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प्रारब्ध -भाग 3 : आंटी का कौन सा प्रश्न उसे परेशान करता था?

लेखक-एस भाग्यम शर्मा

“मुझे पता ही नहीं चला कि वे कहां गए. बहुत कोशिश की, पर कोई सुराग नहीं मिला.

“मेरे मम्मीपापा मेरे पास आ गए और मैं अपनी नौकरी के साथसाथ उन का भी ध्यान रखने लगी. समय बीतता गया और एक दिन अचानक पापा को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. मम्मी उन के पीछे उन की याद में 2 साल भी नहीं रहीं. सेवानिवृत्ति के बाद  यह मकान खरीद व बना कर तुम्हारे पड़ोस में आ गई. मैं ने किसी से रिश्ता नहीं रखा. मन बहुत ही विरक्त था. मम्मीपापा के 2 साल में आगेपीछे जा चुके थे. मैं अकेली हो चुकी थी. यहां आ कर रहने लगी.

“अचानक एक दिन मेरी एक पुरानी सहेली का फोन आया कि ‘मेरा बेटा मुझे ढूंढ रहा है’ और उस के थोड़ी देर बाद ही मुझे मेरे सोमू का फोन आया, ‘मैं आप का बेटा सोमसुंदरम बोल रहा हूं. मैं आप के पास आना चाहता हूं.’ मेरे आश्चर्य की सीमा न रही.

“जैसा तुम कह रही थीं न, वैसे ही मुझे भी लगा कि कहीं कोई धोखा तो नहीं दे रहा है. मैं ने उसे घर न बुला कर एक होटल में बुलवाया. वहां बात की. तब सारी परतें एकएक कर खुल गईं.”

“आंटी, अब मैं घर जाऊंगी, हालांकि, जाने की इच्छा बिलकुल नहीं है. कल धारावाहिक जारी रहेगा,” कह कर मैं चल दी.

घर आ कर मैं ने सारा काम किया. वह तो करना ही था. परंतु मेरा मन आंटी की कहानी में ही लगा रहा. यह तो बौलीवुड की कहानी से भी ज्यादा मजेदार थी. आंटी के साथ क्या हुआ, यह जानने के लिए उत्सुक थी और सोमू के बारे में जानने के लिए भी, या दोनों के लिए, यह तो आप डिसाइड करो. फिल्म, कहानी और उपन्यास यह सब भी मानव जीवन के ही तो प्रतिबिंब हैं. दूसरे दिन जल्दीजल्दी काम निबटा कर आंटी के घर पहुंच गई. अब मुझे सोमू घर पर है, इस की उत्सुकता ज्यादा थी. मुझे लगा, यह आग एक तरफ की नहीं है. वह भी मुझ से बात करने का मौका तलाशता है. अपनी आग को जप्त करने की मैं कोशिश करती कि इस उम्र में यह ठीक नहीं है. लेकिन मन है कि मानता ही नहीं.

“आओ रमा, आओ. मैं ने अपने बेटे सोमू से कहा कि मैं अपनी कहानी रमा को सुना रही हूं. सोमू ने कहा है, ‘मम्मी, जरूर सुनाओ. लोगों को हमारी कहानी सुन कर कोई शिक्षा मिले, तो बहुत अच्छी बात है, मुझे कोई एतराज नहीं.’

“अभी अंत बाकी है,” आंटी बोलीं.

“मम्मी, आप आराम से कहानी पूरी कर लो. मैं और अंकल वौलीबौल मैच देखने जा रहे हैं. हम खाना खा कर आएंगे.”

“अरे वाह, आंटी, आज हम सैलिब्रेट करेंगे,” मैं तो चहक उठी, पर ऊपरी तौर से. सोमू के जाने की मुझे खुशी नहीं हो रही थी.

“रमा, आज हमें भी खाना बनाने की जरूरत नहीं. मेरे बेटे ने हम दोनों के लिए बाहर से ही खाना और्डर कर दिया है.”

प्यार और खुशी से मैं ने आंटी को गले लगा लिया.

बढ़िया फिल्टर कौफी पी कर हम दोनों आराम से झूले में बैठ गए. आंटी ने पूछा, “हम कहां पर थे?”

“आंटी, आप ने, धारावाहिक जैसे ही, बड़े रोचक मोड़ पर छोड़ दिया था कि होटल में आप सोमू से मिलीं.”

“बिलकुलबिलकुल, रमा. अब मेरी नहीं, बेटे की कहानी शुरू होती है. बेटा वहीं पढ़ कर एक अच्छे पद पर काम करने लगा. अच्छी सैलरी थी. देखने में सोमू बहुत सुंदर था ही, परिवार की कोई रोकटोक नहीं थी. इन बातों से आकर्षित हो कर भारत से आए और वहीं बसे एक परिवार की लड़की नीला ने इस से बात की. सोमू अपने को बहुत अकेला और बिना परिवार का महसूस तो कर ही रहा था. उस के पिता बहुत ड्रिंक करते थे, वे भी चल बसे. उस ने मेरे बारे में जानने की कोशिश की थी. पर उसे कामयाबी नहीं मिली.”

“नीला के प्रस्ताव ने तो उसे उस की ओर मोड़ लिया. थोड़े दिन दोनों बहुत खुश रहे. 2 प्यारेप्यारे बच्चे भी हुए. एक बेटा और एक बेटी. पर गृहस्थी की गाड़ी जैसे चलनी चाहिए वैसे न चली और नीला को दूसरे लड़के से प्यार हो गया. उस ने तलाक का निर्णय लिया. केस चला और दोनों बच्चे नीला को मिल गए. यह मेरे जैसे ही अपने जीवन में असफल हो गया. उस के बचाए रुपए भी सब नीला को देने पड़े. बहुत ही निराश हो गया.”

“यह तो बहुत बुरा हुआ आंटी. हां, पर आंटी, इंग्लिश कहावत है, ‘मैन प्रपोजेज एंड गौड डिस्पोजेज’ यही हुआ. क्या करें.”

“मेरे बेटे ने मुझे ढूंढने की बहुत कोशिश की. इस तलाक के कारण मुझे ढूंढना बीच में छोड़ दिया था. जब तलाक का काम पूरा हुआ, तब बड़े मनोयोग से उस ने फिर से मुझे ढूंढने का काम जारी रखा.”

“बहुत मुश्किल था आंटी?”

“सही कहा. बहुत कोशिश करने के बाद किसी से उस को मेरा मोबाइल नंबर मिला. मुझे तब उस ने फोन किया. वह दिन मेरे लिए अविस्मरणीय है. मुझे तो लगा था,  मेरा कोई नहीं है. किस से मैं अपनी इस खुशी को बांटू?

“रमा, दुख को तो फिर भी अकेले सह सकते हैं पर खुशी को जब तक न बांटो, तो खुशी, खुशी नहीं होती. उस समय मैं ने अपनेआप को बहुत अकेला पाया.”

“मुझ से क्यों नहीं कहा आंटी?”

“कैसे कहती? मैं ने तो अपनी कोई बात तुम्हें नहीं बताई थी. तुम्हें ही क्या, किसी को भी नहीं बताई. मैं ने अपनी कहानी अपने मन में ही दफन कर ली थी. अब मेरे बेटे के आने पर जैसे चमत्कार हो गया. मेरी जिंदगी बदल गई.”

“वाकई, यह चमत्कार से कोई कम नहीं आंटी?”

“मेरा बेटा विदेश को छोड़ कर आ गया. अब यहीं रहेगा. अपना देश अपना ही होता है. दूर के ढोल सुहाने होते हैं. यही बात सही है. यह बात अब सोमू की समझ में आ गई. उस के बच्चे जब उस की मां के कहने पर उस से नफरत करने लगे तब ही उस को यह बात समझ में आई कि मेरी मां के साथ भी यही हुआ होगा और उसे पश्चात्ताप हुआ. ‘अब क्या होत, चिड़िया चुग गई खेत’ ऐसा सोचा. पर अब मेरे समय में बेटे का सुख लिखा था. मेरी कोई गलती नहीं थी. कुदरत ने मुझे ये दिन दिखाए. कुछ दिनों पहले भी मैं ने कई बार आत्महत्या करने की सोची. यदि मैं अपनी मंशा में कामयाब हो गई होती तो बेटे का प्रेम, स्नेह कैसे पाती? यही तो प्रारब्ध है.

जब जो होना है, किसी न किसी रूप में हो कर रहता है. हमें कर्म करते रहना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए. क्यों रमा, तुम मेरी कहानी सुन कर कुछ सोचने को मजबूर तो हुई होगी?”

“हां आंटी, मुझे इसे आत्मसात करने में समय लगेगा. क्या मैं आप की कहानी लिख सकती हूं?”

“क्यों नहीं, क्यों नहीं रमा, जरूर लिखो. मैं जानती हूं कि तुम एक लेखिका हो. लेखक जो कहता है वह सब कल्पना नहीं होती. वह जो अपने चारों ओर देखता है, सुनता है, महसूस करता है, वह भी तो लिखता है.

“रमा, तुम्हें मेरा बेटा कैसा लगा?”

मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया.

“अरे रमा, तुम तो छोटी लड़की जैसे शरमा गईं.”

“मम्मी, अंकल आए हैं, उन्हें आप से कुछ कहना है?”

“कहिए?”

“मैं जो कहने आया था, घर के दरवाजे पर आते ही वह बात आप के मुंह से ही  सुन ली. अब मुझे क्या कहना.”

“मियांबीवी राजी, तो क्या करेगा काजी,” आंटी बोल कर हंस दीं.

सब लोग ठहाका  लगा कर हंसने लगे.

सोमू बड़े प्रेम से मुझे देखने लगे. मैं बोल पड़ी, “आज बाहर चलते हैं, आज का डिनर बाहर.”

“व्हाय नौट, श्योर,”

फिजा बदलने के इंतजार में कश्मीर

लखनऊ में रहने वाली रेशमा का मायका श्रीनगर में है. रेशमा हर साल ईद में अपने मायके जरूर जाती थी. इस बार की ईद तालाबंदी में गुजरी. अक्तूबर माह से वह अपने मायके में है.

रेशमा कहती है, ‘श्रीनगर पहुंचने के बाद हमें समझ नहीं आ रहा था कि अपने घर कैसे जाएं? कश्मीर में सड़कें सूनी थीं. यातायात के साधन बेहद कम थे. घर से लेने आई कार से हम चले तो रास्ते पूरी तरह से वीरान नजर आ रहे थे. पता चला कि बिना प्रशासन की इजाजत के बाहर निकलना मना है.

‘कश्मीर की जिन वादियों में अद्भुत नजारा रहता था, वह सूना पड़ा था. कई जगह हमें चेकिंग का सामना करना पडा. हमें लग रहा था, जैसे हम अपने वतन में नहीं, गैरमुल्क में आए हैं.

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‘घर पहुंचे तो वहां भी आसपास के माहौल में सन्नाटा पसरा हुआ था. घर के अंदर बैठे लोगों तक में खामोशी थी. ऐसा लग रहा था, जैसे हम बंदिश भरे माहौल में हों.

‘बात केवल बाहर से यहां आने वाले लोगों के लिए ही नहीं है, कश्मीर में एक जिले से दूसरे जिले जाने वाले स्थानीय लोगों को भी दिक्कत हो रही है.’

कश्मीर के श्रीनगर में ही सुरक्षा व्यवस्था में तैनात मैदानी इलाके में रहने वाले एक अधिकारी बताते हैं, ‘यहां फोन की सुविधाएं बहाल हो गई हैं. इंटरनैट की स्पीड 2जी है. ब्रांडबैंड के नैट सर्विस में दिक्कत नहीं है. अनुच्छेद 370 के हटने के बाद माहौल को नौर्मल करने के लिए सरकार ने जब कदम उठाए तो दहशत फैलाने वाली घटनाएं बढ़ने लगीं. ऐसे लोगों के पास हथियार भले नहीं हैं, पर वह किसी न किसी तरीके से दहशत फैलाने का काम करने लगे हैं.

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‘युवाओं को रोजगार देने का काम करना जरूरी है. पत्थर मारने की घटनाओं में कमी आई है. पंचायत चुनाव होने के समय कुछ दहशतगर्दी वाली घटनाएं बढ़ सकती हैं. चुनाव के बाद स्थानीय स्तर पर बदलाव होने संभावना व्यक्त की जा रही है.’

असल में जम्मूकश्मीर में पुलिस के खिलाफ भ्रष्टाचार के ज्यादा आरोप लगते रहे हैं. इस वजह से स्थानीय पुलिस से जुडे़ अपराध भी अधिक होते हैं. जम्मूकश्मीर के बडगाम जिले में जम्मूकश्मीर पुलिस के जवान मोहम्मद अशरफ का शव मिला. इस को आंतकियों के द्वारा मारा गया. ऐसी घटनाएं अब बढ़ने लगी हैं.

सोनिया गुलाटी सितंबर और अक्तूबर माह में 10-10 दिन के लिए 2 बार कश्मीर ग्रुप टूर ले कर गई थीं. वे बताती हैं कि यहां आने वाले पर्यटकों के लिए कोई दिक्कत नहीं होती है. स्थानीय लोग पर्यटकों का खासा खयाल रखते हैं. पर्यटकों के कम आने से यहां के लोगों के सामने बेरोजगारी बढ़ती जा रही है.

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15 माह से अधिक का समय हो चुका है. स्वर्ग से सुंदर कश्मीर के हालात जस के तस हैं. जम्मूकश्मीर के बहुत से इलाकों में अभी भी धारा 144 लागू है. वहां कर्फ्यू जैसे हालात हैं. नेताओं की नजरबंदी हटने के बाद भी कश्मीर की फिजाओं में बेचैनी है. माहौल शांत नहीं है.

