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घर की आर्थिक जिम्मेदारियों में बेटियां भी हाथ बंटाए

अपने एक अहम् और दिलचस्प फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बीती 6 जनबरी को गृहिणी को आर्थिक रूप से पारिभाषित करते हुए कहा है कि महिलाओं का घरेलू कार्यों में समर्पित समय और प्रयास पुरुषों की तुलना में ज्यादा होता है . गृहिणी भोजन बनाती है , किराना और जरुरी सामान खरीदती है , ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाएं खेतों में बुवाई , कटाई , फसलों की रोपाई और मवेशियों की देखभाल भी करती हैं . उनके काम को कम महत्वपूर्ण नहीं आँका जा सकता . इसलिए गृहिणी की काल्पनिक आय का निर्धारण महत्वपूर्ण मुद्दा है .

एक वाहन दुर्घटना में एक दंपत्ति की मौत पर मुआवजा राशि तय करते हुए जस्टिस एनवी रमना , एस अब्दुल नजीर और जस्टिस सूर्यकांत की बेंच गृहणियों की आमदनी को लेकर काफी दार्शनिक , तार्किक गंभीर और संवेदनशील नजर आई जो एक लिहाज से जरुरी भी था क्योंकि महिलाओं के प्रति आम नजरिया धर्म से ज्यादा प्रभावित है जो उन्हें दासी , शूद्र और पशुओं के बराबर घोषित करता है . लेकिन महसूस यह भी हुआ कि सबसे बडी अदालत के जेहन में परिवारों की संरचना और महिलाओं की स्थिति की 70 से लेकर 90 तक के दशक की तस्वीर की गहरी छाप है नहीं तो नए दौर की अधिकतर युवतियां नौकरीपेशा हैं और अपनी माओं , नानियों और दादियों के मुकाबले घर के काम जो अदालत ने शिद्दत से गिनाये न के बराबर जानती और करती हैं .

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और यह बात किसी सबूत की मोहताज भी नहीं है कि जागरूकता , शिक्षा क्रांति और कई धार्मिक , पारिवारिक व सामाजिक दुश्वारियों से निजात पाने के लिए मध्यमवर्गीय युवतियों की अपने पाँव पर खड़े होने की मज़बूरी और जिद ने उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो बना दिया है , लेकिन एवज में उनसे गृहिणी होने का फख्र या पिछड़ेपन का तमगा कुछ भी कह लें छीन लिया है . लेकिन इसकी एक और वजह है , भोपाल की एक गृहिणी वीणा सक्सेना का कहना है , अब परिवार छोटे होने लगे हैं और अधिकतर दंपत्ति 2 से ज्यादा बच्चों की परवरिश अफोर्ड नहीं कर पाते . बकौल वीणा वह जमाना गया जब लोग एक लड़के की चाहत में 5-6 बेटियां पैदा करने में हिचकते नहीं थे और उन्हें नाम मात्र को पढ़ाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मानकर किसी भी ऐरे गैरे कामचलाऊ लड़के से उनकी शादी कर देते थे . लड़कियों की बदहाली और दुर्दशा की एक बडी वजह भी यह थी कि लड़के की चाहत की शर्त पर पैदा की जातीं थीं .

यों बढ़ रहा आर्थिक मूल्य –

खुद वीणा जब ससुराल आईं थीं तो उन्हें अल सुबह से उठकर कोल्हू के बैल की तरह देर रात तक काम करना पड़ता था और उसका कोई मूल्याकंन नहीं करता था और यदा कदा करता भी था तो बस इतना कि बहू बहुत संस्कारी है और एमए बीएड पास होने के बाद भी सारे कामकाज कर लेती है .तब वे खुश कम होतीं थीं खीझती ज्यादा थीं कि जब रोटियां ही थोपना थीं तो बीएड क्यों किया यह काम तो अनपढ़ महिलाएं भी कर लेती हैं .

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सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खुशी जाहिर करने बाली वीणा की दोनों लड़कियां बीटेक करने के बाद जॉब कर रही हैं . बडी 27 वर्षीय अनन्या अहमदाबाद में एक साफ्टवेयर कम्पनी में 6 लाख रु के सालाना पैकेज पर कार्यरत है और उससे 2 साल छोटी सौम्या एक नेशनल बेंक में क्लर्क है उसे भी लगभग 6 लाख रु मिलते हैं .` दोनों अपनी मस्त और आजाद जिन्दगी जी रहीं हैं वीणा कहती हैं, लेकिन उन्हें घर के सारे कामकाज नहीं आते क्योंकि पढ़ाई के चलते न तो मैं उन्हें सिखा पाई और न ही उन्होंने कभी सीखने में दिलचस्पी दिखाई . उन्हें एहसास था कि वे इन कामों के लिए नहीं बनीं हैं` .

कोई 70 फ़ीसदी मध्यमवर्गीय परिवारों के पेरेंट्स को वीणा की तरह इस बात पर गर्व है कि उनकी बेटियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं और इसके लिए उन्होंने उन्हें पढ़ने की सहूलियत बेटों के बराबर से दी है , परवरिश पर भी बेटों के बराबर खर्च किया है और मुकम्मल यानी आजकल के जमाने के मिजाज के हिसाब से आजादी भी दी है . इससे बेटियों का आत्मविश्वास बढ़ा है और पति और ससुराल बालों पर उनकी कोई खास मोहताजी नहीं रही है उलटे वे बहू की कमाई के मोहताज रहते हैं .

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इसमें कोई शक नहीं कि इन नौकरीपेशा युवतियों की रिस्क कम हुई है लेकिन नौकरी चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट में उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करना पड़ती है .  इसका एक बड़ा फायदा उन्हें यह हुआ है कि घर के कामकाज यथा झाड़ू पोंछा बर्तन कपडे धोना और खाना नहीं बनाना पड़ता .  ये काम अब मशीनों और नौकरों के भरोसे होते हैं . आधी से ज्यादा युवतियां तो ये काम जानती भी नहीं क्योंकि मायके में उन्हें इनके लिए बाध्य करना तो दूर की बात है ट्रेनिंग भी नहीं दी गई इसीलए वे पढ़ पाई . यानी हुआ सिर्फ इतना है कि काम और मेहनत तो उन्हें करना पड़ रहे हैं लेकिन उसकी दिशा बदल गई है और पैसा सीधा उनके हाथ में आता है जिसके खर्च और इस्तेमाल का हक घर की व्यवस्था के हिसाब से उन्हें है .

कोई शक नहीं कि युवतियों का आर्थिक महत्त्व और मूल्याकन दोनों बढ़े हैं मुमकिन है आने बाले वक्त में कोई अदालत इनका भी आर्थिक विश्लेषण किसी मामले में करे लेकिन यह देखा जाना बेहद दिलचस्प बात है कि कमाऊ युवतियां शादी से पहले और बाद भी अभिभावकों की आर्थिक मदद करती हैं या नहीं और इस बारे में क्या सोचती हैं .

लेकिन पहले बात पेरेंट्स की –

जब कई नौकरीपेशा युवतियों से इस मुद्दे पर बात की गई तो लगभग सभी ने पेरेंट्स की आर्थिक मदद की इच्छा जताई लेकिन आधे से ज्यादा ने यह भी कहा कि माता पिता ने उन्हें काबिल तो बना दिया लेकिन वे उनसे पैसे नहीं लेते . वे इसे पाप तो नहीं पर गलत समझते हैं कि लड़की की कमाई से पैसा लिया जाए हालाँकि इस स्थिति को जनरेशन वार नहीं कहा जा सकता लेकिन इसे बेटियों के साथ नए तरीके का भेदभाव कहने से किसी तरह का गुरेज नहीं किया जा सकता . पहले जिस तरह लड़की के घर यानी ससुराल का पानी पीना भी अभिभावक पाप समझते थे अब यह बात पैसे लेने पर लागू होने लगी है .

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यह दलील सटीक भी है और जटिल भी कि जो पेरेंट्स लड़कियों की परवरिश और शिक्षा पर बराबरी से पैसा खर्च करते हैं, लाड़ दुलार में भी भेदभाव नहीं करते , आजादी भी देते हैं , उनकी  शादी में तो ज्यादा ही खर्च करते हैं और अब तो जायदाद में भी बेटियों का हक बेटों के बराबर हो गया है तो फिर उनसे बेटों की तरह आर्थिक मदद लेने में हिचकते क्यों हैं .  क्या वे बराबरी की बात महज दिखावे के लिए करते हैं और उनके मन में वे धार्मिक पूर्वाग्रह हैं जिनके तहत यह कहा जाता है कि तारेगा तो बेटा ही .

ये डायलोग हर घर में हर कभी सुनने मिल जाते हैं कि हमने तो कभी बेटे बेटी में भेदभाव किया ही नहीं , आजकल बेटियां बेटों से कम नहीं होतीं और दोनों में फर्क क्या है . अगर वाकई ऐसा है और इसे बेटियों पर एहसान वे नहीं समझते हैं तो फिर पैसे लेने पर भेदभाव क्यों बेटों से तो अधिकार पूर्वक पैसे ले लिए जाते हैं पर बेटी से नहीं .

भोपाल के शाहपुरा इलाके में रहने बाले एक सरकारी कर्मचारी नरेन्द्र शर्मा इस सवाल के जबाब में कहते हैं , बात सच है , न जाने क्यों जरूरत पड़ने पर बेटी से पैसे मांगने में हिचक होती है लेकिन बेटे से नहीं . खुद बेटी नेहा ने कई बार पैसे देने की पेशकश की लेकिन मैंने यह कहते मना कर दिया कि रखो अपने पास या फिर अपने लिए ज्वेलरी बगैरह ले लो . फिर कुछ सोचते वे कहते हैं इससे मुझे उसकी शादी के लिए गहने और कपडे लत्ते नहीं खरीदना पड़ेंगे यह खर्च 8 – 10 लाख रु से कम तो किसी भी सूरत में होता नहीं . एक तरह से मेरा ही एक बड़ा खर्च कम हो रहा है .

निश्चित रूप से यह एक टरकाऊ और मन बहलाऊ जबाब है क्योकि कोई माँ बाप अपने बेटे से यह नहीं कहते कि अपनी पत्नी के लिए गहने बगैरह खरीद लो उलटे इस और ऐसे कई कामों के लिए उनसे पैसे ले लेते हैं .  इसे बेटों और बेटियों दोनों के साथ भेदभाव नहीं तो क्या समझा जाए . यह दौहरा मापदंड लड़कियों को फिजूलखर्च भी बना सकता है और जमा या निवेश किया गया उनका पैसा दहेज़ की शक्ल में ससुराल चला जाता है जो कि सरासर गैर जरुरी है .

मुंबई के एक इंटरनेश्नल बेंक में नौकरी कर रही तृप्ति यादव का कहना है कि उसके पापा पेंशनर हैं .  मम्मी पापा दोनों अकेले रहते हैं लिहाजा पैसों की जरुरत आमतौर पर उन्हें नहीं पड़ती मुझसे तो वे कुछ लेते ही नहीं लेकिन यूएस में रहकर जॉब कर रहे भाई से कभी कभार ले लेते हैं . शिवानी चाहती है कि मम्मी पापा भोपाल छोडकर उसके पास रहें जिससे उसे उनकी चिंता न हो इस पर न तो उसके पति को एतराज है और न ही विधवा सास को उलटे वे तो यह कहती हैं कि समधी समधन भी आ जाएँ तो उन्हें सहूलियत रहेगी वक्त अच्छे से कटेगा नहीं तो हम दोनों के आफिस चले जाने के बाद वे मुश्किल से दिन काटती हैं . लेकिन शिवानी के रूढ़िवादी माँ बाप की जिद यह है कि न तो बेटी से पैसा लेंगे और न ही उसके घर जाकर रहेंगे .

अब बात युवतियों की –

मानसी , सोनिया और साक्षी जैसी नव युवतियों सहित विनीता कुमार और इंदिरा जैसी महिलाएं जिनकी गिनती दोनों पीढ़ियों में की जा सकती है इस बात की पुरजोर वकालत करती हैं कि बेटियों को भी घर की जिम्मेदारियों में हाथ बटाना चाहिए और पेरेंट्स की आर्थिक मदद भी करना चाहिए . इस बात के पीछे सभी के अपने भावुक तर्क हैं जो फेमिनिज्म की नई परिभाषा गढ़ते नजर आते हैं .  यानी बात जमीनी स्तर की है काल्पनिक साहित्य और तथाकथित स्त्री विमर्श से इसका कोई सम्बन्ध नहीं .

मध्यप्रदेश मध्यक्षेत्र विद्धुत वितरण कम्पनी की एक अधिकारी अर्चना श्रीवास्तव की मानें तो भोपाल के एक हजार से भी ज्यादा घरों बाले मीनाल रेसीडेंसी के जिस इलाके में वे रहती हैं वहां लगभग सभी घरों की बेटियां दूसरे शहरों में रहते नौकरी कर रही हैं जिससे पेरेंट्स उनके भविष्य को लेकर निश्चिन्त हैं . ये पेरेंट्स सीधे बेटियों से आर्थिक मदद नहीं लेते लेकिन इनके लिए कुछ करने का जज्बा लिए बेटियां अपने तरीके से इनकी मदद करती रहती हैं . मम्मी पापा के  जन्मदिन और शादी की वर्षगांठ सहित ये महंगे उपहार वे तीज त्योहारों के अलावा बेमौके भी ऑन लाइन शापिंग के जरिये भेजती रहती हैं .

`जब मम्मी सीधे पैसे न लें तो यह एक बेहतर रास्ता है , 26 वर्षीय अदिति जैन बताती है , इससे उनकी वे जरूरतें पूरी हो जाती हैं जिन पर वे खर्च करने में कंजूसी बरतते हैं . गुरुग्राम की एक कम्पनी में नौकरी के रही अदिति जब भी घर भोपाल आती है तो मम्मी पापा को 40 – 50 हजार की खरीददारी जरुर कराती है महंगे स्मार्ट फोन के अलावा कई लक्झरी आइटम वह उन्हें दिला चुकी है .

