विजय ने तीसरी बार फिर पूछा था, ‘‘और सोच लो, अगर तुम्हारा पापा से मिलने का मन हो तो मैं तुम्हें भोपाल छोड़ता हुआ दिल्ली निकल जाऊंगा?’’
सुनंदा फिर भी चुप रही थी. कुछ देर बाद विजय ने कह ही दिया था, ‘‘देखो, मुझे भी पता है कि तुम मेरी वजह से कितने तनाव से गुजर रही हो. बच्चे भी अभी यहां नहीं हैं तो अकेले में और घबरा जाओगी, इसलिए चली चलो, थोड़ा मन बदल जाएगा तो तुम्हें भी अच्छा लगेगा और फिर भोपाल जाने के लिए तो तुम इतनी लालायित रहा करती थीं, फिर अब क्या हो गया है?’’
सुनंदा फिर भी एकाएक कुछ नहीं कह पाई थी.
‘‘चलो, पहले मैं आप के लिए चाय बनाती हूं, फिर कुछ सोचेंगे,’’ कहती हुई वह अपनेआप को सारे प्रश्नों से बचाती रसोई में घुस गई थी.
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यंत्रवत गैस पर चाय का भगौना चढ़ा दिया. सामने के रैक से चाय, शकर के डब्बे निकाले, टे्र में कप रखे. पर मन अभी भी बाहर कहीं घुमड़ रहा था. क्या करे, वह स्वयं कुछ समझ नहीं पा रही थी. पिछले 2 महीने से वह ही क्या, पूरा घर तनाव में था. विजय की मां की बीमारी में, उस की जो बचत थी वह सब जा चुकी थी. उधर, बिल्डर का तकाजा था, उस की किस्तें बढ़ रही थीं. बैंक में लोन बढ़ाने की दरख्वास्त दे रखी थी, उस सिलसिले में बैंक मैनेजर का कहना था कि एक बार वे खुद हैड औफिस जा कर बात कर लें.
पर पापा…पापा के बारे में वह विजय को क्या बताए क्यों नहीं जाना चाहती, क्या कहे कि वह घर भी अब उस के स्वयं का घर नहीं रहा है.
आंखें फिर भर आई थीं. ठीक है, इस बार और जा कर वह शायद पापा को ठीक से कुछ समझा पाए, कुछ सोचते हुए चाय की टे्र ले कर अंदर कमरे में आई.
‘‘मैं भी चल रही हूं, भोपाल उतर जाऊंगी,’’ विजय की तरफ चाय का कप बढ़ाते हुए उस ने कह भी दिया था.
‘‘यह हुई न ढंग की कुछ बात. देखो, तुम खुश रहोगी तभी तो मैं आगे के लिए कुछ सोच पाऊंगा,’’ विजय ने अपने चेहरे पर मुसकान लाने का प्रयास किया था.
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रात की गाड़ी से ही रवाना होना था तो सुनंदा ने अपना सामान बैग में रखना शुरू किया, विजय ने तब तक टिकट बुक करने के लिए बात कर ली थी.
गाड़ी में बैठते ही उस ने सोचा कि पापा को फोन तो कर दे कि सुबह भोपाल पहुंच रही है. 2 बार कोशिश की पर फोन कोई उठा ही नहीं रहा था. वह झुंझलाई, ‘पता नहीं कहां गए हैं, यह तो घूमने का भी टाइम नहीं है.’ उस की झुंझलाहट बढ़ती जा रही थी, ‘कितनी बार कहा है कि मोबाइल रखा करें पास में, पर वह भी नहीं.’
‘‘अरे, सो गए होंगे, तुम सुबह भोपाल स्टेशन से फोन कर लेना और फोन क्या, घर जा कर उन्हें सरप्राइज देना, उन्हें भी अच्छा लगेगा, चलो अब सो जाओ, दिनभर की थकी हुई हो,’’ कहते हुए विजय ने अपने केबिन की लाइट बंद कर दी थी.
