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बच्चों की आंखों के लिए फायदेमंद हैं आउटडोर गेम्स

मोनू की होमवर्क डायरी देखकर उसकी मम्मी ने उसकी पिटायी कर डाली. डायरी में लगभग हर पेज पर टीचर की शिकायत लिखी थी कि मोनू होमवर्क करके नहीं लाता है. लगभग सारे सब्जेक्ट्स में यही हाल था. मम्मी चिल्ला रही थीं, ‘टीवी देखना, वीडियो गेम खेलना और रात में फोन में घुसे रहना… सब आज से बंद… ’ वह बकती-झकती अपने काम में लग गयीं तो मोनू डर के मारे किताबें लेकर बैठ गया.

छमाही इम्तहान का रिजल्ट आया तो मोनू करीब-करीब सभी विषयों में फेल था. मम्मी-पापा पेरेंट-टीचर मीटिंग में उसका रिपोर्टकार्ड लेने पहुंचे तो क्लास टीचर ने शिकायतों की पोटली खोल दी. बोलीं कि मोनू का मन पढ़ायी में बिल्कुल नहीं लगता है. जब सारे बच्चे ब्लैक बोर्ड पर लिखी बातें अपनी-अपनी पुस्तिका में उतारते हैं तो वह बैठा रहता है. होमवर्क तक नोट नहीं करता है. टीचर की बातें सुनकर मम्मी का गुस्सा तो सातवें आसमान पर पहुंच गया, मगर मोनू के पापा को टीचर की बातें कुछ ठीक नहीं लगीं तो उन्होंने मोनू को पुचकारते हुए पूछा कि ऐसा क्यों करते हो. उसका जवाब सुनकर मम्मी-पापा और टीचर तीनों के होश उड़ गये. दरअसल ब्लैकबोर्ड पर टीचर क्या लिखती हैं, यह मोनू को साफ दिखायी ही नहीं पड़ता था. अब जब दिखायी ही नहीं देता तो बेचारा बच्चा अपनी नोटबुक में भला क्या उतारता?

मोनू को आंख के डौक्टर को दिखाया गया तो पता चला कि उसकी नजर काफी कमजोर है. उसके पेरेन्ट्स हैरान थे क्योंकि साल भर पहले तक मोनू की आंखें बिल्कुल ठीक थीं. अभी उम्र ही क्या थी – मात्र दस साल. पांचवी कक्षा में है और अभी से आंखें खराब हो गयीं!

दरअसल बीते कोई दो-ढाई साल से मोनू को वीडियो गेम खेलने और पापा के स्मार्ट फोन पर कार्टून देखने का शौक लग गया था. पहले जहां वह स्कूल से लौटने के बाद दोस्तों के साथ गली में या छत पर खेलता रहता था, वहीं अब वह घर से बाहर ही नहीं निकलता है. आउटडोर गेम्स तो बिल्कुल बंद हो गये हैं. वह या तो वीडियो गेम खेलता है या टीवी देखता रहता है. मोनू की नजर कमजोर होने की यही बड़ी वजह है.

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डौक्टर की मानें तो आपके बच्चे अगर स्मार्टफोन पर घंटों समय बिताते हैं, कम्प्यूटर या टैबलेट पर वीडियो गेम्स खेलते रहते हैं तो उनकी आंखों की रोशनी कमजोर पड़ने की संभावना बहुत बढ़ जाती है. जब से ये गैजेट्स लोगों के घरों में घुसे हैं और बच्चों के हाथ लगे हैं तब से उनका घर से बाहर निकलना, दोस्तों के साथ घूमना, खेलना बहुत कम हो गया है. इस वजह से उनके शरीर को सूरज की पर्याप्त रोशनी और गर्माहट नहीं मिलती है. सूरज की रोशनी आंखों के लिए बहुत जरूरी है. इससे आंखों की रोशनी बुढ़ापे तक बनी रहती है. कम्प्यूटर, स्मार्ट फोन या टैबलेट से निकलने वाली किरणें आंखों को हानि पहुंचाती हैं. इनके सामने अधिक देर तक बैठना अपना नुकसान करना ही है. इसलिए बच्चों को कम से कम दो-तीन घंटे घर से बाहर या छत पर धूप और रोशनी में खेलने के लिए अवश्य भेजिए. विशेषज्ञों का कहना है कि अगर बच्चे हर रोज कम से कम दो घंटे बाहर सूरज की रोशनी में खेलते हैं, तो उनकी आंखें कमजोर होने से बच सकती हैं.

निकटदृष्टि दोष यानी मायोपिया रोग में पास की नजर कमजोर हो जाती है. पास की चीजें धुंधली दिखायी देती हैं. इसमें रोशनी आंख द्वारा अपवर्तन के बाद रेटिना के पहले ही प्रतिबिम्ब बना देता है, न कि रेटिना पर. इस कारण वस्तुओं का प्रतिबिम्ब स्पष्ट नहीं बनता और चीजें धुंधली दिखती हैं. विशेषज्ञों के अनुसार, इस परिस्थिति का कारण है आंखों के लिए प्राकृतिक रोशनी की कमी.

बच्चों की आंखों की रोशनी कमजोर पड़ने का मुख्य कारण सीधे तौर पर प्रत्यक्ष सूर्य के प्रकाश के संपर्क में कमी है. जो बच्चे अधिक पढ़ते हैं, अधिक देर तक कम्प्यूटर, स्मार्टफोन और टैबलेट का इस्तेमाल करते हैं और जिन्हें बाहर खेलने कूदने का कम अवसर मिलता है, उनमें यह कमी साफ नजर आती है. बच्चों को इन उपकरणों के ज्यादा इस्तेमाल पर रोक लगानी चाहिए और उन्हें बाहर खेलने के लिए उत्साहित करना चाहिए.

सही डायट भी जरूरी है

ओमेगा-3 डायट

आज के समय में बच्चों को आंख कमजोर होने की समस्या आम हो गयी है. इसको रोकने का सही तरीका है बाहर अधिक से अधिक समय बिताना. दिन में दो घंटे बाहर धूप में बिताने से बच्चों में इस बीमारी को बढ़ने से रोका जा सकता है. दिन के वक्त पार्क आदि में खेलना, पतंग उड़ाना या अन्य व्यायाम उनकी आंखों की रोशनी के लिए वरदान हैं. साथ ही बच्चों को ओमेगा-3 डायट देना भी जरूरी है. बादाम, किशमिश और काजू आंखों की रोशनी के लिए बहुत फायदेमंद होते है क्योंकि इसमें ओमेगा-3 फैटी एसिड होता हैं. रोजाना ये सब खाने से आंखों की रोशनी के साथ-साथ बच्चों का दिमाग भी तेज होता है. अंडे और मछली बच्चों के खाने में नियमित रूप से होनी चाहिए. अंडे में आंखों के लेंस को बचाने के लिए जरूरी पोषक तत्व – प्रोटीन और ग्लूटेथिओन होते हैं. ये आंखों के लेंस के लिए एंटी ऑक्सीडेंट की तरह काम करते हैं. आंखों के रेटिना के लिए सबसे जरूरी होता है फैटी एसिड. मछली में भरपूर मात्रा में ओमेगा-3 फैटी एसिड पाया जाता हैं. अच्छे खानपान के साथ ही नियमित रूप से अपने बच्चों की आंखों की जांच भी कराते रहना चाहिए.

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आंखों के लिए विटामिन बहुत जरूरी

बच्चों की आंखों के लिए विटामिन-ए, सी और ई  बहुत जरूरी हैं. उनके आहार में विटामिन-ए से भरपूर फल और सब्जियां जैसे संतरा, मौसमी, केला, शकरगंदी, कद्दू, कीवी, शिमला मिर्च, अनानास आदि को अवश्य शामिल करें. हरी सब्जियां  आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए और उन्हें स्वस्थ रखने के लिए जिम्मेदार हैं. हरी पत्तेदार सब्जियों को किसी न किसी रूप में आहार में शामिल करें. हरी सब्जियों में कैरोटिनॉयड (ल्यूटेन) नामक विशेष पोषक तत्व होता है. हरी पत्तेदार सब्जियों में – पालक, शलगम, सलाद पत्ता, सरसों, बंदगोभी आदि बच्चों को जरूर खिलाएं. आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए सबसे अच्छी सब्जी होती है गाजर. गाजर में विटामिन ए (बीटा कैरोटीन) भरपूर होता है जो आंखों की रोशनी बढ़ाने के लिए बहुत जरूरी है. गाजर में मौजूद अन्य पोषत तत्व हैं – लाइकोपेन, ल्यूटेन आदि भी आंखों के लिए अच्छे हैं. टमाटर भी आंखों के लिए बहुत फायदेमंद है क्योंकि इसमें भी आंखों की रोशनी के लिए जरूरी तत्व ल्यूटेन और लाइकोपेन पाये जाते हैं. लाइकोपेन आंखों की रोशनी बढ़ाने में काफी मदद करता है.

परित्यक्ता : भाग 2

इधर, पड़ोस में रहने वाला 22 साल का दीनू उस की छोटी बेटी रीना पर गलत निगाह रखता था. रीना 9 साल की एक अबोध बालिका थी, जिसे अकसर वह चौकलेट वगैरह का लालच दे कर अपने पास बुलाने की कोशिश करता था. एक दिन सुमि ने चौकलेट खाती रीना के शरीर पर उस के रेंगते हाथों को देख कर मां को तुरंत बताया था. कजरी ने भी इस वाकए को हलके रूप में न ले कर दीनू के मांबाप से जा कर तुरंत इस की शिकायत की थी. उस के बाद दीनू ने सब के सामने उस से माफी मांगी थी.

कुछ दिनों शांत बैठ कर दीनू फिर से वही काम दोहरा रहा था. कजरी को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वह क्या करे. कैसे बुरी नीयत व बुरी निगाह रखने वाले लोगों से अपनी बच्चियों को बचाए. खुद उस की देह भी तो उस के लिए बड़ी दुखदाई बन चुकी थी. मर्दों की पैनी निगाहें उस के शरीर पर यों फिसलती थीं मानो कपड़ों के अंदर तक झांक लेना चाहती हों.

पति की छोड़ी औरत शायद हर मर्द की जागीर हो जाती है. जिस पर हर कोईर् हाथ साफ करना चाहता है. कजरी के अंदर की औरत बहुत अकेली व लाचार हो गई थी. क्या बिना आदमी के औरत का कोई वजूद नहीं है? आखिर औरत को इतना कमजोर क्यों बनाया है? उस की बेचैनी आंसू बन कर उस के गालोें पर ढुलकने लगी. रात को न जाने कब उस की आंख लगी.

सुबह उठी तो सिर भारी हो रहा था.

आंखें भी जल रही थीं. देररात तक जागने से ऐसा हुआ है, यह  सोच कर कजरी ने उठने की कोशिश की परंतु शरीर ने साथ न दिया.सुमि ने मां को सहारा देने के लिए हाथ बढ़ाया, तो चौंक पड़ी, ‘‘आई, तुझे तो तेज बुखार है.’’

‘‘हां रे, मुझ से तो उठा भी नहीं जा रहा,’’ कजरी पर बेहोशी छाती जा रही थी. शायद बारिश में भीगने से उसे बुखार ने जकड़ लिया था.

मां की हालत देख कर सुमि घबरा गई. मां को वैसे ही छोड़ कर वह दौड़ कर पड़ोस से विमला काकी को बुला लाई. विमला काकी के पति औटो चलाते थे. जल्दी से कजरी को अपने औटो में बैठा कर वे उसे पास के अस्पताल ले गए.

कजरी की बिगड़ती हालत देख कर डाक्टर ने उसे वहीं ऐडमिट कर ग्लूकोस की बोतल चढ़ाने की सलाह दी. जब तक वह हौस्पिटल में रही, विमला काकी ने उस की पूरी देखभाल की और हौस्पिटल का बिल भी उन्होंने ही भरा.

कजरी घर पर तो आ गई लेकिन कमजोरी के चलते उस से उठतेबैठते नहीं बन रहा था. कुछ पैसे जो उस ने बचा कर रखे थे, वे घर के खानेखर्च में खत्म हो गए. अभी विमला काकी का उधार पूरा बाकी था.

