अपने एक अहम् और दिलचस्प फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बीती 6 जनबरी को गृहिणी को आर्थिक रूप से पारिभाषित करते हुए कहा है कि महिलाओं का घरेलू कार्यों में समर्पित समय और प्रयास पुरुषों की तुलना में ज्यादा होता है . गृहिणी भोजन बनाती है , किराना और जरुरी सामान खरीदती है , ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाएं खेतों में बुवाई , कटाई , फसलों की रोपाई और मवेशियों की देखभाल भी करती हैं . उनके काम को कम महत्वपूर्ण नहीं आँका जा सकता . इसलिए गृहिणी की काल्पनिक आय का निर्धारण महत्वपूर्ण मुद्दा है .
एक वाहन दुर्घटना में एक दंपत्ति की मौत पर मुआवजा राशि तय करते हुए जस्टिस एनवी रमना , एस अब्दुल नजीर और जस्टिस सूर्यकांत की बेंच गृहणियों की आमदनी को लेकर काफी दार्शनिक , तार्किक गंभीर और संवेदनशील नजर आई जो एक लिहाज से जरुरी भी था क्योंकि महिलाओं के प्रति आम नजरिया धर्म से ज्यादा प्रभावित है जो उन्हें दासी , शूद्र और पशुओं के बराबर घोषित करता है . लेकिन महसूस यह भी हुआ कि सबसे बडी अदालत के जेहन में परिवारों की संरचना और महिलाओं की स्थिति की 70 से लेकर 90 तक के दशक की तस्वीर की गहरी छाप है नहीं तो नए दौर की अधिकतर युवतियां नौकरीपेशा हैं और अपनी माओं , नानियों और दादियों के मुकाबले घर के काम जो अदालत ने शिद्दत से गिनाये न के बराबर जानती और करती हैं .
और यह बात किसी सबूत की मोहताज भी नहीं है कि जागरूकता , शिक्षा क्रांति और कई धार्मिक , पारिवारिक व सामाजिक दुश्वारियों से निजात पाने के लिए मध्यमवर्गीय युवतियों की अपने पाँव पर खड़े होने की मज़बूरी और जिद ने उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो बना दिया है , लेकिन एवज में उनसे गृहिणी होने का फख्र या पिछड़ेपन का तमगा कुछ भी कह लें छीन लिया है . लेकिन इसकी एक और वजह है , भोपाल की एक गृहिणी वीणा सक्सेना का कहना है , अब परिवार छोटे होने लगे हैं और अधिकतर दंपत्ति 2 से ज्यादा बच्चों की परवरिश अफोर्ड नहीं कर पाते . बकौल वीणा वह जमाना गया जब लोग एक लड़के की चाहत में 5-6 बेटियां पैदा करने में हिचकते नहीं थे और उन्हें नाम मात्र को पढ़ाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मानकर किसी भी ऐरे गैरे कामचलाऊ लड़के से उनकी शादी कर देते थे . लड़कियों की बदहाली और दुर्दशा की एक बडी वजह भी यह थी कि लड़के की चाहत की शर्त पर पैदा की जातीं थीं .
यों बढ़ रहा आर्थिक मूल्य –
खुद वीणा जब ससुराल आईं थीं तो उन्हें अल सुबह से उठकर कोल्हू के बैल की तरह देर रात तक काम करना पड़ता था और उसका कोई मूल्याकंन नहीं करता था और यदा कदा करता भी था तो बस इतना कि बहू बहुत संस्कारी है और एमए बीएड पास होने के बाद भी सारे कामकाज कर लेती है .तब वे खुश कम होतीं थीं खीझती ज्यादा थीं कि जब रोटियां ही थोपना थीं तो बीएड क्यों किया यह काम तो अनपढ़ महिलाएं भी कर लेती हैं .
