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ये ऐड्रैस बताना प्लीज

आप ने न जाने कितनी बार अनजान जगहों पर अनजान लोगों से कोई न कोई ऐड्रैस जरूर पूछा होगा. जब हम खुद किसी जगह के बारे में नहीं जानते तो दूसरों से पूछना मजबूरी हो जाती है. फिर यह अच्छी बात भी है कि महान देश के महान नागरिक ऐसे पते बताने में पूरी दिलचस्पी लेते हैं. लेकिन यह साधारण सी बात हमारे दिमाग में अकसर हलचल पैदा करती है कि हमें आज तक ऐसा कोई शख्स नहीं मिला जो हमारे द्वारा पूछे गए किसी भी ऐड्रैस को बताने में अपनेआप को असमर्थ बताता हो. वह कभी हार ही नहीं मानता, चाहे सही ऐड्रैस जानता हो या नहीं. वह बताने का कर्तव्य सौ फीसदी पूरी निष्ठा के साथ निभाता है.

लोग पता बताने में ऐसे गंभीर, दत्तचित्त हो कर डूब जाते हैं कि अपने अति जरूरी काम छोड़ कर एक दक्ष गाइड की तरह कुछ न कुछ निर्देशन अवश्य करते हैं. कोई भी महानुभाव हरगिज ऐसा नहीं कहता, ‘सौरी, मुझे इस ऐड्रैस का कोई अनुमान नहीं.’ हमारी पूरी जिंदगी इसी खोजबीन में निकल गई, अब तो उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच गए जहां सठिया जाने के पूरे चांस रहते हैं लेकिन इस अद्भुत विषय पर हमारा अघोषित शोध आज भी बदस्तूर जारी है. हम इस अंतहीन विषय को ले कर भारत के अनेकानेक राज्य, शहर, जिले, गांव, ढाणी की जनता पर सर्वे कर चुके, परिणाम हमेशा रोचक ही निकलते हैं.

हम तो आप को भी सुझाव देंगे कि यदि आप के पास फालतू का समय है और करने को कोई काम नहीं तो निठल्ले पड़े रहने से बेहतर होगा कि आप भी हमारे अभियान से जुड़ें. इस मुहिम से शहर की जनता की सामाजिक संवेदनशीलता को मापसकते हैं. प्रयोग करना चाहें तो, कागज के एक पुर्जे पर कोई भी गलतसलत पता लिख डालें और निकल पड़ें किसी भी शहर, कसबे के बाशिंदों की आईक्यू को जांचने. शहर के व्यस्त चौराहे, बाजार, गलीनुक्कड़ पर खड़े लोगों की मुफ्त सेवा लेनी शुरू करें. हम दावा करते हैं कि अब आप को कुछ नहीं करना है, जो भी करना है वह सामने वाला करेगा. वह आप के गलत पते को भांप भी जाए तो भी इस अनसुलझी पहेली अथवा चुनौती को स्वीकार कर उसे सुलझाने में डूब जाएगा.

हमें लगता है शायद यह हमारी मनोवैज्ञानिक कमजोरी है. जन्मभूमि से जुड़ी हमारी भावनाएं हमें अपने शहर के प्रति अनजान होने की बात कतई स्वीकार नहीं करने देतीं. जानतेबूझते हम गलत पते को भी पहचानने का स्वांग-नाटक करते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ साधारण किस्म के लोग मिल सकते हैं जो फौरी तौर पर आप को सीधेउलटे हाथ जा कर बाईं या दाईं गली में मुड़ने और वहां जा कर पता करने जैसी बात कह देंगे लेकिन कुछ अति गंभीर और शहर के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध ऐसे नागरिक भी मिल जाएंगे जो बड़े कौन्फिडैंस से निर्देशन देंगे, जैसे वे सौ प्रतिशत उस ऐड्रैस को जानतेपहचानते हैं. हम बस, लोगों की इसी कला से मोहित और अभिभूत हैं.

इस अभियान में हम ने एक बार अभिनव प्रयोग किया. हमारे एक मित्र जो एम आई रोड, जयपुर में रहते हैं, उन के पति को पुरानी दिल्ली में खोजना शुरू किया. आप आश्चर्य करेंगे कि लोगों ने इस पूर्णत: गलत पते को पहचानने में भी पूरी गंभीरता दिखलाई जैसे वे उस पते से बखूबी परिचित हों. चालाकी कर पते की स्लिप पर केवल जयपुर की जगह दिल्ली लिख दिया, बाकी पूरा पता वही रहने दिया जो जयपुर का था. लेकिन इस से कोई फर्क नहीं पड़ा. एमआई रोड, जो जयपुर की पहचान है, को कुछ लोगों ने दिल्ली में बड़ी आसानी से पहचान लिया, जैसे वे उसी जगह के बाशिंदे हों. हो सकता है उन में से कुछ सज्जन हमें ही मूर्ख बना रहे हों लेकिन इस संपूर्ण कवायद में मजा भरपूर आ रहा था.

एक और बानगी देखिए, एक सज्जन सपत्नीक बाइक से कहीं जल्दी जाने की फिराक में थे लेकिन हमारे द्वारा वह गलत पता पूछे जाने पर भी बड़े मनोयोग से उस पते को पहचानने में पिल पड़े. अपनेआप को पूर्ण सामाजिक और शालीन होने का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए हमारा मार्गदर्शन करने लगे. उन के बताने का अंदाज ऐसा आत्मविश्वास से लबरेज था कि लगा, जैसे यदि अपनी पत्नी के साथ न होते तो शायद हमें अपनी गाड़ी पर बिठा कर उस पते पर पहुंचा आते. लेकिन हम ने उन्हें ज्यादा परेशान करना उचित नहीं समझा. धन्यवाद देते हुए अपने इस टैलेंट हंट के सर्च अभियान से उन्हें मुक्त किया.

अब बताइए क्या कहेंगे? है न निराली बात. जो जगह दिल्ली में है ही नहीं, उसे भी लोग जबरदस्ती पहचान रहे हैं. यही नहीं, वहां तक पहुंचने का सहज रास्ता भी बताया जा रहा है. आप हमारी इस बुरी आदत पर हंस सकते हैं लेकिन यह सच है. हम जहां भी जाते हैं, अपनी इस तकनीक को जरूर आजमाते हैं. असल में, अब यह हमारे लिए एक ऐसा थर्मामीटर बन चुका है जिस से हम गांव, शहर, महानगरों के निवासियों की संवेदना की जांचपड़ताल करने से बाज नहीं आते. अब 21वीं सदी में तो इंटरनैट, फेसबुक, मोबाइल, स्मार्टफोन आ गए लेकिन हमारा फार्मूला आज भी, अचूक और गारंटिड बना हुआ है. पनवाड़ी की दुकान पर खड़े रसिकजन, चाय की थड़ी, चौराहे पर जमा भीड़, यहां तक कि ट्रैफिक पुलिस का तथाकथित मुस्तैद सिपाही भी हमारी इस अनोखी मुहिम में निशुल्क भागीदार बनता है और यथायोग्य अपनी मुफ्त की सलाहसेवा प्रदान करता ही करता है.

कछ लोगों का पता बताने का लहजा ऐसा होता है कि दिल कुरबान हो जाए या फिर अपना सिर पीट लिया जाए. ऐसे जनाब अपनी इठलाती जबान से मौखिक रूप से ही पूरे शहर का नक्शा ऐसा खींचते हैं कि वहां तैनात पोस्टमैन भी शरमा जाए. एक बार लखनऊ में हम ने एक बुजुर्गवार से मजाकमजाक में एक पता पूछ लिया. आप से क्या छिपाना, दरअसल हम तो दिल्लगी करने के मूड में थे, इसलिए नवाबों के शहर लखनऊ की सरजमीं पर पैर रखते ही सामने सड़क पर गुजर रहे एक जहीन किस्म के नवाबी संस्करण से वह पता पूछने से पूर्व भूमिका बांधने की गरज से इतना पूछ बैठे, ‘क्या जनाब, लखनऊ में ही रहते हैं?’ उन्हें हमारे इस तरह सवाल पूछने पर सख्त एतराज हुआ, लगा, जैसे हम ने उन की लखनवी जड़ों को खुली चुनौती दे डाली हो. बहरहाल, हमारी तहजीब पर तौबा करते हुए वे उस पते को समझाने लगे जिस से हम बखूबी पहले से परिचित थे कि वह पता शर्तिया गलत व झूठा था.

