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 समय बड़ा बलवान -भाग 1: सूरत का दृश्य अचानक क्यों बदल गया था

लेखक: डा. चमन टी. माहेश्वरी

आधी रात को गांधीनगर जिला आरोग्य अधिकारी का फोन आया, ‘‘डा. माहेश्वरी, तुम्हें कल सुबह जितना जल्दी हो सके स्वास्थ्य टीम के साथ सूरत के लिए निकलना है. वहां बाढ़ से हालात बद से बदतर हो रहे हैं,’’ कहते हुए उन्होंने फोन काट दिया.

प्रतिनियुक्ति की बात सुन कर दूसरे सरकारी अधिकारियों की तरह मेरा दिमाग भी खराब हो गया. अपना घर व अस्पताल छोड़ कर अनजान शहर में जा कर चिकित्सा का कार्य करना. कई सरकारी चिकित्सकों ने प्रतिनियुक्ति की बारंबारता से हैरान हो कर सरकारी नौकरी ही छोड़ दी. पर नौकरी तो नौकरी ही होती है, भले ही चिकित्सक की सम्मानित नौकरी ही क्यों न हो.

अचानक सूरत जाने की बात सुन कर पत्नी उदास हो गई. बच्ची बहुत ही छोटी थी. शुक्र था कि मां मेरे यहां ही थीं. आधी रात को ही बैग तैयार कर दिया.

‘‘खाने का सूखा नाश्ता ले लो. पता नहीं, इस हालत में सूरत में कुछ मिलेगा भी कि नहीं?’’ पत्नी ने सलाह दी. हालांकि, जौहरियों का शहर अपने खानपान के लिए मशहूर था.

‘‘इतना बड़ा शहर है, कुछ न कुछ तो खाने को मिलेगा ही.’’

मेरे मना करने के बाद भी उस ने नमकीन व मूंगफली के पैकेट मेरे बैग में डाल दिए.

हम सरकारी एंबुलैंस वाहन से पूरी टीम के साथ सूरत के लिए निकल गए. हमारे साथ दूसरी गाडि़यां भी थीं जिन में आसपास के सरकारी चिकित्सकों की टीमें थीं. गांधीनगर में भी बरसात चालू थी और बादलों से पूरा आकाश भरा पड़ा था.

जैसे ही हम बड़ौदा से आगे निकले, टै्रफिक बढ़ता ही जा रहा था. गाडि़यां धीरेधीरे चल पा रही थीं. बड़ौदा से सूरत का 3 घंटे का रास्ता 6 घंटे से भी ज्यादा हो गया था. ऊपर से सड़क पर बड़ेबड़े गड्ढे.

करीब 5 बजे हम सूरत पहुंचे. सूरत शहर के अंदर पहुंचते ही भयावह स्थिति का अंदाजा लगा. शहर के किनारे पर ही एक फुट तक पानी था जो बढ़ ही रहा था. हमें ऐसे लग रहा था कि हम जैसे आस्ट्रिया की राजधानी वियना में प्रवेश कर रहे हैं, जहां पूरा शहर पानी के अंदर बसा हुआ है, सड़कें पानी की बनी हुई हैं और दोनों ओर खूबसूरत इमारतें हैं. हमें कंट्रोल रूम जा कर रिपोर्टिंग करनी थी जो शहर के बीचोंबीच था. यह जानकारी हमारा ड्राइवर पान की दुकान से लाया था.

सूरत शहर भव्य व हजारों साल पुराना है. हजारों वर्षों से यहां से गुजराती व्यापारी जलमार्ग से पूरी दुनिया में व्यापार करते थे. यहीं पर पुर्तगालियों ने अपनी पहली कोठी स्थापित की थी जिस की अनुमति मुगल सम्राट जहांगीर ने दी थी.

यह शहर उस समय पूरी दुनिया के सामने आया जब 90 के दशक में प्लेग ने पूरे शहर को जकड़ लिया था. पूरी दुनिया भारत आने से डर गई थी, उसी शहर से जहां पूरी दुनिया ने भारत में आधित्पय जमाने की कोशिश की थी.

यह शहर सच में बहुत ही खूबसूरत व भव्य था. बड़ी इमारतें, चौड़े रास्ते व खूबसूरत चौराहे. यह शहर अभी भी टैक्सटाइल व हीरेजवाहरात के लिए पूरी दुनिया में महत्त्वपूर्ण शहर है. कच्चे हीरे यहां लाए जाते हैं और तराश कर पूरी दुनिया में भेजे जाते हैं.

अब हम 2-3 फुट पानी में रेंग रहे थे. हम कंट्रोल रूम रात के 7 बजे पहुंचे. कंट्रोल रूम में भी 2-3 फुट पानी था. औफिस प्रथम मंजिल पर था. हम ने वहां प्रतिनियुक्ति पत्र दिया और अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. उन्होंने हमारा बेमन से स्वागत किया, शायद वे भी प्रतिनियुक्ति पर आए हुए थे.

‘‘तुम्हारा कार्यक्षेत्र उधना स्वाथ्य केंद्र में है और वहीं से वे तुम्हें जहां का आदेश दें वहां जाना है. और तुम्हारा कैंप स्थल पब्लिक स्कूल में है, वहीं तुम्हें रुकना है,’’ उन्होंने एक लिखित आदेश दिया जिस में पूरा पता था.

हम पब्लिक स्कूल की ओर चले. चाय की जोरदार तलब हो रही थी, हालांकि हम ने रास्ते में 3-4 बार चाय पी थी.

लंबा व उबाऊ रास्ता होने के कारण थकान व चिड़चिड़ाहट हो रही थी. दुकानें बंद थीं और चाय के ठेले नदारद थे. 3 किलोमीटर की दूरी एक घंटे में तय करने के बाद हमारा अस्थायी आशियाना एक पब्लिक स्कूल दिखा. यह पब्लिक स्कूल भी महानगर के प्राइवेट स्कूल जैसा दिखा. कैंपस छोटा, पर ऊंचा था. ड्राइवर ने गली में ही गाड़ी पार्क की और हम ने सामान उतार कर स्कूल में प्रवेश किया.

टेबल पर एक वृद्ध सज्जन बैठे थे. वे स्कूल के ट्रस्टी थे. पास में ही खाना बन रहा था, जो शायद हमारे जैसे प्रतिनियुक्ति वालों के लिए था. हमें ऊपर दूसरी मंजिल पर रुकवाया गया था जहां फर्श पर ही बिस्तर लगे हुए थे. मैं ने दूसरी मंजिल पर जाने से पहले उन सज्जन से पूछा, ‘‘क्या चाय मिल सकती है?’’ हालांकि सब की इच्छा थी पर कोईर् भी संकोच के कारण कह नहीं रहा था.

मेरी फैमिली काफी रिच थी, लेकिन बिजनैस में घाटा होने से हम अब गरीबी में जी रहे हैं, मैं अपने परिवार को इस स्थिति से कैसे उबारूं?

सवाल
मेरी फैमिली काफी रिच थी, लेकिन बिजनैस में घाटा होने से हम अब गरीबी में जी रहे हैं, जिस से मेरे पापा काफी डिप्रैस्ड हो गए हैं. मम्मी उन्हें काफी समझाती हैं, लेकिन उन की समझ में कुछ नहीं आता. मैं अपने मम्मीपापा की इकलौती संतान हूं. हमारे रिश्तेदार हमारी कोई मदद नहीं करते. उन की हरकतों से तो ऐसा लगता है कि जैसे उन्हें हमें ऐसी हालत में देख कर खुशी मिलती है. आप ही बताएं कि मैं अपने परिवार को इस स्थिति से कैसे उबारूं?