ये भी पढें-म्यूचुअल फंड: निवेश का अच्छा विकल्प
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खुशी जाहिर करने बाली वीणा की दोनों लड़कियां बीटेक करने के बाद जॉब कर रही हैं . बडी 27 वर्षीय अनन्या अहमदाबाद में एक साफ्टवेयर कम्पनी में 6 लाख रु के सालाना पैकेज पर कार्यरत है और उससे 2 साल छोटी सौम्या एक नेशनल बेंक में क्लर्क है उसे भी लगभग 6 लाख रु मिलते हैं .` दोनों अपनी मस्त और आजाद जिन्दगी जी रहीं हैं वीणा कहती हैं, लेकिन उन्हें घर के सारे कामकाज नहीं आते क्योंकि पढ़ाई के चलते न तो मैं उन्हें सिखा पाई और न ही उन्होंने कभी सीखने में दिलचस्पी दिखाई . उन्हें एहसास था कि वे इन कामों के लिए नहीं बनीं हैं` .
कोई 70 फ़ीसदी मध्यमवर्गीय परिवारों के पेरेंट्स को वीणा की तरह इस बात पर गर्व है कि उनकी बेटियां आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं और इसके लिए उन्होंने उन्हें पढ़ने की सहूलियत बेटों के बराबर से दी है , परवरिश पर भी बेटों के बराबर खर्च किया है और मुकम्मल यानी आजकल के जमाने के मिजाज के हिसाब से आजादी भी दी है . इससे बेटियों का आत्मविश्वास बढ़ा है और पति और ससुराल बालों पर उनकी कोई खास मोहताजी नहीं रही है उलटे वे बहू की कमाई के मोहताज रहते हैं .
ये भी पढें-लव जिहाद: पौराणिकवाद थोपने की साजिश
इसमें कोई शक नहीं कि इन नौकरीपेशा युवतियों की रिस्क कम हुई है लेकिन नौकरी चाहे वह सरकारी हो या प्राइवेट में उन्हें हाड़तोड़ मेहनत करना पड़ती है . इसका एक बड़ा फायदा उन्हें यह हुआ है कि घर के कामकाज यथा झाड़ू पोंछा बर्तन कपडे धोना और खाना नहीं बनाना पड़ता . ये काम अब मशीनों और नौकरों के भरोसे होते हैं . आधी से ज्यादा युवतियां तो ये काम जानती भी नहीं क्योंकि मायके में उन्हें इनके लिए बाध्य करना तो दूर की बात है ट्रेनिंग भी नहीं दी गई इसीलए वे पढ़ पाई . यानी हुआ सिर्फ इतना है कि काम और मेहनत तो उन्हें करना पड़ रहे हैं लेकिन उसकी दिशा बदल गई है और पैसा सीधा उनके हाथ में आता है जिसके खर्च और इस्तेमाल का हक घर की व्यवस्था के हिसाब से उन्हें है .
कोई शक नहीं कि युवतियों का आर्थिक महत्त्व और मूल्याकन दोनों बढ़े हैं मुमकिन है आने बाले वक्त में कोई अदालत इनका भी आर्थिक विश्लेषण किसी मामले में करे लेकिन यह देखा जाना बेहद दिलचस्प बात है कि कमाऊ युवतियां शादी से पहले और बाद भी अभिभावकों की आर्थिक मदद करती हैं या नहीं और इस बारे में क्या सोचती हैं .
लेकिन पहले बात पेरेंट्स की –
जब कई नौकरीपेशा युवतियों से इस मुद्दे पर बात की गई तो लगभग सभी ने पेरेंट्स की आर्थिक मदद की इच्छा जताई लेकिन आधे से ज्यादा ने यह भी कहा कि माता पिता ने उन्हें काबिल तो बना दिया लेकिन वे उनसे पैसे नहीं लेते . वे इसे पाप तो नहीं पर गलत समझते हैं कि लड़की की कमाई से पैसा लिया जाए हालाँकि इस स्थिति को जनरेशन वार नहीं कहा जा सकता लेकिन इसे बेटियों के साथ नए तरीके का भेदभाव कहने से किसी तरह का गुरेज नहीं किया जा सकता . पहले जिस तरह लड़की के घर यानी ससुराल का पानी पीना भी अभिभावक पाप समझते थे अब यह बात पैसे लेने पर लागू होने लगी है .