उन के अंदाज का आप भी मुलाहिजा फरमाएं. उन्होंने पहले अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फिराया, अचकन ठीक कर खंखारते हुए गला साफ कर खालिस शायराना उर्दू की ऐसी तकरीर झाड़ने लगे कि हमें बेहोशी आने लगी. लगे हाथ हमारा तआर्रुफ (परिचय), जन्मस्थान, शिक्षा, मजहब, ब्याहशादी, बालबच्चों, नौकरी, तनख्वाह सहित जरूरी स्टेटस पूछ डाला. हम सेर तो जनाब सवा सेर. लेकिन हम इस रस्साकशी को बीच अधर में छोड़ने को कतई तैयार नहीं थे. सो उन की तकरीर को बड़े अदब से सुनते रहे. हमारे हाथ में वह कागज था जिस पर मुंबई का पता लिखा था, केवल शहर चेंज कर लखनऊ लिख डाला था ताकि लोगों को कन्फ्यूज कर मजा ले सकें. उन की तकरीर शुरू हुई, ‘‘जनाब, सब से पहले एक आटो लें, उस से किराया तय करें ताकि बाद में किसी तरह का झंझट न हो. फिर सामने वाले चौक से दाएं मुड़ें, वहां से आगे 2 चौराहे पार कर बाईं तरफ की रोड पर जाएं. फिर 4 फ्लाईओवर पार कर नूरानी महल की ओर आगे बढ़ें, तकरीबन 3 किलोमीटर चल कर सीधे हाथ को मुड़ जाएं. वहां 2 कालोनियां पार कर जनता फ्लैट्स मिलेंगे. ये जनाब वहीं कहीं रहते मिलेंगे.’’

हम उन की काबिलीयत पर कायल थे लेकिन हमें खुद पर शक हो रहा था कि क्या वास्तव में पता बदलने की कारस्तानी हम ने की भी है या नहीं. कहीं सच में हमारे मित्र मुंबई छोड़ कर लखनऊ तो नहीं आ बसे हैं? खैर, समझनासमझ के इस खेल में कतई स्पष्ट नहीं हो पाया कि कौन कितना समझ पाया था. जनाब से विदा ले कर हम अब अपनी मंजिल की तरफ रुख्सत हुए कि तपाक से एक आवाज सुनाई पड़ी. पीछे देखा तो वे ही बुजुर्गवार हमें अचरजभरी नजरों से ऐसे निहार रहे थे जैसे क्लास में कोई विद्यार्थी, टीचर द्वारा पूरा लेसन समझाने के बाद भी बेसिक गलती कर रहा हो. हम ने तौबा की और उन से छिपतेछिपाते अपने ठिकाने की तरफ बढ़ लिए.

सच में, हमारी यह अंतहीन खोज आज भी जारी है. इस का एक सुंदर पहलू और है, यदि आप के साथ कोई महिला है और इस अवस्था में आप किसी से कोई पता पूछते हैं तो पता बताने वालों की गंभीरता, शालीनता, समर्पण, सेवाभाव दोगुनातीनगुना हो जाता है. हमारी यह खोज निष्फल ही सही लेकिन यह सत्य है कि यह कवायद हमारे इंसान होने, दूसरों की समस्या के प्रति संवेदनशील होने का सशक्त प्रमाण प्रस्तुत करती है. सामाजिक होने का यही तो फायदा है वरना पश्चिमी देशों की संस्कृति में यह खासीयत कहां मिलेगी. वहां फीस चुकाने के बाद भी गारंटी नहीं कि आप को ‘सर्विस प्रोवाइड’ कर ही दी जाए. हम भारतीयों का दिल बहुत बड़ा है और इस में अपने अलावा दूसरों के लिए भी खाली जगह हमेशा रहती है. हम दूसरों के लिए इतना सोच लें, यह तथ्य भी क्या कम है? हम ने मजाक किया, आप ने हमें सहन किया, यह भी तो हमारे उदारमना होने का संकेत है. धन्यवाद.

coronavirus: घर में रहें और स्वस्थ रहें

सरकार ने आपको कोरोना से बचने के लिए पुरे देश में लॉक डाउन लागू किया है । इस स्थिति में आपको यह तय करना होगा कि आप घर पर रहते हुए हर प्रकार से स्वास्थ्य रहे। इस स्थिति में अगर आपका मन नहीं लगता है तो आइये बताते है इस समय को मैसे आप सकारात्मक उपयोग कर सकते है  ।

–  आप किसी भी उम्र के देश देश दुनिया के बारे में जानने के लिए आपके पास उपयुक्त समय है। जरुरी नहीं दुनिया में जो भी देखे या सीखे वह करना के बारे में हो , इसे आलाव भी बहुत कुछ है , कोशिश करे कि किसी देश के बारे में संक्षित जानकारी इस लोक डाउन के दौरान आपके पास होना एकत्रित हो जाये ।

– आप गृहणी हो तो किचन में बहुत कुछ नया कुछ सीख सकती हैं। भारतीय पकवान के कई विधान है उसे आप इंटरनेट के मदद से समझ सकती है , विश्व के अन्य देशों के पकवानो को भी समझने का आपके पास उपयुक्त समय है। आप बेकरी और घर के तंदूर पकवान को भी आराम से समझ सकती है । जब तक लॉक डाउन ख़त्म होगा आपके किचन और पकवान ज्ञान में काफी वृद्ध हो चूका होगा , अगर समय हो तो इसे जरूर आजमाए

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– आपके बच्चों के लिए यह समय खास है , सभी लोग साथ है , इस दौरान आप अपने बच्चों पर विशेष ध्यान दे सकते है .बच्चों को नई नई चीजों का ज्ञान प्रदान कर सकते हैं। जरुरी नहीं है उसके रूचि के अनुसार ही आप उसे कुछ सिखाये या बताये , इस लॉक डाउन के दौरान आप अपने देश के बारे में जरूर समझा सकते है। देश , राज्य, जिला ,प्रखंड ,शहर और गांव तक आप उस से बात कर सकते है । कई बार देखा गया है कि आपके बच्चे पढ़ने में काफी तेज होते है लेकिन देश – दुनिया का ज्ञान उन्हें कम होता है , यही ज्ञान को आप प्रदान करे .

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– बूढ़े लोगों का विशेष ख्याल रख सकते हैं। नित्य समय पर उन से सकारात्मक बातें करते रहे.खाना खाते समय और खाना खाने के बाद विशेष सफाई का ध्यान दें. घर में साफ सफाई का विशेष ध्यान दें।

–  अधिक से अधिक आपस में बात करने से अच्छा है कुछ कुछ नया सीखे , छोटे-छोटे चीजों को समझे ज्ञानवर्धक चीजों को पढ़ें और समझे.

– मैगजीन और किताबें पढ़ने में अपने को  अधिक से अधिक अपने आप को व्यस्त रख सकते है .

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– अपने दैनिक जीवन नित्य नए  ज्ञानवर्धक चीजों को सीखने में बिताएं आप मनोरंजन के कई साधनों को अपना सकते हैं. आपकी रुचि जिस किसी में हो उस विषय पर विशेष ज्ञान अर्जित कर सकते हैं.

–  यह समय  आपको आगे की सोचने के लिए प्रदान करता है ना कि आप पीछे जाने के बारे में सोचें.

– आप हमेशा सकारात्मक सोच सकते हैं , सकारात्मक सोच आपको सेहतमंद रखेगा .

#coronavirus: फसल कटाई की बाट जोहते किसान

कृषि की बात करें तो तो देश में हरियाणा पंजाब राज्यों का नाम प्राथमिकता पर आता है. इन प्रदेशों में बड़े पैमाने पर आधुनिक तौर-तरीकों से खेती की जाती है . कृषि यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है और इन्हीं राज्यों में अनेक तरह के कृषि यंत्र भी बनाए भी जाते हैं ,जिनकी डिमांड देश के कोने कोने में है .अनेक नामीगिरामी कृषि यंत्र बनाने वाली कंपनियां यहां मौजूद हैं . लेकिन आज कोरोना की दहशत के चलते कृषि यंत्र जहां के तहां खड़े है.

देश में कृषि यंत्रों का इस्तेमाल खेत तैयार करने से लेकर फसल कटाई व गहाई और उसके स्टोरेज तक होता है .रबी की खास फसलें कटाई के मुहाने पर खड़ी है जिनमें गेहूं की खास फसल है.आपने देखा होगा कि पंजाब और हरियाणा से आने वाले अनेक रास्तों पर इन दिनों हार्वेस्टरों की आवाजाही शुरू हो जाती थी, लेकिन इस बार ऐसा नहीं दिख रहा. ज्यादातर हार्वेस्टरों के अगले हिस्से पर एक मोटरसाइकिल भी बंधी होती थी, जिसका इस्तेमाल वह जरूरत के समय या यंत्र में कुछ खराबी आने पर कहीं जाना पड़े , उसके लिए करते हैं . लेकिन इन दिनों सब तरफ अजीब सी खामोशी है सब कुछ शांत है सिवाय अस्पतालों में हलचल के . कोई आवाजाही नहीं , सब तरफ खामोशी , अजीब सा माहौल .किसान इस चिंता में है कि उसकी फसल की कटाई कैसे होगी.

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.इन कृषि यंत्रों के समय पर ना पहुंचने पर किसानों को चिंता सता रही है कि फसलों की कटाई समय से कैसे होगी. मजदूर भी खेत काटने को नहीं हैं. किसान की चिंता भी जायज है क्योंकि फसल को पकने के बाद समय से काटना भी जरूरी है ,नहीं तो सारी फसल चौपट हो सकती है .कृषि यंत्र तो आज नहीं तो कल बिक जाएंगे, लेकिन किसान की खड़ी फसल खेत में बर्बाद हुई तो उसका क्या होगा उसकी तो पूरी छमाही की कमाई डूब जाएगी .

