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Crime Story: दहशत का सबब बनी डाटा लीक की आशंका

पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक लड़की ने अपना एक ऐसा सच साझा किया, जिसको पढ़कर या जानकर अब हजारों लोगों की नींद उड़ी हुई है. लड़की ने जो अनुभव साझा किया है वह यह है कि उसने अपने न्यूड्स प्राइवेटली अपने बॉयफ्रेंड को पोस्ट किये थे. बाद में उन दोनों ने ही  इन्हें डिलीट कर दिया, लेकिन उनके डिलीट कर दिये जाने के बाद भी किसी ने उन्हें क्लाउड से निकालकर सार्वजनिक कर दिया. इस दुर्घटना से वह बात सच साबित हो रही है कि एक बार इंटरनेट के माध्यम में कोई चीज पहुंच जाये तो फिर वह कभी खत्म नहीं होती. भले हमें वो न दिखे लेकिन अगर कोई आपराधिक इरादे से इंटरनेट में मौजूद हमारी खुराफातों को ढूंढ़कर सार्वजनिक रूप से हमें बेनकाब कर दे तो इसमें किसी किस्म की अतिश्योक्ति नहीं होगी.

एक मशहूर कहावत है कि जो पकड़ा जाये, उसे ही अपराधी माना जाता है वरना तो हर कोई किसी न किसी रूप में अपराधी ही होता है. इस बात को अगर हम एकांत के सेक्सुअल खुराफातों के दायरे में ले जाकर देखें तो शायद ही कोई ऐसा हो, जिसने कभी न कभी सेक्स संबंधी कोई खुराफात या हरकत न की हो. लेकिन जिस तरह उस लड़की ने बताया कि क्लाउड से डिलीट की गई तस्वीरें निकालकर सार्वजनिक की गई, उससे हर किसी को यह घटना डरा रही है. क्योंकि हर किसी के पास कोई न कोई छिपायी हुई बात है, जिसके अब सार्वजनिक हो जाने के खतरे पैदा हो गये हैं.

Crime Story: अपनी जिद में स्वाह

अगर किसी दिन हममें से हर किसी का कोई टेक्स्ट, चैट, ईमेल, न्यूड, गंदी बात, फेक अकाउंट, गॉसिप, पोर्न हिस्ट्री, कुल मिलाकर सोशल मीडिया पर की गई हर अच्छी व हर खराब बात लीक हो जाये? तो क्या होगा? यह कई लोगों के लिए सार्वजनिक रूप से की गई सोशल आत्महत्या के जैसे होगी. क्योंकि जो कुछ छिपा हुआ है, उसके सामने आ जाने से उनका मौजूदा व्यक्तित्व तहस-नहस हो सकता है. क्योंकि सेक्स के मामले में हमारे यहां जो असहजता है, उसके कारण हम सबको अपनी तमाम जिज्ञासाओं का निदान छुपते छुपाते प्रयोग के तौरपर ढूंढ़ना पड़ता है. कई बार यह प्रयोग इस हद तक बिगड़ जाता है कि उसे जीवनभर दफन करके जीना पड़ता है. अगर वह सार्वजनिक हो जाये तो हमारी मौजूदा छवि टुकड़े टुकड़े हो जाये.

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यही वजह है कि आज की तारीख में पर्सनल डाटा इस कदर सेंसिटिव मुद्दा बन गया है कि हर कोई चाहे वो आम हो या खास इसके लीक हो जाने की आशंका से डरा रहता है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आज की तारीख में हम रोजमर्रा की जिंदगी में इतनी तेज रफ्तार गतिविधियों से गुजरते हैं कि पता ही नहीं चलता कि हम अपने आपको कब जोखिम में डाल लेते हैं. दरअसल आज सरकारी राशन पानी तक के लिए बायोमेट्रिक्स का इस्तेमाल हो रहा है. प्रदर्शनस्थलों पर चेहरा पहचानने वाले कैमरे लगाये जाते हैं. कई बार हमें पता ही नहीं होता, हमें लगता है कि हमें कोई नहीं देख रहा और हम कोई ऐसी हरकत कर बैठते हैं, जिसके सार्वजनिक खुलासे से शर्मसार हो जाएं. लेकिन हमारी इन हरकतों को घटनास्थल पर छिपा सीसीटीवी कैमरा पूरी तरह से रिकाॅर्ड कर लेता है. पिछले सालों में दिल्ली मेट्रो स्टेशनों में ऐसे छिपे सीसीटीवी कैमरों में सैकड़ों ऐसी ही हरकतों को कैद किया था, जिनके खुलासों से हड़कंप मच गई थी. यह अलग बात है कि इन खुलासों में ही धीरे-धीरे मेट्रो स्टेशनों को पल्प फिक्शन के अड्डों में तब्दील होने से बचा लिया.

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डाटा के लीक होने के तमाम रास्ते हैं, खासकर जब हैकर मौजूद हैं, कॉर्पोरेट अपने व्यापार के लिए आपकी जासूसी करा रहे हैं. ऐसे समय में हर किसी को यह चिंता सताती रहती है कि अगर उसका डाटा लीक हो गया तो क्या होगा? जिन लोगों के बारे में हम झूठ बोलते हैं, जिन्हें बेवकूफ बनाते हैं, जिनके साथ हम बेवफाई करते हैं. अगर वे सब सार्वजनिक हो जाएं जिनके होने पर अब कोई बड़ी तकनीकी जटिलता आड़े नहीं आ सकती तो क्या होगा? यह एक ऐसा सवाल है जो डराता है और कई बार डर को दूर भी करता है. समाजशास्त्रियों को आशंका है कि भविष्य में सबसे ज्यादा घर और दिल डाटा ही तोड़ेगा. अच्छे खासे लोगों के बीच ब्रेकअप होंगे, तलाक होंगी, परिवार टूटेंगे, दोस्तियां तहस-नहस होंगी, खुदकुशियां होंगी. यही नहीं इस डर से डाटा रिमूवर का नया कौशल पैदा होगा. यह तमाम लोगों को रोजगार देगा.

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कुल मिलाकर डाटा बड़ी उथल पुथल कर सकता है. यह स्थिति सबसे ज्यादा खतरनाक तो पत्रकारों के लिए होगी. उन्हें दूसरों की अलमारियों के कंकालों को देखने की बजाय अपनी अलमारी के कंकालों को संभालना भारी पड़ेगा. इसी रो में धर्मगुरु भी होंगे. बड़े बड़े मेंटर, प्रशिक्षक टीचर और जहां भी गुरु शिष्य का रिश्ता है, वहां के लोग होंगे. उस दिन हमें पता चल जायेगा कि ऋतिक व कंगना का ब्रेकअप क्यों हुआ, कौन से क्रिकेट मैच फिक्स हुए थे और जब आॅफिस की नजरों में मैं वर्क फ्राॅम होम में व्यस्त था, उस समय मैं वास्तव में किसके साथ डर्टी टाॅक कर रहा था.

कोरोना संकट ने शुरु किया वर्चुअल रैलियों का युग

कोरोना संकट ने सिर्फ कई चीजों को खत्म ही नहीं किया, यह कई नयी चीजों को लेकर भी आया है. इन्हीं में से एक है वर्चुअल रैली. यूं तो वर्चुअल रैली एक तरीके से संचार माध्यमों के जरिये लाइव होना ही है, जो कि हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में पिछले कई सालों से और कई तरीकों से लोग होते रहे हैं. लेकिन 7 जून 2020 को जब गृहमंत्री अमित शाह ने बिहार में वर्चुअल रैली करते हुए आगामी विधानसभा चुनावों का शंखनाद किया तो निश्चित रूप से यह भारत में पहली व्यवस्थित वर्चुअल रैली थी. अमेरिका में बड़े पैमाने पर और यूरोप में कुछ छिटपुट स्तर पर वर्चुअल चुनावी रैलियां होती रही हैं. भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ से लेकर अपने कई दूसरे कार्यक्रमों के जरिये हिंदुस्तान के कोने कोने तक लाइव पहुंचते रहे हैं. मगर जहां तक वर्चुअल रैली का सवाल है तो यह पहली चुनावी रैली है जो विशुद्ध रूप से वर्चुअल तरीके से सम्पन्न हुई.