‘‘आई, आज आटा खत्म हो गया है, तेल भी नहीं बचा. खाना कैसे बनाऊं?’’ सुमि ने एक सुबह कुछ झिझकते हुए मां से कहा. काम पर गए उसे एक हफ्ता हो गया था.

‘‘आज कुछ अच्छा लग रहा है. आज जाती हूं काम पर. उधर से आते वक्त सब किराना लेती आऊंगी. तब तक तुम पास वाली दुकान से दूध और ब्रैड ले आना और चाय बना कर उस के साथ टोस्ट खा लेना,’’ अपने पास बचे 50 रुपए का आखिरी नोट सुमि को पकड़ाते हुए वह बोली.

काम पर जा कर उसे बहुत बड़ा झटका लगा. उस की मालकिन ने बगैर बताए इतने दिनों की छुट्टी करने पर उसे काम से हटा कर दूसरी बाई रख ली थी. उस ने लाख मिन्नतें कर उन्हें समझाने की भरपूर कोशिश की कि उस ने जानबूझ कर छुट्टी नहीं मारी. लेकिन उन का कलेजा न पसीजा. उन्होंने उसे दोबारा काम पर रखने से साफ मना कर दिया.

दुखी मन से कजरी वहां से चल पड़ी कि तभी बाहर से मालिक की गाड़ी आती दिखाई दी. मन में उम्मीद की एक किरन जागी. शायद मालिक को उस की परेशानी समझ दया आ जाए और वे मालकिन को समझा कर उसे फिर काम पर रख लें. कुछ हौसला कर के उस ने पास जा कर मालिक को अपनी मजबूरी की पूरी दास्तां सुना दी. ध्यान से उस की परेशानी सुन कर मालिक ने धीमे स्वर में उसे कुछ समझाया, जिसे सुन कर एक बार फिर उस के होश उड़ गए. तेज कदमों से चलते हुए वह उन के बंगले से बाहर निकल आई. पीछे से मालिक उसे आवाज लगाते रह गए.

मालिक के शब्द अभी भी उस के कानों में गूंज रहे थे, ‘देखो, तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हें भरपूर पैसा दूंगा. बस, बदले में मैं तुम्हें जब बुलाऊं, चली आना.’ छि, उसे अब अपनेआप से भी घिन आने लगी थी. क्या औरत के शरीर में अब यही रह गया है? उस के काम, उस के हुनर की कोई कीमत ही नहीं है? वह मालिक की बात को अनसुनी कर चली तो आई थी, पर पेट की रोटी के लिए जुगाड़ करने का सवाल अब भी अपनी जगह मुंहबाए खड़ा था.

अब कोई रास्ता दिख नहीं रहा था कजरी को. ‘घर में खाने के लिए अन्न का दाना नहीं है,’ कजरी अपनेआप में ही बड़बड़ाती जा रही थी. आसपास के दोचार घरों के गेट खड़का कर उस ने उन से कोई काम देने की गुहार लगाई. एकदो लोगों ने उसे बाद में आने को कहा भी, पर फिलहाल तो उस के पास एक भी पैसा नहीं था. काम पर आते वक्त उस ने यही सोचा था कि मालकिन से कुछ एडवांस मांग लेगी. पर अब तो उस के पास काम भी नहीं था.

‘चल कर कुछ किराना ही उधार ले लेती हूं, बाद में चुका दूंगी,’ सोचते हुए कजरी बाबूलाल की दुकान की तरफ चल दी.

‘‘भैया, कुछ सामान लेना है,’’ कुछ झिझकते हुए उस ने बाबूलाल से कहा.

‘‘पहले पुराना हिसाब चुकता कर दो, 1,250 रुपए हो रहे हैं,’’ बाबूलाल ने उसे गहरी नजरों से देखते हुए कहा.

‘‘हमेशा ही चुका देती हूं, भैया. हां, इस बार जरूर कुछ देर हो गई. पर मैं जल्द ही आप के सारे रुपए चुका दूंगी,’’ कजरी ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘‘माफ करना, मैं ने यहां कोई धर्मखाता नहीं खोल रखा है, जो मुफ्त में ही सब को जलपान कराता जाऊं,’’ बाबूलाल ने उसे दुत्कारते हुए कहा.

‘‘आज मेरा काम छूट गया है, लेकिन मैं विश्वास दिलाती हूं कि जल्द ही कोई काम ढूंढ़ कर आप की पूरी उधारी चुका दूंगी,’’ कह कर कजरी ने बेबसी से अपने हाथ जोड़ दिए.

‘‘काम तो मैं भी तुम्हें दे सकता हूं, अगर तुम चाहो तो. इस से तुम्हारा आज तक का पूरा उधार चुक जाएगा और ऊपर से कुछ कमाई भी हो जाएगी.’’ बाबूलाल की आंखों से टपकती लार देख कर कजरी सहम गई.

जाने कैसे ये भेडि़ए एक औरत की मजबूरी को सूंघ कर अपना दांव गांठते हैं. कजरी ने गहरी सांस छोड़ी और दुकान के बाहर आ गई.

मोड़ तक आतेआते वह कुछ ठिठक कर खड़ी हो गई. घर जा कर बच्चों को क्या खिलाएगी? बच्चों के भूख से कलपते चेहरे उसे साफ दिखाई पड़ रहे थे. मकान का किराया कहां से आएगा? विमला काकी का पूरा उधार अभी बाकी है. उफ, कैसे होगा यह सब? कजरी के दिल और दिमाग में एक जंग सी छिड़ गई थी. दिल कहता था…यह गलत है जबकि दिमाग कुछ ज्यादा ही व्यावहारिक हो चला था, जो हालफिलहाल की स्थिति से कैसे निबटा जाए, यह सोच रहा था. आखिरकार, एक औरत के सतीत्व पर मां की ममता भारी पड़ गई. कजरी के दुकान में दोबारा प्रवेश करते ही बाबूलाल की आंखों में वासनाजनित चमक आ गई.

कुछ देर बाद ही कजरी दोनों हाथों में सामान लिए घर की तरफ तेजी से बढ़ी चली जा रही थी. सामान्यतया रोज खुला रहने वाला दरवाजा आज भीतर से बंद था. अंदर से आती घुटीघुटी सिसकारी की आवाज ने कजरी को तनिक संशय में डाल दिया. किसी अनिष्ट की आशंका से उस का मन कांप गया. जोरजोर से बच्चों को आवाज लगा कर उस ने दरवाजा पीटना शुरू कर दिया. पर दरवाजा न खुला.

इतने में सुमि और कमल को बाहर से आता देख कजरी चीख पड़ी, ‘‘रीना कहां है सुमि?’’

‘‘अंदर ही होगी, आई. मैं कुछ देर पहले ही ब्रैड और दूध लेने गई थी और यह कमल मेरे पीछे लग लिया. बहुत समझाया, पर माना ही नहीं.’’

तब तक चिल्लाने की आवाज सुन कर आसपड़ोस से कई लोग निकल कर जमा हो गए. तुरंतफुरत ही दरवाजा तोड़ दिया गया. दरवाजा टूटते ही कजरी अंदर घुसी और कमरे के एक कोने में रीना को बेसुध पड़ा देख बदहवास सी हो गई. तभी भीतर से एक साया निकल कर बाहर की तरफ भागा. हां, वह दीनू ही था, जिस ने रीना के अकेले होने का फायदा आज उठा ही लिया था. यह सब इतना अचानक हुआ कि किसी को कुछ समझ ही नहीं आया.

शोरगुल की आवाज से विमला काकी भी आ चुकी थीं. कजरी ने रीना को उठानेहिलाने की बहुत कोशिश की, मगर सब बेकार था. रीना बेजान हो चुकी थी. एक नन्ही कली आज फिर किसी वहशी दरिंदे की बुरी नीयत का शिकार हो चुकी थी. कजरी सामने पड़ी सचाई स्वीकार नहीं कर पा रही थी. अपनी प्यारी गोलू का यह हाल देख कर वह कांप उठी थी. उस की पूरी दुनिया ही जैसे उजड़ गई थी. सुमि लगातार रोए जा रही थी और कमल सहमा हुआ एक तरफ खड़ा हुआ था.

लोगों की आपसी चर्चा चालू थी. कोई पुलिस को बुलाने की बात कर रहा था तो कोई रीना को डाक्टर के पास ले जाने को कह रहा था. कजरी अचानक उठी और पलंग के नीचे से हंसिया निकाल कर बिजली की फुरती से बाहर निकल गई. उधर, दीनू जल्दीजल्दी एक बैग में अपने कुछ कपड़े भर कर घर से निकलने ही वाला था कि कजरी ने उस का रास्ता रोक लिया.

‘‘मुझे माफ कर दो कजरी भाभी, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई. पता नहीं मुझे क्या हो गया था. मैं उसे मारना नहीं चाहता था, वह चिल्ला न सके, इसलिए मैं ने उस का मुंह बंद किया. मुझे नहीं…’’ दीनू अपनी सफाई देता रह गया और कजरी ने उस पर हंसिये से प्रहार करना शुरू कर दिया.

‘‘नीच, तू ने मेरी गोलू को क्यों मारा, क्या बिगाड़ा था उस मासूम ने तेरा,’’ कजरी चीखती जा रही थी. तभी पीछे से विमला काकी ने आ कर कुछ लोगों की मदद से उसे रोका.

दीनू घायल हो कर गिर पड़ा था. इलाके की पुलिस ने तुरंत ही दीनू को अस्पताल भेजा. और पूछताछ में लग गई. रीना की मृतदेह एम्बुलेंस में ले जाई जा रही थी. उपस्थित सभी लोगों की आंखें नम थीं. इतनी देर से मूकदर्शक बनी कजरी ने अचानक अट्टहास करना शुरू कर दिया. भीड़ में से किसी ने कहा, ‘वह पागल हो गई है.’ एक विमला काकी ही ऐसी थीं जिन्हें कजरी में एक परित्यक्त मां की बेबसी और हताशा दिखाई दे रही थी, जो अपना सबकुछ दांव पर लगा कर भी अपनी मासूम बच्ची को नहीं बचा पाई.

मलमल की चादर : भाग 2

परंतु कैंसर ने न केवल वैदेही के शरीर पर बल्कि उस के दिमाग पर भी असर कर दिया था. सभी समझाते कि अकेले उदासीन बैठे रहना सर्वथा अनुचित है. बाहर निकला करो, लोगों से मिलाजुला करो. लेकिन वह जब भी घर के दरवाजे तक पहुंचती, उस का अवचेतन मन उसे देहरी के भीतर धकेल देता. घर की चारदीवारी जैसे सिकुड़ गई थी. मन में अजीब सी छटपटाहट बढ़ने लगी थी. दिल बहलाने को कुछ देर सड़क पर टहलने के इरादे से गई. मगर यह इतना आसान नहीं था. सड़क पर पहुंचते ही लगा जैसे सारा वातावरण इस स्थिति को घूरने को एकत्रित हो गया हो. आसमान में उस के अधूरे मन सा अधूरा चांद, आसपास के उदास पत्थर, फूलपत्ते, गहराती रात…सभी उस के अंदर की पीड़ा को और गहरा रहे थे. इस अकेली ठंडी सांध्य में वैदेही घर लौट कर बिस्तर पर निढाल हो लेट गई. दिल कसमसा उठा. नयनों के पोरों से बहते अश्रुओं ने अब कान के पास के बाल भी गीले कर दिए थे.

उस की सूरत से उस की मनोस्थिति को भांप कर नीरज बोले, ‘‘वैदू, आगे की जिंदगी की ओर देखो. अभी हमारी गृहस्थी नई है, उग रही है. आगे इस में नूतन पुष्प खिलेंगे. क्या तुम भविष्य के बारे में कभी भी सकारात्मक नहीं होगी?’’

पर वैदेही आंखें मूंदे पड़ी रही. एक बार फिर वह वही सब नहीं सुनना चाहती थी. उस को नहीं मानना कि उस के कारण सभी के सकारात्मक स्वप्न धूमिल हो रहे हैं. अन्य सभी की भांति वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि अब वह पूरी तरह स्वस्थ है. कैंसर के बारे में उस ने जो कुछ भी पढ़ासुना था, उस से यही जाना था कि कैंसर एक ढीठ, जिद्दी बीमारी है. यदि उस के अंदर अब भी इस का कोई अंश पनप रहा हो तो? मन में यह बात आ ही जाती.