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जवाब

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जीवन में उतारचढ़ाव आते रहते हैं और जो इन्हें ऐक्सैप्ट करता है उन्हें ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ता. आप के पापा ने कड़ी मेहनत से अपना बिजनैस सैटिल किया, लेकिन वे बिजनैस में मिले घाटे को एैक्सैप्ट न करने की वजह से मानसिक रूप से परेशान हो रहे हैं. ऐसे में आप मिल कर उन्हें समझाएं कि समय एकजैसा कभी नहीं रहता और अगर हम हिम्मत से आगे बढ़ेंगे तो यह समय भी कट जाएगा. और रही बात रिश्तेदारों की, तो उन की पहचान दुख की घड़ी में ही होती है, इसलिए इस की परवा न करें और एकदूसरे का सहारा बनें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

एक सफल लक्ष्य : मीना की सास को क्या हुआ था

सुबह सुबह फोन की घंटी बजी.  अनिष्ट की आशंका से मन धड़क गया. मीना की सास बहुत बीमार थीं. रात देर वे सब भी वहीं तो थे. वैंटिलेटर पर थीं वे…पता नहीं कहां सांस अटकी थी. विजय मां को ऐसी हालत में देख कर दुखी थे. डाक्टर तो पहले ही कह चुके थे कि अब कोई उम्मीद नहीं, बस विजय लंदन में बसे अपने बड़े भाई के बिना कोई निर्णय नहीं लेना चाहते थे. मां तो दोनों भाइयों की हैं न, वे अकेले कैसे निर्णय ले सकते हैं कि वैंटिलेटर हटा दिया जाए या नहीं.

निशा ने फोन उठाया. पता चला, रात 12 बजे भाईसाहब पहुंचे थे. सुबह ही सब समाप्त हो गया. 12 बजे के करीब अंतिम संस्कार का समय तय हुआ था.

‘‘सोम, उठिए. विजय भाईसाहब की मां चली ?गईं,’’ निशा ने पति को जगाया. पतिपत्नी जल्दी से घर के काम निबटाने लगे. कालेज से छुट्टी ले ली दोनों ने. बच्चों को समझा दिया कि चाबी कहां रखी होगी.

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दोनों के पहुंचने तक सब रिश्तेदार आ चुके थे. मां का शव उन के कमरे में जमीन पर पड़ा था. लंदन वाले भाईसाहब सोफे पर एक तरफ बैठे थे. सोम को देखा तो क्षणभर को आंखें भर आईं. पुरानी दोस्ती है दोनों में. गले लग कर रो पड़े. निशा मीना के पास भीतर चली आई जहां मृत देह पड़ी थी. दोनों बड़ी बहनें भी एक तरफ बैठी सब को बता रही थीं कि अंतिम समय पर कैसे प्राण छूटे. मां की खुली आंखें और खुला मुंह वैसा ही था जैसा अस्पताल में था. अकड़ा शरीर आंखें और मुंह बंद नहीं होने दे रहा था. वैंटिलेटर की वजह से मुंह खुला ही रह गया था.

मां की सुंदर सूरत कितनी दयनीय लग रही थी. सुंदर सूरत, जिस पर सदा मां को भी गर्व रहा, अब इतनी बेबस लग रही थी कि…

विजय भीतर आए और मां का चेहरा ढकते हुए रोने लगे. अभी 4 महीने पहले की ही बात है. कितना झगड़ा हो गया था मांबेटे में. सदा सब भाईबहनों की सेवा करने वाले विजय एक कोने में यों खड़े थे मानो संसार के सब से बड़े बेईमान वही हों. मां को लगता था कि उन का बड़ा बेटा, जो लंदन में रहता है, कहीं खाली हाथ ही न रह जाए और विजय पुश्तैनी घर का मालिक बन जाए. पुश्तैनी घर भी वह जिसे विजय ने कर्ज ले कर फिर से खड़ा किया था.

वह घर जो बहनों का मायका है और भाईसाहब का भी एक तरह का मायका ही है. लंदन तो ससुराल है जहां वे सदा के लिए बस चुके हैं और जीवन भर उन्हें वहीं रहना भी है.

‘तुम्हें क्या लगता है, तुम पतिपत्नी सब अकेले ही खा जाओगे, भाई को कुछ नहीं दोेगे?’ दोनों बहनों और मां ने प्रश्न किया था.

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‘खा जाएंगे, क्या मतलब? मैं ने क्या खा लिया? कर्ज ले कर खंडहर मकान खड़ा किया है. पुश्तैनी जमीन को संवारा है, जहां तुम सब आआ कर रहते हो. तनख्वाह का मोटा हिस्सा लोन चुकाने में चला जाता है. हम दोनों पतिपत्नी हाड़तोड़ मेहनत करते हैं तब कहीं जा कर घर चलता है. इस में मैं ने क्या खा लिया किसी का?’

‘जमीन की कीमत का पता किया है हम ने. 60 लाख रुपए कीमत है जमीन की. 30 लाख रुपए तो उस का बनता है न. आगरा में फ्लैट ले कर दे रहे हैं हम बड़े को. तुम 30 लाख रुपए दो.’

‘मैं 30 लाख कहां से दूं. अपने ही घर में रहतेरहते मैं बाहर वाला कैसे हो गया कि आप ने झट से मेरे घर की कीमत भी तय कर दी.’

‘तुझे क्या लगता है, चार दिन भाईबहनों को रोटी के टुकड़े खिला देगा और लाखों की जमीन खा जाएगा.’

मां के शब्दबाण विजय का कलेजा छलनी कर गए थे और यही दोनों बहनें भाईसाहब के साथ खड़ी उन से जवाब तलब कर रही थीं.

भाईसाहब, जिन्हें वे सदा पिता की जगह देखते रहे थे, से इतनी सी आस तो थी उन्हें कि वे ही मां को समझाएं. क्या मात्र रोटी के टुकड़े डाले हैं उन्होंने सब के सामने? पिता की तरह बहनों का स्वागत किया है. प्यार दिया है, दुलार दिया है मीना और विजय ने सब को. गरमी की छुट्टियों में स्वयं कभी कहीं घूमनेफिरने नहीं गए. सदा भाईबहनों को खिलायापिलाया, घुमाया है. बड़े भाईसाहब ने तो कभी मांबाप को नहीं देखा क्योंकि वे तो सदा बाहर ही रहे. पिताजी अस्पताल में बीमार थे तब उन के मरने पर ही 2 लाख रुपए लग गए थे. पिछले साल मां अस्पताल में थीं, 3 लाख रुपए लग गए थे, हर साल उन पर 1 लाख रुपए का बोझ अतिरिक्त पड़ जाता है जो कभी उन का अपना पारिवारिक खर्च नहीं होता. इन तीनों भाईबहनों ने कभी कोई योगदान नहीं किया. कैसे होता है, किसी ने नहीं पूछा कभी, 30 लाख रुपए हिस्सा बनता है सब से आगे हो कर मां ने कह दिया था. तो क्या वह घर का नौकर था जो सदा परिवार सहित सब की ताबेदारी ही करता रहा? बेशर्मी की सभी हदें पार कर ली थीं दोनों बहनों व भाईसाहब ने और मां का हाथ उन तीनों के ऊपर था.

उसी रात पसीने से तरबतर विजय को अस्पताल ले जाना पड़ा था. सोम और निशा ही आए थे मदद को. तनाव अति तक जा पहुंचा था, जिस वजह से हलका सा दिल का दौरा पड़ा था. क्या कुसूर था विजय का? क्यों छोटे भाई को ऐसी यातना दे रहे हैं परिवार के लोग?

भाईसाहब की लंदन जाने की तारीख पास आ रही थी और आगरा में दोनों बहनों ने भाई के लिए जो फ्लैट खरीदने का सोच रखा था वह हाथ से निकला जा रहा था. विजय बीमार हो गए थे. अब पैसों की बात किस तरह शुरू की जाए.

मां ने ही मीना से पूछा था.

‘क्या सोच रहे हो तुम दोनों? पैसे देने की नीयत है कि नहीं?’

‘होश की बात कीजिए, मांजी. जो आदमी दिल का मरीज बन कर अस्पताल में पड़ा है उस से आप ऐसी बातें कर रही हैं.’

‘बहुत देखे हैं मैं ने इस जैसे दिल के मरीज.’

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अवाक् रह गई थी मीना. जिस बेटे के सिर पर बैठ कर पूरा परिवार नाच रहा था उसी के जीनेमरने से किसी का कोई लेनादेना नहीं. किस जन्म की दुश्मनी निभा रहे हैं भाईसाहब. हिंदुस्तान में फ्लैट लेना ही चाहते थे तो विजय से बात करते. दोनों भाई कोई रास्ता निकालते, बैठ कर हिसाबकिताब करते. यह क्या तरीका है कि हथेली पर सरसों जमा दी. सोचने और कुछ करने का समय ही नहीं दिया. क्या 3 दिन में सब हो जाएगा?