अदिति की तरह ही कोंपल राय को भी नौकरी करते 7 साल हो चुके हैं . जब उसने पहली सेलरी पापा को दी तो उनकी आखों में आंसू आ गए थे लेकिन उन्होंने सिर्फ एक रुपया लिया . कोंपल घर की माली हालत से वाकिफ थी और पापा के इस सनातनी स्वभाव से भी कि वे उससे पैसे नहीं लेंगे तो उसने समझदारी दिखाते पापा से यह वादा ले लिया कि छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च वह उठाएगी .  अब एमसीए की डिग्री लेने के बाद भाई का जॉब भी लग गया है और वह अक्सर कहता है दीदी तुम्हारा सारा कर्ज जल्द उतार दूंगा तुम्हारी जगह अगर बड़ा भाई होता तो शायद इतना कुछ नहीं करता .

उलट इसके कोंपल यह मानती है कि वह पापा के कर्ज से मुक्त हो गई जिन्होंने अपनी जरूरतों में कटोती कर उसकी पढ़ाई पर पैसा खर्चने में कोई हिचक कभी नहीं दिखाई अगर यह उनकी जिम्मेदारी थी तो एवज में उसका भी कोई फर्ज बनता था जो उसने पूरा किया और अगर यह निवेश था तो बहुत स्मार्ट था .

हैरत और दिलचस्पी  की बात यह भी है कि मध्यमवर्ग से नीचे निम्न आय वर्ग में स्थिति उलट है . बदलाब उसमें भी आये हैं लेकिन लड़कियों से आर्थिक मदद लेने में माँ बाप कतई नहीं हिचकते तय है प्रचिलित परम्पराओं और रिवाजों पर उनकी जरूरतें भारी पड़ती हैं . भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में स्थित डीबी माल के एक शो रूम में कार्यरत मालती की मानें तो उसकी पूरी तनख्वाह घर खर्च में चली जाती है क्योंकि पापा की कमाई पूरी नहीं पड़ती . हाई स्कूल तक पढ़ी लिखी मालती शायद ज्यादा पढ़ी लिखी मध्यमवर्गीय युवतियों से ज्यादा मदद माँ बाप की कर रही है फर्क सिर्फ आमदनी , स्टेटस और शिक्षा का है . इस माल में काम कर रही कोई 40 महिलाओं और युवतियां नौकरी इसीलिए कर रहीं हैं कि घर चलाने में आर्थिक योगदान दे सकें .

यानी युवतियों का आर्थिक महत्व और उपयोगिता दोनों बढ़ रहे हैं लेकिन बकौल सुप्रीम कोर्ट उनका आर्थिक विश्लेषण किया जाना अहम है तो साफ़ दिख रहा है कि गृहणियों के मुकाबले युवतियां आगे हैं और पेरेंट्स को एक बडी चिंता से भी दूर रखे हुए हैं .

मदद करने से पहले –

बेटियां घर की जिम्मेदारी में माँ बाप का हाथ बंटाए यह स्वागत योग्य बात है लेकिन इसमें उन्हें कुछ सावधानियां भी रखनी चाहिए मसलन –

– जिस तरह पेरेंट्स बच्चों को पैसा देने से पहले यह सुनिश्चित करते हैं कि संतान पैसे का बेजा इस्तेमाल तो नहीं कर रही उसी तरह बेटियों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं माँ बाप उनके पैसे को फिजूलखर्ची में तो नहीं उड़ा रहे .

– अगर पिता जुआरी या शराबी हो तो मदद सोच समझ कर करें और उसका तरीका बदलें नगद पैसे देने के बजाय जरूरत का सामान दिलाएं .

– माँ बाप अगर धार्मिक कार्यों में पैसा खर्च करते हों तो उनकी मदद का मतलब अपने पैसे को बर्बाद करना है .

– समाज और रिश्तेदारी में झूठी शान और दिखावे पर खर्च करने बाले पेरेंट्स को भी सोच समझकर पैसा देना चाहिए .

– शादी के बाद पति की सहमति और जानकारी में माँ बाप की आर्थिक सहायता करनी चाहिए .

– अगर ज्यादा बचत हो जाए तो उसे कहीं न कहीं इन्वेस्ट कर देना चाहिए .

– शादी के पहले नौकरी के दौरान अगर पेरेंट्स ने पैसा न लिया हो तो उन्हें कोई महंगी लेकिन जरुरत का आइटम गिफ्ट कर देना चाहिए . वर्तिका ने बेंक की 6 साल की नौकरी के दौरान कोई 10 लाख रु बचाए थे जैसे ही शादी तय हुई तो उसने पापा को 5 लाख की कार तोहफे में दी . यह पापा का सपना था , वह बताती है कि अपने घर भी कार हो लेकिन उनकी पूरी सेलरी हम तीनों भाई बहिनों की परवरिश और पढ़ाई पर खर्च हो जाती थी इसलिए मैंने यह ठीक समझा कि इतना नगदी बजाय ससुराल ले जाने के उन माँ बाप पर खर्च किया जाए जिन्होंने बडी उम्मीदों से हमें काबिल बनाया .

बिलाशक बेटियां आगे बढ़ रहीं हैं पेरेंट्स की आर्थिक सहायता भी कर रहीं हैं और परिवार व समाज की दीगर जिम्मेदारियों में भी हाथ बटा रहीं हैं लेकिन यह न कहने की कोई वजह नहीं कि बेटे और बेटी में भेदभाव अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है जिसकी वजह धर्मिक मान्यताएं , सामाजिक रूढ़ियाँ और सड़ी गली परम्पराएँ हैं जिन्हें जड़ से उखाड़ा जाना जरुरी है . इस बाबत नए दौर की युवतियों को खासतौर से सजग रहना होगा और जिम्मेदारियां निभाने के एवज में उन्हें अपने हक मांगना नहीं बल्कि छीनना होंगे .

                             इनका कहना है

 पेरेंट्स हिचकिचाएं नहीं – मानसी केशरी – मध्यप्रदेश के खरगोन जिले की बडवाह तहसील की मानसी केशरी ने बीकाम ओनर्स करने के बाद एकच्युरियल साइंस से पोस्ट ग्रेज्युएट डिप्लोमा कोर्स किया है .मानसी के पिता एलआईसी में अधिकारी हैं और माँ शिक्षिका हैं . मानसी कहती हैं अभी तक मैंने कभी इस बारे में सोचा ही नहीं था कि मुझे भी पेरेंट्स की आर्थिक जिम्मेदारियों में हाथ बंटाना चाहिए मैं जो कुछ भी हूँ उन्हीं की बदौलत हूँ हालाँकि मुझे लगता नहीं कि कभी पेरेंट्स को मेरी आर्थिक सहायता की जरुरत पड़ेगी लेकिन बात सिर्फ मेरे अकेले की नहीं बल्कि तमाम बेटियों की है तो इस नाते मैं कहूँगी कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बेटियों को पेरेंट्स की मदद करना चाहिए .

पेरेंट्स को भी चाहिए कि वे बेटियों से उनकी कमाई के पैसे लेने में हिचकिचाएं नहीं और उनकी भावनाओं का सम्मान करें तभी बेटों से बराबरी का एहसास उन्हें होगा .और अकेले आर्थिक ही नहीं बल्कि दूसरी जिम्मेदारियों पर भी यह बात लागू होती है जिनसे बेटियों को अभी भी दूर रखा गया है .

 अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं लड़कियां – वैदेही व्यास – कम्पनी सेकेट्री का कोर्स कर रही भोपाल की वैदेही व्यास के पिता राज्य चुनाव आयोग में अधिकारी हैं जिनसे उसके सम्बन्ध दोस्ताना भी हैं . वैदेही इकलौती संतान है इसलिए खुद को बेटा ही मानती है . वह घर के अलावा बाहर के काम भी शिद्दत और पूरी जिम्मेदारी से करती है . वह भी सिर्फ आर्थिक ही नहीं बल्कि दूसरी सभी जिम्मेदारियों में हाथ बटाने की बात कहती है . बकौल वैदेही जब मम्मी पापा ने मुझे कभी लड़की होने का एहसास नहीं होने दिया तो मैं क्यों लड़की होने के पचड़े में पडू . मेरी कमाई उन्हीं की होगी और मेरी इच्छा है कि मम्मी पापा उसे उतने ही अधिकारपूर्वक लें जितना अधिकार से मैं उनसे लेती रही हूँ .

हालात तेजी से बदल रहे हैं , वह कहती है अब परिवार और समाज सिर्फ लड़कों के भरोसे नहीं हैं नए जमाने की लड़कियां देश की अर्थव्यवस्था की भी रीढ़ हैं इसका भी मूल्यांकन होना चाहिए . प्राइवेट कम्पनियों के साथ साथ युवतियां सरकारी नौकरियों में भी बराबरी से हैं और ज्यादा लगन और मेहनत से काम करती हैं इसके बाद भी उन्हें अपेक्षाकृत कम वेतन मिलता है इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए .

धर्म जिम्मेदार है – साक्षी सिंह – अजमेर एक कालेज से बीटेक कर चुकी साक्षी सिंह के पिता रेलबे में अशोकनगर में कार्यरत हैं . बकौल साक्षी वे घोर नास्तिक हैं और महिलाओं के साथ होने बाले भेदभावों का जिम्मेदार धर्म को ही ठहराते हैं जो गलत भी नहीं है . जल्द ही एक नामी साफ्टवेयर कम्पनी में नौकरी ज्वाइन करने जा रही साक्षी भी पापा की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहती है आज जो अधिकार महिलाओं के मिले हैं वे भीमराव अम्बेडकर और सावित्री फुले जैसी हस्तियों की कोशिशों और त्याग की देन हैं नहीं तो कट्टरवादी तो औरत को गुलाम और  पैर की जूती करार देते हैं .

साक्षी कहती है जब पेरेंट्स की आमदनी पर हम अपना पूरा हक समझते उसका उपयोग करते हैं तो वे भी संतानों चाहे वह बेटा हो या बेटी की कमाई के पूरे हकदार हैं . मेरे पापा ने कहा सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान दो लेकिन अब कहते हैं समाज के बारे में भी सोचो और महत्वपूर्ण घटनाओं का विश्लेषण करती रहो . सुप्रीम कोर्ट को महिलाओं के धार्मिक शोषण पर भी टिप्पणियां करते रहना चाहिए जो भेदभाव की असल जड़ है .

अशक्तता में साथ दें – डा विनीता कुमार –  पेशे से होम्यो चिकत्सक इन्दोर की विनीता कुमार कहती हैं जब माँ बाप ने बेटियों से कोई भेदभाव नहीं किया और सब कुछ बराबरी से दिया और किया तो बेटियों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे खासतौर से वृद्धावस्था में पेरेंट्स का सहारा बने . माँ बाप की जिम्मेदारी सिर्फ बेटों के सर न डाली जाए . विनीता कहती हैं कि उन्होंने कई मामले ऐसे देखे हैं जो रोज मीडिया की सुर्खियाँ भी बनते हैं कि समर्थ संतानों के रहते भी उन्हें जिन्दगी की शाम वृद्धाश्रमों में गुजारना पड़ रही है . अगर बेटी समर्थ है और बूढ़े माँ बाप के लिए कुछ नहीं कर रही है तो उसमें और बेटे में फर्क क्या .

विनीता मानती हैं कि बेटी की शादी के कई सालों बाद तक पेरेंट्स को पैसों और दूसरी मदद की जरुरत आमतौर पर नहीं पड़ती है लेकिन जब वे अशक्त होने लगते हैं तब बेटियों को बिना किसी का मुंह ताके या इंतजार किये खुद आगे आकर उनकी सेवा शुमार करना चाहिए इससे समाज एज्युकेट होगा और बेटियों को भी आत्मसंतोष रहेगा कि उन्होंने पेरेंट्स को एक बेहतर रिटर्न गिफ्ट दी .

क्रूर और लालची भी होती हैं बेटियां – इंदिरा शर्मा – विदिशा में श्री हरि वृद्धाश्रम सफलतापूर्वक संचालित कर रहीं इंदिरा शर्मा का अनुभव अलग है . बकौल इंदिरा बेटियां पेरेंट्स की जिम्मेदारियों में हाथ बंटाएं यह बड़े बदलाब का संकेत है लेकिन कुछ एहतियातों की भी जरूरत है . उनके आश्रम में कुछ दिन पहले एक ऐसी वृद्धा शहर के संभ्रांत लोग भर्ती करा गए थे जिनके पास कोई एक करोड़ की चल अचल संपत्ति थी लेकिन इकलौती बेटी ने उन्हें सार ( मवेशियों के रहने की जगह ) में धकेल दिया और खाने पीने तक मोहताज कर दिया .

यह वृद्धा बेटी के खिलाफ क़ानूनी काररवाई करने तैयार नही .  यह एक सबक है इंदिरा कहतीं हैं कि रिश्ते हमेशा अर्थप्रधान रहे हैं और बेटियां भी बेटों से कम क्रूर और लालची नही होतीं जो खुद की कमाई तो दूर की बात है खुद पेरेंट्स को उनकी जायदाद और कमाई से वंचित कर देती हैं हालाँकि अभी ऐसा आमतौर पर नहीं हो रहा है लेकिन पेरेंट्स को चाहिए कि वे अपनी जायदाद जीवित रहते बच्चों के नाम न करें नहीं तो बुढ़ापा किसी वृद्धाश्रम में भी काटना पड़ सकता है .

मेरी जीवनसाथी -भाग 2 : क्यों पुराने दिनों को याद कर रहा था नवीन

नौकर ने बताया था, ‘डाक्टर साहब स्टेशन गए हैं, अपने बेटे को लेने. वह शिमला में पढ़ता है. छुट्टियों में आ रहा है.’

डाक्टर साहब की पत्नी कहां हैं, पूछने से पूर्व मेरी दृष्टि फ्रेम में जड़ी एक तसवीर पर चली गई. सुहागन स्त्री की तसवीर जिस पर फूलों की माला पड़ी थी. बगल में ही डा. नवीन की भी फोटो रखी थी.

नौकर की खामोशी मुझे नवीन की उदासी समझा गई. उस दिन पहली बार नवीन के प्रति एक सहानुभूति की लहर ने मेरे अंदर जन्म लिया था.

