उधर, वे इस वक्त श्वेता को भी निकालने के लिए तैयार नहीं थे. कारण कि उस ने जिस खूबी से काम संभाला था वह हर किसी के वश का नहीं था. वे सोचने लगे कि हो सकता है राजेश व श्वेता के प्रति मैं भारी गलतफहमी का शिकार होऊं, अलका सही कह रही हो. अगले दिन उन्होंने अवसर पाते ही श्वेता के मन को टटोलना शुरू कर दिया, ‘‘तुम शादी क्यों नहीं कर लेतीं? तुम्हारी आयु की लड़कियां कभी का घर बसा चुकी हैं.’’ श्वेता के चेहरे पर भांतिभांति के भाव तैर उठे. वह आवेश से भर कर बोली, ‘‘अपनी मां की दुर्दशा देख कर भी क्या मैं विवाह के बारे में सोच सकती हूं? आप मर्द हैं, नारी मन को क्या समझ पाएंगे. मेरी मां ने अपने प्रेमी से धोखा खा कर किस प्रकार से मुझे जीवित रखा, पढ़ालिखा कर अपने पैरों पर खड़ा किया. इतनी लंबी जीवनयात्रा में किस प्रकार वे आधा पेट खा कर रहीं, समाज से कितनी अधिक मानसिक प्रताड़ना सहन कीं, उन के अतिरिक्त कौन समझ सकता है. मुझे नफरत है उस पुरुष से जो मेरी मां को मौत के कगार पर छोड़ गया. उसे पिता मानने को मैं कतई तैयार नहीं हूं,’’ यह कहने के साथ श्वेता की आंखें बरस पड़ीं. वह फिर बोली, ‘‘और वह मेरा सौतेला बाप, कितना घिनौना इंसान है, शराब पी कर मेरी व मेरी मां की जानवरों की भांति पिटाई करता है. क्या वह बाप कहलाने के योग्य है? मुझे नफरत हो चुकी है मर्द जाति से.’’
‘‘सभी मर्द एकजैसे नहीं होते. मैं व राजेश क्या ऐसे हैं?’’
‘‘आप मालिक हैं. आप की दी नौकरी से हमारा गुजारा चल रहा है. मैं आप के बारे में क्या कह सकती हूं.’’‘‘राजेश के बारे में तो कह सकती हो?’’
‘‘वह आयु में मुझ से छोटा है. बात, व्यवहार में बिलकुल लापरवाह. बच्चों जैसा भोला मालूम पड़ता है. उस के बारे में मैं क्या कह सकती हूं. मालिक तो वह भी है. आप दोनों की बदौलत ही हमें दो वक्त की रोटी मिलने लगी है.’’ श्वेता के उत्तर से रामेंद्र संतुष्ट नहीं हुए. वे उसे डांट कर स्पष्ट कह देना चाहते थे कि वह राजेश से बात करना बिलकुल बंद कर दे पर कह नहीं पाए. फिर आकस्मिक रूप से श्वेता 2 दिन तक काम पर नहीं आई तो वे चिंतित हो उठे. तीसरे दिन उस के घर जानकारी हेतु किसी को भेजना ही चाहते थे कि वह आ कर खड़ी हो गई. उस के चेहरे पर खरोंचों के निशान व सूजन थी. हाथपैरों में भी चोटों के निशान थे. ‘‘यह क्या हाल बना रखा है?’’ वे पूछ बैठे. फैक्टरी के कर्मचारी भी आ कर कारण जानने हेतु उत्सुक हो उठे थे. श्वेता ने रोरो कर बताया कि उस के सौतेले बाप व भाइयों ने मारमार कर बुरा हाल कर दिया. वे नहीं चाहते कि मैं अपने वेतन में से कुछ रुपए भी मां के इलाज पर खर्च करूं. मां बीमार रहती हैं व सरकारी अस्पताल की दवा से कुछ फायदा नहीं होता. वे लोग मेरा पूरा वेतन खुद हड़पना चाहते हैं.
