पड़ोस में रहने वाली 11वीं की छात्रा अनामिका अचानक पास आई और बोली, ‘‘अंकल, कचरा पर हिंदी में निबंध लिख दीजिए, 3 दिन बाद मेरा पेपर है. स्कूल की मैडम ने अचानक बताया कि इस बार सफाई अभियान पूरे देश में जोरों से चल रहा है, इसलिए कचरा पर निबंध आ सकता है. वैसे होली, दीवाली, पर्यावरण पर निबंध याद कर लिए हैं. यदि कचरा पर निबंध आया तो मैं फंस जाऊंगी.’’
11वीं की इस मेधावी चालबाज छात्रा की बुद्धि के सामने हम ने आत्मसमर्पण कर दिया. मम्मी से आंख कभी मिली नहीं फिर भी कसम की आड़ में फंसा कर काम कराने की ट्रिक बड़ी लाजवाब लगी. फिर कसम तो कसम है, फर्ज निभाना जरूरी हो जाता है. फिर पेपर जांचने वाला पढ़ कर कहां जांचता है. बस, पेज गिने और नंबर दिए. वैसे भी अब प्रतिभा की कीमत कहां होती है, विश्वविद्यालय की हर मुंडेर पर पीएचडी डिगरीधारी चीलकौवे की तरह आसानी से बैठे मिल जाएंगे. अब सरस्वतीपुत्र बन ज्ञानपिपासु बुद्धिजीवी कोई नहीं बनना चाहता है. अब तो सब डिगरी के भरोसे ज्ञान की दुकान चलाना चाहते हैं. अब ज्ञान की तलाश में भटकना बेवकूफी वाली बात है. कभी राहुल सांकृत्यायन ज्ञानपिपासु ऐसा दीवाना था कि तिब्बत से खच्चर पर पोथियां लाद कर भारत लाया मगर अफसोस, अब तक अर्थ निकालने का समय नहीं मिला. ज्ञान के मामले में भी आलसी है.
शौर्टकट से मंजिल पाने की हवस ने शिक्षा संस्कृति को रौंद डाला है. खैर, हम तोपचंद बंदूकचंद तो हैं नहीं, साहित्य में चिड़ीमार जैसी अपनी हैसियत है. इसलिए जैसा बना वैसा लिखा, कुछ इस तरह : मैं कचरा हूं, घृणास्पद रस से भीगा हूं मगर सिकंदर महान से ज्यादा महान हूं. मेरा साम्राज्य चारों दिशाओं में फैला है. चीन की दीवार से मलाया, नेपाल, लंका, पैरिस के एफिल टावर से अमेरिका के व्हाइट हाउस, टोक्यो से कनाडा, स्विट्जरलैंड तक, भारत में कन्याकुमारी से महानदी के कछार तक फैला हूं. इतना ही नहीं ईरान, इराक जैसे सभी अरब देशों में बराबर मेरा हक बना हुआ है. दूरदूर तक मेरा साम्राज्य फैला है. हिमालय की गोद से अंटार्कटिका हिम तक फैला हूं. मंगल ग्रह में मेरा शीघ्र प्रवेश होगा क्योंकि जो पहुंचेगा कचरा छोड़ कर ही वापस आएगा. इस तरह सिकंदर का व्यक्तित्व एवं साम्राज्य मेरे सामने बौना है, इसलिए सिकंदर से ज्यादा महान मैं हूं. वास्तव में यत्र तत्र सर्वत्र हूं इसलिए ईश्वर भी हूं.
हिंदू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, बौद्ध, सिख, दलित, महाजन, ब्राह्मण, अमीरगरीब, अंधा, लंगड़ा, बहरा, खोटाखरा, संत, चोर, सिपाही सभी घरों में मेरा बसेरा है. आज हालत यह है कि बिन कचरा सब सून अर्थात सभी घरों में मेरा अस्तित्व कायम है. वास्तव में संविधान में जिस धर्मनिरपेक्षता की बात कही गई है उस में खरा मैं उतरता हूं. इसलिए प्योर धर्मनिरपेक्ष हूं. हर जात में दूध में पानी की तरह मिला हूं. हर रंग वाले से रिश्ता बराबर का है अर्थात हर जात के घर हर रंग कलवा, भैरवा, श्याम, श्वेत, गौर वाले के घर में मेरा अस्तित्व रहता है. इस तरह जातिभेद एवं रंगभेद का विद्रोही हूं.