अगली सुबह वैदेही रसोई में गई तो पाया कि नीरज ने पहले ही चाय का पानी चढ़ा दिया था. प्रश्नसूचक नजरों के उत्तर में वे बोले, ‘‘आज शाम मेरे कालेज का जिगरी दोस्त व उस की पत्नी आएंगे. तुम दिन में आराम करो ताकि शाम को फ्रैश फील करो. और हां, कोई अच्छी सी साड़ी पहन लेना.’’

दिन फिर उसी खिन्नता में गुजरा. किंतु सूर्यास्त के समय वैदेही को नीरज का उत्साह देख मन ही मन हंसी आई. भागभाग कर घर साफसुथरा किया, रैस्तरां से मंगवाई खानेपीने की वस्तुओं को करीने से डाइनिंग टेबल पर सजाया.

वैदेही अपने कक्ष में जा साड़ी पहन कर जैसे ही बिंदी लगाने को आईने की ओर मुड़ी, सिर पर छोटेछोटे केश देख फिर हतोत्साहित हो गई. क्या फायदा अच्छी साड़ी, इत्र या सजने का जब शक्ल से ही वह… तभी दरवाजे पर बजी घंटी के कारण उसे कक्ष से बाहर आना पड़ा.

‘‘इन से मिलो, ये है मेरा लंगोटिया यार, सुमित, और ये हैं साक्षी भाभी,’’ कहते हुए नीरज ने वैदेही का परिचय मेहमानों से करवाया. हलकी मुसकान लिए वैदेही ने हाथ जोड़ दिए किंतु उस की अपेक्षा से परे साक्षी ने आगे बढ़ फौरन उसे गले से लगा लिया. ‘‘इन दोनों को अपना शादीशुदा गम हलका करने दो, हम बैठ कर इन की खूब चुगली करते हैं,’’ साक्षी हंस कर कहने लगी.

लग ही नहीं रहा था कि पहली बार मिल रहे हैं. इतनी घनिष्ठता से मिले दोनों मियांबीवी कि उन के घर में अचानक रौनक आ गई. धूमिल से वातावरण में मानो उल्लास की किरणें फूट पड़ीं. साक्षी पुरानी बिसरी सखी समान बातचीत में मगन हो गई थी. वैदेही भी आज खुद को अपने पुराने अवतार में पा कर खुश थी.

दोनों की गपबाजी चल रही थी कि नीरज लगभग भागते हुए उस के पास आए और बोले, ‘‘वैदेही, सुमित को पिछले वर्ष कैंसर हुआ था, अभी बताया इस ने.’’ इस अप्रत्याशित बात से वैदेही का मुंह खुला रह गया. बस, विस्फारित नेत्रों से कभी सुमित, तो कभी साक्षी को ताकने लगी.

‘‘अरे यार, वह बात तो कब की खत्म हो गई. अब मैं भलाचंगा हूं, तंदुरुस्त तेरे सामने खड़ा हूं.’’

‘‘हां भैया, अब ये बिलकुल ठीक हैं. और इस का परिणाम यहां है,’’ अपनी कोख की ओर इशारा करते हुए साक्षी के कपोल रक्ताभ हो उठे. नीरज और वैदेही ने अचरजभाव से एकदूसरे को देखा, फिर फौरन संभलते हुए अपने मित्रों को आने वाली खुशी हेतु बधाई दी.

‘‘दरअसल, कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो आज आम सी बनती जा रही है. बस, डर है तो यही कि उस का इलाज थोड़ा कठिन है. परंतु समय रहते ज्ञात हो जाने पर इलाज भी भली प्रकार संभव है. अब मुझे ही देख लो. स्थिति का आभास होते ही पूरा इलाज करवाया और फिर जब डाक्टर ने क्लीनचिट दे दी तो एक बार फिर जिंदगी को भरपूर जीना आरंभ कर डाला,’’ सुमित के स्वर से कोई नहीं भांप सकता था कि वे एक जानलेवा बीमारी से लड़ कर आए हैं.

‘‘हमारा मानना तो यह है कि यह जीवन एक बार मिलता है. यदि इस में थोड़ी हलचल हो भी जाए तो कोशिश कर इसे फिर पटरी पर ले आना चाहिए. शरीर है तो हारीबीमारी लगी ही रहेगी, उस में हताश हो कर तो नहीं बैठा जा सकता न? जो समय मिले, उसे भरपूर जियो.’’

साक्षी ने अपनी बात सुमित की बात से जोड़ी. ‘‘अरे यार, वह कौन सा डायलौग था ‘आनंद’ मूवी का जो अपने कालेज में बोला करते थे…हां, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं, हा हा…’’ और सचमुच वे सब हंसने लगे.

नीरज हंसे, वैदेही हंसी. सारा वातावरण, जो अब तक वैदेही को केवल घायल किए रहता था, अचानक बेहद खुशनुमा हो गया था. वैदेही के चक्षु खुल गए थे, वह देख पा रही थी कि उस ने अपनी और अपनों की जिंदगी के साथ क्या कर रखा था अब तक.

सुमित और साक्षी के लौटने के बाद वैदेही ने अलमारी के कोने से अपनी लाल नाइटी निकाली. उसे भी आगे बढ़ना था अब नए सपने सजाने थे. अपनी मलमल की चादर को आखिर कब तक तह कर अलमारी में छिपाए रखेगी जबकि पैबंद तो कब का छूट कर गिर चुका था.

लूट में तबदील चोरियां

चोरी व लूट की वारदातें अब इतनी ज्यादा बढ़ गई हैं कि घर, बाहर व सफर में बराबर इन का डर बना रहता है. ज्यादातर लोग चोरी व लूट का मतलब व इन में अंतर नहीं जानते. सो, जब एक आम आदमी चोरी व लूट की रिपोर्ट पुलिस में लिखवाने जाता है तो वह बारीकी नहीं समझ पाता. ऐसे में ज्यादातर मामलों में चोरी व लूट की तहरीरें भी गुमशुदगी में लिखी जाती हैं. नतीजतन, दोषी बच कर साफ निकल जाते हैं. इस से वारदातों को बढ़ावा मिलता है.

सूचनाओं का फैलाव बढ़ने के बावजूद जानकारी की कमी व लापरवाही बेहद अफसोसजनक है. 8 नवंबर, 2016 की बैठक में गहमर, उत्तर प्रदेश थाने के एसएचओ खुद अपने एसपी को चोरी व लूट का अंतर नहीं बता सके थे. ऐसे रखवाले आखिर किस तरह अपनी केस डायरी भरते होंगे और किस तरह वे अपराधियों को सजा दिलाते होंगे?

जानकार व जागरूक बनें

गलतफहमी के कुहासे से बचने के लिए चोरी व लूट को समझना व इन में अंतर जानना जरूरी है. कानून के लिहाज से चोरी व लूट में फर्क है. भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की दफा 378 के मुताबिक, जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के कब्जे से उस की चल संपत्ति या वस्तु को बिना उस की मरजी के बेईमानी से लेने के लिए हटाए, तो उसे चोरी कहते हैं.

चोरी और ऊपर से सीनाजोरी की कहावत बहुत पुरानी है. जुर्म की दुनिया में चोरी के दौरान जोरजबरदस्ती, मारपीट करने, डराने व हमला करने की वारदातें दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ रही हैं. यही वह बात है जो एक चोरी को लूट में बदल देती है. लूट का जिक्र भारतीय दंड संहिता की दफा 390 में किया गया है.

कानून के मुताबिक, जब चोरी करने, चोरी का माल ले कर भागने या खुद को गिरफ्तारी से बचाने के लिए हिंसा यानी धमकी, मारपीट, चोट या हत्या का डर दिखाया गया हो या ऐसा करने की कोशिश की गई हो तो वह चोरी, लूट कहलाती है और यदि लुटेरे 4 से ज्यादा हों तो वह केस दफा 392 के तहत डकैती कहलाता है.

जाहिर है कि हर तरह की लूट में चोरी या जबरन छीनझपट होती है. लेकिन हर चोरी लूट हो, यह जरूरी नहीं. लगातार चोरी व लूट बढ़ने की वजह से इन बारीकियों के बारे में आम जनता का अच्छी तरह वाकिफ होना अब लाजिमी हो गया है, ताकि जरूरत पर दोषी को उस के कृत्य की वाजिब सजा दिलाई जा सके.

कितनी सजा

चोरी के मामलों में पुलिस मुजरिम को तुरंत गिरफ्तार कर सकती है तथा जुर्म साबित होने पर दोषी को अदालत से 3 साल तक की सजा, जुर्माना या दोनों का हुक्म दे सकती है. यदि चोरी घर, तंबू या जलयान में हुई हो तो चोरी की सजा 3 साल से बढ़ा कर 7 साल तक हो सकती है. इसी तरह यदि कोई लिपिक या सेवक भरोसा तोड़ कर चोरी करता है तो उसे भी 7 साल तक की सजा दी जा सकती है.

चोरी के मुकाबले लूट का जुर्म ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि चोरी होने में तो सिर्फ माल चले जाने का ही नुकसान होता है, लेकिन लूट के मामलों में जान चली जाने की भी संभावना बन जाती है. सो, चोरी के मुकाबले लूट में ज्यादा सजा दी जाती है. लूट में अमूमन 10 साल की सजा है, लेकिन यदि लूट किसी हाईवे पर हो तो वह बढ़ा कर 14 साल की जा सकती है.

इस के अलावा, सभी को एक बात और ध्यान रखनी चाहिए कि लूट के मामले में लूट किए जाने का वक्त बहुत अहमियत रखता था. मसलन, यदि लूट सूरज छिपने के बाद या दिन निकलने से पहले की गई हो तो उस केस में आजीवन कारावास तक की सजा दी जा सकती है, ताकि लूट की जानलेवा वारदातों को कम से कम व आखिर में खत्म किया जा सके.

हालांकि, चोरी व लूट की घटनाएं रोकने के लिए घरों, दफ्तरों व दुकानों आदि में सीसीटीवी, सायरन व सेफ्टी अलार्म आदि उपकरण लगाए जाते हैं, लेकिन चोरों, लुटेरों ने कैप, नकाब, दस्ताने व हैल्मैट आदि पहनने जैसे तोड़ खोज लिए हैं. सो, सड़कों पर खुलेआम चेन, पर्स व मोबाइल लूट की घटनाएं देश के सभी इलाकों में बहुत तेजी से बढ़ रही हैं.

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चौंकाऊ आंकड़े

दिल्लीगुरुग्राम के बीच महिपालपुर में स्थापित एनसीआरबी यानी नैशनल क्राइम रिकौर्ड्स ब्यूरो का दफ्तर देशभर में हुए कुल अपराधों का ब्योरा रखता है. इस की एक रिपोर्ट में 2014 से 2016 तक के आंकड़े दर्ज हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, देश में कुल 4,94,404 चोरियां हुईं, जिन में 59 अरब 96 करोड़ 40 लाख रुपए की कीमत का माल गया था, जबकि इस दौरान हुई 31,906 लूट की घटनाओं में 5 अरब 7 लाख रुपए का माल गया था.

अकसर रसूखदार लोगों के साथ चोरी या लूट की वारदात होने पर पुलिस की धरपकड़ जल्दी व तेजी से होती है. सो, कारगर व फौरन कार्यवाही से कई बार चोरी व लूट में गए सामान की बरामदगी भी हो जाती है. लेकिन, बीते 3 वर्षों में चोरी हुए माल की बरामदगी में लगातार कमी आई है. राजकाज चलाने वालों को इस मुद्दे पर ध्यान देना चाहिए.

रिपोर्ट्स के मुताबिक, साल 2014 में चोरी गए 7,514 करोड़ रुपए के माल में से 1,575 करोड़ रुपए का सामान बरामद हुआ, जो 21 फीसदी था. साल 2015 में चोरी हुए 8,210 करोड़ रुपए के माल में से 1,350 करोड़ रुपए का माल बारामद हुआ, जो 16.4 फीसदी था. साल 2016 में चोरी गए कुल 9,733 करोड़ रुपए के माल में से 1,459 करोड़ रुपए का माल बरामद हुआ. यह सिर्फ 15 फीसदी था. जाहिर है, इस गिरते ग्राफ से नुकसान पीडि़तों का हुआ है.

