दुनिया की सबसे मशहूर और बिक्री के मामले में भी टाॅप-20 में अपनी जगह रखने वाली डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस की किताब ‘फ्रीडम एट मिड नाइट’ बहुत परिश्रम के बाद लिखी गई थी. सिर्फ परिश्रम ही नहीं अगर इस किताब की रचना प्रक्रिया के संबंध में विभिन्न पत्रिकाओं में छपे लेखक द्वय की बातों पर यकीन करें तो उन्होंने इस किताब के लिखने के लिए 50 के दशक में 3 लाख डाॅलर खर्च करके शोध सामग्री जुटायी थी. अगर आज के विनमय मूल्य के हिसाब से देखें तो दोनो लेखकों ने उस जमाने में आज के हिसाब से करीब 2 करोड़ 10 लाख रुपये से ज्यादा रिसर्च में खर्च किये थे. यही नहीं इस किताब को लिखने में उन्हें करीब-करीब 27 साल लगे थे. 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद से ही दोनो लेखकों ने इतिहास और साहित्य के इस मिश्रित प्रोजेक्ट पर काम करना शुरु कर दिया था और किताब के रूप में उनका यह काम 1975 में दुनिया के सामने आया था.

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यह महज अकेला उदाहरण नहीं है कि दुनिया की महान किताबें कितने परिश्रम से लिखी जाती हैं. साथ ही कई बार इस परिश्रम में अच्छा खासा धन भी शामिल होता है. हालांकि धन के खर्च वाली बात महज 10 फीसदी किताबों के मामले में ही होता है, जिनके लेखक अपनी लेखनशैली से ज्यादा तथ्यों पर यकीन करते हैं. यह तो नहीं कहा जा सकता कि डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस को अपनी लेखनशैली पर भरोसा नहीं था, लेकिन वह किताब को ज्यादा से ज्यादा वास्तविकता के नजदीक रखने के लिए जो जबरदस्त शोध कार्य किया था,

उसमें उन्हें बहुत ज्यादा श्रम तो करना ही पड़ा था, साथ ही अच्छी खासी रकम भी खर्च करनी पड़ी थी. यह अलग बात है कि जब किताब छपकर आयी तो उन्हें उनके खर्च से कई गुना ज्यादा दे गई. एक तरह से देखें तो इस किताब ने ही इन दोनो लेखकों को अच्छा खासा अमीर बना दिया था. लेकिन अमीर होने के बाद भी उन्होंने अपनी मशहूर किताबों में परिश्रम और खर्च के जज्बे को कम नहीं होने दिया. इतिहास के तथ्यों और साहित्य की चाशनी से बनी उनकी मशहूर किताबों में ‘पेरिस इज बर्निंग’ (1965), ‘फाॅल ऑफ़ ग्रेस’ (1968), ‘ओ जेरूसलम’ (1972), ‘मेज’ (1989), ‘ब्लैक ईगल्स’ (1993), ‘टुमारो बिलांग्स टु अस’ (1998) और ‘इज न्यूयार्क बर्निंग’ (2004) शामिल हैं.

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यह श्रम और खर्च की बात सिर्फ डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस तक ही सीमित नहीं है बल्कि दुनिया की जितनी भी मशहूर किताबें हैं, आमतौर पर ज्यादातर में इतनी की मेहनत और काफी कुछ खर्च किया गया शामिल है. हां, विशुद्ध रूप से फिक्शन की बात अलग है. लेकिन मेहनत करके डाॅक्यू ड्रामा शैली की जो किताबें लिखी गई हैं,उनमें किसी हद तक ऐसी ही मेहनत और ऐसा ही खर्च शामिल है. हिंदी के मशहूर लेखक विष्णु प्रभाकर ने शरतचंद्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ लिखने में 14 साल लगाए थे और इन 14 साल में उन्होंने करीब-करीब पूरा बंगाल और दो तिहाई बिहार और एक बड़ा हिस्सा बर्मा (म्यामार) का छान मारा था. प्रभाकर जी ने यह हैरान कर देने वाली मेहनत तब की थी, जबकि उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, उन्होंने खुद चतुर्थ श्रेणी की नौकरी की जिसमें उन्हें एक महीने का वेतन महज 18 रुपये मिलता था. यह अलग बात है कि 1929 में उन्होंने डीएवी काॅलेज हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी और उसके बाद पंजाब विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल करने के साथ-साथ, यहीं से भूषण, प्राज्ञ, विशारद और प्रभाकर जैसी हिंदी, संस्कृत परीक्षाएं भी उत्तीर्ण की थीं. बाद में उन्होंने अपनी ‘प्रभाकर’ सर्टिफिकेट को अपने सरनेम की तरह इस्तेमाल किया था.

