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शरणागत- भाग 2: डा. अमन की जिंदगी क्यों तबाह हो गई?

उसी समय एक घायल लड़की को अस्पताल लाया गया. वह कालेज से आ रही थी कि उस की साइकिल का बैलेंस बिगड़ गया और वह बुरी तरह जख्मी हो गई. डा. जावेद, अमन और अन्य डाक्टर उस के इलाज में जुट गए. उसे काफी चोटें आई थीं. एक टांग में फ्रैक्चर भी हो गया था. लड़की के मातापिता बहुत घबराए हुए थे. उन्हें दिलासा दे कर बाहर वेटिंग हौल में बैठने को कहा. लड़की के इलाज का जिम्मा डा. अमन को सौंपा गया.

लड़की बेहोश थी. उस के होश में आने का वहीं बैठ कर इंतजार करने लगा. लड़की बहुत सुंदर थी. तीखे नैननक्श, गोरा रंग, लंबे बाल. उस के होश में आने पर उस के मातापिता को बुलाया गया. बातोंबातों में पता चला कि लड़की का नाम नीरा है. बीए फाइनल का आखिरी पेपर दे कर लौट रही थी. सहेली के साथ बातें करती आ रही थी. तभी ऐक्सिडैंट हो गया.

इन का परिवार पहाड़ी था, परंतु ईसाई धर्म अपना लिया था. उन की बिरादरी में बहुत से परिवार थे, जिन्होंने पाखंडों और रूढि़वादिता से तंग आ कर अपनी इच्छा से इस धर्म को अपनाया था.

अगले दिन जब अमन वार्ड में मरीजों को देखने गया तो नीरा उसी वार्ड में थी. उस के मातापिता भी वहीं खड़े थे. डा. अमन ने जब नीरा का हालचाल पूछा तो उस ने अपनी लंबीलंबी पलकें झपका कर ठीक महसूस करने का इशारा कर दिया. उस के पिता उतावले से हो कर पूछने लगे, ‘‘डाक्टर हड्डी जुड़ने में कितना समय लगेगा? ठीक तो हो जाएगी न?’’

अमन ने उन्हें धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘हड्डी जुड़ने में थोड़ा समय लगेगा. आप चिंता न करें, आप की बेटी बिलकुल ठीक हो जाएगी.’’

यह सुन कर उन दोनों के चेहरे पर गहरी चिंता झलकने लगी.

यह देख कर अमन को हैरानी हुई. उस ने नीरा के पिता से कहा, ‘‘आप की बेटी ठीक है. फिर यह चिंता किसलिए कर रहे हैं?’’

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इस पर नीरा के पिता ने झिझकते हुए बताया, ‘‘डाक्टर साहब, नीरा की परीक्षा खत्म होने के बाद सगाई होने वाली है. हमारी बिरादरी के एक आईएएस लड़के से इस की शादी की बात पक्की हो रखी है. 3 दिन बाद लड़का सगाई की रस्म के लिए आने वाला है. उस के मातापिता यहीं रहते हैं.’’

अमन ने कहा, ‘‘देखिए, आप पहले बेटी की सेहत पर ध्यान दीजिए. सगाई बाद में होती रहेगी,’’ कह अमन अन्य मरीजों का मुआयना कर वार्ड से बाहर जाने से पहले नीरा से बोला, ‘‘मेरे पास कुछ किताबें हैं, आप को भिजवाता हूं, पढ़ती रहेंगी तो मन लगा रहेगा.’’

आज नीरा के होने वाले पति व उस के परिवार वालों की आने की उम्मीद में उस के मम्मीपापा जल्दी आ गए. वे नीरा के लिए गुलाबी रंग का सलवारकुरता लाए थे. नीरा के चेहरे पर भी खुशी झलक रही थी. जल्दी से नर्स को बुला कर हाथमुंह धो कर कपड़े बदल वह बेसब्री से इंतजार करने लगी.

सुबह से शाम हो गई पर लड़के के परिवार का कहीं दूरदूर तक अतापता न था. अमन जब शाम को वार्ड में आया तो देखा नीरा के मातापिता चेहरे लटकाए जा रहे थे, नीरा को यह कह कर कि चर्च में जा कर पता करते हैं. शाम को वे वहां आएंगे ही… सब ठीकठाक हो. नीरा भी थकावट और चिंता से बेहाल थी. चुपचाप चादर ओढ़ कर सो गई.

अगले दिन नीरा के मातापिता आए तो उन के चेहरों पर उदासी छाई थी. जैसे अरसे से बीमार हों.

अमन वार्ड के अन्य मरीजों को देख रहा था. नीरा की मां आते ही रोष भरी आवाज में बोल उठीं, ‘‘मैं कहती थी न कि दाल में कुछ काला है. चर्च में लड़के का परिवार आया था पर परायों जैसा व्यवहार था. औपचारिक हायहैलो का जवाब दे कर चर्च से निकल गए. तुम्हारा रिश्ता करवाने वाली महिला आशा भी नजरें चुरा रही थी. मैं ने पास जा कर पूछा तो बोली, ‘‘लड़के का परिवार बहुत नीच निकला. जब मैं ने नीरा के संग सगाई के प्रोग्राम के बारे में पूछा तो नीरा के बारे में उलटासीधा बोलने लगे कि नीरा हाथ छोड़ कर साइकिल चला रही थी…कुछ लड़कों के साथ रेसिंग कर रही थी. ऐक्सिडैंट इसी कारण हुआ..

‘‘न भई न मेरे लड़के ने तो साफ मना कर दिया कि नहीं करता सगाई. कहीं नीरा की टांग में फर्क रह गया तो उस की जिंदगी बरबाद हो जाएगी. उसे तो आएदिन क्लब व पार्टियों में जाना पड़ता है.

‘‘भई हम ने तो वही किया जो बेटे ने कहा. अच्छा हुआ अभी बातचीत ही हुई थी, कोई रस्म नहीं हुई थी.’’

सारी बात सुन कर नीरा की मां पस्त हो कर स्टूल पर बैठ गईं और सिसकने लगीं. पिता भी सिर झुकाए पलंग पर बैठ गए. ये सब सुन कर नीरा गुस्से से कांपने लगी. फिर चिल्ला कर बोली, ‘‘उन की इतनी हिम्मत… मेरे लिए ऐसा बोला. उस दिन तो लड़के की मां तारीफों के पुल बांध रही थीं, नीरा के हाथ में चाय का गिलास था. उस ने उसे जोर से पटक दिया. वार्ड के अन्य मरीज उसे देखने लगे. डा. अमन और उस के सहयोगी नीरा को शांत करने की कोशिश करने लगे. नीरा के पिता नीरा की मां को डांटते हुए बोले, ‘‘अभी सबकुछ बताना था?’’