गौरतलब है कि यह हाल तब है जब बहुत से केस तो दर्ज ही नहीं होते. दरअसल, ज्यादातर लोग थानेकचहरी के चक्कर में पड़ कर अपना वक्त व धन बरबाद नहीं करना चाहते. सो, चोरी व लूट की सभी वारदातें पुलिसथानों तक नहीं पहुंचतीं. इस के अलावा चोरी व लूट के जुर्म क्षमणीय हैं. यानी कि जिस का सामान चोरी व लूट में गया है, वह चाहे तो आपस में समझौता कर के केस को बंद कर सकता है. बहुत से मामले वर्षों लंबा ख्ंिचने के बाद गवाह और सुबूत जैसे कानूनी पचड़ों में फंस जाते हैं. सो, दोनों थकहार कर आपसी मरजी से समझौतों के जरिए से केस बंद कर लेते हैं.

कारण क्या है

दरअसल, चोरी व लूट जैसे अपराधों का खात्मा करने के लिए इस मसले की तह में जा कर उन कारणों को खोजना जरूरी है जिन से ये जुर्म पले, बढ़े व पनपे हैं.

चोरी पेट भरने की मजबूरी से शुरू हुई थी. ऊंचनीच, छुआछूत, जातपांत, अगड़ों व सेठ साहूकारों के जुल्म से गरीब, घुमंतू व बेगार करने वालों को जब हाड़तोड़ मेहनत के बाद भूख मिटाने को भरपेट रोटी नहीं मिलती थी, तो वे मजबूरी में अंडे, मुरगी या खानेपीने की चीजें चुरा लेते थे. इस पर अंगरेजों ने कई जनजातियों को जरायमपेशा करने वाली करार दे दिया था.

इसी तरह लूट का इतिहास भी सदियों पुराना है. सोमनाथ मंदिर में भरा अकूत सोना लूटने के लिए मोहम्मद गौरी ने

16 हमले किए व अंत में सब लूट ले गया. लेकिन भक्तजन न चेते. सो, दानपात्रों से अकसर चोरियां होती रहती हैं. अपराधी किस्म के लोग सुनसान इलाकों में जा रहे कारोबारी मुसाफिरों के काफिलों को हथियारों के बल पर लूट लिया करते थे.

चोरी व लूट का यह काम अब बड़ेबड़े शहरों की पौश कालोनियों में बहुत होने लगा है. इस के सब से ज्यादा शिकार अमीर व उम्रदराज लोग होते हैं. चोरी व लूट की असल वजह गंदी सोच, मुफ्तखोरी व खराब जेहनियत है. कई नेता अपने मददगार चोरलुटेरों को अपना आदमी बना कर थाने से छुड़वा कर जुर्मजरायम को खादपानी देने में लगे रहते हैं.

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बचाव के तरीके

चोरी व लूट से बचने के लिए चौकसी व सही उपाय करने जरूरी हैं. हिफाजत के लिए पहले से ही सही व पुख्ता इंतजाम कर के जानमाल के नुकसान से बचा जा सकता है. मसलन, गेट के पास लोहे की छड़ छिपा कर रखें. बाहर लोहे की मजबूत जाली का दरवाजा, खिड़कियों पर स्टील की जाली, अंदरूनी दरवाजा रोकने को सैफ्टी चेन, दरवाजे पर आईहोल, सीसीटीवी कैमरे व अलार्म लगवाना मुफीद रहता है.

किसी अनजान को घर में न आने दें. पड़ोसियों से हमेशा अच्छे संबंध बना कर रखें. जब बाहर जाएं तो अखबार वाले से मना कर दें कि वह अखबार न डाले. जाने का जिक्र किसी बाहरी के सामने न करें. मजबूत ताले लगाएं. घर में ज्यादा जेवर व नकदी न रखें. दिखावे से बचें. नौकरों को हमराज न बनाएं. जहां तक हो सके, रात को सफर न करें. कूरियर आदि लेने के लिए ऐसा इंतजाम करें कि पूरा दरवाजा न खोलना पड़े.

चोरी तेरे रूप अनेक

आमतौर पर चोरियां पहले नकदी, जेवर, कपड़े, वाहन, पशुओं आदि की होती थीं, लेकिन अब इलैक्ट्रौनिक सामान, पेड़, तालाबों से मछलियां, बच्चे, बिजली व तेल आदि की भी होती हैं. इन के अलावा, जिस्मों से गुरदे चोरी किए जाते हैं. तारों में कटिया डाल कर या मीटर में गड़बड़ी कर के बिजली या बिजली के तार भी चोरी किए जाते हैं.

हथियार, गटर के ढक्कन व रेलपटरी के पैंड्रोल क्लिप की चोरी से जानलेवा हादसे होते हैं. पटियाला में खाली पड़े मकान से सुरंग बना कर एक बैंक के 80 लौकरों से करोड़ों की चोरी की गईर् थी. बैंकों से ड्राफ्ट की किताबें, इम्तिहानों के परचे, हाईवे के ढाबों पर ट्रकटैंकरों से एथेनौल व रेलवे के टैंकरों से मिट्टी का तेल भी चोरी होता पकड़ा गया है.

एलपीजी गैस के सिलैंडरों से धड़ल्ले से गैस चोरी की जाती है. मेरठ मंडल में बागपत के पास से गुजर रही एक नामी तेल कंपनी की पाइपलाइन से 2 बार डीजल चोरी होते हुए पकड़ा जा चुका है. पुरानी मूर्तियां, औनलाइन सामान मंगाने पर पैकेटों में से सामान चुरा लिया जाता है. साहित्यक चोर लेख, कहानी व कविताओं आदि के पूरे वाक्य व पैराग्राफ चुरा लेते हैं. कुल मिला कर चोरियां जारी हैं. बस, आप हम सभी होशियार रहें.

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मर्यादा की हद से आगे: भाग 1

सुबह टहलने वाले कुछ लोगों ने पनकी इंडस्ट्रियल एरिया स्थित नगर निगम के पार्क में एक युवक की लाश पड़ी देखी.

पार्क में लाश पड़ी होने की खबर फैली तो वहां भीड़ जुट गई. इस भीड़ में चेयरमैन (फैक्ट्री) विजय कपूर भी मौजूद थे. उन्होंने लाश की सूचना थाना पनकी पुलिस को दी. सूचना मिलते ही थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. उन्होंने यह सूचना वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भी दे दी.

थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह ने घटनास्थल का निरीक्षण शुरू किया. युवक की लाश हरेभरे पार्क के पश्चिमी छोर की आखिरी बेंच के पास पड़ी थी. उस की हत्या किसी नुकीली चीज से सिर कूंच कर की गई थी. लकड़ी की बेंच के नीचे शराब की खाली बोतल, प्लास्टिक के 2 खाली गिलास और कोल्डड्रिंक की एक खाली बोतल पड़ी थी.

अजय प्रताप सिंह ने अनुमान लगाया कि पहले खूनी और मृतक दोनों ने शराब पी होगी. फिर किसी बात को ले कर उन में झगड़ा हुआ होगा और एक ने दूसरे की हत्या कर दी.

मृतक की उम्र 35 वर्ष के आसपास थी. उस का शरीर स्वस्थ और रंग सांवला था. वह हरे रंग की धारीदार कमीज व ग्रे कलर की पैंट पहने था. पैरों में हवाई चप्पलें थीं, जो शव के पास ही पड़ी थीं. इस के अलावा मृतक के बाएं हाथ की कलाई पर मां काली गुदा हुआ था, साथ ही दुर्गा का चित्र भी बना था. इस से स्पष्ट था कि मरने वाला युवक हिंदू था. जामातलाशी में उस की जेबों से ऐसा कोई सबूत नहीं मिला, जिस से उस की पहचान हो पाती.

अजय प्रताप सिंह घटनास्थल का निरीक्षण कर ही रहे थे कि सूचना पा कर एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन तथा सीओ (कल्याणपुर) अजीत कुमार सिंह घटनास्थल पर आ गए. अधिकारियों ने भी घटनास्थल का बारीकी से निरीक्षण किया.

उन्होंने थानाप्रभारी अजय प्रताप से घटना के संबंध में जानकारी ली. घटनास्थल पर सैकड़ों लोगों की भीड़ जुटी थी. लोगों में शव देखने, शिनाख्त करने की जिज्ञासा थी. लेकिन अब तक कोई भी शव की शिनाख्त नहीं कर पाया था.

कई घंटे बीतने के बाद भी युवक के शव की पहचान नहीं हो सकी. आखिर पुलिस अधिकारियों के आदेश पर थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह ने फोटोग्राफर बुलवा कर शव के विभिन्न कोणों से फोटो खिंचवाए.

फिर शव को पोस्टमार्टम के लिए लाला लाजपतराय अस्पताल भिजवा दिया. थाना पनकी लौट कर अजय प्रताप ने वायरलैस से अज्ञात शव पाए जाने की सूचना प्रसारित करा दी. यह 29 जून, 2019 की बात है.

अज्ञात शव की शिनाख्त के लिए पुलिस ने क्षेत्र के शराब ठेकों, फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूरों तथा नहर किनारे बसी बस्तियों में लोगों को मृतक की फोटो दिखा कर पहचान कराने की कोशिश की, लेकिन कोई भी उस की पहचान नहीं कर सका. पुलिस हर रोज शव की शिनाख्त के लिए लोगों से पूछताछ कर रही थी, कोई नतीजा निकलता न देख अजय प्रताप सिंह की चिंता बढ़ती जा रही थी.

5 जुलाई, 2019 की सुबह 10 बजे थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह अपने कक्ष में आ कर बैठे ही थे कि एक अधेड़ व्यक्ति ने उन के औफिस में प्रवेश किया. वह कुछ परेशान दिख रहा था. अजय प्रताप सिंह ने उस अधेड़ व्यक्ति को सामने पड़ी कुरसी पर बैठने का इशारा कर के पूछा, ‘‘आप कुछ परेशान दिख रहे हैं, जो भी परेशानी हो साफसाफ बताओ.’’

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‘‘सर, मेरा नाम जगत पाल है. मैं कानपुर देहात जिले के गांव दौलतपुर का रहने वाला हूं. मेरा छोटा भाई पवन पाल पनकी गल्ला मंडी में पल्लेदारी करता है. वह पनकी गंगागंज कालोनी में रहता है. पवन हफ्ते में एक बार घर जरूर आता था.

‘‘लेकिन इस बार 2 सप्ताह बीत गए, वह घर नहीं आया. उस का मोबाइल भी बंद है. आज मैं उस के क्वार्टर पर गया तो वहां ताला बंद मिला. पूछने पर पता चला कि वह सप्ताह भर से क्वार्टर में आया ही नहीं है. मुझे डर है कि कहीं… पवन को खोजने में आप मेरी मदद करने की कृपा करें.’’

जगत पाल की बात सुन कर थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह ने पूछा, ‘‘तुम्हारे भाई की उम्र कितनी है, वह शादीशुदा है या नहीं?’’

‘‘साहब, उस की उम्र 35-36 साल है. अभी उस की शादी नहीं हुई.’’ जगत ने बताया.

29 जून को पनकी इंडस्ट्रियल एरिया स्थित नगर निगम के पार्क में लाश मिली थी. उस युवक की उम्र तुम्हारे भाई से मिलतीजुलती है. पहचान न हो पाने के कारण हम ने पोस्टमार्टम करा दिया था. लाश के कुछ फोटोग्राफ हमारे पास हैं. तुम उन्हें देख लो.’’ अजय प्रताप ने फाइल से फोटो निकाल कर जगत पाल के सामने रख दिए.

जगत पाल ने एकएक फोटो को गौर से देखा, फिर रोते हुए बोला, ‘‘साहब, ये सभी फोटो मेरे छोटे भाई पवन पाल के ही हैं.’’

थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह ने जगत पाल को धैर्य बंधाया, फिर पूछा, ‘‘जगत पाल, तुम्हारे भाई की किसी से रंजिश या फिर लेनदेन का कोई झगड़ा तो नहीं था?’’

‘‘सर, मेरा भाई सीधासादा और कमाऊ था. उस की न तो किसी से रंजिश थी और न ही किसी से लेनदेन का विवाद था.’’

