौह अयस्क आदि की ढुलाई से जो कमाई हुई उस में सिर्फ 2.7 फीसदी का ही इजाफा हुआ, जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 6.4 फीसदी कम है.
इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच निर्यात (कारोबारी और सेवाएं) सिर्फ 3.13 फीसदी बढ़ा है. पिछली अवधि में भी यही था, जबकि आयात में 0.45 फीसदी की गिरावट आई है, जो अर्थव्यवस्था की निराशाजनक हालत को बयां करता है. वहीं, खपत में जैसी कमी आई है वैसी पहले कभी नहीं रही. 2019-20 की पहली तिमाही में कारों की बिक्री 23.3 फीसदी, दुपहिया वाहनों की 11.7 फीसदी, व्यावसायिक वाहनों की साढ़े 9 फीसदी घट गई है. ट्रैक्टरों की बिक्री में 14.1 फीसदी की कमी आई है. जुलाई में तो हालत सब से खराब रही. 286 डीलर अपना कारोबार बंद कर चुके हैं. उद्योग संगठनों – सियाम और फाडा ने 2 लाख 30 हजार नौकरियां जाने की बात कही है.
त्वरित उपभोग वाली वस्तुओं (एफएमसीजी) की खपत भी आशा के अनुरूप नहीं रही. हिंदुस्तान लीवर, डाबर, ब्रिटानिया इंडस्ट्रीज और एशियन पेंट्स सहित कई कंपनियों की कुल कारोबारी वृद्धि इस साल की पहली तिमाही में आधी रह गई है या पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले में कम रही है.
देश के मौजूदा वित्त वर्ष (2019-20) की पहली तिमाही में केंद्र सरकार का सकल कर राजस्व 1.4 फीसदी ही बढ़ा है जबकि पिछले साल इसी अवधि में यह 22.1 फीसदी रहा था. ये तमाम बातें इस बात का खुलासा हैं कि कौर्पोरेट और वैयक्तिक आय में लगातार कमी आ रही है और खर्च में भी भारी गिरावट है.
ये भी पढ़ें- उन्नाव रेप कांड: अपराध को बढ़ाता राजनीतिक संरक्षण
धीमापन चिंताजनक
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन अर्थव्यवस्था में इस समय दिख रहे धीमेपन को बहुत चिंताजनक करार देते हैं. उन का कहना है कि सरकार को ऊर्जा एवं गैरबैंकिंग वित्तीय क्षेत्रों की समस्याओं को तत्काल सुलझाना चाहिए. इसी के साथ निजी निवेश प्रोत्साहित करने के लिए जल्द ही सरकार को नए कदम उठाने चाहिए.
वर्ष 2013-16 के बीच आरबीआई के गवर्नर रहे रघुराम राजन ने भारत में जीडीपी की गणना के तरीके पर नए सिरे से गौर करने का भी सुझाव दिया है. इस संदर्भ में उन्होंने पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यम के शोध निबंध का हवाला दिया, जिस में साफ कहा गया था कि मोदी सरकार में देश की आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाचढ़ा कर आंका गया है.
अरविंद सुब्रमण्यम ने दावा किया था कि 2011-12 से 2016-17 के दौरान देश की आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान तकरीबन ढाई फीसदी अधिक बताया गया था. सरकार का कहना था कि इस अवधि में भारत की जीडीपी वृद्धि दर 7 फीसदी रही, जबकि सुब्रमण्यम कहते हैं कि यह इस आंकड़े से बहुत कम करीब साढ़े 4 फीसदी के आसपास ही थी.
हैरानी यह भी है कि वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के रक्षा उपक्रमों (पीएसयू) को भी बंद करने का प्रयास कर रही है. सांठगांठ वाले पूंजीवाद के लिए रक्षा क्षेत्र के पीएसयू को बंद करना देश की सुरक्षा से बड़ा खिलवाड़ साबित होगा.
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आनंद शर्मा इस पर चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि सरकार द्वारा भारतीय पीएसयू में हिस्सेदारी बेची जा रही है. कोई भी देश अच्छी गुणवत्ता वाले हथियारों का उत्पादन किए बिना अपनी रक्षा नहीं कर सकता है. केंद्र सरकार देश को बड़े खतरे की ओर ढकेल रही है. कुल मिला कर देश की आर्थिक सुरक्षा के फ्रंट पर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की भाजपा सरकार अब तक फेल रही है.
अगर सरकार सफल है तो सिर्फ नारेबाजी और भावनाएं उकसाने वाले फैसले करने में. लेकिन लट्ठ बजाने से न गेहूं उगता है, न कारखाना चलता है. द्य
अर्थव्यवस्था के दावे
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने एक नया शिगूफा छोड़ा है. स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया, अच्छे दिन, सब का विकास, जय श्रीराम, मंदिर वहीं बनाएंगे, गौमाता जैसे नारों को गढ़ने में उस्ताद भाजपाई सरकार का अब नया नारा है ‘5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था.’ यह ट्रिलियन होता क्या है? इस का अर्थ क्या है, यह मत पूछिए. यह वेदों में छिपे ज्ञान की तरह है जिसे केवल तपस्वी, ऋषिमुनि, त्यागी, महात्मा समझ सकते हैं या फिर निर्मला सीतारमण. ये नरेंद्र मोदी सरकार की वित्त मंत्री हैं. आम व्यक्ति को इस से कुछ मतलब नहीं है पर उस का यह कर्तव्य है कि जैसे वह भारत माता की जय बोलता है, वैसे ही ‘हम 5 ट्रिलियन इकोनौमी होंगे’ हर दूसरी सांस में बोले.