इस तरह अगर कहा जाए कि भारत में वर्चुअल रैलियों का राजनीतिक युग 7 जून 2020 से शुरु होता है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. यूं तो भाजपा के आईटी सेल ने दावा किया है कि गृहमंत्री अमित शाह की 7 जून की रैली को देश विदेश में 50 लाख से ज्यादा लोगों द्वारा देखा गया. लेकिन फिल्टर आंकड़े बताते हैं कि 50 तो नहीं लेकिन 5 लाख लोगों ने जरूर अमित शाह की रैली को सुना या कहें उन्हें टीवी मोबाइल या ऐसे ही दूसरे संचार माध्यमों के जरिये बोलते हुए देखा और सुना. 5 लाख लोग कम नहीं होते. कुछ गिनी चुनी रैलियों में 5 लाख लोग इकट्ठा होते हैं. भले राजनीतिक पार्टियां अपने छुटभैय्ये नेताओं की रैलियों को भी लाखों लोगों की रैलियां बता दें. इस तरह कहा जा सकता है कि न सिर्फ देश की पहली वर्चुअल रैली धमाकेदार रही बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि अमित शाह ने वर्चुअल स्तर पर सचमुच किसी जन नेता के तौरपर अपना प्रभाव छोड़ा.

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बिहार की इस शुरुआती वर्चुअल रैली के बाद उत्साहित अमित शाह ने ओडीसा और फिर पश्चिम बंगाल को भी वर्चुअल रैली के जरिये संबोधित किया. भाजपा का कहना है कि वह अगले कुछ महीनों में बिहार, पश्चिम बंगाल और उडीसा सहित जिन जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, वहां अपने तमाम नेताओं की 1000 रैलियां आयोजित करेगी. सवाल है क्या पहली दो तीन रैलियों से ही मान लिया जाए कि वर्चुअल रैलियां वास्तविक रैलियों का सम्पूर्ण विकल्प हैं? अगर अब तक की सम्पन्न वर्चुअल रैलियों के प्रभाव को लोगों पर हुए असर के रूप में देखा जाए तो निश्चित रूप से यह कहना अभी पूरी तरह से सही नहीं होगा कि वर्चुअल रैलियां सही मायनों मंे एक्चुअल राजनीतिक रैलियों का विकल्प हैं.

इसकी एक वजह यह है कि भाजपा का आईटी सेल और सोशल मीडिया भले इस बात को जोर शोर से कह रहे हों कि अमित शाह की वर्चुअल रैलियों का लोगों में असर वास्तविक रैलियों से भी ज्यादा हुआ है. लेकिन कई भाजपायी कार्यकर्ता ही, जो इन रैलियों को सुना और कहीं न कहीं इनमें शामिल रहे, वे कहते हैं, ‘वास्तविक रैलियां जीवंत रैलियां होती हैं, उनकी कोई जगह नहीं ले सकता.’ वर्चुअल रैलियां दरअसल हमेशा इस बात का उसमें शामिल लोगों को भी एहसास दिलाती रहती हैं कि ये आभासी रैलियां हैं. सवाल है वर्चुअल रैलियां आखिर हैं क्या? दरअसल वर्चुअल रैलियां जैसा कि हमने पहले भी कहा नेताओं के भाषणों का लाइव प्रसारण जैसा ही कुछ हैं. बस लाइव रैलियों के दौरान नेताओं के इन भाषणों को एक साथ संचार के सभी माध्यमों में प्रसारित कर दिया जाता है. इसमें फेसबुक पेज, यू-ट्यूब और विभिन्न टीवी चैनलों के जरिये प्रसारण भी शामिल होता है.

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सवाल है क्या इस तरह की रैलियां भविष्य के लिए ज्यादा अनुकूल होंगी? सोचने में ऐसा ही लगता है और इसकी एक तात्कालिक वजह कोरोना संकट भी है. कोरोना संक्रमण से पहले कभी लोगों ने नहीं सोचा था कि ऐसा भी कभी हो सकता है कि लोगों का एक साथ इकट्ठा होना संकट का सबब बन जाए. फिलहाल ऐसा ही है और जिस तरह से कोरोना की त्रासदी बड़े आराम से हिंदुस्तान में रूकने का संकेत दे रही है, उससे ये भी हो सकता है कि अब भविष्य में लाखों की तादाद में लोगों का एक साथ कहीं एकत्र होना, कहीं किताबी किस्सा न बन जाए.

सिर्फ इसलिए वर्चुअल रैलियों का भविष्य मजबूत नजर आ रहा है वरना ये किसी भी रैलियांे का वास्तविक विकल्प नहीं हो सकतीं. इसकी कई वजहें हैं पहली बात तो वही कि वास्तविक रैलियों का मजा ही कुछ और होता है. वहां लोगों की नेताओं के साथ जीवंत कैमेस्ट्री देखते ही बनती है. लोग उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ते हैं. जबकि वर्चुअल रैलियां सब कुछ के बावजूद नेताओं से नहीं आपको महज एक स्क्रीन से जोड़ती हैं. दूसरी बात यह है कि वर्चुअल रैलियां बहुत खर्चीली होती हैं. दिखने में भले लगे कि इनमें तमाम खर्चे बच जाते हैं, जो किसी स्टेडियम या बड़े मैदान पर की गई रैली में होते हैं, जैसे लोगों का खाना, रैली स्थल तक पहुंचने का परिवाहन खर्च आदि. लेकिन भले ये खर्च वर्चुअल रैली में न दिखते हों, लेकिन इसके खर्च दूसरी तरह के और काफी ज्यादा हैं. मसलन इसे राजनेताओं द्वारा हजारों जगह एलईडी के जरिये दिखाते हैं, जिसका काफी ज्यादा खर्च आता है. साथ ही अगर इस रैली को कई चैनलों द्वारा प्रसारित कराया जा रहा है तो उसका खर्च भी अच्छा खासा होता है.

कहने का मतलब वर्चुअल रैलियां लागत के मामले में अगर वास्तविक रैलियों से ज्यादा खर्च वाली नहीं होतीं तो कम भी नहीं होतीं. हां, इन रैलियों से व्यस्त नेताओं को ज्यादा से ज्यादा रैलियां संबोधित करने का मौका तो मिल जाता है, साथ ही वास्तविक रूप में वह जहां जहां नहीं पहुंच पाते, इस माध्यम से वे हर छोटी से छोटी जगह पर पहुंच जाते हैं बशर्ते आपके पास पहुंचाने का मजबूत माध्यम हो. वर्चुअल रैलियां कई मायनों में पुराने दौर की रैलियों से बेहतर होंगी तो कई मायनों में ये बदतर भी होंगी. जहां तक बेतहरी का सवाल है उनमें प्वाइंट यही है कि इसके जरिये राजनेता कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा जगहों तक पहुंच सकते हैं. उन्हें अपनी जान को जोखिम में डालकर यात्राएं भी नहीं करनी पड़ेंगी और इन यात्राओं के कारण थकान भी नहीं होगी.

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लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि पहले से ही जीवन में इस कदर तकनीकी का वर्चस्व हो गया है कि हम ज्यादातर जगहों पर सदेह होने की जगह वर्चुअल ही होते हैं. अगर राजनीति में भी यही हुआ, जो कि शुरु हो गया है, तो वर्चुअल दौर की यह राजनीति आज के दौर से भी कम जिम्मेदार होगी. नेता जब लोगों के बीच में होते हैं या उन्हें लोगों के पास जाना होता है, तब तो वे फिर भी ज्यादा आम लोगों के करीब होते हैं और उनकी बात भी सुनते हैं. लेकिन जब उन्हें लोगों से सदेह आमने सामने मुलाकात न करनी हो तो नहीं लगता कि तब वे आज जितने भी जिम्मेदार रहेंगे. वर्चुअल रैली की यह सबसे बड़ी खामी होगी.

सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद अंकिता लोखंडे का हुआ ये हाल, दोस्त ने किया खुलासा

सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद बॉलीवुड और टीवी जगत के लोग सकते में हैं. उनके अचानक दुनिया से चले जाने के बाद फैंस का भी दिल टूट गया है. इन सबके बीच एक टीवी एक्ट्रेस ऐसी भी है जो सुशांत सिंह राजपूत के निधन की खबर सुनकर बुरी तरह से टूट गई हैं. हम बात कर रहे हैं सुशांत सिंह राजपूत की एक्स गर्लफ्रेंड अंकिता लोखंडे (Ankita Lokhande) की.

दोस्त ने किया खुलासा- सदमे में है अकिंता…

इस बात का खुलासा सुशांत सिंह राजपूत के साथ सीरियल ‘पवित्र रिश्ता’ में काम कर चुके एक्टर पराग त्यागी (Parag Tyagi ) ने किया है. एक वेबसाइट से बात करते हुए पराग त्यागी ने बताया कि, ‘मेरी अंकिता लोखंडे से फोन पर बात हुई है. वह सुशांत सिंह राजपूत की मौत की खबर सुनकर खुद को संभाल नहीं पा रही है. उनको सुशांत सिंह राजपूत के देहांत की खबर पर यकीन ही नहीं हो पा रहा है. वो किसी से कुछ नहीं कह पा रही है.