वैसे समयसमय पर ऐसी आपदा आने पर किसानों को सरकारी मदद भी दी जाती है लेकिन वह मदद ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होती है. कई बार यह मदद किसान तक पहुंच ही नहीं पाती. किसानों के लिए सरकार ने बीमा कंपनियों को भी उतार रखा है लेकिन उसमें भी बीमा कंपनियां ही फायदे में रहती हैं. बीमा का फायदा केवल उन्हीं किसानों को मिलता है जिन्होंने अपनी फसल का बीमा कराया होता है . ज्यादातर किसान अपनी फसल का बीमा नहीं कराते ,जो किसान फसल बीमा कराते भी हैं तो उनको अपनी फसल खराब होने पर यह साबित करना भी कठिन हो जाता है कि उनका कितना नुकसान हुआ है.

क्या कहते हैं कृषि यंत्र निर्माता : हरियाणा के करनाल जिले में लगभग सवा सौ छोटे-बड़े कृषि यंत्र निर्माता हैं ,जिनमें कुछ तो कृषि यंत्र बनाते हैं, कुछ इन कृषि यंत्रों के पार्ट्स बनाते हैं. देश के अनेक हिस्सों में इनके द्वारा कृषि यंत्रों की सप्लाई होती है. लेकिन आज के हालात को देखते हुए लगता नहीं कि जल्दी ही सब कुछ ठीक होगा और किसानों के अच्छे दिन आएंगे.करनाल इंप्लीमेंट्स मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन के महासचिव भावुक मेहता का कहना है कि इस समय दुनिया में भय जैसा माहौल है , सभी लोग चिंता में हैं, चाहे वह किसान हैं या कृषि यंत्र बनाने वाले लोग.

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अनेक कृषि यंत्र निर्माताओं का कहना है कि देश विदेशों से मशीनों के लिए जो आर्डर मिलते थे उनमें भी खासी कमी आई है .हरभजन सिंह मलिक सुपर एग्रीकल्चर करनाल का कहना है कि इस समय कृषि यंत्रों की खासी डिमांड होती थी , लेकिन अब ऐसा नहीं है गिरावट ही गिरावट के आसार लग रहे हैं.
झज्जर के कृषि यंत्र बेचने वाले हैं महेश एग्रो ने बताया कि इस समय सब कुछ बंद होने के कारण सारा काम बंद है जो हमारे पास माल पड़ा है उसके भी ग्राहक नहीं है .

नेशनल एग्रो इंडस्ट्रीज में बातचीत में बताया कि अभी तो सब कुछ ही बंद है हम किसानों तक मशीन पहुंचाएं भी तो कैसे अब तो यह आने वाला समय ही बताएगा कि कौन कहां किस किस स्थिति में पहुंचता है. कुल मिलाकर देखा जाए तो इसका खामियाजा भुगतेंगे तो सभी लेकिन किसानों को ज्यादा भुगतान होगा क्योंकि उसकी सारी उम्मीद फसल पर ही टिकी होती हैं, उसी के भरोसे वह बच्चों के शादीब्याह, साहूकार का कर्ज, लोगों की देनदारी निपटाता है. लेकिन अब तो उसे यही चिंता सताए जा रही है कि वह मौसम के प्रकोप से और इस समय आई आपदा के कैसे निपटे ? – भानु प्रकाश राणा

कचरा

पड़ोस में रहने वाली 11वीं की छात्रा अनामिका अचानक पास आई और बोली, ‘‘अंकल, कचरा पर हिंदी में निबंध लिख दीजिए, 3 दिन बाद मेरा पेपर है. स्कूल की मैडम ने अचानक बताया कि इस बार सफाई अभियान पूरे देश में जोरों से चल रहा है, इसलिए कचरा पर निबंध आ सकता है. वैसे होली, दीवाली, पर्यावरण पर निबंध याद कर लिए हैं. यदि कचरा पर निबंध आया तो मैं फंस जाऊंगी.’’

11वीं की इस मेधावी चालबाज छात्रा की बुद्धि के सामने हम ने आत्मसमर्पण कर दिया. मम्मी से आंख कभी मिली नहीं फिर भी कसम की आड़ में फंसा कर काम कराने की ट्रिक बड़ी लाजवाब लगी. फिर कसम तो कसम है, फर्ज निभाना जरूरी हो जाता है. फिर पेपर जांचने वाला पढ़ कर कहां जांचता है. बस, पेज गिने और नंबर दिए. वैसे भी अब प्रतिभा की कीमत कहां होती है, विश्वविद्यालय की हर मुंडेर पर पीएचडी डिगरीधारी चीलकौवे की तरह आसानी से बैठे मिल जाएंगे. अब सरस्वतीपुत्र बन ज्ञानपिपासु बुद्धिजीवी कोई नहीं बनना चाहता है. अब तो सब डिगरी के भरोसे ज्ञान की दुकान चलाना चाहते हैं. अब ज्ञान की तलाश में भटकना बेवकूफी वाली बात है. कभी राहुल सांकृत्यायन ज्ञानपिपासु ऐसा दीवाना था कि तिब्बत से खच्चर पर पोथियां लाद कर भारत लाया मगर अफसोस, अब तक अर्थ निकालने का समय नहीं मिला. ज्ञान के मामले में भी आलसी है.

शौर्टकट से मंजिल पाने की हवस ने शिक्षा संस्कृति को रौंद डाला है. खैर, हम तोपचंद बंदूकचंद तो हैं नहीं, साहित्य में चिड़ीमार जैसी अपनी हैसियत है. इसलिए जैसा बना वैसा लिखा, कुछ इस तरह : मैं कचरा हूं, घृणास्पद रस से भीगा हूं मगर सिकंदर महान से ज्यादा महान हूं. मेरा साम्राज्य चारों दिशाओं में फैला है. चीन की दीवार से मलाया, नेपाल, लंका, पैरिस के एफिल टावर से अमेरिका के व्हाइट हाउस, टोक्यो से कनाडा, स्विट्जरलैंड तक, भारत में कन्याकुमारी से महानदी के कछार तक फैला हूं. इतना ही नहीं ईरान, इराक जैसे सभी अरब देशों में बराबर मेरा हक बना हुआ है. दूरदूर तक मेरा साम्राज्य फैला है. हिमालय की गोद से अंटार्कटिका हिम तक फैला हूं. मंगल ग्रह में मेरा शीघ्र प्रवेश होगा क्योंकि जो पहुंचेगा कचरा छोड़ कर ही वापस आएगा. इस तरह सिकंदर का व्यक्तित्व एवं साम्राज्य मेरे सामने बौना है, इसलिए सिकंदर से ज्यादा महान मैं हूं. वास्तव में यत्र तत्र सर्वत्र हूं इसलिए ईश्वर भी हूं.

हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, बौद्ध, सिख, दलित, महाजन, ब्राह्मण, अमीरगरीब, अंधा, लंगड़ा, बहरा, खोटाखरा, संत, चोर, सिपाही सभी घरों में मेरा बसेरा है. आज हालत यह है कि बिन कचरा सब सून अर्थात सभी घरों में मेरा अस्तित्व कायम है. वास्तव में संविधान में जिस धर्मनिरपेक्षता की बात कही गई है उस में खरा मैं उतरता हूं. इसलिए प्योर धर्मनिरपेक्ष हूं. हर जात में दूध में पानी की तरह मिला हूं. हर रंग वाले से रिश्ता बराबर का है अर्थात हर जात के घर हर रंग कलवा, भैरवा, श्याम, श्वेत, गौर वाले के घर में मेरा अस्तित्व रहता है. इस तरह जातिभेद एवं रंगभेद का विद्रोही हूं.

भ्रष्टाचार के जनक नेताओं के घर में, कुबेरपतियों, हीरोइन एवं कर्कशा रोल निभाने वाली खलनायिका के घर में भी मेरा निवास है. मुझ से प्रेम करने के बाद ही मुक्ति मिलती है. प्रेम में पड़ कर मुझे निष्कासित कर सब प्रसन्न होते हैं परंतु फिर भी नजात कहां मिलती है. दूसरे दिन मेरा शबाब फिर निखर आता है. प्राकृतिक आपदा भूकंप, बाढ़ के समय तो मेरा शबाब पूरे उफान पर रहता है. सच कहूं तो विश्व सुंदरी जैसा ही कोई खिताब पाने का हकदार हूं. यह दीगर बात है कि अब तक मिला नहीं है. मेरा शबाब तो सदाबहारी है, हर काल में, हर मौसम में मेरा शबाब ताजातरीन रहता है. कचरे के ढेर के नीचे बड़ी से बड़ी इमारत समा जाती है. मेरा जैसा शबाब किसी के पास नहीं है. मेरा शबाब इतना बिखरा एवं बड़ा है कि कैटरीना कैफ, करीना खान, ऐश्वर्या राय, हेमा मालिनी, रेखा मिल कर भी मुकाबला नहीं कर सकती हैं.