नीरा की मां भी भरी बैठी थीं. गुस्से में जोर से बोलीं, ‘‘तो क्या बताने के लिए मुहूर्त निकलवाती?’’

बड़ी मुश्किल से उन्हें बाहर भेज कर नीरा को नींद का इंजैक्शन लगाया गया. पल भर में ही सब कुछ घटित हो गया.

अमन सोचने लगा वास्तव में नीरा के साथ अन्याय हुआ है. यदि यह ऐक्सिडैंट शादी के बाद होता तो क्या होता? उसे समाज के ऐसे मतलबी लोगों से नफरत होने लगी. उसे नीरा से सहानुभूति सी होने लगी कि अच्छीभली लड़की के जीवन में जहर घोल दिया.

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नीरा अभी इस घटना से उबर भी नहीं पाई थी कि एक और घटना हो गई, जिस ने नीरा की जीवनधारा को उलटी दिशा में मोड़ दिया.

2 दिन बाद ही नीरा की मां जब नीरा से मिलने आईं तो बहुत ही गुस्से में थीं. आते ही आवदेखा न ताव नीरा पर बरस पड़ीं. बोलीं, ‘‘नीरा सचसच बताओ तुम सचमुच हाथ छोड़ कर साइकिल चला रही थी? लड़कों के साथ रेसिंग कर रही थी? सारी कालोनी में तुम्हारे ही चर्चे हैं.’’

नीरा का दिल पहले ही चोट खाया था. यह बातें उसे नश्तर की तरह चुभने लगीं. मां और बेटी के बीच बहस ने खतरनाक रूप ले लिया. नीरा पलंग से उठने की कोशिश में गिर गई. डाक्टर ने उसे प्राइवेट रूम में शिफ्ट कर दिया. सीनियर डाक्टर ने नीरा के घर वालों पर नीरा से मिलने की पाबंदी लगा दी क्योंकि इस का नीरा की सेहत पर गलत असर पड़ रहा था और अस्पताल का माहौल भी बिगड़ रहा था. हां, वे नीरा का हाल डाक्टरों से फोन से पूछ सकते थे.

शारीरिक और मानसिक चोट ने नीरा को बुरी तरह तोड़ दिया था. वह न तो किसी से बातचीत करती और न ही दवा व भोजन समय पर लेती. सभी डाक्टरों ने उसे समझाया पर वह टस से मस न हुई.

एक दिन डा. अमन ने नीरा को समझाया, ‘‘खुदगर्ज लोगों के लिए क्यों अपने तन और मन को कष्ट दे रही हैं, जो एक दुर्घटना की खबर सुन कर आप से दूर हो गए. अच्छा हुआ ऐसे खुदगर्ज लोगों से आप का रिश्ता पक्का न हुआ.’’

इस के बाद नीरा अमन को अपना मित्र समझने लगी. वह अमन के आने का बेसब्री से इंतजार करती. अब वह अमन को अपने नजदीक पाने लगी थी. अमन अपने फुरसत के लमहे नीरा के कमरे में बिताता. राजनीति, सामाजिक समस्याओं, फिल्मों, युवा पीढ़ी आदि के बारे में खुल कर बहस होती. अमन का ऐसे रोजरोज बेझिझक आना और बातें करना नीरा के दिल पर लगी चोट को कम करने लगा था.

प्लस्तर खुलने में अब कुछ ही दिन बचे थे. नीरा के घर सूचना भेज दी गई थी. अमन जब नीरा के कमरे में गया तो वह एकाएक अमन से पूछने लगी, ‘‘क्या आप मुझे कोई छोटीमोटी नौकरी दिलवा सकते हैं?’’

अमन ने कारण पूछा तो वह बोली, ‘‘मैं अब घर नहीं जाऊंगी.’’

अमन यह सुन कर हैरान रह गया. अमन ने बहुत समझाया कि छोटीछोटी बातों पर घर नहीं छोड़ देते हैं, पर नीरा ने एक न सुनी.

वह बोली, ‘‘डा. अमन, मैं सिर्फ आप पर भरोसा करती हूं, आप को अपना समझती हूं. आप मेरे लिए कुछ कर सकते हैं? मैं इस समय आप की शरण में आई हूं.’’

अमन गहरी उलझन में पड़ गया. फिर कुछ सोच कर बोला, ‘‘आप का बीए का रिजल्ट तो अभी आया नहीं है. हां, कुछ ट्यूशन मिल सकती है, परंतु तुम रहोगी कहां?’’

सीएम योगी ने कहा पूरा होगा हर किसी का सपना

योगी आदित्यानाथ ने कहा है कि उत्तर प्रदेश सरकार हर जरुरतमंद इंसान का सपना पूरा करेगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ लखनऊ में शहरी आवास योजना अन्तर्गत योजना के तहत लखनऊ के अवध बिहार योजना में शहरी गरीबों के लिए ‘लाइट हाउस प्रोजेक्ट्स’ के शिलान्यास कार्यक्रम में मौजूद थें.

मुख्यमंत्री ने कहा शहर में अब तक 17 लाख 58 हजार गरीबों का अपना घर होने का सपना सकार हुआ है. इसमें करीब 10.58 लाख आवास निर्णमानधीन है. जबकी शेष पूर्ण हो चुके हैं. हमारा यह क्रम सतत जारी रहेगा.

सीएम योगी ने अपनी बातों को बढ़ाते हुए कहा कि भविष्य कि जरुरतों को देखते हुए प्रधानमंत्री द्धारा आज नवीनतम तकनीक द्वारा लाइट हाउस प्रोजेक्ट्स का आधारशिला रखा गया है. इसका निर्माण नई तकनीक को ध्यान में रखते हुए किया गया है.

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आगे उन्होंने कहा कि यह सौभाग्य कि बात है कि नवीनतम तकनीक की मांग को देखते हुए उत्तर प्रदेश में भी इस निर्माण कार्य कि योजना को रखा गया. प्रधानमंत्री जी कि प्रेरणा से सबके सपने सकार होगें सबका अपना घर होगा.

यही नहीं उत्तर प्रदेश को सर्वश्रेष्ठ योजना का पुरस्कार भी दिया गया है. यहीं नहीं उत्तर प्रदेश के मिरजापुर नगर पालिका को देश का सर्वश्रेष्ठ नगर पालिका का पुरस्कार दिया गया है.

