झारखंड विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के अंदाजे पहले से ही लग रहे थे. देश में नए बनाए गए नागरिकता संशोधन कानून के विरोध के दौरान इस हार का परिणाम आया. ऐसा लगा है मानो देश की जनता ने पौराणिक परंपरा को थोपने वाली सरकार को फिलहाल सबक सिखाने का मन बना लिया है. हालांकि झारखंड के मतदान कई चरणों में हुए और नागरिकता संशोधन कानून लाए जाने से पहले ही मतदान हो रहा था पर आज दोनों को मिला कर ही देखा जाएगा.

झारखंड में हालांकि पहले की तरह भाजपा को खासे वोट मिले पर कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोरचा के बीच समझौता होने के कारण दोनों को 81 में 47 सीटें मिल गईं. भारतीय जनता पार्टी 25 पर सिमट गई. भाजपा के मुख्यमंत्री रघुबर दास भी अपनी सीट नहीं बचा पाए.

महाराष्ट्र में मिले धक्के के बाद झारखंड में हुई हार से भाजपा का एकछत्र राज करने का सपना टूट रहा है. इस के पीछे कारण वही है जो उस की जीत के पीछे था – धर्म पर आधारित राजनीति. भाजपा दरअसल अपने शासन की नीतियां नहीं परोस रही, वह कोरे धर्मराज की स्थापना को परोस रही है और वह धर्म भी ऐसा जैसा पुराणों में वर्णित है, जिस में ज्यादा से ज्यादा लोग पूजापाठ, अर्चना में लगे रहें, सेवा करते रहें और कुछ मौज मनाते रहें.

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इस देश के कर्मठ लोगों और उपजाऊ जमीन की देन है कि धर्म के मर्म पर पैसा और समय देने की गुंजाइश बहुत रहती है. धर्म के नाम पर सदियों से यहां विशाल मंदिर, पगपग पर ऋषियोंमुनियों के आश्रम बनते रहे हैं. लोग अपनी अंधश्रद्धा के गुलाम बने हुए हैं. इस अंधश्रद्धा को बढ़ाने व भुनाने के लिए एक खास वर्ग सदियों से मुफ्त की खाता रहा है और असल में शासन भी करता रहा है. भारतीय जनता पार्टी उसे ही दोहराना चाह रही थी.

देश के सामने आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक व सामाजिक समस्याओं का अंबार है. लेकिन सरकार को किसी भी समस्या को सुलझाने की फुरसत नहीं है. वह राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट को मनवाने, कश्मीर से जुड़े संविधान के अनुच्छेद 370 पर, बंगलादेश से आए गरीब मुसलमानों, मजदूरों को भगाने के बहाने सभी मुसलमानों को कठघरों में खड़ा करने, बैकडोर से आरक्षण खत्म करने में लगी रही है.

झारखंड में ही नहीं, हरियाणा व महाराष्ट्र और बहुत से उपचुनावों में यह साफ हुआ है कि सरकार की टैक्स नीतियां भी अमान्य हैं, शासकीय भी. फिर भी भारतीय जनता पार्टी को लग रहा था कि नरेंद्र मोदी की करिश्माई छवि व अमित शाह की कूटनीति से वह जनता को बहकावे में रखने में कामयाब रहेगी.

पौराणिक सोच वालों ने रामायण और महाभारत के युद्धों में जीत के प्रसंग तो बहुत पढ़े हैं पर दोनों महाकाव्यों के नायकों का बाद में क्या हुआ, यह कम ही को मालूम है और यही जनता अब बिना पुराण पढ़े समझने लगी है.

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