‘‘तुम खुद स्वावलंबी हो, उस घर को छोड़ क्यों नहीं देतीं?’’
‘‘मैं यही कहने आप के पास आई हूं कि आप हम दोनों मांबेटी को यहां टिनशेड के नीचे रहने की इजाजत दे दें.’’
मैनेजर ने भी श्वेता की बात का समर्थन किया कि यहां काफी जगह खाली पड़ी है, मांबेटी आराम से गुजरबसर कर लेंगी. रात में सुरक्षा की दृष्टि से पहरेदार रहते ही हैं. रामेंद्र सोच में पड़ गए कि फैक्टरी के नियम सभी कर्मचारियों पर समानरूप से लागू होते हैं. यदि आज श्वेता को जगह दी तो कल अन्य महिला श्रमिक भी जगह मांगने लग जाएंगी. इसलिए उन्होंने इस की इजाजत नहीं दी. उन्होंने कहा कि शहर में किराए के मकानों की कमी तो नहीं है. सो, उन्होंने श्वेता को मकान खोजने हेतु 2 दिनों का अवकाश प्रदान कर दिया. श्वेता के प्रति उन की असहनीय कठोरता पर अलका कई दिन तक व्यग्र बनी रही व उन्हें सुनाती रही कि पता नहीं, उस लड़की में तुम ने कौन सी बुराइयां देख ली हैं, जो उस के प्रति सीमा से अधिक निर्दयी बनते जा रहे हो. यदि उसे घर के पिछवाड़े का सर्वेंट क्वार्टर ही दे देते, तब भी मांबेटी चैन से रह लेतीं. पूरी दुनिया में उन का हमारे अतिरिक्त और कोई दूसरा सहारा भी तो नहीं है. पर रामेंद्र पत्थर बने रहे. फैक्टरी के कर्मचारियों पर फालतू की दया दिखाना उन्होंने सीखा नहीं था. उधर, श्वेता ने 2 दिन की छुट्टी में किराए का मकान ले कर उस में अपना सामान जमा कर लिया. तीसरे दिन से फिर से उस का नौकरी पर आना शुरू हो गया. वह रामेंद्र से कहती रहती, ‘‘मां आप की बेहद कृतज्ञ हैं. वे आप से मिलना चाहती हैं.’’ रामेंद्र टाल जाते. सोचते, खामखां इन साधारण लोगों को मुंह लगाने से क्या लाभ.
2 हफ्ते पश्चात श्वेता फिर से गंभीर रहने लगी तो रामेंद्र ने उस से कारण पूछा तो वह बोली, ‘‘वे लोग नहीं चाहते कि हम अलग घर में चैन से जीएं,’’ उस का आशय अपने सौतेले बाप व भाइयों से था.
‘‘क्यों?’’
‘‘उन्हें मेरा वेतन चाहिए.’’
‘‘यह तो घोर अन्याय है. वे इंसान हैं या हैवान.’’
अपने प्रति पहली बार रामेंद्र की सहानुभूति पा कर श्वेता की आंखें बरस पड़ीं, ‘‘सर, आप ही कुछ कीजिए न, आप जा कर कुछ सख्ती दिखाएंगे तो वे लोग दोबारा सिर नहीं उठा पाएंगे.’’
‘‘ठीक है, मैं प्रयास करूंगा,’’ रामेंद्र ने आश्वासन दे दिया पर गए नहीं.
एक दिन राजेश ने उन्हें उन की बात याद दिलाई, ‘‘पिताजी, आप को श्वेता के बाप, भाई को सबक सिखाने जाना था.’’
उन की भवों पर बल पड़ गए, ‘‘तुम्हें मतलब?’’
पर राजेश उन की भावभंगिमा से विचलित नहीं हुआ. उसी स्वर में बोला, ‘‘आप कहें तो मैं जा कर उन लोगों को हड़का आऊं?’’
‘‘नहीं, तुम इस मामले में मत पड़ो.’’
‘‘तो कौन पड़ेगा? आप को तो उस की चिंता ही नहीं है,’’ राजेश तैश में भर गया.