लिव औफ रिलेशनशिप एवं किस औफ लव के दीवाने अपनी मुहब्बत का आदर करते हुए कम लागत में कचरा से ताजमहल बना कर अपनीअपनी माशूका को इनाम में दे सकते हैं. लाखों टन कचरे का इस्तेमाल कर मुहब्बत की इमारत बना सकते हैं. हर शहर ताजमहल से आबाद हो जाए, कचरा इतना ज्यादा है-चाहें तो आशिक एवं माशूक अपना मकबरा भी आसानी से बना सकते हैं. मेरे जेहन में जब से प्लास्टिक घुसा है, मैं अजरअमर हो गया हूं. इतना मजबूत बन गया हूं कि पूछो मत, क्योंकि प्लास्टिक युगोंयुगों तक नष्ट नहीं होता है. ऐसी मान्यता है कि वह जलने के बाद भी अधमराभर होता है. वास्तव में मैं अनीश्वर हूं, कभी न नष्ट होने वाला काल हूं.

भारत का हर शहर तंग गलियों से बना है. इन को नापतेनापते चलें तो मोहनजोदड़ो तक पहुंच जाएं, ऐसा गजब का मायाजाल गलियों का है. इन के पिछवाड़ों में कचरों के ऐसे ढेर मिलते हैं जैसे दीवानेखास हों. कितना भी होशियार आदमी संभल कर चले, मेरे जुल्मोसितम से नहीं बच पाता है. प्रसादस्वरूप पांवों में अपना निशान बना ही देता हूं तो हवा में भी मेरा बोलबाला है. मैं कचरा महीन कण वाली धूल बन फिजा में इस कदर फैल गया हूं कि आदमी सांस ले तो मरे, न ले तो मरे, गाडि़यों के धुएं, राइस मिल, कारखानों की चिमनियों के धुएं में भी मैं समाहित हूं. सारा वातावर इतना विषाक्त है कि हर आदमी रोगी बन गया है. जवां मर्द चेहरा भी घायल हो शायर जफर की तरह बूढ़ी शक्ल में दिखता है. मेकअप की बदौलत कमसिन बाला नूरजहां बन घर से निकलती है मगर मंजिल पर पहुंचने तक पूरी उमराव जान बन जाती है.

वैसे मेरा नाम कचरा बहुत गिरा हुआ नाम है मगर रंगरूप ओजस्वी है. हर शहर, हर गांव के तालाब, नदी के पानी को रंग बदरंग कर दिया है. यहां तक कि गंगा, यमुना, कावेरी जैसी नदियां अपने मोक्ष के लिए तड़पतड़प कर जी रही हैं, मेरी मार से कोई बच नहीं पा रहा है. सगुणधारी हो, निर्गुणधारी हो, आस्तिक हो या नास्तिक, अपनेअपने तथाकथित ईश्वर की पूजा के पहले मेरी आराधना करना अनिवार्य मानता है अर्थात सुबहशाम झाड़ू के जरिए साफ करने की आराधना. यह पूजनधर्म निर्बाध गति से चलता है क्योंकि दूसरे दिन फिर कचरा बन सामने आता हूं. मेरी आराधना प्रतिदिन करना अनिवार्य है एवं मजबूरी है. न करे तो घर गर्द में तबदील हो जाए.

मुरदा शरीर को दफनाया या जलाया जाता है, यहां भी राख एवं खाक रूप में कचरा ही बन जाता है क्योंकि कचरा समझ कर सारी क्रियाएं चलती हैं. मोहमाया समाप्त हो जाती है, अब जिंदा आदमियों के लिए मुरदा शरीर कचरा ही तो रहता है. इसलिए उस से सारा नाता तोड़ लेना चाहता है. प्रेम का अंत करता है, इसलिए इसे नश्वर शरीर कहा है, नश्वर अर्थात कचरा. विकास का एक शूरवीर योद्धा, राजनीति का आका दिल्ली का नया इमाम बना है. मेरे खिलाफ सफाई अभियान चला कर जंग छेड़ दी है. कचरा को इकट्ठा कर दूसरी खाली जगह को भरा जाता है जिसे डंप करना कहते हैं. मैं स्थान परिवर्तन कर जिंदा रहता हूं, मेरा वजूद मरता नहीं है. जबजब क्रांति एवं वोट के जरिए बदलाव होता है तो लगता है अच्छे दिन आ गए पर आते कहां हैं. फिर वही कहने को मजबूर हो जाते हैं :

‘हर शाख पे उल्लू बैठा है
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा.’

हम गंदगी में जीने के आदी हैं और कचरा फैलाने में बेशर्म. कुछ समय के लिए दिल और सोच बदलते हैं बाद में फिर पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं. अभी के सफाई अभियान में मीडिया ने खबर एवं फोटो खिंचवाने तक किरदार निभाए और चलते बने. हम लोकतंत्र पर आस्था रखते हैं मगर दिखावे के लिए देशभक्त बनते हैं. चाट ठेला के पास शान से चाट चट कर जाते हैं. गोलगप्पे का आनंद बेरहमी से लूटते हैं और झूठा डोना सड़क पर फेंक कर गौरवान्वित होते हैं. पड़ोसी अपना कचरा सामने के घर के पास फेंक कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. मैट्रो के विकास की तमन्ना पाले हैं, मगर साधारण रेल के डब्बे में जा कर देखिए, कचरा का शेयर मार्केट हमेशा चढ़ाव पर दिखता है.

इस तरह मानवीय कृत्य से मेरा शृंगार सामान बढ़ता जाता है. यहां का आदमी खाने में अघोरी, कचरा फैलाने में पूरा अवधूत है.  आंख वाले हो कर भी अंधे बन कर अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह बन जाते हैं. प्रधानमंत्री ने सफाई अभियान का आह्वान क्या किया कि प्रशासनिक अफसर व कर्मचारियों को अपने शौर्य प्रदर्शन का मौका मिल गया. खिलाड़ी, नेता, अभिनेता के अलावा संत भी जुड़ गए. जिसे देखो वही जनसेवक का रोल निभाने चला आ रहा है. चार दिन के जश्ने बहारां रस्म के जरिए लोकतंत्र की शुद्धीकरण करना चाहते हैं. फिर एक दिन कुरबानी से कहां आजादी मिलती है. सारे देश में ऐसी गरम हवा चल रही है जहां आदमीयत के सारे आचरण जल गए हैं. अब इस के आगे हमारी सोच थक गई, कचरा निबध का समापन किया और अनामिका को सौंप दिया.

नव प्रभात: भाग 1

‘‘कहां मर गई हो, कितनी देर से आवाज लगा रहा हूं. जिंदा भी हो या मर गईं?’’ रघुवीर भैया एक ही गति से निरंतर चिल्ला रहे थे.

‘‘क्या चाहिए आप को?’’ गीले हाथ पोंछते हुए इंदु कमरे में आ कर बोली.

‘‘मेरी जुराबें कहां हैं? सोचा था, पढ़ीलिखी बीवी घर भी संभालेगी और मेरी सेवा भी करेगी, लेकिन यहां तो महारानीजी के नखरे ही पूरे नहीं होते. सुबह से साजशृंगार यों शुरू होता है जैसे किसी कोठे पर बैठने जा रही हो,’’ कितनी देर तक भुनभुनाते रहे.

थोड़ी देर बाद फिर चीखे, ‘‘नाश्ता तैयार है कि होटल से मंगवाऊं?’’

इंदु गरमगरम परांठे ले आई. तभी ऐसा लगा, जैसे कोई चीज उन्होंने दीवार पर दे मारी हो. शायद कांच की प्लेट थी.

‘‘पूरी नमक की थैली उड़ेल दी है परांठे में. आदमी भूखा चला  जाए तो ठूंसठूंस कर खाएगी खुद.’’

‘‘अच्छा, सादा परांठा ले आती हूं,’’ इंदु की आवाज में कंपन था.

‘‘नहीं चाहिए, कुछ नहीं चाहिए. अब शाम को मैं इस घर में आऊंगा ही नहीं.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हैं आप? यों भूखे घर से जाएंगे तो मेरे गले से तो एक निवाला भी नहीं उतरेगा.’’

‘‘मरो जा कर,’’ उन्होंने तमाचा इंदु के गाल पर रसीद कर दिया और पिछवाड़े का दरवाजा खोल कर गाड़ी यों स्टार्ट की जैसे किसी जंग पर जाना हो. ऐसे मौके पर अकसर वे गाड़ी तेज गति से ही चलाते थे.

अम्माजी सहित पूरा परिवार सिमट आया था आंगन में. नन्हा सौरभ मेरे पल्लू से मुंह छिपाए खड़ा था. अकसर रघुवीर भैया की चीखें सुन कर परिवार के सदस्य तो क्या, आसपड़ोस के लोग भी जमा हो जाते. पर क्या मजाल जो कोई एक शब्द भी कह जाए.

एक बार फिर आशान्वित नजरों से मैं ने दिवाकर की ओर देखा था. शायद कुछ कहें. पर नहीं, अपमान का घूंट पीना उन्हें भली प्रकार आता था. उधर, अम्माजी को देख कर यों लगता जैसे तिरस्कृत होने के लिए यह बेटा पैदा किया था.