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प्रधानमंत्री ने देश के 6 राज्यों में ग्लोबल हाउसिंग टेक्नोलॉजी चैलेंज इंडिया के तहत हल्के मकान से जुड़ी परियोजना पर शुक्रवार को आधारशिला रखी.

एलएचपी का राष्ट्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश का चयन राष्ट्रीय स्तर पर किया गया है. इसके तहत राजधानी में 01 करोड़ की लागत से लाइट प्रोजेक्ट्स पर काम किया जाएगा.

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लखनऊ के अलावा एलएचपी का निर्माण इंदौर ,गुजरात, चेन्नई, राजस्थान , अगरतला में भी किया जाएगा. इसका निर्माण करीब 12 महीने में पूरा किया जाएगा.

ओवैसी का बढ़ता कद

ओवैसी की एआईएमआईएम पार्टी ने बिहार के चुनावों में बिना पार्टी आधार और प्रचारप्रसार के 5 सीटें जीत कर सब को हैरान कर दिया. उस के बाद अपने गढ़ हैदराबाद में बेहतरीन प्रदर्शन जारी रखा. इन जीतों के बाद कई सवाल उठ खड़े हो गए हैं. मुख्य यह कि, आखिर क्या कारण है कि कट्टरपंथी भाजपा के उदय के साथसाथ ओवैसी का भी कद बढ़ता जा रहा है? एआईएमआईएम यानी औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीनजिस का हिंदी अनुवाद है अखिल भारतीय मुसलिम संघ, हालिया बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर की पार्टी बन कर उभरी है. बिहार के बाद हैदराबाद में निकाय चुनाव में भी उस का बेहतरीन प्रदर्शन रहा.

पहली दिसंबर को हैदराबाद नगर निगम में 150 वार्ड के लिए एआईएमआईएम ने 51 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, जिन में से 44 सीटों पर अपनी जीत दर्ज कराने के बाद उस के हौसले बुलंद हैं. जबकि भाजपा ने 149 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे और उन में से 48 सीटों पर विजय हासिल की. टीआरएस ने सभी 150 सीटों पर चुनाव लड़ा और 55 सीटों पर विजयी रही. कुल जमा यह कि तीसरे नंबर पर आ कर भी एआईएमआईएम की जीत का आंकड़ा अव्वल ही कहा जाएगा. जबकि भाजपा ने इस निकाय चुनाव में राष्ट्रीय स्तर के चुनाव की तरह अपनी पूरी ताकत झोंकी थी. पहली बार किसी निकाय चुनाव में पार्टी के उम्मीदवारों के समर्थन में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से ले कर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक ने कैंपेनिंग की थी.

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बीते 10 सालों में जैसेजैसे भाजपा ने देश में हिंदूमुसलिम, मंदिरमसजिद के नाम पर राजनीति कर के उभार पाया, तेलंगाना की इस क्षेत्रीय पार्टी एआईएमआईएम ने भी ध्रुवीकरण की इसी बिसात पर चालें चल कर चंद सालों में अपना वह रुतबा कायम कर लिया है कि आज किसी भी बड़े राज्य के चुनाव में शामिल हो कर वह देश की पुरानी जमीजमाई राजनीतिक पार्टियों का खेल बिगाड़ सकती है. एआईएमआईएम कोई नई राजनीतिक पार्टी नहीं है. यह 90 साल से ज्यादा पुरानी मजलिस से जुड़ी है. लेकिन, तकरीबन एक शताब्दी तक जो पार्टी अपने क्षेत्रीय स्तर की राजनीति से कभी आगे नहीं बढ़ पाई, भाजपा के शासनकाल में उस ने अगर इतनी तेजी से अपनी पकड़ व पहुंच बढ़ा ली है, तो इस का श्रेय भाजपा को जाता है. आज एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी और उन के भाई अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषणों में जोश, रोष व उग्रता जिसे देख कर मुसलमान खुद में ताकत महसूस करता है और उस की छाती चौड़ी हो जाती है. वहीं, वैसा ही जोश, रोष और उग्रता भाजपा नेताओं के भाषणों में हिंदुओं को दिखती है और उन को भी अपनी छाती 56 इंच की महसूस होती है. एआईएमआईएम और भाजपा दोनों ललकारते हैं, दोनों उकसाते हैं, दोनों डराते हैं और दोनों धु्रवीकरण की राजनीति में माहिर हैं. दोनों देश को बांटने का काम करते हैं और दोनों लोकतंत्र की रीढ़ में सिहरन पैदा करते हैं.

अपने प्रचारप्रसार के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल जिस तेजी से भाजपा न कर पाई, उस से कहीं अधिक तीव्रता से ओवैसी बंधुओं ने किया. देश की किसी भी अन्य राजनीतिक पार्टी में कोई भी मुसलमान नेता आज ओवैसी बंधुओं के आगे बौना नजर आता है. गौरतलब है कि 2014 में हुए तेलंगाना विधानसभा चुनाव में एआईएमआईएम ने 7 सीटें जीती थीं. फिर 2014 में ही महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 2 सीटें जीतने के बाद इस पार्टी ने अपना दर्जा एक छोटी शहरी पार्टी से हटा कर राज्य स्तर की पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया. बिहार में 5 सीटों पर जीत दर्ज करने के बाद पार्टी के हौसले बुलंद हैं. एआईएमआईएम अब पश्चिम बंगाल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगी, जहां 6 महीने के भीतर विधानसभा चुनाव होने हैं. बिहार की तुलना में बंगाल में मुसलमानों की कहीं बड़ी आबादी है.

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यह आबादी जो अब तक तृणमूल कांग्रेस या वाम दलों में अपना विश्वास जताती आई थी, ओवैसी बंधुओं को पूरी उम्मीद है कि इस पर अब की बार उन का कब्जा होगा, वे भाजपा द्वारा पैदा किए गए एनआरसी-सीएए के मुद्दे को उछाल कर मुसलामानों को अपने पाले में लाने में कामयाब होंगे. एआईएमआईएम से तृणमूल कांग्रेस, वाम दलों और कांग्रेस को तो भारी नुकसान पहुंचेगा, लेकिन फायदे में भाजपा रहेगी, क्योंकि मुसलिम वोट तो पहले भी उस को नहीं मिलने वाले थे और एआईएमआईएम इस को अन्य दलों से अपनी ओर खींच कर बाकी दलों को इतना कमजोर कर देगी कि वे गठबंधन के बाद भी सत्ता में आने का ख्वाब नहीं देख पाएंगे. ऐसा ही कयास उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव को ले कर भी लगाए जा रहे हैं, जहां एआईएमआईएम मुसलिम धु्रवीकरण के जरिए वोटकटवा की भूमिका अदा करेगी. इन्हीं आशंकाओं को ले कर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, बसपा और सपा तीनों पार्टियां चिंतित हैं, मगर भाजपा एआईएमआईएम के फैलाव से काफी उत्साहित है.