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नींद तो सुनंदा को फिर भी नहीं आई थी. अब अगर यह दरख्वास्त मंजूर नहीं हुई तो…सोच कर ही वह सिहर गई थी. बच्चे बाहर होस्टल में रह कर पढ़ रहे हैं, उन की पढ़ाई का भारी खर्च, बच्चों को बुला भी नहीं सकते, उन के कैरियर का सवाल है, घर भी अभी किराए का है, उस की स्वयं की स्कूल की छोटी सी नौकरी है, विजय तो अपने पीएफ से भी पैसा ले चुके हैं. बैंक की किस्त में ही विजय का पूरा वेतन चला जाता है. उस दिन सहेली रमा से कहा था कि कोचिंग वालों से बात कर ले, वह शाम को वहां मैथ्स पढ़ा देगी.
ओफ,… उस का सिर फिर से दर्द करने लगा था. विजय को भी नींद कहां आ पाई होगी, बस सोने का बहाना किए लेटे हैं.
उठ कर उस ने पानी पिया, घड़ी देखी, फिर से आंखें मूंद कर सोना चाहा. कुछ देर बाद शायद हलकी सी झपकी लगी होगी, तभी आहट से नींद टूटी थी.
‘‘सुनंदा, भोपाल आने वाला है, तुम घर पहुंच कर फोन कर देना मुझे और हां, तनाव बिलकुल मत लेना, जो भी होगा, ठीक होगा, समझीं.’’
‘‘और तुम भी जल्दी फोन करना, क्या फैसला रहा,’’ कहते हुए सुनंदा ने अपना बैग समेटा था. थोड़ी ही देर में ट्रेन भोपाल पहुंच गई. विजय स्टेशन के बाहर तक छोड़ने आए.
‘‘अब तुम जाओ, गाड़ी देर तक नहीं रुकती है,’’ सुनंदा ने जोर दे कर कहा था.
‘‘ठीक है, तुम टैक्सी ले लेना,’’ कहते हुए विजय ने विदा ली.
सुनंदा सोच रही थी कि एक बार फिर पापा को फोन करे, अगर सो भी रहे होंगे तो इस समय तो उठ गए होंगे. पर अब भी घंटी देर तक बजती रही थी.
हुआ क्या है, उसे अब कुछ चिंता होने लगी थी. फिर कुछ सोच कर सुहास भैया के यहां जाने का विचार किया. भाई का घर स्टेशन के पास ही है, भैयाभाभी से मिलते हुए पापा के पास जाना ठीक रहेगा, सोचते हुए उस ने टैक्सी वाले को भाई के घर का ही पता दे दिया था. सुहास भैया उसे देखते ही चौंके थे.
‘‘अरे सुनंदा तुम, व्हाट अ सरप्राइज. अरे सुनो, सुनंदा आई है,’’ बाहर बरामदे से ही उन्होंने रचना भाभी को आवाज दी थी. भैयाभाभी अभी शायद दोनों टहल कर आए थे और भाभी अंदर चाय बनाने चली गई थीं. भाभी को भी आश्चर्य कम नहीं हुआ था.
‘‘चलो, बाहर लौन में ही बैठ कर चाय पिएंगे, पर यह तो बता, अचानक कैसे आना हुआ?’’
‘‘बस भाभी, विजय को दिल्ली जाना था तो सोचा कि मैं भी आप लोगों से मिल लूं, अभी 2 दिन की स्कूल की छुट्टियां बची हैं, तो…’’
‘‘हां, चलो अच्छा किया…’’ भाभी कुछ और कहना चाह रही थीं कि उस ने ही पूछ लिया, ‘‘पापा कैसे हैं? वे फोन उठा ही नहीं रहे हैं?’’
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‘‘अरे, पापा तो लताजी के घर रहने चले गए हैं, तो वहां फोन कौन उठाएगा,’’ भैया ने अखबार पर नजर गड़ाए निर्लिप्त भाव से कहा था.
‘‘क्या?’’ सुनंदा एकदम सकते में आ गई थी, ‘‘पापा?’’
‘‘हां सुनंदा, पूरे 2 हफ्ते हो गए. आजकल वहीं हैं,’’ यह रचना भाभी की आवाज थी.
‘‘पर…पर क्यों? अपना घर छोड़ कर?’’
‘‘अब यह सब तो जब उन से मिलो तो पूछ लेना, अभी तो चाय पिओ,’’ भैया ने चाय का कप बढ़ाते हुए एक तरह से बात ही खत्म कर दी थी. सुनंदा समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहे.
