देश भर में गुरु पूर्णिमा का पर्व धूमधाम से मना, चेलों ने खूब खिलाया और छुटभैयों से लेकर ब्रांडेड गुरुओं तक ने छक कर खाया. एक दिन में ही साल भर के राशन पानी का इंतजाम हो गया. खूब नकदी मिली. वस्त्राभूषण भी मिले और पूजा पाठ हुई सो अलग. कई अति श्रद्धालु शिष्यों ने तो बिना बैक्टीरिया वायरस की परवाह किए गुरु के चरण धोकर पानी पिया जिसे चरणामृत कहा जाता है.
श्रद्धा चीज ही ऐसी है कि जिसके आगे तर्क नतमस्तक हो जाते हैं. अब अगर जीवन में एक अदद गुरु न हो तो वह जीवन कीड़े मकोड़ों जैसे लगता है. सो खुद को मानवमात्र दिखाने का सबसे अहम किरदार है गुरु. गुरु न हो तो जीवन व्यर्थ है जो गुरु हीन हैं वे ही श्री हीन और पशुवत भी हैं. उनका होना न होना एक समान है. इधर 2 दिन गुरु महिमा प्रवाहित होती रही लोग एक दूसरे को शुभकामनाओं के जरिये यह सोचते उकसाते रहे कि कहीं ऐसा न हो कि मैं तो अपने गुरु को तगड़ी दक्षिणा चढ़ाकर बेबकूफ बन जाऊ और अगला बीमारी का बहाना बनाकर कल्टी मार जाये, इसलिए उसे एक बार फिर गुरु महिमा से अवगत करा दिया जाए कि साल भर जो गुरु के आशीर्वाद से कमाया है आज उसका कमीशन देना है.
गुरु पूर्णिमा पर मैं हर साल की तरह इस बार भी विकट की ग्लानि और अपराध बोध से ग्रस्त था क्योंकि मैं खानदानी और पैदाइशी गुरुहीन हूं. जो मिला उसने पूछा, अरे गुरु जी के यहां नहीं गए ? इस सवाल का जबाब ढूंढ़ते ढूंढ़ते 55 वसंत निकल गए कि मेरा कोई गुरु क्यों नहीं है. एक वो दत्तात्रेय था जिसने दर्जनों गुरु बनाए लेकिन इसके बाद भी उसका जी नहीं भरा और एक मैं हूं बिलकुल निकृष्ट प्राणी जिसने दो तिहाई जिंदगी बिना गुरु के गुजार दी. कभी किसी को अपनी गाढ़ी कमाई का धेला भी नहीं दिया लोग मुझे कंजूस कहकर गलत नहीं धिककारते.