 

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#rheachakraborty reached hospital #sushantsinghrajput #ripsushant #ripsushantsinghrajput

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ऑनस्क्रीन मां का हुआ बुरा हाल…

इतना ही नहीं शो में सुशांत सिंह राजपूत की मां का किरदार निभा चुकी उषा नाडकर्णी का भी रो रो कर बुरा हाल है. स्वाति आनंद से लेकर पवित्र रिश्ता के सभी कलाकार इस खबर को सुनकर हैरान हैं. हम एक दूसरे से बस एक ही सवाल कर रहे हैं कि सुशांत सिंह राजपूत ने ऐसा क्यों किया.’

 

नहीं हो रहा मौत पर यकीन…

पराग त्यागी ने आगे कहा कि उन्हें खुद भी सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर यकीन नहीं हो पा रहा है. सुशांत सिंह राजपूत के बारे में बात करते हुए पराग त्यागी ने कहा कि, सब कुछ तो अच्छा जा रहा था. सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म छिछोरे एक हिट थी. वह अपनी फिल्म दिल बेचारा के लिए काम कर रहा था. सुशांत सिंह राजपूत तुमने ऐसा क्यों किया? मैंने कल ही तो फिल्म दिल बेचारा का टीजर देखा था. फिल्म का टीजर शानदार था.

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बता दें कि बॉलीवुड एक्टर सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) बीते कई महीनों से डिप्रेशन से जंग लड़ रहे थे. डिप्रेशन की वजह से सुशांत सिंह राजपूत इतने परेशान हो गए कि उन्होंने 14 जून की सुबह मुंबई में अपने घर में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. वो सिर्फ 34 साल के थे.

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Hyundai #AllRoundAura: राइड क्वालिटी भी है मजेदार

हुंडई Aura को एक सिटी कार की तरह डिज़ाइन किया गया है. यही वो पहलू है जहां इसका कॉम्पैक्ट रूप और आसान कंट्रोल उभर कर सामने आते हैं. शहर में ड्राइविंग का मतलब है गड्ढों वाली सड़कों से निपटना. हुंडई Aura का सस्पेंशन बड़े से बड़े गड्ढों के झटकों को भी सोख लेता है, जिस से आपको एक शानदार और आरामदायक राइड मिलती है.

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इसकी सबसे अच्छी बात यह है कि हुंडई Aura यह सब बहुत ही कम बॉडी रोल के साथ कर लेती है, ताकि आपको अंदर पूरा आराम मिले. इसके बाद भी आप चाहें तो Aura को खुल कर चला सकते हैं. #AllRoundAura.

गफलत में कांग्रेस सामंत को भेजे या दलित को

अब से 2 महीने पहले तक पेशे से प्रोफेसर डाक्टर सुमेर सिंह सोलंकी को बड़बानी स्थित शहीद भीमा नायक गवर्नमेंट कालेज के उनके छात्र और स्टाफ के लोग ही जानते थे लेकिन जैसे ही भाजपा ने उन्हें राज्यसभा का उम्मीदवार घोषित किया तो इस नए नाम से चौंके लोगों की उत्सुकता और जिज्ञासा उनमें बढ़ी . जन्मपत्री खँगालने पर निष्कर्ष यह निकला कि उनके तार आरएसएस से जुड़े हैं और वे अनुसूचित जाति के यानि दलित हैं जिन्हे राज्यसभा भेजकर भगवा खेमा निमाड मालवा इलाकों में इस समुदाय के वोटों पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है .

इसके लिए उसने कई दिग्गजों को किनारे करते यह जोखिम उठाया है . यह जोखिम दरअसल में एक निवेश भी है जिसका फायदा भगवा खेमा 2023 के विधानसभा चुनाव में तो उठाएगा ही लेकिन कभी भी 24 विधानसभा सीटों पर घोषित होने बाले उपचुनाव में भी गा गाकर कहेगा कि देखो हम दलित पिछड़े यानि बीसीएससी विरोधी नहीं हैं .  इसलिए एक शिक्षित बुद्धिजीवी दलित को पार्लियामेंट भेज रहे हैं जिसका राजनीति से अब तक कोई लेना देना ही नहीं था .

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इसी भगवा खेमे से रोज बड़े दिलचस्प ट्वीट कांग्रेस को लेकर हो रहे हैं कि वह राज्यसभा में बजाय दिग्विजय सिंह को भेजने के दूसरे उम्मीदवार फूल सिंह बरैया को भेजे जो दलित समुदाय के हैं . हालांकि भाजपा से पहले कांग्रेस में ही अंदरूनी तौर पर यह मांग उठने लगी थी जिसे लेकर दिग्गी राजा के नाम से मशहूर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की रातों की नींद और दिन का चैन उड़ा हुआ है .

मध्यप्रदेश में भी 3 दिन बाद 19 जून को राज्यसभा की 3 सीटों के लिए मतदान होना है जिनमें भाजपा की तरफ से हाल ही कांग्रेस छोड़ कर गए ज्योतिरादित्य सिंधिया और सुमेर सिंह का चुना जाना तय है क्योंकि हालफिलहाल मौजूद 206 विधायकों में से भाजपा के खाते में 107 विधायक यानि वोट हैं .  लेकिन कांग्रेस के पास कुल 92 ही हैं ऐसे में वह दिग्विजय सिंह या फूल सिंह में से किसी एक को ही दिल्ली भेज सकती है . कायदे से तो वह एक नाम दिग्विजय सिंह का ही होना चाहिए और है भी लेकिन अब इस पर दलित अस्मिता को लेकर घमासान शुरू हो गया है .

दिग्विजय सिंह हर किसी के निशाने पर हैं और प्रदेश कांग्रेस की कलह ज्यों की त्यों है . उम्मीद थी कि सिंधिया के कांग्रेस छोडने के बाद कांग्रेसी खेमेबाजी खत्म हो जाएगी लेकिन वह और बढ़ रही है . सीधे सीधे कहा जाए तो वर्चस्व की लड़ाई अब दिग्विजय और कमलनाथ खेमों के बीच होने लगी है जिसकी आधिकारिक पुष्टि तब हुई जब कमलनाथ ने यह बयान दिया था कि उनकी सरकार गिरने को लेकर दिग्विजय सिंह ने उन्हें पर्दे में रखा था कि सिंधिया समर्थक 22  विधायक कांग्रेस छोडकर कहीं नहीं जाएंगे

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फिर जो हुआ वह सबने देखा कि कैसे ड्रामों के चलते सरकार गिरी और सबसे ज्यादा किरकिरी कमलनाथ की हुई जो सिंधिया और दिग्विजय के अहम की लड़ाई में वेबजह पिस गए . मुद्दा या विवाद तब भी राज्यसभा था जिसके तहत विधायकों की संख्या के हिसाब से एक सीट ही कांग्रेस को मिल सकती थी दूसरी के लिए उसे काफी जोड़ तोड़ करना पड़ती . दिग्विजय सिंह ने बाजी मार ली तो तिलमिलाए सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ दी . भाजपा ने उन्हें उम्मीदवार बनाकर उनका राज्यसभा में पहुँचना सुनिश्चित कर दिया और मध्यप्रदेश भी हथिया लिया .

न केवल कमलनाथ खेमा बल्कि राज्य के आम लोग भी इस बात को समझते हैं कि 15 साल बाद गिरते पड़ते सत्ता में आई कांग्रेस की सरकार जाने की वजह सिंधिया कम दिग्विजय सिंह ज्यादा हैं .  अगर वे राज्यसभा सीट सिंधिया के लिए छोड़ देते तो यह नौबत नहीं आती . इसके पीछे सियासी पंडितों के ये तर्क बेमानी नहीं थे कि दिग्विजय सिंह खूब सत्ता सुख भोग चुके हैं और आम लोगों में उनकी इमेज इतनी बिगड़ी हुई है कि खुद राहुल गांधी ने उन्हें विधानसभा चुनाव में प्रचार से दूर रहने का हुक्म दिया था . इसका फायदा भी कांग्रेस को मिला था .