हालांकि उन्होंने आवारा मसीहा के अलावा भी सैकड़ों किताबें लिखी हैं, लेकिन आवारा मसीहा उनकी एक ऐसी कालजयी कृति है, जो बाद में विश्वसनीय आत्मकथाओं का पैमाना बन गई. लेकिन डोमनिक लापियर और लैरी काॅलिंस की तरह उन्हें अपनी इस मशहूर कृति में श्रम तो बहुत ज्यादा करना पड़ा, लेकिन उन्हें अपनी इस लोकप्रिय किताब से वह आर्थिक संबल हासिल नहीं हुआ, जो संबल फ्रीडम एट मिड नाइट के लेखकों को हासिल हुआ था. लेकिन जब भी बहुत श्रम से लिखी गई किसी बहुत ही मशहूर किताब का जिक्र होता है तो उसमें आवारा मसीहा का नाम भी शामिल होता है. भारतीय लेखकों की सबसे महत्वपूर्ण कृतियों में आवारा मसीहा को गिना जाता है. इसी क्रम में अगर हम नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक सर विदियाधर सूरजप्रसाद नायपाॅल की बात करें तो उनका भी काम करने का इतना ही श्रमपूर्ण तरीका था. नायपाॅल ने अपनी तमाम किताबों की विश्वसनीयता के लिए ऐसी ही मेहनत की थी.
नायपाॅल की एक बहुत मशहूर किताब है ‘अमंग द बिलीवर्स’ यह किताब लिखने के लिए उन्होंने कई महीने ईरान, पाकिस्तान, मलेशिया और इंडोनेशिया की खाक छानी थी.

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अपनी इस किताब के लिए सामग्री जुटाने के क्रम में सर विदियाधर ने करीब 500 लोगों से बात की थी, जिनमें लेखकों, डाॅक्टरों, कारोबारियों, अध्यापकों, मोटर मैकनिकों से लेकर मजदूर तक शामिल थे. अपनी इस किताब को लिखने के लिए तमाम सामग्री जुटाने के क्रम में नायपाॅल ने कई लाख डाॅलर खर्च किये थे. हालांकि उन्हें इसके लिए किसी को पैसा नहीं देना पड़ा था, मगर महीनों अलग अलग देशों में किताब के लिए सामग्री जुटाते हुए नायपाॅल ने अपने रहने, खाने और घूमने में जो खर्च किया था, वह बहुत ज्यादा था.

यह तो तय बात है कि किताबें सिर्फ परिश्रम से जुटायी गई शोध सामग्री की बदौलत ही नहीं लिखी जा सकतीं. अगर महज शोध सामग्री के जरिये किताबें लिखना संभव होता तो दुनिया में सबसे ज्यादा किताबें पत्रकारों के खाते में होतीं, क्योंकि किसी भी घटना के तह में जाने के लिए सबसे ज्यादा परिश्रम पत्रकार ही करते हैं. निश्चित रूप से किताब लिखने के लिए विश्वसनीय सामग्री जुटाने के इतर आपमें और भी बहुत सारी चीजों की जरूरत होती है, इनमें सबसे महत्वपूर्ण चीज है रचनात्मकता. लेकिन यह भी तय बात है कि रचनात्मकता के सहारे बेहद उम्दा फिक्शन तो लिखे जा सकते हैं, लेकिन जब भी हम डाॅक्यू ड्रामा पर काम करते हैं, उन्हें अपने लिखने का महत्वपूर्ण जरिया बनाते हैं, तब इस तरह के परिश्रम से तैयार सामग्री की जरूरत महसूस होती है. जो न सिर्फ बहुत श्रम से हासिल होती है बल्कि इसके लिए कई बार अच्छा खास खर्च भी करना पड़ता है.

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