2-4 दिनों के बाद ही बाबूजी घर आ गए. मैं ने 2 बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. खुद 11वीं तक पढ़ी थी. कुछ पैसे आने लगे. मां ने अचार, बडि़यां, पापड़ और मसाले बनाने का काम शुरू किया.

बाबूजी दुकानदारी के साथ प्रैस के काम का भी अनुभव रखते थे. इसलिए नवीन ने उन्हें एक प्रैस में छपाई का काम दिलवा दिया. फिर तो डुगडुग करती हमारी गृहस्थी चल निकली.

एक दिन एक खूबसूरत युवक हमारे घर का पता पूछता आ गया. उसे बाबूजी से काम था, लेकिन मु झे देखते ही बोला, ‘आप संगीता हैं न?’

‘हां, पर आप?’

‘मैं चंदन हूं, नवीन भैया का छोटा भाई.’

‘ओह, नमस्ते,’ मैं ने नजरें नीची कर के कहा तो वह मुसकरा दिया. उस की वह मुसकराहट मुझे अंदर तक छू गई. नवीन के लिए एक बार मेरे मन में सहानुभूति की लहर उठी थी, पर दिल कभी नहीं धड़का था. किंतु आज चंदन की काली आंखों के आकर्षण से न केवल मेरा दिल धड़कने लगा, बल्कि मैं स्वयं मोम सी पिघलने लगी.

नवीन दूसरे दिन आ कर हमें निमंत्रणपत्र दे गए थे. चंदन ने डाक्टरी पूरी कर ली थी. उन के बेटे मोहित का जन्मदिन भी था. उन दोनों की खुशी में वे एक पार्टी दे रहे थे.

फरजाना का सितारों से जड़ा गुलाबी सूट, जो अच्छे लिबास के नाम पर एकमात्र पहनावा था, पहन कर और नकली मोतियों का सैट गले में डाल कर मैं तैयार हो गई थी. मां ने मु झे गर्व से ऊपर से नीचे तक निहारा था. मैं लजा गई थी. बाबूजी के साथ मैं नवीन के घर पहुंची.

दरवाजे पर ही चंदन अपने दोस्तों के बीच खड़ा दिख गया. मेरी तरफ उस की पीठ थी लेकिन मैं चाहती थी कि वह मेरी तरफ देखे. मेरी सुंदरता उस पर असर करे.

नवीन ने मुझे प्यार से देखा था. फिर बाबूजी को और मुझे लिवा कर अंदर आ गए थे. गुजरते हुए चंदन के मित्रों ने मु झे देखा तो चंदन की भी नजर घूम गई. अवाक् और हतप्रभ सा वह मु झे देखता ही रह गया.

जाने क्यों उस का या उस के दोस्तों का यों देखना मुझे बुरा नहीं लगा. आज पहली बार मेरे सौंदर्य ने लोगों को ही नहीं, मुझे भी अभिभूत किया हुआ था. फिर पूरी पार्टी के बीच किसी न किसी बहाने से चंदन मेरे आसपास मंडराता रहा. मु झे स्वयं उस का सामीप्य बहुत अच्छा लग रहा था.

वह उम्र थी भी तो ऐसी जो किसी के बस में नहीं होती. न कालेज, न स्कूल, न सखीसहेलियां. दिल का हाल सुनाती भी तो किसे? सबकुछ तो उस पुराने शहर में छूट गया था.

रातभर करवटें बदलते हुए मैं ने चंदन के ही सपने देखे. जागते हुए सपने, उस का नीला सूट, गोरा रंग, मुसकराहट और आंखों का चुंबकीय आकर्षण…बारबार मुझे विभोर कर देते.

नवीन के प्रति मेरे मन में श्रद्धा थी, जिसे देख कर मन में शीतलता उत्पन्न होती थी. मगर चंदन को देखते ही गले में कुछ फंसने लगता था. पूरा शरीर रोमांचित और गरम हो उठता. शायद यह प्रथम प्रेम का आकर्षण था.

उस दिन हलकी घटा छाई हुई थी. शाम का समय था. बच्चे भी पढ़ने नहीं आए थे. बाबूजी प्रैस गए हुए थे और मां अचारबडि़यों का हिसाब करने दुकानदार के पास.

मैं अकेली कमरे में लेटी चंदन के ही सपने में खोई थी. पता नहीं, मैं गलत थी या सही. पर चंदन को भुला पाना अब मेरे बस में नहीं था. इधर चंदन एकाध बार किसी न किसी बहाने घर आ चुका था. तब मां या बाबूजी होते.

तभी दरवाजा खटका. अम्मा जल्दी आ गईं, सोचते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने चंदन खड़ा था. उस के शरीर से खुशबू का एक  झोंका आया जो मेरे संपूर्ण अस्तित्व को भिगो गया.

‘अंदर आ सकता हूं?’ मुसकरा कर उस ने पूछा.

‘हां, आइए.’

मैं चाय बनाने के लिए उठी तो चंदन ने मुझे रोक लिया, ‘मैं तुम से मिलने आया हूं, चाय पीने नहीं. सोचा था, आज मां होंगी तो साफसाफ बात कर के भैया से कह कर तुम्हें मांग लूंगा.’

मैं आश्चर्य एवं लज्जा से लाल पड़ गई थी. मेरी मुराद इतनी शीघ्र पूरी हो जाएगी, ऐसा तो सोचा भी न था.

चंदन ने मेरी ठोड़ी उठा कर मेरी आंखों में  झांका, ‘भैया से तुम लोगों के विषय में सबकुछ जान चुका हूं. तुम बताओ, मैं तुम्हें पसंद हूं?’

Crime Story: कसरत के लिए मशक्कत

लेखक-रोहित सिंह

  सौजन्या-सत्यकथा

12नवंबर, 2020 की शाम देहरादून के विकास नगर कोतवाली थाने के प्रभारी निरीक्षक राजीव रौथान के मोबाइल फोन पर किसी महिला ने फोन किया. आवाज से लग रहा था कि महिला डरीसहमी घबराई हुई थी.

महिला ने रोते हुए कहा, ‘‘सर मेरा नाम रीमा है और मैं हरबर्टपुर वार्ड नंबर-2, आदर्श विहार में रहती हूं. मेरे पति राकेश ने आत्महत्या कर ली है. उन की लाश बाथरूम में पड़ी हुई है. प्लीज सर, आप आ जाइए.’’

सूचना मिलते ही प्रभारी निरीक्षक राजीव रौथान पुलिस टीम के साथ आदर्श विहार की तरफ रवाना हो गए. कुछ ही देर में वह रीमा द्वारा बताए पते पर पहुंच गए.

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रीमा घर पर ही मिली. वह पुलिस को बाथरूम में ले गई, जहां उस के पति राकेश नेगी की लाश पड़ी थी. रीमा ने बताया कि यह लाश उस के पति की है.

राकेश की लाश बाथरूम के बाथटब में पड़ी थी. उस के हाथ की नस कटी हुई थी, जिस कारण फर्श पर फैला खून गाढ़ा पड़ कर सूख चुका था और गले पर धारदार हथियार से गोदने के निशान भी साफ दिख रहे थे. उस का गला भी कटा हुआ था.

मृतक के हाथों पर मजबूती से दबोचे जाने के लाल निशान साफ दिखाई दे रहे थे. पुलिस ने पूछताछ की तो पता चला कि मृतक फौजी था. वह गढ़वाल राइफल में हवलदार के पद पर  था और उस की पोस्टिंग जम्मू में थी. राकेश पिछले महीने अक्तूबर की 14 तारीख को छुट्टियों पर घर आया था.

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लाश देख कर लग रहा था कि उस की मौत हुए 12 घंटे से ज्यादा हो गए होंगे. पुलिस को राकेश के आत्महत्या के एंगल पर संदेह हुआ. उस के शरीर पर चोट के निशान और उस की पत्नी द्वारा पुलिस को आत्महत्या की सूचना देरी से देने की बात ने संदेह को और गहरा कर दिया.

राजीव रौािन को यह मामला आत्महत्या का कम और हत्या का अधिक लग रहा था. बल्कि शरीर के निशान देख कर उन्हें लगने लगा कि हत्या में एक से अधिक लोग शामिल रहे होंगे. उन्होंने इस बारे में वरिष्ठ अधिकारियों को सूचना दे दी.

इस केस को सुलझाने के लिए एसएसपी ने एक पुलिस टीम बनाई, जिस में सीओ धीरेंद्र सिंह रावत, थानाप्रभारी राजीव रौथान, थानाप्रभारी (कालसी) गिरीश नेगी, एसआई रामनरेश शर्मा, जितेंद्र कुमार आदि को शामिल किया गया.

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मौके की काररवाई पूरी करने के बाद पुलिस ने मृतक फौजी के शव को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि राकेश नेगी ने खुदकुशी नहीं की थी, बल्कि उस की हत्या की गई थी. हत्या का मामला सामने आने पर पुलिस तहकीकात में जुट गई. पुलिस ने मृतक की पत्नी रीमा नेगी को पूछताछ के लिए थाने बुला लिया.

सख्ती से की गई इस पूछताछ में रीमा ने पति की हत्या का जुर्म स्वीकार कर लिया. सख्ती से की गई पूछताछ में घटना से जुड़े हैरान करने वाले सच सामने आए, जिस ने सारी सच्चाई सामने  ला दी.

बीते साल की बात है, देहरादून के हरबर्टपुर में रहने वाली 27 वर्षीय रीमा अपनी बेस्वाद जिंदगी से काफी उकता चुकी थी. रीमा का पति राकेश नेगी फौज में था. दोनों की शादी साल 2015 में हुई थी. लेकिन शादी के बाद दोनों ज्यादातर एकदूसरे से दूर ही रहे थे.

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राकेश अपने अधिकतर समय में रीमा से दूर किसी दूसरे राज्य में ड्यूटी पर रहता था. बहुत कम मौका होता, जब वह घर पर आता. ऐसे में रीमा को लगता कि उस की शादी तो हुई है, लेकिन शादी के बाद पति से मिलने वाली खुशी के लिए वह कईकई महीनों तक तरसती रहती है.

राकेश घर आता भी था तो बहुत कम समय के लिए आता, फिर वापस चला जाता. जिस में रीमा की शारीरिक हसरतें पूरी नहीं हो पाती थीं.

सब कुछ था रीमा के पास, अच्छाखासा शहरी घर, खानेपीने की कोई कमी नहीं, फौजी की पत्नी होने का सम्मान, जहां चाहे घूमनाफिरना. लेकिन नहीं थी तो वह खुशी, जो शादी के बाद औरत अपने पति से चाहती है. रीमा अपनी जवानी की ऐसी दहलीज पर थी, जहां पर पहुंच कर पत्नी की खुशी पति के बाहों में होती है.

जवान रीमा की जवानी उसे अंदर से कचोटती थी, वह अपने अकेलेपन से खिन्न थी. नयननक्श से सुंदर रीमा खुद की सुंदरता को किसी पर न्यौछावर नहीं कर पा रही थी. वह अपने घर में खुद को अकेला महसूस करने लगी थी.

इस से बचने के लिए रीमा ने सोचा कि अपने अकेलेपन को दूर करने लिए वह अपना समय ऐसी जगह लगाए, जहां उसे यह सब याद ही न आए. इस के लिए उस ने गार्डनिंग, घूमनाफिरना, नई चीजें सीखना और जिम जाना शुरू कर दिया.

यह बात सही है, जब जिंदगी में व्यस्तता होती है तो ध्यान बंट जाता है. लेकिन रीमा ने जैसा सोचा था, ठीक उस से उलटा हो गया. जिस से बचने के लिए उस ने खुद को व्यस्त रखने की कोशिश की, वह उलटा उस के पल्ले बंध गया और ऐसा बंधा कि उस ने सारी हदें पार कर दीं.

पिछले साल रीमा ने विकास नगर के जिस ‘यूनिसेक्स जिम अकैडमी’ में जाना शुरू किया था, वहां उस की मुलाकात 25 वर्षीय शिवम मेहरा से हुई. शिवम उस जिम में ट्रेनर था. सुंदर चेहरा, सुडौल बदन, लंबी कदकाठी, आकर्षक शरीर. जवान मर्द की सारी खूबियां थीं उस में.

शिवम मेहरा विकास नगर में कल्यानपुरी का रहने वाला था. रीमा शिवम के डीलडौल और शरीर को देख कर पहली नजर में ही उस की ओर आकर्षित हो गई. लेकिन उस ने अपनी इच्छा जाहिर नहीं होने दी.

शिवम जिम का ट्रेनर था. उस का काम वहां आए लोगों को एक्सरसाइज के लिए ट्रेनिंग देना था. शिवम जब रीमा की हेल्प के लिए उस के करीब आता, तो तनबदन में मानो बिजली सी कौंध जाती. शिवम की हाथ या कमर पर हलकी सी छुअन भी शरीर में सिहरन पैदा कर देती. यह बात शिवम भी अच्छे से समझ रहा था कि उस के छूने भर से रीमा मदहोश हो जाती है.

लगभग 15 दिन बाद एक रात रीमा के वाट्सऐप पर एक अनजान नंबर से ‘हेलो’ का मैसेज आया. रीमा ने जानने के लिए फटाफट उस नंबर की प्रोफाइल फोटो देखी तो उस की आंखें चमक उठीं. चेहरे पर मुसकान खिल गई. शरीर झनझना गया, वह उस का जिम ट्रेनर शिवम था.

रीमा ने फटाफट रिप्लाई करते हुए ‘हाय’ लिख दिया. थोड़ी देर के लिए उस के दिल की धड़कनें तेज हो गईं. मानो धड़कन, डर और खुशी दोनों का भाव साथ दे रही हों, जो उस के तनबदन में सिहरन पैदा कर रहे थे. शिवम ने रिप्लाई में लिखा, ‘‘सौरी, ज्यादा रात हो गई, आप को परेशान किया.’’