ये भी पढें-कोढ़ में कहीं खाज न बन जाए ‘बर्ड फ्लू’
यह दलील सटीक भी है और जटिल भी कि जो पेरेंट्स लड़कियों की परवरिश और शिक्षा पर बराबरी से पैसा खर्च करते हैं, लाड़ दुलार में भी भेदभाव नहीं करते , आजादी भी देते हैं , उनकी शादी में तो ज्यादा ही खर्च करते हैं और अब तो जायदाद में भी बेटियों का हक बेटों के बराबर हो गया है तो फिर उनसे बेटों की तरह आर्थिक मदद लेने में हिचकते क्यों हैं . क्या वे बराबरी की बात महज दिखावे के लिए करते हैं और उनके मन में वे धार्मिक पूर्वाग्रह हैं जिनके तहत यह कहा जाता है कि तारेगा तो बेटा ही .
ये डायलोग हर घर में हर कभी सुनने मिल जाते हैं कि हमने तो कभी बेटे बेटी में भेदभाव किया ही नहीं , आजकल बेटियां बेटों से कम नहीं होतीं और दोनों में फर्क क्या है . अगर वाकई ऐसा है और इसे बेटियों पर एहसान वे नहीं समझते हैं तो फिर पैसे लेने पर भेदभाव क्यों बेटों से तो अधिकार पूर्वक पैसे ले लिए जाते हैं पर बेटी से नहीं .
भोपाल के शाहपुरा इलाके में रहने बाले एक सरकारी कर्मचारी नरेन्द्र शर्मा इस सवाल के जबाब में कहते हैं , बात सच है , न जाने क्यों जरूरत पड़ने पर बेटी से पैसे मांगने में हिचक होती है लेकिन बेटे से नहीं . खुद बेटी नेहा ने कई बार पैसे देने की पेशकश की लेकिन मैंने यह कहते मना कर दिया कि रखो अपने पास या फिर अपने लिए ज्वेलरी बगैरह ले लो . फिर कुछ सोचते वे कहते हैं इससे मुझे उसकी शादी के लिए गहने और कपडे लत्ते नहीं खरीदना पड़ेंगे यह खर्च 8 – 10 लाख रु से कम तो किसी भी सूरत में होता नहीं . एक तरह से मेरा ही एक बड़ा खर्च कम हो रहा है .
निश्चित रूप से यह एक टरकाऊ और मन बहलाऊ जबाब है क्योकि कोई माँ बाप अपने बेटे से यह नहीं कहते कि अपनी पत्नी के लिए गहने बगैरह खरीद लो उलटे इस और ऐसे कई कामों के लिए उनसे पैसे ले लेते हैं . इसे बेटों और बेटियों दोनों के साथ भेदभाव नहीं तो क्या समझा जाए . यह दौहरा मापदंड लड़कियों को फिजूलखर्च भी बना सकता है और जमा या निवेश किया गया उनका पैसा दहेज़ की शक्ल में ससुराल चला जाता है जो कि सरासर गैर जरुरी है .
मुंबई के एक इंटरनेश्नल बेंक में नौकरी कर रही तृप्ति यादव का कहना है कि उसके पापा पेंशनर हैं . मम्मी पापा दोनों अकेले रहते हैं लिहाजा पैसों की जरुरत आमतौर पर उन्हें नहीं पड़ती मुझसे तो वे कुछ लेते ही नहीं लेकिन यूएस में रहकर जॉब कर रहे भाई से कभी कभार ले लेते हैं . शिवानी चाहती है कि मम्मी पापा भोपाल छोडकर उसके पास रहें जिससे उसे उनकी चिंता न हो इस पर न तो उसके पति को एतराज है और न ही विधवा सास को उलटे वे तो यह कहती हैं कि समधी समधन भी आ जाएँ तो उन्हें सहूलियत रहेगी वक्त अच्छे से कटेगा नहीं तो हम दोनों के आफिस चले जाने के बाद वे मुश्किल से दिन काटती हैं . लेकिन शिवानी के रूढ़िवादी माँ बाप की जिद यह है कि न तो बेटी से पैसा लेंगे और न ही उसके घर जाकर रहेंगे .