‘‘अभी नाश्ते के बाद मैं औफिस जाते समय तुम्हें वहां उतार दूंगी, तुम तैयार रहना,’’ कहते हुए भाभी ने चाय के बरतन समेटे और नौकर को कुछ हिदायतें देने के लिए अंदर चली गई थीं.
भैया अभी भी अखबार पढ़ने में व्यस्त थे. तैयार होने के बहाने सुनंदा अंदर आ गई.
पापा को इस उम्र में यह क्या सूझी? कुछ अंदाजा तो उसे पिछली बार ही लगा था, जब वह भोपाल आई थी, लताजी से पापा की नजदीकियां बढ़ने लगी हैं, काफी समय वे पापा के पास ही बिताने लगी थीं. कभी घर की बनी कोई खास खाने की चीज ला रही हैं, कभी अचार तो कभी पापड़.
‘सुनंदा, तुम्हारे पापा को ये सब बहुत पसंद है न. और नौकर तो बना नहीं पाता है,’ वे सहज भाव से कह देतीं. यही नहीं, उन का बेटा राहुल भी अब अकसर पापा के पास ही रहने लगा था.
‘बेटा, इस की वजह से मुझे बहुत आराम हो गया है, सारे छोटेमोटे काम कर देता है,’ पापा ने बड़े गर्व से कहा था कि एक दिन रात को अचानक तबीयत बिगड़ी थी तो उन्होंने भैया को फोन किया, भैया आए नहीं, फिर नौकर लताजी को बुला कर लाया था. उन्होंने ही एंबुलैंस बुलाई, रातभर अस्पताल में रुकी रहीं. भैयाभाभी तो सुबह देखने आए थे.
तब सुनंदा चुप रह गई थी.
‘पर पापा को एकदम लताजी के यहां ही रहने की क्या आवश्यकता आ गई,’ सोचते हुए उस के मुंह से निकल ही गया था.
‘‘पता नहीं पापा को इस उम्र में यह क्या सूझी,’’ गाड़ी में रचना भाभी तब पास ही बैठी थीं, उन्हें तो जैसे एक लंबा विषय मिला.
‘‘पापा को कम से कम यह तो सोचना था कि हम लोग भी इसी छोटे शहर में रहते हैं, यहां की मानसिकता ऐसी नहीं है और फिर कल को हमारी बेटी बड़ी होगी, उस की शादी की बात चलेगी तो तब समाज को हम क्या मुंह दिखाएंगे कि
इस के दादाजी इस उम्र में लिव इन रिलेशनशिप में, हमारी तो नाक ही कट गई है.’’
‘‘बस, भाभी बस,’’ सुनंदा से अब और कुछ सुना नहीं जा रहा था. सोच रही थी कि एक सिरदर्द से बचने के लिए वह यहां आई और आते ही दूसरा सिरदर्द शुरू हो गया.
भाभी तो उसे लताजी के घर के सामने उतार कर चली भी गई थीं. घंटी बजाते ही लताजी ने दरवाजा खोला. स्वागत तो हंस कर किया था लताजी ने पर सुनंदा को वह हंसी भी चुभती हुई लगी थी.
‘‘कौन, सुनंदा आई है,’’ पापा की आवाज अंदर से आई थी. लताजी शायद पापा को खाना खिला रही थीं. सुनंदा को अंदर ले गईं. कुरसी पर बैठे पापा काफी कमजोर लग रहे थे. वह जा कर पास खड़ी हुई तो वे देर तक उस के सिर पर हाथ फेरते रहे पर सुनंदा कुछ बोल नहीं पा रही थी.
लताजी ने उन्हें कुरसी पर ठीक से बैठाया. फिर एक नैपकिन लगा कर धीरेधीरे चम्मच से उन्हें दलिया खिलाने लगी थीं.
सुनंदा, बस देखती रही थी.
खाना खिला कर लताजी ने नैपकिन से पापा का मुंह पोंछा, फिर एक बरतन में पानी ला कर कुल्ला करवाया.
‘‘चलो बेटा, अब बैडरूम में ही चलते हैं,’’ पापा ने कहा तो वह उन्हें सहारा देने के लिए उठ खड़ी हुई थी.