लेकिन इसके बाद दिग्विजय ने सत्ता में दखलंदाज़ी शुरू की तो फिर से हाहाकार मचने लगा . आम लोगों के भले के काम तो कम हुये लेकिन तबादला उद्धयोग खूब फला फूला और खासतौर से दिग्विजय समर्थक मंत्रियों और विधायकों ने अपनों को जमकर उपकृत किया जिससे इमेज कमलनाथ की बिगड़ी . तीनों खेमों मे काम काज और वर्चस्व को लेकर तकरार शुरू हुई जिसके टकराव में तब्दील होते ही हाथ आई सत्ता भाजपा की मुट्ठी में चली गई .

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दलीलें दमदार

अब फिर हवा यह बन रही है कि बूढ़े हो चले राजा दिग्विजय सिंह को राज्यसभा भेजने से कांग्रेस को क्या मिलेगा इससे तो बेहतर है कि फूल सिंह को भेजा जाये . इस बाबत दलीलें भी ऐसी ऐसी दी जा रहीं हैं जिन्हें नकारना आसान बात किसी के लिए नहीं है . मसलन अगर फूल सिंह को भेजा गया तो उप चुनावों में कांग्रेस को दलित वोटों का फायदा मिलेगा क्योंकि उपचुनाव बाली 16 सीटें चंबल ग्वालियर संभागों की हैं जहां दलित वोट ही जीत हार तय करता है . एक वक्त में फूल सिंह बसपा में रहते दलितों में गहरी पैठ बना चुके हैं , दूसरे उपचुनाव में कांग्रेस के पास इन इलाकों में कोई वोट कबाड़ू चेहरा नहीं है . फूल सिंह को राज्यसभा भेजने से अगर इस इलाके की 16 में से 10 सीट भी जीत लीं तो भाजपा को लेने के देने पड़ जाएंगे और सिंधिया का प्रभाव भी समेटा जाकर उन्हें सबक सिखाया जा सकता है .

कमलनाथ खेमे की सोच यह भी है कि दिग्विजय को राज्यसभा में जाने से फूल सिंह को ढाल बनाकर रोक लिया जाये तो उनका खेमा कमलनाथ की शरण में आ जाएगा फिर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी उनके खेमे का ही होगा और उपचुनाव टिकिट वितरण में भी वे बाजी मार ले जाएंगे . भाजपा देखा जाए तो लगातार ट्वीट्स और बयानों के जरिए कांगेस को दलित विरोधी साबित करने तुली है कि कभी नेहरू ने भीमराव आंबेडकर को , इन्दिरा ने बाबू जगजीवन राम को और सोनिया गांधी  ने सीताराम केसरी को किनारे किया था अब वैसा ही कुछ छोटे स्तर फूल सिंह को मोहरा बनाकर किया जा रहा है .

बवंडर उम्मीद से कहीं ज्यादा मच चुका है जिसके चलते खासतौर से चंबल ग्वालियर के दलित वोटर भी चाहने लगे हैं कि उनके समुदाय के नेता को राज्यसभा में प्रतिनिधित्व दिया जाए . भिंड के एक दलित नेता की मानें तो फूल सिंह की पकड़ कांशीरम से नज़दीकियों के चलते उत्तरप्रदेश में भी है जिसका फायदा कांग्रेस वहाँ भी उठा सकती है क्योंकि मायावती साहब यानि कांशीरम के उसूलों की भगवा कुंड में खुलेआम आहुती देने लगी हैं जिससे दलित समुदाय हताश हो चला है .  ऐसे में अगर सीनिया , राहुल और प्रियंका चाहें तो समीकरण बादल सकते हैं लेकिन इसके लिए उन्हें जोखिम तो उठाना पड़ेगा .

मध्यप्रदेश राज्यसभा चुनाव दिलचस्प मोड पर है जिसमें एन वक्त पर कुछ भी हो सकता है क्योंकि कांग्रेस के कोई 20 असंतुष्ट विधायक जो किसी गुट में नहीं हैं न तो कमलनाथ से खुश हैं और न ही दिग्विजय सिंह से क्योंकि सवा साल ये मंत्रियों से अपने कामों के लिए उनके बंगलों के चक्कर काटते रहे थे लेकिन मंत्री उन्हें मिलने समय भी नहीं देते थे . इसके बाद भी दिग्विजय इस बात को लेकर बेफिक्र हैं कि आलाकमान यानि सोनिया गांधी उनके साथ हैं इसलिए बहुत ज्यादा विधायक उनके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर पाएंगे .

भारत सरकार द्वारा जनहित में जारी…

जनपरिजन अपने क्षेत्र से जनप्रतिनिधि चुन कर देश की सरकार के गठन में अपना दायित्व पूरा कर देते हैं. सरकार का कर्तव्य है कि वह तमाम सरकारी कामों के साथ देशजनों का हित करे. ऐसी ही व्यवस्था राज्यस्तर पर भी है.

देश की यानी केंद्र की सरकार और राज्य सरकारें क्या अपने दायित्व ईमानदारी से निभाती हैं? जवाब है नहीं, शायद ही कोई हो जो ईमानदारी से अपना कार्यकाल पूरा करे. हालांकि, हर सरकार जनहित की बात करती नज़र ज़रूर आती है. कुछ सरकारें जनहित के दावे भी करती हैं लेकिन, सिर्फ, जबानी.

हवा हुए दावे :

कोरोना, लौकडाउन, बीमारों के इलाज में भेदभाव और घर वापस जा रहे प्रवासी मजदूरों पर हर ओर किए गए ज़ुल्म ने देश की व सभी राज्यों की सरकारों को नंगा कर दिया है. सरकारें राजनीति कर नहीं, बल्कि खेल रही हैं, एक-दूसरे को मात देने में लगी हैं. कहीं जनहित नहीं हो रहा. कोई जनहित नहीं कर रहा. बस, जबानी दावे किए जा रहे हैं.

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जागरूक करती जबां :

सरकारों की जबानों से इतर, कोई जबान है जो दावा नहीं, बल्कि हकीकत में जनहित कर रही है. उस जबान को आप सुनते रहते हैं. वह आप के साथ है हर वक्त. उसे सब ने अपने मोबाइल में कैद कर रखा है. मोबाइल में छिपी हजारों जबानों में वह जबान भी है जो हकीकत में जनहित कर रही है.

वह जबान जनहित में क्या कहती है, यह तो आप सब ने कई बार सुना है, यहां उस जबान को पढ़िए –

“कोरोना वायरस या कोविड-19 से आज पूरा देश लड़ रहा है. मगर याद रहे, हमें बीमारी से लड़ना है, बीमार से नहीं. उन से भेदभाव न करें. उन की देखभाल करें. और इस बीमारी से बचने के लिए जो हमारी ढाल हैं, जैसे डाक्टर, स्वास्थ्य कर्मचारी, पुलिस, सफाई कर्मचारी आदि, उन को सम्मान दें. उन्हें पूरा सहयोग दें. इन योद्धाओं की करो देखभाल, तो देश जीतेगा कोरोना से हर हाल. अधिक जानकारी के लिए स्टेट हेल्पलाइन नंबर या सेंट्रल हेल्पलाइन नंबर 1075 पर कौल करें. भारत सरकार द्वारा जनहित में जारी.”

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मिलिए ‘जनहित’ से :

आखिर इस फोन कौलर ट्यून में किस की जबान से यह आवाज आ रही है? जनहित का संदेश देने वाली इस जबान को सभी देशजन जाननापहचानना चाहते हैं. तो जानिए, यह जबान या आवाज देश की जानीमानी वायसओवर आर्टिस्ट जसलीन भल्ला की है. देशवासियों को जागरूक करने वाली इस आवाज की मल्लिका 40-वर्षीय जसलीन भल्ला ने अपने कैरियर की शुरुआत स्पोर्ट्स जर्नलिस्ट से की थी. जर्नलिजम की फील्ड छोड़ कर उन्होंने वौयसओवर के क्षेत्र में जोरआजमाइश की और हिट हो गईं.

वौयसओवर की फील्ड में जसलीन 10 वर्षों से ज्यादा समय से फुलटाइम काम कर रही हैं. वे कई मशहूर विज्ञापनों को अपनी आवाज दे चुकी हैं. जसलीन ने एक टीवी इंटरव्यू में बताया कि कई बार लोग यकीन नहीं करते कि यह आवाज उन्हीं की है. ऐसे में लोग उन से उसी मैसेज को बोल कर सुनानेदिखाने को कहते हैं. जसलीन बताती हैं कि वौयसओवर आर्टिस्ट होना उन के लिए गर्व की बात है.