अब बात युवतियों की –
मानसी , सोनिया और साक्षी जैसी नव युवतियों सहित विनीता कुमार और इंदिरा जैसी महिलाएं जिनकी गिनती दोनों पीढ़ियों में की जा सकती है इस बात की पुरजोर वकालत करती हैं कि बेटियों को भी घर की जिम्मेदारियों में हाथ बटाना चाहिए और पेरेंट्स की आर्थिक मदद भी करना चाहिए . इस बात के पीछे सभी के अपने भावुक तर्क हैं जो फेमिनिज्म की नई परिभाषा गढ़ते नजर आते हैं . यानी बात जमीनी स्तर की है काल्पनिक साहित्य और तथाकथित स्त्री विमर्श से इसका कोई सम्बन्ध नहीं .
मध्यप्रदेश मध्यक्षेत्र विद्धुत वितरण कम्पनी की एक अधिकारी अर्चना श्रीवास्तव की मानें तो भोपाल के एक हजार से भी ज्यादा घरों बाले मीनाल रेसीडेंसी के जिस इलाके में वे रहती हैं वहां लगभग सभी घरों की बेटियां दूसरे शहरों में रहते नौकरी कर रही हैं जिससे पेरेंट्स उनके भविष्य को लेकर निश्चिन्त हैं . ये पेरेंट्स सीधे बेटियों से आर्थिक मदद नहीं लेते लेकिन इनके लिए कुछ करने का जज्बा लिए बेटियां अपने तरीके से इनकी मदद करती रहती हैं . मम्मी पापा के जन्मदिन और शादी की वर्षगांठ सहित ये महंगे उपहार वे तीज त्योहारों के अलावा बेमौके भी ऑन लाइन शापिंग के जरिये भेजती रहती हैं .
`जब मम्मी सीधे पैसे न लें तो यह एक बेहतर रास्ता है , 26 वर्षीय अदिति जैन बताती है , इससे उनकी वे जरूरतें पूरी हो जाती हैं जिन पर वे खर्च करने में कंजूसी बरतते हैं . गुरुग्राम की एक कम्पनी में नौकरी के रही अदिति जब भी घर भोपाल आती है तो मम्मी पापा को 40 – 50 हजार की खरीददारी जरुर कराती है महंगे स्मार्ट फोन के अलावा कई लक्झरी आइटम वह उन्हें दिला चुकी है .
अदिति की तरह ही कोंपल राय को भी नौकरी करते 7 साल हो चुके हैं . जब उसने पहली सेलरी पापा को दी तो उनकी आखों में आंसू आ गए थे लेकिन उन्होंने सिर्फ एक रुपया लिया . कोंपल घर की माली हालत से वाकिफ थी और पापा के इस सनातनी स्वभाव से भी कि वे उससे पैसे नहीं लेंगे तो उसने समझदारी दिखाते पापा से यह वादा ले लिया कि छोटे भाई की पढ़ाई का खर्च वह उठाएगी . अब एमसीए की डिग्री लेने के बाद भाई का जॉब भी लग गया है और वह अक्सर कहता है दीदी तुम्हारा सारा कर्ज जल्द उतार दूंगा तुम्हारी जगह अगर बड़ा भाई होता तो शायद इतना कुछ नहीं करता .
उलट इसके कोंपल यह मानती है कि वह पापा के कर्ज से मुक्त हो गई जिन्होंने अपनी जरूरतों में कटोती कर उसकी पढ़ाई पर पैसा खर्चने में कोई हिचक कभी नहीं दिखाई अगर यह उनकी जिम्मेदारी थी तो एवज में उसका भी कोई फर्ज बनता था जो उसने पूरा किया और अगर यह निवेश था तो बहुत स्मार्ट था .