‘‘कहीं पवन की हत्या दोस्तीयारी में तो नहीं की गई. उस का कोई दोस्त था या नहीं?’’

जगत पाल कुछ देर सोचता रहा फिर बोला, ‘‘सर, पवन का एक दोस्त रमाशंकर निषाद है. वह भी पवन के साथ ही पल्लेदारी करता था. पवन उसे अपने साथ गांव भी लाया था. वह उसे कल्लू कह कर बुलाता था. बातचीत में पवन ने बताया था कि कल्लू नहर किनारे की कच्ची बस्ती में रहता है. पवन की तरह वह भी खानेपीने का शौकीन है.’’

मृतक पवन पाल के दोस्त कल्लू के संबंध में क्लू मिला तो अजय प्रताप सिंह ने रमाशंकर उर्फ कल्लू की तलाश शुरू कर दी. उन्होंने कच्ची बस्ती जा कर कल्लू पल्लेदार के बारे में जानकारी जुटाई तो पता चला कि वह नहर किनारे अपनी मां और बहन के साथ रहता है. अजय प्रताप सिंह उस के घर पहुंचे तो पता चला कि कल्लू एक हफ्ते से घर में ताला लगा कर कहीं चला गया है.

दोस्त की हत्या के बाद रमाशंकर उर्फ कल्लू का घर में ताला लगा कर गायब हो जाना, संदेह पैदा कर रहा था. अजय प्रताप सिंह समझ गए कि पवन की हत्या का राज उस के दोस्त कल्लू के पेट में ही छिपा है.

कल्लू शक के घेरे में आया तो उन्होंने उस की तलाश में कई संभावित स्थानों पर छापे मारे, लेकिन वह उन की पकड़ में नहीं आया. हताश हो कर उन्होंने उस की टोह में अपने खास मुखबिर लगा दिए.

10 जुलाई को शाम 4 बजे एक मुखबिर ने थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह को बताया कि मृतक पवन पाल का दोस्त कल्लू पल्लेदार इस समय पनकी इंडस्ट्रियल एरिया के नहर पुल पर मौजूद है.

मुखबिर की सूचना महत्त्वपूर्ण थी. थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह ने एसआई दयाशंकर त्रिपाठी, उमेश कुमार, हैडकांस्टेबल रामकुमार और सिपाही गंगाराम को साथ लिया और जीप से नहर पुल पर जा पहुंचे.

जीप रुकते ही एक व्यक्ति तेजी से रेलवे लाइन की तरफ भागा. लेकिन पुलिस टीम ने उसे कुछ ही दूरी पर दबोच लिया. पकड़े गए व्यक्ति ने अपना नाम रमाशंकर उर्फ कल्लू निषाद बताया. पुलिस उसे थाना पनकी ले आई.

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थाने पर जब रमाशंकर उर्फ कल्लू निषाद से पवन पाल की हत्या के बारे में पूछा गया तो उस ने कहा, ‘‘पवन पाल मेरा जिगरी दोस्त था. दोनों साथ काम करते थे और खातेपीते थे. भला मैं अपने दोस्त की हत्या क्यों करूंगा? मुझे झूठा फंसाया जा रहा है.’’

लेकिन पुलिस ने उस की बात पर यकीन नहीं किया और उस से सख्ती से पूछताछ की. कल्लू पुलिस की सख्ती ज्यादा देर बरदाश्त नहीं कर सका. उस ने अपने दोस्त पवन पाल की हत्या का जुर्म कबूल कर लिया.

यही नहीं, कल्लू ने हत्या में इस्तेमाल लोहे का वह हुक (बोरा उठाने वाला) भी बरामद करा दिया, जिसे उस ने घर के अंदर छिपा दिया था. मृतक के मोबाइल को कल्लू ने कूंच कर नहर में फेंक दिया था, जिसे पुलिस बरामद नहीं कर सकी.

थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह ने ब्लाइंड मर्डर का रहस्य उजागर करने तथा कातिल को पकड़ने की जानकारी पुलिस अधिकारियों को दी तो कुछ ही देर में एसपी (पश्चिम) संजीव सुमन तथा सीओ (कल्याणपुर) अजीत कुमार सिंह थाना पनकी आ गए.

पुलिस अधिकारियों ने भी रमाशंकर उर्फ कल्लू निषाद से पूछताछ की. उस ने बताया कि पवन ने उस की इज्जत पर हाथ डाला था. उस ने उसे बहुत समझाया, हाथ तक जोड़े लेकिन जब वह नहीं माना तो उसे मौत की नींद सुला दिया.

रमाशंकर उर्फ कल्लू ने हत्या का जुर्म कबूल कर लिया था. थानाप्रभारी अजय प्रताप सिंह ने मृतक पवन के बड़े भाई जगत पाल को वादी बना कर भादंवि की धारा 302 के तहत रमाशंकर उर्फ कल्लू निषाद के विरुद्ध मुकदमा दर्ज कर लिया. उसे विधिसम्मत गिरफ्तार कर लिया गया. पुलिस जांच तथा अभियुक्त के बयानों के आधार पर दोस्त द्वारा दोस्त की हत्या करने की सनसनीखेज घटना इस तरह सामने आई.

फैजाबाद शहर के थाना कैंट के अंतर्गत एक मोहल्ला है रतिया निहावा. रामप्रसाद निषाद इसी मोहल्ले में अपने परिवार के साथ रहता था. उस के परिवार में पत्नी लक्ष्मी के अलावा 2 बेटे दयाशंकर, रमाशंकर उर्फ कल्लू तथा 2 बेटियां रजनी व मानसी थीं. रामप्रसाद निषाद सरयू नदी में नाव चला कर अपने परिवार का भरणपोषण करता था.

रामप्रसाद का बड़ा बेटा दयाशंकर पढ़ालिखा था. वह बिजली विभाग में नौकरी करता था. उस की शादी जगदीशपुर निवासी झुनकू की बेटी वंदना से हुई थी. वंदना तेजतर्रार युवती थी.

ससुराल में वह कुछ साल तक सासससुर के साथ ठीक से रही, उस के बाद वह कलह करने लगी. कलह की सब से बड़ी वजह थी वंदना का देवर रमाशंकर उर्फ कल्लू.

कल्लू का मन न पढ़नेलिखने में लगता था और न ही किसी काम में. वह मोहल्ले के कुछ आवारा लड़कों के साथ घूमने लगा, जिस की वजह से वह नशे का आदी हो गया. शराब पी कर लोगों से गालीगलौज और मारपीट करना उस की दिनचर्या बन गई. आए दिन घर में कल्लू की शिकायतें आने लगीं.

वंदना भी कल्लू की हरकतों से परेशान थी. उसे यह कतई बरदाश्त नहीं था कि उस का पति कमा कर लाए और देवर मुफ्त की रोटी खाए. कलह का दूसरा कारण था, संयुक्त परिवार में रहना.

वंदना को दिन भर काम में व्यस्त रहना पड़ता था. इस सब से वह ऊब गई थी और संयुक्त परिवार में नहीं रहना चाहती थी. वह कलह तो करती ही थी साथ ही पति दयाशंकर पर अलग रहने का दबाव  भी बनाती थी.

रामप्रसाद भी छोटे बेटे कल्लू की नशाखोरी से परेशान था. वह उसे समझाने की कोशिश करता तो वह बाप से ही भिड़ जाता था. घर की कलह और बेटे की नशाखोरी की वजह से रामप्रसाद बीमार पड़ गया. बड़े बेटे दयाशंकर ने रामप्रसाद का इलाज कराया. लेकिन वह उसे नहीं सका.

पिता की मौत पर कल्लू ने खूब ड्रामा किया. शराब पी कर उस ने भैयाभाभी को खूब खरीखोटी सुनाई. साथ ही ठीक से इलाज न कराने का इलजाम भी लगाया.

पिता की मौत के बाद मां व बहन का बोझ दयाशंकर के कंधों पर आ गया. उस की आमदनी सीमित थी और खर्चे बढ़ते जा रहे थे. ससुर की मौत के बाद वंदना ने भी कलह तेज कर दी थी. वह पति का तो खयाल रखती थी, लेकिन अन्य लोगों के खानेपीने में भेदभाव बरतती थी. सास लक्ष्मी कुछ कहती तो वंदना गुस्से से भर उठती, ‘‘मांजी, गनीमत है जो तुम्हारा बेटा तुम्हें रोटी दे रहा है. वरना तुम सब को मंदिर के बाहर भीख मांग कर पेट भरना पड़ता.’’

बहू की जलीकटी बातें सुन कर लक्ष्मी खून का घूंट पी कर रह जाती, क्योंकि वह मजबूर थी. छोटी बेटी मानसी भी जवानी की दहलीज पर खड़ी थी. उसे ले कर वह कहां जाती.

लक्ष्मी ने छोटे बेटे रमाशंकर उर्फ कल्लू को समझाया कि अब तो सुधर जाए. कुछ काम करे और चार पैसे कमा कर लाए. किसी दिन वंदना ने खानापानी बंद कर दिया तो हम सब भूखे मरेंगे. लेकिन कल्लू पर मां की बात का कोई असर नहीं हुआ. वह अपनी ही मस्ती में मस्त रहा.

उन्हीं दिनों एक रोज रमाशंकर देर शाम शराब पी कर घर आया. आते ही उस ने खाना मांगा. इस पर वंदना गुस्से से बोली, ‘‘कमा कर रख गए थे, जो खाना लगाने का हुक्म दे रहे हो. आज तुम्हें खाना नहीं मिलेगा. एक बात कान खोल कर सुन लो. इस घर में अब तुम्हें खाना तभी मिलेगा, जब कमा कर लाओगे.’’

भाभी की बात सुन कर कल्लू को भी गुस्सा आ गया. वह घर में तोड़फोड़ करने लगा. दयाशंकर ने कल्लू को समझाने का प्रयास किया तो वह उस से भी भिड़ गया. इस पर दयाशंकर को गुस्सा आ गया. उस ने कल्लू को मारपीट कर घर से बाहर कर दिया.

भाई की पिटाई से कल्लू का नशा हिरन हो गया था. रात भर वह घर के बाहर पड़ा रहा. उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अब वह भैयाभाभी का रोटी का एक टुकड़ा भी मुंह में नहीं डालेगा. कमा कर ही खाएगा.

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वंदना की तीखी जुबान लक्ष्मी के सीने को छलनी कर देती थी. कल्लू के प्रति उस का दुर्व्यवहार भी दिल में दर्द पैदा करता था, लेकिन वह लाचार थी. अत: उस ने कल्लू को समझाया, ‘‘बेटा, तू जवान है. हट्टाकट्टा है. कहीं भी चला जा और अपमान की रोटी खाने के बजाए इज्जत की रोटी कमा कर खा.’’

मां की बात कल्लू के दिल में उतर गई. उस के बाद उस ने फैजाबाद छोड़ दिया और नौकरी की तलाश में कानपुर आ गया. कुछ दिनों के प्रयास के बाद रमाशंकर उर्फ कल्लू को पनकी गल्ला मंडी में पल्लेदारी का काम मिल गया. शुरू में तो कल्लू को पीठ पर बोझ लादने में परेशानी हुई, लेकिन बाद में अभ्यस्त हो गया.

गल्ला मंडी में गेहूं चावल के 3 बड़े गोदाम हैं. इन्हीं गोदामों में गेहूं चावल का भंडारण होता है. ट्रक आते ही पल्लेदार बोरा उतरवाई की मजदूरी तय कर के माल गोदाम में उतार देते हैं. रमाशंकर उर्फ कल्लू भी ट्रक से माल लोड अनलोड का काम करने लगा.

कुछ महीने बाद कल्लू की मेहनत रंग लाने लगी. अब वह मांबहन को भी पैसा भेजने लगा और खुद भी ठीक से रहने लगा. यही नहीं, जब वह घर जाता तो मांबहन के साथसाथ भैयाभाभी के लिए भी कपड़े वगैरह ले जाता.

कल्लू के काम पर लग जाने से जहां मांबहन खुश थीं, वहीं वंदना और दयाशंकर ने भी राहत की सांस ली थी. वंदना अब मन ही मन सोचने लगी थी कि जिसे वह खोटा सिक्का समझ बैठी थी, वह सोने का सिक्का निकला.