वैसे 5 ट्रिलियन का मतलब है 5,000,000,000,000 डौलर यानी 36,00,00,00,00,00,000 रुपए (36 नील रुपए) की अर्थव्यवस्था. इस का अर्थ होगा कि प्रतिव्यक्ति वार्षिक आय जो आज लगभग 1,35,000 रुपए है, बढ़ कर 5-7 सालों में 2,40,000 रुपए प्रतिव्यक्ति हो जाएगी. यह मात्र खुशफहमी है, यह पक्का है, क्योंकि जब निर्मला सीतारमण पानी का घूंट पिए बिना लंबा बजट भाषण दे रही थीं, उस समय सुधरती अर्थव्यवस्था के 2 बड़े पैमाने, गाडि़यों और मकानों की बिक्री कम हो रही थी. कारें फैक्ट्रियों में बनीं लेकिन फैक्ट्रियां न बिकने वाली गाडि़यों को खड़ी करने की जगह ढूंढ़ रही थीं जबकि बिल्डर्स हाथ पर हाथ धरे दीवारें निकालने को बैठे थे.
वहीं, कुछ किसान मौनसून की कृपा के कारण तो कुछ बढ़ते खर्च व घटती आय के कारण जोत कम कर रहे थे. हां, बच्चे पैदा हो रहे थे. स्कूल भरे हुए थे. बेरोजगारों की फैक्ट्रियां चालू थीं.
इतना अवश्य है कि भारतीय जनता पार्टी की अद्भुत जीत, चाहे वह कैसे भी हासिल की गई हो, की वजह से मरघट सी चुप्पी छाई है. विपक्षी दलों की बोलती बंद है. मीडिया, जो पहले गुणगान में व्यस्त था, अब चुप हो गया. अमीर तो भारीभरकम अतिरिक्त टैक्स के खिलाफ भी नहीं बोल रहे, क्योंकि उन्हें डर है कि बोलने पर ईडी यानी एनफोर्समैंट डायरैक्टोरेट उन के दरवाजे खटखटाने न आ जाए.
यह 5 ट्रिलियन का नारा पूरा हो या न हो, फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यदि किसी तरह की अमीरी आ भी गई तो वह पहले 2-3 फीसदी लोगों में आएगी. फिर कहीं खुरचन बंटी, तो ऊंची जातियों में बंट कर रह जाएगी. सरकारी कर्मचारी और पंडितों के व्यवसाय व ठाटबाट बेहतर होंगे. लेकिन बाकी सब लोग भगवान भरोसे, यदि वह कहीं है तो.
सत्ता में दोबारा आई मौजूदा सरकार के संसद में पेश किए गए पहले बजट के फैसलों से ऐसा कहीं नहीं लगता कि कुछ अच्छा होने वाला है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह विपक्षी कांग्रेस को ध्वस्त करने में ज्यादा लगे हैं, देश निर्माण में कम. अखबारों की सुर्खियां तो कम से कम यही कह रही हैं.
देश की प्रगति के लिए पूंजी निवेश चाहिए होता है, चाहे वह कारखानों में हो, सड़कों, पुलों पर हो, रेलों पर हो या स्कूलों में हो. हालत यह है कि इन की दर 2007-08 में 32.9 फीसदी से घट कर आज 29.3 फीसदी रह गई है. पूंजी निवेश के लिए जो सरकारी पैसा चाहिए होता है वह करों में चाहिए होता है. निर्मला सीतारमण के बजट का अंदाजा है कि इस वर्ष आयकर में 23.25 फीसदी की बढ़ोतरी होगी और जीएसटी में 44.98 फीसदी. हालांकि ऐसा संभव नहीं है, पर ऐसा अगर हुआ तो यह क्रूर रोमन सम्राटों या ईस्ट इंडिया कंपनी के अकाल के दिनों में भी कर बढ़ाने जैसा होगा, क्योंकि पूरी अर्थव्यवस्था ही धीमी चल रही है.
हां, अपना समर्थन देने के लिए जय 5 ट्रिलियन, जय गौवंश, जय भारतमाता बोलते रहें, अवश्य कल्याण होगा.
नीति आयोग का खुलासा
नीति आयोग के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार ने साफ कहा है कि देश की अर्थव्यवस्था इस वक्त सब से जर्जर हालत में है और पिछले 70 वर्षों में देश ने ऐसी स्थिति का सामना नहीं किया है कि जब पूरी वित्तीय प्रणाली जोखिम में हो. राजीव कुमार के मुताबिक, नोटबंदी और जीएसटी के बाद कैश संकट बढ़ा है. राजीव कुमार ने कहा कि आज कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा है. प्राइवेट सैक्टर किसी को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं है. हर कोई नकदी दबा कर बैठा है. नोटबंदी, जीएसटी और आईबीसी (दीवालिया कानून) के बाद हालात बदल गए हैं. पहले करीब 35 फीसदी कैश उपलब्ध होता था, वह अब काफी कम हो गया है. इन सभी कारणों से स्थिति काफी जटिल हो गई है.
अर्थव्यवस्था में सुस्ती को ले कर राजीव कुमार ने कहा कि यह 2009-14 के दौरान बिना सोचेसमझे दिए गए कर्ज का नतीजा है. इस से 2014 के बाद नौन परफौर्मिंग एसेट (एनपीए) बढ़ा है. इस वजह से बैंकों की नया कर्ज देने की क्षमता कम हुई है. इस कमी की भरपाई गैरबैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) ने की. इन के कर्ज में 25 फीसदी की वृद्धि हुई है.
ये भी पढ़ें- मध्यप्रदेश में कांग्रेस की कबड्डी