रीमा ने तुरंत जवाब देते हुए लिखा, ‘‘कोई बात नहीं, वैसे भी यहां मुझे रात में परेशान करने वाला कोई नहीं है.’’रीमा का मैसेज पढ़ते ही शिवम की धड़कनें तेज हो गईं. इस बार डर और खुशी के भावों की बारी शिवम की थी. वह रीमा की डबल मीनिंग बात को समझ गया था, उस ने बात आगे बढ़ाते हुए लिखा, ‘‘क्यों, क्या हुआ, आप के हसबैंड कहां हैं?’’

रीमा ने जवाब में लिखा, ‘‘क्यों, तुम्हें मेरे हसबैंड की बड़ी चिंता है, मेरी नहीं?’’‘‘हसबैंड की नहीं, आप की ज्यादा चिंता है. कल जिम बंद रहेगा, यही बताने के लिए मैं ने मैसेज किया है ताकि आप परेशान न हों.’’ शिवम ने जवाब दिया. रीमा ने ‘ओके’ लिखा तो शिवम ने तुरंत लिख दिया, ‘‘अगर आप आना चाहें तो मैं आप के लिए जिम स्पैशली खुलवा दूंगा.’’

दोनों की ये बातें वाट्सऐप पर देर रात तक चलती रहीं. जिम खुला तो शिवम अपना सारा ध्यान रीमा पर ही देने लगा. वह रीमा के करीब आने की कोशिश करता. रात में होने वाली बात से दोनों में एकदूसरे के करीब आने की हिम्मत बढ़ गई थी.

शिवम जानबूझ कर रीमा को छूने की कोशिश करता. ऐसीऐसी एक्सरसाइज कराता, जिस में उसे ज्यादा से ज्यादा छूने का मौका मिले. इस में रीमा को भी कोई ऐतराज नहीं था. वह अंदर से और अधिक बेचैन थी. रीमा के मन में शिवम की बाहों में सिमटने की हसरत जागने लगी थी.

एक दिन रीमा ने शिवम को अपने घर खाने पर बुलाया. रीमा का घर हमेशा की तरह खाली था. शिवम यह जानता था और एक मंशा बना कर तैयारी के साथ वहां गया था. रीमा उस दिन बहुत सजीधजी थी. जिसे देख कर शिवम खुश था.

रीमा जब से जिम जाने लगी थी, तब से काफी खुश थी. लेकिन शिवम के घर आने पर वह सातवें आसमान पर पहुंच गई थी, मानो उस की लंबे समय की हसरत पूरी हो जा रही थी. शिवम भी इसी इंतजार में था. दोनों खाने के लिए साथ में बैठे. शिवम ने खाना खाने के बाद बात छेड़ते हुए रीमा को कहा, ‘‘रीमाजी, वैसे आप जिम आना छोड़ दीजिए.’’

‘‘क्यों?’’ रीमा ने पूछा.  ‘‘वो क्या है न, आप का शरीर पहले ही इतना परफेक्ट है, आप को जिम की क्या जरूरत है?’’

रीमा यह सुन कर शरमा गई, उस के चेहरे पर लालिमा छा गई, उस ने जवाब में आंखें नीचे करते हुए कहा, ‘‘मैं तो वहां तुम्हारे लिए आती हूं.’’ फिर इस बात को मजाक का लहजा देते हुए वह जोर से हंसने लगी.

लेकिन शिवम समझ गया था रीमा की इस बात में हकीकत छिपी है. उस ने रीमा से कहा, ‘‘रीमाजी, अगर आप ने आज साड़ी नहीं पहनी होती तो आप को यहीं जिम की प्रैक्टिस करवा देता, वैसे भी आज नए टिप्स हैं मेरे पास आप के लिए.’’

‘‘इस में कौन सी बड़ी बात है, कहो तो अभी उतार दूं.’’ रीमा ने तुरंत जवाब देते कहा’

यह सुनते ही शिवम समझ गया कि रीमा ने अपनी बात छेड़ दी है अब बारी शिवम की थी. शिवम ने भी चांस गंवाए बगैर कह दिया, ‘‘चलो फिर बैडरूम में, वहां वह सब होगा जो आप चाहती हैं और जो मैं चाहता हूं.’’

यह सुन कर रीमा मदहोश हो गई थी. उस ने शिवम को झट से गले लगा लिया. शिवम ने भी उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया. जिस के बाद दोनों ने अपनी हसरतें पूरी कीं. रीमा भूल गई कि उस की शादी राकेश के साथ हो चुकी है. वे दोनों एकदूसरे की बाहों में गोते लगाते रहे.

इस के बाद यह सिलसिला यूं ही चलता रहा. आमतौर पर रीमा का घर खाली ही रहता था. जहां वे जब चाहे मिल लिया करते. कभीकभी शिवम रीमा को जिम में सुबहसुबह जल्दी बुला लिया करता था. जहां वे अनीति की गहराइयों में गोते लगाते.

कोई हकीकत लंबे समय तक दबी जरूर रह सकती है, लेकिन छिप नहीं सकती. और यही हुआ रीमा और शिवम के साथ. लौकडाउन के बाद रीमा का पति राकेश जम्मू से छुट्टी ले कर 14 अक्तूबर को अपने घर देहरादून आया.

घर आ कर उसे रीमा का व्यवहार अलग सा लगा. अब रीमा पहले जैसी रीमा नहीं थी. जहां पहले रीमा राकेश के इर्दगिर्द घूमती थी, उसे हर चीज पूछती थी, अब वह राकेश पर ध्यान नहीं दे रही थी.

वह फोन पर ज्यादा रहने लगी थी. देर रात तक वह फोन पर चैटिंग करती थी. राकेश जब रीमा से पूछता कि कौन है तो वह गुस्सा हो जाती.

रीमा के साथ सहवास में बनने वाले संबंध भी अब राकेश को फीके लगने लगे थे. रीमा में अब राकेश के प्रति दिलचस्पी नहीं थी.

राकेश को रीमा में आए इन बदलाओं को देख कर शक होने लगा. उस ने रीमा के फोन को चैक करने की कोशिश की तो उस में लौक लगा था, जिसे खोलने का प्रयास करने से पहले ही रीमा ने उस से छीन लिया. इस बात को ले कर दोनों में तूतूमैंमैं होने लगी.

यह तूतूमैंमैं बाद इतनी बढ़ गई कि रोज झगड़े शुरू हो गए. वहीं दूसरी तरफ राकेश के घर आ जाने से रीमा भी परेशान हो गई थी. वह शिवम से मिल नहीं पा रही थी. उसे राकेश के साथ समय बिताना चुभ रहा था. उसे शिवम की कमी बहुत खल रही थी.

इसलिए एक दिन उस ने अपने पति को रास्ते से हटाने के लिए अपने प्रेमी शिवम मेहरा के साथ मिल कर एक षडयंत्र रच डाला.रीमा ने सब से पहले अपने मोबाइल फोन का सिम अपने प्रेमी को दे दिया. उस के बाद रीमा व शिवम मोबाइल पर एकदूसरे को मैसेज कर हत्या की योजना बनाने में लगे रहे.

11 नवंबर, 2020 की रात रीमा और उस के प्रेमी शिवम ने फौजी राकेश की हत्या करने की योजना बनाई. जिस के लिए रीमा ने रात को घर का मुख्य गेट बंद नहीं किया, ताकि शिवम घर में आ सके.

फौजी राकेश अपने बिस्तर पर गहरी नींद में सो रहा था. रात करीब 10 बजे शिवम घर के अंदर घुस आया और किचन में जा कर छिप गया. रीमा राकेश के पास गई और योजनानुसार किसी बात पर उस से झगड़ा करने लगी.रीमा राकेश को झगड़े में उलझा कर बरामदे की लौबी तक ले आई, जहां शिवम पहले से ही किचन में मौजूद था. शिवम ने पीछे से राकेश के हाथों को मजबूती से जकड़ लिया. इस के बाद राकेश के सामने खड़ी रीमा ने अपने पति का गला चाकू से रेत दिया. जिस से राकेश की मौके पर ही मौत हो गई.

इस के बाद दोनों ने राकेश की हत्या को आत्महत्या का रूप देने के लिए उस के हाथ की नसें काट दीं और उस के शव को बाथरूम में डाल दिया.

यह सब करने के बाद दोनों ने लौबी व घर में जगहजगह पड़े खून के धब्बों को पूरी रात कंबल से साफ किया. रात भर दोनों एकदूसरे के साथ रहे.

सुबह होते ही शिवम 5 बजे वापस विकासपुरी स्थित अपने जिम की तरफ चल दिया. इस के ठीक अगले दिन रीमा ने राकेश की झूठी आत्महत्या की सूचना पहले अपने मायके लुधियाना (पंजाब) में रह रहे अपने पिता को दी. उस के बाद उस ने घटना के करीब 18 घंटे बाद 12 नवंबर को विकास नगर पुलिस थाने को सूचना दी.

इस पूरे प्रकरण में पुलिस को शक तभी हो गया था जब पुलिस घटनास्थल पहुंची थी. शव की हालत देख कर सब से पहला संदेह घर के भीतर के ही व्यक्ति पर हुआ और घर में रीमा के अलावा कोई नहीं था. इस से पुलिस के शक की सुई सब से पहले रीमा पर ही जा अटकी थी.

पुलिस द्वारा पूछताछ में रीमा ने अपना जुर्म कबूल लिया. पुलिस ने दोनों आरोपियों रीमा नेगी व शिवम मेहरा को 13 नवंबर, 2020 को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया.

पुलिस ने हत्या में इस्तेमाल 2 चाकू व ब्लेड, मोबाइल फोन, स्कूटी (यूके16 ए- 7059), मृतक व हत्यारोपी के खून से सने कपड़े व खून से सना कंबल भी बरामद कर लिया.

मेरी जीवनसाथी -भाग 1 : क्यों पुराने दिनों को याद कर रहा था नवीन

घड़ी ने टिकटिक कर के 2 का घंटा बजाया. आरामकुरसी पर पसरी मैं शून्य में देखती ही रहती यदि घड़ी की आवाज ने मुझे चौंकाया न होता. उठ कर नवीन के पास आई. बरसों पुराना वही तरीका, पुस्तक अधखुली सीने पर पड़ी हुई और चश्मा आंखों पर लगा हुआ.

चश्मा उतार कर सिरहाने रखा. पुस्तक बंद कर के रैक में लगाई और लैंप बुझा कर बाहर आ गई. अब तो यह प्रतिदिन की आदत सी हो गई है. जिस दिन बिना दवा खाए नींद आ जाती, वह चमत्कारिक दिन होता.

बालकनी में खड़ी मैं अपने बगीचे और लौन को देखती रही. अंदर आ कर फिर कुरसी पर पसर गई. घड़ी की टिकटिक हर बार मुझे एहसास करा रही थी कि इस पूरे घर में इस समय वही एकमात्र मेरी सहचरी और संगिनी है.

बड़ी सी कोठी, 2-2 गाडि़यां, भौतिक सुविधाओं से भरापूरा घर, समझदार पति और 2 खूबसूरत होनहार बेटे, एक नेवी में इंजीनियर, दूसरा पायलट. ऐसे में मु झे बेहद सुखी होना चाहिए लेकिन स्थिति इस के बिलकुल विपरीत है.

घड़ी की टिकटिक मेरी सहचरी है और मेरे अतीत की साक्षी भी. मेरा अतीत, जो समय की चादर से लिपटा था, आज फिर खुलता गया.

तब पूरा शहर ही नहीं, समूचा देश हिंसा की आग में जल रहा था. 2 संप्रदायों के लोग एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे. बहूबेटियों की इज्जत लूट कर उन्हें गाजरमूली की तरह काटा जा रहा था. चारों तरफ सांप्रदायिकता की आग नफरत और हिंसा की चिनगारियां उगल रही थी.

हमारा घर मुसलमानों के महल्ले के बीच अकेला था. सांप्रदायिक हिंसा की लपटें फैलते ही लोगों की आंखें हमारे घर की तरफ उठ गई थीं.

एक रात मैं, अम्मा और बाबूजी ठंडे चूल्हे के पास बैठे सांस रोके बाहर का शोरशराबा सुन रहे थे. अचानक पीछे का दरवाजा किसी ने खटखटाया. अम्मा ने मुझे अपने सीने से चिपटा कर बाबूजी से कहा था, ‘नहीं, मत खोलना. पहले मैं इसे जहर दे दूं.’

तभी बाहर से रहीम चाचा की आवाज आई थी, ‘संपत भैया, मैं हूं रहीम. दरवाजा खोलो.’ सांस रोके हम खड़े रहे. बाबूजी ने दरवाजा खोला तो रहीम चाचा ने  झटपट मेरा और अम्मा का हाथ थामा, ‘चलो भाभी, मेरे घर. अब यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. इंसानियत पर हैवानियत का कब्जा हो गया है. चलो.’

जेवर, पैसा, कपड़े सब छोड़ कर हम रहीम चाचा के घर आ गए. पूरा दिन हम वहां एक कमरे में छिप कर बैठे रहे. लोग पूछपूछ कर लौट गए पर रहीम चाचाजी और फरजाना ने जबान नहीं खोली.

तीसरे दिन रहीम चाचा ने बाबूजी को 3 टिकट दिल्ली के पकड़ाए थे, ‘सुबह 4 बजे टे्रन जाती है. बाहर गाड़ी खड़ी है. तुम लोग चले जाओ, रात का सन्नाटा है. बड़ी मुश्किल से टिकट और गाड़ी का इंतजाम हो सका है.’

एक अटैची पकड़ाते हुए चाची ने कहा था, ‘इस में थोड़े पैसे और कपड़े हैं. माहौल ठंडा पड़ते ही तुम वापस आ जाना. हम हैं न.’

उस समय मैं फरजाना से, अम्मा चाची से और बाबूजी रहीम चाचा से मिल कर कितना रोए थे. होली, ईद संगसंग मनाने वाला महल्ला कितना बेगाना हो गया था हमारे लिए.

टे्रन में बैठने के बाद अम्मा ने राहत की सांस ली थी. बाबूजी ने बेबसी से शहर को निहारा था.

