लेखक- डॉ.ब्रह्मदीप अलूने
किन्नरों कि रंग बिरंगी दुनिया कि पहचान बन चुकी जयपुर की हवेली में खामोशी है. अभावों और तमाम संघर्षों के बाद भी शाम पड़े यह हवेली अल्हड़ और मस्त जीवन का पर्याय बन जाती थी,जहां प्यार,दुलार,स्नेह और दुआओं कि ध्वनियाँ अक्सर सुनाई देती थी,लेकिन कोरोना के संकट से बदली परिस्थितियों अब यह रंगीन माहौल हताशा और निराशा का बाज़ार बन गया है जहां सब कुछ खामोश है और भूख का खौफ निराश आंखों में देखा जा सकता है.
रेल और आवागमन के साधन थम गए है और इससे किन्नरों कि पेट पालने का एक बड़ा जरिया खत्म हो गया है. सामाजिक उत्सव बंद हो गए है, बधाई और नाज गाना कर अपनी रोजी रोटी कमाने वाले किन्नर हताश है. किन्नर अखाड़े की महामण्ड्लेश्वर पुष्पामाई जयपुर की अपनी संस्था नई भौर के ऑफिस में अनमनी और उदास बैठी है. उनका मन यह सोच कर भारी है कि लॉकडाउन और कर्फ़्यू में वे अपने समुदाय के लोगो से मिल नही पा रही है.उनकी संस्था को न तो कोई पास दिया गया है और न ही किन्नर समुदाय के पास कोई पहचान पत्र है,जिससे वे शासन की योजनाओं का लाभ ले सके.उन्होने अपनी चिंता से जिला कलेक्टर को अवगत तो कराया है लेकिन समस्या जस की तस बनी हुई है.
दरअसल देश में सरकारी सहायता हासिल करने के लिए पहचान पत्र जरूरी है और अधिकांश किन्नरों के पास न तो आधार कार्ड है, न वोटर आईडी और न ही बैंक कि पासबुक. देश के अन्य इलाकों कि तरह गुलाबी शहर जयपुर का किन्नर समुदाय कोरोना से उपजे हालात के बीच दहशत में है. मोदी सरकार ने लॉकडाउन और बंद में गरीबों और मजबूरों को व्यापक सहायता कि घोषणा तो कि है लेकिन इसका लाभ किन्नर समुदाय को कैसे मिले यह बड़ा सवाल है,इसका प्रमुख कारण उनके पास पहचान पत्र का न होना है.
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