मीना बड़ी ननदों के सामने कभी बोली नहीं थी. उस के सिर पर एक तरह से 3-3 सासें थीं और बड़े जेठ ससुर समान. जब अपने ही पति के सर पर काल मंडराने लगा तब जबान खुल गई थी मीना की.

‘मां, अगर हिसाब ही करना है तो हर चीज का हिसाब कीजिए न. प्यार और ममता का भी हिसाब कीजिए. जोजो हम आप लोगों पर खर्च करते हैं उस का भी हिसाब कीजिए. हर साल आप की इच्छा पूरी करने के लिए पूरा परिवार इकट्ठा होता है, उस पर हमारा कितना खर्च हो जाता है उस का हिसाब कीजिए. पिताजी और आप की बीमारी पर ही लाखों लगते रहे हैं, उस का भी हिसाब कीजिए. जमीन की कीमत तो आप ने आज 30 लाख रुपए आंकी है, विजय जो वर्षों से खर्च कर रहे हैं उस का क्या हिसाबकिताब?

‘दोनों बहनें बड़े भाई को अपने शहर में फ्लैट ले कर दे रही हैं. इस भाई को काट कर फेंक रही हैं. क्या भाईसाहब लंदन से आ कर बहनों की आवभगत किया करेंगे? और मां, आप अब क्या लंदन में जा कर रहेंगी भाईसाहब की मेम पत्नी के साथ, जिस ने कभी आ कर आप की सूरत तक नहीं देखी कि उस की भी कोई सासू मां हैं, ननदें हैं, कोई ससुराल है जहां उस की भी जिम्मेदारियां हैं.’

‘कितनी जबान चल रही है तेरी, बहू.’

‘जबान तो सब के पास होती है, मां. गूंगा तो कोई नहीं होता. इंसान चुप रहता है तो इसलिए कि उसे अपनी और सामने वाले की गरिमा का खयाल है. अगर आप मेरा घर ही उजाड़ने पर आ गईं तो कैसी शर्म और कैसा जबान को रोकना. विजय को दिल का दौरा पड़ा है, आप उन्हें परेशान मत कीजिए. अब जब हिसाब ही करना है तो हमें भी हिसाब करने का समय दीजिए.’

मीना ने दोटूक बात समाप्त कर दी थी. गुस्से में मां और भाईसाहब दोनों बहनों के पास आगरा चले गए थे. लेकिन पराया घर कब तक मां को संभालता. भाईसाहब वहीं से वापस लंदन चले गए थे और बीमार मां को बहनें 4-5 दिन में ही वापस छोड़ गई थीं.

4 महीने बीत गए उस प्रकरण को. वह दिन और आज का दिन. मीना और विजय मां से लगभग कट ही गए. अच्छाभला हंसताखेलता उन का घर ममत्व से शून्य हो गया था. बच्चे भी दादी से कटने लगे थे. समय पर रोटी, दवा और कपड़े देने के अलावा अब उन से कोई बात ही नहीं होती थी उन की. बुढ़ापा खराब हो गया था मां का. कोई उन से बात ही नहीं करना चाहता था.

क्या जरूरत थी मां को बेटियों की बातों में आने की. अब क्या बुढ़ापा लंदन में जा कर काटेंगी या आगरा जाएंगी?

समय बीता और 5 दिन पहले ही फिर से मां को अस्पताल ले जाना पड़ा. हालत ज्यादा बिगड़ गई जिस का परिणाम उन की मृत्यु के रूप में हुआ.

विजय मां की मौत से ज्यादा इस सत्य से पीडि़त थे कि उन के भाईबहनों ने मिल कर उन की मां का बुढ़ापा बरबाद कर दिया. उन के  जीवन के अंतिम 4-5 महीने नितांत अकेले गुजरे. आज मृत देह के पास बैठ कर आत्मग्लानि का अति कठोर एहसास हो रहा है उन्हें. क्यों मीना ने मां से सवालजवाब किए थे? क्यों वह चुप नहीं रही थी? फिर सोचते हैं मीना भी क्या करती, पति की सुरक्षा में वह भी न बोलती तो और कौन बोलता. उस पल की जरूरत वही थी जो उस ने किया था. कहां से लाते वे 30 लाख रुपए. कहीं डाका मारने जाते या चोरी करते. रुपए क्या पेड़ पर उगते हैं जो वे तोड़ लाते.

अच्छाभला, खुशीखुशी उन का घर चल रहा था जिस में विजय मानसिक शांति के साथ जीते थे. हर साल कंधों पर अतिरिक्त बोझ पड़ जाता था जिसे वे इस एहसास के साथ सह जाते थे कि यह घर उन की बहनों का मायका है जहां आ कर वे कुछ दिन चैन से बिता जाती हैं.

बुजुर्गों की दुआएं और पिताजी के पैरों की आहट महसूस होती थी उन्हें. उन्होंने कभी भाईसाहब से यह हिसाब नहीं किया था कि वे भी कुछ खर्च करें, वे भी तो घर के बेटे ही हैं न. अधिकार और जिम्मेदारी तो सदा साथसाथ ही चलनी चाहिए न. कभी जिम्मेदारी नहीं उठाई तो अधिकार की मांग भी क्यों?

कभी विजय सोचते कि क्यों मां दोनों बेटियों की बातों में आ कर उन के प्रति ऐसा कहती रहीं कि वे दिल के मरीज बन कर अस्पताल पहुंच गए. मां की देह पर दोनों भाई गले लग कर रो ही नहीं पाए क्योंकि कानों में तो वही शब्द गूंज रहे हैं :

‘क्या तुम दोनों पतिपत्नी अकेले ही सब खा जाओगे?’

बेटाबहू बन कर सब की सेवा, आवभगत करने वाले क्षणभर में मात्र पतिपत्नी बन कर रह गए थे. एकदूसरे से पीड़ा सांझी न करतेकरते ही मां का दाहसंस्कार हो गया. 13 दिन पूरे हुए और नातेरिश्तेदारों के लिए प्रीतिभोज हुआ.

सब विदा हो गए. रह गए सिर्फ भाईसाहब और दोनों बहनें.

‘‘आइए भाईसाहब, हिसाब करें,’’ विजय ने मेज पर कागज बिछा कर उन्हें आवाज दी. बहनें और भाईसाहब अपनाअपना सामान पैक कर रहे थे.

‘‘कैसा हिसाब?’’ भाईसाहब के हाथ रुक गए थे. वे बाहर चले आए. विजय के स्वर में अपनत्व की जगह कड़वाहट थी जिसे उन्होंने पूरी उम्र कभी महसूस नहीं किया था. बचपन से ले कर आज तक विजय ने सदा बच्चों की तरह रोरो कर ही भाई को विदा किया था. सब हंसते थे विजय की ममता पर जो भाई को पराए देश विदा नहीं करना चाहता था. मां की देह पर दोनों मिल कर रो नहीं पाए, क्या इस से बड़ा भी कोई हिसाब होता जो वे कर पाते?

‘‘30 लाख रुपए का हिसाब. पिछली बार मैं हिसाब नहीं दे पाया था न, अब पता नहीं आप से कब मिलना हो.’’

मीना भी पास चली आई थी यह सोच कर कि शायद पति फिर कोई मुसीबत का सामना करने वाले हैं. बच्चों को उन के कमरे में भेज दिया था ताकि बड़ों की बहस पर उन्हें यह शिक्षा न मिले कि बड़े हो कर उन्हें भी ऐसा ही करना है.

पास चले आए भाईसाहब. भीगी थीं उन की आंखें. चेहरा पीड़ा और ममत्व सबकुछ लिए था.

‘‘हां, हिसाब तो करना ही है मुझे. मैं बड़ा हूं न. मैं ही हिसाब नहीं करूंगा तो कौन करेगा?’’

जेब से एक लिफाफा निकाला भाईसाहब ने. मीना के हाथ पर रखा. असमंजस में थे दोनों.

‘‘इस में 50 लाख रुपए का चैक है. तुम्हारी अंगरेज जेठानी ने भेजा है. उसी ने मुझे मेरी गलती का एहसास कराया है. यह हमारा घर हम दोनों की हिस्सेदारी है तो जिम्मेदारी भी तो आधीआधी बनती है न. तुम अकेले तो नहीं हो न जो घर की दहलीज संवारने के लिए जिम्मेदार हो. हमारा घर संवारने में मेरा भी योगदान होना चाहिए.’’