टे्रन अभी जालंधर ही पहुंची थी कि अचानक बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा. खामोशी से सबकुछ सहते बाबूजी को देख मैं ने सोचा था, सबकुछ सामान्य है पर यह हादसा उन्हें घुन की तरह खा रहा था. लगीलगाई दुकान, मकान और जोड़ा हुआ बेटी के लिए ढेरों दहेज…सब छोड़ कर आना उन्हें तोड़ कर रख गया.

चलती हुई ट्रेन में हम करते भी क्या? तभी सामने बैठे एक सज्जन ने हमें ढाढ़स बंधाया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर हूं. आप इन्हें यहीं उतार लें, आगे तक जाना इन की जान के लिए खतरनाक हो सकता है.’

‘आप…’

‘हां, मैं, यहीं सैनिक अस्पताल में डाक्टर हूं.’

मैं ने अम्मा की तरफ देखा और उन्होंने मेरी तरफ. उस समय 17 वर्षीया मैं अपने को बहुत बड़ी समझने लगी थी.

अस्पताल में नवीन नाम के उस डाक्टर ने हमारी बड़ी मदद की. बाबूजी को सघन चिकित्सा कक्ष में रखा. हमें भी वहीं रहने का स्थान मिल गया. मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया.

एक हफ्ते के अंदर ही नवीन ने एक कमरा दिलवा दिया जिस में एक अटैची के साथ हम सब को गृहस्थी शुरू करनी थी. थोड़े से बरतन, चूल्हा और राशन नवीन ने भिजवाए थे. मना करने पर कहा था उन्होंने, ‘मुफ्त में नहीं दे रहा हूं. बाबूजी ठीक हो जाएंगे तो उन्हें नौकरी दिलवा दूंगा.’

एक दिन बाबूजी को मैं देखने गई. वे ठीक लगे. मैं उन्हें घर ले जाना चाहती थी पर डा. नवीन उस समय ड्यूटी पर नहीं थे. घर पास ही था, पता पूछ कर जब मैं उन के घर पहुंची तो वहां गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था.

भेडि़या और भेड़: रूबी की चंचल मुसकान क्यों गायब हो गई

‘‘मां, मां…’’ लगभग चीखती हुई रूबी अपना बैग जल्दीजल्दी पैक करने लगी. मिसेज सविता उसे बैग पैक करते देख अचंभित हो बोलीं, ‘‘यह कहां जा रही है तू?’’

‘‘मां, बेंगलुरु में जौब लग गई है, वह भी 4 लाख शुरुआती पैकेज मिल रहा है. कल की फ्लाइट से निकल रही हूं.’’

सविता बोलीं, ‘‘अकेली कैसे रहेगी इतनी दूर? कोईर् और भी जा रहा है क्या?’’

रूबी मुसकराती हुई बोली, ‘‘पता है तुम क्या पूछना चाह रही हो. हां, रविश की जौब भी वहीं है. उस से बहुत सहारा मिलेगा मुझे.’’

इस पर सविता बोलीं, ‘‘तू रहेगी कहां? कोई फ्लैट या किराए का घर देख लिया है या नहीं?’’

अब रूबी की चंचल मुसकान गायब हो गई और मां को पलंग पर बैठाते हुए वह बोली, ‘‘मां, मैं और रविश वहां साथ ही रहेंगे.’’ यह सुन कर तो मां ऐसे उछल पड़ीं जैसे कि पलंग पर स्ंिप्रग रखी हो और उन के मुंह से बस यही निकला, ‘‘क्या? पागल तो नहीं हो गई तू, लोग क्या कहेंगे?’’

रूबी बोली, ‘‘जिन लोगों को तुम जानती हो, उन में से कोई बेंगलुरु में नहीं रहता, टैंशन नौट.’’

सविता ने कहा, ‘‘मति मारी गई है तेरी, भेडि़या और भेड़ कभी एक थाली में नहीं खा सकते. क्योंकि भेड़ के मांस की खुशबू आ रही हो तो भेडि़या घासफूस खाने का दिखावा नहीं करता.’’

इस पर रूबी बोली, ‘‘मां, इस भेड़ को भेडि़यों को काबू में रखना आता है. हम साथ रहेंगे अपनीअपनी शर्तों पर, शादी नहीं कर रहे हैं.’’

गुस्से में सविता बोलीं, ‘‘अरे नालायक लड़की, छुरी सेब पर गिरे या सेब छुरी पर, नुकसान सेब का ही होता है, जवानी की उमंग में तू यह क्यों नहीं समझ रही है?’’

रूबी बोली, ‘‘मां, मैं तुम से वादा करती हूं, जब तक उसे पूरी तरह समझ नहीं लेती, उस को हाथ भी नहीं लगाने दूंगी.’’

सविता ने कहा, ‘‘भाड़ में जा, ऐसी बातें तेरे मामा से तो कह नहीं सकती. काश, आज तेरे पिता जिंदा होते.’’

रूबी बोल पड़ी, ‘‘जिंदा होते तो गर्व करते कि बेटी ने दहेज की चिंता से मुक्त कर दिया.’’

रूबी बेंगलुरु पहुंची तो रविश ने उस का गर्मजोशी से स्वागत किया. रूबी मां को तो आश्वस्त कर आई मगर वह रविश के आचार, विचार और व्यवहार को बहुत ही बारीकी से तोल रही थी. रविश ने उसे छूने की तो कोशिश नहीं की मगर उस के उभारों पर उस की ललचाई नजर वह भांप सकती थी. उस दिन तो हद हो गई जब रविश अपने स्लो नैटवर्क के कारण टैलीकौम कंपनी की मांबहन भद्दीभद्दी गालियों के साथ एक कर दे रहा था.

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चरित्र और आचार की परीक्षा को जब तक रूबी भुला पाती, रविश ने टीवी देखते हुए सनी लिओनी पर अपने विचार भी जाहिर कर दिए. अब तो रूबी के सपनों की दुनिया मानो ताश के पत्तों की तरह बिखर गई. दूसरे ही दिन रूबी अपना बोरियाबिस्तर बांध अपनी कलीग के घर जाने लगी, तो रविश ने उस का रास्ता रोकते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ?’’

रूबी ने उस के आचार, विचार और व्यवहार पर लंबाचौड़ा भाषण दे दिया. रविश ने सबकुछ शांति से सुना और बोला, ‘‘अरे, इतनी सी बात, यह तो मेरे अंदर का पुरुष जब मुझ पर हावी हो जाता है, तब होता है, हमेशा ऐसा नहीं होता.’’

रूबी ने कहा, ‘‘मगर रविश, मैं ने सोचा था कि तुम बाकी मर्दों से अलग होगे.’’

रविश ने कहा, ‘‘रूबी, जो पुरुष अपने को ऐसा दिखाते हैं वे झूठे होते हैं. सच तो यह है कि हर पुरुष सुंदर स्त्री को देखते ही लालायित हो उठता है. यह नैसर्गिक आदत है उस की. मैं भी पुरुष हूं, झूठ नहीं बोलूंगा. मगर मैं भी तुम्हें मन ही मन…लेकिन तुम्हारी मरजी के बिना नहीं. अब भी तुम अलग रहना चाहती हो तो मैं नहीं रोकूंगा.’’

रूबी उस की साफसाफ बोलने की आदत और नियंत्रण देख अपने कपड़े बैग से निकाल वापस अलमारी में रखने लगी. तभी लाइट चली गई और रविश बोल पड़ा, ‘‘इस को भी अभी जाना था.’’ रूबी के घूर कर देखने पर रविश जीभ दांतों में दबा उठकबैठक लगाने लगा. और रूबी ने इस बचकानेपन पर उसे चूम लिया. आज उस ने अपने अंदर की स्त्री के संयम के किनारे को भी तोड़ दिया क्योंकि आज वह भेडि़या और भेड़ की नैसर्गिकता को समझ चुकी थी.

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किसान आंदोलन और सुप्रीम कोर्ट

लेखक-रोहित और शाहनवाज

लगभग सात हफ़्तों से अधिक समय से चले आ रहे किसान आन्दोलन पर सुप्रीम कोर्ट ने 11-12 जनवरी को हस्तक्षेप किया. कोर्ट के इस आदेश से जहां लोगों को यह लग रहा है कि किसान अब इस मसले पर गदगद हो गए होंगे और जीत की खुशियां मना रहे होंगे. वहीँ जमीन पर ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है. इस आदेश के आने के बाद किसान अब और भी असंतुष्ट और असहाय महसूस कर रहे हैं. और यह बात जाहिर तब हुई जब ठीक अगले दिन यानि 13 जनवरी को किसानों ने लोहड़ी की खुशियां मनाने के बजाय, विवादित कृषि कानूनों को जलाते हुए नाराजगी दिखा कर न्यायपालिका और सरकार को अपना फैसला फिर से जाहिर किया. साथ में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इन कृषि कानूनों को ले कर उन की शुरुआत से चलती आ रही मांग क्या है.

सुप्रीम कोर्ट के आए इस आदेश को ले कर जब हम सीधा ग्राउंड पर किसान नेताओं से बात करने गए तो उन के भीतर एक स्पष्टता दिख रही थी कि यह कानून बिना वापस कराए वे यहां से जाने को बिलकुल भी तैयार नहीं है व सुप्रीम कोर्ट के जारी किए आदेश से वे संतुष्ट नहीं हैं. ऐसे में सवाल बनता है कि आखिर क्या कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप करने के बावजूद भी किसान इस कहर बरपाती ठंड में जमे हुए हैं? आखिर वह क्या आदेश हैं जिस पर गहमागहमी चल रही है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को किसानों के बीच शक के दायरे में खड़ा करती है?

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कोर्ट में सुनवाई

11 जनवरी के दिन देश की सर्वोच्च न्यायलय के द्वारा विवादित कृषि कानूनों को ले कर सुनवाई हुई. यह सुनवाई 3 याचिकाओं पर हुई. सुनवाई 3 न्यायधीशों की बेंच की अगुवाई में की गई, जिस में चीफ जस्टिस एसए बोबड़े की अगुवाई में जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामासुब्रमनियम शामिल थे. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कृषि कानूनों को ले कर किसानों के विरोध से निपटने के तरीके पर केंद्र सरकार पर नाराजगी जताई और कहा कि, किसानों के साथ उन के बातचीत के तरीके निराशाजनक है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने किसानों से कहा कि कानून के अमल पर स्टे करेंगे और स्टे तब तक होगी जब तक कमिटी बात करेगी ताकि बातचीत की सहूलियत पैदा हो. कोर्ट ने वैकल्पिक जगह पर प्रदर्शन के बारे में भी किसानों को सोचने के लिए कहा. साथ ही महिलाओं और बुजुर्गों को अपने गांव वापिस चले जाने को ले कर टिप्पणी भी की. हालांकि किसान संगठनों ने उसी दिन प्रेस कांफ्रेंस कर यह बात साफ कर दी कि वह इस कानूनी प्रक्रिया अथवा कमिटी का हिस्सा नहीं बनेंगे. बल्कि सीधा सरकार से बात करेंगे.

केंद्र की ओर से अटोर्नी जनरल केके वेणुगोपाल, सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता और किसान संगठनों की ओर से एके सिंह, दुष्यंत दवे, एचएस फुल्का, प्रशांत भूषण, कोलिन गंजाल्वेस,  इत्यादि पेश हुए. वही बिल का समर्थन करने वाले राज्य से हरीश साल्वे पेश हुए.

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अगले दिन 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों को स्टे पर रखने का आदेश दिया. आन्दोलन कर रहे किसान संगठनों को आश्चर्य तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने 4 सदस्यीय कमिटी का गठन किया. जिस में अशोक गुलाटी, डाक्टर प्रमोद जोशी, अनिल घनवत, भूपिंदर सिंह मान शामिल थे. हालांकि ध्यान देने वाली बात यह है की इस 4 सदस्यों की कमिटी बनाए जाने के 1 दिन बाद ही भूपिंदर सिंह मान अपना नाम वापस ले चुके हैं. इस से पहले भी आरएम लोढ़ा इस कमिटी की अध्यक्षता का प्रस्ताव ठुकरा चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “हमें समिति बनाने का अधिकार है जो वास्तव में हल चाहतें हैं वे समिति के पास जा सकते हैं. ये समिति हम अपने लिए बना रहे हैं.” जिस के बाद विवाद इस कमिटी के सदस्यों के अपोइन्ट किए जाने को ले कर गरमा गया है. जिस ने सुप्रीम कोर्ट को ले कर कई शंकाओं के बीज आंदोलित किसानों के भीतर बो दिए हैं.

किसानों का एतराज

सुप्रीम कोर्ट और किसानों के बीच बने इस नए गतिरोध को ले कर जब हम ने किसान संगठनों के नेताओं से इस पुरे प्रकरण के संबंध में बात की, तो उन्होंने बताया कि उन की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में किसी प्रकार की याचिका दायर ही नहीं की गई. पंजाब किसान यूनियन के नेता सुखदर्शन नत ने कहा, “कोर्ट ने 8 किसान नेताओं को समन भेजा था कि आप आएं और अपना पक्ष रखें. क्योंकि कोर्ट का सम्मान हर कोई करता है और हम भी करते हैं तो यहां से कुछ वकीलों को भेजा गया था, कि वहां (कोर्ट) में जाएं और जा कर यह कह दें कि हम इस में पार्टी नहीं होंगे.”

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सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं को ले कर जब भारतीय किसान यूनियन (चढूनी) के प्रेसिडेंट गुरनाम सिंह चढूनी से बात की गई तो वे कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट में हम नहीं गए हैं. हमें लगता है कि यह सरकार का एक षड़यंत्र था. सरकार ने पहले ही यह विकल्प खोजा की अगर सरकार से कुछ नहीं होता तो कोर्ट के माध्यम से इस मामले को टाल दिया जाए. इस का अंदेशा हमें पहले दिन से ही था कि यह मामला कोर्ट में जाएगा, कोर्ट इस पर स्टे लगाएगा और इस मामले पर कमिटी का गठन करेगा. लेकिन हमें ये उम्मीद नहीं थी की कमिटी के सदस्य वे उन को बनाएंगे जो पहले से ही सरकार और इन कानूनों के पक्ष में हैं.”