राजस्थान में भी असदुद्दीन ओवैसी के फौलोअर्स सोशल मीडिया पर कैंपेन चला रहे हैं. इस से उन की पार्टी के राजस्थान की राजनीति में पैठ बनाने की अटकलें तेज हो गई हैं. कहा जा रहा है कि बिहार के बाद उन की नजर राजस्थान की 40 मुसलिम बहुल सीटों पर है. वहां का मुसलिम मतदाता कांग्रेस के विकल्प के तौर पर ओवैसी की तरफ देख रहा है. कैसे बड़ा रुतबा और ताकत एआईएमआईएम मुसलमानों को केंद्र में रख कर बनाई गई कोई पहली पार्टी नहीं है. केरल की मुसलिम लीग हो या असम की एआईयूडीएफ अथवा उत्तर प्रदेश की पीस पार्टी, ये सभी पार्टियां इसी पहचान के साथ बनीं लेकिन ये अपने इलाके तक सीमित रही हैं. दूसरे, इन मुसलिम पार्टियों को भाजपा के कारण धु्रवीकरण का ज्यादा फायदा नहीं मिला. लेकिन एआईएमआईएम को भाजपा ने खूब फायदा दिया और अब यह हैदराबाद से निकल कर दूसरे राज्यों में अपनी राजनीतिक पैठ बना रही है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता अखिलेश प्रताप सिंह इसे भारतीय जनता पार्टी की बी-टीम की तरह से देखते हैं और लगभग सभी विरोधी दल इसे मुसलमानों की एक सांप्रदायिक पार्टी मानते हैं.

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कांग्रेस नेता शकील अहमद खान की नजरों में एआईएमआईएम के आगे बढ़ने के मुख्य 3 कारण हैं. पहला, इस के लीडर असदुद्दीन ओवैसी का बहुत ज्यादा पढ़ालिखा होना और एक बैरिस्टर होना. संसद में उन के तर्क भारतीय संविधान की सीमाओं में इतने सटीक होते हैं कि किसी को उस का तोड़ नहीं मिलता. पिछले 5 सालों में भाजपा सरकार की तरफ से जो जनविरोधी व मुसलिमविरोधी फैसले किए गए, संसद में ओवैसी ने जिस तर्कपूर्ण तरीके से उन्हें देशविरोधी साबित किया, मुसलिम युवाओं को लगता है कि संसद में ओवैसी ही उन की एकमात्र और बहुत मजबूत आवाज हैं. शकील अहमद खान की नजर में एआईएमआईएम की तरक्की की दूसरी वजह यह है कि जहां से इस पार्टी ने जीत दर्ज की है, उन इलाकों की आबादी में 70-75 फीसदी मुसलमान हैं.

वहां इस पार्टी का आगे बढ़ना, दरअसल, वहां की मुसलिम लीडरशिप का निकम्मापन है. और तीसरा कारण यह है कि अगर कोई सांप्रदायिक बातें करता है तो मुसलिम समाज के लोगों को उस का उतना ही सख्ती से विरोध करना चाहिए जो नहीं किया गया. उधर, भाजपा को भी सांप्रदायिकता फैलाने से रोका नहीं गया. जब से नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं, एक तरह से वे एआईएमआईएम को प्रमोट ही कर रहे हैं, चाहे वह महाराष्ट्र के चुनाव में हो, दिल्ली में स्थानीय निकायों के चुनाव में या फिर इस से पहले बिहार विधानसभा चुनाव में. मोदी व भाजपा का उद्देश्य यह है कि वे अल्पसंख्यकों के वोटों को बांट दें, जिस से उन को जीतने में आसानी हो. यह हकीकत है कि जब से मोदी आए हैं, दोनों तरफ कट्टरता की राजनीति में इजाफा हुआ है.’’ शकील अहमद खान मानते हैं कि ओवैसी बंधुओं की तरह लच्छेदार उर्दू बोलने या संसद में शेर पढ़ने से मुसलमानों के मसले हल नहीं हो सकते.

ओवैसी के भड़काऊ भाषणों से मुसलिम समाज का कोई फायदा नहीं होने वाला है. मुसलिम समाज या किसी भी समाज का फायदा एक सैक्युलर सियासत में ही हो सकता है. हालांकि, एआईएमआईएम के नेता इम्तियाज जलील अपनी पार्टी के बचाव में कहते हैं, ‘‘क्या ओवैसी कांग्रेस या दूसरी पार्टियों से पूछ कर सियासत करें. कांग्रेस दोहरी पौलिसी अपनाने वाली और मुसलमानों को धोखा देने वाली पार्टी है. मेरी नजर में कांग्रेस, एनसीपी जैसी पार्टियां एक थाली के चट्टेबट्टे हैं. इलैक्शन के वक्त मुसलमानों का इस्तेमाल करो और उस के बाद उन्हें भूल जाओ. ये पार्टियां अपने नुकसान की बात करती हैं जबकि बड़ा नुकसान तो मुसलमानों का हुआ है. ‘‘सोशल मीडिया के दौर में छोटा बच्चा भी देख रहा है कि क्या हो रहा है. मध्य प्रदेश में सैकुलरिज्म के नाम पर कांग्रेस के विधायक जीतते हैं और बाद में वे भाजपा की गोद में जा बैठते हैं. ‘‘2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में मुसलमान नीतीश कुमार के साथ खड़े थे क्योंकि उन्हें लगा कि मोदी को वही बिहार में हरा सकते हैं, लेकिन उन्होंने मुसलमानों के वोट हासिल किए और डेढ़ साल बाद मोदी से हाथ मिला लिया. ‘‘महाराष्ट्र में जो शिवसेना मुसलमानों को गालियां देती थी, अब कांग्रेस और एनसीपी उन के साथ मिल कर सरकार में हैं.