कल्लू पनकी नहर किनारे बसी कच्ची बस्ती में किराए पर रहता था. कुछ दिनों बाद मकान मालिक ने अपना कमरा 5 हजार रुपए में बेचने की पेशकश की तो जोड़जुगाड़कर के कल्लू ने कमरा खरीद लिया. इस कमरे के आगे कुछ जमीन खाली पड़ी थी.

कल्लू ने वह भी अपने कब्जे में ले ली. बाद में कल्लू ने इस खाली पड़ी जमीन पर मिट्टी का एक कमरा और बना लिया, उस कमरे की छत उस ने खपरैल की बना ली. मतलब अब उस का अपना स्थाई निवास बन गया था.

रमाशंकर उर्फ कल्लू पनकी गल्लामंडी स्थित जिस गोदाम में पल्लेदारी करता था, उसी गोदाम में पवन पाल भी पल्लेदारी करता था. पवन मूलरूप से कानपुर देहात के थाना नर्वल के अंतर्गत आने वाले गांव दौलतपुर का रहने वाला था.

पवन पाल के पिता देवी चरनपाल तहसील कर्मचारी थे, जबकि बड़ा भाई दयाशंकर खेती करता था. पवन पाल शहरी चकाचौंध से प्रभावित था. वह पल्लेदारी का काम करते हुए पनकी गंगागंज में किराए के कमरे में रहता था.

पवन व कल्लू दोनों हमउम्र थे. पल्लेदारी का काम भी साथसाथ करते थे. दोनों में जल्दी ही गहरी दोस्ती हो गई. कल्लू भी खानेपीने का शौकीन था और पवन पाल भी. शाम को दिहाड़ी मिलने के बाद दोनों शराब के ठेके पर पहुंचे जाते.

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खानेपीने का खर्चा 2 बराबर हिस्सों में बंटता था. रविवार को गोदाम बंद रहता था. उस दिन पवन पाल अपने गांव चला जाता था. कभीकभी वह कल्लू को भी अपने साथ गांव ले जाता था. वहां भी दोनों की पार्टी होती थी.

अगली कड़ी में पढ़ें:  आखिर कल्लू और पवन की दोस्ती में क्यों दरार आई?

—कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित, कथा में मानसी परिवर्तित नाम है.

सौजन्य: मनोहर कहानी

खेत खलिहानों में चूहों की ऐसे करें रोकथाम

घर आंगन के अलावा चूहे खेतखलिहानों में सब से ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. इस के अलावा भारी मात्रा में मल त्याग करने व काटने, कुतरने की आदत के चलते बहुत सी बीमारियों के वाहक भी बनते हैं.

एक अनुमान के मुताबिक, देश में पैदा होने वाले कुल खाद्यान्न का तकरीबन 10 फीसदी सिर्फ चूहे ही हजम कर जाते?हैं. इन की आबादी भी काफी तेजी से बढ़ती है. चूहे मात्र 5 हफ्ते में ही मैथुन के योग्य हो जाते हैं. एक मादा चूहा सालभर में 6-10 बार बच्चा देती है व एक बार में 6-12 बच्चे दे सकती है.

एक जोड़ी चूहे को अगर नियंत्रित न किया जा सके तो सालभर में ये 1,000-1,200 तक तादाद बढ़ा सकते हैं.

चूहे प्रमुखत:  4 प्रकार के पाए जाते हैं. पहला, घरेलू चूहा, जो सिर्फ घरों में ही पाया जाता है. दूसरा, खेत में चूहे, जो खेत और खलिहान दोनों में पाए जाते?हैं. तीसरा, खेत और घर दोनों जगह के चूहे और चौथा, जंगली चूहे, जो जंगलों व रेगिस्तानों में रह कर घासफूल, फलफूल वगैरह खा कर अपना पेट भरते हैं.

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चूहे भले ही अलगअलग प्रकार के हैं, मगर इन सब का नियंत्रण इन तरीकों से होता है:

गैर रसायनिक तरीका

प्राकृतिक शत्रुओं द्वारा : गैररसायनिक तरीके में चूहों के प्राकृतिक शत्रुओं जैसे बिल्ली, सियार, कुत्ता, उल्लू, चमगादड़, लोमड़ी, चील जैसे जीवों को रख कर नियंत्रित कर सकते हैं. ये सभी जीव चूहों को खा जाते हैं.

चूहेदानी द्वारा : चूहेदानी में चूहों की पसंद की चीजें जैसे रोटी, डबलरोटी, बिसकुट, अमरूद वगैरह रख कर फंसा लिया जाता है. बाद में उन्हें बाहर छोड़ दिया जाता है या मार दिया जाता है.

चूहा अवरोधी भंडारण द्वारा : भंडारण पक्के कंक्रीट के फर्श पर या धातुओं जैसे जस्ता, लोहा, तांबा, वगैरह से बने पात्र में करना चाहिए.

साफसफाई द्वारा : चूहों का स्थायी घर झाडि़यों, कूंड़ों, मेंड़ों वगैरह में होता?है, जिस की बेहतर ढंग से साफसफाई कर के चूहों की आबादी घटाई जा सकती है.

रासायनिक तरीका

5 दिवसीय योजना बना कर : चूहे बड़े चालाक होते हैं. मुमकिन है कि अचानक से कोई दवा रखने पर उसे न खाएं और चूहों का खात्मा रासायनिक दवा देने पर भी न हो सके, इसलिए एक 5 दिवसीय योजना बनानी चाहिए.

पहले दिन बिलों का निरीक्षण कर उन्हें मिट्टी से बंद कर देना चाहिए. दूसरे दिन खुले हुए बिल के पास सादा चारा रखना चाहिए. तीसरे दिन दोबारा बिलों के पास सादा चारा रखना चाहिए और चौथे दिन जहरीला चारा बना कर रखना चाहिए. इस के लिए 48 भाग चारा जैसे गुड़, चना, चावल, डबलरोटी वगैरह में

1 भाग जिंक फास्फाइड नामक दवा और एक?भाग सरसों का तेल मिला कर देना चाहिए. 5वें दिन बिलों में धूम्रण के लिए 1-2 टैबलेट सल्फास एल्यूमिनियम फास्फाइड 15 फीसदी की गोली रख कर बिल को बंद कर दें.

बांझ करने वाले रसायनों द्वारा : चूहों के नियंत्रण का एक बेहतर उपाय यह भी है कि उन की आबादी बढ़ने ही न पाए, इस के लिए बाजार में अनेक तरह के रसायन आते हैं. चूहे इन्हें खा कर नपुंसक बन जाते?हैं.

प्रमुख रसायनों में फुराडेंटीन नाम की दवा की एक गोली (0.2 ग्राम प्रति चूहा) व कोल्चीसीन की एक टैबलेट का 5वां हिस्सा खाने की चीजों में मिला कर चूहों को खिलाने से नपुंसक हो जाते हैं.

धूम्रण के द्वारा : साइमेग या साइनो गैस पाउडर, एल्यूमिनियम फास्फाइड वगैरह दवाओं की 3-4 ग्राम मात्रा हर एक बिल में डाल कर बिल बंद कर देने से चूहे मर जाते हैं.

जिंक फास्फाइड द्वारा : चूहों को खत्म करने के लिए यह सब से असरकारक रसायन है. इस के लिए जहरीला आहार बनाना पड़ता?है.

आहार बनाने के लिए 48 भाग चारा जैसे गुड़, चना, चावल, डबलरोटी वगैरह में एक भाग जिंक फास्फाइड नाम की दवा व एक भाग सरसों का तेल लकड़ी के टुकड़े की मदद से मिला कर 10-15 ग्राम हरेक बिल में रखने से चूहे इन को खा कर मर जाते हैं.

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वारफेरिन द्वारा : यह रसायन स्टारफेरिन या रेटाफेरिन नाम से आता है. इस की 25 ग्राम मात्रा और 450 ग्राम टूटा हुआ अनाज व

15 ग्राम चीनी और 10 ग्राम खाने वाला तेल इन सब को अच्छी तरह लकड़ी से मिला कर मिट्टी के बरतन में चूहों के बिल के पास रखने से चूहे खा कर बाद में मर जाते हैं.

घरेलू उपाय : गुड़ की चाशनी बना लीजिए. कौटन यानी रुई के छोटेछोटे टुकड़ों को चाशनी में इस तरह डुबोएं कि पूरी तरह से रुई में गुड़ सोख जाए. हवा के सहारे चाशनी में डूबी हुई रुई को सुखा लीजिए. सूखने के बाद जहांजहां चूहों से प्रभावित जगह हों, वहांवहां इन?टुकड़ों को रख दीजिए. चूहे इसे खाएंगे, गुड़ तो पच जाएगा, मगर रुई नहीं पचा पाएगा. इस से चूहों को बारबार प्यास लगेगी और पानी न मिलने पर चूहे दम तोड़ देंगे.

हालांकि इस का असर बहुत धीरेधीरे होता?है, मगर लंबे समय तक सब्र रख कर इस को किया जाए तो फायदा जरूर मिलता है.

अजब गजब: आखिर इस शख्स ने क्यों एक मिनट में खा डाली 50 लाल मिर्च

आज आपको एक ऐसे शख्स के बारे में बताने जा रहे है, जो एक मिनट में 50 लाल मिर्च खा डाली. जी हां, आप सुनकर चौंक गए होंगे न… तो आइए जानते है इस शख्स के बारे में.

एक रिर्पोट के अनुसार चीन में हुनान प्रांत से एक बड़ी अजीब प्रतियोगिता की खबर सामने आई है. कई  लोग ऐसे  होंगे जिनके खाने में अगर एक भी मिर्च का टुकड़ा आ जाये तो उनका  बुरा हाल हो  जाता  है, वहीं कुछ लोगों का खाना बिना मिर्च के पूरा नहीं होता. इस प्रतियोगिता में भाग लेने वालों की पसंद कुछ ऐसी ही है तभी तो उन्होंने लाल मिर्चों से भरी बाल्टी में बैठ कर ज्यादा से ज्यादा मिर्चें खाने का प्रयास किया. ये प्रतियोगिता हर साल हुनान में आयोजित की जाती है. इस बार इस  प्रतियोगिता के विजेता ने 1 मिनट में 50 लाल मिर्च खा डालीं और विजेता बन गया. इस व्यक्ति का नाम तांग शुआईहुई बताया जा रहा है. इसे विजेता बनने पर 3 ग्राम का 24 कैरेट सोने का सिक्का मिला.

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हुनान प्रांत के निंगशियांग शहर के एक पार्क में आयोजित हुई इस प्रतियोगिता के दौरान इस इलाके का तापमान 40 डिग्री के लगभग था और  वातावरण बेहद उमस से  भरा हुआ था. ऐसे में इस प्रतियोगिता के प्रतिभागियों ने मिर्चों से भरी बाल्टी में  बैठ कर मिर्च खाई.  चीन का ये क्षेत्र अपने मसालेदार भोजन के लिए मशहूर है. हुनान में बनने वाले व्यंजनों में मिर्च का इस्तेमाल खुले हाथों से किया जाता है और यहां के ड्राई पौट चिकन और डांग,एन चिकन  जैसे कई व्यंजन बेहद स्पाईसी होते हैं.

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ड्रेसिंग टेबल खरीदने से पहले रखें इन बातों का ध्यान

जब आप अपने घर के लिए ड्रेसिंग टेबल लेना चाहते हैं तो इसके पहले आपको सोचने की काफी आवश्‍यकता है, क्योंकि फर्नीचर की सामग्री, लंबाई-चौड़ाई और स्‍टोरेज स्‍पेस कैसा होगा, इस बात पर ध्‍यान देना होगा.

आइए हम बताते हैं ड्रेसिंग टेबल लेते समय क्या-क्या सावधानियां बरतने की जरुरत है.

ड्रेसिंग टेबल सामग्री- आज कल बाजार में शीशे और स्‍टोंस से बने ड्रेसिंग टेबल काफी प्रचलन में हैं पर वहीं पर लकड़ी और मेटल के बने हुए ड्रेसिंग टेबल ज्‍यादा टिकाऊ और कम बजट के होते हैं. वहीं पर मारबल और ग्‍लास के बने ड्रेसिंग टेबल काफी भारी और महंगे होते हैं. साथ ही इनको हिला पाना भी काफी मुश्‍किल होता है.