स्वर्ग से सुंदर माना जाने वाला कश्मीर वीरान पड़ा है. डल झील में पडे़ शिकारे कबाड़ हो रहे हैं. मोबाइल और इंटरनैट की सेवाएं जैसी पूरे देश में हैं, वैसी कश्मीर में नहीं हैं. स्थानीय लोग घबराए हुए हैं. जो लोग अपनेे परिवार से दूर हैं, उन को घरपरिवार की चिंता है. सोशल मीडिया ही अकेला माध्यम रह गया है, जहां पर लोगों के विचार दुनिया के सामने आ सकते हैं. यहां भी पूरी आजादी नहीं है. शब्दों का चयन बहुत ही चुनचुन कर करना पड़़ता है.

संविधान बदल देने से दिल नहीं बदलते हैं. कश्मीर के नेताओं ने एक मंच बना कर अनुच्छेद 370 की बहाली की मांग उठा दी है. उन की समस्या यह है कि वह अनुच्छेद 370 के पहले के और बाद के हालात की तुलना कर उस की उपयोगिता नहीं बता पा रहे हैं. वह अपनी लड़ाई भाजपा के खिलाफ बता रहे हैं, जिस से उन पर देश के विरोध का ठप्पा न लग सके.

कश्मीर से बाहर रह रहे लोग विस्थापित कश्मीरी पंडितों के सच को भी जानना चाहते हैं. ऐसे में कश्मीर की लड़ाई में मैदानी लोगों को जोड़ना आसान काम नहीं है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा कश्मीरी नेताओं की लड़ाई को देश के खिलाफ बता कर मैदानी इलाकों में रहने वाले कट्टरवादियों को सीना फुलाने का मौका दे रही है, जिस से कश्मीर की लड़ाई के सहारे वोटों को धार्मिक ध्रुवीकरण में बदला जा सके.

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मशहूर शायर फिरदौस ने लिखा था, ‘गर फिरदौस बर रूए जमीं अस्त, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्तो’. इस का मतलब है, ‘धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है और यहीं है’.

फारसी के शायर फिरदौस की लाइनों से कश्मीर की खूबसूरती को समझा जा सकता है. पूरे देश के लिए कश्मीर का अपना अलग महत्व है. यही वजह है कि 14 मई, 1954 को कश्मीर को अलग राज्य का दर्जा दे कर स्पैशल स्टेट्स दिया गया था.

कश्मीर पर पाकिस्तान की बुरी नजर और आतंकवाद को बढ़ावा देने के चलते यहां आतंकवाद और अलगाववाद बढ़ने लगा. 1965 और 1971 के भारतपाक युद्ध के बाद ये हालात और भी बुरे होते गए.

साल 1990 के बाद कश्मीरी पंडितों के पलायन और वहां आतंकवाद के फैलते पंजे के चलते कश्मीर राज्य के स्पैशल स्टेट्स पर सवाल उठने लगे. अनुच्छेद 370 का पुरजोर विरोध शुरू होने लगा.

5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को खत्म कर दिया. इस के साथ ही 31 अक्तूबर, 2019 को जम्मूकश्मीर के पुनर्गठन ऐक्ट को मंजूरी दे दी. इस के बाद भी जम्मूकश्मीर के जमीनी हालात नहीं बदले हैं.

भारत ने कश्मीर में हालात बदलने के जितने भी प्रयास किए, वे जस के तस रहे. अनुच्छेद 370 के पहले और बाद के हालात में किसी भी तरह का कोई बदलाव नहीं आया है. कश्मीर में अमनचैन, आजादी और विकास सपने की तरह ही रह गया.

कश्मीर को दूर से देखने वाले हिंदू कट्टरवादी लोगों के लिए अनुच्छेद 370  हटने के बाद सीना फुलाने वाला माहौल भले ही बना हो, पर संविधान बदलने से दिल नहीं बदले.

कश्मीर के सभी विरोधी दल एक मंच पर आ कर अनुच्छेद 370 की बहाली की मांग कर रहे हैं. केंद्र सरकार के लिए सब से जरूरी है कि कश्मीर में राजनीतिक माहौल को बहाल करे. जनता को मुख्यधारा से जोडे़. धारा 370 हटाने के बाद केंद्र सरकार ने ऐसे तमाम वादे भी किए थे. एक साल बाद भी इन पर अमल नहीं हुआ.

कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद सब से बड़ा सब्जबाग यह दिखाया गया कि अब वहां सस्ती जमीन मिलेगी. बडे़ स्तर पर वहां उद्योगपति निवेश करेंगे, जिस से साल 2025 तक कश्मीर स्वर्ग बन जाएगा. लेकिन धारा 370 हटने के एक साल बाद भी बदलाव की कोई शुरुआत होती नहीं दिखी है. केंद्र सरकार ने कश्मीर में इनवैस्टर मीट कराने की योजना बनाई थी. अनुच्छेद 370 हटाने के बाद अगर कश्मीर में अमनचैन बहाल हो गया होता, तो वहां के नेताओं को केंद्र सरकार के विरोध का मौका नहीं मिलता.

मुसीबत खड़ी करेगा नया मोरचा :

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करने का फैसला वैसा ही था, जैसे कालाधन लाने के लिए नोटबंदी और कोरोना पर काबू करने के लिए तालाबंदी का. 13 माह से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी कश्मीर में ना तो डर का माहौल खत्म हुआ है और ना ही अमनचैन बहाल हो पाया है. कश्मीर के ज्यादातर हिस्सों में जनजीवन ठप सा है.

कश्मीर में बेरोजगारों
की तादाद में तेजी से इजाफा हुआ है. यहां का टूरिज्म और व्यापार पूरी तरह बंद हो चुका है. बड़ी तादाद में लोगों के सामने भुखमरी के हालात बन गए हैं. युवाओं को अपना भविष्य अंधेरे में नजर आने लगा है. यही वजह है कि यहां का माहौल नौर्मल नहीं हो रहा है. विरोधी नेताओं को अब मौका मिलने लगा है.

कश्मीर के नेता डाक्टर फारूक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और तमाम दूसरे नेताओं को जब 10-11 माह के बाद रिहा किया गया, तो वह आपसी दूरियां भूल कर एक मंच पर खडे़ हो कर अनुच्छेद 370 को बहाल करने की मांग करने लगे हैं. इस के लिए पीपुल्स अलांयस फौर गुपकार डिक्लेरेशन यानी पीएजीडी बना लिया. नेशनल कांफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला को अध्यक्ष, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती को उपप्रमुख, सीपीएम नेता मोहम्मद यूसुफ तारिगामी को समन्वयक, पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद गनी लोन को प्रवक्ता पद दिया गया है.

पीपुल्स अलांयस फौर गुपकार डिक्लेरेशन यानी पीएजीडी का झंडा पहले के जम्मूकश्मीर का झंडा होगा. संगठन जल्द ही अनुच्छेद 370 हटने के बाद एक साल के हालात पर एक श्वेतपत्र जारी करेगा.

केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा, ’श्वेतपत्र एक साल का नहीं, बल्कि आजादी के बाद से अनुच्छेद 370 के पहले और बाद का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए जारी होना चाहिए. भारत के झंडे के अपमान और कश्मीरी पंडितों के पलायन और अत्याचार के हालात देश के सामने आने चाहिए.

महबूबा का यह कहना कि ‘जब तक कश्मीर का झंडा बहाल नहीं होगा, वह देश का तिरंगा नहीं उठाएंगी, यह राष्ट्रीय ध्वज का अपमान है.‘

महबूबा के बयान को कांग्रेस ने भी सही नहीं माना है. जम्मूकश्मीर में कांग्रेस के प्रवक्ता रविंद्र शर्मा ने कहा कि महबूबा के बयान से कश्मीर की लड़ाई कमजोर होगी. यह बयान किसी भी समाज में बरदाश्त करने योग्य नहीं है.

हिंदुत्व के प्रति नरम होते फारूक :

कश्मीर की लड़ाई में कश्मीर के बाहर रहने वालों को भी साथ लेना होगा. फारूक अब्दुल्ला को यह बात समझ आ रही है. यही कारण है कि पीपुल्स अलांयस फौर गुपकार डिक्लेरेशन का गठन करने के बाद फारूक अब्दुल्ला  जम्मूकश्मीर के डलगेट इलाके में 700 साल पुराने बने दुर्गा नाग मंदिर में दर्शन करने गए. यही नहीं, फारूक अब्दुल्ला ने विस्थापित कश्मीरी पंडितों से वापस कश्मीर लौटने की अपील की.

फारूक अब्दुल्ला को यह पता है कि कश्मीर की लड़ाई में जब तक कश्मीर से बाहर के लोग शामिल नहीं होंगे, तब तक यह लड़ाई आसान नहीं होगी. इसी वजह से वह पीपुल्स अलांयस फौर गुपकार डिक्लेरेशन के गठन को भाजपा का विरोधी बताते हैं, देश का नहीं. फारूक कहते हैं कि ‘यह भाजपा विरोधी मंच है, न कि देश विरोधी’.

भाजपा ‘पीपुल्स अलांयस फौर गुपकार डिक्लेरेशन’ को देश विरोधी कह कर प्रचार कर रही है. इस का जवाब देते हुए फारूक अब्दुल्ला कहते हैं, ‘अनुच्छेद 370 को समाप्त कर जम्मूकश्मीर को 2 केंद्रशासित प्रदेशों में बांट कर भाजपा ने संघीय ढांचे को तोड़ा है. देश के संविधान को दरकिनार कर के समाज को बांटने का काम किया है. हमारी केवल इतनी मांग है कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख के लोगों के अधिकारों को बहाल किया जाए. यह कोई धार्मिक लड़ाई नहीं है. यह हमारी पहचान की लड़ाई है. इसी पहचान के बलबूते ही एक मंच पर तमाम लोग आए हैं.’

केंद्र के निशाने पर फारूक :

केंद्र सरकार ने कश्मीर के नेता फारूक अब्दुल्ला पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया. केंद्र सरकार ने उन के पीछे ऐनफोर्समैंट डायरैक्ट्रेट यानी ईडी को लगा दिया. फारूक अब्दुल्ला पर यह पुराना मामला है.

फारूक अब्दुल्ला जम्मूकश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष थे. साल 2002 से 2011 के बीच जम्मूकश्मीर क्रिकेट एसोसिएशन को 112 करोड़ रुपए दिए गए, जिन में से 43.69 करोड़ रुपयों का गबन किया गया था. ईडी उसी की जांच कर रही है. जुलाई, 2019 में और उस से पहले भी इस सिलसिले में ईडी फारूक अब्दुल्ला से पूछताछ कर चुकी है.

सवाल उठता है कि अगर फारूक अब्दुल्ला के खिलाफ जांच करनी थी तो जब उन को नजरबंद किया गया था, उसी समय क्यों नहीं ऐसा कर लिया गया?

फारूक अब्दुल्ला कहते हैं, ‘वे इस तरह की कार्यवाही से डरने वाले नहीं हैं. वे आगे भी इस के लिए तैयार हैं. अगर अनुच्छेद 370 की बहाली के लिए उन्हें फांसी पर भी चढ़ना पड़े, तो वे इस के लिए तैयार हैं. यह हमारी सियासी लड़ाई है और बहुत लंबी सियासी लड़ाई है. हम यह लड़ाई पूरी ताकत से लड़ेंगे. यह हमारा मकसद है, जो न तबदील हुआ है और न ही तबदील होने वाला है. यह लड़ाई केवल मेरी नहीं है. यह लड़ाई जम्मूकश्मीर के लोगों की लड़ाई है.’

फारूक अब्दुल्ला कश्मीर की लड़ाई में देश के बाकी लोगों खासकर विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों को भी जोड़ना चाहते हैं. वे बारबार इस को हिंदूमुसलिम की लड़ाई से दूर रखना चाहते हैं. पीपुल्स अलांयस फौर गुपकार डिक्लेरेशन में शामिल महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं के भड़काऊ बयान फारूक अब्दुल्ला के प्रयासों को नुकसान पहुंचा सकते हैं.

कश्मीर पर वार पलटवार :

नजरबंदी से आजाद होने के बाद जिस समय कश्मीर के नेता एक मंच पर आ कर केंद्र सरकार के खिलाफ लड़ाई का चैलेंज कर रहे थे, ठीक उसी समय केंद्र सरकार जम्मूकश्मीर में भूस्वामित्त अधिनियम में संशोधन कर के नोटिफिकेशन जारी कर रही थी, जिस के बाद देश का कोई भी नागरिक जम्मूकश्मीर में मकान, दुकान और कारोबार के लिए जमीन खरीद सकता है. अब खेती की जमीन को छोड़ कर कोई पाबंदी नहीं होगी.

जम्मूकश्मीर के एलजी मनोज सिन्हा ने कहा, ‘हम चाहते हैं कि बाहर से आ कर लोग यहां उद्योगधंधे लगाएं. कश्मीर की औद्योगिक जमीन में इनवेस्टमैंट की जरूरत है. हालांकि खेती की जमीन केवल राज्य के लिए ही रहेगी.’

5 अगस्त, 2019 से पहले जब कश्मीर में अनुच्छेद 370 लागू था, तो कश्मीर को अलग राज्य का दर्जा मिला था. उस समय केवल जम्मूकश्मीर के स्थायी नागरिक ही जमीन खरीद सकते थे. देश के अन्य हिस्से के रहने वाले लोग केवल पट्टे के आधार पर शर्तों के साथ ही जमीन प्राप्त कर सकते थे.

कश्मीर पर पूरे देश की नजर लगी है. ऐसे में यह बदलाव देश के अन्य हिस्सों में रहने वालों को पंसद आ रहे हैं. पर कश्मीर के नेता इस का विरोध कर रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा, ‘जमीन कानून में बदलाव स्वीकार नहीं है. पूरे जम्मूकश्मीर को बेचने के लिए रख दिया गया है. जमीन के गरीब मालिक की मुसीबतें इस से बढ़ेंगी.’

पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कहा, ‘केंद्र सरकार ने जम्मूकश्मीर को बेचना शुरू कर दिया है. इस का मकसद यहां के लोगों को अधिकारविहीन करना है. यह केंद्र सरकार की साजिश है.‘

फिजा बदलने के इंतजार में कश्मीर :

अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सतपाल मलिक ने कहा था कि कश्मीर में 50,000 नौकरियां दी जाएंगी. यह बात भी केवल दिखावा भर रही. कश्मीर के विकास को ले कर केंद्र सरकार ने जो छवि पेश की थी, उस के अनुसार कश्मीर बेहद अविकसित प्रदेशों में शुमार किया था. अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद कश्मीर में विकास की गंगा बहाने का वादा किया गया था. कश्मीर को ले कर पूरे देश की एक ही धारणा है कि वहां केवल पर्यटन उद्योग और सेब की बागबानी पर ही पूरी आर्थिक व्यवस्था टिकी है.

जम्मूकश्मीर में देश के कुल सेब उत्पादन का 77 फीसदी हिस्सा पैदा होता है. कश्मीर में तमाम दूसरे तरह के खनिज मिलते हैं, जो पूरे देश में कहीं नहीं मिलते. इस में चूना, पत्थर, संगमरमर, जिप्सम, ग्रेनाइट, बौक्साइड, डोलोमाइट, कोयला और सीसा प्रमुख रूप से उल्लखनीय है. इस तरह के कारोबार को करने वालों के लिए कश्मीर व्यवसाय की नजर से स्वर्ग लग रहा है. कश्मीर में भूमि सुधार कानून लागू था. जिस वजह से देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले यहां की भूमि पर सुधार का असर अधिक पड़ा.

आंकडे़ भी इस अंतर को बताते हैं. 2010-11 में जम्मूकश्मीर में ग्रामीण गरीबी का अनुपात 8.1 था, वहीं पूरे देश में यह 33.8 था. गरीबी रेखा के आंकडे़ को देखें, तो जहां पूरे देश की 21 फीसदी आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है, वहीं जम्मूकश्मीर में केवल 10 फीसदी आबादी ही गरीबी रेखा के नीचे रहती है.

साल 2011 में जम्मूकश्मीर में साक्षरता दर 68.74 फीसदी थी, जो देश के किसी भी विकसित राज्य के मुकाबले कम नहीं है.

जम्मूकश्मीर राज्य राष्ट्रीय विकास के सूचकांक के दूसरे कई बिंदुओं पर देश के विकसित राज्यों से पीछे नहीं है. सेहत से जुडे़ कई मामलों में तो वह देश के विकसित राज्यों से बेहतर हालत में है. 5 साल से कम उम्र के बच्चों की औसत मृत्युदर पूरे देश में 36 प्रति हजार है, जबकि जम्मूकश्मीर में यह आंकड़ा 35 प्रति हजार ही है. बिजली, स्वच्छ पेयजल, साफसफाई, खाना बनाने में अच्छे ईंधन का प्रयोग, जम्मूकश्मीर में देश के दूसरे राज्यों उत्तर प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़ से बेहतर है.

अनुच्छेद 370 के तहत जम्मूकश्मीर को ले कर कई किस्म की भ्रांतियां पूरे देश में फैली हुई हैं. सब से बड़ी धारणा यह थी कि देश का सब से अधिक पैसा जम्मूकश्मीर को जा रहा है. दूसरे शब्दों में कहें, तो पूरा देश मिल कर जम्मूकश्मीर का पालनपोषण कर रहा था. असल बात इस से अलग है. विशेष राज्य का दर्जा केवल जम्मूकश्मीर को ही नहीं मिला था, बल्कि पिछले कुछ सालों में विशेष राज्य का दर्जा पाने वाले दूसरे प्रदेशों जैसे अरुणाचल और सिक्किम से कम सहायता जम्मूकश्मीर को मिलती थी.

देश में भूमिहीनों की तादाद गांव में रहने वालों की एकतिहाई है, जबकि जम्मूकश्मीर में भूमिहीनों की तादाद केवल गांव की आबादी का महज 2 फीसदी ही है. देश में ऐसा माहौल बन गया था, जैसे कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद विकास की गति बढ़ जाएगी. एक साल के बाद भी ऐसा नहीं हो पाया.

प्रारब्ध -भाग 2 : आंटी का कौन सा प्रश्न उसे परेशान करता था?

लेखक-एस भाग्यम शर्मा

 

मैं ने कहा, “आज मुझे फुरसत ही फुरसत है. आप को समय हो और आप बताना चाहें, तो बता दें. आज पापा का खाना उन के फ्रैंड के साथ है. मैं अकेली हूं. आज मेरी छुट्टी है.”

“अच्छा, तो रमा बैठो, मेरी कहानी सुन लो और यहीं खाना भी खा लेना. मेरा बेटा सुंदर काम से बाहर गया हुआ है.”

“सुनाइए आंटी.”

“मेरा आईएएस में सिलैक्शन हो गया था. मसूरी में ट्रेनिंग चल रही थी. सुदूर दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रांत से आए रघुपति स्मार्ट, सुंदर और होशियार थे. हम दोनों एकदूसरे की तरफ आकर्षित हुए. दोनों के घरवालों के विरोध के बावजूद हम ने शादी करने की ठान ली. शादी भी हो गई. थोड़े दिनों तक सब ठीकठाक रहा. मेरा बेटा भी हो गया. रघुपति के मांबाप ने बेटे से समझौता कर लिया और मुझ से कहा कि अपने बेटे को हमारे पास छोड़ दो. हम उसे पालपोस कर बड़ा करेंगे.

“मेरी इच्छा ऐसी नहीं थी. पर सब ने मुझे समझाया, बच्चे के दादादादी उस को तुम से ज्यादा अच्छे से रखेंगे. तुम्हें नौकरी करते हुए छोटे बच्चे को साथ रखने में परेशानी होगी. मेरी नौकरी दौरे की थी, बारबार दौरे पर जाना पड़ता था.

“हैडक्वार्टर में थी, तब भी सुबहशाम घर आनेजाने का कोई ठिकाना नहीं था. मेरे मातापिता ने भी इसे ठीक समझा. मैं विवश थी. नौकरों के भरोसे बच्चों को पालना मुश्किल था. शुरू में सब ठीकठाक था. छुट्टी होते ही बच्चे के मोह में ससुराल जातीआती रही. बाद में मेरी ससुराल वालों को मेरा आनाजाना खलने लगा. मेरे पति रघुपति कहते, ‘सही तो है न, तुम बारबार आओगी तो बेटा उन के पास कैसे रहेगा?’ वह बात भी मैं मान गई.

“जब छुट्टी होती तो वे अपने घर चले जाते. मेरी उपेक्षा करने लगे. मैं काम के बोझ में व्यस्त होती गई. जब  बेटे से मिलने जाती तो वे लड़ाईझगड़ा करते. मेरा बेटा सुंदर मुझ से ज्यादा अपने दादादादी और पिता से जुड़ा था. मेरा जीना ही मुश्किल हो गया,” यह कहते हुए बोलीं, “चलो, चाय पीते हैं.”

मैं ने कहा, “आंटी, मुझे तो आप के हाथ की फिल्टर कौफी पीनी है. उस की खुशबू हमारे घर तक आती है.”

“अरे, जरूरजरूर. लो, मेरा बेटा भी आ गया. वह भी इस समय कौफी पीता है. हम साथसाथ पिएंगे.”

मुझे संकोच हुआ. वे बोलीं, “तुम आराम से बैठे. मेरा बेटा सोमू मेरे जैसा नहीं है, बहुत सोशल है.” हम पहले ही मिल चुके थे. उन के बेटे ने भी मुझ से बैठने का आग्रह किया. सुंदरम मुझ से पापा के बारे में पूछने लगे. बातों ही बातों में मैं ने बताया कि पापा का मन नहीं लगता. उस ने पूछा, “पापा को क्याक्या शौक हैं?”

“पढ़ने का, गार्डनिंग, राजनीति बहस करने का.”

“अरे वाह, मेरा उन के साथ मन लग जाएगा. मैं भी इन बातों का शौक रखता हूं.”

“फिर तो आप घर जरूर आइएगा, मिल कर बातें करेंगे.”

इतने में कौफी आ गई. हम सब ने कौफी पी, फिर मैं घर आने को हुई तो गीता आंटी बोलीं, “आगे की कहानी बाद में सुनाऊंगी, अभी खाना बनाना है.”

अगले दिन सुंदरम आ गए. पापा  मेरे बड़े बातूनी हैं. दोनों की जोड़ी जोरदार थी, खूब बातें कर रहे थे. मैं भी उन के साथ बैठ गई बातें करने लगी‌.

सुंदरम पापा से बात करते पर मेरी तरफ भी देखते जाते. इस उम्र में भी मेरे अंदर एक सिहरन सी दौड़ गई. यह कैसे है, मुझे पता नहीं. सोमसुंदरम की बातें सुनती रहूं, ऐसा लगता. मुझे आज तक किसी के लिए ऐसा नहीं लगा. अब ऐसा क्यों लग रहा है?

पापा और सोमसुंदरम दोनों वाकिंग पर जाते. कई बार रात में क्लबों में जाते. पापा खेल के बहुत शौकीन हैं, ऐसे ही आंटी का बेटा भी. दोनों में पटने लगी. जब दोनों जाते तब मैं आंटी के पास चली जाती. वे अपनी कहानी सुनाने लगतीं. वही धारावाहिक सीरियल जैसे मुझे सुनातीं. मुझे भी बहुत इंटरैस्ट आने लगा.

वे कहने लगीं, “मेरे पास मेरे पति का आना करीबकरीब बंद हो गया. वे आते, तो भी उन के पास शिकायतों का पिटारा ही होता. ससुराल जाती, तो कोई सीधेमुंह बात न करता. बच्चे को मेरे पास न आने देने के लिए कई बहाने बनाए जाते थे. बच्चा जैसेजैसे बड़ा होता गया, मुझ से दूर होता गया. उसे मेरे खिलाफ झूठी बातें कह कर भड़काया जाता था. मेरे लिए जीना ही दूभर हो गया. मैं ने तय कर लिया कि ऐसी जिंदगी जीने से क्या फायदा, मैं ने तलाक देने के लिए कहा.

“वे यही तो चाहते थे. पर बच्चे को देने से मना कर दिया. रघुपति ने तब तक अपना ट्रांसफर भी मेरी ससुराल में ही करवा लिया था. ‘बच्चा मेरे मांबाप के पास ही रहेगा. मैं भी यहां हूं. यह अकेली उसे कैसे रखेगी?’ कोर्ट में रघुपति ने कह दिया. सोमू ने भी अदालत में पिता के पास रहने की जिद की और जज ने उसे पिता के पास सौंपने का फैसला सुनाया.”

उन की कहानी सुन कर मेरा जी भर आया.

वे आगे कहने लगीं, “मैं हफ्ते में एक दिन या महीने में 4 दिन बच्चे से मिल सकती थी. अब सोमू बड़ा हो गया था. वह मुझ से बात नहीं करना चाहता था. मुझे देख कर अंदर भाग जाता. कुत्ते से खेलने लगता, रोने लगता और कहता, ‘तुम गंदी हो, मत आओ. आप मेरी मम्मी नहीं हो.’ इसे मैं सहन न कर पाती थी. जब वहां जा कर आती, मन प्रसन्न होने के बजाय बहुत दुखी होता. मुझे इस हालत में देख कर मम्मीपापा भी बहुत दुखी होते. वे कहते, ‘जब वहां जा कर दुखी होती हो तो बारबार जाने की क्या जरूरत है.’

“बच्चे को देखने की इच्छा को मैं रोक नहीं पाती. किसी से मिल कर मन प्रसन्न हो, तब ही जाना चाहिए. हम मंदिर जाते हैं, मसजिद जाते हैं या गुरुद्वारे में जाना चाहते हैं, क्यों? इस बात को समझो. मैं अपनेआप को समझाने की बहुत कोशिश करती, पर मन है कि मानता ही नहीं. मेरे खिलाफ उन लोगों ने सोमू में जहर भर दिया था. उस जहर को निकालना मेरे वश के बाहर था.

“इस बीच मेरा ट्रांसफर बहुत दूर हो गया. फिर भी कोशिश कर के आती, तो वही पुरानी बातें दोहराई जाती थीं. अंत में तंग आ कर जाना छोड़ दिया.”

इस बीच, सोमू आ गया. बातों में हम ने ध्यान नहीं दिया. वह हमारे लिए कौफी बना कर ले आया. वह भी हमारे बीच बैठ गया. मैं संकोचवश उठने लगी. “अरे, बैठो रमा, मेरे बेटे को कोई फर्क नहीं पड़ता. वह पहले जैसा तो है नहीं.”

मैं बोली, “बच्चों के बिना रहना तो बहुत मुश्किल है.”

“हां रे, तू सही कह रही है. पर कुदरत ने मुझे बच्चा दे कर भी मुझ से छीन लिया. किसी के बच्चे होते ही नहीं हैं. मेरे होने के बावजूद नहीं जैसे हो गया. मैं ने काम में मन लगाया और तरक्की पाती चली गई. एक बार सोमू की बहुत याद आने पर मैं एक हफ्ते की छुट्टी ले कर गई. तो पता चला वे बच्चे को ले कर विदेश चले गए. मैं ने सोचा, वे वापस आ जाएंगे, पर वे फिर नहीं आए.

 

प्रारब्ध -भाग 1: आंटी का कौन सा प्रश्न उसे परेशान करता था?