हैरत और दिलचस्पी की बात यह भी है कि मध्यमवर्ग से नीचे निम्न आय वर्ग में स्थिति उलट है . बदलाब उसमें भी आये हैं लेकिन लड़कियों से आर्थिक मदद लेने में माँ बाप कतई नहीं हिचकते तय है प्रचिलित परम्पराओं और रिवाजों पर उनकी जरूरतें भारी पड़ती हैं . भोपाल के कारोबारी इलाके एमपी नगर में स्थित डीबी माल के एक शो रूम में कार्यरत मालती की मानें तो उसकी पूरी तनख्वाह घर खर्च में चली जाती है क्योंकि पापा की कमाई पूरी नहीं पड़ती . हाई स्कूल तक पढ़ी लिखी मालती शायद ज्यादा पढ़ी लिखी मध्यमवर्गीय युवतियों से ज्यादा मदद माँ बाप की कर रही है फर्क सिर्फ आमदनी , स्टेटस और शिक्षा का है . इस माल में काम कर रही कोई 40 महिलाओं और युवतियां नौकरी इसीलिए कर रहीं हैं कि घर चलाने में आर्थिक योगदान दे सकें .
यानी युवतियों का आर्थिक महत्व और उपयोगिता दोनों बढ़ रहे हैं लेकिन बकौल सुप्रीम कोर्ट उनका आर्थिक विश्लेषण किया जाना अहम है तो साफ़ दिख रहा है कि गृहणियों के मुकाबले युवतियां आगे हैं और पेरेंट्स को एक बडी चिंता से भी दूर रखे हुए हैं .
मदद करने से पहले –
बेटियां घर की जिम्मेदारी में माँ बाप का हाथ बंटाए यह स्वागत योग्य बात है लेकिन इसमें उन्हें कुछ सावधानियां भी रखनी चाहिए मसलन –
– जिस तरह पेरेंट्स बच्चों को पैसा देने से पहले यह सुनिश्चित करते हैं कि संतान पैसे का बेजा इस्तेमाल तो नहीं कर रही उसी तरह बेटियों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कहीं माँ बाप उनके पैसे को फिजूलखर्ची में तो नहीं उड़ा रहे .
– अगर पिता जुआरी या शराबी हो तो मदद सोच समझ कर करें और उसका तरीका बदलें नगद पैसे देने के बजाय जरूरत का सामान दिलाएं .
– माँ बाप अगर धार्मिक कार्यों में पैसा खर्च करते हों तो उनकी मदद का मतलब अपने पैसे को बर्बाद करना है .
– समाज और रिश्तेदारी में झूठी शान और दिखावे पर खर्च करने बाले पेरेंट्स को भी सोच समझकर पैसा देना चाहिए .
– शादी के बाद पति की सहमति और जानकारी में माँ बाप की आर्थिक सहायता करनी चाहिए .
– अगर ज्यादा बचत हो जाए तो उसे कहीं न कहीं इन्वेस्ट कर देना चाहिए .
– शादी के पहले नौकरी के दौरान अगर पेरेंट्स ने पैसा न लिया हो तो उन्हें कोई महंगी लेकिन जरुरत का आइटम गिफ्ट कर देना चाहिए . वर्तिका ने बेंक की 6 साल की नौकरी के दौरान कोई 10 लाख रु बचाए थे जैसे ही शादी तय हुई तो उसने पापा को 5 लाख की कार तोहफे में दी . यह पापा का सपना था , वह बताती है कि अपने घर भी कार हो लेकिन उनकी पूरी सेलरी हम तीनों भाई बहिनों की परवरिश और पढ़ाई पर खर्च हो जाती थी इसलिए मैंने यह ठीक समझा कि इतना नगदी बजाय ससुराल ले जाने के उन माँ बाप पर खर्च किया जाए जिन्होंने बडी उम्मीदों से हमें काबिल बनाया .
बिलाशक बेटियां आगे बढ़ रहीं हैं पेरेंट्स की आर्थिक सहायता भी कर रहीं हैं और परिवार व समाज की दीगर जिम्मेदारियों में भी हाथ बटा रहीं हैं लेकिन यह न कहने की कोई वजह नहीं कि बेटे और बेटी में भेदभाव अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है जिसकी वजह धर्मिक मान्यताएं , सामाजिक रूढ़ियाँ और सड़ी गली परम्पराएँ हैं जिन्हें जड़ से उखाड़ा जाना जरुरी है . इस बाबत नए दौर की युवतियों को खासतौर से सजग रहना होगा और जिम्मेदारियां निभाने के एवज में उन्हें अपने हक मांगना नहीं बल्कि छीनना होंगे .