‘‘सुनंदा, तुम पापा से बातें करो, तब तक मैं तुम्हारे लिए कोई डिश बना देती हूं,’’ लताजी ने कहा तो सुनंदा ने टोक दिया.
‘‘अरे, जो बना है, खा लूंगी, आप क्यों तकलीफ कर रही हैं.’’
‘‘क्यों, इस में तकलीफ कैसी, घर ही तो है,’’ कहते हुए वे अंदर चली गई थीं.
‘‘और बेटे, कैसे आना हुआ अचानक?’’ पापा पूछ रहे थे, वे पलंग पर अधलेटे से हो गए थे. सुनंदा पास ही बैठ गई थी.
‘‘बस पापा, विजय दिल्ली जा रहे थे तो मैं ने सोचा कि आप से मिल लूं, पर आप काफी कमजोर लग रहे हैं, क्या बीमार हो गए थे? बताया नहीं.’’
‘‘अरे, वही हलका स्ट्रोक पड़ा था, तो रात में ही लता ने ही आ कर संभाला, 2 दिन तो अस्पताल में भरती रहना पड़ा. फिर उसी की जिद थी कि अब आप मेरी देखरेख में ही रहें तो यहां ले आई. सुहास और रचना तो देखने भी नहीं आए,’’ पापा का चेहरा फिर तन गया था.
‘‘पर पापा, इस तरह से यहां रहना, इस से तो अच्छा है कि आप लताजी से शादी कर लें,’’ पता नहीं कैसे सुनंदा के मुंह से निकल ही गया था, उसे स्वयं अपने शब्दों पर आश्चर्य हुआ.
‘‘हां, यही सोच रहा हूं.’’
पापा की आवाज उसे भीतर तक हिला गई, ‘क्या पापा इस उम्र में शादी करेंगे,’ उस से अब कुछ बोला भी नहीं जा रहा था.
देर तक चुप्पी रही, फिर लताजी अंदर आईं तो पापा दूसरी बातें करने लगे थे.
‘‘सुनंदा, तुम भी थकी होगी, खाना खा कर थोड़ा आराम कर लेना और हां, तुम्हारे लिए मैं ने मटरपुलाव भी बना दिया है. इन्हें मैं दवाएं दे दूं तो थोड़ा सो लेंगे,’’ लताजी कह रही थीं और सुनंदा का स्वयं का मन हो रहा था कि वहां से उठ कर कहीं भाग जाए.
अंदर कमरे में आ कर तो उसे रोना सा आ गया था. यह क्या सूझी पापा को. क्या रचना भाभी ठीक कह रही थीं कि लताजी की नजर तो पापा के मकान पर है, उन की प्रौपर्टी पर है. ओफ…पर पापा. छि:, पता नहीं किस घड़ी में उस ने पापा की मुलाकात लताजी से करा दी थी.
लताजी उस की सहेली निशा की रिश्ते की बहन थीं, तब निशा ने ही कहा था कि लताजी के पति का अचानक हार्ट अटैक से निधन हो गया है और एक छोटा बेटा है, बहुत टैंशन में हैं. पापा, अगर उन्हें कहीं नौकरी दिला दें तो…
तब उस ने ही पिताजी से कह कर एक स्कूल में लताजी की नौकरी लगवाई थी. पापा की वहां कुछ जानपहचान थी. घर भी पास में दिलवा दिया था, तब से उन का यहां आनाजाना शुरू हुआ, पर उस सब की निष्पत्ति क्या इस प्रकार होनी थी? सुनंदा को अब स्वयं पर ही क्रोध आने लगा था.
दोपहर बाद ही विजय का फोन आ गया था कि बैंक में हैड औफिस वाले मान तो गए हैं पर फाइल दोबारा प्रोसैस करानी होगी, कुछ समय लग जाएगा, तब तक थोड़ी परेशानी तो रहेगी.
‘‘ठीक है.’’
सुनंदा ने शांत भाव से सूचना को लिया था, पर अब वह दूसरी सोच में डूब गई थी. बच्चों के स्कूल का ऐडमिशन होना है, भारी खर्चे की एक समस्या तो इसी महीने सामने आएगी ही. इस से तो अच्छा था कि पुरानी कोचिंग इंस्टिट्यूट की नौकरी ही करती रहती, वहीं से कुछ आर्थिक सहायता मिल जाती.