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यह कब तक चलेगा? कम से कम मुसलिम वोटरों को यह यकीन तो है कि एआईएमआईएम पार्टी कभी भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाएगी.’’ सामाजिक न्याय की दरकार दरअसल, इस देश में किसी को सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा है. यहां केवल मुसलमान ही पीडि़त नहीं हैं, बल्कि दलितों और गरीबों को भी सामाजिक न्याय नहीं मिल रहा है. दलित एक समय बहुजन समाज पार्टी के बैनर के नीचे जमा हुए पर भाजपा ने इसे ही खरीद लिया. ऐसे में मुसलमान बहुत तेजी से एआईएमआईएम के साथ जुड़ रहे हैं. आने वाले वक्त में इस पार्टी की सफलता सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देगी और इस का कारण भाजपा है. हिंदुत्व की राजनीति ने ही मुसलमानों की एक्सक्लूसिव पार्टी को बढ़ावा दिया है और यह ट्रैंड भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बड़े खतरे का पूर्व ऐलान है. इस से निबटने का एक ही उपाय है कि सैकुलर पार्टियों को मुसलमान, हिंदू और सभी धर्म के साधारण लोगों का विश्वास जीतना होगा. अभी न तो कट्टर हिंदू उन पर भरोसा कर रहे हैं और न ही डरे हुए मुसलमान.

ओवैसी का आकर्षण ओवैसी बड़े तर्कपूर्ण ढंग से और भारतीय संविधान के दायरे में मुसलमानों के हितों को संसद में उठाते हैं, साल 2014 में असदुद्दीन ओवैसी को ‘संसद रत्न’ पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है. उन्हें यह सम्मान 15वीं लोकसभा के चुनाव में किए गए उन के प्रदर्शन के चलते दिया गया था. असदुद्दीन ओवैसी संसद में मुसलमान समुदाय से जुड़े हर मुद्दा बड़ी बेबाकी से उठाते हैं, चाहे वह बाबरी मसजिद पर कोर्ट के फैसले का मुद्दा हो, कथित ‘लव जिहाद’ का मुद्दा हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का. उन की आवाज संसद में गूंजती है और अकसर दूसरे नेताओं की तुलना में वे बेहतर तर्क देते सुनाई देते हैं. वे बेबाक, खुल कर बोलते दिखते हैं. वर्ष 2008 के मुंबई हमलों के बाद ओवैसी ने निर्दोष लोगों की हत्या के लिए जाकिर रहमान लखवी और हाफिज सईद के खिलाफ कार्रवाई की मांग की थी. ओवैसी ने कहा था, ‘निर्दोष लोगों के हत्यारों के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए. जो हमारे देश के दुश्मन हैं, वे मुसलमानों के भी दुश्मन हैं. ऐसे लोगों को बख्शा नहीं जाना चाहिए.’ मुसलामानों के मसले किसी भी अन्य पार्टी के किसी मुसलमान नेता द्वारा संसद के पटल पर रखते नहीं देखा गया, मगर ओवैसी ने ऐसा कर के मुसलामानों के दिलों में अपनी जगह बनाई है.

वे मुसलमानों को किसी भी तरह लाचार नहीं दिखाना चाहते. यही कारण है कि भारत सरकार द्वारा हजयात्रा पर दी जाने वाली सब्सिडी को गलत बताते हुए उन्होंने कहा था कि सब्सिडी पर दिए जाने वाले पैसों को सरकार द्वारा मुसलिम महिलाओं की शिक्षा पर खर्च करना चाहिए. ओवैसी सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण का समर्थन करते हैं. वे उन के लिए रोजगार का मुद्दा उठाते हैं. वे मुसलमानों की धार्मिक आजादी और कुरान के नियमों को बनाए रखने की वकालत भी करते हैं. यही नहीं, वे हिंदुत्ववादी विचारधारा के खिलाफ हैं, लेकिन हिंदुओं या उन के धार्मिक विश्वासों के खिलाफ नहीं हैं. हैदराबाद की सड़कों पर छोटे ओवैसी यानी अकबरुद्दीन रोडशो करते हैं तो लाखों की संख्या में लोगों की भीड़ उन को देखनेसुनने के लिए सड़कों पर उतर आती है. अकबरुद्दीन स्मार्ट हैं, हैंडसम हैं, युवाओं के बीच गजब का आकर्षण रखते हैं. वे मंच से आग उगलते हैं, जोशीले भाषण देते हैं, लेकिन गरीब औरतों, बच्चियों को मदद का सामान बांटते वक्त बहुत विनम्र होते हैं. ये खूबियां उन की शख्सियत में चारचांद लगाती हैं. कोरोनाकाल में ओवैसी बंधुओं ने जगहजगह कैंप लगा कर लोगों को दवाइयां, खाना और कपड़ा बांटा, जबकि देश के दूसरे तमाम नेता कोरोना के डर से अपने बंगलों में दुबके पड़े रहे. अकबरुद्दीन ओवैसी ने खराब सेहत के बावजूद बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया और अपना सबकुछ बाढ़ की भेंट चढ़ा चुके लोगों को राशन, कपड़ा, दवा और पीने का साफ पानी मुहैया करवाया. उन के समर्थकों और उन की सोशल मीडिया टीम ने उन से दो कदम आगे बढ़ कर काम किया और तमाम वीडियो शूट कर के सोशल मीडिया के माध्यम से पार्टी के प्रसारप्रचार को गति दी.

मसीहा या मुसीबत यह सही है कि एक तरफ आम मुसलमानों में ओवैसी की पार्टी की लोकप्रियता बढ़ रही है, लेकिन दूसरी तरफ मुसलिम समाज के एक तबके में इस को ले कर चिंता भी उभर रही है. मुसलिम समुदाय में फिलहाल बहस का मुद्दा यह है कि क्या एआईएमआईएम समुदाय के लिए एक मसीहा बन कर उभर रही है या फिर यह आगे चल कर मुसलामानों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती है? इंडियन मुसलिम फौर प्रोग्रैस एंड रिफौर्म की सदस्या शीबा असलम फहमी कहती हैं, ‘‘एआईएमआईएम का लोकप्रिय होना खतरनाक है. यह बहुत अफसोसनाक भी है. हम लोगों को उम्मीद नहीं थी कि 1947 में जो इलाके बंटवारे से बेअसर रहे वहां पर टू-नेशन या दो कौमों का जो तसव्वुर है वह उन इलाकों में परवान चढ़ाया जा सकता है. उन इलाकों से हो कर बंटवारे की लकीर नहीं गुजरी, न उन इलाकों ने नफरतें देखी थीं, न शरणार्थियों का आना देखा था, न लुटे सरदारों और बंगालियों का आना देखा था. लेकिन अब उन्हें यह सब दिखायासमझाया जा रहा है.’’ शीबा आगाह करना चाहती हैं कि स्थिति देश के बंटवारे से पहले की तरह की बनती जा रही है. उन के अनुसार, इस की असल जिम्मेदार भाजपा है जिसे देश की अखंडता से अधिक हिंदू राष्ट्र बनाने की पड़ी है. शीबा कहती हैं कि भारत के मुसलमानों को सांप्रदायिकता की जगह सैकुलर सिस्टम की सब से अधिक जरूरत है. इसी सिस्टम में ही मुसलमान सुरक्षित रह सकते हैं. वे कहती हैं, ‘‘मुझे बहुत साफ दिख रहा है कि भाजपा चाहती है कि उस का विपक्ष उस की पसंद का होना चाहिए और ओवैसी साहब से वह अपनी पसंद का विपक्ष पैदा करवा रही है. ओवैसीरूपी विपक्ष ऐसा विपक्ष है जो भाजपा को सूट करता है.’’ बंटवारे के बाद मुसलमानों ने कभी मुसलिम पार्टी को वोट नहीं दिए. अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने मुसलिम नेताओं का सहारा नहीं लिया क्योंकि उन का मानना था कि जो पार्टी बहुसंख्यकों का खयाल रख सकती है वह उन के हितों का भी खयाल रख सकती है. इस देश की सैकुलर पार्टियों ने मुसलमानों का विश्वास खो दिया है. आज मुसलमान तंग आ चुके हैं इस राजनीति से, भाजपा के उदय के साथ तो उन का डर और भी बढ़ गया है.