भ्रष्टाचार के जनक नेताओं के घर में, कुबेरपतियों, हीरोइन एवं कर्कशा रोल निभाने वाली खलनायिका के घर में भी मेरा निवास है. मुझ से प्रेम करने के बाद ही मुक्ति मिलती है. प्रेम में पड़ कर मुझे निष्कासित कर सब प्रसन्न होते हैं परंतु फिर भी नजात कहां मिलती है. दूसरे दिन मेरा शबाब फिर निखर आता है. प्राकृतिक आपदा भूकंप, बाढ़ के समय तो मेरा शबाब पूरे उफान पर रहता है. सच कहूं तो विश्व सुंदरी जैसा ही कोई खिताब पाने का हकदार हूं. यह दीगर बात है कि अब तक मिला नहीं है. मेरा शबाब तो सदाबहारी है, हर काल में, हर मौसम में मेरा शबाब ताजातरीन रहता है. कचरे के ढेर के नीचे बड़ी से बड़ी इमारत समा जाती है. मेरा जैसा शबाब किसी के पास नहीं है. मेरा शबाब इतना बिखरा एवं बड़ा है कि कैटरीना कैफ, करीना खान, ऐश्वर्या राय, हेमा मालिनी, रेखा मिल कर भी मुकाबला नहीं कर सकती हैं.
लिव औफ रिलेशनशिप एवं किस औफ लव के दीवाने अपनी मुहब्बत का आदर करते हुए कम लागत में कचरा से ताजमहल बना कर अपनीअपनी माशूका को इनाम में दे सकते हैं. लाखों टन कचरे का इस्तेमाल कर मुहब्बत की इमारत बना सकते हैं. हर शहर ताजमहल से आबाद हो जाए, कचरा इतना ज्यादा है-चाहें तो आशिक एवं माशूक अपना मकबरा भी आसानी से बना सकते हैं. मेरे जेहन में जब से प्लास्टिक घुसा है, मैं अजरअमर हो गया हूं. इतना मजबूत बन गया हूं कि पूछो मत, क्योंकि प्लास्टिक युगोंयुगों तक नष्ट नहीं होता है. ऐसी मान्यता है कि वह जलने के बाद भी अधमराभर होता है. वास्तव में मैं अनीश्वर हूं, कभी न नष्ट होने वाला काल हूं.
भारत का हर शहर तंग गलियों से बना है. इन को नापतेनापते चलें तो मोहनजोदड़ो तक पहुंच जाएं, ऐसा गजब का मायाजाल गलियों का है. इन के पिछवाड़ों में कचरों के ऐसे ढेर मिलते हैं जैसे दीवानेखास हों. कितना भी होशियार आदमी संभल कर चले, मेरे जुल्मोसितम से नहीं बच पाता है. प्रसादस्वरूप पांवों में अपना निशान बना ही देता हूं तो हवा में भी मेरा बोलबाला है. मैं कचरा महीन कण वाली धूल बन फिजा में इस कदर फैल गया हूं कि आदमी सांस ले तो मरे, न ले तो मरे, गाडि़यों के धुएं, राइस मिल, कारखानों की चिमनियों के धुएं में भी मैं समाहित हूं. सारा वातावर इतना विषाक्त है कि हर आदमी रोगी बन गया है. जवां मर्द चेहरा भी घायल हो शायर जफर की तरह बूढ़ी शक्ल में दिखता है. मेकअप की बदौलत कमसिन बाला नूरजहां बन घर से निकलती है मगर मंजिल पर पहुंचने तक पूरी उमराव जान बन जाती है.