चिढ़ कर मैं ने ही मौन तोड़ा, ‘‘एक दिन आप का भाई उस भोलीभाली लड़की को जान से मार डालेगा लेकिन आप लोग कुछ मत कहिएगा? न जाने इतना अन्याय क्यों सहा जाता है इस घर में?’’

क्रोध से मेरी आवाज कांप रही थी. उधर, इंदु सिसक रही थी. मैं सोचने लगी, अब शाम तक यों ही वह भूखीप्यासी अपने कमरे में लेटी रहेगी. और रघुवीर भैया शाम को लौटेंगे जैसे कुछ हुआ ही न हो.

एक बार मन में आया, उस के कमरे में जा कर प्यार से उस का माथा चूम लूं, सहानुभूति के चंद बोल आहत मन को शांत करते हैं. पर इंदु जैसी स्वाभिमानी स्त्री को यह सब नहीं भाता था. होंठ सी कर मंदमंद मुसकराते रहना उस का स्वभाव ही बन गया था. क्या मजाल जो रघु भैया के विरोध में कोई कुछ कह जाए.

ब्याह कर के जब घर में आई थी तो बड़ा ही अजीब सा माहौल देखा था मैं ने. रघुवीर भैया और दिवाकर दोनों जुड़वां भाई थे, पर कुछ पलों के अंतराल ने दिवाकर को बड़े भाई का दरजा दिलवा दिया था. शांत, सौम्य और गंभीर स्वभाव के कारण ही दिवाकर काफी आकर्षक दिखाई देते थे.

उधर, रघुवीर उग्र स्वभाव के थे. कोई कार्य तो क्या, शायद पत्ता भी उन की इच्छा के विरुद्ध हिल जाता तो यों आंखें फाड़ कर चीखते मानो पूरी दुनिया के स्वामी हों. अम्माजी और दिवाकर उन्हें नन्हे बालक के समान पुचकारते, सफाई देते, लेकिन वे तो जैसे ठान ही चुके होते थे कि सामने वाले का अनादर करना है.

अम्माजी तब अपने कमरे में सिमट जाया करती थीं और बदहवास से दिवाकर घर छोड़ कर बाहर चले जाते. मैं अपने कमरे में कितनी देर तक थरथर कांपती रहती थी. उस समय क्रोध अपने पति और अम्माजी पर ही आता था, जिन्होंने उन पर अंकुश नहीं रखा था. तभी तो बेलगाम घोडे़ की तरह सरपट भागते जाते थे.

एक दिन मैं ने दिवाकर से खूब झगड़ा किया था. खूब बुराभला कहा था रघु भैया को. दिवाकर शांत रहे थे. गंभीर मुखमुद्रा लिए अपने चेहरे पर मुसकान बिखेर कर बोले, ‘‘शालू, रघु की जगह अगर तुम्हारा भाई होता तो तुम क्या करतीं? क्या ऐसे ही

कोसतीं उसे?’’

‘‘सच बताऊं, मैं उस से संबंधविच्छेद ही कर लेती. हमारे परिवार में बच्चों को ऐसे संस्कार दिए जाते हैं कि वे बड़ों का अनादर कर ही नहीं सकते,’’ क्रोध के आवेग में बहुतकुछ कह गई थी. जब चित्त थोड़ा शांत हुआ तो खुद को समझाने बैठ गई कि मेरे पति भी इसी परिवार के हैं, कभी दुख नहीं पहुंचाया उन्होंने किसी को. फिर रघु भैया का व्यवहार ऐसा क्यों है?

एक दिन, अम्माजी ने अखबार रद्दी वाले को बेच दिए थे. रघु भैया को किसी खास दिन का अखबार चाहिए था. टूट पड़े अम्माजी पर. दिवाकर ने उन्हें शांत करते हुए कहा, ‘आज ही दफ्तर की लाइब्रेरी से तुम्हें अखबार ला दूंगा.’

पर रघु भैया की जबान एक बार लपलपाती तो उसे शांत करना आसान नहीं होता था. गालियों की बौछार कर दी अम्मा पर. वे पछाड़ खा कर गिर पड़ी थीं.

दिवाकर अखबार लेने चले गए और मैं डाक्टर को ले आई थी. तब तक रघु भैया घर से जा चुके थे. डाक्टर अम्माजी को दवा दे कर जा चुके थे. मैं उन के सिरहाने बैठी अतीत की स्मृतियों में खोती चली गई. कैसे हृदयविहीन व्यक्ति हैं ये? संबंधों की गरिमा भी नहीं पहचानते.

दिन बीतते गए. रघु भैया के विवाह के लिए अम्माजी और दिवाकर चिंतित थे. दिवाकर अपने भाई के लिए संपन्न घराने की सुंदर व सुशिक्षित कन्या चाहते थे. अम्माजी चाह रही थीं, मैं अपने मायके की ही कोई लड़की यहां ले आऊं. पर मुझे तो रघु भैया का स्वभाव कभी भाया ही नहीं था. जानबूझ कर दलदल में कौन फंसे.

एक दिन दिवाकर मुझ से बोले, ‘शालू, रघु के लिए कोई लड़की देखो.’

मैं विस्मय से उन का चेहरा निहारने लगी थी.  समझ नहीं पा रही थी, वे वास्तव में गंभीर हैं या यों ही मजाक कर रहे हैं. रघु भैया के स्वभाव से तो वही स्त्री सामंजस्य स्थापित कर सकती थी जिस में समझौते व संयम की भावना कूटकूट कर भरी हो. घर हो या बाहर, आपा खोते एक पल भी नहीं लगता था उन्हें. मैं हलकेफुलके अंदाज में बोली, ‘ब्याह भले कराओ देवरजी का पर उस स्थिति की भी कल्पना की है तुम ने कभी, जब वे पूरे वातावरण को युद्धभूमि में बदल देते हैं. मैं तो डर कर तुम्हारी शरण में आ जाती हूं पर उस गरीब का क्या होगा?’

नव प्रभात: भाग 2

मैं ने बात सहज ढंग से कही थी पर दिवाकर गंभीर थे. मेरे दृष्टिकोण का मानदंड चाहे जो भी हो पर दिवाकर के तो वे प्रिय भाई थे और अम्माजी के लाड़ले सुपुत्र.

दोनों की दृष्टि में उन का अपराध क्षम्य था. वैसे लड़का सुशिक्षित हो, उच्च पद पर आसीन हो और घराना संपन्न हो तो रिश्तों की कोई कमी नहीं होती. कदकाठी, रूपरंग व आकर्षक व्यक्तित्व के तो वे स्वामी थे ही. मेरठ वाले दुर्गाप्रसाद की बेटी इंदु सभी को बहुत भायी थी.

मैं सोच रही थी, ‘क्या देंगे रघु भैया अपनी अर्धांगिनी को? उन के शब्दकोश में तो सिर्फ कटुबाण हैं, जो सर्पदंश सी पीड़ा ही तो दे सकते हैं. भावों और संवेदनाओं की परिभाषा से कोसों दूर यह व्यक्ति उपेक्षा के नश्तर ही तो चुभो सकता है.’

इंदु को हमारे घर आना था. वह आई भी. 2 भाइयों की एकलौती बहन. इतना दहेज लाई कि अम्माजी पड़ोसिनों को गिनवागिनवा कर थक गई थीं. अपने साथ संस्कारों की अनमोल धरोहर भी वह लाई थी. उस के मृदु स्वभाव ने सब के मन को जीत लिया. मुझे लगा, देवरजी के स्वभाव को बदलने की सामर्थ्य इंदु में है.

विवाह के दूसरे दिन स्वागत समारोह का आयोजन था. दिवाकर की वकालत खूब अच्छी चलती थी. संभ्रांत व आभिजात्य वर्ग में उन का उठनाबैठना था. रघु भैया चार्टर्ड अकाउंटैंट थे. निमंत्रणपत्र बांटे गए थे. ऐसा लग रहा था, जैसे पूरा शहर ही सिमट आया हो.

इंदु को तैयार करने के लिए ब्यूटीशियन को घर पर बुलाया गया था. लोगों का आना शुरू हो गया था. उधर इंदु तैयार नहीं हो पाई थी. रघु भीतर आ गए थे. क्रोध के आवेग से बुरी तरह कांप रहे थे. सामने अम्माजी मिल गईं तो उन्हें ही धर दबोचा, ‘कहां है तुम्हारी बहू? महारानी को तैयार होने में कितने घंटे लगेंगे?’

मैं उन का स्वभाव अच्छी तरह जानती थी, बोली, ‘ब्यूटीशियन अंदर है. बस 5 मिनट में आ जाएगी.’

पर उन्हें इतना धीरज कहां था. आव देखा न ताव, भड़ाक से कमरे का दरवाजा खोल कर अंदर पहुंच गए. शिष्टाचार का कोई नियम उन्हें छू तक नहीं गया था. ब्यूटीशियन को संबोधित कर आंखें तरेरीं, ‘अब जूड़ा नहीं बना, चुटिया बन गई तो कोई आफत नहीं आ जाएगी. गंवारों को समय का ध्यान ही नहीं है. यहां अभी मेहंदी रचाई जा रही है, अलता लग रहा है, वहां लोग आने लगे हैं.’