युवाओं का जुड़ाव दिल्ली जामिया नगर इलाके के निवासी जैद अंसार, एआईएमआईएम के पक्के समर्थकों में से हैं. 32 साल के युवा जैद कहते हैं, ‘‘मुसलमानों को देश की सियासत और सत्ता से दूर रखने की कोशिश की जा रही है. हमें लगता है कि हम अनाथ हैं. हमारे लिए कोई बोलने वाला नहीं है. जो पार्टियां हमारे वोट हासिल करती आई हैं, जब हम पर जुल्म होता है, जब हम दंगों में मारे जाते हैं, तब वे खामोश रहती हैं. ऐसे में ओवैसी साहब ने हमें आवाज दी है. वे हमारे हक में बोलते हैं. इस से हमें ताकत मिलती है.’’ मुसलिम युवाओं के बीच एआईएमआईएम की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है. मुंबई में नसीर अहमद की गर्लफ्रैंड हुमैरा अपने किराए के घर को बदलने की चाहत में कई महीनों से औफिस के बाद प्रौपर्टी डीलरों के दफ्तरों के चक्कर काट रही थी. हुमैरा को मुसलमान होने के कारण दूसरा घर मिलने में परेशानी हो रही थी. हुमैरा एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करती है. वह उच्च शिक्षा प्राप्त है, राजनीति को समझती है और सैकुलर पार्टी में विश्वास रखती है. वह ओवैसी या जाकिर नाइक जैसे मुसलिम नेताओं को पसंद नहीं करती. उस के मुताबिक, ये कौम के नाम पर सांप्रदायिकता बढ़ाते हैं. जबकि उस के दोस्त नसीर अहमद का जुड़ाव एआईएमआईएम से है. हुमैरा ओवैसी की चर्चाओं से परेशान भी रहती है और इस बात को ले कर उस का नसीर व उस के दोस्तों से झगड़ा भी हो चुका है. हुमैरा कहती है, ‘‘मैं एक सैकुलर मुसलिम खानदान से ताल्लुक रखती हूं. मेरा कोई विश्वास एआईएमआईएम जैसी पार्टियों पर कभी नहीं रहा. लेकिन पिछले 6 महीने से मैं अपने रहने के लिए एक ठीकठाक घर की तलाश में हूं और हर जगह मेरे मुसलिम होने की वजह से दिक्कत आ रही है. अब मेरे जेहन में यह बात घूमने लगी है कि क्या अब तक मैं गलत थी और मेरा बौयफ्रैंड और उस के एआईएमआईएम समर्थक दोस्त सही हैं? क्या मुसलमानों को अब अपने नेता और पार्टी की जरूरत है जो उन के छोटेछोटे काम कर दें. यह तो एक डैमोक्रेटिक कंट्री के लिए भयावह बात है.’’

फहद अहमद भी मुंबई में रहते हैं. वे टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज के छात्र हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में रुचि के कारण वे चुनाव के दौरान बिहार में थे. वे कहते हैं, ‘‘मुसलमान युवाओं में यह एहसास है कि सैकुलर पार्टियां मुसलिम मुद्दे उठाती नहीं हैं, सिर्फ ओवैसी ऐसे मुद्दे उठाते हैं. ओवैसी की पार्टी का पनपना आखिरकार न तो देश के हक में ठीक है और न मुसलमानों के. लेकिन फिलहाल उन का बढ़ना रोका नहीं जा सकता क्योंकि सैकुलर पार्टियां अपना वर्चस्व खोती जा रही हैं. सैकुलर पार्टियों ने अगर मुसलमान नेताओं को जगह दी होती और वे संसद में मुसलमानों के मसले उठाने में कामयाब हुए होते तो ओवैसी की यह हैसियत कभी न बनती, जो आज बन चुकी है. हम न चाहते हुए भी उस से जुड़ने को मजबूर हैं क्योंकि वहां हमें ज्यादा सुरक्षा महसूस होती है.’’ भाजपा के कारण ओवैसी बंधुओं का कद बढ़ा : भाजपा खुश केंद्र और अधिकांश राज्यों में जब तक कांग्रेस व क्षेत्रीय पार्टियों की हुकूमत चली, एआईएमआईएम को अपने पैर पसारने का अवसर नहीं मिला, क्योंकि देश के मुसलमान को अपने किसी रहनुमा या किसी मुसलिम पार्टी की जरूरत ही महसूस नहीं हुई. उस का विश्वास इन सैकुलर पार्टियों में बना रहा. उस को लगता था कि जैसेजैसे देश में दलित, पिछड़े, आदिवासी और अन्य जातियोंजनजातियों का विकास होगा, उस का भी साथसाथ होता रहेगा. तब वह डरा हुआ भी नहीं था.