अवाक् रह गए विजय. मीना भी स्तब्ध.

‘‘13 दिन पहले जब एअरपोर्ट पर पैर रखा था तब एक प्रश्न था मन में. एक घर है यहां जो सदा बांहें पसार कर मेरा स्वागत करता है. ऐसा घर जो मेरे बुजुर्गों का घर है, मेरे भाई का घर है. ऐसा घर जहां मुझे वह सब मिलता है जिसे मैं करोड़ों खर्च कर के भी संसार के किसी कोने में नहीं पा सकता. यहां वह है जो अमूल्य है और जिसे मैं ने सदा अपना अधिकार समझ कर पाया भी है. मुझे माफ कर दो तुम दोनों. मुझे अपने दिमाग से काम लेना चाहिए था. अगर आगरा में घर लेना ही होगा तो किसी और समय ले लूंगा मगर इस घर और इस रिश्ते को गंवा कर नहीं ले सकता. तुम दोनों मेरे बच्चों जैसे हो. तुम्हारे साथ न्याय नहीं किया मैं ने,’’ मानो जमी हुई काई किसी ने एक ही झटके से पोंछ दी. स्नेह और रिश्ते का शीशा, जिस पर धूल जम गई थी, साफ कर दिया किसी ने.

‘‘मां को भी माफ कर देना. उन्हें भी एहसास हो गया था अपनी गलती का. वे अपनी भूल मानती थीं मगर कभी कह नहीं पाईं तुम से. हम सब तुम से माफी मांगते हैं. मीना, तुम छोटी हो मगर अब मां की जगह तुम्हीं हो,’’ बांहें फैला कर पुकारा भाईसाहब ने, ‘‘हमें माफ कर दो, बेटा.’’

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पलभर में सारा आक्रोश कहीं बह गया. विजय समझ ही नहीं पाए कि यह क्या हो गया. वह गुस्सा, वह नाराजगी, वह मां को खो देने की पीड़ा. मां के खोने का दुख भाई की छाती से लग कर मनाते तो कितना सुख मिलता.

बहरहाल, जो चीत्कार एक मां की आखिरी सांस पर होनी चाहिए थी वह 13 दिन बाद हुई जब चारों भाईबहन एकदूसरे से लिपट कर रोए. उन्होंने क्या खो दिया तब पता चला जब एक का रोना दूसरे के कंधे पर हुआ. अब पता चला क्या चला गया और क्या पा लिया. जो खो गया उस का जाने का समय था और जो बचा लिया उसे बचा लेने में ही समझदारी थी.

शाश्वत सत्य है मौत, जिसे रोक पाना उन के बस में नहीं था और जो बस में है उसे बचा लेना ही लक्ष्य होना चाहिए था. एक हंसताखेलता घर बचा कर, उस में रिश्तों की ऊष्मा को समा लेने का सफल लक्ष्य.

 समय बड़ा बलवान -भाग 3: सूरत का दृश्य अचानक क्यों बदल गया था

पार्ले के आगे एक भाईसाहब जौगिंग के लिए निकल रहे थे. जहां खुली जगह थी वहां जौगिंग कर रहे थे. मैं ने उन की ओर हंसते हुए हाथ हिलाया तो वे रुक गए, ‘‘आज भी जौगिंग?’’

‘‘हां, 30 वर्षों से कर रहा हूं चाहे कैसी भी परिस्थतियां हों, आदत हो गई है. आज भी मन नहीं माना, तो घर से निकल पड़ा,’’ उन्होंने भी मुसकराते हुए कहा. उन से सूरत शहर व बाढ़ के बारे में बातें हुईं. वे अपनी सूरत शहर की नगरपालिका की बातबात पर बड़ाई कर रहे थे.

तो मैं ने कहा, ‘‘आप की नगरपालिका इतनी अच्छी है तो बाढ़ ही क्यों आई? क्या पानी निकासी के मार्ग अच्छे नहीं हैं?’’

‘‘डा. साहब, यह तो पूर्णिमा व महाराष्ट्र में भंयकर भारी बरसात के मेल के कारण हुआ.’’ उन्हें मेरा व्यंग्यबाण अच्छा नहीं लगा.

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मेले व तीजत्योहार तो सम झा जो पूर्णिमा के कारण होते हैं. पर बाढ़ का कारण वह भी पूर्णिमा? मु झे सोचते हुए देखते उन्होंने कहा, ‘‘हां, यह शहर तापी नदी व समुद्र के बीच बसा हुआ है. तापी नदी यहीं शहर के बीचोंबीच बह कर समुद्र में मिलती है. तापी नदी पर ही सूरत से पहले उकाई डैम बना हुआ है. अभी पूर्णिमा के समय समुद्र में ज्वारभाटा आता है जिस से नदी का पानी समुद्र में जाना तो दूर, उलटा समुद्र का पानी बाहर किनारे पर आता है. इस कारण नदी का सारा पानी उबल कर सूरत शहर में ही फैल गया. ऊपर से शहर में बरसात हो रही है. पानी को कोई रास्ता ही नहीं मिल रहा है बाहर जाने का. आज ज्वार कम हुआ है, इसलिए आशा है कि जल्दी ही पानी समुद्र में चला जाएगा और शहर में पानी का लैवल कम हो जाएगा,’’ उन्होंने विस्तार से बाढ़ का कारण बताया जो मेरे जैसे मरु रेगिस्तानी बाश्ंिदे के लिए आश्चर्य का विषय था.

उन्होंने अपने शहर के लोगों की समृद्धि के किस्से सुनाए. कैसे यहां का सब्जी वाला सब्जी के भाव पूछने पर ही भड़क जाता है और व्यंग्य से बोलता है, ‘रहने दो न साहब, यह सब्जी तो यहां के हीरे तराशने वाले ही खा सकते हैं.’ हम उन की बातें गौर व आश्चर्य से सुन रहे थे. यह व्यावसायिक एरिया होने के कारण यहां मरीज ज्यादा नहीं थे. पर हमें आज का पूरा समय यहीं गुजारना था.

दोपहर के 2 बज रहे थे. अब खाने का सवाल था. मैं ने फोन कर के दूसरी टीम से पूछा, ‘‘खाने की कोई व्यवस्था पता चली?’’ तो पता चला कि मैडिकल कालेज, जो यहां से लगभग 5 किलोमीटर दूर है, में खाने की व्यवस्था है. मैं ने स्टाफ से कहा, ‘‘ठीक है, शाम को ही खा लेंगे.’’

‘‘सर, अभी 2-3 घंटे के बाद जब भूख लगेगी तो क्या करेंगे? चाय तक नहीं मिल रही है, खाना कहां मिलेगा?’’ उस की बात सही थी, आज सुबह नाश्ता भी नहीं किया था.

हम मैडिकल कालेज पहुंचे जहां दुनियाभर की एंबुलैंस व सरकारी गाडि़यां खड़ी थीं. नंबर प्लेट से लग रहा था कि पूरे गुजरात की गाडि़यां यहां आई हुई हैं, जीजे 01 से ले कर जीजे 30 तक.

हम भी खाने की लाइन में खड़े हो गए. आज मिनरल वाटर की बोतलें भी थीं. हम ने खाने के साथ कुछ ऐक्स्ट्रा भी लीं ताकि पूरे दिन काम आएं. यहां दूसरी बातें भी पता चलीं कि डीजल के कूपन भी मिल रहे थे. हमारा ड्राइवर कूपन ले कर आया.

यहां आए हुए 3-4 दिन हो गए थे. अब पानी उतरना शुरू हो गया था. उतरता हुआ पानी नयनरम्य लग रहा था. पानी बहुत ही तेजी से उतर रहा था क्योंकि बांध से पानी छोड़ा जाना बंद हो चुका था और ज्वारभाटे का असर खत्म हो चुका था. कुछ दिनों बाद पानी अपना निशान छोड़ चुका था.