वैसे मेरा नाम कचरा बहुत गिरा हुआ नाम है मगर रंगरूप ओजस्वी है. हर शहर, हर गांव के तालाब, नदी के पानी को रंग बदरंग कर दिया है. यहां तक कि गंगा, यमुना, कावेरी जैसी नदियां अपने मोक्ष के लिए तड़पतड़प कर जी रही हैं, मेरी मार से कोई बच नहीं पा रहा है. सगुणधारी हो, निर्गुणधारी हो, आस्तिक हो या नास्तिक, अपनेअपने तथाकथित ईश्वर की पूजा के पहले मेरी आराधना करना अनिवार्य मानता है अर्थात सुबहशाम झाड़ू के जरिए साफ करने की आराधना. यह पूजनधर्म निर्बाध गति से चलता है क्योंकि दूसरे दिन फिर कचरा बन सामने आता हूं. मेरी आराधना प्रतिदिन करना अनिवार्य है एवं मजबूरी है. न करे तो घर गर्द में तबदील हो जाए.
मुरदा शरीर को दफनाया या जलाया जाता है, यहां भी राख एवं खाक रूप में कचरा ही बन जाता है क्योंकि कचरा समझ कर सारी क्रियाएं चलती हैं. मोहमाया समाप्त हो जाती है, अब जिंदा आदमियों के लिए मुरदा शरीर कचरा ही तो रहता है. इसलिए उस से सारा नाता तोड़ लेना चाहता है. प्रेम का अंत करता है, इसलिए इसे नश्वर शरीर कहा है, नश्वर अर्थात कचरा. विकास का एक शूरवीर योद्धा, राजनीति का आका दिल्ली का नया इमाम बना है. मेरे खिलाफ सफाई अभियान चला कर जंग छेड़ दी है. कचरा को इकट्ठा कर दूसरी खाली जगह को भरा जाता है जिसे डंप करना कहते हैं. मैं स्थान परिवर्तन कर जिंदा रहता हूं, मेरा वजूद मरता नहीं है. जबजब क्रांति एवं वोट के जरिए बदलाव होता है तो लगता है अच्छे दिन आ गए पर आते कहां हैं. फिर वही कहने को मजबूर हो जाते हैं :
‘हर शाख पे उल्लू बैठा है
अंजामे गुलिस्तां क्या होगा.’
हम गंदगी में जीने के आदी हैं और कचरा फैलाने में बेशर्म. कुछ समय के लिए दिल और सोच बदलते हैं बाद में फिर पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं. अभी के सफाई अभियान में मीडिया ने खबर एवं फोटो खिंचवाने तक किरदार निभाए और चलते बने. हम लोकतंत्र पर आस्था रखते हैं मगर दिखावे के लिए देशभक्त बनते हैं. चाट ठेला के पास शान से चाट चट कर जाते हैं. गोलगप्पे का आनंद बेरहमी से लूटते हैं और झूठा डोना सड़क पर फेंक कर गौरवान्वित होते हैं. पड़ोसी अपना कचरा सामने के घर के पास फेंक कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. मैट्रो के विकास की तमन्ना पाले हैं, मगर साधारण रेल के डब्बे में जा कर देखिए, कचरा का शेयर मार्केट हमेशा चढ़ाव पर दिखता है.
इस तरह मानवीय कृत्य से मेरा शृंगार सामान बढ़ता जाता है. यहां का आदमी खाने में अघोरी, कचरा फैलाने में पूरा अवधूत है. आंख वाले हो कर भी अंधे बन कर अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह बन जाते हैं. प्रधानमंत्री ने सफाई अभियान का आह्वान क्या किया कि प्रशासनिक अफसर व कर्मचारियों को अपने शौर्य प्रदर्शन का मौका मिल गया. खिलाड़ी, नेता, अभिनेता के अलावा संत भी जुड़ गए. जिसे देखो वही जनसेवक का रोल निभाने चला आ रहा है. चार दिन के जश्ने बहारां रस्म के जरिए लोकतंत्र की शुद्धीकरण करना चाहते हैं. फिर एक दिन कुरबानी से कहां आजादी मिलती है. सारे देश में ऐसी गरम हवा चल रही है जहां आदमीयत के सारे आचरण जल गए हैं. अब इस के आगे हमारी सोच थक गई, कचरा निबध का समापन किया और अनामिका को सौंप दिया.