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जसलीन ने एक इंग्लिश डेली को बताया कि उन्हें बिलकुल अंदाजा नहीं था कि उन की इस वौयस रिकौर्डिंग का इतना असर होगा. उन के इस कौलर ट्यून को इतनी पौपुलैरिटी मिली है कि इस पर मीम भी बने हैं. वहीँ, कहींकहीं तो लोगों ने इस कौलर ट्यून से तंग आ कर सरकार से इसे बंद करने की अपील भी कर दी है. इस पर जसलीन ने हंसते हुए बताया कि सब से पहले उन के परिवारवालों ने ही उन को चिढ़ाना शुरू कर दिया था और उन के पास उन के दोस्तों व रिश्तेदारों से भी इस संबंध में मैसेज आते हैं.

अजीब लगता है :

जसलीन से जब पूछा गया कि जब वे खुद किसी को कौल करती हैं और उन को अपनी ही आवाज सुनाई देती है तो उन्हें कैसा लगता है, तो उन का जवाब था, “बहुत ही अजीब सा लगता है. आप किसी को कौल करते हो और 30 सेकेंड तक आप को अपनी ही आवाज सुनाई देती है.”

जसलीन ने बताया कि उन्हें नहीं पता था प्रोड्यूसर की ओर से जो मैसेज उन्हें रिकौर्डिंग के लिए मिला था, वह हर भारतीय के फोन पर बजेगा. उन्होंने याद किया, ‘प्रोड्यूसर की ओर से बताया गया था कि हेल्थ मिनिस्ट्री के लिए जरूरी मैसेज रिकौर्ड करने हैं. इस में टोन थोड़ा गंभीर और जिम्मेदारीभरा सा रखना है.

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गर्व महसूस होता है :

एक मीडिया इंटरव्यू में जसलीन ने बताया, “मैं ने वास्तव में फरवरी के आखिरी सप्ताह में एक प्रोडक्शन हाउस के लिए यह संदेश रिकौर्ड किया था, मुझे नहीं पता था कि यह एक सार्वजनिक अभियान के लिए था. अब जब भी मैं यह सुनती हूं तो खुद पर गर्व महसूस करती हूं.”

बता दें कि 6-7 मार्च से भारत सरकार ने कोरोना वायरस से सचेत करने के लिए इस कौलर ट्यून को सेट कर दिया है. जब भी आप किसी को कौल करते हैं, तो सब से पहले एक महिला की आवाज में कोरोना वायरस से सचेत करने के लिए एक संदेश बोला जाता है.

खूबसूरत आवाज की मल्लिका जसलीन भल्ला ने दिल्ली मेट्रो, स्पाइसजेट,इंडिगो, डोकोमो, होर्लिक्स और स्लाइस मैंगो ड्रिंक आदि के लिए  काम किया है. दिल्ली मेट्रो में यात्रा करने के दौरान आप ने, ‘दरवाजे आप के बाईं ओर खुलेंगे, कृपया अंतर को ध्यान में रखें…’, तो सुना होगा, वह भी जसलीन भल्ला की ही आवाज है.

बहरहाल, महामारी के दौर में हर जन दूसरे जन का हित करे. सरकार पर कोई निर्भर न रहे. सरकार के मुखिया ने तो पहले ही कह दिया है – आत्मनिर्भर बनो. सो, सब से अच्छा है कि आत्मनिर्भर बनो. भारत सरकार द्वारा जनहित में जारी !

मां के नाम था सुशांत सिंह राजपूत का आखिरी पोस्ट, ऐसे किया था याद

सुशांत सिंह राजपूत खुद तो इस दुनिया को छोड़कर चले गए लेकिन अपने चाहने वाले लाखों लोगों का दिल तोड़कर चले गए. उन्होंने अपने घर में ही फांसी लगाकर आत्महत्या कि है. सभी लोग उनके मौत से सदमें में हैं.

एक्टर के निधन पर सभी बॉलीवुड स्टार अपनी तरह से प्रतिक्रिया दे रहे हैं. हालांकि सभी क मन में एक सवाल उठ रहा है कि आखिरकर सुशांत सिंह ने यह कदम क्यों उठाया.

 सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी पोस्ट देखकर आपके आखों में भी आंसू आ जाएगा. एक्टर ने अपनी आखिरी पोस्ट अपनी मां के नाम  लिखी है.

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उन्होंने अपनी मां को याद करते हुए अंग्रेजी में एक कविता लिखी है जिसका हिंदी में अनुवाद होगा . आंसुओं से वाष्पित होता अतीत… मुस्कुराहट के एक आर्क को उकेरते सपने…और एक क्षणभंगुर जीवन… दोनों के बीच बातचीत… मां

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ये पोस्ट एक्टर ने 3 जून को किया था.

एक्टर ने इस पोस्ट के जरिए अपनी दुख बया कि है. बता दें सुशांत सिंह राजपूत ने साल 2013 में फिल्मी दुनिया में कदम रखा था.


उनकी सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली फिल्म एम एस धोनी थी. इस फिल्म में उन्हें बहुत सारा प्यार मिला था. फिल्म राब्ता में भी उन्हें लोगों ने खूब पसंद किया था.

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इस फिल्म में उन्होंने किक्रेटर एमएस धोनी का किरदार निभाएं थें. इसके अलावा केदारनाथ और छिछोरे में भी लोगों ने उन्हें खूब पसंद किया था.

केदारनाथ में सारा अली खान के साथ इनकी जोड़ी को लोगों ने खूब पसंद किया था. सुशांत ने अपनी करियर में सीरियल पवित्र रिश्ता के लिए खूब याद किया जाता है. अस फिल्म में उनके साथ अंकिता लोखड़े की जोड़ी को पसंद किया जाता था.

हालांकि कुछ समय पहले अंकिता के साथ उनका ब्रेकअप हो गया था. जब रिलेशन में थे तब दोनों की जोड़ी को लोग मिसाल दिया करते थे.

सुशांत सिंह राजपूत की मौत से शॉक्ड हुए करण जौहर, खुद को बताया दोषी

बॉलीवुड के दिग्गज कलाकार सुशांत सिंह राजपूत ने खुदखुशी कर ली है. इससे पूरा बॉलीवुड सदमें में हैं. उनका पार्थिव शरीर मुंबई के अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है. खबर के अनुसार बताया जा रहा है कि सुशांत पिछले 6 महीने से डिप्रेशन के शिकार थें.

हालांकि सुशांत के परिवार वालों ने अभी तक इस पर कोई जानकारी नहीं दी है. उनका कहना यह है कि सुशांत ऐसा कर ही नहीं सकता था. वह बेहद ही सुलझा हुआ समझदार लड़का था.

इसी बीच फिल्म निर्माता और निर्देशक करण जौहर मे अपनी बात कहते हुए खुद को दोषी ठहराया है. करण ने सुशांत की फोटो शेयर करते हुए लिखा है कि मैं तुम्हारा दोषी हूं जो तुम्हें किसी चीज की जरूरत थी और मैं तुम्हारे साथ नहीं था और तुमसे जानने की भी कोशिश नहीं कि.

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सुशांत के अचानक जाने से मुझे बहुत ज्यादा झटका लगा है. तुम्हारी प्यारी मुस्कान हमेशा याद रहेगी. करण जौहर से पहले बॉलीवुड के कई दिग्गज कलाकार ने जैसे शाहरुख खान, अजय देवगन, सलमान खान और भी कई हस्तियां ने उनके जाने पर दुख जताया है.

खबर के अनुसार सुशांत सिंह राजपूत का अंतिम संस्कार पटना में सोमवार को होगा. पूरा परिवार अभी भी सदमें में हैं. समझ नहीं आ रहा है कि कैसे खुद को संभाले.

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कोरोना वायरस के चलते सुशांत के अंतिम संस्कार में बहुत कम लोग शामिल होगे. उनके जानने वाले लोगों को विश्वास नहीं हो रहा है कि आखिर सुशांत ने ऐसा कदम उठाया क्यों. अगर कोई दिक्कत होती तो सभी लोगों से अपनी परेशानी शेयर करता.

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सुशांत खुद तो इस दुनिया को छोड़कर चले गए लेकिन अपने पीछे कई सारी खूबसूरत यादें छोड़कर गए हैं. वह कई सफल फिल्मों में भी काम कर चुके हैं. हाल ही में वह फिल्म छिछोरे में नजर आएं थे. जिसमें दर्शकों ने खूब पसंद किया था.