अब शहर में चहलपहल बढ़ रही थी. नावें एक तरफ हो चुकी थीं. उस की जगह राहत गाडि़यों ने ली जो पूरे शहर में घूम रही थीं. जहां पानी उतर चुका थो वहां कीचड़ ही कीचड़ था. पर अभी भी बेसमैंट में पानी भरा हुआ था, जिसे उस के मालिक पंप से निकालने की कोशिश कर रहे थे. इतना पानी था कि 24 घंटे पंप चलने के बाद भी पानी निकल नहीं पाया. दुकान का फर्नीचर, जो प्लाइवुड का था, पानी में रह कर किताब, मतलब, परतदार बन चुका था. सामान का तो पूछो ही मत. सबकुछ जैसे शून्य हो गया. पार्किंग में खड़ी गाडि़यां खराब हो चुकी थीं और सर्विस सैंटर के आगे लंबी लाइनें लगी थीं. सर्विस सैंटर ने भी पूरे गुजरातभर से अपने कारीगर यहां बुलाए. चारों तरफ तबाही के मंजर थे.

सूरत आए हुए 5वां दिन था. आज हमें वराछा विस्तार में भेजा गया था. यह सूरत का सब से पौश विस्तार गिना जाता था. यह रईसों का इलाका माना जाता है. यहां पूरे सूरत शहर की तरह बड़ीबड़ी इमारतों की जगह बड़ेबड़े बंगले थे. ऐसे ही एक बड़े बंगले के सामने खाली जगह, जहां पेवर ब्लौक का मैदान था, हम ने अपनी एंबुलैंस पार्क की.

मैं वहीं मैडिसिन ले कर चाइना मोजैक की बैंच पर बैठ गया. यहां मरीजों के आने की संभावना बहुत ही कम थी. कुछ ही देर बाद एक सज्जन नए मौडल की मर्सिडीज गाड़ी से उतरे. उन्होंने इस मौसम में भी सफेद  झक नए कपड़े पहने हुए थे. पायजामे के किनारे कीचड़ लगा हुआ था. उन की दोनों हाथों की दस की दस उंगलियों में महंगे हीरेरत्न, जो सोने की भारीभरकम अंगूठियों में मढे़ हुए थे, दिख रहे थे. पीछे से उन का वरदीधारी ड्राइवर बहुत सारा सामान ले कर उतरा.

पहले तो वे बंगले की ओर, जिस के ऊपर गोल्डन रंग की धातु से स्वयं लिखा हुआ था, जा रहे थे, लेकिन हमें देख कर वे रुके और हमारी ओर आए.

‘‘सरकार की ओर से मैडिकल इमरजैंसी सेवा. आप डाक्टर हैं?’’ उन्होंने मेरे गले में स्टेथोस्कोप देख कर, मेरी ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘जी हां,’’ मैं ने भी अपना हाथ उन की ओर बढ़ाते हुए अपना परिचय दिया.

‘‘कहां से आए हैं डाक्टर साहब,’’ उन्होंने कुछ औपचारिक प्रश्न पूछे.

‘‘गांधीनगर से.’’

‘‘ओह, हैरान हो गए होंगे यहां आ कर?’’

‘‘इस शहर वालों से कम,’’ मैं ने अपने 5 दिन के अनुभव पर कहा.

यह सुन कर वे हंसने लगे, ‘‘यह आप का बड़प्पन है. आइए मेरे घर, सामने है,’’ उन्होंने अपने घर की ओर इशारा करते हुए कहा.

हम हिचक रहे थे.

‘‘आइए न प्लीज, हमारे यहां एक कप चाय पीजिए. आप तो हमारे शहर के मेहमान हैं,’’ उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा.

स्टेथोस्कोप गाड़ी में रख कर स्टाफ के साथ मैं उन के बंगले में गया.

उन का ड्राइंगरूम प्रथम मंजिल पर था जो फाइवस्टार होटल जितना विशाल व भव्य था. छत पर बेल्जियम के  झूमर लटक रहे थे. उन के ड्राइंगरूम की एक भी चीज ऐसी नहीं थी जिसे मैं अपने वेतन से खरीद सकूं.

‘‘श्यामलाल, चाय व नाश्ता बनाना,’’ उन्होंने अपने नौकर को आदेश दिया. फिर सूरत शहर के बारे में वर्तमान हालात के बारे में हम से बातें कीं.

चाय व नाश्ता शानदार था. क्रौकरी शायद बेल्जियम के सब से अच्छे स्टोर की थी, एकदम क्रिस्टल क्लीयर और उस पर यूरोपियन संस्कृति की मीनाकारी थी. नाश्ता करते समय उन्होंने अपनी कंपनी के बारे में संक्षिप्त में बताया. उन की कंपनी अपने तराशे हुए डायमंड सिर्फ अमेरिका के मशहूर रिटेल स्टोर को ही सप्लाई करती है. यह पूरी फर्म उन्होंने अपने मजबूत इरादों व मेहनत से खड़ी की थी. उन के पिता का राजस्थान में अनाज का काम था.

‘‘आप बहुत ही सुशील व सह्यदयी व्यक्ति हैं जिन्हें अपने अरबों की दौलत पर और खुद की सफलता पर जरा सा भी घमंड नहीं है,’’ मैं ने शानदार मेहमाननवाजी के लिए धन्यवाद देते हुए कहा. यह सुन कर वे जोर से हंसने लगे, ‘‘डा. साहब, यदि आप मु झे बाढ़ से पहले मिलते, तो यह आप कभी नहीं कहते.’’

‘‘क्या मतलब?’’ मेरे साथ मेरा स्टाफ भी उन की ओर हैरानी से देखने लगे.

‘‘सच बात है डाक्टर साहब. इस बाढ़ से पहले मु झे अपनी सफलता व मेहनत पर और मेरी मेहनत से कमाई अथाह दौलत पर बहुत ही घमंड था. मैं कभी भी किसी से सीधेमुंह बात तक नहीं करता था. मेरे पैसे के इस अहंकार से मेरे बचपन के दोस्त तक मुझ से दूर हो गए. मैं अपनी कंपनी में काम करने वालों को गुलाम सम झता था, जो मेरे द्वारा दिए गए वेतन के कारण जी रहे हैं.’’

‘‘फिर अचानक कुछ ही दिनों में आप पर यह जादुई बदलाव कैसे आया?’’ मेरे अंदर का कहानीकार जाग उठा.

‘‘जिस दिन हम ने सरकार की घोषणा सुनी कि तापी बांध से इतना पानी छोड़ेंगे कि पूरा सूरत शहर कई दिनों तक जल पल्लवित हो जाएगा और सभी नागरिक लंबे समय के लिए खानेपीने की व्यवस्था कर के रखें, मैं ने उस समय यही सोचा कि यह घोषणा मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं है, जिन के घर में पूरे वर्ष में भी कभी कम नहीं पड़ता. पर पत्नी ने नौकर को भेज कर काफी सामान मंगा लिया था.

‘‘पर इस बार बाढ़ सूरतवासियों की अपेक्षा से भी ज्यादा लंबी चली. मेरे यहां बाकी वस्तुओं से सब चलता रहा, पर दूध तीसरे दिन ही खत्म हो गया. हम बड़ी उम्र के लोग चाय के बिना जैसेतैसे कुछ दिन निकाल दें, पर छोटेछोटे बच्चे बिना दूध के कैसे रह सकते हैं. पाउडर का दूध तो बच्चे सूंघ कर ही मना कर देते हैं. सारा बाजार बंद था.

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‘‘ऐसे ही दोपहर को मेरा बच्चा दूध के बिना रो रहा था और उस समय सरकारी व स्वयंसेवी संस्थाएं हमारे घर के सामने नाव से दूध व दूसरे सामान का वितरण करने के लिए आई थीं. मैं ने भी मजबूरी में दूध के लिए हाथ लंबा कर के कहा, ‘दूध चाहिए,’ उन्होंने उस हाथ में दो थैली दूध की रखीं जिस हाथ में चारों उंगलियों में से एक तर्जनी में लक्जमबर्ग से खरीदा शुद्ध पुखराज था, मध्यमा में नीलम, जो गोलकुंडा की खानों से निकला हुआ था, अंगुष्ठा में लंदन का माणिक जगमगा रहा था. पहली अंगूठी में अफ्रीका से खरीदा हीरा था. 10 करोड़ रुपए से भी ज्यादा सोने की अंगूठियों में नग मढ़े हुए थे जो मैं ने दुनिया के बाजार से मुंहमांगी कीमत से खरीदे थे क्योंकि वे मु झे बहुत ही पसंद आए थे.

‘‘10 करोड़ के हाथ में 40 रुपए का दूध मु झे मेरी औकात बता रहा था कि, ‘सेठ, समय ही ताकतवर होता है,’ उन्होंने गहरी सांस ले कर कहा.