इनका कहना है
पेरेंट्स हिचकिचाएं नहीं – मानसी केशरी – मध्यप्रदेश के खरगोन जिले की बडवाह तहसील की मानसी केशरी ने बीकाम ओनर्स करने के बाद एकच्युरियल साइंस से पोस्ट ग्रेज्युएट डिप्लोमा कोर्स किया है .मानसी के पिता एलआईसी में अधिकारी हैं और माँ शिक्षिका हैं . मानसी कहती हैं अभी तक मैंने कभी इस बारे में सोचा ही नहीं था कि मुझे भी पेरेंट्स की आर्थिक जिम्मेदारियों में हाथ बंटाना चाहिए मैं जो कुछ भी हूँ उन्हीं की बदौलत हूँ हालाँकि मुझे लगता नहीं कि कभी पेरेंट्स को मेरी आर्थिक सहायता की जरुरत पड़ेगी लेकिन बात सिर्फ मेरे अकेले की नहीं बल्कि तमाम बेटियों की है तो इस नाते मैं कहूँगी कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बेटियों को पेरेंट्स की मदद करना चाहिए .
पेरेंट्स को भी चाहिए कि वे बेटियों से उनकी कमाई के पैसे लेने में हिचकिचाएं नहीं और उनकी भावनाओं का सम्मान करें तभी बेटों से बराबरी का एहसास उन्हें होगा .और अकेले आर्थिक ही नहीं बल्कि दूसरी जिम्मेदारियों पर भी यह बात लागू होती है जिनसे बेटियों को अभी भी दूर रखा गया है .
अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं लड़कियां – वैदेही व्यास – कम्पनी सेकेट्री का कोर्स कर रही भोपाल की वैदेही व्यास के पिता राज्य चुनाव आयोग में अधिकारी हैं जिनसे उसके सम्बन्ध दोस्ताना भी हैं . वैदेही इकलौती संतान है इसलिए खुद को बेटा ही मानती है . वह घर के अलावा बाहर के काम भी शिद्दत और पूरी जिम्मेदारी से करती है . वह भी सिर्फ आर्थिक ही नहीं बल्कि दूसरी सभी जिम्मेदारियों में हाथ बटाने की बात कहती है . बकौल वैदेही जब मम्मी पापा ने मुझे कभी लड़की होने का एहसास नहीं होने दिया तो मैं क्यों लड़की होने के पचड़े में पडू . मेरी कमाई उन्हीं की होगी और मेरी इच्छा है कि मम्मी पापा उसे उतने ही अधिकारपूर्वक लें जितना अधिकार से मैं उनसे लेती रही हूँ .
हालात तेजी से बदल रहे हैं , वह कहती है अब परिवार और समाज सिर्फ लड़कों के भरोसे नहीं हैं नए जमाने की लड़कियां देश की अर्थव्यवस्था की भी रीढ़ हैं इसका भी मूल्यांकन होना चाहिए . प्राइवेट कम्पनियों के साथ साथ युवतियां सरकारी नौकरियों में भी बराबरी से हैं और ज्यादा लगन और मेहनत से काम करती हैं इसके बाद भी उन्हें अपेक्षाकृत कम वेतन मिलता है इस विसंगति को दूर किया जाना चाहिए .
धर्म जिम्मेदार है – साक्षी सिंह – अजमेर एक कालेज से बीटेक कर चुकी साक्षी सिंह के पिता रेलबे में अशोकनगर में कार्यरत हैं . बकौल साक्षी वे घोर नास्तिक हैं और महिलाओं के साथ होने बाले भेदभावों का जिम्मेदार धर्म को ही ठहराते हैं जो गलत भी नहीं है . जल्द ही एक नामी साफ्टवेयर कम्पनी में नौकरी ज्वाइन करने जा रही साक्षी भी पापा की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहती है आज जो अधिकार महिलाओं के मिले हैं वे भीमराव अम्बेडकर और सावित्री फुले जैसी हस्तियों की कोशिशों और त्याग की देन हैं नहीं तो कट्टरवादी तो औरत को गुलाम और पैर की जूती करार देते हैं .
