38 साला मीरा बाई अलसुबह उठ जाती है , घर के कामकाज करती है , पति और चारों बच्चों का नाश्ता और दोपहर का खाना बनाकर अपनी ड्यूटी बजाने 7 बजे घर से निकल पड़ती है . भोपाल में भी पूरे देश की तरह लाक डाउन है लिहाजा उसे कोई 8 किलोमीटर पैदल ही चलकर जेपी अस्पताल पहुँचना पड़ता है . रास्ते में 2-3 जगह पुलिस बालों से वास्ता पड़ता है जहां औरत होने का फायदा उसे मिलता है , मामूली सी पूछताछ के बाद पुलिस बाले उसे जाने देते हैं . चारों तरफ सन्नाटा है , सूरज की किरणे फूटने लगी हैं , इक्का दुक्का लोग आते जाते दिखते हैं तो मीरा को अच्छा लगता है नहीं तो शहर उसे शमशान सा पिछले एक हफ्ते से उसे लग रहा है .
मीरा उस तबके की है जो आज भी समाज के सबसे पिछड़े और निचले पायदान पर खड़ा है उसकी माँ बाप भी सफाईकर्मी थेऔर ससुराल आई तो यहाँ भी वही माहौल मिला जो उसे उसकी हैसियत का एहसास कराता रहा . कभी उसके कदम तेज हो जाते हैं तो कभी धीमे लेकिन मीरा जल्द अपनी आमद देकर काम पर लग जाना चाहती है .
उसे मालूम है कि जमाने भर का कूड़ा करकट मसलन इंजेक्शन , सुइयां , इस्तेमाल कर फेके गए मास्क , प्लास्टर , खून से सनी पट्टियाँ और हेंड ग्लोब यहाँ तक कि सेनेटरी पेड्स तक उसका इंतजार कर रहे हैं . कोरोना के कहर और कर्फ़्यू के चलते साफ सफाई खासा ज़ोर और ध्यान दिया जा रहा है . उसकी तरह भोपाल के कोई 7 हजार सफाईकर्मियों को अब 12-14 घंटे तक काम करना पड़ रहा है . इसके बाद भी कोई शिकायत आती है तो खिंचाई जमकर होती है.
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