शायद उस की लंबी चुप्पी को विजय ने भी महसूस कर लिया था. तभी उस की टैलीफोन पर फिर आवाज गूंजी, ‘‘सुनंदा, धीरज रखो, सब ठीक हो जाएगा. मैं धीरेधीरे सब लोन चुका दूंगा. ऐसी दिक्कतें आती रहती हैं. मैं ने यहां भी दोएक जगह बात की है, हो सके तो भैया से बात कर लेना, वैसे मुझे किसी से पैसा मांगना अच्छा नहीं लगता है, पर इस समय परेशानी यही है कि औफिस से मैं जितना ले सकता था, ले चुका हूं. अभी कुछ महीने इसी कारण हमें आर्थिक कठिनाई रहेगी, भैया अगर मदद कर सकें तो अच्छा है, कुछ महीनों में मैं उन का सारा पैसा लौटा दूंगा.’’
‘‘ठीक है, मैं बात कर के देखती हूं,’’ सुनंदा ने कह दिया था.
रात को फिर अकेले में सुनंदा ने भाई को फोन किया था. सारी बातें विस्तार से बताईं. पर अंत में सुहास ने यही कहा था, ‘‘देखो सुनंदा, अभी हम भी इस स्थिति में नहीं हैं कि कुछ सहायता कर सकें. हम ने भी एक बड़ा फ्लैट बुक करा रखा है, उस की किस्तें चल रही हैं. इधर, हम पहले जिस मकान में रह रहे थे उस का भी कोर्ट केस चल रहा है.’’
‘‘कौन सा मकान?’’
सुनंदा चौंक पड़ी थी. उधर, सुहास कहे जा रहा था, ‘‘हां, ठीक है, अभी पापा के नाम है और पापा ने बनवाया भी है, पर तुम जानती हो कि कल का भरोसा नहीं है, क्या पता उसे लता ही अपने नाम करवा ले. मैं ने कई बार कहा है कि आप को रुपयों की आवश्यकता हो तो हम से ले लें, पर मकान की रजिस्ट्री हमारे नाम करा दें, पर पापा राजी नहीं हैं.’’
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‘‘तो क्या पापा के मकान का केस चल रहा है?’’
सुनंदा समझ नहीं पा रही थी कि इतना पैसा होते हुए भी भैया की नजर पापा के उस मकान पर है जिस के किराए से पापा अपना खर्चा चला रहे हैं. उन्होंने भैया से अब तक कुछ नहीं मांगा और अब जब बीमारी में भैया को पापा की देखभाल करनी थी, तब वे उन का मकान हड़पने को तैयार हैं.
उसे लगा कि भीतर तक गहरा सन्नाटा उस के अंदर उतर गया है. क्या भैया से कह दे कि मकान पर तो उस का भी हक है. वह भी पापा की बेटी है, अभी थोड़ी सी आर्थिक मदद की बात की तो भैया चुप रह गए पर यदि वह पिता का मकान उन के नाम करा दे तो रुपयों की व्यवस्था करने को तैयार हैं.
अब भैया की बातों का अर्थ उस की समझ में आ रहा था. अधिक बात न कर के उस ने फोन रख दिया था.
सुबह उस के कमरे में पापा अपने सहारे की स्टिक लिए आए थे, ठकठक की आवाज से ही उस की नींद टूटी थी.
‘‘सुनंदा, अब तक सो रही हो, बेटा. उठो, चाय ठंडी हो रही है.’’
पापा की आवाज सुन कर वह उठ गई थी. उसे लगा जैसे उस का बचपन वापस आ गया है. ऐसे ही तो बचपन में पापा उसे जगाया करते थे.
‘‘क्या बात है? इस बार तुम चुप सी हो. रात को तुम्हारी सुहास से बात हो रही थी, फिर तुम सोने चली गईं. वह क्या कह रहा था?’’
‘‘पापा, मैं दोपहर की टे्रन से जाऊंगी, टिकट वहीं मिल जाएगा.’’
‘‘पर बेटा, कल ही तो आई हो,
ऐसी जल्दी क्या है?’’ पापा फिर चौंके थे.