इत्मीनान से अपनी रोजीरोटी कमा रहा था. लेकिन, भाजपा के कारण समाज का ध्रुवीकरण होने लगा, धार्मिक ताकतें बढ़ीं और मुसलमान डराए जाने लगे. कभी मंदिर बनाने के नाम पर, कभी मसजिद तोड़ने के नाम पर, कभी गौहत्या के आरोपी बना कर, कभी आतंकवाद फैलाने के दोषी करार दे कर तो कभी एनआरसी-सीएए का हौआ खड़ा कर के मुसलमानों को भयभीत किया जाने लगा. ऐसे में एआईएमआईएम को तुरंत अपने पैर फैलाने का मौका मिल गया है. विज्ञान का नियम है, क्रिया की प्रतिक्रिया तय है. तो देश को भाजपा की क्रिया की प्रतिक्रिया एआईएमआईएम के रूप में प्राप्त हुई और अब लोकतंत्र के सत्यानाश के लिए देश में 2 धु्रव तैयार हो गए हैं- भाजपा और एआईएमआईएम. गौर करने वाली बात यह भी है कि ओवैसी बंधु मोदी सरकार की आलोचना करने से हमेशा बचने की कोशिश करते हैं. उन का निशाना अकसर कांग्रेस व दूसरे सैकुलर दल होते हैं. दरअसल, भाजपा और एआईएमआईएम दोनों सांप्रदायिक सियासत करने वाली पार्टियां हैं, दोनों की सोच एक है, कारगुजारियां एक हैं. इन दोनों का विरोध जरूरी है क्योंकि ये देश की एकता को भंग करने वाली ताकतें हैं. किसी भी तरह की सांप्रदायिकता देश की एकता के खिलाफ है, फिर चाहे वह हिंदू धार्मिकता हो या मुसलिम धार्मिकता. दूसरे शब्दों में, दोनों एकदूसरे के लिए खुराक हैं. इन दोनों की राजनीति से आने वाले वर्षों में देश को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा. द्य एआईएमआईएम का इतिहास औल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) भारत में एक मान्यताप्राप्त राजनीतिक दल है. इस का मुख्य कार्यालय हैदराबाद के पुराने शहर में है. एआईएमआईएम की जड़ें मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) से जुड़ी हैं, जो वर्ष 1928 में ब्रिटिशशासित भारत के हैदराबाद स्टेट में स्थापित हुई थी.

एआईएमआईएम 1984 से हैदराबाद निर्वाचन क्षेत्र की लोकसभा सीट लगातार जीतती आ रही है. वर्ष 2014 के तेलंगाना विधानसभा चुनावों में एआईएमआईएम ने 7 सीटों पर जीत हासिल की और भारत के चुनाव आयोग द्वारा ‘रा पार्टी’ के रूप में मान्यताप्राप्त की. इस पार्टी के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी हैं. असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद के निजाम कालेज (उस्मानिया विश्वविद्यालय) से कला में स्नातक की पढ़ाई पूरी की. उन्होंने 1994 में विज्जी ट्रौफी में तेज गेंदबाज के रूप में दक्षिण क्षेत्र अंतरविश्वविद्यालय अंडर-25 की क्रिकेट टीम का प्रतिनिधित्व किया. बाद में वे दक्षिण क्षेत्र विश्वविद्यालय टीम में चुने गए. असदुद्दीन ओवैसी पेशे से बैरिस्टर हैं. उन्होंने लंदन के लिंकन इन कालेज में बैचलर और लौज और बैरिस्टर ऐट लौ का अध्ययन किया है. उन के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी तेलंगाना विधानसभा के सदस्य हैं और प्रदेश में पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं. उन के सब से छोटे भाई बुरहानुद्दीन ओवैसी ‘इत्तेमाद’ के संपादक हैं. एआईएमआईएम की उत्पत्ति मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एमआईएम) से हुई है. मजलिस के इतिहास को 2 हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला हिस्सा, 1928 में नवाब महमूद नवाज खान के हाथों स्थापना से 1948 तक, जब यह संगठन हैदराबाद को एक अलग मुसलिम राज्य बनाए रखने की वकालत करता था. इस संगठन के संस्थापक सदस्यों में हैदराबाद के राजनेता सैयद कासिम रिजवी भी शामिल थे जो रजाकार नाम के हथियारबंद संगठन के मुखिया थे.

एमआईएम को खड़ा करने में रजाकार के सदस्यों की अहम भूमिका थी. वर्ष 1948 में हैदराबाद स्टेट के भारत में विलय होने के बाद भारत सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था. दूसरा भाग 1957 में इस पार्टी की बहाली के साथ शुरू हुआ. तब इस ने अपने नाम में ‘औल इंडिया’ जोड़ा और साथ ही, अपने संविधान को बदला. कासिम रिजवी, जो हैदराबाद राज्य के विरुद्ध भारत सरकार की कार्रवाई के समय मजलिस के अध्यक्ष थे और गिरफ्तार कर लिए गए थे, ने पाकिस्तान चले जाने से पहले इस पार्टी की बागडोर उस समय के मशहूर वकील अब्दुल वाहिद ओवैसी के हवाले कर गए. उस के बाद से यह पार्टी इसी परिवार के हाथ में रही है. अब्दुल वाहिद के बाद सलाहुद्दीन ओवैसी इस के अध्यक्ष बने और अब उन के पुत्र असदुद्दीन ओवैसी पार्टी के अध्यक्ष हैं. असदुद्दीन ओवैसी लोकसभा के सदस्य हैं, जबकि उन के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी तेलंगाना विधानसभा में पार्टी के नेता हैं. पार्टी ने पहली चुनावी जीत वर्ष 1960 में दर्ज की थी, जब सलाहुद्दीन ओवैसी हैदराबाद नगरपालिका के लिए चुने गए थे. उस के 2 वर्ष बाद वे विधानसभा के सदस्य बने. और तब से मजलिस की राजनीतिक शक्ति लगातार बढ़ती गई. इस परिवार और मजलिस के नेताओं पर आरोप लगाए जाते हैं कि वे भड़काऊ भाषणों से हैदराबाद में सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा देते रहे हैं. लेकिन दूसरी ओर मजलिस के समर्थक, उसे भारतीय जनता पार्टी व दूसरे कट्टर हिंदू संगठनों का जवाब देने वाली शक्ति के रूप में देखते हैं. राजनीतिक शक्ति के साथसाथ ओवैसी परिवार ने समाज कल्याण के बहुतेरे कार्य बढ़चढ़ कर किए हैं.

उन्होंने मैडिकल और इंजीनियरिंग कालेज के साथ कई अस्पतालों का निर्माण कराया है. मजलिस के अस्पतालों में गरीबों का मुफ्त इलाज होता है. असदुद्दीन ओवैसी हैदराबाद स्थित ओवैसी हौस्पिटल एंड रिसर्च सैंटर के अध्यक्ष भी हैं, जिस का शिलान्यास मौलाना अब्दुल वाहिद ओवैसी ने किया था. अस्पताल में अल्ट्रा आधुनिक उपकरणों की विशेष व्यवस्था है, जिस के चलते अस्पताल चिकित्सा शिक्षा, अनुसंधान और चिकित्सा देखभाल के क्षेत्र में उत्कृष्टता के केंद्र के रूप में कार्यरत है. ओवैसी हौस्पिटल एंड रिसर्च सैंटर में अनुसंधान कार्यक्रम प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शोध एजेंसियों के सहयोग से किया जा रहा है. ओवैसी परिवार गरीब मुसलमान बच्चों की शिक्षा व उन की शादियों का प्रबंध भी करता है. बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाना, दौरे करना, लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाना और उन के दवाइलाज की व्यवस्था करना अकबरुद्दीन ओवैसी की देखरेख में बड़े पैमाने पर किया जाता देखा गया है.