‘‘हमें हमारी उपलब्धि पर खुश होना चाहिए, न कि अभिमानी. इस बाढ़ ने मेरे गर्व व अभिमान को उसी तरह से तोड़ दिया जिस तरह बड़े से बड़ा चमकदार शीशा एक फेंके हुए छोटे से पत्थर के सामने टूट जाता है,’’ हमें मुख्य दरवाजे तक छोड़ते हुए उन्होंने कहा.

 

 समय बड़ा बलवान -भाग 2: सूरत का दृश्य अचानक क्यों बदल गया था

‘‘हां, पर उस ने अभी ही गैस बंद की है क्योंकि अब शाम का खाना बन रहा है,’’ उन्होंने सीधे न कह कर चाय न बनाने का कारण बताया.

‘‘ओह,’’ मेरे पीछे से डा. गज्जर की आवाज आई.

‘‘धन्यवाद, कोई बात नहीं,’’ मैं ने कहा और सामान ले कर दूसरी मंजिल पर पहुंच गया.

हम ने ऊपर जा कर हाथमुंह धोए, नाइट सूट पहन कर थोड़ी देर बाद नीचे आ गए क्योंकि खाने का समय हो गया था. हमारे साथ आए स्वास्थ्य कार्यकर्ता डोडियार भाई ने कहा, ‘‘साहब, जल्दी चलते हैं, नहीं तो वह भी खत्म हो जाएगा.’’ उस की बात सुन कर सब हंसते हुए नीचे आ गए.

दूसरे जिले से आईर् टीमों ने खाना शुरू कर दिया था. काफी लंबी लाइन लगी हुई थी. हम भी अनुशासित रूप से प्लेट ले कर लाइन में लग गए. ऐसा लग रहा था कि हम भी बाढ़ प्रभावित हैं. हमारे साथ आए डा. वैष्णव ने कहा, ‘‘मैं यहां लंगर का खाना नहीं खाऊंगा, मैं होटल में खाने जा रहा हूं.’’

यह सुन कर डा. पटेल हंसने लगे, ‘‘तो फिर तुम्हें उपवास रखना पड़ेगा. शहर में आज सारे होटल बंद हैं क्योंकि नदी का पानी काफी बढ़ चुका है.’’

मन मार कर उन्हें भी प्लेट ले कर लाइन में लगना पड़ा. खाना अच्छा व स्वादिष्ठ भी था. पर जब एक ही चपाती डाली तो मैं ने एक और चपाती के लिए कहा, तो उस ने ऐसा जवाब दिया कि मैं ने तो क्या, लाइन में खड़े किसी ने भी मांगने की गुस्ताखी नहीं की. उस का जवाब सुन कर मूड बहुत ही खराब हो गया था.

रात के 9 बज चुके थे. सब खाना खा कर बातें करने के मूड में थे. पर थकावट इतनी थी कि 10 बजतेबजते सब सो चुके थे.

दूसरे दिन सुबह 6 बजे उठ कर हम नहाधो कर नीचे आए. हालांकि उस में समय लगा क्योंकि लोग ज्यादा थे और बाथरूम कम थे. नीचे देखा तो रात को और भी टीमें आई थीं. मेरी पुरानी जगह पाटन शहर के पहचान वाले मिले. हम दोनों को ही काफी समय बाद मिलने की खुशी हुई. चाय बन रही थी. चाय पी कर हम उधना स्वास्थ्य केंद्र गए जहां से हमें किधर जाना है, इस बात के आदेश मिलने थे.

वहां हमें निर्देश मिले कि हमें फलां जगह जाना है और एंबुलैंस में ही सब की जांच कर के दवा देनी है और कोई गंभीर हो तो उसे यहां लाना है. हमें आज सूरत की सब से मशहूर जगह पार्ले पौइंट मिली. वह वीआईपी जगह थी. हमें यहां ज्यादा मरीज मिलने की आशा नहीं थी. बाहर आ कर हम ने स्थानीय व्यक्ति से जगह पूछी. वहीं पर हमें आज का ही अखबार भी मिला, यह हमारे लिए खुशी की बात थी. मैं ने 2-3 तरह के अखबार ले लिए जिस से स्थानीय जानकारी ज्यादा मिल सके और यदि काम नहीं हो तो समय भी कट जाए. अखबार पर थोड़ी नजर रास्ते में ही डाल ली. काफी भयावह दृश्य थे. कुछ हादसों की तसवीरें भी थीं और हमेशा की तरह सरकारी तंत्र पर दोषारोपण भी थे.

ेहमारा पहला पड़ाव नजदीक ही था, पर पानी भरा होने व ड्राइवर को रास्ता पता न होने के कारण थोड़ा समय लगा. यह स्थल पानी में डूबा हुआ था और पानी तेज धार के साथ बह भी रहा था. मेरे कहने पर ड्राइवर ने गाड़ी फुटपाथ पर चढ़ा दी जिस से हम मरीजों को आसानी से देख सकें, हालांकि, हमें सूरत के सब से पौश एरिया में मरीजों के आने की उम्मीद कम थी.

पहले वहां नजदीक में कोई नहीं था, पर एंबुलैंस व डाक्टर देख कर धीरेधीरे लोग आने लगे. एंबुलैंस का पीछे का दरवाजा खुला हुआ था. मैं जांच कर रहा था और मेरा स्टाफ दवाई दे रहा था. इतने दिनों की बरसात के चलते ठंड के कारण लोग बीमार पड़ गए थे. उन्हें बुखार व सर्दी थी. दूसरे, काफी मरीज ब्लडप्रैशर व मधुमेह के थे. इतने दिनों की बाढ़ के कारण उन की दवाइयां खत्म हो गई थीं. मैं उन का रक्तचाप माप कर दवाइयां दे रहा था, तो कुछ लोग एडवांस में ही बुखार व सर्दी की दवा मांग रहे थे कि कहीं बीमार पड़ गए तो काम आएगी. हम ने हंसते हुए थोड़ी दवा उन्हें भी दे दी. मैं ने गौर से देखा कि सरकारी दवा लेने वाले लगभग सभी वर्गों के थे.

यहां 2-3 घंटे मरीजों को देख कर थोड़ी दूर दूसरी जगह गए. यह कमर्शियल जगह थी, ऊंचीऊंची बिल्ंिडगें थीं जिन के नीचे शौपिंग कौम्पलैक्स थे. और इन के बेसमैंट में पानी भरा हुआ था. पानी पहली मंजिल की दूसरी दुकान में भी घुस गया था. मैं सोच रहा था कि लाखों रुपयों का फर्नीचर और न जाने कितना सामान पानी के कारण खराब हो गया और इन व्यापारियों की जीवनभर की कमाई इस में लगी हुई होगी.

यहां पर हमारी एंबुलैंस तो थी ही साथ में, सड़क पर छोटीमोटी नावें भी चल रही थीं जहां कार व दोपहिए वाहन चलते थे. यह थोड़ा रोमांचक पर अजीब लग रहा था. यह तो ऐसा हुआ कि कभी नाव सड़क पर, तो कभी कार सड़क पर.

नाव में से सामाजिक कार्यकर्ता राहत सामग्री, दूध के पाउच व फूड पैकेट बांट रहे थे. कई नावों के ऊपर उन का एक कार्यकर्ता अपने संगठन का  झंडा लगाए हुए खड़ा था. हर श्रेणी के लोग हाथ आगे कर के पैकेट ले रहे थे.

बिग बॉस 14: घर में एंट्री लेते ही रुबीना की बहन ने साधा राखी सावंत पर निशाना

सलमान खान के रियलिटी शो बिग बॉस 14 का फिनाले दो हफ्ते बाद होने वाला है. इससे पहले घर के अंदर कनेक्शन वीक शुरू होने वाला है. जिसकी कुछ झलक प्रोमो में दिखाई जा चुकी है. आज रात घर में ये कनेक्शन धमाकेदार एंट्री मारने वाले हैं.

अगर बीत की जाए रुबीना दिलाइक की कनेक्शन वीक की तो उनकी बहन ज्योतिका दिलाइक हिस्सा लेने के लिए आई.  बिग बॉस 14 में रुबीना अपनी बहन ज्योतिका को देखकर खुशी से उछल पड़ी . वहीं ज्योतिका दिलाइक ने घर  में एंट्री लेते ही सबसे पहले राखी सावंत की क्लास लगा दी.