लेखक-एस भाग्यम शर्मा

मैं एक पौश कालोनी में रहती हूं. मेरे साथ मेरे वृद्ध पिता रहते हैं. मैं इस कालोनी में 15 वर्षों से रह रही हूं. पड़ोस के मकान. जिस की बाउंड्री एक ही है, में रहने वाले उसे बेच कर अपने बच्चों के पास चले गए. यहां मकान बहुत महंगे हैं. उस को 60 साल की एक महिला ने खरीदा. उसे नया बनाने में बहुत पैसा खर्च किया. उसे मौडर्न बनवा लिया. सारी सुविधाएं मुहैया करवाईं. फिर वे रहने आईं.

वे बहुत ही प्यारी व सुंदर महिला थीं. वे किसी से बात नहीं करती थीं, सिर्फ मुसकरा देती थीं. कहीं जाना हो तो अपनी बड़ी सी कार में बैठ कर चली जातीं. हमारी और उन की कामवाली बाई एक ही थी. जो थोड़ीबहुत मेरी उत्सुकता को कम करने की कोशिश करती. पूरे महल्ले वालों को उन के बारे में जानने की उत्सुकता तो थी, पर जानें कैसे?

वे कोई त्योहार नहीं मनाती थीं. नाश्ता वगैरह नहीं बनाती थीं. बाई, जिसे मैं समाचारवाहक ही कहूंगी, कहती, ‘कैसी औरत है, न वार माने न त्योहार. पूछो तो कहती है कि इन बातों में क्या रखा है. शुद्ध ताजा बनाओ और खाओ.’ वे अकसर दलिया ही बनातीं.

कभीकभी मैं सोचती कि बाई के हाथ कुछ नाश्ता भेज दूं. फिर कभी डरतेडरते भेज देती. वे महिला पहले मना करतीं, फिर ले लेतीं. मुझे बरतन लौटाते समय कोई फल रख कर दे देतीं. उन से बोलने की तो इच्छा होती पर मैं क्या, महल्ले का कोई भी उन से नहीं बोलता. मैं अपने पिता से ही कितनी बात करती. मैं सर्विस करती थी, सुबह जा कर शाम आती थी. इसीलिए मुझे ताकझांक करने की आदत नहीं है.

यदि उन के बाहर जाते समय मैं बाहर खड़ी होती तो वे मुसकरा देतीं. सब को उन के रुतबे के कारण बोलने में संकोच होता था. मैं स्वयं तो बोलती ही नहीं थी. ऐसे ही 5 साल बीत गए. इतने साल कालोनी में रहने के बावजूद उन की किसी से दोस्ती न हुई, न उन्होंने की.

एक दिन अचानक उन के घर एक बड़ी कार आ कर खड़ी हुई. उस में से एक सुंदर 40-45 साल का व्यक्ति निकला. सब ने उसे आश्चर्य से देखा. इतने सालों में उन के घर कोई नहीं आया. अब यह कौन है? महल्ले वालों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा वह उन्हीं के घर में उन के साथ ही रहने लगा. वे साथसाथ बाहर जाते. कार से जाते और कार से ही वापस आते. मैं अपनी उत्सुकता रोक न सकी. पर क्या करें. अब तो उन के घर से पकवान बनाने की खुशबू भी आने लगी. परम आश्चर्य! एक दिन बाई ने मुझे बताया कि वह उन का बेटा है. शायद चला जाए. पर वह तो गया ही नहीं.

14 जनवरी, मकर संक्रांति का दिन. वही पड़ोसिन गीता आंटी घर के सामने सुंदर रंगोली बना रही हैं. क्या बच्चे, क्या बड़े, पूरा महल्ला झांकझांक कर देख रहा था. मेरे भी कुछ समझ में नहीं आया, कहां तो कोई त्योहार नहीं मनाती थीं. हमारे उत्तर भारत में रंगोली का रिवाज मकर संक्रांति में तो है नहीं. दिवाली पर तो कोईकोई रंगोली बनाता भी है.

उन का बेटा भी मां के रंगोली बनाने को बड़े ध्यान से देख रहा था. तो उसी समय मेरे पापा ने अपना परिचय दे कर उस युवक से बात की. युवक तो बहुत खुश हुआ. बड़ी गर्मजोशी से पापा से हाथ मिलाया. पापा ने उस से बताया कि पड़ोस में रहते हैं.

“हां अंकल, मैं ने आप को देखा, संकोचवश बोल न पाया,” उस ने कहा.

मैं अपने रिवाज के अनुसार मकर संक्रांति पर 14 वस्तुएं बांटने निकली. मैं पड़ोसिन गीता आंटी के घर भी गई. उन्होंने खुश हो कर मेरे हाथ से चीजें ले लीं और पोंगल (चावल-मूंग की दाल की मीठी डिश जो तमिलनाडु में मकर संक्रांति पर बनाते हैं) खिलाया. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. मैं ने बहुत स्वाद ले कर खाया. उन्होंने मेरे पापा के लिए एक बरतन में डाल कर दे दिया. फिर अपने बेटे से मेरा परिचय कराया. उस का नाम सोमसुंदरम था. वे उसे सुंदर कह कर बुलाती हैं.

मैं ने पूछा, “इतनी दिनों ये कहां गए थे?”

“यह अमेरिका में रहता था. अब मेरे पास आ गया है.”

इस तरह आंटी से मेरी दोस्ती हो गई. पर मुझे एक प्रश्न परेशान करता था. इतने दिनों से तो कहती थीं कि मेरा कोई नहीं. आज मेरा बेटा कह रही हैं. कोई इन्हें धोखा तो नहीं दे रहा है, कहीं भावना में बह कर इन्होंने इसे अपना बेटा तो नहीं माना, कोई अनहोनी हो गई तो…मेरा मन रहरह कर मुझे परेशान करता. मैं ने यह बात अपने पापा को बताई तो वे बोले, “तुम अपने काम से मतलब रखो, ज्यादा होशियार बनने की जरूरत नहीं. वह औरत आईएएस थी. अपने काम से ही मतलब रखना बेटा. उन्हें सलाह देने की जरूरत नहीं.”

परंतु, वह लड़का बहुत ही स्मार्ट, बढ़िया पर्सनैलिटी, बहुत ही हैंडसम था. कहना तो नहीं चाहिए पर मेरे दिल में पता नहीं क्यों कुछ अजीब सा होने लगा. क्या हुआ इस उम्र में. मैं ने दिल को काबू करना चाहा. पर पता नहीं क्यों मेरा दिल काबू में नहीं रहा.

मुझे लगा इन आदमियों का दिल तो होता नहीं. मुझे बहुत तकलीफ हो रही थी. मुझे लगता, बच्चे सब को बहुत अच्छे लगते हैं. कौन सी ऐसी औरत होगी जो मां न बनना चाहे. यह औरत भी 65 साल से ऊपर हो गई है. कहते तो हैं कि 60 साल में सठिया जाते हैं. यह तो 65 से ऊपर हो गई है.

पैसे वाली है, इसीलिए कोई उसे धोखा तो नहीं दे रहा, फंस जाएगी बेचारी. मैं सोचसोच कर परेशान होती रही. पर उस के बेटे का आकर्षण मुझे उस की ओर खींचता चला गया. वह बेटे के लिए रोज तरहतरह का खानानाश्ता बनाती. यह लड़का शायद दक्षिण भारत का है, सो वे वहीं के त्योहार ज्यादा मनातीं और दक्षिण भारतीय व्यंजन और नाश्ते बनातीं. मन बहुत परेशान रहने लगा. कहीं मेरी पड़ोसिन धोखा ना खा जाए क्योंकि पड़ोस में साथ रहतेरहते उन से विशेष स्नेह और अपनत्व हो गया था. उन से कैसे पूंछू. कुछ बोलूं, तो शायद बुरा मानें. कल कुछ हो न जाए, मन बहुत व्यथित हो रहा था.

एक दिन उन के लड़के को अकेले बाहर जाते देखा, तो मैं पड़ोसिन के पास चली गई. मैं ने कहा, “आंटी, आप बहुत बड़ी हैं. समझदार हैं. मुझे आप के पारिवारिक मामले में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है. होना भी नहीं चाहिए. पर मैं आप से बहुत ही स्नेह रखती हूं. सो, कह रही हूं, गलती हो तो माफ कर देना. मैं आप की बेटी जैसी हूं.”

“हांहां रमा, बोलो, क्यों इतनी परेशान हो रही हो? तुम मेरी बेटी ही हो,” वे बोलीं.

झिझकते हुए मैं बोली, “यह आप का सगा बेटा है?”

“बिलकुल. पर मैं ने कभी किसी से कहा नहीं क्योंकि मुझे भी पता नहीं था कि वह कहां है?”

“क्या?” मैं ने आश्चर्य से पूछा.

“यह बहुत बड़ी कहानी है. तुम्हें फुरसत नहीं है, सुनाऊंगी कभी.”

तलाक के लिए गुनाह और फसाद क्यों 

27 साला चेतन सुभाष सुराले पेशे से सौफ्टवेयर इंजीनियर है. पुणे में रहने वाले चेतन की शादी इसी साल मार्च में स्मितल सुराले नाम की लड़की से धूमधाम से हुई थी जो मेकैनिकल इंजीनियर है.  चेतन बहुत खुश था क्योंकि 25 साला खूबसूरत और पढ़ीलिखी स्मितल मौडर्न और स्मार्ट भी थी. ऐसी बीवी आजकल के लड़कों की पहली पसंद होती है. एकदूसरे को नजदीक से समझने और मौजमस्ती के लिए दोनों हनीमून पर नहीं जा पाए थे क्योंकि शादी के तुरंत बाद लौकडाउन लग गया था.

लौकडाउन हटा और जिंदगी पटरी पर आने लगी तो दोनों बीती 18 अक्तूबर को हनीमून मनाने के लिए महाबलेश्वर जा पहुंचे जहां की खूबसूरती और आबोहवा दुनियाभर में मशहूर है. दोनों ने अपने बजट के मुताबिक एक अच्छे होटल में डेरा डाल लिया और जिंदगी के हसीन लमहों को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, खासतौर से चेतन ने जिस का दिल एक सैकंड भी नईनवेली बीवी से जुदा होने को नहीं करता था. दोनों दिनभर बांहों में बांहें डाले महाबलेश्वर में घूमते थे और रात को होटल के अपने कमरे में आ कर एकदूसरे की आगोश में ऐसे खो जाते थे मानो दुनिया की कोई ताकत अब उन्हें जुदा नहीं कर पाएगी.

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अजब प्यार की गजब कहानी : 

होटल में दोनों की मुलाकात 22 साला कोस्तुभ अनिल गोगाटे नाम के नौजवान से हुई जो अकेला ही महाबलेश्वर आया था. अनिल खुशमिजाज था और यारबाज भी. लिहाजा, उस की पहल पर चेतन 2 दिनों में ही उस का दोस्त बन गया क्योंकि वह भी पुणे का ही था.  शाम को दोनों जिगरी दोस्तों की तरह साथ बैठते हमप्याला, हमनिवाला हो गए.

स्मितल ने इस दोस्ती और नजदीकी पर कोई एतराज नहीं जताया बल्कि दोनों के साथ बैठ कर वह भी इन की महफ़िल में शरीक होने लगी. इस तरह खाली वक्त और अच्छे से गुजरने लगा.

तीसरे दिन ही अनिल ने बातों ही बातों में चेतन के सामने रोना रोया कि लौकडाउन के चलते उस की नौकरी छूट गई है और अब तो उस के पास मकान का किराया देने को भी पैसे नहीं बचे हैं. ऐसे में अगर वह उस की मदद करे तो बड़ा एहसान होगा. नौकरी मिल जाने के बाद वह उस की पाईपाई चुका देगा. मदद के नाम पर उस ने मांगा यह कि चेतन उसे कुछ दिन अपने घर में रहने की इजाजत दे दे. नरम दिल चेतन पसीज गया और हामी भर दी. महाबलेश्वर से ये लोग वापस पुणे आए, तो अनिल भी उन के घर में रहने लगा.

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हफ्ताभर ठीकठाक गुजरा, अनिल इन दोनों से कुछ इस तरह घुलमिल गया जैसे सालों से इन्हें जानता हो और घर का ही मैम्बर हो. लेकिन जब उस की हकीकत चेतन को पता चली तो उस के पैरोंतले जमीन खिसक गई और वह बेइंतहा घबरा उठा क्योंकि अनिल उस को तो नहीं, बल्कि स्मितल को न केवल सालों से जानता था बल्कि उस से प्यार भी करता था और दोनों शादी भी करने वाले थे पर जाति अलग होने के चलते उन के घर वाले तैयार नहीं हुए थे जिन के दबाव में आ कर स्मितल ने मज़बूरी में चेतन से शादी कर ली थी.

दरअसल, एक दिन चेतन ने अनिल का मोबाइल खोला तो वह यह जान कर सकते में आ गया कि उस के साथ जिंदगी का सब से बड़ा धोखा हुआ है.  महाबलेश्वर में अनिल का अचानक या इत्तफाक से मिल जाना पत्नी और उस के प्रेमी की तयशुदा साजिश थी. बात यहीं ख़त्म हो जाती तो और थी, लेकिन अनिल और स्मितल के मोबाइल पर एकदूसरे से लिपटते हुए फोटो और चैटिंग उस ने पूरी देखी तो उस के रहेसहे होश भी फाख्ता हो गए. इन दोनों ने यह तक तय कर लिया था कि स्मितल मौका देख कर चेतन के अंग की नस काट कर उसे हमेशा के लिए नामर्द बना देगी और इसी नामर्दी की बिना पर वह उस से तलाक ले कर अनिल से शादी कर हमेशा के लिए उस की हो जाएगी.