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कुर्सी के साथ ड्रेसिंग टेबल– आज कल मार्केट में बिना कुर्सी के भी ड्रेसिंग टेबल उपलब्‍ध है पर अच्‍छा होगा कि आप हमेशा कुर्सी के साथ ही ड्रेसिंग टेबल लें. यह कुर्सी कई प्रकार की हो सकती है, जैसे केवल एक स्‍टूल या फिर कुषन के साथ भी अगर आपको एक भव्‍य लुक चाहिए तो आप एक बड़े से ड्रेसिंग टेबल के साथ एक भारी भरकम कुर्सी खरीद सकती हैं.

रखने की जगह– ड्रेसिंग टेबल की सबसे बढिया जगह है खिड़की के पास जिससे कि प्राकृतिक रौशनी में आप खुद को ढ़ग से देख सकें. वहीं पर अगर आप इसके पास बफैट लैंप या टेबल लैंप रखेगीं तो रौशनी का मजा और भी दोगुना हो जाएगा.

ड्रेसिंग टेबल और लाइट का प्रयोग– तैयार होने के लिए एक लाइट का होना बहुत जरुरी है. एक छोटी सी लाइट जो कि मिरर के कोने में लगी हो सकती है, आपको पूरी रौशनी देगी.

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कई सारी पत्र पत्रिकाओं में aids आते हैं कि घर बैठे 15 से 20 हजार रुपए कमाएं. क्या ये सच है?

सवाल

आजकल बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में इश्तिहार छपते हैं कि एसएमएस कर के घर बैठे 15 से 20 हजार रुपए कमाएं. इस के लिए हजार या 15 सौ रुपए तक देने होते हैं. सच क्या है?

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जवाब

ऐसे कई इश्तिहार झूठे होते हैं. अगर पहले पैसे मांगें, तो इन के चक्कर में कभी नहीं पड़ना चाहिए. चमत्कारों से कमाई नहीं होती, यह सिद्धांत हरेक को मालूम होना चाहिए. पैसा मेहनत का हो तो ही फलता है. हराम की या चोरी की कमाई कुछ लोग ही पचा सकते हैं, शरीफ तो बिलकुल नहीं. इसलिए शरीफों को इन चक्करों में पड़ने पर भारी नुकसान ही होता है.

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‘मेरा भविष्य उज्ज्वल है’: संजय कपूर

लगभग 25 वर्ष पहले अनिल कपूर के छोटे भाई संजय कपूर ने जब बौलीवुड में अभिनेता के रूप में संजय कपूर ने कदम रखा था, तो एक नया इतिहास रचा था. उनकी तीन फिल्में प्रदर्शन के लिए तैयार थीं और वह चार फिल्मों की शूटिंग कर रहे थे. उनकी एक भी फिल्म प्रदर्शित नही हुई थी. पर ‘‘टिप्स संगीत ’’ कंपनी  एक औडियो कैसेट ‘‘हिट्स औफ संजय कपूर’ ’बाजार में लेकर आयी थी. यह एक अलग बात है कि उसके बाद उनका करियर काफी हिचकोले लेकर आगे बढ़ता रहा. बीच में उन्होने अभिनय से दूरी बनाते हुए ‘तेवर’ सहित दो फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें से एक फिल्म आज तक सिनेमाघरों में नहीं पहुंच पायी. पर पिछले तीन चार वर्षों से वह बतौर अभिनेता कई उंचाइयां छू रहे हैं. उन्हें टीवी सीरियल के अलावा वेब सीरीज ‘‘लस्ट स्टोरीज’’ के अलावा फिल्म ‘‘मिशन मंगल’’में जमकर तारीफ मिली. फिलहाल वह फिल्म‘‘द जोया फैक्टर’’को लेकर चर्चा में हैं, जिसमें वह निजी जिंदगी की भतीजी सोनम कपूर के पिता के किरदार में है. यह फिल्म 20 सितंबर को प्रदर्शित हो रही है.

जब आपने अपने करियर की शुरुआत की थी, तब आपकी फिल्मों के सिनेमाघर में प्रदर्शन से पहले ही  टिप्स कंपनी ने ‘‘हिट्स आफ संजय कपूर’ नामक औडियो कैसेट निकाला था. यह क्या मसला था. आपने उस वक्त क्या सोचा था?

जब हम करियर में शुरूआत कर रहे होते हैं, उस वक्त जो कुछ भी हो रहा होता है, हम उसका लुत्फ नही उठा पाते. उस वक्त हम अपने काम में इतना व्यस्त रहते हैं कि हमें लगता है कि शायद ऐसा ही हर कलाकार के साथ होता होगा. आज जब मैं सोचता हूं, तो मुझे लगता है कि मेरी फिल्म आयी भी नहीं थी और टिप्स वालों ने ‘हिट्स आफ संजय कपूर’ कैसेट निकाल दिया था. जिस कलाकार की एक भी फिल्म रिलीज नहीं हुई हो, उसके ऊपर औडियो आना बड़ी बात है. यह 25 साल पहले 1995 की बात है. कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जो पीछे मुड़कर देखने पर अचंभित करती हैं. आज जब मैं इंसान व कलाकार के तौर पर परिपक्व हो चुका हूं, तो मुझे अहसास होता है कि वह कैसेट आना कितनी बड़ी उपलब्धि थी. आपने टिप्स के कैसेट की बात की, आपको यह वाकया याद है, यह बहुत बडी बात है. आज मैं पीछे मुड़ मुड़ का देखता हूं, तो अपने आपको प्रिविलेज्ड महसूस करता हूं.

आपके 25 साल के करियर के टर्निंग प्वौइंट क्या रहे?

मैं ऐसे कोई टर्निंग प्वौइंट नहीं मानता हूं. जब 25 साल का करियर होता है, तो आप कुछ सही निर्णय लेते हैं, कुछ गलत निर्णय लेते हैं. आपने सही निर्णय लिया है, सही काम किया है, पर किसी अन्य की गलती से भी परिणाम गलत निकल सकते हैं. एक फिल्म की सफलता और असफलता के पीछे कई वजहें होती हैं. आप इंसान हैं और हर इंसान से गलती होना स्वाभाविक है. फिर चाहे वह कलाकार हो या डौक्टर हो या कोई अन्य पेशेवर हो. हर इंसान सोचकर गलती नहीं करता. इंसान तो यही सोचता कि वह सही कर रहा है, पर गलत हो जाता है. फिर फिल्म का जो अंतिम परिणाम आता है, उसके गलत होने के पीछे कई वजहें हो सकती हैं. आपकी अपनी गलती हो सकती है, निर्देशक या निर्माता या फिल्म वितरण करने वाले से गलती हो सकती है. फिल्म रिलीज का समय गलत हो सकता है. बहुत सी चीजें होती हैं.

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मतलब?

शायद आपको पता होगा कि पहले एक फिल्म निर्माण में 2 से 4 साल का वक्त लगता था. अब तो  छह माह में फिल्में बन जाती हैं. यह एक अलग बात है कि फिल्म के निर्माण से पहले उसके प्रोडक्शन में, उसकी तैयारी में एक से डेढ़ साल का समय लगाते हैं. मेरी एक फिल्म ‘‘छुपा रुस्तम’’ थी, जो कि सुपरहिट  हुई थी. पर इसके निर्माण में पांच साल का वक्त लग गया था. इस फिल्म की शूटिंग मैंने 1994 में शुरू की थी. निर्माता के साथ कुछ समस्याएं खड़ी हो गईं, तो फिल्म रुक गयी. उसके बाद राज बब्बर साहब राजनीति में चले गए, इस कारण फिल्म रुक गयी. इस फिल्म में राज बब्बर साहब का बहुत महत्वपूर्ण किरदार था. फिर मनीषा कोइराला की अपनी समस्याएं शुरू हो गई थीं. जिसके चलते यह फिल्म रूकी रही. शूटिंग बार बार रुकती गयी. पूरे 5 साल के बाद 1999 में यह फिल्म रिलीज हुई, तो सुपर डुपर हिट हो गयी. अमूमन इस तरह की फिल्में सफल नही होती.‘‘छुपा रुस्तम’’ के निर्माण में पांच साल की जो देरी हुई, उसमें किसी की कोई गलती नहीं थी. अच्छा हुआ कि फिल्म चल गई, पर यदि फिल्म ना चलती, तो किसी ने किसी पर तो दोषारोपण किया जाता. कहीं वक्त गलत हो जाता. अक्सर होता है कि जब हम कोई कहानी सुनते हैं, तो हमें लगता है कि आप बिल्कुल सही समय पर बन रही फिल्म है, पर उसके बनने में देरी हुई, तो पता चलता है कि जब फिल्म रिलीज हुई, तो वक्त गलत हो चुका था. और फिल्म नहीं चली. अब ऐसी स्थिति में मैं किसे क्या दोष दूं. पहले जमाने में तो एक फिल्म के बनने में 2 से 4 साल का वक्त लगता था, 2 साल के बाद फिल्म के जौनर का जो ट्रेंड है, वह बदल गया, तो आप क्या करेंगे?

अब तो फिल्म के निर्माण में दो साल नहीं लगते हैं. मगर अब उसकी पहले से तैयारी करने में समय ज्यादा लगाते हैं. उसके बाद फिल्म बनने में सिर्फ 6 माह लगते हैं. ऐसे में यदि शूटिंग के समय पता चला कि ट्रेंड बदल गया है, तो उसमें बदलाव करना आसान है. हम फिल्म के संगीत को भी शूटिंग शुरू होने के समय ही रिकौर्ड करते हैं. कई बार तो फिल्म की शूटिंग के दौरान ही गाने रिकौर्ड किए जाते हैं. वह समसामायिक लगते हैं. मेरे कहने का अर्थ यह नहीं है कि सिर्फ संगीत की वजह से ही कुछ फिल्में चली या नहीं चली.

पहली बार मैंने फिल्म‘‘द जोया फैक्टर’’ में पिता का किरदार निभाया है. ऊपर से सोनम के पिता का किरदार है, जिसके चलते लोगों को ज्यादा रोचकता नजर आएगी. इसलिए कह सकता हूं कि मेरा भविष्य उज्ज्वल है. लोग मुझे आने वाले कल में कुछ बेहतरीन किरदारों में देख सकेंगे.

लेकिन बीच में आप अभिनय को बाय बाय कर फिल्म निर्माण से जुड़ गए थे?

अभिनय को बाय बाय नही किया था. ऐसा कभी नही रहा कि मेरे पास फिल्मों के आफर न आए हों. मैं मानता हूं कि मुझे सौ फिल्मों के नही, मगर 10-12 फिल्मों के आफर लगातार आ रहे थे. लेकिन वह कहीं ना कहीं मुझे सही नहीं लग रहे थे. या उनमें कुछ ऐसा था, जिसे करने के लिए मेरा मन गवाही नहीं दे रहा था. तो मैंने नहीं किया. तब मैने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए कि बौलीवुड से जुडा रहूं. मेरे पिता मेरे जन्म के पहले से फिल्म निर्माण कर रहे थे. मेरे भाई बोनी कपूर भी फिल्म निर्माण कर रहे हैं.तो मैने भी सोचा कि फिल्में बनाई जाएं. दो फिल्में बनाई. एक फिल्म कुछ वजहों से हम प्रदर्शित नही कर पाए. पर ‘तेवर’ को प्रदर्शित किया. पर बाक्स आफिस पर इसे लोगों ने पसंद नही किया.

आपको नहीं लगता कि ‘‘तेवर’’ बनाना आपकी गलती थी?