साक्षी कहती है जब पेरेंट्स की आमदनी पर हम अपना पूरा हक समझते उसका उपयोग करते हैं तो वे भी संतानों चाहे वह बेटा हो या बेटी की कमाई के पूरे हकदार हैं . मेरे पापा ने कहा सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान दो लेकिन अब कहते हैं समाज के बारे में भी सोचो और महत्वपूर्ण घटनाओं का विश्लेषण करती रहो . सुप्रीम कोर्ट को महिलाओं के धार्मिक शोषण पर भी टिप्पणियां करते रहना चाहिए जो भेदभाव की असल जड़ है .
अशक्तता में साथ दें – डा विनीता कुमार – पेशे से होम्यो चिकत्सक इन्दोर की विनीता कुमार कहती हैं जब माँ बाप ने बेटियों से कोई भेदभाव नहीं किया और सब कुछ बराबरी से दिया और किया तो बेटियों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे खासतौर से वृद्धावस्था में पेरेंट्स का सहारा बने . माँ बाप की जिम्मेदारी सिर्फ बेटों के सर न डाली जाए . विनीता कहती हैं कि उन्होंने कई मामले ऐसे देखे हैं जो रोज मीडिया की सुर्खियाँ भी बनते हैं कि समर्थ संतानों के रहते भी उन्हें जिन्दगी की शाम वृद्धाश्रमों में गुजारना पड़ रही है . अगर बेटी समर्थ है और बूढ़े माँ बाप के लिए कुछ नहीं कर रही है तो उसमें और बेटे में फर्क क्या .
विनीता मानती हैं कि बेटी की शादी के कई सालों बाद तक पेरेंट्स को पैसों और दूसरी मदद की जरुरत आमतौर पर नहीं पड़ती है लेकिन जब वे अशक्त होने लगते हैं तब बेटियों को बिना किसी का मुंह ताके या इंतजार किये खुद आगे आकर उनकी सेवा शुमार करना चाहिए इससे समाज एज्युकेट होगा और बेटियों को भी आत्मसंतोष रहेगा कि उन्होंने पेरेंट्स को एक बेहतर रिटर्न गिफ्ट दी .
क्रूर और लालची भी होती हैं बेटियां – इंदिरा शर्मा – विदिशा में श्री हरि वृद्धाश्रम सफलतापूर्वक संचालित कर रहीं इंदिरा शर्मा का अनुभव अलग है . बकौल इंदिरा बेटियां पेरेंट्स की जिम्मेदारियों में हाथ बंटाएं यह बड़े बदलाब का संकेत है लेकिन कुछ एहतियातों की भी जरूरत है . उनके आश्रम में कुछ दिन पहले एक ऐसी वृद्धा शहर के संभ्रांत लोग भर्ती करा गए थे जिनके पास कोई एक करोड़ की चल अचल संपत्ति थी लेकिन इकलौती बेटी ने उन्हें सार ( मवेशियों के रहने की जगह ) में धकेल दिया और खाने पीने तक मोहताज कर दिया .
यह वृद्धा बेटी के खिलाफ क़ानूनी काररवाई करने तैयार नही . यह एक सबक है इंदिरा कहतीं हैं कि रिश्ते हमेशा अर्थप्रधान रहे हैं और बेटियां भी बेटों से कम क्रूर और लालची नही होतीं जो खुद की कमाई तो दूर की बात है खुद पेरेंट्स को उनकी जायदाद और कमाई से वंचित कर देती हैं हालाँकि अभी ऐसा आमतौर पर नहीं हो रहा है लेकिन पेरेंट्स को चाहिए कि वे अपनी जायदाद जीवित रहते बच्चों के नाम न करें नहीं तो बुढ़ापा किसी वृद्धाश्रम में भी काटना पड़ सकता है .