छह साल का रहमान स्कूल से लौट कर शाम को घर के पास वाले मदरसे में मौलाना साहब से दीन की तालीम लेने जाता था. वह अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था. रहमान के पिता अजमल मियां पास के पोस्टऔफिस में काम करते थे. रोज साइकिल से आना-जाना होता था. रहमान की अम्मी आबिदा बेगम बेहद खूबसूरत महिला थीं. अक्सर बुर्के में सौदा-सुल्फ लेने के लिए निकलती थीं और दुकान पर पहुंच कर चेहरे की नकाब हटाती तो उनके चांद से चेहरे से लोगों की निगाहें ही न हटती थीं. मदरसे के मौलाना साहब भी उनकी खूबसूरती से वाकिफ थे. दरअसल एकाध बार उन्होंने आबिदा बेगम को बाजार में सब्जी-भाजी खरीदते देखा था, जब उनके चेहरे का नकाब उलटा हुआ था. मौलाना साहब आये-दिन बाजार के चक्कर भी इस सोच के तहत लगाया करते थे कि न जाने कब चांद का दीदार हो जाए. न जाने कब आबिदा बी नकाब हटा कर एक झलक दिखला जाएं. मगर उनकी यह हसरत अरसे से पूरी नहीं हो रही थी. हसरत बढ़ती ही जा रही थी, आखिरकार एक दिन छुट्टी के समय मौलाना ने नन्हे रहमान से कहा, ‘बेटा, अपनी अम्मी को मेरा सलाम कहना.’
बेटे ने आकर मां को कह दिया कि मौलाना साहब ने आपको सलाम भेजा है.
आबिदा बेगम ने भी बेटे के हाथों सलाम का उत्तर सलाम भेज कर दे दिया.
ये सिलसिला हफ्ते भर चला. रोज़ रोज़ के सलाम से आबिदा बेगम परेशान हो गयीं. हर दिन बेटा आकर कहता कि मौलवी साहब ने सलाम भेजा है. वह सुन-सुन कर पक गयीं. मौलवी साहब की मंशा वह अच्छी तरह समझ रही थी. मगर बेटे की पढ़ाई भी जरूरी थी, इसलिए सामने से जाकर उनकी बेज्जती नहीं करना चाहती थीं. रहमान मदरसे में न होता तो अब तक तो आबिदा बेगम अपने मियां के हाथों मौलाना को पिटवा चुकी होतीं. एक रोज रात में आबिदा बेगम ने यह परेशानी अपने पति अजमल मियां को बतायी. अजमल मियां गुस्से से फनफनाने लगे. मगर आबिदा बी ने उन्हें रहमान की पढ़ाई का वास्ता देकर शान्त कराया. दोनों के बीच काफी समय तक विचार-विमर्श चला और फिर बात एक नतीजे पर पहुंच गयी. अगले दिन आबिदा बेगम ने बेटे रहमान से मौलाना को कहला भेजा कि – अम्मी ने शाम को आपको घर पर बुलाया है.
मौलाना साहब तो यह सुन कर झूम उठे. उन्होंने तो सपने में भी न सोचा था कि अल्लाह मियां इतनी बड़ी मुराद पूरी कर देंगे. रहमान का पैगाम सुन कर लगा जैसे हवा में उड़ रहे हों. तीन दिन से नहाए नहीं थे. बच्चों को रट्टा मारने के लिए बिठा कर गुसलखाने की ओर भागे. फटाफट खुश्बूदार साबुन से रगड़-रगड़ कर गुसल किया. दाढ़ी और सिर के बालों में शैम्पू लगाया. बाहर आकर बासी शेरवानी को इस्तरी करवाने धोबी के पास भागे. उसने पच्चीस रुपये मांग लिये. पांच रुपये खर्च करके जूते भी मोची से पौलिश करवाते लाये. एक साफ रूमाल ढूंढने में घंटा भर खप गया. बच्चे पढ़ कर वापस चले गए. मौलाना साहब फटाफट तैयार होने में जुट गए. आज चांद के दीदार की शाम थी. साफ कुर्ते पायजामे पर इस्तरी की हुई शेरवानी चढ़ाई, करीने से बाल काढ़े, इत्र का छिड़काव पूरे शरीर पर किया, शेरवानी की ऊपरी जेब में सफेद रूमाल तह करके सलीके से सजाया, पांव में जूतियां डालीं और निकल पड़े रहमान की अम्मा से मिलने.
घर के दरवाजे पर पहुंचे तो सीने में उनका दिल ऐसे धाड़-धाड़ बज रहा था कि जैसे अभी निकल कर हथेली पर आ जाएगा. किसी तरह दिल पर हाथ रखकर खुद को संभाला और दरवाजा खटखटाया. आबिदा बी ने दरवाजा खोला. गुलाब सा चेहरा, लम्बी काली पलकों के बीच भूरी-भूरी आंखे, चौड़ा माथा, लंबे बाल… मौलाना साहब तो देख कर होश खो बैठे. आबिदा बी ने मौलवी साहब को सलाम किया और घर के अन्दर उनका स्वागत किया. चाय-पकौड़ी से उनकी खूब आवभगत की. चाय नाश्ते के बीच बेटे की पढ़ाई के बारे में बातचीत करती रही.