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इतना सब कुछ हो गया और चेतन को भनक भी नहीं लगी.  लेकिन सचाई उजागर होते ही उस ने तुरंत पुणे के मालवाड़ी थाने में दोनों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई. वह इतना डरा हुआ था कि रिपोर्ट लिखाने के पहले सीधा अपने घर अहमदाबाद जा कर मांबाप को सारी कहानी बताई थी. अब पुलिस इस अजब प्यार की गजब कहानी की तफ्शीश कर रही है जिस की जड़ में एक कड़वा सच स्मितल का यह सोचना भी है कि अगर वह बिना किसी तगड़ी वजह के तलाक के लिए अदालत जाती तो तलाक मिलने में सालोंसाल लग जाते. लिहाजा, वजह उस ने आशिक के साथ मिल कर पैदा कर ली, लेकिन उस में कामयाब नहीं हो पाई.

यह वाकेआ जिस ने भी सुना, उस ने दांतोंतले उंगली दबा ली कि ऐसा भी होता है. लेकिन इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया कि इस फसाद की जड़ स्मितल की गलती के साथसाथ आसानी से तलाक न मिलने का डर भी था हालांकि इस में कोई शक नहीं कि वह प्यार अनिल से करती थी और इस हद तक करती थी कि उस से शादी की खातिर सीधेसादे और बेगुनाह  पति का प्राइवेट पार्ट काटने तक की हिम्मत जुटा बैठी थी. अगर यही हिम्मत वह प्रेमी से शादी करने को दिखा पाती तो आज बजाय कोर्टकचहरी करने के, सुकून से जिंदगी अनिल के साथ गुजार रही होती.

और भी हैं फसाद :

स्मितल ने तलाक के लिए बजाय अदालत का दरवाजा खटखटाने के एक संगीन गुनाह करने का मन क्यों बना लिया था, इस सवाल का जवाब आईने की तरह साफ़ है कि देश की अदालतों में तलाक के मुक़दमे सालोंसाल घिसटते हैं लेकिन पतिपत्नी को तलाक के बजाय मिलती हैं तारीख पर तारीख जिस से उन की जिंदगी नरक से भी बदतर हो जाती है. कई तो पेशियां करतेकरते बूढ़े हो जाते हैं. लेकिन अदालत को उन की परेशानियों से कोई वास्ता नहीं रहता कि वे भयंकर तनाव में जी रहे होते हैं. मुकदमे के फैसले तक वे दूसरी शादी भी नहीं कर पाते क्योंकि यह कानूनन जुर्म है.

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घर, परिवार और समाज में भी तलाक का मुकदमा लड़ रहे पतिपत्नी को अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता. एक तरह से उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है मानो वे अछूत हों. औरतों को ज्यादा दुश्वारियां झेलनी पड़ती हैं क्योंकि हर किसी की गिद्ध सी निगाह उन की जवानी पर रहती है. भोपाल की वसंती (बदला नाम) का तलाक का मुकदमा अपने पति से 3 साल से चल रहा है. वह बताती है कि उस की हालत तो कटी पतंग जैसी हो गई है जिसे हर कोई लूटना चाहता है. घरों में झाड़ूपोंछा कर गुजरबसर कर रही गैरतमंद वसंती को उस वक्त गहरा धक्का लगा था जब उस के एक पड़ोसी, जिसे उस ने भाई माना हुआ था, ने उस की कलाई पकड़ते बेशर्मों की तरह यह कहा था कि कब तक प्यासी भटकती रहोगी, जब तक मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता तब तक हम से प्यास बुझा लो और हमारी भी प्यास बुझा दो.

गरीब वसंती के दिल पर क्या गुजरी होगी, इस का अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता सिवा उन लोगों के जो सालों से तलाक का मुकदमा लड़ते जिंदगी से बेजार होने लगे हैं. ऐसे ही भोपाल के ही  एक नौजवान पत्रकार योगेश तिवारी 12 साल से तलाक के लिए अदालतों के चक्कर काटते 44 साल के हो चुके हैं. अब तो उन की दूसरी शादी कर घर बसाने की ख्वाहिश भी दम तोड़ चुकी है और बूढ़े मांबाप की सेवा करतेकरते वे खुद बूढ़े दिखने लगे हैं. योगेश अपनी इस हालत का जिम्मेदार तलाक कानूनों और अदालतों के ढुलमुल तौरतरीकों को ठहराते हैं, तो उन्हें गलत नहीं कहा जा सकता.

गुनाह की तरफ बढ़ते कदम :

पुणे की स्मितल जैसा ही एक मामला लौकडाउन के ही दौरान 20 अगस्त को बहादुरगढ़ से भी सामने आया था जब शहर के सैक्टर 9 में रहने बाले प्रदीप शाह की हत्या उस की पत्नी ने 10 अगस्त को अपने प्रेमी दिल्ली के रहने वाले यशपाल के साथ मिल कर कर दी थी क्योंकि पति उसे तलाक देने को राजी नहीं हो रहा था. बिलाशक, यह खतरनाक गुनाह  था. लेकिन अगर कानून में ऐसे कोई इंतजाम होते कि पति या पत्नी, वजह कोई भी हो, तलाक की फरियाद ले कर अदालत जाए और तुरंत तलाक हो जाए तो ऐसे जुर्म होंगे ही नहीं क्योंकि पति व पत्नी दोनों को आजादी और मरजी से जीने का हक़ मिल जाएगा.

तलाक आसानी से न होने पर पत्नी की हत्या का एक मामला मार्च के तीसरे सप्ताह में बहराइच से उजागर हुआ था. इस मामले में नेपाल से सटे गांव अड़गोडवा में हसरीन नाम की औरत की लाश मिली थी. पुलिसिया छानबीन में पता चला था कि हसरीन का पति रियाज 3 साल से सऊदी अरब में रह रहा था. उस की पटरी मायके में रह रही पत्नी से नहीं बैठती थी, जिस के चलते वह उसे तलाक दे कर दूसरी शादी करना चाहता था. पत्नी की हत्या के लिए रियाज ने मुंबई में रहने वाले अपने भाई मेराज को बहराइच भेजा, जिस ने साजिश रच कर हसरीन को मार डाला. लेकिन, पकड़ा गया.

ऐसे हजारों मामले हैं जिन में पति या पत्नी ने तलाक के लिए हत्या जैसा गुनाह किया या फिर एकदूसरे को किसी न किसी तरीके से नुकसान पहुंचाया. अगर तलाक आसानी से मिलता होता तो ये अपराध शायद ही होते. जो हिंसा नहीं कर पाते या नहीं कर सकते वे घटिया और ओछे हथकंडे अपना कर तलाक हासिल करने की कोशिश करते हैं. उन की मंशा भी अपना पक्ष मजबूत करने की होती है जिस से उन्हें लगता है कि अदालत पसीज जाएगी और आसानी से तलाक उन्हें मिल जाएगा.

आजमगढ़ की एक औरत ने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी कि कुछ लोग उसे गंदे मैसेज और वीडियो भेज रहे हैं जिस से वह दिमागीतौर पर परेशान है. छानबीन में पता चला कि उस का पति पुनीत ही यह सब खुद कर रहा था और कुछ दोस्तों से भी करवा रहा था कि जिस से पत्नी परेशांन हो कर तलाक के लिए राजी हो जाए. पुनीत ने अपनी पत्नी की नंगी सी तसवीरें उस के फोन नंबर के साथ फेसबुक पर डालते लिखा था कि सेवा के लिए हमेशा मौजूद. इस से कई मनचले पत्नी को फोन कर उस का रेट पूछने लगे थे. यानी, तलाक के लिए पति, पत्नी घटिया से घटिया तरीका आजमाने से नहीं चूकते. पुनीत की मंशा यह थी कि पत्नी बदनाम हो जाएगी तो इस बिना पर उसे जल्द तलाक मिल जाएगा.

मुक़दमे से तंग आ कर ख़ुदकुशी भी :

यह तो तलक के लिए हैरानपरेशान पति, पत्नियों का एक पहलू था लेकिन दूसरा भी कम चिंताजनक नहीं जिस में तलाक के मुक़दमे के चलते पति, पत्नी में से कोई उम्मीद के साथसाथ जिंदगी भी ख़ुदकुशी कर छोड़ जाते हैं क्योंकि इंसाफ की उन की आस पूरी होती नहीं लगती. वजह, मुक़दमे का लंबा खिंचना होता है.

ललितपुर के गांव थवारी के 23 साला नौजवान राजकुमार ने भी यही रास्ता चुना था जिसे वक्त रहते तलक नहीं मिला तो उस ने परेशान हो कर नरक होती जिंदगी ही छोड़ दी. बीती 13 फरवरी को राजकुमार ने जहर खा कर ख़ुदकुशी कर ली थी. उस के पिता बसन्ते के मुताबिक, राजकुमार तलाक न मिलने से टेंशन में आ गया था. अदालत में पेशियों पर पेशियां लगती जा रही थीं और अदालत को कोई सरोकार उस के तनाव से नहीं था. राजकुमार का गुनाह इतना भर था कि उस की अपनी बीवी से पटरी नहीं बैठ रही थी.

ऐसा ही एक चर्चित मामला ग्रेटर नोएडा के सैक्टर डेल्टा 1 में रहने वाले अरुण कुमार का है, जिस की पत्नी शीतल ने सुहागरात के हसीन वक्त में उस के ख्वाब यह कहते चकनाचूर कर दिए थे कि मांबाप ने उस की शादी जबरदस्ती कर दी है जबकि वह 7 साल से मनीष नाम के नौजवान से प्यार करती है और उस के साथ जिंदगी नहीं गुजार सकती. अरुण को समझ आ गया कि अब कुछ नहीं हो सकता, तो उस ने तलाक की बात कही. लेकिन शीतल और उस के घर वाले तलाक के एवज में 60 लाख रुपए की मांग पर अड़ गए. दोहरी परेशानी से आजिज आ गए बेकुसूर अरुण ने फांसी लगा कर जान दे दी. उसे यह समझ आ गया था कि तलाक का मुकदमा सालों चलेगा और उसे दहेज़ मांगने के इलजाम में जेल की हवा भी खानी पड़ेगी.

असली गुनाहगार तो ये हैं :

आखिर क्यों पति, पत्नी तलाक के लिए अदालत जाने के बजाय फसाद और गुनाह का शौर्टकट अपनाने लगे हैं, इस सवाल का जवाब बेहद कड़वा है कि पति, पत्नी अदालत की चौखट पर एड़ियां रगड़तेरगड़ते रो देते हैं लेकिन कानून बजाय उन की परेशानी सुलझाने के, हर पेशी पर उन्हें तारीख दे देता है. तलाक के लिए उस की वजह बताना जरूरी होती है जो अगर अदालत के गले न उतरे तो मुकदमा ख़ारिज भी हो जाता है. पति, पत्नी का यह कहना कोई माने नहीं रखता कि आपसी मनमुटाव और खयालात न मिलने के चलते वे एक छत के नीचे सुकून से नहीं रह सकते, इसलिए तलाक की उन की अर्जी मंजूर की जाए.

अदालतों में उलटी गंगा बहती है. पति या पत्नी अपना दुखड़ा और फरियाद  लिए कोर्ट पहुंचते हैं, तो जज कहता है, और सोच लो और फिर अगली तारीख लगा देता है. इस से तलाक चाहने वालों, जो घुटघुट कर जी रहे होते हैं, को लगता है कि कोई ऐसी कोई तगड़ी और वजनदार  वजह बताई जाए जिस से अदालत जल्द तलाक दे दे. इसलिए, अधिकांश मामलों में पति पत्नी के चालचलन पर उंगली उठाता है, उसे कलह करने वाली बताता है तो पत्नी पति पर नामर्दी और मारपीट वगैरह के इलजाम लगाती है.  दोनों ही अधिकतर मामलों में झूठे होते हैं.

अदालतें क्यों पति, पत्नी को साथ रहने मजबूर करती हैं, जबकि दोनों अच्छी तरह समझ चुके होते हैं कि अब पति पत्नी की तरह साथ रहना मुमकिन ही नहीं. इस का जवाब न तो कानून बनाने वाली संसद के पास है न इंसाफ करने वाले जजों के और न ही तलाक के मुकदमों की आग में घी डालने वाले वकीलों के पास, जो हर पेशी पर तगड़ी दक्षिणा अपने हैरानपरेशान मुवक्किलों से पंडेपुजारियों की तरह झटकते रहते हैं.

पहली पेशी पर तलाक चाहने वाला अपनी बात रखता है, तो अदालत कहती है कि पहले फैमिली कोर्ट या परिवार परामर्श केंद्र में जाओ. वहां काउंसलर तुम्हें समझाएगा कि तलाक के बजाय समझौता कर लो, इस से तुम्हारी घरगृहस्थी बसी रहेगी. यह समझाइश बेहद बेकार का टोटका साबित होने लगी है क्योंकि पति या पत्नी तलाक के लिए तभी जाते हैं जब वे दूसरे के साथ रह नहीं पाते. बीती 3 नवंबर को भोपाल की आयशा (बदला नाम) से पेशी के दिन अदालत ने कहा कि पहले ससुराल जा कर करवाचौथ का त्योहार मनाओ, फिर हमें रिपोर्ट दो कि क्या हुआ. आयशा ने शादी के लिए इस शर्त पर ही हामी भरी थी कि वह शादी के बाद अपनी पढ़ाई जारी रखेगी और अपने पांवों पर खड़ी होगी.