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बता दें आउट हुए प्रोमो में दिखाया गया है कि ज्योतिका दिलाइक घर के लिविंग एरिया में बैठी हुई हैं और वह वहां राखी सावंत को साफ -साफ कह रही है कि आप अपने हद में रहें. क्योंकि ऐसी हरकत करते हुए आप बहुत ज्यादा निगेटिव नजर आती है. राखी सावंत भी ज्योतिका की बातों को बहुत ज्यादा ध्यान से सुन रही हैं.

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ज्योतिका दिलाइक काफी सुलझी हुई इंसान हैं उनके रहने से रुबीना दिलाइक का गेम और भी ज्यादा स्ट्रॉग होगा. ज्योतिका इससे पहले भी फैमली टॉस्क के लिए शो में आ चुकी हैं. और इस दौरान भी उन्होंने रुबीना दिलाइक को लेकर गेम में सुझाव दिए थें. कहा था कि वह जैसी हैं वैसे ही रहे तो बेहतर है.

राखी सावंत पर पानी फेंकने को लेकर रुबीना दिलाइक को बिग बॉस ने बड़ी सजा दी थी. बिग बॉस ने रुबीना दिलाइक को फिनाले विक तक के लिए नॉमिनेट किया हुआ है. इस वजह से रुबीना दिलाइक फिनाले वीक के टिकट टी में हिस्सा नहीं ले पाएंगी.

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वहीं इस पूऱे सीजन में रुबीना दिलाइक और अभइनव शुक्ला के रिश्ते को लेकर लोग बड़ी -बड़ी बाते करते नजर आ रहे हैं कि रुबीना और अभिनव का रिश्ता बहुत खूबसूरत है वह दोनों एक-दूसरे को सपोर्ट करते नजर आएंगे .

उत्तराखंड त्रासदी से घबराए बॉलीवुड स्टार, ट्विटर पर कही ये बड़ी बात

उत्तराखंड की खूबसूरती को देखने के लिए लोग देश ही नहीं विदेश से भी आते हैं. यही कि प्राकृति का नाजारा ही कुछ हट के हैं. इस जगह पर आप जितनी बार भी जाओ आपको दूबारा वापस आने का मन जरूर करेगा. रविवार की रात को चमोली जिले में एक ग्लेशियर टूट गया इससे वहां के लोगों को काफी ज्यादा नुकसान हुआ है.

बता दें कि इस ग्लेशियर के टूटने से राज्य में बाढ़ कि स्थिति बनी हुई है. ग्लेशियर का पानी राज्य के नीचले हिस्से में तेजी से आ रहा है. इस घटना के बाद राज्य में प्रशासन को अलर्ट कर दिया गया. वहीं खबर आ रही है कि राज्य में तेज पानी के बहाव से कई मजदूर इसमें बह गए हैं.

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लोग लगातार सोशल मीडिया पर इस बात की चर्चा करते नजर आ रहे हैं तो वहीं फिल्मी सितारे भी इस ग्लेशियर फटने के बाद चिंता जताते नजर आ रहे हैं.

इस खबर के बाद से पूरा देश परेशान हैं. लोगों को जैसी व्यवस्था दिख रही हैं वैसे मदद करने के लिए आगे बढ़ रहे हैं. उत्तराखंड की इस हालत को देखते हुए फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने कहा है कि ग्लेशियर टूटने के बाद आ रहे वीडियोज बहुत ज्यादा भयावह लग रहे हैं. मैं दुआ करता हूं कि वहां पर मौजूद लोग सुरक्षित रहें.

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वहीं अजय देवगन ने लिखा है कि अब हमारा समय आ गया है कि अब हमें नेचर के भयावह समय का भी सामना करना पड़ेगा. मुश्किल कि इस घड़ी में दुआ करता हूं कि सभी लोग ठीक हो जाए.

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इस बुरे वक्त को देखते हुए देश के सभी लोग उत्तराखंड के बचाव के लिए आगे बढ़ते नजर आ रहे हैं. वहीं कुछ लोग दुआ कर रहे हैं कि जो भी लोग फंसे हो जल्द से जल्द बाहर आएं और वह जहां भी हो सलामत रहें.

 

शिकस्त-भाग 4: शाफिया-रेहान के रिश्ते में दरार क्यों आने लगी

2 दिनों बाद मैं वक्त पर तैयार हो कर बाहर निकली. रेहान को लैटर मिल चुका था. उन्होंने कार का दरवाजा खोला. मैं ने कहा, ‘रेहान, जब रास्ते अलग हो रहे हैं तो फिर साथ जाने का कोई मतलब नहीं है. आप जाइए, मेरी टैक्सी आ रही है, मैं कोर्ट पहुंच जाऊंगी.’

कोर्ट में जज ने हम दोनों की बात ध्यान से सुनी. ‘खुला’ की वजह मेरे मुंह से जान कर जज ने हिकारतभरी नजर रेहान पर डाली और कहा, ‘रेहान साहब, जो कुछ आप कह रहे हैं वह ठीक नहीं है. 11-12 साल की खुशगवार जिंदगी को एक गलत ख्वाहिश के पीछे बरबाद कर रहे हैं. मैं आप दोनों को सोचने के लिए एक हफ्ते का टाइम देता हूं. दूसरी पेशी पर फैसला हो जाएगा.’ रेहान ने सिर झुका लिया.

कोर्ट से आ कर मैं ने टेबल पर बेहतरीन खाना लगाया जो मैं पका कर गई थी. मैं बच्चों से बातें करती रही, फिर गेस्टरूम में आई. पूरे वक्त हमारे बीच खामोशी रही. आबी कुछ कहना चाहती, तो मैं वहां से हट जाती. हफ्ताभर मैं एक से बढ़ कर एक मजेदार खाने बना कर खिलाती रही. रेहान के चेहरे पर फिक्र की लकीरें गहरी हो रही थीं. आखिरी दिन मुझे रोक कर बोले, ‘शाफी, मुझे तुम से कुछ बात करनी है.’ रेहान ठहरे हुए गंभीर लहजे मेें आगे बोले, ‘देखो शाफी, हमारा इतना दिनों का साथ है, मैं तुम्हें तनहा नहीं छोड़ना चाहता. तुम गेस्टरूम में रहो या मैं अलग घर का इंतजाम करवा दूंगा. बच्चों पर मेरा हक है पर तुम चाहो तो अपने साथ रखना. पर हम लोगों से दूर मत जाओ, करीब रहो.’

मैं ने दिल में सोचा, बच्चों की जिम्मेदारी मुझ पर डाल कर तुम दोनों ऐश करो. मैं ने गंभीर लहजे में कहा, ‘रेहान, मैं पहले भी कह चुकी हूं, मुझे आप के किसी एहसान की जरूरत नहीं है. और मैं आप का हक भी नहीं छीनना चाहती. आप के बच्चे आप के पास रहेंगे क्योंकि मैं उन्हें वह ऐशोआराम नहीं दे सकती जो आप के पास मिलेगा. मैं सिर्फ आप के घर, आप की जिंदगी से दूर हो जाऊंगी. मैं क्या करूंगी, कहां रहूंगी, इस की आप फिक्र न करें. यह मेरा सिरदर्द है.’

बेइंतहा ताज्जुब से सब मेरा चेहरा देख रहे थे जिस पर कोई जज्बात न थे, एकदम सपाट व बेजान. बेटा असद बोल उठा, ‘मम्मी, आप के जाने के बाद अच्छेअच्छे खाने कौन बनाएगा?’ असद भी बाप की तरह मतलबी था. उसे खाने की पड़ी थी, मां की परवा न थी. मैं ने कहा, ‘आप की नई मां बनाएगी और खिलाएगी.’ शीरी फौरन बोल पड़ी, ‘पर मम्मी, उन्हें तो कुछ पकाना नहीं आता है.’

मैं ने कहा, ‘तुम्हारे पापा की मोहब्बत में सब सीख जाएगी.’ असद को फिर परेशानी हुई. वह भी बाप की तरह लापरवाह और कामचोर था, आज तक अपने कपड़े उठा कर न रखे थे, न प्रैस किए थे, न अलमारी जमाई थी, न कमरा साफ किया था. सारे काम मैं ही करती थी. वह कह उठा, ‘मम्मी, हमारे सब काम कौन करेगा?’