कमिटी से नाराजगी

जाहिर है सुप्रीम कोर्ट ने जिन 4 सदस्यों की कमिटी बनाई थी, उस पर काफी विवाद होता हुआ दिखाई दे रहा है. इन चार सदस्यों की राय अलगअलग माध्यमों से सरकार और नए कृषि कानूनों को ले कर जाहिर होती रही है. ऐसे में दोआबा किसान यूनियन के प्रेसिडेंट कुलदीप सिंह दोआबा कहते हैं, “कमिटी से हम पहले दिन से इनकार करते आए हैं. कमिटी का मतलब होगा मामले को सुलझाना नहीं बल्कि डिले करना. जो नाम सुप्रीम कोर्ट ने दिए भी हैं, वे कभी किसानों के पक्ष में नहीं हो सकते. चारों सदस्य वे हैं जो पहले ही इन कानूनों के फेवर में हैं. ये लोग वही भाषा बोलते हैं जो सरकार कहती है, ऐसे में निष्पक्ष बातविचार का सवाल ही नहीं उठता.”

गौरतलब है की सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए कमिटी के नामों से कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठता है. चारों सदस्यों के कृषि कानूनों के समर्थन में पब्लिक डोमेन में आकर अपने विचार स्पष्ट कर चुके हैं. इस लिस्ट में मौजूद नामों में से पहले सदस्य, अशोक गुलाटी हैं. अशोक गुलाटी भारत में महत्वपूर्ण कृषि अर्थशास्त्रियों में से एक माने जाते है. यह वही अशोक गुलाटी हैं जो मई 2020 में कृषि कानूनों में किए जाने वाले बदलावों को ले कर मोदी सरकार की प्रशंसा कर चुके हैं. उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में कहा था कि, “मोदी सरकार देश की कृषि सेक्टर में सुधारों को शुरू करने के लिए बधाई के पात्र हैं.” यानि अशोक गुलाटी पहले ही सरकार और इन कानूनों के पक्ष में अपनी दलील दे चुके हैं.

इस लिस्ट के दुसरे सदस्य अनिल घनवत हैं. घनवत महाराष्ट्र स्थित किसान यूनियन शेतकारी संगठन के प्रेसिडेंट हैं. इस संगठन के फाउंडर शरद जोशी के संबंध में भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढूनी बताते हैं कि, 20 साल पहले जब वाजपयी की सरकार थी उस समय डब्लूटीओ लागु हुआ था. ये लोग डब्लूटीओ के तब से समर्थक थे. हिन्दुस्तान की मार्किट में विकसित देशों के दखल के अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र में इन लोगों ने भूमिका निभाई थी. ये तो अमेरिका का एजेंट है. मुझे जब इस बारे में पता चला तो मैंने बगावत कर दी. और आज वही लोग इस कमिटी में हैं.”

देखने वाली बात यह है कि यह वही संगठन है जिस ने अक्टूबर में, कृषि कानूनों के समर्थन में प्रदर्शन किया था. दिसम्बर में हिन्दू बिजनेसलाइन अखबार से बात करते हुए घनवत ने कहा था कि, “इन कानूनों को वापस लेने की आवश्यकता नहीं है, जिन्होंने किसानों के लिए अवसरों को खोल दिया है.”

लिस्ट के तीसरे सदस्य प्रमोद कुमार जोशी हैं. वे कृषि नीति विशेषज्ञ और दक्षिण एशिया अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक रह चुके हैं. सितम्बर 2020 में इजरायली एग्री-बिजनेस कंसल्टिंग फर्म एग्रीविजन द्वारा आयोजित एक पैनल डिस्कशन में जोशी ने अपनी बात रखी थी. जिस में उन्होंने कृषि कानूनों की वकालत करते हुए यह कहा था कि, “खेती को लाभदायक बनाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों को बनाने में ये कानून सहायक होंगे.” यही नहीं एमएसपी के संबंध में जोशी ने यह भी कहा है कि “कानून द्वारा एमएसपी को अनिवार्य करना बहुत कठिन है. एमएसपी का कानून का मतलब एमएसपी पर अधिकार होगा. जिन्हें एमएसपी नहीं मिलेगी वे कोर्ट जा सकेंगे और एमएसपी नहीं देने वालों को दंडित किया जाएगा.” यानि प्रमोद कुमार जोशी भी पूरी तरह से सरकार और कृषि कानूनों का समर्थन करते हैं.

कमिटी से अपना नाम वापस लेने वाले भूपिंदर सिंह मान भी इन कृषि कानूनों के पक्ष में दिखाई देते रहे हैं. मान राजसभा के पूर्व सांसद रह चुके हैं और भारतीय किसान यूनियन (मान) के प्रेसिडेंट हैं. मान ने हरियाणा, महाराष्ट्र, बिहार और तमिलनाडु के किसान संगठनों के साथ मिल कर सरकार को इन तीनों कानूनों में कुछ संशोधनों के साथ लागु किए जाने की मांग को ले कर मेमोरेंडम सौप चुके हैं.

भारतीय किसान यूनियन (पंजाब) के जनरल सेक्रेटरी बलवंत सिंह बहरामके का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश पॉलिटिकली मोटीवेटेड रहा है. वह कहते हैं, “हम यह पहले भी कह चुके हैं और अब आप के माध्यम से भी कह रहे हैं की देश के प्रधानमंत्री और माननीय सुप्रीम कोर्ट हम किसानों के लिए उलटे फैसले लेंगे तो हम यह सड़कें तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक यह वापस नहीं ले लिए जाते. क्योंकि यह कानून हमारे पुरे किसान परिवारों के लिए डेथ वारंट हैं.”

महिलाओं और बुजुर्गों पर टिप्पणी अनावश्यक

किसान आंदोलन में एक बड़ी संख्या महिलाओं और बुजुर्गों की है. खासकर इन में महिलाएं अधिक मजबूती के साथ आंदोलन में डटी हुई हैं. ये महिलाएं न सिर्फ इस आंदोलन का स्तम्भ बनी हुई हैं बल्कि वे अपने किसान वजूद के होने का भी एहसास करा रही हैं. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस ने सुनवाई के दौरान कहा कि, “हम नहीं समझ पा रहे की महिलाएं वहां क्यों आईं हैं. मैं चाहता हूं कि आप उन्हें यह बता दें की सीजेआई उन्हें वापस चले जाने के लिए कह रहे हैं.” हालांकि इस टिप्पणी पर जवाब देते हुए दुष्यंत दवे ने कहा कि महिलाओं और बुजुर्गों को कोई वहां ले कर नहीं आया बल्कि वे खुद यहां आएं हैं. यह उन के अस्तित्व का भी सवाल है. इस टिप्पणी को ले कर जब हम ने वहां मौजूद महिला आन्दोलनकारियों से बात करने की कोशिश की तो महिलाओं ने साफ कहा कि वह वापस जाने वाले नहीं हैं. वह यहां अपने परिजनों के साथ न केवल डटी रहेंगी बल्कि ट्रैक्टर यात्रा में भी उन के साथ रहेंगी. सरकार और सुप्रीम कोर्ट को यदि उन की इतनी चिंता है तो तीनों कृषि कानून वापस ले ले और वे वापस चले जाएंगी.

पंजाब किसान यूनियन की नेता जसबीर कौर नत ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस सुझाव को ले कर कहा कि, “कृषि कोई ऐसा काम नहीं है जो सिर्फ मर्दों के साथ जुडी हुई है. खेती का काम ऐसा है जिस में पूरा परिवार मिल कर मेहनत करता है जिस में महिलाएं भी शामिल हैं. यही कारण है की वे इस एजिटेशन में भी शामिल हैं. उन्हें कृषि से न तो अलग देखने की जरुरत है और न ही कमजोर समझने की.” जसबीर कहती हैं, “भारत में कृषि क्षेत्र में लगभग 75% योगदान महिलाओं का होता है. जिस में महिलाओं के अधीन सिर्फ 12% ही जमीन है. यह कंसर्न सरकार और कोर्ट के अधीन होना चाहिए.”

वह आगे कहती है, “महिलाओं और बुजुर्गों को वापस भेज कर क्या सरकार यहां यह चाहती है की नौजवान यहां रहे और वे उन पर फोर्स इस्तेमाल कर उन्हें भड़काएं. फिर उन्हें इस एजिटेशन को हिंसक कहने का बहाना मिल जाए. महिलाओं और बुजुर्गों का इस एजिटेशन में होना ही इस बात की गारंटी है की हम किसी प्रकार की कोई हिंसा नहीं चाहते.”

असमंजस और असंतुष्टि

पिछले 50 दिनों से लगातार यह आंदोलन दिल्ली के बौर्डेरों पर बना हुआ है. ऐसे में किसानों का खूब पैसा भी खर्च हो रहा है. वहां आए किसान अपना शत प्रतिशत योगदान देने के मकसद से वहां संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में हर प्रकार से वे अपना योगदान दे रहे हैं. यह बहुत आसानी से देखा जा सकता है किसान अपना काम छोड़ कर वहां आने पर मजबूर हुए हैं. बहुत लोग अपना पेशेगत काम को छोड़ कर वहां निःशुल्क सेवा भाव से अपना योगदान दे रहे है. ऐसे में वह घर की संपत्ति और अपनी बचत को आन्दोलन में झोंक रहे हैं. कोई मुफ्त खाना बांट रहा है, कोई मुफ्त जूते सिल रहा हैं तो कोई मुफ्त बाल काट रहा है. कोई अपनी खेती किसानी छोड़ कर वहां आया हुआ है.

कोई भी व्यक्ति यह जोखिम तभी लेता है जब उसे बड़े नुक्सान के होने का डर हो. आज वहां पर किसान इसी डर और अपना भविष्य बचाने के चलते दिन रात वहां बैठे हुए हैं. ऐसे में किसानों को इस कानून के स्टे में जाने से ज्यादा डर बना हुआ है. भारतीय किसान यूनियन (कादिआं) के स्पोक्सपर्सन रवनीत बरार का कहना है की, “हमारी बात उन से है जिन्होंने ये कानून बनाए हैं. अब इस का सोल्यूशन तो सरकार ही देगी. इसे वापस तो सरकार को ही करना पड़ेगा ना. अब यह स्टे में है तो सरकार भी अपना पल्ला झाड़ेगी की मामला सुप्रीम कोर्ट के अधीन है.” वह आगे कहते है, “स्टे में डालने का मतलब रिपील करना नहीं है. बल्कि आन्दोलन को खत्म करने का नैतिक दबाव डालना है. और हम यहां पर कानूनों को रिपील करवाने आएं हैं. आप ही बताइए कि अगर हम यहां से उठ जाते हैं और कल को सरकार दोबारा इन कानूनों को लागू करती है तो हमारे पास क्या चारा बच पाएगा. हमारा मोमेंटम तो टूट जाएगा. यह तो ऐसा लग रहा है जैसे सरकार ने हमारे और अपने बीच में सुप्रीम कोर्ट की एक नई दीवार खड़ी कर दी हो.”

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानून को होल्ड कर देने से किसानों के बीच असमंजस और असंतुष्टि भी पैदा हुई है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन याचिकाओं पर सुनवाई नहीं करने, जिन में इन विवादित कृषि कानूनों को असंवैधानिक बताया गया था, पर किसानों को हैरान करता है. इसलिए जिस आदेश से देश के बड़े हिस्से को यह लग रहा हो कि वह किसानों के पक्ष में है, किन्तु किसानों की समझ से यह एक प्रकार से सरकार की इच्छा को किसानों पर थोपने जैसा है.

बिग बॉस 14: अभिनव शुक्ला को देखकर फैंस को आई सुशांत सिंह राजपूत की याद, ट्विट कर बताया हीरो

बिग बॉस 14 की शुरुआत से दर्शक अभिनव शुक्ला को मजबूत प्रतियोगी नहीं समझ रहे थें. रुबीना दिलाइक की वजह से उन्हें कमजोर माना जा रहा था. दर्शकों का मानना था कि अभिनव शुक्ला अपनी बीवी के पीछे छिपे रहते हैं. लेकिन समय के साथ साथ यही उनकी यूएसपी बन गई और लोग उन्हें बिग बॉस 14 के टॉप 5 कंटेस्टेंट में देखने लगे.

फैंस का कहना है कि अभिनव शो के एक दमदार प्रतियोगी है. जो बिना लड़े- झगड़े दर्शकों का दिल जीत लेते हैं. इसका सबूत अचानक लोगों को ट्विटर पर देखने को मिला जिसमें लोग अचानक #bb14heroabhinaw करके ट्रेंड करन लगे. ऐसा इंसान मिलना आज के समय में मुश्किल है.

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वहीं कुछ फैंस ऐसे हैंं जिन्हें अभइनव शुक्ला को देखकर सुशांत सिंह राजपूत की याद आने लगी है. जिससे लोग और भी ज्यादा अभिनव शुक्ला को ट्रेंड करने लगे हैं.

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वो अपना गेम भी खेलता है और पत्नी के लिए लड़ता भी है. तो वहीं दूसरे प्रतियोगी ने कहा कि एभिनव शुक्ला एक ऐसा प्रतियोगी है कि जो फैंस का दिल जीत लेता है.

इस खबर के बाद से लगातार अभिनव शुक्ला सुर्खियों में छाएं हुए हैं. अभिनव के फैंस के लिए ये बड़ी खबर है. अभिनव को लोग अब बिग बॉस के विनर के रूप में देखऩे लगे हैं. जिससे अभिनव अपने फैंस का दिल लगातार जितते हुए नजर आ रहे हैं.

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बस कुछ दिन और बचें हैं जिसके बाद बिग बॉस केघर का विनर कौन होगा उसका फैसला आ जाएगा थोड़े वक्त और इंतजार करने की जरुरत है.

वहीं कुछ लोग रुबीना दिलाइक को भी बिग बॉस के विनर के रूप में देखते हैं.

बिग बॉस 14: एजाज खान इस वीकेंड के वार में घर से हो सकते हैं बाहर ! जानें क्या है वजह

बिग बॉस 14 के मेकर्स शो को दिलचस्प बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं. इस हफ्ते जैस्मिन भसीन को शो से बाहर निकालकर फैंस को बहुत बड़ा झटका दिया है. लोगों को यकिन करना मुश्किल हो रहा है कि जैस्मिन भसीन अब बिग बॉस के घर से बाहर है.

