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ऐसा कभी नहीं हुआ कि अशरफ ने साल के 365 दिनों में एक दिन भी माणिकचंद के घर आने में नागा किया हो. लेकिन एक महीने से अशरफ का न तो औफिस में पता चला, न ही खेल के मैदान में.

अच्छी कदकाठी का 25 वर्षीय अशरफ रेलवे की फुटबौल टीम का खिलाड़ी और बिजली विभाग का कर्मचारी है. वह बेहद हंसमुख, मिलनसार, मददगार और बच्चों के साथ तुतला कर उन का दिल जीतने वाला है.

माणिकचंद 3 सालों से दिल के मरीज थे. औफिस का काम जैसेतैसे निबटा कर घर आते ही बिस्तर पर लेट जाते. लेकिन घर में किसी भी चीज की कमी महसूस नहीं होती. अशरफ औफिस या फुटबौल की प्रैक्टिस से लौटते हुए उन के घर का सारा सौदा, दवाइयां और बच्चों का सामान ले आता.

माणिकचंद की पत्नी अपर्णा अशरफ की हमदर्दी को देख कर अकसर सोचती कि क्या उन का बेटा भी बड़ा हो कर अपने परिवार से इतनी ही गहराई से जुड़ा रहेगा, सब की इतनी ही फिक्र करेगा. डर लगता है जमाने की हवा इतनी तेजी से बदल रही है कि जिन बच्चों की जरूरतों और खुशियों के लिए मातापिता रातों की नींद और दिन का चैन त्यागते हैं, वे जेब में पैसा आते ही नजरें फेर लेते हैं. शादी के बाद वे अपने परिवार में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि उन्हें न तो बुजुर्ग मातापिता की सेहत की फिक्र होती है, न ही उन के गुजरबसर की परवा.

अशरफ के पिता रिटायर्ड हो गए थे. शादीशुदा 3 बेटों की आपसी कलह से वे परेशान हो कर छोटे बेटे को ले कर बेटी के साथ रहने के लिए मजबूर हो गए. वे जानते थे कि अगर अशरफ की अम्मी जिंदा होती तो बेटे जरूर कुछ महीनों के लिए उन्हें अपने घरों में रखने का एहसान करते क्योंकि उन की बीवियों को मुफ्त में काम करने और आराम देने वाली नौकरानी मिल जाती. अब्बा को अपने पास रखने का मतलब है उन की खिदमत में वक्त और पैसा बरबाद करना और उन की बंदिशों के कठघरे में कैद रहना. आजादी भला किस को प्यारी नहीं होती.

अशरफ का पुश्तैनी मकान नासिक में था. खेल के सिलसिले में उसे नासिक जाने का जब भी मौका मिलता, वहां दोचार दिन रह कर आता. वक्त और हालत के थपेड़ों ने उसे कुंठा व पीड़ा की खोहों से बाहर निकाल कर बेहद संवेदनशील और रिश्तों के प्रति ईमानदार बना दिया था.

बाजार जाते हुए उस दिन अपर्णा का ऐक्सिडैंट हो गया, कंधे की हड्डी टूट गई. अशरफ को फोन पर खबर मिली, तो वह ड्यूटी छोड़ कर भागा. पहले उन्हें अस्पताल में भरती कराया, फिर माणिकचंद को सूचित किया और फिर स्कूल से लौटे बच्चों को खाना खिला कर अपर्णा की दवाई लेने बाजार भागा.

पूरे डेढ़ महीने अशरफ का एक पैर माणिकचंद के घर में, एक पैर अस्पताल में रहा. सिर्फ  नहाने और खाना खाने के लिए वह बहन के घर जाता था. बढ़ी हुई दाढ़ी, मटमैले कपड़े, बेतरतीब सा व्यक्तित्व उस के माणिकचंद के पूरे परिवार के प्रति अटूट प्रेम और गहरी फिक्र का सुबूत देता.

माणिकचंद भी अशरफ की तारीफ करते नहीं अघाते, बच्चे तो उस के मुरीद बन कर आगेपीछे घूमते रहते. अशरफ की बेगर्ज खिदमत देख कर अपर्णा की आंखें छलछला जातीं.

ऐसा शख्स जिस की मौजूदगी माणिकचंद के परिवार के लिए बंद कमरे में अचानक आई ताजी हवा का काम करती हो, वही अगर एक महीने से नजरों से ओझल रहे तो, क्या परिवार में घुटन और बेचैनी नहीं फैलेगी?

अपर्णा जब भी कोई नई डिश बना कर परोसती तो ‘अशरफ अंकल के साथ खाएंगे’  कह कर बच्चे प्लेट ढक कर रख देते. अपर्णा मुसकरा कर किचन में चली जाती. पूरा परिवार यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि अशरफ उन्हें भूल जाएगा. दिल के रिश्ते खून के रिश्तों से कहीं ज्यादा मजबूत होते हैं क्योंकि इन पर मतलबपरस्ती की परत नहीं चढ़ी होती. होती है तो बस, अटूट विश्वास की मजबूत छड़ों से बनी स्नेह की छत.

आखिर अशरफ है कहां? कहीं किसी दुर्घटना का शिकार तो नहीं हो गया? फोन भी बंद है उस का. ऐसे न जाने कितने खयाल माणिकचंद के दिमाग को दीमक की तरह कुतरते. उधर, सूबे का सब से ज्यादा संवेदनशील शहर आग की लपटों से घिरा हुआ था. हिंदूमुसलिम दंगा शुरू हो गया था. कर्फ्यू लग गया.

तीसरे दिन शाम को कर्फ्यू में 2 घंटे की ढील दी गई तो दिसंबर की हाड़कंपा देने वाली ठंड के साथ धुंधभरी शाम को मोटरसाइकिल पर आए 2 सायों ने माणिकचंद के घर के दरवाजे की घंटी बजाई. दरवाजे के सैफ्टी मिरर से देख कर माणिकचंद ने दरवाजा खोल दिया, ‘‘मंजूर साहब आप? आइए, आइए. कैसे आना हुआ?’’ माणिकचंद ने सांप्रदायिक दंगे के बीच मुसलमान मेहमान का गर्मजोशी से स्वागत किया, बोले, ‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘जी, खैरियत ही तो नहीं है,’’ अशरफ के बहनोई मंजूर अली ने रोबीले स्वर में इस अंदाज से कहा जैसे उन की खैरियत न होने के पीछे माणिकचंद की कोई साजिश हो.

‘‘क्या हो गया?’’ माणिकचंद ने इंसानियत के नाते पूछा.

‘‘अशरफ आप के घर में है क्या?’’

‘‘नहीं तो. पिछले एक महीने से मेरा पूरा घर उस के लिए परेशान है. क्या वह आप के घर पर नहीं है?’’

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