लेकिन मौलाना साहब जल्दी ही औपचारिक बातों से उकता कर अपनी असलियत पर आ गए. बोले, ‘माशा अल्लाह, आपको खुदा ने बड़ी फुर्सत में तराशा है.
रहमान की अम्मी ने शरमा कर सिर झुका लिया और धीरे से बोली, ‘वो तो है, शुक्रिया.’
मौलाना की हिम्मत बढ़ी. बोले, ‘मुझे आपसे इश्क हो गया है मोहतरमा.’
रहमान की अम्मी घबराई और धीरे से बोली, ‘हां वो तो ठीक है मौलाना साहब, पर ये बातें अगर रहमान के अब्बा ने सुन ली तो बहुत मुश्किल होगी, वो आते ही होंगे. आप अभी जाइए, कल शाम को फिर आइएगा, तब बात करेंगे. मैं आपका इंतजार करूंगी.’
मौलाना साहब अगली मुलाकात के आमंत्रण से झूम उठे. खुशी-खुशी चलने को हुए. इतनी जल्दी किला फतह कर लेंगे, यह तो उन्होंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था. अभी वे कुर्सी से उठे ही थे कि खुले दरवाजे पर रहमान के अब्बा की आवाज आई, ‘घर में कोई बाहरी आया है क्या रहमान की अम्मी?’
रहमान की अम्मी घबराई. डर के मारे कांपने लगी. मौलाना की ओर अपना बुर्का फेंक कर बोली, ‘मौलाना साहिब, इसे जल्दी से पहन लें.’
घबराया हुआ मौलाना बुर्के में घुस गया. मुंह पर नकाब डाल ली. रहमान की अम्मी ने उन्हें ले जाकर कोने वाले नल पर बिठा दिया, जहां जूठे बर्तनों का ढेर लगा था. वह उनके सामने जूना और बर्तन धोने का साबुन रख कर बोली, ‘आप यहां बैठ कर बर्तन धोइये मैं अभी उनको चाय वगैरह पिला कर सब्जी लाने के लिए बाहर भेजती हूं, फिर आप मौका देखकर निकल जाइयेगा.’
मौलाना साहब सिर पर बुर्का संभाले नल खोल कर बर्तन मांजने में जुट गये.
इतने में रहमान के अब्बा आजमल मियां अपनी साइकिल में ताला मार कर भीतर आ गये. कोने वाले नल पर बुर्केवाली को बैठे देखा तो पूछ बैठे, ‘रहमान की अम्मी, ये मोहतरमा कौन हैं?’
आबिदा बेगम पानी का गिलास पकड़ाते हुए बोली, ‘बगल के मोहल्ले में रहती है, बेचारी बहुत गरीब है, काम मांग रही थी तो मैंने बर्तन मांजने के लिए रख लिया है. शाम-शाम को आकर बर्तन मांज जाया करेगी.’
रहमान के अब्बा वहीं दीवान पर बैठ गए. आबिदा बी किचेन से एक बड़े से टब में छोटे-बड़े तमाम बर्तन जो काफी समय से नहीं धुले थे और रखे-रखे धूल खाकर गंदे हो गये थे, उन्हें भी लाकर मौलाना साहब के आगे पटक गयीं कि इन्हें भी धो दें.
मौलाना साहब बुर्का संभाले बड़ी देर तक बर्तन मांजते रहे. आबिदा बी ने इतनी देर में पूरे किचेन के बर्तन निकाल कर कोने में ढेर लगा दिया . मौलाना साहब का बुरा हाल हो गया. काली-काली कड़ाहियां रगड़ते-रगड़ते उनके हाथ लाल हो गये. समय गुजरता जा रहा था, रहमान के अब्बा टलने का नाम ही न ले रहे थे. चाय-नाश्ता करके बड़ी देर से पैर पसारे बैठे थे. आबिदा बी भी वहीं मोढ़े पर बैठी थीं. पति-पत्नी बड़ी देर तक हंसी-मजाक और बातें करते रहे. एक घंटे के बाद अजमल मियां ने कहा, ‘आबिदा, मैं जरा बाजार होकर आता हूं, रहमान खेल कर आ जाए तो उसको पढ़ने के लिए बिठाइये.’
‘जी बहुत अच्छा…’ आबिदा बी पीछे-पीछे दरवाजे तक गईं. इधर रहमान के अब्बा दरवाजे से बाहर हुए उधर एक घंटे से बर्तन मांज रहे मौलाना साहब, जिनका उंकड़ू बैठे-बैठे टांगे और कमर जवाब दे गयी थी, अजमल मियां के बाहर निकलते ही बुर्का उतार कर वहां से सरपट निकल कर भागे. आबिदा बी के सलाम तक का पलट कर जवाब तक न दिया.
उसके बाद उन्होंने रहमान की अम्मा को फिर कोई सलाम न भेजा. पंद्रह रोज बाद रहमान ने एक दिन मदरसे में मौलाना साहब से कहा, ‘अम्मा ने आपको सलाम भेजा है…’
मौलाना साहब यह सुनते ही तमतमाते हुए दहाड़े, ‘बदजातों, फिर बर्तन जमा हो गये क्या, जो फिर से सलाम भेजा है….?’