नीड़: हरिया माली की क्या गलती थी? भाग 2

धीरेधीरे स्वाति ने उन से बात करना कम कर दिया. वह उन से दूर ही छिटकी रहती. वे कुछ कहतीं तो उन की बातें एक कान से सुनती, दूसरे कान से निकाल देती. पोती के बाद उन का विरोध अपनी बहू से भी था. उसे सीधेसीधे टोकने के बजाय रमानंदजी से कहतीं, ‘बहुत सिर चढ़ा रखा है बहू ने स्वाति को. मुझे तो डर है, कहीं उस की वजह से इन दोनों की नाक न कट जाए.’ रमानंदजी चुपचाप पीतल के शोपीस चमकाते रहते. सिद्धेश्वरीजी का भाषण निरंतर जारी रहता, ‘बहू खुद भी तो सारा दिन घर से बाहर रहती है. तभी तो, न घर संभल पा रहा है न बच्चे. कहीं नौकरों के भरोसे भी गृहस्थी चलती है?’

‘बहू की नौकरी ही ऐसी है. दिन में 2 घंटे उसे घर से बाहर निकलना ही पड़ता है. अब काम चाहे 2 घंटे का हो या 4 घंटे का, आवाजाही में भी समय निकलता है.’

‘जरूरत क्या है नौकरी करने की? समीर अच्छा कमाता ही है.’

‘अब इस उम्र में बहू मनकों की माला तो फेरने से रही. पढ़ीलिखी है. अपनी प्रतिभा सिद्ध करने का अवसर मिलता है तो क्यों न करे. अच्छा पैसा कमाती है तो समीर को भी सहारा मिलता है. यह तो हमारे लिए गौरव की बात है.’ इधर, रमानंदजी ने अपनेआप को सब के अनुसार ढाल लिया था. मजे से पोतापोती के साथ बैठ कर कार्टून फिल्में देखते, उन के लिए पिज्जा तैयार कर देते. बच्चों के साथ बैठ कर पौप म्यूजिक सुनते. पासपड़ोस के लोगों से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई थी. जब भी मन करता, उन के साथ ताश या शतरंज की बाजी खेल लेते थे.

बहू के साथ भी उन की खूब पटती थी. रमानंदजी के आने से वह पूरी तरह निश्चिंत हो गई थी. अनिरुद्ध को नियमित रूप से भौतिकी और रसायनशास्त्र रमानंदजी ही पढ़ाते थे. उस की प्रोजैक्ट रिपोर्ट भी उन्होंने ही तैयार करवाई थी. बच्चों को छोड़ कर शालिनी पति के साथ एकाध दिन दौरे पर भी चली जाती थी. रमानंदजी को तो कोई असुविधा नहीं होती थी पर सिद्धेश्वरीजी जलभुन जाती थीं. झल्ला कर कहतीं, ‘बहू को आप ने बहुत छूट दे रखी है.’

रमानंदजी चुप रहते, तो वे और चिढ़ जातीं, ‘अपने दिन याद हैं? अम्मा जब गांव से आती थीं तो हम दोनों का घूमनाफिरना तो दूर, साड़ी का पल्ला भी जरा सा सिर से सरकता तो वे रूठ जाती थीं.’

‘अपने दिन नहीं भूला हूं, तभी तो बेटेबहू का मन समझता हूं.’

‘क्या समझते हो?’

‘यही कि अभी इन के घूमनेफिरने के दिन हैं. घूम लें. और फिर बहू हमारे लिए पूरी व्यवस्था कर के जाती है. फिर क्या परेशानी है?’

‘परेशानी तुम्हें नहीं, मुझे है. बुढ़ापे में घर संभालना पड़ता है.’

‘जरा सोचो, बहू तुम्हारे पर विश्वास करती है, इसीलिए तो तुम्हारे भरोसे घर छोड़ कर जाती है.’

सिद्धेश्वरीजी को कोई जवाब नहीं सूझता था. उन्हें लगता, पति समेत सभी उन के खिलाफ हैं.

दरअसल, वे दिल की इतनी बुरी नहीं हैं. बस, अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्त्व जतलाने की आदत से मजबूर थीं. उन की मरजी के बिना घर का पत्ता तक नहीं हिलता था. यहां तक कि रमानंदजी ने भी कभी उन से तर्क नहीं किया था. बेटे के यहां आ कर उन्होंने देखा, सभी अपनीअपनी दुनिया में मगन हैं, तो उन्हें थोड़ी सी कोफ्त हुई. उन्हें ऐसा महसूस होने लगा जैसे वे अब एक अस्तित्वविहीन सा जीवन जी रही हों. पिछले हफ्ते से एक और बात ने उन्हें परेशान कर रखा था. स्वाति को आजकल मार्शल आर्ट सीखने की धुन सवार हो गई थी. उन्होंने रोकने की कोशिश की तो वह उग्र स्वर में बोली, ‘बड़ी मां, आज के जमाने में अपनी सुरक्षा के लिए ये सब जरूरी है. सभी सीख रहे हैं.’

पोती की ढिठाई देख कर सिद्धेश्वरीजी सातवें आसमान से सीधी धरातल पर आ गिरीं. उस से भी अधिक गुस्सा आया अपने बहूबेटे पर, जो मूकदर्शक बने सारा तमाशा देख रहे थे. बेटी को एक बार टोका तक नहीं. और अब, इस हरिया माली की, गुलाब का फूल न तोड़ने की हिदायत ने आग में घी डालने जैसा काम किया था. एक बात का गुस्सा हमेशा दूसरी बात पर ही उतरता है, इसीलिए उन्होंने घर छोड़ कर जाने की घोषणा कर दी थी.

‘‘मां, हम बाहर जा रहे हैं. कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

सिद्धेश्वरीजी मुंह फुला कर बोलीं, ‘‘इन्हें क्या मंगाना होगा? इन के लिए पान का जुगाड़ तो माली, नौकर यहां तक कि ड्राइवर भी कर देते हैं. हमें ही साबुन, क्रीम और तेल मंगाना था. पर कहें किस से? समीर भी आजकल दौरे पर रहता है. पिछले महीने जब आया था तो सब ले कर दे गया था. जिस ब्रैंड की क्रीम, पाउडर हम इस्तेमाल करते हैं वही ला देता है.’’

‘‘मां, हम आप की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखते हैं. फिर भी कुछ खास चाहिए तो बता क्यों नहीं देतीं? समीर से कहने की क्या जरूरत है?’’

बहू की आवाज में नाराजगी का पुट था. पैर पटकती वह घर से बाहर निकली, तो रमानंदजी का सारा आक्रोश, सारी झल्लाहट पत्नी पर उतरी, ‘‘सुन लिया जवाब. मिल गई संतुष्टि. कितनी बार कहा है, जहां रहो वहीं की बन कर रहो.  पिछली बार जब नेहा के पास मुंबई गई थीं तब भी कम तमाशे नहीं किए थे तुम ने. बेचारी नेहा, तुम्हारे और जमाई बाबू के बीच घुन की तरह पिस कर रह गई थी. हमेशा कोई न कोई ऐसा कांड जरूर करती हो कि वातावरण में सड़ी मच्छी सी गंध आने लगती है.’’ पछता तो सिद्धेश्वरीजी खुद भी रही थीं, सोच रही थीं, बहू के साथ बाजार जा कर कुछ खरीद लाएंगी. अगले हफ्ते मेरठ में उन के भतीजे का ब्याह है. कुछ ब्लाउज सिलवाने थे. जातीं तो बिंदी, चूडि़यां और पर्स भी ले आतीं. बहू बाजार घुमाने की शौकीन है. हमेशा उन्हें साथ ले जाती है. वापसी में गंगू चाट वाले के गोलगप्पे और चाटपापड़ी भी जरूर खिलाती है.

रमानंदजी को तो ऐसा कोई शौक है नहीं. लेकिन अब तो सब उलटापुलटा हो गया. क्यों उन्होंने बहू का मूड उखाड़ दिया? न जाने किस घड़ी में उन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई और घर छोड़ने की बात कह दी? सब से बड़ी बात, इस घर से निकल कर जाएंगी कहां? लखनऊ तो कब का छोड़ चुकीं. आज तक गांव में एक हफ्ते से ज्यादा कभी नहीं रहीं. फिर, पूरा जीवन कैसे काटेंगी? वह भी इस बुढ़ापे में, जब शरीर भी साथ नहीं देता है. शुरू से ही नौकरों से काम करवाने की आदी रही हैं. बेटेबहू के घर आ कर तो और भी हड्डियों में जंग लग गया है.