अपमान और क्षोभ के कारण इंदु के आंसू टपक पड़े थे. वह बुरी तरह कांपने लगी थी. मैं भाग कर दिवाकर को बुला लाई थी. भाई को शांत करते हुए वे बोले, ‘रघु, बाहर चलो. तुम्हारे यहां खड़े रहने से तो और देर हो जाएगी.’

‘मैं आप की तरह नहीं जो बीवी को सिर पर चढ़ा कर रखूं. मेरे मुंह से निकला शब्द पत्थर की लकीर होता है.’

दिवाकर में न जाने कितना धीरज था जो अपने भाई का हर कटु शब्द शिरोधार्य कर लेते थे. मुझे तो रघु भैया किसी मानसिक रोगी से कम नहीं लगते थे.

जैसेतैसे तैयार हो कर नई बहू जनवासे में पहुंच गई. लेकिन ऐसा लग रहा था मानो उस ने उदासी की चादर ओढ़ी हुई हो. बाबुल का अंगना छोड़ कर ससुराल में आते ही पिया ने कैसा स्वागत किया था उस का.

हंसीखुशी के माहौल में सब काम सही तरीके से निबट गए. दूसरे दिन वे दोनों कश्मीर के लिए चल दिए थे. वहां जा कर इंदु ने हमें पत्र लिखा. ऐसा लगा, जैसे अपने मृदु व कोमल स्वभाव से हमसब को अपना बनाना चाह रही हो. शुष्क व कठोर स्वभाव के रघु भैया तो उसे ये औपचारिकताएं सिखाने से रहे. उन्हें तो अपनों को पराया बनाना आता था.

उस दिन रविवार था. हमसब शाम को टीवी पर फिल्म देख रहे थे. दरवाजे की घंटी बजाने का अंदाज रघु भैया का ही था. द्वार पर सचमुच इंदु और रघु भैया ही थे.

इंदु हमारे बीच आ कर बैठ गई. हंसती रही, बताती रही. रघु भैया अपने परिजनों, स्वजनों से सदैव दूर ही छिटके रहते थे.

मैं बारबार इंदु की उदास, सूनी आंखों में कुछ ढूंढ़ने का प्रयास कर रही थी. बात करतेकरते अकसर वह चुप हो जाया करती थी. कभी हंसती, कभी सहम जाती. न जाने किस परेशानी में थी. मुझे कुछ भी कुरेदना अच्छा नहीं लगा था.

दूसरे दिन से इंदु ने घर के कामकाज का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया था. मेरे हर काम में हाथ बंटाती. अम्माजी की सेवा में आनंद मिलता था उसे. रघु भैया के मुख से बात निकलती भी न थी कि इंदु फौरन हर काम कर देती.

एक बात विचारणीय थी कि पति के रौद्र रूप से घबरा कर वह उस के पास पलभर भी नहीं बैठती थी. हमारे साथ बैठ कर वह हंसती, बोलती, खुश रहती थी लेकिन पति के सान्निध्य से जैसे उसे वितृष्णा सी होती थी.

कई बार जब पति का तटस्थ व्यवहार देखती तो उन्हें खींच कर सब के बीच लाना चाहती, लेकिन वे नए परिवेश में खुद को ढालने में असमर्थ ही रहते थे.

सुसंस्कृत व प्रतिष्ठित परिवार में पलीबढ़ी औरत इस धुरीविहीन, संस्कारविहीन पुरुष के साथ कैसे रह सकती है, मैं कई बार सोचती थी. इस कापुरुष से उसे घृणा नहीं होती होगी? वैसे उन्हें कापुरुष कहना भी गलत था. कोई सुखद अनुभूति हुई तो जीजान से कुरबान हो गए, मगर दूसरी ओर से थोड़ी लापरवाही हुई या जरा सी भावनात्मक ठेस पहुंची तो मुंह मोड़ लिया.

एक बार दिवाकर दौरे पर गए हुए थे. मैं अपने कमरे में कपड़े संभाल रही थी कि देवरजी की बड़बड़ाहट शुरू हो गई. कुछ ही देर में चिंगारी ने विस्फोट का रूप ले लिया था. उन के रजिस्टर पर मेरा बेटा आड़ीतिरछी रेखाएं खींच आया था. हर समय चाची के कमरे में बैठा रहता था. इंदु को भी तो उस के बिना चैन नहीं था.

‘बेवकूफ ने मेरा रजिस्टर बरबाद कर दिया. गधा कहीं का…अपने कमरे में मरता भी तो नहीं,’ रघु भैया चीखे थे.

इंदु ने एक शब्द भी नहीं कहा था. क्रोध में व्यक्ति शायद विरोध की प्रतीक्षा करता है, तभी तो वार्त्तालाप खिंचता है. आगबबूला हो कर रघु पलंग पर पसर गए.

अचानक पलंग से उठे तो उन्हें चप्पलें नहीं मिलीं. पोंछा लगाते समय रमिया ने शायद पलंग के नीचे खिसका दी थीं. रमिया तो मिली नहीं, सो उन्होंने पीट डाला मेरे बेटे को.

इंदु ने उस के चारों तरफ कवच सा बना डाला, पर वे तो इंदु को ही पीटने पर तुले थे. मैं भाग कर अपने बेटे को ले आई थी. पीठ सहलाती जा रही और सोचती भी  जा रही थी कि क्या सौरभ का अपराध अक्षम्य था. किसी को भी मैं ने कुछ नहीं कहा था. चुपचाप अपने कमरे में बैठी रही.

#coronavirus: कोरोना के कहर में किन्नरों की भूख से मरने कि नौबत

लेखक-   डॉ.ब्रह्मदीप अलूने

किन्नरों कि रंग बिरंगी दुनिया कि पहचान बन चुकी जयपुर की हवेली में खामोशी है. अभावों और तमाम संघर्षों के बाद भी शाम पड़े यह हवेली अल्हड़ और मस्त जीवन का पर्याय बन जाती थी,जहां प्यार,दुलार,स्नेह और दुआओं कि ध्वनियाँ अक्सर सुनाई देती थी,लेकिन कोरोना के संकट से बदली परिस्थितियों अब यह रंगीन माहौल हताशा और निराशा का बाज़ार बन गया है जहां सब कुछ खामोश है और भूख का खौफ निराश आंखों में देखा जा सकता है.

रेल और आवागमन के साधन  थम गए है और इससे किन्नरों कि पेट पालने का एक बड़ा जरिया खत्म हो गया है. सामाजिक उत्सव बंद हो गए है, बधाई और नाज गाना कर अपनी रोजी रोटी कमाने वाले किन्नर हताश है. किन्नर अखाड़े की महामण्ड्लेश्वर पुष्पामाई जयपुर की अपनी संस्था नई भौर के ऑफिस में अनमनी और उदास बैठी है. उनका मन यह सोच कर भारी है कि लॉकडाउन और कर्फ़्यू  में वे अपने समुदाय के लोगो से मिल नही पा रही है.उनकी संस्था को न तो कोई पास दिया गया है और न ही किन्नर समुदाय के पास कोई पहचान पत्र है,जिससे वे शासन  की योजनाओं का लाभ ले सके.उन्होने अपनी चिंता से जिला कलेक्टर को अवगत तो कराया है लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है.

दरअसल देश में सरकारी सहायता हासिल करने के लिए पहचान पत्र जरूरी है और अधिकांश किन्नरों के पास न तो आधार कार्ड है, न वोटर आईडी और न ही बैंक कि पासबुक. देश के अन्य इलाकों कि तरह गुलाबी शहर जयपुर का किन्नर समुदाय कोरोना से उपजे हालात के बीच दहशत में है. मोदी सरकार ने लॉकडाउन और बंद में गरीबों और मजबूरों को व्यापक सहायता कि घोषणा तो कि है लेकिन इसका लाभ किन्नर समुदाय को कैसे मिले यह बड़ा सवाल है,इसका प्रमुख कारण उनके पास पहचान पत्र का न होना है.

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जयपुर में करीब ढाई हजार  किन्नर है जो हिजड़े के तौर पर अपनी पहचान बनाएँ हुए है. ये अपने अपने इलाकों में नाच गाना और अन्य तरीकों से पैसे अर्जित करते है,दूसरों कि दुआ देकर मुस्कुराने वाला यह समाज सीमित आवश्यकताओं कि पूर्ति कर अपना जीवन निर्वहन करता है.इनके साथ ही करीब तीन हजार ट्रांस जेंडर भी है, जो नौकरी पेशा से भी जुड़े हुए है.

पुष्पा गिडवानी इस दर्द को लगातार साझा करती रही है कि किन्नरों के पास खुद का कोई पहचान पत्र नहीं होता और यह बड़ा संकट है जिसकी वजह से लाखों किन्नरों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है.  किन्नर अखाड़े की

महामण्ड्लेश्वर पुष्पा माई किन्नरों के अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष कर रही है. उनके लगातार प्रयासों के बाद 20 अगस्त 2016  को राजस्थान में राजस्थान ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड बना था,इसमें यह तय किया गया था कि ट्रांसजेंडर आईडी बनाएं जाएंगे. इस बोर्ड की सदस्य के अनुसार एक किन्नर को पहले शपथपत्र प्रस्तुत करना होगा, जिसे हर जिले के विशेषज्ञ को देना होगा. कमेटी के कार्यकर्ता पहचान पत्र के लिए फॉर्म उपलब्ध कराएंगे. ये परिचय पत्र जिला कलेक्टर के हस्ताक्षर  से जारी होंगे और इन्हें राष्ट्रीय स्तर पर मान्य किया जायेगा.

