शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी दोनों अलग दल थे पर  बयानबाजी के बावजूद उन दोनों को कभी अलग दल नहीं माना गया. पर फिर भी शिवसेना को कहीं कोई चीज लगातार खलती रही कि उस के साथ कुछ भेदभाव हो रहा है, उसे उस की मेहनत का पूरा फल नहीं मिल पा रहा या नहीं दिया जा रहा.

यह कोई नई बात नहीं है. शिवाजी के मराठा सम्राट बनने के समय से ही सहायता और सलाह देने के नाम पर ब्राह्मणों ने मराठा राजाओं पर वैसा ही कब्जा कर लिया था जैसा कृष्ण ने पांडवों पर कर रखा था. महाभारत चाहे कथा ही हो पर इस की कहानी इतनी बार दोहराई जाती है कि भारतीय जनमानस में यह गहरे बैठ गई है कि राज तो सलाहकार चलाते हैं, राजा नहीं. दशरथ के राज में भी चलती ब्राह्मण सलाहकारों की थी. यह सच है कि जब भी हिंदू राजाओं ने राज किया है, कोईर् न कोई चाणक्य उन के पीछे लग गया.

यह परंपरा आज तक चल रही है. और शिवसेना इसी की शिकार हो रही थी. शिवसेना को चाहे पिछले कई चुनावों में सीटें कम मिलती रही हों पर यह पक्का है कि शिवसेना के बिना भारतीय जनता पार्टी का महाराष्ट्र में टिकना असंभव है.

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महाराष्ट्र में मेहनतकश पिछड़ों को बाल ठाकरे ने कांग्रेस और कम्युनिस्टों से अलग कर ‘जय मराठा’ के नाम पर अपने  झंडे तले ला खड़ा किया था. भारतीय जनता पार्टी की महाराष्ट्र में ही नहीं, हर जगह उस की जीत का कारण किसानों, कारीगरों, पूर्व व वर्तमान सैनिकों का समूह है जो भगवाई सीढ़ी चढ़ने को इतने उतावले हैं कि वे अपनी मेहनत की कमाई का बड़ा हिस्सा पूजापाठ के पाखंड में भी उडे़लते हैं और राजनीति में सवर्णों के चरणों में भी डाल लेते हैं. लेकिन इस बार शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे अड़ गए कि वे पालकी ढोएंगे ही नहीं, पालकी में बैठेंगे भी चाहे भाजपा की 105 सीटों के मुकाबले उन की 56 सीटें ही क्यों न हों.

यह जातीय दंश है कि ऊंचे देवेंद्र फडणवीस और उन के आकाओं का ढाई साल के लिए भी उद्धव ठाकरे को गद्दी देने का मन न हुआ. ‘साहूजी महाराज को कोल्हापुर भेज दो, पूना से तो पेशवा ही राज करेंगे’ वाली मनोवृत्ति से भाजपा निकल नहीं पाई. नतीजा यह हुआ कि महाराष्ट्र में अब एक ऐसी सरकार बनी है जिस में मराठों का वर्चस्व है जबकि ऊंचे गिनती में थोड़े से हैं.

शिवसेना को अब अपनी घोषित नीतियों में परिवर्तन करने होंगे. पर यह भी साफ है कि  शिवसेना के आम कार्यकर्ता या समर्थक ऊंचे, नीचे व विधर्मी लोगों के साथ ही घुलमिल कर रहते हैं. उन का जीवन आपस में एकदूसरे के साथ बीतता है, न कि राममंदिर या गणपति पूजन पर. वे कट्टरपंती अपने आकाओं को खुश करने के लिए दिखाते रहे हैं. उन्हें अपना चोला बदलने में कठिनाई नहीं होगी क्योंकि अब उन्हें सलाह लेने के लिए शिक्षित ऊंचों के पास नहीं जाना पड़ेगा. मराठों में आज पूरी तरह शिक्षित, विचारकों और प्रशासनिक अफसरों की कमी नहीं है कि वे लिखनेपढ़ने के लिए जातिविशेष पर निर्भर रहें, जैसे कभी उत्तर प्रदेश में मायावती या हरियाणा में देवीलाल निर्भर रहे थे.

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कोई राज्य मूर्तियों या पूजाओं से नहीं समृद्ध बनता. राज्य को तो मेहनतियों की जरूरत होती है. लेकिन जहां मेहनतकश किसान सब से ज्यादा आत्महत्याएं कर रहे हैं, वहां का प्रबंध कुछ खराब है, यह स्पष्ट है. शिवसेना का मुख्यमंत्री यदि कुछ साल रहा, तो महाराष्ट्र की तसवीर बदल सकती है और इस में योगदान नेताओं का इतना ही होगा कि वे अपना काम करें और आम जनता को अपना काम करने दें, जनता को धार्मिक या क्षेत्रीय विवादों में न उल झाएं.

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