अपने एक अहम् और दिलचस्प फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने बीती 6 जनबरी को गृहिणी को आर्थिक रूप से पारिभाषित करते हुए कहा है कि महिलाओं का घरेलू कार्यों में समर्पित समय और प्रयास पुरुषों की तुलना में ज्यादा होता है . गृहिणी भोजन बनाती है , किराना और जरुरी सामान खरीदती है , ग्रामीण क्षेत्रों में तो महिलाएं खेतों में बुवाई , कटाई , फसलों की रोपाई और मवेशियों की देखभाल भी करती हैं . उनके काम को कम महत्वपूर्ण नहीं आँका जा सकता . इसलिए गृहिणी की काल्पनिक आय का निर्धारण महत्वपूर्ण मुद्दा है .
एक वाहन दुर्घटना में एक दंपत्ति की मौत पर मुआवजा राशि तय करते हुए जस्टिस एनवी रमना , एस अब्दुल नजीर और जस्टिस सूर्यकांत की बेंच गृहणियों की आमदनी को लेकर काफी दार्शनिक , तार्किक गंभीर और संवेदनशील नजर आई जो एक लिहाज से जरुरी भी था क्योंकि महिलाओं के प्रति आम नजरिया धर्म से ज्यादा प्रभावित है जो उन्हें दासी , शूद्र और पशुओं के बराबर घोषित करता है . लेकिन महसूस यह भी हुआ कि सबसे बडी अदालत के जेहन में परिवारों की संरचना और महिलाओं की स्थिति की 70 से लेकर 90 तक के दशक की तस्वीर की गहरी छाप है नहीं तो नए दौर की अधिकतर युवतियां नौकरीपेशा हैं और अपनी माओं , नानियों और दादियों के मुकाबले घर के काम जो अदालत ने शिद्दत से गिनाये न के बराबर जानती और करती हैं .
और यह बात किसी सबूत की मोहताज भी नहीं है कि जागरूकता , शिक्षा क्रांति और कई धार्मिक , पारिवारिक व सामाजिक दुश्वारियों से निजात पाने के लिए मध्यमवर्गीय युवतियों की अपने पाँव पर खड़े होने की मज़बूरी और जिद ने उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो बना दिया है , लेकिन एवज में उनसे गृहिणी होने का फख्र या पिछड़ेपन का तमगा कुछ भी कह लें छीन लिया है . लेकिन इसकी एक और वजह है , भोपाल की एक गृहिणी वीणा सक्सेना का कहना है , अब परिवार छोटे होने लगे हैं और अधिकतर दंपत्ति 2 से ज्यादा बच्चों की परवरिश अफोर्ड नहीं कर पाते . बकौल वीणा वह जमाना गया जब लोग एक लड़के की चाहत में 5-6 बेटियां पैदा करने में हिचकते नहीं थे और उन्हें नाम मात्र को पढ़ाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मानकर किसी भी ऐरे गैरे कामचलाऊ लड़के से उनकी शादी कर देते थे . लड़कियों की बदहाली और दुर्दशा की एक बडी वजह भी यह थी कि लड़के की चाहत की शर्त पर पैदा की जातीं थीं .
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