ट्रांसजेंडर आईडी मिलने के बाद किन्नरों को बैंक अकाउण्ट खोलने, चिकित्सा सुविधा, और भी कामों में सहूलियत होगी इसके साथ ही  ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड समुदाय से जुड़े अन्य काम जैसे कम्युनिटी हॉल का निर्माण,आवास योजना,बीपीएल कार्ड योजना,पेंशन योजना,शिक्षा,प्रौशिक्षा,सांस्कृतिक,खेलकूद,बच्चे गोद लेने की प्रकिया का सरल बनाना, स्वास्थ्य संबंधित समस्याएं,सेक्स सम्बंधी मामले आदि के लिए भी काम करेगा.यह भी बेहद दिलचस्प है कि राजस्थान में ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड का अध्यक्ष सरकार का नुमाइंदा मंत्री है और वह किन्नर समुदाय से नहीं है. इसका  प्रभाव यह  पड़ा है कि किन्नरों को लेकर बनी योजनाएँ महज कागज और घोषणाओं तक ही सिमट गई है.

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पुष्पा माई का कहना है कि ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड का अध्यक्ष जब तक किसी किन्नर को नही बनाया जाएगा,तब तक किन्नरों कि भलाई नही हो सकती.  कोई किन्नर ही अपने समुदाय के सदस्यों कि समस्याओं को समझ सकता है और उसके समाधान के ईमानदार प्रयास कर सकता है. पुष्पा के प्रयास से राजस्थान में पहली बार एलजीबीटी प्राइड वॉक का आयोजन 2015 से शुरू होकर अब तक चार बार हो चुका है जिसमें पिंक सिटी की सड़कों पर देश विदेश के हजारों लेस्बियन,गे,बाईसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर लोग अपनी एकता दिखाते हुए एक प्राइड वॉक करते है। बहरहाल कोरोना कि दहशत और उससे बचाव में लोगों के दरवाजे बंद है और यह स्थिति किन्नरों के लिए जानलेवा बनती जा रही है.किन्नर सुबह से शाम तक दूसरों को दुआएं दे देकर जो कुछ कमाते है,उससे ही उनका शाम का चूल्हा जलता है. दुनिया में सुख शांति कि दुआएं तो किन्नर अब भी कर रहे है लेकिन कोरोना से बचकर भी वह भूख से कैसे बच पाएंगे,यह सवाल उनकी बैचेनी और परेशानियाँ बढ़ा रहा है.

 

नव प्रभात: भाग 3

पति को शांत कर कुछ समय बाद इंदु मेरे कमरे में आ कर मुझ से क्षमायाचना करने लगी. मैं बुरी तरह उत्तेजित हो चुकी थी. अपनेआप को पूर्णरूप से नियंत्रित करने का प्रयास किया लेकिन असफल ही रही, बोली, ‘देखूंगी, जब अपने बेटे से ऐसा ही व्यवहार करेंगे.’

इंदु दया का पात्र बन कर रह गई. बेचारी और क्या करती. हमेशा की तरह उसे बैठने तक को नहीं कहा था मैं ने.

शाम को अपनी गलती पर परदा डालने के लिए रघु भैया खिलौना बंदूक ले आए थे. सौरभ तो सामान्य हो गया. अपमान की भाषा वह कहां पहचानता था, लेकिन मेरा आहत स्वाभिमान मुझे प्रेरित कर रहा था कि यह बंदूक उस क्रोधी के सामने फेंक दूं और सौरभ को उस की गोद से छीन कर अपने अहं की तुष्टि कर लूं.

लेकिन मर्यादा के अंश सहेजना दिवाकर ने खूब सिखाया था. उस समय अपमान का घूंट पी कर रह गई थी. दूसरे की भावनाओं की कद्र किए बिना अपनी बात पर अड़े रह कर मनुष्य अपने अहंकार की तुष्टि भले ही कर ले लेकिन मधुर संबंध, जो आपसी प्रेम और सद्भाव पर टिके रहते हैं, खुदबखुद समाप्त होते चले जाते हैं.

उस के बाद तो जैसे रोज का नियम बन गया था. इंदु जितना अपमान व आरोप सहती उतनी ही यातनाओं की पुनरावृत्ति अधिक तीव्र होती जाती थी. भावनाओं से छलकती आंखों में एक शून्य को टंगते कितनी बार देखा था मैं ने. प्रतिकार की भाषा वह जानती नहीं थी. पति का विरोध करने के लिए उस के संस्कार उसे अनुमति नहीं देते थे.

उधर, रघु भैया को कई बार रोते हुए देखा मैं ने. इधर इंदु अंतर्मुखी बन बैठी थी. कितनी बार उस की उदास आंखें देख कर लगता जैसे पारिवारिक संबंधों व सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने में असमर्थ हो. 1 वर्ष के विवाहित जीवन में वह सूख कर कांटा हो गई थी. अब तो मां बनने वाली थी. मुझे लगता, उस की संतान अपनी मां को यों तिरस्कृत होते देखेगी तो या स्वयं उस का अपमान करेगी या गुमसुम सी बैठी रहेगी.

एक दिन इंदु की भाभी का पत्र आया. ब्याह के बाद शायद पहली बार वे पति के संग ननद से मिलने आ रही थीं. इंदु पत्र मेरे पास ले आई और बोली, ‘‘भाभी, मेरे भाभी और भैया मुझ से मिलने आ रहे हैं.’’

इंदु का स्वर सुन कर मैं वर्तमान में लौट आई, बोली, ‘‘यह तो बड़ी खुशी की बात है.’’

‘‘आप तो जानती हैं, इन का स्वभाव. बातबात में मुझे अपमानित करते हैं. भाभीभैया को मैं ने कुछ नहीं बताया है आज तक. उन के सामने भी कुछ…’’ उस का गला रुंध गया.

‘‘दोषी कौन है, इंदु? अत्याचार करना अगर जुर्म है तो उसे सहना उस से भी बड़ा अपराध है,’’ मैं ने उसे समझाया. मैं मात्र संवेदना नहीं जताना चाह रही थी, उस का सुप्त विवेक जगाना भी चाह रही थी.

मैं ने आगे कहा, ‘‘पति को सर्वशक्तिमान मान कर, उस के पैरों की जूती बन कर जीवन नहीं काटा जा सकता. पतिपत्नी का व्यवहार मित्रवत हो तभी वे सुखदुख के साथी बन सकते हैं.’’

इंदु अवाक् सी मेरी ओर देखती रही. उस का अर्धसुप्त विवेक जैसे विकल्प ढूंढ़ रहा था. दूसरे दिन सुबह ही उस के भैयाभाभी आए थे. उन का सौम्य, संतुलित व संयमित व्यवहार बरबस ही आकर्षित कर रहा था हमसब को. उपहारों से लदेफदे कभी इंदु को दुलारते, कभी रघु को पुचकारते. कितनी देर तक इंदु को पास बैठा कर उस का हाल पूछते रहे थे.

गांभीर्य की प्रतिमूर्ति इंदु ने उन्हें अपने शब्दों से ही नहीं, हावभाव से भी आश्वस्त किया था कि वह बहुत खुश है. 2 दिन हमारे साथ रह कर अम्माजी व रघुवीर भैया से अनुमति ले कर वे इंदु को अपने साथ ले गए थे.

प्रथम प्रसव था, इसलिए वे इंदु को अपने पास ही रखना चाहते थे. रघुवीर भैया का उन दिनों स्वभाव बदलाबदला सा था. चुप्पी का मानो कवच ओढ़ लिया था उन्होंने. इंदु के जाने के बाद भी वे चुप ही रहे थे.

प्रसव का समय नजदीक आता जा रहा था. हमसब इंदु के लिए चिंतित थे. यदाकदा उस के भाई का फोन आता रहता था. रघुवीर भैया व हम सब से यही कहते कि उस समय वहां हमारा रहना बहुत ही जरूरी है. डाक्टर ने उस की दशा चिंताजनक बताई थी. ऐसा लगता था, रघु इंदु से दो बोल बोलना चाहते थे. उन जैसे आत्मकेंद्रित व्यक्ति के मन में पत्नी के लिए थोड़ाबहुत स्नेह विरह के कारण जाग्रत हुआ था या अपने ही व्यवहार से क्षुब्ध हो कर वे पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहे थे, इस बारे में मैं कुछ समझ नहीं पाई थी.

रघु के साथ मैं व सौरभ इंदु के मायके पहुंचे थे. मां तो इंदु की बचपन में ही चल बसी थीं, भैयाभाभी उस की यों सेवा कर रहे थे, जैसे कोई नाजुक फूल हो.