‘‘ठीक है, मैं देखूंगा,’’ उन्होंने उस को शांत करने को कह दिया पर गए नहीं.
तीसरे दिन श्वेता फिर देर से आई और आते ही गंभीरता से बोली, ‘‘मुझे आप से अति आवश्यक बातें करनी हैं, सर.’’
‘‘बोलो.’’
‘‘आप मेरे पिता समान हैं, इसलिए आप मुझे उचित सलाह ही देंगे. मैं ने एक निर्णय लिया है.’’
‘‘कैसा?’’
‘‘मैं विवाह कर रही हूं.’’
रामेंद्र चौंके, ‘‘यह अकस्मात बदलाव कैसे आया? तुम्हें तो मर्दों से नफरत थी?’’
‘‘मेरा मन बदल गया है. मां भी बारबार कहती हैं कि सभी मर्द एकजैसे नहीं होते. हम अकेली, असहाय औरतों को वे लोग चैन से जीने नहीं देंगे. सो, सुरक्षा की दृष्टि से एक मर्द तो होना ही चाहिए.’’
‘‘तो कौन है वह?’’
‘‘वह लाखों में एक है. उस से विवाह कर के मुझे वह सभी हासिल हो सकेगा जिस की चाहत प्रत्येक लड़की को होती है. घर, सम्मान, पैसा, जीवन की सभी सुखसुविधाएं. फिर मुझे आप की नौकरी करने की आवश्यकता भी नहीं रहेगी.’’
‘‘पर वह है कौन?’’ वे व्यग्र हो उठे.
उस ने झिझक के साथ कहा, ‘‘वह हमारे ही मोहल्ले का है. दीपक नाम है.’’
यह सुनते ही मानो रामेंद्र के सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो. वे राहत की सांस ले कर बोले, ‘‘ठीक है, तुम शादी तय करो, हम अवश्य आएंगे.’’
‘‘सर, आप को एक वादा करना पड़ेगा, तभी मैं शादी कर पाऊंगी.’’
‘‘कौन सा वादा?’’
‘‘आप को मेरा कन्यादान करना होगा,’’ श्वेता की आंखें भर आईं.
रामेंद्र का मन भी भर आया, बोले, ‘‘तुम चिंता मत करो. जब तुम ने मुझे पिता बनाया है तो मैं अवश्य कन्यादान करूंगा.’’
‘‘धन्यवाद, सर.’’
‘‘सर-वर नहीं, पिताजी कह कर पुकारो.’’
‘‘पिताजी…’’
‘‘अब तुम घर जा कर शादी की तैयारियां करो. वेतन कटने की चिंता मत करना. अब तुम हमारी कर्मचारी नहीं, बेटी हो,’’ रामेंद्र मुसकराए.
फिर खुद गाड़ी निकाल कर श्वेता को उस के घर छोड़ने चले गए. उस की मां से खूब बातचीत कर व खाना खा कर लौटे.
अलका, त्रिशाला, राजेश सभी उन के बदले व्यवहार से चकित थे. अलका ने इस का कारण पूछा तो रामेंद्र हंसते हुए बोले, ‘‘मैं उसे इस घर की बहू बनाने के विरुद्ध था, बेटी बनाने के लिए नहीं. मैं उसे बेटी बना कर बहुत खुश हूं. बड़ी बुद्धिमान, परिश्रमी बेटी है वह.’’ फिर उन्होंने खूब धूमधाम से श्वेता व दीपक का विवाह संपन्न कराया. कन्यादान करते वक्त उन्हें लग रहा था, जैसे वे इरा व अपनी अवैध संतान के प्रति समाज के डर से मुक्त हो कर कर्तव्य का पालन कर रहे हों. उन के मन में इरा व अपनी संतान को खोज कर उन्हें सुख पहुंचाने की कामना और अधिक बलवती हो उठी थी. वे श्वेता का अंजाम देख चुके थे. क्या मालूम इरा भी अपनी संतान सहित इसी प्रकार के कष्ट भोग रही हो.