‘‘हां पापा, विजय भी शाम की गाड़ी से दिल्ली से लौट रहे हैं. बैंक में लोन की फाइल लगी हुई थी, वह प्रोसैस हो गई है, तो अब किस्तें चुकाने में दिक्कत नहीं आएगी, पर अभी तो घर में परेशानी ही चल रही है. विजय ने मां की बीमारी में घर में जो कुछ था, सब दांव पर लगा दिया, फिर मां चली गईं. उस झटके से हम उबर भी नहीं पाए थे कि अचानक बिल्डर का तकाजा बढ़ गया. इधर, बच्चों के स्कूल खुलने वाले हैं. तो कुछ सोच कर मैं यहां आई थी और सुहास भैया से बात की थी.’’
इसी बीच लताजी कब अंदर आ कर बैठ गई थीं, वह जान ही नहीं पाई थी. पापा भी शायद इसी बीच बाहर चले गए थे. वह उधर पीठ किए बैग में अपना सामान डाल रही थी तभी लताजी ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा था, ‘‘सुनंदा, ऐसी भी जाने की क्या जल्दी है? विजय तो रात की गाड़ी से लौटेंगे न, तुम उन से बात कर लो, हम तुम्हें उसी गाड़ी में बिठा देंगे ताकि तुम लोग साथ ही जा सको.’’
लताजी ने प्यार से समझाते हुए कहा था और फिर बाहर चली गई थीं.
पर वह अभी भी अपनी सोच से बाहर नहीं आ पा रही थी. वह क्या सोच कर आई थी और क्या देख रही है. कई बार बाहर जो कुछ भी दिखता है, उसे हम अपनी ही कल्पनाओं के आधार पर देखने लग जाते हैं. मां की बीमारी में विजय जितना भी खर्च करते रहे, उस ने कभी नहीं रोका. बस, यंत्रचलित सी वही करती रही जो विजय उस से कहते रहे और यहां भैया, भाभी, इन्हें क्या हो गया जो सबकुछ होते हुए भी पापा को इतनी तकलीफ दे रहे हैं. भैया उस से कह रहे हैं कि वह पापा का मकान उन के नाम कराने में मदद करे. शायद उन्हें शक है कि कहीं बहन भी अपना अधिकार न जता दे. उसे अपनेआप पर हंसी आई, सोचा कि भैया से कह ही दे कि वह कभी भी मकान के अधिकार को ले कर अदालत में नहीं जाएगी.
तभी बाहर से पापा और लताजी की एकसाथ आवाज आई थी, ‘‘बेटे, नाश्ता लग गया है, बाहर आ जाओ.’’
मेज पर पहुंचते ही पाया कि पापा अपेक्षाकृत शांत और प्रसन्न हैं. लताजी नाश्ते की प्लेटें लगा रही थीं. उस ने सामने रखा अखबार उठाया ही था कि पापा ने एक पीला सा लिफाफा उस के हाथ में थमा दिया.
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‘‘पापा, यह क्या है?’’
‘‘बेटा, कुछ खास नहीं. बस, तुम इसे रखो, इस में तुम्हारे लिए मैं ने कुछ पोस्ट डेटेड चैक रख दिए हैं. मेरी पैंशन हर महीने बैंक में अपनेआप जमा हो जाती है और अब मेरा खर्चा भी क्या है, तुम हर महीने बैंक में लगा देना, तुम्हें दिक्कतें नहीं आएंगी. तुम्हारे अकाउंट में पैसा हर महीने पहुंचता रहेगा.’’
सुनंदा अवाक् थी, उस ने लताजी की ओर देखा, वे मुसकराईं और बोलीं, ‘‘अभी मेरी सैलरी भी आती है और मकान का किराया भी, हमारा खर्चा तो आराम से चल जाता है, तुम लोग परेशान न हो, हम यही चाहते हैं.’’
सुनंदा को ऐसा लगा जैसे उस के लड़खड़ाते कदमों को पापा और लताजी ने संभाल लिया है.
उधर, पापा कहे जा रहे थे, ‘‘बेटा, सुहास से भी कह देना कि वह मकान उसी का है, उसी का रहेगा, पर कम से कम हमें अभी तो शांति से रहने दे. जब तक हम जिंदा हैं, हम आराम से रह तो लें, लता के पास तो उस का अपना यह घर है.’’