अवाक् से रघु भैया कभी पत्नी को देखते तो कभी साले व सलहज को. ऐसा स्नेह उन्होंने कभी देखा नहीं था. पिछले वर्ष जब इंदु को पेटदर्द हुआ था तो दवा लाना तो दूर, वे अपने दफ्तर जा कर बैठ गए थे. यहां कभी इंदु को फल काट कर खिलाते तो कभी दवा पिलाने की चेष्टा करते. इंदु स्वयं उन के अप्रत्याशित व्यवहार से अचंभित सी थी.

3 दिन तक प्रसव पीड़ा से छटपटाने के बाद इंदु ने बिटिया को जन्म दिया था. इंदु के भैयाभाभी उस गुडि़या को हर समय संभालते रहते. इधर मैं देख रही थी, रघु भैया के स्वभाव में कुछ परिवर्तन के बाद भी इंदु बुझीबुझी सी ही थी. कम बोलती और कभीकभी ही हंसती. कुछ ही दिनों के बाद इंदु को लिवा ले जाने की बात उठी. इस बीच, रघु एक बार घर भी हो आए थे. पर अचानक इंदु के निर्णय ने सब को चौंका दिया. वह बोली, ‘‘मैं कुछ समय भैयाभाभी के पास रह कर कुछ कोर्स करना चाहती हूं.’’

ऐसा लगा, जैसे दांपत्य के क्लेश और सामाजिक प्रताड़ना के त्रास से अर्धविक्षिप्त होती गई इंदु का मनोबल मानो सुदृढ़ सा हो उठा है. कहीं उस ने रघु भैया से अलग रहने का निर्णय तो नहीं ले लिया?

स्पष्ट ही लग रहा था कि कोर्स का तो मात्र बहाना है, वह हमसब से दूर रहना चाहती है. उधर, रघु भैया बहुत परेशान थे. ऊहापोह की मनोस्थिति में आशंकाओं के नाग फन उठाने लगे थे. इंदु के भैयाभाभी ने निश्चय किया कि पतिपत्नी का निजी मामला आपसी बातचीत से ही सुलझ जाए तो ठीक है.

इंदु कमरे में बेटी के साथ बैठी थी. रघु भैया के शब्दों की स्पष्ट आवाज सुनाई दे रही थी. इंदु से उन्होंने अपने व्यवहार के लिए क्षमायाचना की लेकिन वह फिर भी चुप ही बैठी रही. रघु भैया फिर बोले, ‘‘इंदु, प्यार का मोल मैं ने कभी जाना ही नहीं. यहां तुम्हारे परिवार में आ कर पहली बार जाना कि प्यार, सहानुभूति के मृदु बोल मनुष्य के तनमन को कितनी राहत पहुंचाते हैं.

‘‘उस समय कोई 3 वर्ष के रहे होंगे हम दोनों भाई, जब पिताजी का साया सिर से उठ गया था. उन की मृत्यु से मां विक्षिप्त सी हो उठी थीं. वे घर को पूरी तरह से संभाल नहीं पा रही थीं.  ऐसे समय में रिश्तेदार कितनी मदद करते हैं, यह तुम जान सकती हो.

‘‘मां का पूरा आक्रोश तब मुझ पर उतरता था. मुझे लगता वे मुझ से घृणा करती हैं.’’

‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. कोई मां अपने बेटे से घृणा नहीं कर सकती,’’ इंदु का अस्फुट सा स्वर था.

‘‘बच्चे की स्कूल की फीस न दी जाए, बुखार आने पर दवा न दी जाए, ठंड लगने पर ऊनी वस्त्र न मिलें, तो इस भावना को क्या कहा जाएगा?

‘‘मां ऐसा व्यवहार मुझ से ही करती थीं. दिवाकर का छोटा सा दुख उन्हें आहत करता. उन की भूख से मां की अंतडि़यों में कुलबुलाहट पैदा होती. दिवाकर की छोटी सी छोटी परेशानी भी उन्हें दुख के सागर में उतार देती.’’

‘‘दिवाकर भैया क्या विरोध नहीं करते थे?’’

‘‘इंदु, जब इंसान को अपने पूरे मौलिक अधिकार खुदबखुद मिलते रहते हैं तो शायद दूसरी ओर उस का ध्यान कभी नहीं खिंचता. या हो सकता है, मुझे ही ऐसा महसूस होता हो.’’

‘‘शुरूशुरू में चिड़चिड़ाहट होती, क्षुब्ध हो उठता था मां के इस व्यवहार पर. लेकिन बाद में मैं ने चीख कर, चिल्ला कर अपना आक्रोश प्रकट करना शुरू कर दिया. बच्चे से यदि उस का बचपन छीन लिया जाए तो उस से किसी प्रकार की अपेक्षा करना निरर्थक सा लगता है न?

‘‘हर समय उत्तरदायित्वों का लबादा मुझे ही ओढ़ाया जाता. यह मकान, यह गाड़ी, घर का खर्चा सबकुछ मेरी ही कमाई से खरीदा गया. दिवाकर अपनी मीठी वाणी से हर पल जीतते रहे और मैं कर्कश वाणी से हर पल हारता रहा.

‘‘धीरेधीरे मुझे दूसरों को नीचा दिखाने में आनंद आने लगा. बीमार व्यक्ति को दुत्कारने में सुख की अनुभूति होती. कई बार तुम्हें प्यार करना चाहा भी तो मेरा अहं मेरे आगे आ जाता था. जिस भावना को कभी महसूस नहीं किया, उसे बांट कैसे सकता था. अपनी बच्ची को मैं खूब प्यार दूंगा, विश्वास दूंगा ताकि वह समाज में अच्छा जीवन बिता सके. उसे कलुषित वातावरण से हमेशा दूर रखूंगा. अब घर चलो, इंदु.’’

रघु फूटफूट कर रोने लगे थे. इंदु अब कुछ सहज हो उठी थी. रघु भैया दया के पात्र बन चुके थे. मैं समझ गई थी कि मनुष्य के अंदर का खोखलापन उस के भीतर असुरक्षा की भावना भर देता है. फिर इसी से आत्मविश्वास डगमगाने लगता है. इसीलिए शायद वे उत्तेजित हो उठते थे. इंदु घर लौट आई थी. वह, रघु भैया और उन की छोटी सी गुडि़या बेहद प्रसन्न थे. कई बार मैं सोचती, यदि रघु भैया ने अपने उद्गार लावे के रूप में बाहर न निकाले होते तो यह सुप्त ज्वालामुखी अंदर ही अंदर हमेशा धधकता रहता. फिर विस्फोट हो जाता, कौन जाने?

 

#Lockdown में घर से बाहर निकले सुनील ग्रोवर, पड़े पुलिस के डंडे तो हुआ ऐसा हाल

कोरोना की वजह से पीएम नरेंद्र मोदी ने देश में लॉकडाउन की घोषणा की है. इस घोषणा के बाद से सभी का घर से बाहर निकला बंद है. बॉलीवुड सेलेब्स भी इसे फ़ॉलो कर रहे हैं. कॉमेडियन गुत्थी यानी सुनील ग्रोवर भी लॉकडाउन को फ़ॉलो कर रहे हैं. हालांकि इस बीच भी वह सबको एंटरटेन करना नहीं भूल रहे हैं. अब उन्होंने एक मीम शेयर किया है जो काफ़ी मज़ेदार है. सुनील ने मीम शेयर करते हुए लिखा, हाहाहा.. भगवान के लिए अपने घरों में रहो.

मीम में सुनील ग्रोवर ने दिखाने की कोशिश की है कि कैसे घर से निकलने पर पुलिस पकड़ ले रही है और पिटाई कर रही है.

 

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Ha ha Stay at home for God sake.

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ऋषि कपूर ने किया पीएम मोदी को सपोर्ट…

ऋषि कपूर ने भी पीएम मोदी के इस फैसले का सपोर्ट करते हुए ट्वीट किया, एक सबके लिए, सब एक के लिए. हमें वही करना है जो हमें करना है. हमारे पास कोई ऑप्शन नहीं है. हम एक दूसरे को बिजी रखेंगे और आने वाले समय के लिए बात करते रहेंगे. कोई चिंता की बात नहीं है. आप लोग घबराए नहीं. इसको भी देख लेंगे. पीएम जी चिंता मत करो. हम आपके साथ हैं. जय हिंद.

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अमिताभ बच्चन ने हाथ जोड़कर की अपील…

बिग बी ने अपनी हाथ जोड़ते हुए फोटो के साथ साइड में देश के मैप की फोटो पर ताला लगा है वाली फोटो शेयर की है. फोटो को शेयर करते हुए बिग ही ने लिखा, ‘हाथ हैं जोड़ते विनम्रता से आज हम, सुनें आदेश प्रधान का, सदा तुम और हम. ये बंदिश जो लगी है, जीवदायी बनेगी, 21 दिनों का संकल्प निश्चित कोरोना दफनाएगी.

पीएम मोदी ने क्या अपील की…

पीएम मोदी ने लोगों से अपील करते हुए कहा कि जो जहां हैं, वहीं रहें. यह लॉकडाउन हम सबके भविष्य के लिए बहुत जरूरी है. पीएम मोदी ने लोगों से किसी भी कीमत पर घर के बाहर नहीं निकलने की सलाह दी है.

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