लेकिन वादे से मुकरते शादी के बाद पति और ससुराल वालों ने उसे आगे पढ़ने से मना कर दिया.  यहीं से कलह शुरू हुई और मामला अदालत तक जा पहुंचा जहां आयशा को इंसाफ के बजाय अदालती नसीहत मिली और वह मजबूर हो कर दोबारा ससुराल चली गई. अब आगे  कुछ भी हो, लेकिन यह जरूर साफ़ हो गया कि एक औरत को अपना कैरियर बनाने और पढ़ने देने से अदालत ने कोई वास्ता नहीं रखा.

औरत ज्यादा घुटती है :

आयशा को समझ आ रहा होगा कि तलाक यों ही नहीं मिल जाता, इसलिए मुमकिन है वह अपने सपनों का गला घोंट कर ससुराल वालों के कहे मुताबिक रहने लगे जो उस की मज़बूरी बना दी गई है. अदालत ने देखा जाए तो कोई नई बात नहीं कही है बल्कि वही बात कही है जो धर्म, समाज और संस्कृति के ठेकेदार औरतों से कहते रहते हैं कि औरत का वजूद और जिंदगी पति और उस के घर वालों से ही है. उसे आजादी और अपनी मरजी से जीने का कोई हक़ नहीं. फिर भले ही पति शराबी, कबाबी, लम्पट, जुआरी, लुच्चा, लफंगा और दूसरी औरतों से ताल्लुक रखने वाला क्यों न हो.

अहम बात यह है कि अदालतों के ऐसे ही फरमानों और तलाक की कार्रवाई कठिन होने के चलते पत्नी तो पत्नी, कई बार पति भी अदालत का रुख नहीं करते क्योंकि उन्हें उपदेशों और प्रवचनों की बेअसर खुराक नहीं, बल्कि घुटनभरी शादीशुदा जिंदगी से छुटकारा चाहिए रहता है. जो नहीं मिलता तो कई बार वे गुनाह और फसाद का रास्ता पकड़ने को मजबूर हो जाते हैं या फिर घुटघुट कर ही जीते रहते हैं.

शादीशुदा जिंदगी में कलह या विवाद आम बात है. लेकिन यह बात मुक़दमे की शक्ल में  अदालत तक तभी पहुंचती है जब पानी सिर से गुजरने लगता है.  ऐसे में अदालतों को चाहिए कि वे पति, पत्नी की परेशानी समझते तुरंत उन के रास्ते अलग कर दें, यानी, तलाक की डिक्री दे दें.  इस से होगा यह कि इंसाफ मिलने के साथसाथ तलाक से जुड़े जुर्म भी कम होंगे जो दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं. वरना जो पुणे की स्मितल ने किया, जो बहराइच के रियाज ने किया वह और तेजी से बढ़ेगा जो समाज या देश या किसी के भी हित में किसी लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता. और इस फसाद की इकलौती वजह तलाक मिलने में देरी है, इसलिए शादी की तर्ज पर तलाक भी झटपट होना चाहिए.

सोनू निगम नहीं बनाना चाहते भारत में अपने बेटे को सिंगर

1997 में प्रदर्षित फिल्म ‘‘बार्डर’’ के गीत ‘‘संदेश आते हैं कि घर कब आएंगे ..’’का अपनी आवाज में स्वरबद्ध कर पूरे देश में गायक को तौर पर छा चुके गायक सोनू निगम पिछले 25 वर्षों से सक्रिय है. वह ‘बरसात,‘सीमा’,‘हसीना मान जाएगी’,‘दुल्हन हम ले जाएंगे ,‘

कभी खुशी कभी गम’,‘कल हो ना हो’, ‘साथिया’,‘मैं हूं ना’,‘वीर-जारा’, ‘गरम मसाला’,‘ओम शांति ओम’, ‘अग्निपथ’, ‘ट्वायलेट एक प्ररेम कथा’’ सहित सैकड़ों फिल्मों के गीत गा चुके हैं.

तो वहीं वह ‘काश आप हमारे होते’,व ‘लव इन नेपाल’,‘प्यारा दुष्मन’सहित आठ फिल्मों में अभिनय भी कर चुके  हैं.इनमें से ‘लव इन नेपाल’में फ्लोरा सैनी तथा ‘‘काश आप हमारे होते में राजबब्बर की बेटी जुही बब्बर के  संग हीरो बनकर आ चुके हैं.

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इन दिनों वह अपने नए सिंगल सोनू निगम की ही भांति फिलहाल दुर्बइ  में रह रहा उनका बेटा नेवान भी पैदाइषी गायक है.मगर सोनू निगम का दावा है कि वह अपने बेटे को गायक नहीं बनाना चाहते,कम से कम भारत में कदापि नही. हाल ही में उन्होने एक अखबार से बात करते हुए कहा अपने बेटे को लेकर कहा -‘‘सच कहूँ,

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मैं नहीं चाहता कि वह एक गायक बने, कम से कम इस देश में नहीं.वैसे भी वह मुंबई में नहीं रहता.वह दुर्बइ  में रहता है. मैं  पहले ही उसे भारत सबाहर निकाल चुका हूं.माना कि वह जन्मजात गायक है,लेकिन उसके जीवन में एक और दिलचस्पी है. अब तक वह संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के सबसे शीर्ष गेमर्स में से एक बन चुका है.‘

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फोर्ट नाइट’में वह दूसरे नंबर पर है.फोर्ट  नाइट(थ्वतजदपजम ) नामक एक गेम है और वह अमीरात में शीर्ष गेमर है. वह बहुत सारे गुणों और प्रतिभा के साथ एक शानदार बच्चा है.मैं  भी उसे यह नहीं बताना चाहता कि उसे क्या करना है.हम तो

स्वयं देखना चाहते है कि वह खुद क्या करना चाहता है.”

ममता को घेरने में जुटी भाजपा

कोरोना ने भारत में दस्तक दी, संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी, मौतों का आंकड़ा ऊपर जाने लगा, मोबाइल फ़ोन, टीवी और रेडियो पर कोरोना से बचाव के उपाय गूंजने लगे, देश में लॉक डाउन लग गया, लोग घरों में दुबक गए, मंत्री-संतरी डर के मारे जनता जनार्दन की नज़रों से ओझल हो गए, तब सिर्फ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी थीं, जिनको कोलकता में बाजार-बाज़ार जाकर लोगों को एक दूसरे से भौतिक दूरी बनाये रखने का तरीका समझाते देखा गया. वह बाजार में पहुचतीं और लोगों के बीच जमीन से ईंट-पत्थर का कोई टुकड़ा उठाकर अपने इर्द-गिर्द एक गोला खींच लेतीं.

थोड़ी-थोड़ी दूर पर एक के बाद एक गोला खींच कर वह लोगों को समझातीं कि कोरोना वायरस से बचने के लिए इस तरह एक-दूसरे से भौतिक दूरी बनाकर रखना ज़रूरी है. लोग उनकी बात गौर से सुनते और चुपचाप गोलों में आ कर खड़े हो जाते. बिलकुल वैसे जैसे कोई बच्चा अपनी माँ की बात समझ कर वैसा करता है जैसा वो कहती है. ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए माँ का रूप ही हैं. पाँव में हवाई चप्पल, तन पर सूती बंगाली साड़ी, श्रृंगार-रहित चेहरे पर गंभीर मुस्कान लिए ममता ने अपना पूरा जीवन बंगाल के लोगों का जीवन और बंगाल की धरती को संवारने में खपा दिया. आज ममता और बंगाल एक दूसरे के पर्याय हैं जिसमे सेंध लगाने की कोशिश हर राजनितिक पार्टी करती है और मुँह की खाती है. फिर चाहे वो कांग्रेस हो, वाम पार्टियां या आज की भाजपा.

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जनाधार वाली नेता, बेहद ईमानदार, गरीबों की मसीहा, अपने लोगों के लिए दयालुता की देवी मगर अपने राजनितिक प्रतिद्वंदियों के लिए तीखे तेवर रखने वाली दबंग व तानाशाह नेता ममता बनर्जी के राजनैतिक सफ़र की कामयाबी पर उनके प्रतिद्वंदियों को रश्क होता है. चुनावी बेला में बंगाल से उनकी माँ छीनने की चाहत में खूब दांव-पेंच चले जाते हैं, खूब आरोप मढ़े जाते हैं, कोई उन्हें हिटलर की उपाधि देता है, कोई उन्हें बंगाल के सियासत की मज़बूरी बताता है, कोई तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप मढ़ता है तो कोई बंगाल की बर्बादी का कारण करार देता है, लेकिन अपने समर्थकों और बंगाल की जनता की नज़र में मोम की तरह नरम दिल रखने वाली ममता दीदी उनके हर गम और तकलीफ में उनके साथ खड़ी रहने वाली आयरन लेडी हैं, देश की निगाहों में सियासत की अबूझ पहेली मानी जाने वाली ममता को आज भी पश्चिम बंगाल में खुली किताब की तरह पढ़ा जाता है.

बचपन में गरीबी से नाता निभाया, सत्रह बरस की उम्र में पिता को खो दिया, घर चलाने के लिए घर-घर जाकर दूध बेचा, मगर हौसला और ईमानदारी कभी नहीं खोई. सियासत में बड़ी-बड़ी पदवियाँ सँभालने के बाद भी माँ, माटी और मानुष की बात करने वाली ममता बनर्जी आज भी कोलकाता के माध्यम वर्गीय इलाके काली घाट के हरीश चटर्जी मार्ग पर अपने उसी पुश्तैनी घर में रहती हैं जहाँ वह बचपन में अपने छह भाइयों और माँ के साथ रहती थीं. कंधे पर एक सूती कपडे का झोला लटकाये जीवन भर अविवाहित रहने का प्रण लेकर बंगाल के जनमानस की सेवा में लगी ममता ने मुख्यमंत्री के तौर पर बंगाल का नक्शा बदल कर रख दिया है. कोलकाता की चमचमाती सड़कें और शहर का सौंदर्य ममता राज में बंगाल के कायाकल्प की कहानी कहता है.

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विरोधी पार्टियां हालांकि ममता को विकास विरोधी करार देती हैं. दरअसल अडानी-अम्बानी जैसे उद्योगपतियों के हाथ बिक चुकी केंद्र की एनडीए सरकार के विपरीत ममता प्रदेश में किसी भी परियोजना को शुरू करने से पहले हमेशा बंगाल की गरीब जनता और किसान-मजदूर का हित-अहित का बारीक परीक्षण करती हैं और अगर कोई योजना गरीब और किसान के हितों को रौंदती नज़र आती है तो वह उस पर तुरंत रोक लगा देती हैं. यही वजह है कि सिंगूर में टाटा नैनो कार परियोजना और नंदी ग्राम में औद्योगिकरण के लिए किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण पर ममता ने आन्दोलन कर किसान समर्थक और उद्योग विरोधी हथियार का फ़ॉर्मूला अपना कर 34 साल से सत्ता में बनी वाम मोर्चा की सरकार को झुका दिया था.

जिस लखटकिया कार के निर्माण का सपना संजोये टाटा ने बंगाल के सिंगूर का चयन किया था उन्हें अपना बोरिया बिस्तर समेट वहां से भागना पड़ा और तो और नंदी ग्राम परियोजना का भी वही हाल हुआ. सिंगूर और नंदीग्राम ने ममता को गांव-गांव तक पहुंचा दिया जिसका असर 2009 के लोकसभा चुनाव में दिखा जब ममता को जबरदस्त कामयाबी हासिल हुई. 2011 के विधानसभा चुनाव में ममता ने मां, माटी और मानुष का नारा दिया और पश्चिम बंगाल में 34 सालों से चली आ रही वामपंथ सरकार को उखाड़ फेंका.

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साल 2016 के चुनाव में पश्चिम बंगाल की राजनीति में दूसरी बार सत्ता में वापसी कर ममता ने इतिहास रच दिया. इस बार उनकी यह जीत पिछली जीत से भी बड़ी थी और वह 294 सीटों वाली विधानसभा में 211 सीटें जीत कर आयी थीं. बूथ स्तर पर प्रबंधन और गांव-गांव तक सरकार की उपलब्धियां बताना और विकास के मुद्दों को प्रमुखता से रखने के साथ ही ममता ने अपने पांच साल के कार्यकाल में कई लोकप्रिय योजनाओं की शुरुआत की. गरीबों को सस्ती दर पर अनाज देने की घोषणा, जिसके तहत 8 करोड़ लोगों को 2 रूपए किलो की दर पर अनाज मिलने लगा. छात्रों को स्कॉलरशिप, साइकिल, स्कूल ड्रेस और जूते बांटने के अलावा बेरोजगार लोगों को आसान किश्तों पर क़र्ज़ भी बांटे गए. ममता सरकार की ‘कल्याण श्री’ योजना को तो यूनिसेफ से भी खूब सराहना मिली.

इन सब की बदौलत ही ममता ने 2016 के रण में कांग्रेस और वाममोर्चा के साथ हो जाने के बाद भी अकेले दम पर जीत का परचम फहराया. हालाँकि विपक्षियों ने ममता सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी मढ़े. 2013 में 2500 करोड़ का सारदा घोटाला और मार्च 2016 में नारद स्टिंग ऑपरेशन जैसे भ्रष्टाचार के विषयों को कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों ने अपना मुख्य चुनावी मुद्दा भी बनाया. विपक्ष ने जनता को यह समझाने की कोशिश भी की कि किस तरह ममता सरकार के समय सारदा घोटाले में निवेशकों के पैसे डूबे जबकि नारद स्टिंग ऑपरेशन में तृणमूल कांग्रेस के कुछ नेताओं को घूस लेते स्टिंग भी प्रसारित हुए. लेकिन विपक्ष के तमाम प्रयासों  के बाद भी ममता के दीवाने वोटरों का प्यार उनके प्रति अटूट बना रहा.