मुझे लगता है कि फिल्म ‘‘तेवर’’ अपने समय से दो साल बाद आयी. यदि यह फिल्म दो साल पहले बनकर प्रदर्शित हो जाती, तो इसका अंजाम कुछ और होता. जब मैंने ‘तेवर’ बनाई, उस वक्त तक ‘तेवर’ के जौनर की कम से कम 25 से तीस फिल्में दर्शक देख चुके थे. जिसकी शुरूआत ‘‘दबंग’’ से शुरू हुई थी. उसके बाद ‘राउडी राठौड़’, ‘बुलेट राजा’, ‘आर राजकुमार’ जैसी फिल्में आ गयी थी. तो वहीं ‘तेवर’ के रिलीज के समय का वह दौर था, जब लोग बदल रहे थे. उस वक्त दर्शक लार्जर देन लाइफ वाली फिल्मों से दूरी बना रहा था. दर्शकों का झुकाव रियलिस्टिक सिनेमा की तरफ हो रहा था. सिनेमा के बदलते दौर का भी खामियाजा ‘तेवर’ को भुगतना पड़ा था. अब देखिए न ‘स्पेशल 26’, ‘उरी’,‘राजी’ व ‘‘मिशन मंगल’ जैसी फिल्मों की तरफ दर्शकों का झुकाव हो गया. जब सिनेमा बदलाव के मुहाने पर था, तभी मेरी फिल्म ‘तेवर’ आई और वह भी उस जौनर की, जिस जौनर की पचास से अधिक फिल्में आ चुकी थीं. इसके अलावा हमारी फिल्म ‘तेवर’ की हीरोइन सोनाक्षी सिन्हा ने बहुत अच्छा काम किया था, मगर मैंने जिन फिल्मों के नाम गिनाए, ऐसी छह फिल्मों में वह खुद हीरोइन थीं. तो लोगों को लगा कि सानेाक्षी ने इसमें खुद को दोहराया होगा. जबकि बाद में जिन लोगों ने टीवी पर या सेटेलाइट चैनल पर ‘तेवर’ को देखा, उन सभी ने फिल्म ‘तेवर’ की तारीफ के पुल बांधे,पर सिनेमाघरो में दर्शक इसे नकार चुके थे.

मैं आज भी दावे के साथ कहता हूं कि फिल्म ‘‘तेवर’’ के निर्देशक अमित शर्मा प्रतिभाशाली थे. उन्होंने ही असफलता का दंश झेलते हुए ‘‘बधाई हो’’ जैसी सफलतम फिल्म दी. उसी निर्देशक ने आयुष्मान खुराना को लेकर 100 करोड़ की फिल्म ‘‘बधाई हो’’ बना डाली. मेरे कहने का अर्थ यह है कि यदि मेरी फिल्म ‘तेवर’ दो साल पहले आ जाती, तो परिणाम कुछ और होता.

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‘‘तेवर’’ की असफलता के बाद आपने फिल्म निर्माण से तौबा कर लिया?

ऐसा नही है. सच यह है कि ‘तेवर’’ की शूटिंग खत्म होने से पहले मैंने दो तीन पटकथाओं पर फिल्म बनाने के बारे में सोचना शुरू कर दिया था. मगर ‘तेवर’ के प्रदर्शन से पहले ही मुझे फिल्म ‘‘शानदार’’ में अभिनय करने का अवसर मिला. मैं मूलतः अभिनेता ही हूं, इसलिए इसे प्राथमिकता दी. फिर‘शानदार’ की शूटिंग के दौरान अभिनेता के तौर पर तीन चार फिल्में भी अनुबंधित कर ली. पर फिर वही हुआ. फिल्म ‘शानदार’ बौक्स आफिस पर बुरी तरह से असफल हो गयी. लेकिन लोगों ने मेरे काम की तारीफ की. फिल्म ‘शानदार’ के बाद ही मुझे टीवी सीरियल ‘दिल संभल जा जरा’ में बेहतरीन किरदार निभाने का मौका मिल गया, जो कि पूरे एक वर्ष चला. फिर वेब सीरीज ‘‘लस्ट स्टोरीज’’ मिल गयी. फिर ‘मिशन मंगल’, ‘द जोया फैक्टर’ मिल गयी. परिणामतः फिल्म निर्माण का सिलसिला थम गया. लेकिन फिल्म निर्माण मेरे खून में है, आगे करूंगा.

आपने फिल्म ‘‘मिशन मंगल’’ में अपनी ही पुरानी फिल्म ‘‘राजा’’ के गीत ‘‘दिलबर’’ पर नृत्य किया है?

जी हां! यह भी उपलब्धि ही है. आज जब फिल्मों पुराने रीमिक्स गीत आ रहे हैं, तो मैं पहले ऐसा कलाकार हूं, जिसने अपना रीमिक्स गाना खुद किया है. ‘दिलबर’ मेरा सुपरहिट गाना था. मैने कई वर्ष पहले इस गाने को सुष्मिता सेन के साथ किया था.

जब आपको ‘‘मिशन मंगल’’ में ‘दिलबर’ गाने के रीमिक्स पर नृत्य करना था, तो आपकी पहली  प्रतिक्रिया क्या थी?

मुझे यह बताया गया था कि एक गाने पर मुझे नृत्य करना होगा, पर तब गीत तय नहीं था. पर अंत में ‘दिलबर’ गाना तय हुआ. सब कुछ बहुत जल्द हुआ था, तो ज्यादा सोचने या तैयारी करने का अवसर नहीं मिला. फिल्म देखकर लोगों ने इस गाने को काफी पसंद किया. मैंने खुद मुंबई के भी पीवीआर सिनेमाघर में दर्शकों के साथ जाकर यह फिल्म देखी. जब यह गाना परदे पर आया, उस समय लोगों ने जो तालियां व सीटी बजायी, उससे मुझे आत्मसंतुष्टि मिली. फिल्म खत्म होने के बाद लोगों की नजर मुझ पर पड़ी. तो लोगों ने मुझे घेर लिया, सेल्फी खींची. इनमें से ज्यादातर लोग 25 से 30 साल की उम्र के थे, जिन्होंने शायद उस वक्त फिल्म ‘‘राजा’’ देखी भी नहीं होगी. इन्हें तो पता भी नही होगा कि उस वक्त ‘राजा’ कितनी बड़ी सफल फिल्म थी. पर उसी गाने को देखकर लोगों ने मुझे ना सम्मान दिया. यह बात मुझे उस मुकाम पर लाती है, जहां आप स्व.राज कपूर या स्व. देवानंद या स्व.गुरुदत्त को याद करते हैं. मैं इनसे अपनी तुलना नही कर रहा. मैं तो सिर्फ इस गाने के संदर्भ में यह बात कर रहा हूं. जब भी आप इन कलाकारों के गाने सुनेंगे, तो आपको उनका चेहरा नजर आएगा. ‘दिलबर’  गीत को आज जो सफलता मिली है, उससे मुझे लगता है कि इंसान का वक्त बदलता है, तो बहुत कुछ बदल जाता है. ‘दिलबर’ गीत का रीमेक पांच साल या उससे पहले भी आ सकता था. पर जब वक्त बदला, तब आया.

आपने संगीत की बात की. आपको नहीं लगता आज वैसा संगीत नही बन रहा कि लोग उस तरह से संगीत के दीवाने हो जाएं,जैसे बीस साल पहले लोग हो जाते थे?

वक्त के साथ काफी कुछ बदला है. पहले जब लोग कार खरीदते थे, तो सोचते थे कि कौन सा डेक लगाएं?  लोगों की रूचि स्पीकर लगाने को लेकर होती थी. मगर आज जब इंसान कार खरीदकर उसमें बैठता है, तो मोबाइल फोन में ही लगा रहता है. कई बार ऐसा होता है कि मैं घर से निकलने के लिए तैयार होते समय सोचता हूं कि लोगों से गाड़ी में बैठकर बात कर लूंगा. कुछ लोग सोशल मीडिया में लगे रहते हैं. ऐसे में अब लोगों के पास संगीत सुनने का वक्त ही नही है. ऐसा नहीं है कि लोग गाने सुनते नहीं है, पर अब उनके पास च्वाइस बहुत हैं.

आपने उस दौर में भी काम किया है, जब फिल्में बनने में 2 से 3 वर्ष का समय लगता था. अब एक ही शिड्यूल में छह माह में बनती है, यदि हम प्री व पोस्ट प्रोडक्शन को छेाड़ दें. ऐसे में एक कलाकार के तौर पर ज्यादा सहूलियत कब महसूस होती है?

डेफिनेटली वर्तमान में. अब आपने फिल्म ‘मिशन मंगल’ देखी है. इसमें मेरे घर के हिस्से का काम पूरे आठ दिन में खत्म हुआ. मैंने एक साथ 8 दिन में कर लिया था. रोज जब मैं उठता था, तो मैं उस किरदार के बारे में ही सोचता था. टीवी सीरियल में सौ दिन का काम पांच 5 महीने में पूरा किया. तो मैं उठते बैठते उसी किरदार में रहता था. मगर जब मैंने करियर शुरू किया था, तब 15 दिन में ‘राजा’, दस दिन प्रेम करता था . कभी ‘प्रेम’ का कर्तव्य तो कभी ‘बेकाबू’ का जादूगर बन जाता था. ऐसे में किरदार के साथ सामंजस्य बनाकर रखना कठिन होता था.

तो उस दौरान किरदारों के साथ न्याय करना मुश्किल होता होगा?

जी हां!! मुश्किल होता था. हम एक सेट से दूसरे सेट पर भाग रहे होते थे. आप चाहे जितने प्रतिभाशाली हों, पर बार बार दूसरे किरदार में खुद को ढालना आसान नहीं होता. हम जिस कलाकार से परिचित नहीं हाते थे, उसके साथ तीन दिन पहले स्क्रिप्ट पढ़ते थे. जब आप सेट पर पहुंचते, तो लगता कि आप परीक्षा देने जा रहे हैं. अमूमन पहले से पटकथा व संवाद भी नहीं मिलते थे. मेकअप के दौरान भी बताया जाता था कि निर्देशक अभी पटकथा लिख रहे हैं. सेट पर पहुंचने के बाद हमें उस सीन की जानकारी व संवाद मिलते थे. फिर भी उस दौरान फिल्म जरूर हिट होती थी. अच्छा काम भी करते थे. आज का समय बहुत ही मैथड है. हर चीज बहुत ही सिस्टमैटिक है.

क्या डिजिटलाइजेशन में सैल्यूलाइड वाला मजा है?

मेरी राय में सौ प्रतिशत. बड़े परदे पर फिल्म देखने का जो मजा है, वह कभी नहीं बदलेगा. 25 साल पहले जब वीसीआर/वीडियो आया, तब लोगों ने कहा कि इंडस्ट्री खत्म हो जाएगी. पर नही हुई. जब कलर टीवी आया, लोगों ने कहा कि सेटेलाइट में तो 4 हफ्ते के बाद पिक्चर टीवी पर आ जाती है, ऐसे में थिएटर में कौन देखेगा? पर आज दो हफ्तों में ही इतने लोग पिक्चर देख लेते हैं जो पहले 25 हफ्तों में भी नहीं देखते थे. आज फिल्में चार हजार सिनेमाघरों में एक साथ प्रदर्शित होती है. पहले केवल 60 सिनेमाघरों में लगती थी. तो समय के साथ बहुत कुछ बदला है.

फिल्म‘‘द जोया फैक्टर’’को व इसके किरदार को लेकर क्या कहेंगे?

यह अनुजा चौहाण के इसी उपन्यास पर बनी फिल्म है. इसमें मैंने जोया सिंह सोलंकी (सोनम कपूर) के पिता विजयेंद्र सिंह सोलकी का किरदार निभाया है. जो कि एक रिटायर्ड आर्मी औफिसर है. उसका एक बेटा जोरावर सिंह सोलंकी (सिकंदर खेर ) भी है, जो कि आर्मी आफिसर है. विजयेंद्र सिंह मैन औफ प्रिंसिपल है. उनका बच्चों के साथ जो रिलेशन है, वह दोस्तों की तरह है. जोक्स क्रिएट करते हैं, साथ में क्रिकेट देखते हैं. वह पिता जरूर है, पर ‘मिशन मंगल’ में जिस तरह का पिता है, उस तरह का नहीं.

सोनम कपूर रीयल लाइफ में आपकी भतीजी हैं. भतीजी मतलब बेटी. अब उसी को पर्दे पर जीना कितना सहज रहा?

एकदम सहज.अगर सोनम की जगह कोई दूसरी लड़की भी होती, तो मुझे काम तो उतना ही करना था.

भविष्य की योजना?

एक फिल्म ‘‘बेढब’’ जल्द रिलीज होगी.एक वेब सीरीज की है.एक दूसरी वेब सीरीज की शूटिंग करने वाला हूं.

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