‘तुम्हारी नई मम्मी करेगी. वह सब संभाल लेगी. वह संभालने में ऐक्सपर्ट है, जैसे आप के पापा को संभाल लिया.’

आज मुझे कोई लिहाज नहीं रहा था. दोनों के चेहरे शर्म से झुके हुए थे. फिर मैं ने बच्चों से कहा, ‘आप दोनों जैसी जिंदगी जीने के आदी हो वह आप के पापा ही बरदाश्त कर सकते हैं, मैं नहीं. पर आप दोनों जब चाहो, मुझ से मिलने आ सकते हो.’

दूसरे दिन सुबह ही सोहा कार ले कर आ गई. उसे देख कर मुझे एक साहस मिल गया. फोन पर रोज बात होती थी. हम दोनों साथ ही कोर्ट गए. आधा घंटे समझाइश व नसीहत के बाद खुला मंजूर हो गया. ज्यादा वक्त इसलिए नहीं लगा क्योंकि दोनों पक्ष पूरी तरह सहमत थे. और रहीम साहब भी कोशिश में साथ थे.

मैं ने घर पहुंच कर रेहान को मुबारकबाद दी. मैं ने अपना सामान पहले ही तैयार कर लिया था. सामान ले कर नीचे उतरी. जेवर के 2 डब्बे रेहान को देते हुए कहा, ‘ये दोनों सैट आप की तरफ से मिले थे. आप की नईर् बीवी को देने के काम आएंगे. आप रखिए, आप का दिया सब छोड़ कर जा रही हूं. मां की तरफ से मिली चीजें ले ली हैं. आप से एक गुजारिश है, अगर किसी मोड़ पर हम मिल जाएं तो मुझे आवाज मत देना.’ मैं ने बच्चों को प्यार किया, गले लगाया, दिल अंदर से बिलख रहा था पर मैं पत्थर बनी रही. आबी आगे बढ़ी. मैं ने उसे नजरअंदाज किया और सोहा के साथ बाहर आ गई.

उन लोगों के सामने एक आंसू आंख से गिरने न दिया, यह मेरी आन और खुद्दारी की हार होती. मैं सोहा के कंधे पर सिर रख बिलख पड़ी. सोहा ने कहा, ‘शाफी, आज जीभर कर रो लो. इस के बाद उस बेवफा इंसान के लिए मैं तुम्हें एक आंसू नहीं बहाने दूंगी.’

सोहा के शौहर राहिल बेहद नेक इंसान थे. उन की मां ने मुझे सगी मां की तरह अपनी आगोश में समेट लिया. उन्हीं के कमरे में मुझे सुकून मिलता. सोहा व उस का बेटा भी खूब खयाल रखते. मोहब्बत और अपनेपन के साए में 4 महीने गुजर गए. राहिल मेरी नौकरी और घर की तलाश में लगे रहे. रकम तो मेरे पास काफी थी. चाचा ने अम्मी का घर बेच कर आधी रकम मेरे खाते में डाल दी थी. सोहा की मल्टीस्टोरी बिल्ंिडग में मुझे सैकंड फ्लोर पर एक अच्छा फ्लैट मिल गया. मैं उस में शिफ्ट हो गई. मेरी कौन्वैंट की पढ़ाई काम आई. मुझे एक अच्छे इंग्लिश मीडियम स्कूल में जौब मिल गई. जिंदगी सुकून से गुजरने लगी. धीरेधीरे जख्म भरने लगे. सोहा की फैमिली का बड़ा साथ था. अम्मा काफी वक्त मेरे पास बितातीं. मुझे एक अच्छी औरत काम के लिए मिल गई. मैं ने उसे घर में रख लिया.

उस दिन छुट्टी थी. मैं बूआ के साथ काम में लगी थी कि डोरबैल बजी. दरवाजा खोला. राहिल के साथ रेहान खड़े थे. मैं हैरान रह गई. अंदर आने को कहा. राहिल रेहान को छोड़ कर लौट गए. मैं ने रेहान को देखा. 2 साल में काफी फर्क आ गया था. चेहरे पर थकान, उम्र व बेजारी साफ झलक रही थी. कुछ बाल उड़ गए थे. बूआ पानी ले आईं. रेहान टूटे लहजे में बोले, ‘शाफी, मैं अपने किए पर बेहद शर्मिंदा हूं. मुझे अपने गलत काम की खूब सजा मिल रही है. बस, मुझे अब माफ कर दो.’

‘क्यों, ऐसा क्या हो गया. आप ने बड़े शौक से, बड़े अरमान से आबी से शादी की थी.’

‘हां, की थी. भूल थी मेरी, अब पछता रहा हूं. आबी बेहद फूहड़, कामचोर और निकम्मी है. काम से तो उस की जान जाती है. कुछ कहो तो कहती है ‘मैं तो पहले से ऐसी हूं तभी तो आप ने मुझ से इश्क किया. सुघड़, सलीकेमंद और घर संभालने वाली तो शाफी आपा थीं. आप ने उन्हें छोड़ कर मुझे क्यों अपनाया? आप तो मेरे ऐब जानते थे. शाफी आपा के सामने आप ही मुझे काम करने से रोकते थे. आप ही मेरे नाजनखरों और अदाओं पर फिदा थे.’

‘शाफी, जब तुम बेहतरीन खाने खिलाती थीं, घर संभालती थीं, सब की खिदमत करती थीं, इश्क एक शगल की तरह लगता. सारी जरूरतें पूरी होते हुए एक नखरीली महबूबा किसे बुरी लगती है? आज ये तल्ख हकीकत खुली कि तुम्हारे बिना घर जहन्नुम है. सारे काम नौकरों के भरोसे हैं. ज्यादातर होटल से खाना आता है. हम ने अपने ऐश की खातिर बच्चों को भी खूब सिर चढ़ाया. अब बेहद बदतमीज हो गए. बहुत ज्यादा मुंहफट. पूरे वक्त आबी से झगड़े होते रहते हैं. मुझे भी काम करने की आदत न थी. जब चीजें तैयार नहीं मिलतीं तो गुस्सा आता है. फिर आबी से लड़ाई हो जाती है. वह भी बराबरी से जबान चलाती है. चीखतीचिल्लाती है. शाफी, जिंदगी अजाब बन गई है. तुम मुझ पर रहम करो. मैं आबी को तलाक दे दूंगा. तुम मेरी जिंदगी में वापस आ जाओ. मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता.’

मुझे यह एहसास था कि ऐसा होगा. आबी मेरी बहन थी, मैं उस के सारे ऐबों से वाकिफ थी. मैं ने सोचा था कालेज करने के बाद उसे घर के काम की बाकायदा ट्रेनिंग दूंगी. उस के पहले ही उस ने सब तहसनहस कर दिया. मैं ने रेहान की तरफ देखा. वह बेहद थका, टूटा हुआ इंसान लग रहा था.

मैं ने कहा, ‘रेहान, अब यह मुमकिन नहीं. आप से खुला लेने के बाद, आप का बेवफा रूप देखने के बाद मेरे दिल में आप के लिए जरा सी मोहब्बत नहीं है, न ही कोई इज्जत है.

‘मैं किसी कीमत पर आप की जिंदगी में दोबारा नहीं आ सकती. बच्चे एक बार रहीम चाचा के साथ मिलने आए थे. उन्हें मिलने भेज देना, मेहरबानी होगी. आप को अब आने की जरूरत नहीं है.’

नम आखें, झुके कंधे और लड़खड़ाते कदमों से रेहान लौट गए. अपने किए गए गुनाह के अजाब उन्हें ही समेटने थे. उन की बरबाद जिंदगी की खबरें मिलती रहती थीं. बच्चे आ कर मुझ से मिल जाते थे. रेहान को वापस गए भी 7-8 साल हो गए.

मैं 3 दिन पहले सोहा के भाई की बेटी की शादी में उस के साथ गई थी. वह वहीं रुक गई, मैं वहां से लौट रही थी कि आज बरसों बाद आबी को देखा. उसी ट्रेन के उसी कोच में वह भी सफर कर रही थी. उसे देख कर दुख हुआ पर मेरी उस से मिलने या बात करने की जरा भी ख्वाहिश न थी. जब मैं अपने स्टेशन पर उतरी, वह दूसरे गेट पर खड़ी मुझे देख रही थी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. इन आंसुओं को पोंछने का हक वह मुझ से छीन चुकी थी.

 

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