इसके बाद एक और सरप्राइज देने का शो के मेकर्स ने प्लान बना लिया है. जिसे जानने के बाद आप भी चौक जाएंगे, दरअसल इस वीकेंड के वार में घर से बाहर होंगे एजाज खान अभी से उनकी शूटिंग रोक दी गई है. इस बार एलिमिनेशन लिस्ट में सोनाली फोगाट ,एजाज खान, राहुल वैद्या औऱ निक्की तम्बोली रहेंगे.

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रिपोट्स कि मानी जाए तो इस बार एजाज खान को जमकर वोट्स मिले हैं लेकिन इसके बावजूद भी एजाज खान को घर से बाहर निकाल दिया जाएगा.

बिग बॉस 14 में आने से पहले एजाज खान ने एक फिल्म शाइन कि थी जिसकी शूटिंग रोक दी गई है. अब लगता है कि घर से बाहर जाने के बाद एजाज खान अपनी फिल्म की शूटिंग  फिर से शुरू कर पाएंगे.

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बिग बॉस 14 का फिनाले जनवरी में होना था लेकिन यह शो अब डेढ़ महीना के लिए एक्सटेंड कर दिया गया है. फिलहाल बिग बॉस 14 के घर में काफी ज्यादा खिलाड़ी बाकी है. अपने पुराने कमिटमेंट की वजह से एजाज खान को इस शो को बीच में छोड़कर जाना पड़ा जो सही दर्शकों को सही नहीं लगा.

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एजाज खान फैंस के फेवरेट कंटेस्टेंट बन चुके थें. अब उनका जाना फैंस को बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा है फैंस ने एजाज खान को बिग बॉस के विनर के रूप में देखने लगे थें. अब देखना ये हैं कि एजाज खआन के बाद कौन होगा शो का विनर

अंतर्व्यथा-भाग 1: रंजनी जी के पति का देहांत कैसे हुआ

बंद अंधेरे कमरे में आंखें मूंदे लेटी हुई मैं परिस्थितियों से भागने का असफल प्रयास कर रही थी. शाम के कार्यक्रम में तो जाने से बिलकुल ही मना कर दिया, ‘‘नहीं, अभी मैं तन से, मन से उतनी स्वस्थ नहीं हुई हूं कि वहां जा पाऊं. तुम लोग जाओ,’’ शरद के सिर पर हाथ फेरते हुए मैं ने कहा, ‘‘मेरा आशीर्वाद तो तुम्हारे साथ है ही और हमेशा रहेगा.’’ सचमुच मेरा आशीर्वाद तो था ही उस के साथ वरना सोच कर ही मेरा सर्वांग सिहर उठा. शाम हो गई थी. नर्स ने आ कर कहा, ‘‘माताजी, साहब को जो इनाम मिलेगा न, उसे टीवी पर दिखलाया जा रहा है. मैडम ने कहा है कि आप के कमरे का टीवी औन कर दूं,’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह टीवी औन कर के चली गई. शहर के लोकल टीवी चैनल पर शरद के पुरस्कार समारोह का सीधा प्रसारण हो रहा था.

मंच पर शरद शहर के गण्यमान्य लोगों के बीच हंसताखिलखिलाता बैठा था. सुंदर तो वह था ही, पूरी तरह यूनिफौर्म में लैस उस का व्यक्तित्व पद की गरिमा और कर्तव्यपरायणता के तेज से दिपदिप कर रहा था. मंच के पीछे एक बड़े से पोस्टर पर शरद के साथसाथ मेरी भी तसवीर थी. मंच के नीचे पहली पंक्ति में रंजनजी, बहू, बच्चे सब खुशी से चहक रहे थे. लेकिन चाह कर भी मैं वर्तमान के इस सुखद वातावरण का रसास्वादन नहीं कर पा रही थी. मेरी चेतना ने जबरन खींच कर मुझे 35 साल पीछे पीहर के आंगन में पटक दिया. चारों तरफ गहमागहमी, सजता हुआ मंडप, गीत गाती महिलाएं, पीली धोती में इधरउधर भागते बाबूजी, चिल्लातेचिल्लाते बैठे गले से भाभी को हिदायतें देतीं मां और कमरे में सहेलियों के गूंजते ठहाके के बीच मुसकराती अपनेआप पर इठलाती सजीसंवरी मैं. अंतिम बेटी की शादी थी घर की, फिर विनयजी तो मेरी सुंदरता पर रीझ, अपने भैयाभाभी के विरुद्ध जा कर, बिना दानदहेज के यह शादी कर रहे थे. इसी कारण बाबूजी लेनदेन में, स्वागतसत्कार में कोई कोरकसर नहीं छोड़ना चाहते थे.

शादी के बाद 2-4 दिन ससुराल में रह कर मैं विनयजी के साथ ही जबलपुर आ गई. शीघ्र ही घर में नए मेहमान के आने की खबर मायके पहुंच गई. भाभी छेड़तीं भी, ‘बबुनी, कुछ दिन तो मौजमस्ती करती, कितनी हड़बड़ी है मेहमानजी को.’ सचमुच विनयजी को हड़बड़ी ही थी. हमेशा की तरह उस दिन भी सुबह सैर करने निकले, बारिश का मौसम था. बिजली का एक तार खुला गिरा था सड़क पर, पैर पड़ा और क्षणभर में सबकुछ खत्म. मातापिता जिस बेटी को विदा कर के उऋण ही हुए थे उसी बेटी का भार एक अजन्मे शिशु के साथ फिर उन्हीं के सिर पर आ पड़ा. ससुराल में सासससुर थे नहीं. जेठजेठानी वैसे भी इस शादी के खिलाफ थे. क्रियाकर्म के बाद एक तरह से जबरन ही मैं वहां जाने को मजबूर थी. ‘सुंदरता नहीं काल है. यह एक को ग्रस गई, पता नहीं अब किस पर कहर बरसाएगी,’ हर रोज उन की बातों के तीक्ष्ण बाण मेरे क्षतविक्षत हृदय को और विदीर्ण करते. मन तो टूट ही चुका था, शरीर भी एक जीव का भार वहन करने से चुक गया.

7वें महीने ही सवा किलो के अजय का जन्म हुआ. जेठ साफ मुकर गए. 7वें महीने ही बेटा जना है. पता नहीं विनय का है भी या नहीं. एक भाई था वह गया, अब और किसी से मेरा कोई संबंध नहीं. सब यह समझ रहे थे कि हिस्सा न देने का यह एक बहाना है. कोर्टकचहरी करने का न तो किसी को साहस था न ही कोई मुझे अपने कुम्हलाए से सतमासे बच्चे के साथ वहां घृणा के माहौल में भेजना चाहता था. 1 साल तो अजय को स्वस्थ करने में लग गया. फिर मैं ने अपनी पढ़ाई की डिगरियों को खोजखाज कर निकाला. पहले प्राइमरी, बाद में मिडल स्कूल में पढ़ाने लगी. मायका आर्थिक रूप से इतना सुदृढ़ नहीं था कि हम 2 जान बेहिचक आश्रय पा सकें. महीने की पूरी कमाई पिताजी को सौंप देती. वे भी जानबूझ कर पैसा भाइयों के सामने लेते ताकि बेटे यह न समझें कि बेटी भार बन गई है. अपने जेबखर्च के लिए घर पर ही ट्यूशन पढ़ाती. मां की सेवा का असर था कि अजय अब डोलडोल कर चलने लगा था. इसी बीच, मेरे स्कूल के प्राध्यापक थे जिन के बड़े भाई प्यार में धोखा खा कर आजीवन कुंवारे रहने का निश्चय कर जीवन व्यतीत कर रहे थे. छत्तीसगढ़ में एक अच्छे पद पर कार्यरत थे. उन्हें सहयोगी ने मेरी कहानी सुनाई. वे इस कहानी से द्रवित हुए या मेरी सुंदरता पर मोहित हुए, पता नहीं लेकिन आजीवन कुंवारे रहने की उन की तपस्या टूट गई. वे शादी करने को तैयार थे लेकिन अजय को अपनाना नहीं चाहते थे. मैं शादी के लिए ही तैयार नहीं थी, अजय को छोड़ना तो बहुत बड़ी बात थी. मांबाबूजी थक रहे थे. वे असमंजस में थे. वे लोग मेरा भविष्य सुनिश्चित करना चाहते थे.

भाइयों के भरोसे बेटी को नहीं रखना चाहते थे. बहुत सोचसमझ कर उन्होंने मेरी शादी का निर्णय लिया. अजय को उन्होंने कानूनन अपना तीसरा बेटा बनाने का आश्वासन दिया. रंजनजी ने भी मिलनेमिलाने पर कोई पाबंदी नहीं लगाई. इस प्रकार मेरे काफी प्रतिरोध, रोनेचिल्लाने के बावजूद मेरा विवाह रंजनजी के साथ हो गया. मैं ने अपने सारे गहने, विनयजी की मृत्यु के बाद मिले रुपए अजय के नाम कर अपनी ममता का मोल लगाना चाहा. एक आशा थी कि बेटा मांपिताजी के पास है जब चाहूंगी मिलती रहूंगी लेकिन जो चाहो, वह होता कहां है. शुरूशुरू में तो आतीजाती रही 8-10 दिन में ही. चाहती अजय को 8 जन्मों का प्यार दे डालूं. उसे गोद में ले कर दुलारती, रोतीबिलखती, खिलौनों से, उपहारों से उस को लाद देती. वह मासूम भी इस प्यारदुलार से अभिभूत, संबंधों के दांवपेंच से अनजान खुश होता.

रोडरेज की समस्या

बढ़ते सड़क हादसों के साथ रोडरेज यानी रास्ते चलते झगड़ा, गालीगलौज और मारपीट करने की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं. रोड पर लोग छोटीछोटी बातों पर भी हिंसक होने लगे हैं. आखिर ऐसा क्यों? दि?ल्ली के मानसरोवर पार्क इलाके के रहने वाले एक युवक की प्रीत विहार इलाके में रोडरेज के चलते गोली मार कर हत्या कर दी गई.

सोमेश छाबड़ा नाम का शख्स अपने दोस्तों के साथ कार से कनाट प्लेस घूमने आया था. वहां से वह प्रीत विहार की ओर जा रहा था कि तभी एक बाइक पर सवार 2 लड़के उस की कार के पीछे हौर्न बजाने लगे. इन के साइड न देने पर कुछ आगे जा कर उन बाइक सवार लड़कों ने फायरिंग की, जिस से ड्राइव कर रहे सोमेश के सीने पर गोली लग गई और उस की मौत हो गई. आसपास लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज देख कर फायरिंग करने वालों की तलाश की गई. दिल्ली के ही वसंत कुंज इलाके में देररात रोडरेज की घटना में एक महिला की कुछ लड़कों ने सरेआम पिटाई कर दी.

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उस महिला ने बताया कि वह अपनी किसी जानकार के साथ किशनगंज से वसंत कुंज के लिए निकली थी. इसी दौरान चर्च रोड पर महिला की गाड़ी में उन लड़कों की गाड़ी ने मामूली टक्कर मार दी. टक्कर के बाद महिला को गुस्सा आ गया तो उस ने उस गाड़ी पर पत्थर फेंक दिया, जिस से कार का शीशा टूट गया. इस के बाद महिला और लड़कों के बीच गालीगलौज शुरू हो गई. फिर लड़कों ने उसे पीटा और फरार हो गए. एक और मामला दिल्ली का ही, कार चलाते समय धूम्रपान करने वाले एक व्यक्ति पर 2 लोगों ने आपत्ति जताई. उन्होंने उन से सिगरेट छोड़ने का अनुरोध किया तो वह इंसान इतना भड़क गया और उस ने अपनी कार उन की बाइक में घुसा दी, जिस से उन में से एक की मौत हो गई. दिल्ली की सड़कों पर भागमभाग के बीच मामूली बात पर वाहन चालकों से मारपीट की घटनाएं पिछले कुछ सालों से सुर्खियां बन रही हैं. ऐसे हादसों से यातायात नियमों का पालन करने वाले अनुशासनप्रिय चालकों में खौफ तो है ही, मनोरोग विशेषज्ञ भी इसे गंभीरता से ले रहे हैं.

किसी को ठीक से गाड़ी चलाने की नसीहत देना मुसीबत को न्योता देना है. राजधानी में जब एक महिला ने एक मिनी बस वाले को ध्यान से गाड़ी चलाने को कहा तो उस ड्राइवर ने डंडे से न केवल उस की पिटाई की, बल्कि उसे बचाने आए उस के पति को भी जख्मी कर दिया. ये कुछ उदाहरण हैं. इस तरह के कई अन्य रोडरेज मामले हर दिन शहर में होते रहते हैं. बीच चौराहे पर होने वाली रोडरेज की घटनाएं, दरअसल, लोगों की मानसिकता और उन की असंवेदनशीलता को दर्शाती हैं. सड़क पर गाड़ी को ओवरटेक करने के लिए जगह न देने पर 2 गाडि़यों का हलके से छू जाने पर गालीगलौज और फिर एकदूसरे पर हथियारों से हमला करना जैसी घटनाएं आजकल आम होती जा रही हैं. राजधानी की सड़कों पर गाडि़यों की रफ्तार जिस तरह से बढ़ती जा रही है उसी हिसाब से उन्हें चलाने वालों का गुस्सा भी बढ़ रहा है.

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आज सभी को समय से अपनी जगह पहुंचना होता है जिस के कारण सड़कों पर भागमभाग मची होती है कि हम पहले तो हम पहले. वाहन चलाने वाला सोचता है कि सामने वाले भी उसी अनुसार गाड़ी चलाएं या उसे आगे जाने का रास्ता दें. जब ऐसा नहीं हो पाता तो लड़ाईझगड़ा और यहां तक कि हाथापाई शुरू हो जाती है. केवल दिल्ली में ही नहीं, बल्कि इस तरह की रोडरेज घटनाएं देश के किसी भी कोने में आम बात होती जा रही हैं. देश में जिस तरह से महंगाई की दर बढ़ रही है, लगभग उसी तरह से रोडरेज की घटनाएं भी लगातार बढ़ती जा रही हैं. इलाहाबाद में ऐसी ही एक रोडरेज की घटना वायरल हुई. उस में दिखाया गया कि एक कार में धक्का लग जाने की वजह से बाइकसवार युवकों की जम कर धुनाई कर दी गई. बाद में आक्रोशित भीड़ ने कारसवार युवक की भी जम कर पिटाई कर दी.