सभी चुपचाप थे. शालिनी रसोई में बाई के साथ मिल कर रात के खाने की तैयारी कर रही थी. और स्वाति, जिस की वजह से यह सारा झमेला हुआ, मजे से लैपटौप पर काम कर रही थी. सिद्धेश्वरीजी पति की तरफ मुखातिब हुईं और अपने गुस्से को जज्ब करते हुए बोलीं, ‘‘चलो, तुम भी सामान बांध लो.’’

‘‘किसलिए?’’ रमानंदजी सहज भाव से बोले. उन की नजरें अखबार की सुर्खियों पर अटकी थीं.

‘‘हम, आज शाम की गाड़ी से ही चले जाएंगे.’’

रमानंदजी ने पेपर मोड़ कर एक तरफ रखा और बोले, ‘‘तुम जा रही हो, मैं थोड़े ही जा रहा हूं.’’

‘‘मतलब, तुम नहीं जाओगे?’’

‘‘नहीं,’’ एकदम साफ और दोटूक स्वर में रमानंदजी ने कहा, तो सिद्धेश्वरीजी बुरी तरह चौंक गईं. उन्हें पति से ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. मन ही मन उन का आत्मबल गिरने लगा. गांव जा कर, बंद घर को खोलना, साफसफाई करना, चूल्हा सुलगाना, राशन भरना उन्हें चांद पर जाने और एवरेस्ट पर चढ़ने से अधिक कठिन और जोखिम भरा लग रहा था. पर क्या करतीं, बात तो मुंह से फिसल ही गई थी. पति के हृदयपरिवर्तन का उन्हें जरा भी आभास होता तो यों क्षणिक आवेश में घर छोड़ने का निर्णय कभी न लेतीं. हिम्मत कर के वे उठीं और अलमारी में से अपने कपड़े निकाल कर बैग में रख लिए. ड्राइवर को गाड़ी लाने का हुक्म दे दिया. कार स्टार्ट होने ही वाली थी कि स्वाति बाहर निकल आई. ड्राइवर से उतरने को कह कर वह स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गई और सधे हाथों से स्टीयरिंग थाम कर कार स्टार्ट कर दी. सिद्धेश्वरीजी एक बार फिर जलभुन गईं. औरतों का ड्राइविंग करना उन्हें कदापि पसंद नहीं था. बेटा या पोता, कार ड्राइव करे तो उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी. वे यह मान कर चलती थीं कि ‘लड़कियों को लड़कियों की तरह ही रहना चाहिए. यही उन्हें शोभा देता है.’

इसी उधेड़बुन में रास्ता कट गया. कार स्टेशन पर आ कर रुकी तो सिद्धेश्वरीजी उतर गईं. तुरतफुरत अपना बैग उठाया और सड़क पार करने लगीं. उतावलेपन में पोती को साथ लेने का धैर्य भी उन में नहीं रहा. तभी अचानक एक कार…पीछे से किसी ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया. और वे एकदम से दूर जा गिरीं. फिर उन्हीं हाथों ने सिद्धेश्वरीजी को सहारा दे कर कार में बिठाया. ऐसा लगा जैसे मृत्यु उन से ठीक सूत भर के फासले से छू कर निकल गई हो. यह सब कुछ दो पल में ही हो गया था. उन का हाथ थाम कर खड़ा करने और कार में बिठाने वाले हाथ स्वाति के थे. नीम बेहोशी की हालत से उबरीं तो देखा, वे अस्पताल के बिस्तर पर थीं. रमानंदजी उन के सिरहाने बैठे थे. समीर और शालिनी डाक्टरों से विचारविमर्श कर रहे थे. और स्वाति, दारोगा को रिपोर्ट लिखवा रही थी. साथ ही वह इनोवा कार वाले लड़के को बुरी तरह दुत्कारती भी जा रही थी. ‘‘दारोगा साहब, इस सिरफिरे बिगड़ैल लड़के को कड़ी से कड़ी सजा दिलवाइएगा. कुछ दिन हवालात में रहेगा तो एहसास होगा कि कार सड़क पर चलाने के लिए होती है, किसी की जान लेने के लिए नहीं. अगर मेरी बड़ी मां को कुछ हो जाता तो…?’’

सिद्धेश्वरीजी के पैरों में मोच आई थी. प्राथमिक चिकित्सा के बाद उन्हें घर जाने की अनुमति मिल गई थी. उन के घर पहुंचने से पहले ही बहू और बेटे ने, उन की सुविधानुसार कमरे की व्यवस्था कर दी थी. समीर और शालिनी ने अपना बैडरूम उन्हें दे दिया था क्योंकि बाथरूम बैडरूम से जुड़ा था. वे दोनों किनारे वाले बैडरूम में शिफ्ट हो गए थे. सिरहाने रखे स्टूल पर बिस्कुट का डब्बा, इलैक्ट्रिक कैटल, मिल्क पाउडर और टी बैग्स रख दिए गए. चाय की शौकीन सिद्धेश्वरीजी जब चाहे चाय बना सकती थीं. उन्हें ज्यादा हिलनेडुलने की भी जरूरत नहीं थी. पलंग के नीचे समीर ने बैडस्विच लगवा दिया था. वे जैसे ही स्विच दबातीं, कोई न कोई उन की सेवा में उपस्थित हो जाता.

नीड़: हरिया माली की क्या गलती थी? भाग 1

सिद्धेश्वरीजी बड़बड़ाए जा रही थीं. जितनी तेजी से वे माथे पर हाथ फेर रही थीं उतनी ही तेजी से जबान भी चला रही थीं.

‘नहीं, अब एक क्षण भी इस घर में नहीं रहूंगी. इस घर का पानी तक नहीं पियूंगी. हद होती है किसी बात की. दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत कि हम से मुंहजोरी करे. समझ क्या रखा है. अब हम लौट कर इस देहरी पर कभी आएंगे भी नहीं.’

रमानंदजी वहीं आरामकुरसी पर बैठे उन का बड़बड़ाना सुन रहे थे. आखिरकार वे बोले, ‘‘एक तो समस्या जैसी कोई बात नहीं, उस पर तुम्हारा यह बरताव, कैसे काम चलेगा? बोलो? कुल इतनी सी ही बात है न, कि हरिया माली ने तुम्हें गुलाब का फूल तोड़ने नहीं दिया. गेंदे या मोतिया का फूल तोड़ लेतीं. ये छोटीछोटी बातें हैं. तुम्हें इन सब के साथ समझौता करना चाहिए.’’

सिद्धेश्वरीजी पति को एकटक निहार रही थीं. मन उलझा हुआ था. जो बातें उन के लिए बहुत बड़ी होती हैं, रमानंदजी के पास जा कर छोटी क्यों हो जाती हैं?

क्रोध से उबलते हुए बोलीं, ‘‘एक गुलाब से क्या जाता. याद है, लखनऊ में कितना बड़ा बगीचा था हम लोगों का. सुबह सैर से लौट कर हरसिंगार और चमेली के फूल चुन कर हम डोलची में सजा कर रख लिया करते थे. पर यह माली, इस तरह अकड़ रहा था जैसे हम ने कभी फूल ही नहीं देखे हों.’’

बेचारा हरिया माली कोने में खड़ा गिड़गिड़ा रहा था. घर के दूसरे लोग भी डरेसहमे खड़े थे. अपनी तरफ से सभी ने मनाने की कोशिश की किंतु व्यर्थ. सिद्धेश्वरीजी टस से मस नहीं हुईं.

‘‘जो कह दिया सो कह दिया. मेरी बात पत्थर की लकीर है. अब इसे कोई भी नहीं मिटा सकता. समझ गए न? यह सिद्धेश्वरी टूट जाएगी पर झुकेगी नहीं.’’

घर वाले उन की धमकियों के आदी थे. उन की बातचीत का तरीका ही ऐसा है, बातबात पर कसम खा लेना, बिना बात के ही ताल ठोंकना आदि. पहले ये बातें उन के अपने घर में होती थीं. अपना घर, यानी सरकार द्वारा आवंटित बंगला. सिद्धेश्वरीजी गरजतीं, बरसतीं फिर सामान्य हो जातीं. घर छोड़ कर जाने की नौबत कभी नहीं आई. हर बात में दखल रखना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थीं. सो, वे दूसरों को घर से निकल जाने को अकसर कहतीं. पर स्वयं पर यह बात कभी लागू नहीं होने देती थीं. आखिर वे घर की मालकिन जो थीं.