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इतिहास को टटोल कर देखें तो ममता ने कभी अपने मुद्दों से समझौता नहीं किया और जब भी बंगाल के गरीब और किसानो के हित पर हमला हुआ उन्होंने तुरंत गठबंधन तोड़ लिया. फिर चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकार हो या फिर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार. इसमें दो राय नहीं कि ममता आंदोलन से निकलीं जमीनी स्तर की जुझारू नेता हैं, लेकिन गठबंधन की राजनीति में उनका जोर नहीं चला है. एकला चलो की उनकी नीति ही ज़्यादा प्रभावी रही है. तृणमूल कांग्रेस और ममता की राजनीति को करीब से जानने वाले कहते हैं कि उनका रवैया ही ऐसा रहा है कि वह खुद को सेंटर ऑफ पॉलिटिकल अट्रैक्शन में रखकर चलना चाहती हैं. यानी गठबंधन उस शर्त पर, जिसमें तृणमूल और बंगाल की जनता के हित सर्वोपरि हों.

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव ने एक बार फिर दस्तक दी है. बिहार में अपनी जीत को लेकर भाजपा काफी गदगद है और अब अमित शाह पश्चिम बंगाल में ममता के अखंड राज में सेंध लगाने के रास्ते तलाश रहे हैं. ममता के गढ़ में भाजपा अपना परचम लहराने की तैयारी में काफी समय से जुटी हुई है. पिछले लोकसभा चुनाव में वह कुछ हद तक बंगाल में घुसपैठ करने में कामयाब भी हो गयी है, लिहाज़ा विधानसभा को लेकर भाजपा नेताओं के तेवर काफी आक्रामक दिख रहे हैं, खासतौर पर अमित शाह के. उधर बिहार में पांच सीटें जीतने के बाद ओवैसी भी बंगाल में आ जुटे हैं और मुसलमानो को आकर्षित कर रहे हैं. ओवैसी बंगाल में अपनी ज़मीन भले ना तलाश पाएं मगर भाजपा को फायदा और दीदी को नुक्सान ज़रूर पहुचायेंगे. यही वजहें हैं कि इस बार दीदी अपने को काफी घिरा हुआ महसूस कर रही हैं

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बिहार ने बढ़ायी दीदी की दिक्कत   

बिहार चुनाव 2020 का जनादेश येन-केन-प्रकारेण एनडीए के पक्ष में आया है. इस बार चुनाव में एनडीए ने जहां 125 सीटों पर जीत हासिल की है, वहीं महागठबंधन ने 110 सीटों पर कब्जा जमाया है. बिहार में लोकसभा चुनाव के बाद अब विधानसभा चुनाव में भी मोदी मैजिक देखने को मिला है, जो आगामी बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए बूस्टर का काम कर सकता है. बिहार में भाजपा को सीटों के मामले में मिली बढ़त ने एक बार फिर यह तय कर दिया है कि भले कोरोना काल में मोदी सरकार ने बिहारी प्रवासियों को खून के आंसू रुलाये, पैरों में छाले पड़वाए, भूखों मरने के लिए मजबूर कर दिया, घोर बेरोज़गारी का तोहफा दिया, लेकिन मोदी की डुगडुगी पर थिरकने के लिए जनता अभी भी तैयार है. बंगाल चुनाव के ठीक पहले बिहार में एनडीए को जनादेश मिलना और भाजपा को सीटों के मामले में मिली उछाल बंगाल फतेह के मिशन पर जुटे भाजपा कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद कर रही है. बिहार की जीत का असर बंगाल के चुनाव में भी देखने को मिलेगा, इसमें कोई दोराय नहीं है.

ममता बनर्जी के गढ़ बंगाल में भाजपा अपना परचम लहराने की तैयारी में काफी समय से जुटी हुई है. भाजपा के चाणक्य अमित शाह इस दौरान बंगाल के कई दौरे कर चुके हैं. हर बार उनका रवैया काफी आक्रामक दिखाई दे रहा है. हर बार वह ममता सरकार पर पहले से ज़्यादा हमलावर हो रहे हैं. उन्होंने दावा किया है कि विधानसभा चुनाव में भाजपा दो तिहाई यानी 200 से ज्यादा सीटें जीतेगी. शाह के इस बयान ने पश्चिम बंगाल की राजनीति के ठहरे पानी में हलचल तेज कर दी है. शाह ने अपने दौरे के दौरान एक रैली भी कि जिसमें उन्होंने बंगाल की जमीन से तृणमूल कांग्रेस को उखाड़ फेंकने की बात कही. बिहार जीतने के बाद भाजपा के लिए बंगाल आन की बात बन गयी है. भाजपा के लिए बंगाल जीतना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि उसके प्रमुख विचारकों में से एक श्यामाप्रसाद मुखर्जी यहीं के थे और उनका नाम लेकर भाजपा बीते कुछ वर्षों से बंगाल में अपनी जमीन तैयार करने की पुरजोर कोशिश कर रही है. इस अरसे में ममता बनर्जी के खिलाफ भाजपा ने आक्रामक राजनीति इख्तियार कर रखी है और वामदलों एवं कांग्रेस सबको आउट करके ममता बनर्जी के सामने सबसे बड़े चैलेंजर के तौर पर खुद को पेश कर रही है. कहना गलत ना होगा कि भाजपा ने जनता को ममता बनर्जी का विकल्प दे दिया है. भाजपा के आक्रामक रुख से ममता बनर्जी परेशानियों से घिर गई हैं और भाजपा की तैयारियों के बीच बंगाल का चुनाव इस बार बहुत दिलचस्प होने वाला है.

गौरतलब है कि उत्तर बंगाल तथा जंगलमहल में पिछले लोकसभा चुनाव तथा पंचायत चुनाव में भाजपा ने शानदार प्रदर्शन किया था  और तृणमूल कांग्रेस से लगभग सभी सीटें छीन ली थी. इन क्षेत्रों में भाजपा की मजबूती तृणमूल कांग्रेस को बेचैन कर रही है. अमित शाह ने बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों का दौरा कर चुनाव अभियान की शुरुआत पहले ही कर दी थी. पश्चिम मेदिनीपुर, झाड़ग्राम, पुरुलिया तथा बांकुड़ा के कुछ अंश को जंगलमहल कहा जाता है. इस पिछड़े इलाके में पिछले कुछ वर्षों में भाजपा मजबूती से उभर कर सामने आयी है. यहां अपने दौरे के दौरान अमित शाह ने पुआबागान जाकर बाकायदा स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा की मूर्ति पर माल्यार्पण किया और उसके बाद उन्होंने स्थानीय आदिवासी परिवार के घर जाकर पत्ते पर भोजन भी किया. शाह बंगालियों से सोनार बांग्ला बनाने की बात भी कह आये हैं.

बंगालियों की भावनाओं को भुनाने में मोदी भी पीछे नहीं रहे. नवरात्र में जबकि पूरे देश में कोरोना के कारण दुर्गा पूजा पंडालों पर बैन लगा हुआ था, मोदी ने बंगाल पहुंच कर एक भव्य दुर्गा पूजा पंडाल का उदघाटन किया और पूजा में शरीक हुए.

इसी के साथ भाजपा ने ममता की केबिनेट में भी सेंध लगा दी है. ममता केबिनेट के चार मंत्री बगावत का सुर अलाप रहे हैं तो भाजपा का कहना है कि सरकार में मौजूद दस मंत्री उनके संपर्क में हैं और समय आने पर भाजपा में शामिल हो सकते हैं. अपने मंत्रियों और कुछ ख़ास अधिकारीयों की बगावत ने ममता की परेशानी में इजाफा किया है.

कांग्रेस ने भी बढ़ाई मुसीबत

बिहार विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस पश्चिम बंगाल में वामदलों के साथ गठबंधन को अंतिम रूप देने में जुट गई है. पश्चिम बंगाल में यह दूसरी बार होगा, जब दोनों पार्टियां गठबंधन में विधानसभा चुनाव लड़ेंगी. हालांकि, दोनों के बीच अभी सीट का बंटवारा नहीं हुआ है. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस अपना वजूद बचाए रखने की चुनौती से जूझ रही है.

कांग्रेस जानती है कि अगर उसने अकेले चुनाव लड़ने का दम भरा तो भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. वामदलों के लिए भी सत्ता तक पहुंचने के लिए सेकुलर गठबंधन की जरूरत है क्योंकि, लेफ्ट के पास भी बंगाल में खड़े होने के लिए जमीन नहीं है. कांग्रेस लेफ्ट गठबंधन चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की मुश्किल बढ़ा सकता है क्योंकि, पिछले लोकसभा चुनाव में तृणमूल और भाजपा का मुकाबला बेहद नजदीक था.
तृणमूल को 43 फीसदी मत प्रतिशत के साथ 22 सीटें मिली थी, जबकि भाजपा को 40 प्रतिशत वोट के साथ 18 सीट मिली. जबकि दो सीटें कांग्रेस के हिस्से में आई थीं. पार्टी के अंदर एक तबके का मानना था कि कांग्रेस को तृणमूल कांग्रेस के साथ गठबंधन करना चाहिए. पर यह संभावना उसी वक़्त खत्म हो गई, जब पार्टी ने अधीर रंजन चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी. चौधरी ममता बनर्जी विरोधी माने जाते हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस लेफ्ट गठबंधन में पार्टी को 44 सीट मिली थी. जबकि अधिक सीट पर चुनाव लड़ने के बावजूद सीपीएम को 26 सीट मिली. यही वजह है कि लेफ्ट के अंदर कांग्रेस से समझौते का विरोध हुआ और दोनों पार्टियों ने लोकसभा चुनाव अलग-अलग लड़ा और दोनों को नुकसान हुआ. इसलिए अबकी साथ चुनाव लड़ने से दोनों को फायदा होगा. ये दोनों पार्टियां ममता का वोट प्रतिशत कम करेंगी और भाजपा को फायदा पहुचायेंगी.

बंगाल में ओवैसी और ‘मुस्लिम फैक्टर’

बिहार में ओवैसी की पार्टी की जीत का आंकड़ा भले ही बड़ा नहीं है, लेकिन सियासत में संदेश बहुत अहम होते हैं. सिर्फ़ पांच सीटें जीतने वाले ओवैसी ने जिस तरह से बंगाल में पूरी ताक़त के साथ चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया है, उसने मुस्लिम वोटर्स को तीसरा विकल्प दे दिया है. अगर कुछ फीसदी मुस्लिम वोटर्स तीसरे विकल्प को चुनते हैं, तो ओवैसी का खेल बने ना बने, लेकिन तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस दोनों का खेल काफ़ी हद तक बिगड़ सकता है.

पश्चिम बंगाल में ओवैसी का चुनावी ऐलान सीधे तौर पर ममता सरकार के वोटबैंक को चुनौती है. बंगाल में मुस्लिम वोटर्स का गणित सरकार बनाने में बहुत अहम भूमिका निभाता है.

यहाँ मुस्लिमों के निर्णायक असर वाली लोकसभा सीटों की संख्या 20 है. मुर्शिदाबाद, मालदा, उत्तरी दिनादपुर में मुस्लिमों की आबादी 50% से ज़्यादा है. 14 लोकसभा सीटों पर मुस्लिमों की आबादी 30% से ज़्यादा है. असदुद्दीन ओवैसी ने सीएए-एनआरसी को लेकर हमेशा खुलकर विरोध किया है. ओवैसी सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर बंगाल में मुस्लिमों के ध्रुवीकरण की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. वो बांग्लादेशियों की घुसपैठ के मुद्दे पर अक्सर नरम रुख़ अपनाते हैं.वो तृणमूल और कांग्रेस समेत सभी दलों पर मुस्लिम वोटबैंक के शोषण का आरोप लगाते रहे हैं. ओवैसी मुस्लिमों से जुड़े मुद्दों पर भाजपा के ख़िलाफ़ सबसे मुखर आवाज़ बनने की कोशिश करते हैं. इसलिए, बंगाल में मुस्लिमों के बीच ओवैसी फैक्टर चर्चा का विषय है.

यूं तो बिहार में भी मुस्लिम वोटबैंक पर महागठबंधन ने दांव लगाया था, लेकिन पश्चिम बंगाल में ये वोटबैंक काफ़ी बड़ा है. इतना बड़ा कि किसी भी पार्टी की संपूर्ण जीत-हार में बहुत अहम भूमिका निभाता है. इसलिए जब से ओवैसी ने बिहार के बाद बंगाल के मुसलमानों पर चुनावी दांव लगाने का ऐलान किया है, तब से तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और लेफ्ट समेत सभी दलों में भारी बेचैनी है.

पश्चिम बंगाल में शून्य से शुरुआत करने वाले असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी का कोई व्यक्तिगत जनाधार नहीं है, लेकिन बंगाल के चुनावी खेल में उनका हर कदम तृणमूल, कांग्रेस और लेफ्ट के राजनीतिक हालात को बदलने का काम करेगा. भाजपा इस बदलाव को साफतौर पर देख रही है. ओवैसी के ऐलान ने पश्चिम बंगाल की सियासी जंग को काफ़ी दिलचस्प मोड़ दे दिया है. तृणमूल, कांग्रेस और भाजपा के लिहाज़ से अब तक मुक़ाबला त्रिकोणीय रहता था, लेकिन ओवैसी की एंट्री से ये लड़ाई चार कोण वाली बन गई है. इसमें भी ख़ास बात ये है कि जिन सीटों पर तृणमूल कांग्रेस या कांग्रेस की जीत लगभग एकतरफ़ा होती थी, वहां अब उनका रास्ता रोकने के लिए ओवैसी की पार्टी आ गई है.

बंगाल में चुनाव लड़ने के ऐलान के साथ ही ओवैसी और उनकी पार्टी के लोग सक्रिय हो गए हैं. एआईएमआईएम की राजनीतिक ज़मीन मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र हैं. ऐसे में तृणमूल और कांग्रेस के अलावा अब ओवैसी की पार्टी की नज़रें भीं उन 10 ज़िलों पर टिक गई है, जहां मुस्लिम वोटर्स हर चुनाव का नतीजा तय करते हैं.