वहीं, बिहार में रोडरेज के विवाद में कुछ नशेडि़यों ने कारसवार एक थानेदार राजीव कुमार की जम कर पिटाई कर दी, जिस से वह जख्मी हो गए. कारण, उन की कार से ईरिक्शा को हलकी ठोकर लग गई जिस से बौखलाए उस में बैठे लोग निकल कर उसे पीटने लगे. आज से 20-25 साल पहले सड़क पर गाड़ी चलाते समय व्यक्तियों में सहनशीलता और सौहार्द का भाव व यातायात नियमों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति होती थी और वे रोडरेज जैसे शब्दों से अनजान थे. लेकिन आज छोटीछोटी बातों पर लोग बीच चौराहे पर लड़ने व गालीगलौज पर उतर आते हैं. गाड़ी को साइड न देने पर, मामूली सी टक्कर लगने पर, सड़क पर जाम लगे होने के कारण आगे वाले द्वारा गाड़ी को जल्दी नहीं निकालने, गाड़ी कैसे चल रही है, हौर्न कैसे बजा दिया, औफिस या घर जल्दी पहुंचने का तनाव और ऐसे छोटेछोटे कारणों के चलते आज लोगों, खासकर युवाओं, पर गुस्सा इस कदर हावी हो जाता है कि छोटीछोटी बात पर गालीगलौज, मारपीट, लड़ाईझगड़ा तक सीमित नहीं रहता, बल्कि गुस्से में आ कर हाथापाई करने और जानलेवा हमला करने तक बढ़ने लगा है. कौन होते हैं ये लोग कम पढ़ेलिखों से ले कर शिक्षित लोग भी हो सकते हैं.

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कई बार बडे़ घरों की बिगड़ी औलादें भी ऐसी हरकतें करते पाए जाते हैं. ऐसा ही एक मामला बिहार में हुआ था जब ओवरटेक करने पर एक जेडीयू नेता के बेटे ने 12वीं के एक छात्र पर गोली चला दी थी. उस की मौत हो गई थी. रोडरेज की अधिकतर घटनाओं में युवा शामिल होते हैं. आज के युवा छोटीछोटी बातों पर भड़क जाते हैं और लड़ाईझगड़े पर उतर आते हैं. लड़तेझगड़ते वाहन चालकों का अपनाअपना गुस्सा निकालने के बाद भले ही वहां खड़े लोग उन्हें समझाबुझा कर रवाना कर देते हैं पर जातेजाते वे एकदूसरे को ‘देख लेंगे’ की धमकी देना नहीं भूलते. ड्राइविंग करते वक्त युवाओं को तीनगुना ज्यादा गुस्सा आता है. इस का पता 2014 में दिल्ली के लेडी हार्डिंग अस्पताल और एम्स के संयुक्त शोध से चला है.

देश में होने वाले कुल सड़क हादसों में 60 फीसदी मौतें रोडरेज के कारण होती हैं. द्य 42 फीसदी मामलों में 2 वाहनों के चालक छोटी सी बात पर आपस में भिड़ जाते हैं. द्य 33 फीसदी मामलों में कारचालक दुपहियाचालक से लड़ने पर आमादा हो जाते हैं. द्य 70 फीसदी रोडरेज के मामले दर्ज ही नहीं हो पाते हैं. द्य 38 फीसदी रोडरेज के मामले तेज गति से गाड़ी चलाने या ओवरटेक के कारण होते हैं. द्य 13 प्रतिशत झगड़े लाइट जंप के कारण होते हैं. द्य 4 प्रतिशत मामले पीछे से बेवजह हौर्न बजाने के कारण होते हैं. झुंझलाहट के कारण ये भी : द्य सड़कों पर भारी जाम और गाडि़यों का शोर. द्य दूसरों द्वारा नियमों का पालन न करने पर. द्य बिना ट्रैफिक के लालबत्ती पर रुकना. द्य बिना सूचना सड़कों को बंद करने पर. द्य सड़क के बीच गलत तरीके से गाड़ी खड़ी होने पर.

सिर्फ भारत देश में ही नहीं, बल्कि देशविदेश के हर कोने में रोडरेज की घटनाएं हो रही हैं. 1980 के दशक में यूएसए से लास एंजिल्स व कैलिफोर्निया के टीवी समाचार वाचकों ने सब से पहले इस शब्द का प्रयोग शुरू किया था. रोडरेज का सीधा अर्थ है, गाड़ी को असामान्य तरीके से चलाना, एकाएक ब्रेक लगाना, दूसरी गाड़ी के पीछे झटके से गाड़ी को रोकना, असामान्य तरीके से हौर्न बजाना, अनावश्यक रूप से आगे जाने की होड़, दूसरे की गाड़ी को टच करना, तेज रोशनी कर गाड़ी चलाना, सड़क पर स्टंट करना या इसी तरह की गतिविधियां करते हुए सामने वाले से लड़ने को तत्पर रहना रोडरेज की श्रेणी में आता है. 2014 में दिल्ली के एम्स व लेडी हार्डिंग अस्पताल द्वारा कराए गए एक सर्वे में यह बात सामने आई कि वाहन चलाते समय युवाओं में गुस्से की मात्रा अधिक हो जाती है.

यही नहीं, सड़क पर यातायात जाम होने, बेतरतीब यातायात, गाड़ी चलाते समय मोबाइल पर बातें करना, खराब सड़कें, तेज हौर्न, गलत तरीके से पार्किंग, काम का दबाव, समय पर पहुंचने का दबाव आदि रोडरेज का कारण बन जाते हैं. वहीं, पैसा और सत्ता का मद भी ऐसा है जो युवाओं को रोडरेज के लिए उकसाता है. रोडरेज को ले कर कानून तो बने हैं पर लोगों में कानून का डर नहीं है. लोग अपनी सत्ता के दम पर पैसे लेदे कर मामले को रफादफा करा लेते हैं. और नहीं तो यातायात उल्लंघन पर जुर्माना दे कर मामले को वहीं खत्म कर देते हैं. देश में बढ़ते सड़क हादसों के साथ रोडरेज यानी रास्ता चलते संघर्ष व मारपीट की घटनाएं भी तेजी से बढ़ रही हैं. भारत में ऐसी घटनाओं में रोजाना औसतन 3 लोगों की मौत हो रही है. समस्या की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए अब इस से निबटने के लिए ठोस कानून की मांग उठ रही है. सरकारी आंकड़े केंद्रीय गृहमंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2015 के दौरान देश में रोडरेज के 3,782 मामले दर्ज किए गए. इन में से 4,702 लोग घायल हुए थे और 1,388 लोग मारे गए थे. बीते साल रोडरेज के सब से ज्यादा मामले ओडिशा में दर्ज किए गए थे.

इस के अलावा केरल के 4 शहरों और दिल्ली में ऐसे सब से ज्यादा मामले सामने आए थे. और भी कई राज्य हैं जहां रोडरेज के मामले आए थे. तथ्यों के अनुसार, सड़कों पर सहयात्रियों के साथ मारपीट के मामले महज वयस्कों तक ही सीमित नहीं हैं. नैशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में रोडरेज के सिलसिले में 1,538 किशोरों के खिलाफ भी मामले दर्ज हुए थे. इन में से लगभग 250 किशोरों की उम्र तो 12 से 16 वर्ष के बीच थी. केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय की ओर से जारी आकड़ों के मुताबिक, रोडरेज की घटनाओं की तादाद के मामले में तमिलनाडु, महाराष्ट्र मध्य प्रदेश, केरल और उत्तर प्रदेश शीर्ष 5 राज्यों में शुमार हैं. राजधानी दिल्ली में तो ऐसे मामले तेजी से बढ़ रहे हैं.

रोडरेज की घटनाओं के कारण परिवहन विशेषज्ञों का कहना है कि तेजी से बढ़ती आबादी, गांवों से शहरों में होने वाले विस्थापन, वाहनों की तादाद में वृद्धि, सड़कों के आधारभूत ढांचे का अभाव व ड्राइवर में बढ़ती असहिष्णुता ऐसे मामले बढ़ने की प्रमुख वजहें हैं. कई सड़क हादसे ड्राइवरों की लापरवाही या ड्राइविंग के दौरान मोबाइल पर बात करने की वजह से होते हैं. असहिष्णुता तो इतनी कि गाड़ी में जरा सी टक्कर लगने में लोग मारधाड़ पर उतारू हो जाते हैं. आज लोगों में सहनशीलता खत्म होती जा रही है, जिस का नतीजा है रोडरेज. रोडरेज का कारण सड़कों पर वाहनों की बढ़ती तादाद तो है ही, ट्रैफिक उल्लंघन पर कड़ी सजा का प्रावधान नहीं होना और शराब पी कर वाहन चलाना भी इस की प्रमुख वजह है.

कोलकाता के एक निजी बैंक में काम करने वाली शालिनी सिंह रोजाना लगभग 30 किलोमीटर का सफर तय कर के अपने दफ्तर पहुंचती हैं. उन का कहना है कि यहां ड्राइवर ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन कर आसानी से बच निकलते हैं. मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाना तो आम बात है. कई बार ट्रैफिक पुलिस वाले भी नियमों का उल्लंघन करते देख कर अनदेखी कर देते हैं. उन्हें लगता है कि दोषी वाहन चालक को रोकने की स्थिति में ट्रैफिक जाम हो सकता है. इस से दोषियों का कुछ नहीं बिगड़ता. वे आगे बताती हैं कि जरूरत के मुकाबले पुलिस वालों की तादाद कम होना और नियमों के उल्लंघन के लिए कड़ी सजा का प्रावधान नहीं होना ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन की सब से बड़ी वजह है. रोडरेज की ज्यादातर घटनाएं इन नियमों के उल्लंघन से जुड़ी हैं.

समस्या को कैसे रोका जाए विशेषज्ञों का कहना है कि यह समस्या बहुआयामी है. इसलिए इस पर अंकुश लगाने का एक उपाय पूरी तरह से कारगर नहीं हो सकता. लेकिन ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर सजा व जुर्माने के प्रावधानों को पहले के मुकाबले कठोर बना कर ऐसे मामलों पर कुछ हद तक काबू जरूर पाया जा सकता है. इस के साथ ही, ड्राइवरों में जागरूकता अभियान चलाना जरूरी है. देश में सड़कों की लंबाई के मुकाबले वाहनों की बढ़ती तादाद ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है. इस वजह से लोगों को सड़कों पर पहले के मुकाबले ज्यादा देर तक रहना पड़ता है.

इस से उन में नाराजगी, झुंझलाहट और हताशा बढ़ती है. ऐसे में अकसर मामूली कहासुनी भी हिंसक झगड़ों में बदल जाती है. समाजविज्ञानी मनोहर माइति कहते हैं, ‘‘लोगों के पास अब पैसा तो बहुत आ गया है, लेकिन सहिष्णुता तेजी से कम हो रही है. ऐसे में सड़क पर अपनी नई कार पर हलकी खरोंच लगते ही लोग दोषी ड्राइवर के साथ झगड़े व मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं.’’ यह सिर्फ रोडरेज ही नहीं, बल्कि असहनशीलता का भी मामला है. लोगों में ऐसी असहनशीलता क्यों बढ़ रही है और इस से कैसे निबटा जाए, यहां जानते हैं. साइकोलौजिस्ट अमित आर्या कहते हैं कि युवा किसी भी घटना पर जल्दी रिऐक्ट करते हैं या फिर वे लोग किसी तरह की पावर से जुड़े होते हैं. यह काफी हद तक उन के सर्कल, आसपास के वातावरण पर भी निर्भर करता है.

अगर इंसान के आसपास के लोग और पेरैंट्स बहुत एग्रेसिव हैं तो देखा गया है कि वह शख्स भी जल्दी रिऐक्ट करता है. और आवेश में आ कर किसी भी घटना को अंजाम दे देता है. केजीएमयू के सायकैट्री डिपार्टमैंट के हैड प्रो. पी के दलाल कहते हैं, ‘‘अकसर लोग रोड पर साइड न देने या जाम लगने, तेज हौर्न बजाने और कई बार पार्किंग के स्पेस को ले कर झगड़ बैठते हैं. इस तरह की परिस्थिति में उलझने से बेहतर है कि आप उन्हें अवौयड करें. किसी दूसरे की गलती ठहराने के बजाय मामले को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने की कोशिश करें. अगर गलती आप की है तो माफी मांग लें. जिस पर आप गुस्सा कर रहे हैं, एक बार उस इंसान की जगह पर रह कर देखेंगे तो सिचुएशन बेहतर ढंग से समझ पाएंगे. गुस्सा होने या अपनी ताकत दिखाने से चीजें सुधरने के बजाय और बिगड़ जाती हैं.

अनजान जगह पर रिऐक्ट करने से बचें. आजकल हमारी सोसायटी तेजी से बदल रही है. मोरैलिटी पीछे छूटती जा रही है. हम अंजाम की परवा किए बिना हर चीज पर रिऐक्ट करने के आदी होते जा रहे हैं. द्य ऐसे अवौयड करें द्य अगर आप को ट्रैफिक समस्या से रोज जूझना पड़ता है तो दूसरों पर गुस्सा निकालने के बजाय घर से 5-10 मिनट पहले निकलने की आदत डाल लें. द्य अगर रोड पर आप को साइड नहीं दे रहे हैं तो इंतजार करें. बारबार हौर्न बजा कर दूसरे को इरिटेट न करें. द्य किसी भी घटना पर रिऐक्ट करने से बचें. द्य खुद को दूसरे की जगह पर रख कर सोचें कि अगर आप वहां होते तो क्या करते. द्य अगर बहस बढ़ रही है तो समझदारी इसी में है कि माफी मांग कर वहां से निकल जाएं.

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