आज परिस्थिति दूसरी थी. यह घर, उन के बेटे समीर का था. बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत सीनियर एग्जीक्यूटिव. राजधानी में अत्यधिक, सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेस वाला फ्लैट. बेटे के अत्यधिक आज्ञाकारी होने के बावजूद वे उस के घर को कभी अपना नहीं समझ पाईं क्योंकि वे उन महिलाओं में से थीं जो बेटे का विवाह होने के साथ ही उसे पराया समझने लगती हैं. अपनी हमउम्र औरतों के अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे जब भी समीर और शालिनी से बात करतीं तो ताने या उलटवांसी के रूप में. बातबात में दोहों और मुहावरों का प्रयोग, भले ही मूलरूप के बजाय अपभ्रंश के रूप में, सिद्धेश्वरीजी करती अवश्य थीं, क्योंकि उन का मानना था कि अतिशय लाड़प्यार जतलाने से बहूबेटे का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है.

विवाह से पहले समीर उन की आंखों का तारा था. उस से उन का पहला मनमुटाव तब हुआ जब उस ने विजातीय शालिनी से विवाह करने की अनुमति मांगी थी. रमानंदजी सरल स्वभाव के व्यक्ति थे. दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूंढ़ते थे. बेटे की खुशी को ध्यान में रख कर उन्होंने तुरंत हामी भर दी थी. पत्नी को भी समझाया था, ‘शालिनी सुंदर है, सुशिक्षित है, अच्छे खानदान से है.’ पर सिद्धेश्वरीजी अड़ी रहीं. इस के पीछे उन्हें अपने भोलेभाले बेटे का दिमाग कम, एमबीए शालिनी की सोच अधिक नजर आई थी. बेटे के सीनियर एग्जीक्यूटिव होने के बावजूद उन्हें उस के लिए डाक्टर या इंजीनियर लड़की के बजाय मात्र इंटर पास साधारण सी कन्या की तलाश थी, जो हर वक्त उन की सेवा में तत्पर रहे और घर की परंपरा को भी आगे कायम रखे.

रमानंदजी लाख समझाते रहे कि ब्याह समीर को करना है. अगर उस ने अपनी पसंद से शालिनी को चुना है तो हम क्यों बुरा मानें. दोनों एकदूसरे को अच्छी तरह से जानते हैं, पहचानते हैं और सब से बड़ी बात एकदूसरे को समझते भी हैं. सो, वे अच्छी तरह से निभा लेंगे. पर सिद्धेश्वरीजी के मन में बेटे का अपनी मनमरजी से विवाह करने का कांटा हमेशा चुभता रहा. उन्हें ऐसा लगता जैसे शालिनी के साथ विवाह कर के समीर ने बहुत बड़ा गुनाह किया है. खैर, किसी तरह से निभ रही थी और अच्छी ही निभ रही थी. रमानंदजी सिंचाई विभाग में अधिशासी अभियंता थे. हर 3 साल में उन का तबादला होता रहता था. इसी बहाने वे भी उत्तर प्रदेश के कई छोटेबड़े शहर घूमी थीं. बड़ेबड़े बंगलों का सुख भी खूब लूटा. नौकर, चपरासी सलाम ठोंकते. समीर और शालिनी दिल्ली में रहते थे. कभीकभार ही आनाजाना हो पाता. जितने दिन रहते, हंसतेखिलखिलाते समय निकल जाता था. स्वाति और अनिरुद्ध के जन्म के बाद तो जीवन में नए रंग भरने लगे थे. उन की धमाचौकडि़यों और खिलखिलाहटों में दिनरात कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था.

देखते ही देखते रमानंदजी की रिटायरमैंट की उम्र भी आ पहुंची. लखनऊ में रिटायरमैंट से पहले उन्होंने अनूपशहर चल कर रहने का प्रस्ताव सिद्धेश्वरीजी के सामने रखा तो वे नाराज हो गईं.

‘हम नहीं रहेंगे वहां की घिचपिच में.’

‘तो फिर?’

‘इसीलिए हम हमेशा आप से कहते थे. एक छोटा सा मकान, बुढ़ापे के लिए बनवा लीजिए पर आप ने हमेशा मेरी बात को हवा में उछाल दिया.’

रमानंदजी मायूस हो गए थे. ‘सिद्धेश्वरी, तुम तो जानती हो, सरकारी नौकरी में कितना पैसा हाथ में मिलता है. घूस मैं ने कभी ली नहीं. मुट्ठीभर तनख्वाह में से क्या खाता, क्या बचाता? बाबूजी की बचपन में ही मृत्यु हो गई. भाईबहनों के दायित्व निभाए. तब तक समीर और नेहा बड़े हो गए थे. एक ही समय में दोनों बच्चों को इंजीनियरिंग और एमबीए की डिगरी दिलवाना, आसान तो नहीं था. उस के बाद जो बचा, वह शादियों में खर्च हो गया. यह अच्छी बात है कि दोनों बच्चे सुखी हैं.’

रमानंदजी भावुक हो उठे थे. आंखों की कोर भीग गई. स्वर आर्द्र हो उठा था, रिटायरमैंट के बाद रहने की समस्या जस की तस बनी रही. इस समस्या का निवारण कैसे होता?

फिलहाल, दौड़भाग कर रमानंदजी ने सरकारी बंगले में ही 6 महीने रहने की अनुमति हासिल कर ली. कुछ दिनों के लिए तो समस्या सुलझ गई थी लेकिन उस के बाद मार्केट रेंट पर बंगले में रहना, उन के लिए मुश्किल हो गया था. सो, लखनऊ के गोमती नगर में 2 कमरों का मकान उन्होंने किराए पर ले लिया था. जब भी मौका मिलता, समीर आ कर मिल जाता. शालिनी नहीं आ पाती थी. बच्चे बड़े हो रहे थे. स्वाति ने इंटर पास कर के डाक्टरी में दाखिला ले लिया था. अनिरुद्ध ने 10वीं में प्रवेश लिया था. बच्चों के बड़े होने के साथसाथ दादादादी की भी उम्र हो गई थी.

बुढ़ापे में कई तरह की परेशानियां बढ़ जाती हैं, यह सोच कर इस बार जब समीर और शालिनी लखनऊ आए तो, आग्रहसहित उन्हें अपने साथ रहने के लिए लिवा ले गए थे. सिद्धेश्वरीजी ने इस बार भी नानुकुर तो बहुतेरी की थी, पर समीर जिद पर अड़ गया था. ‘‘बुढ़ापे में आप दोनों का अकेले रहना ठीक नहीं है. और बारबार हमारा आना भी उतनी दूर से संभव नहीं है. बच्चों की पढ़ाई का नुकसान अलग से होता है.’’ सिद्धेश्वरीजी को मन मार कर हामी भरनी पड़ी. अपनी गृहस्थी तीनपांच कर यहां आ तो गई थीं पर बेटेबहू की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उन के लिए. बेटाबहू उन की सुविधा का पूरा ध्यान रखते थे. उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते थे. फिर भी, जब मौका मिलता, सिद्धेश्वरीजी रमानंदजी को उलाहना देने से बाज नहीं आती थीं, ‘अपना मकान होता तो बहूबेटे के साथ रहने की समस्या तो नहीं आती. अपनी सुविधा से घर बनवाते और रहते. यहां पड़े हैं दूसरों की गृहस्थी में.’

‘दूसरों की गृहस्थी में नहीं, अपने बहूबेटे के साथ रह रहे हैं सिद्धेश्वरी,’ वे हंस कर कहते.

‘तुम नहीं समझोगे,’ सिद्धेश्वरीजी टेढ़ा सा मुंह बिचका कर उठ खड़ी होतीं.

उन्हें बातबात में हस्तक्षेप करने की आदत थी. मसलन, स्वाति कोएड में क्यों पढ़ती है? स्कूटर चला कर कालेज अकेली क्यों जाती है? शाम ढलते ही घर क्यों नहीं लौट आती? देर रात तक लड़केलड़कियों के साथ बैठ कर कंप्यूटर पर काम क्यों करती है? लड़कियों के साथ तो फिर भी ठीक है, लड़कों के साथ क्यों बैठी रहती है? उन्होंने कहीं सुना था कि कंप्यूटर अच्छी चीज नहीं है. वे अनिरुद्ध को उन के बीच जा कर बैठने के लिए कहतीं कि कम से कम पता तो चले वहां हो क्या रहा है. तो अनिरुद्ध बिदक जाता. उधर, स्वाति को भी बुरा लगता. ऐसा लगता जैसे दादी उस के ऊपर पहरा बिठा रही हों. इतना ही नहीं, वह जींसटौप क्यों पहनती है? साड़ी क्यों नहीं पहनती? रसोई में काम क्यों नहीं करती आदि?

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