बिहार के चुनाव नतीजों ने मुस्लिम वोटर्स के बीच ओवैसी की लोकप्रियता, उनकी सीटें और वोटबैंक को बढ़ाने का काम किया है. बंगाल में यही तस्वीर दोहराई गई, तो वहां मुस्लिम वोटर्स के बंटने का ख़तरा है और इस हालात में सबसे ज़्यादा नुकसान दीदी की पार्टी को होगा.

भाजपा को मुस्लिम बहुल सीटों पर 2011 विधानसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी. मुस्लिम बहुल इलाकों में उसे सिर्फ़ 4.6 प्रतिशत वोट ही मिले थे, लेकिन 2016 विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मुस्लिम बहुल इलाकों में एक सीट जीती और उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 9.6 प्रतिशत हो गया, यानी मुस्लिमों के बीच भाजपा की छोटी बढ़त और ओवैसी की एंट्री दोनों ही ममता और कांग्रेस को मुस्लिम वोटबैंक से दूर करेंगे.

ओवैसी और उनकी पार्टी अच्छी तरह जानते हैं कि पश्चिम बंगाल के चुनाव में उनका बहुत कुछ हासिल करना बहुत मुश्क़िल है, लेकिन तृणमूल, कांग्रेस और लेफ्ट के लिए मुश्क़िलें बढ़ाना बहुत आसान. ओवैसी का निशाना भले ही मुस्लिम फैक्टर है, लेकिन उससे घायल तो दीदी ही होंगी. अब देखने वाली बात ये होगी कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए ममता बनर्जी कांग्रेस व अन्य दलों को साथ लेकर मैदान में उतरेंगी या फिर पुरानी शैली में ही मुकाबला करेंगी. फिलहाल 2021 का चुनाव जीतने के लिए ममता वह सब करने को तैयार नजर आ रही हैं जिनसे अक्सर उनको परहेज रहा है. वह कांग्रेस पर भी डोरे डाल रही हैं और प्रशांत किशोर की मदद से लेफ्ट नेताओं के पास भी सन्देश भिजवा रही हैं ताकि भाजपा को किसी तरह बंगाल से दूर रखने में कामयाब हो सकें. लेकिन कई बार सनक में फैसले लेने की आदत की वजह और ममता के पुराने रिकॉर्ड को देखते हुए कांग्रेस और वाम दल तृणमूल अध्यक्ष की बात को कितनी गंभीरता से लेते हैं ये आने वाले वक्त में पता चलेगा.

अंकिता लोखंडे ने सबके सामने लगाए ब्यॉफ्रेंड विक्की जैन को डांट , फैंस ने किया ये कमेंट

टीवी स्टार अंकिता लोखंडे इस बार दीवाली का त्योहार अप ब्यॉफ्रेंड विक्की जैन के साथ मनाई हैं. अंकिता लोखंडे इस बार दीवाली की तस्वीर को शेयर कर सोशल मीडिया पर तहलका मचा चुकी हैं. इस साल दीवाली की तस्वीर में इतनी ज्यादा तहलका मची है कि सभी लोग अंकिता लोखंडे की तस्वीर को खूब पसंद कर रही हैं.

दीवाली पर अंकिता लोखंडे ने लाल रंग का लहंगा पहना हुआ था. इस लाल लहंगे में अदाकारा बेहद खूबसूरत लग रही हैं. अंकिता की तस्वीर की चर्चा खूब हो रही है सोशल मीडिया पर . अंकिता लोखंडे की लुक की चर्चा खूब ज्यादा हो रही हैं.

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इस दौरान अंकिता लोखंडे ने एक वीडियो शयर किया है जिसमें वहअपने ब्यॉफ्रेंड विक्की जैन को को डांटते हुए जर आ रही हैं. -+8

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बता दें कि अंकिता लोखंडे सुशांत सिंह राजपूत के मौत के बाद से एकदम से टूट गई हैं. अंकिता लोखंडे ने सुशांत सिंह राजपूत के परिवार वालों को खूब सपोर्ट किया था. सुशांत सिंह राजपूत के मौत के बाद से धीर- धीर अंकिता लोखंडे न खुद को संभाला है. दीवाली के तस्वीर को देखने के बाद लगता है कि अंकिता लोखंडे ने अब दुख को संभाल लिया है.

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अंकिता लोखंडे अहब अपने जीवन में आगे बढ़ रही हैं. एक वक्त ऐसा था जब अंकिता लोखंडे ने सुशांत सिंह राजपूत के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं. अंकिता लोखंडे लगभग सुशांत सिंह राजपूत के साथ 6 साल तक रिश्ते में रही थीं.

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अंकिता लोखंडे अब अपने ब्यॉफ्रेंड के साथ आगे बढ़ चुकी हैं.

बिग बॉस 14: शार्दुल पंडित के बाहर जानें से नाराज हुए दर्शक, रुबीना दिलाइक पर लगाएं यह आरोप

बिग बॉस 14 से शार्दुल पंडित को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है. बता दें कि शार्दुल पंडित को इविक्शन के लिए नॉमिनेट किया गया था. और पब्लिक वोटिंग के आधार पर शार्दुल पंडित को बिग बॉस ने शार्दुल पंडित को घर से बाहर निकाल दिया.

शार्दुल पंडित के बाहर जानें से रुबीना दिलाइक सेव जोन में आ गई हैं. लेकिन दर्शकों को यह फैसला पसंद नहीं आया है. वो लगाताप ट्वीट करके मेकर्स पर आरोप लगा रहे हैं.

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वहीं कुछ दर्शकों का कहना है कि मेकर्स ने रुबीना दिलाइक को बचाने के लिए शार्दुल पंडित को बाहर का रास्ता दिखाया है.

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कुछ दर्शक ऐसे हैं जिनका कहना है कि मेकर्स को पब्लिक वोट को सार्वजनिक करना चाहिए. किस प्रतियोगी को कितना वोट मिले यह सब उन्हें दिखाना चाहिए.

बिग बॉस 14 के मकर्स के उपर वोट घपला करने का आरोप लगा हुआ है. कुछ दिनों पहले रुबीना दिलाइक और उनके पति के ऊपर आरोप लगा हुआ था कि दोनों को जान बूझकर बुलाया गया था.

दर्शक अभी भी डिमांड कर रहे हैं कि शार्दुल पंडित को दूबारा वापस बुलाना चाहिए. सलमान खान के ऊपर भी झूठ बोलने के आरोप लगाए गए हैं. दर्शकों का कहना है कि सलमान खान भी मकर्स का साथ दे रहे हैं. क्या मेकर्स ने रुबीना दिलाइक को आगे बढ़ाने के लिए शार्दुल पंडित को बुलाया है.

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अब देखना यह है कि शार्दुल पंडित वापस आते हैं या नहीं या फिर बिग बॉस मेकर्स रुबा दिलाइक को आगे बढ़ाते हैं. आइए जानते हैं शो में आगे क्या होता है.

पहचान-भाग 3: रामलाल चाचा के घर आने से बच्चे क्यों उत्साहित थे?

‘‘मगर सब की ‘नहीं’ ने हमारे मुंह पर ताला डाल दिया. रामलालजी को तो कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती. वे चुस्ती से, मुस्तैदी से और स्वयं अपनी समझ से हमारी मदद कर रहे थे, जैसे सचमुच इन के छोटे भाई हों. अखिलेश के लाख कहने पर भी उन्होंने उसे एक भी दिन अस्पताल में नहीं रुकने दिया. वे कहते, ‘‘इस की परीक्षा है, बेकार पढ़ाई का नुकसान होगा.’’

एक रोज जब हमेशा की तरह वे इन के लिए फल वगैरह ले आए तब मैं ने उन से फलों के पैसों के बारे में पूछा. सुनते ही वे बिगड़ गए, ‘‘भाभीजी, मैं ने तो आप लोगों को कभी पराया नहीं समझा. आप इस तरह की बात कह कर मेरी भावना को चोट न पहुंचाएं.’’

उन की इस बात से स्वयं अपनी ही कही एक बात मुझे कचोटने लगी, ‘बड़ा चाचा बना फिरता है बच्चों का. इतनी बार हमारे यहां खाता है पर यह नहीं कि बच्चों के लिए ही कुछ लेता आए.’ आज वे जो कुछ हमारे लिए, बच्चों के लिए कर रहे थे, क्या किसी नजदीकी रिश्तेदार से कम था. आज के जमाने में तो रिश्तेदार तक मुंह फेर लेते हैं.

रामलालजी के जाने के बाद यह भावविभोर हो कर बोले, ‘‘कितना करता है हमारे लिए. यह नहीं होता तो न जाने हमारा क्या हाल होता. उस रोज तो शायद मैं अस्पताल भी नहीं पहुंच पाता.’’

मेरे पास तो रामलालजी के विषय में बात करने के लिए शब्द ही नहीं थे. मैं ने उन्हें क्या समझा था और क्या निकले वे. मुझे इस व्यक्ति से इस कदर नफरत हो गई थी कि अकसर ही इन से पूछती, ‘‘आप की कैसे इस निपट गंवार से दोस्ती हो गई?’’

‘‘क्योंकि मैं इसे पहचानता हूं न अच्छी तरह. इस के मन में न तो किसी के लिए ईर्ष्या है न बदले की भावना.’’

‘‘यों कहिए न कि उन में प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं है, इसी कारण तो पिछले वर्ष तरक्की नहीं ले पाए.’’

‘‘प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं है, यह बात नहीं है पर लक्ष्य को गलत ढंग से प्राप्त करने की कामना नहीं है,’’ ये कहते.

‘‘आजकल ईमानदारी का ढोल पीटने से कुछ होता है भला. ये क्या जानें कि वरिष्ठों को कैसे प्रभावित किया जाता है, देहाती जो ठहरे.’’

‘‘सुजाता, मैं भी मध्यम वर्ग से आया हूं. इतना जरूर जानता हूं कि इंसानी जीवनमूल्य झूठी सफलताओं से बढ़ कर है.’’

इन की बात कितनी सही थी, इस बात का मुझे आज पता चला.

इन की हालत सुधरती जा रही थी. आखिर वह दिन भी आया जब इन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. रामलालजी टैक्सी ले आए और हमसब इन्हें ले कर घर आ गए. घर आते वक्त मुझे लग रहा था, जैसे मैं एक लंबा सफर कर के आई हूं. इस अनुभव ने मुझे बहुत कुछ सीखनेसमझने का मौका दिया. सच कहा है कि इंसान की सही पहचान मुसीबत के समय होती है.

अभी डाक्टर ने इन्हें 15 दिन पूर्ण आराम करने की सलाह दी थी. अत: ये पूरे आराम के साथ घर में बिस्तर पर पड़े रहते थे. उस रोज रामलालजी दफ्तर से सीधे घर आए.

‘‘कैसे हैं भैया अब?’’ उन्होंने हमेशा की तरह ठेठ ग्रामीण लहजे में पूछा.

‘‘ठीक हैं, आइए,’’ मैं ने उन का भरपूर स्वागत किया.

सुरभि बाहर खेलने जा रही थी. ‘‘अरे, रामलाल चाचा आए हैं, मैं थोड़ी देर बाद खेलने जाऊंगी,’’ वह बोली. अखिलेश कुछ पढ़ रहा था. वह भी बैठक में आ गया.

रामलालजी अपने पुराने फौर्म में लौट आए. वही पुरानी घटनाएं, खेतखलिहान, जमीन, घर, गांव की बातें. पर आज उन का श्रोतावर्ग अपेक्षाकृत बड़ा था और बड़े ध्यान से उन की बातें सुन रहा था.

‘इतने संघर्षों को कैसे पार किया होगा इन्होंने अकेले ही? कैसे हर मोरचे पर खुद ही डटे होंगे? इन के चाचाओं ने इन के पिता की मृत्यु के बाद सारी जायदाद हड़प ली तो सड़क पर ही आ खड़े हुए थे बेचारे. उस सड़क से वापस घर तक जाने में कितना फासला तय करना पड़ा होगा.’ मेरे मन में उन के प्रति श्रद्धाभाव जाग उठा.

उन के सारे अनुभवों को मैं आज बिलकुल नई दृष्टि से देख रही थी. इतनी तकलीफें अकेले उठाईं. इसलिए वे सारी घटनाएं उन्हें हमेशा के लिए याद हो गईं. बहुत दिनों से रुका हुआ पानी जिस तरह निकलने का मार्ग पाते ही पूरे वेग से बह निकलता है, उसी तरह उन की सारी व्यथा इन से मिल कर और अपनत्व पा कर शब्दरूप में बह निकली. क्या इन के अनुभव हम सब के लिए अनमोल थाती नहीं थे?

‘‘चाचा, आप ने बेहद बहादुरी से अपने जीवन की यह लड़ाई खुद लड़ी. वक्त की नजाकत को समझते हुए आप ने अपनी शिक्षा भी पूरी की. मैं तो अभी भी डांटडपट के बगैर पढ़लिख नहीं पाता,’’ अखिलेश पूरे उत्साह व गंभीरता से कह रहा था.

‘‘हालात सब कुछ सिखा देते हैं, बेटे.’’

ये अर्थपूर्ण दृष्टि से मुझे देख रहे थे. वातावरण कुछ बोझिल हो गया था. हमारी चुप्पी से वे समझे कि हम लोग उन की बातों से बोर हो रहे हैं.  अत: उठने का उपक्रम करने लगे कि हठात मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘अभी बैठिए न भाई साहब, मैं आप के लिए एक गिलास मलाईदार चाय बना कर लाती हूं.’’

 

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