प्रौढ और वृद्ध  नेताओं की गिरफ्त में युवा नेता                 

40 से 50 साल उम्र के नेताओं को युवा नेता कहा जाना बताता है कि भारतीय राजनीति में युवाओं की क्या हालत है ? इस उम्र में भी बडे राजनीतिक परिवारों के युवाओं को भले ही गंभीरता से लिया जाता हो पर सामान्य वर्ग के युवा नेता केवल शो पीस ही बने रहते है. युवाओं के देश में दशा  और दिशा तय करने का हक युवाओं को नहीं है. राजनीतिक दलों के युवा संगठनों के नेता भी फकत तमाशाई ही नजर आते है. राजनीति की मुख्यधारा में उनकी कोई पूछ नहीं है. पंचायत और निकाय चुनावों में युवा चेहरे काफी दिखते है पर मुख्य राजनीति में वह भी खो जाते है.

राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और चन्द्रशेखर रावण जैसे युवा नेताओं में एक समानता भी है कि यह सभी अपनी और विपक्षी पार्टी के प्रौढ नेताओं की गिरफ्त में है. इस कारण यह युवा नेता अपनी क्षमता के अनुसार काम नहीं कर पाते है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी इसका का सबसे बडा प्रमाण है. राहुल गांधी का जन्म 19 जून 1970 को हुआ था. राहुल गांधी की शुरूआती शिक्षा  दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में की और इसके बाद वह दून विद्यालय में पढ़ने चले गये. सन 1981-83 तक सुरक्षा कारणों के कारण राहुल गांधी को अपनी पढ़ाई घर से ही करनी पड़ी. राहुल ने हार्वर्ड विश्वविद्यालय के रोलिंस कॉलेज फ्लोरिडा से सन 1994 में कला स्नातक की उपाधि प्राप्त की. इसके बाद सन 1995 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से एम.फिल. की उपाधि प्राप्त की.

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स्नातक स्तर तक की पढ़ाई कर चुकने के बाद राहुल गांधी ने मैनेजमेंट गुरु माइकल पोर्टर की कंपनी मॉनीटर ग्रुप के साथ 3 साल तक काम किया. सन 2002 के अंत में वह मुंबई में स्थित इनफारमेंषन और टैक्नलौजी से संबंधित कम्पनी ‘आउटसोर्सिंग कंपनी बैकअप्स सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड‘ के निदेशक-मंडल के सदस्य बन गये. राहुल गांधी का राजनैतिक कैरियर 2003 में शुरू  हुआ. वह पार्टी के कार्यक्रमों में दिखाई देने लगे. मई 2004 में राहुल गांधी ने चुनाव लड़ने की घोषणा की. उत्तर प्रदेश की अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरे और बहुमत से चुनाव जीता. 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों कांग्रेस ने 22 सीटें ही जीतीं.

राहुल गांधी को 24 सितंबर 2007 में कांग्रेस में महासचिव नियुक्त किया गया. इसके साथ ही साथ राहुल गांधी को युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ का कार्यभार भी दिया गया. 2009 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी ने अमेठी से चुनाव जीता और कांग्रेस को इन चुनावों में उत्तर प्रदेश  की 80 लोकसभा सीटों में से 21 मिली. इसका श्रेय भी राहुल गांधी को ही दिया गया 2009 के लोकसभा चुनावों में देश भर में उन्होंने 125 रैलियों में भाषण दिया था. राहुल गांधी ने 2014 में भी लोकसभा का चुनाव जीता पर उनकी पार्टी को केवल 2 सीटें ही हासिल हुई. लोकसभा के इस चुनाव में देष में ‘मोदी लहर’ चली. भाजपा की सरकार बनी. भारतीय जनता पार्टी ने राहुल गांधी की ‘इमेज’ पर हमला करना शुरू किया. सोशल मीडिया पर उनको ‘पप्पू‘ साबित करने का प्रयास शरू  किया.

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कांग्रेस और भाजपा के बीच जब राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबला शुरू हुआ तो राहुल गांधी का मुकाबला नरेद्र मोदी के साथ षुरू हुआ. 2017 में राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. राहुल गांधी से 20 साल बडे नरेन्द्र मोदी ने प्रचार और सरकार की ताकत से युवा राहुल गांधी का राजनीतिक रूप से हाशिये पर ढकेलना शुरू किया. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव के साथ चुनावी तालमेल किया. यहां भी राहुल-अखिलेश के रूप में युवा नेताओं की जोडी भाजपा के बडी उम्र के नेताओं के मुकाबले हार गई. 2017 में भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बना ली. इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को अमेठी संसदीय सीट पर हार का सामना करना पडा. जिसको राहुल गांधी की सबसे बडी हार मानी गई.

राहुल गांधी के चुनाव हारते ही खुद कांग्रेस पार्टी के बूढे नेता उनकी आलोचना करने लगे. 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पडा. सोनिया गांधी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनी. युवा राहुल गांधी की आलोचना कांग्रेस और कांग्रेस के बाहर के बूढे नेताओं ने करनी शुरू कर दी. बूढे नेताओं की गिरफ्त में फंसे राहुल गांधी अपनी पूरी क्षमता से पार्टी के पक्ष में फैसले नही ले पा रहे है. पार्टी के युवा नेता जीशान हैदर कहते है ‘कांग्रेस पार्टी और देश के लोगों को राहुल गांधी पर पूरा भरोसा है. वह भाजपा के मिथ्याप्रचार को तोड कर बाहर आयेगे.‘

‘टीपू‘ ही बने रहे अखिलेश : समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव का जन्म 1 जुलाई 1973 को इटावा जिले के सैफई गाँव में हुआ था. अखिलेश  मुलायम सिंह यादव की पहली पत्नी मालती देवी के बेटे है. अखिलेश यादव की शादी डिम्पल यादव के साथ 24 नवंबर 1999 को हुई थी. अखिलेश तीन बच्चों के पिता है. अखिलेश ने राजस्थान मिलिट्री स्कूल धौलपुर से शिक्षा प्राप्त की. इसके बाद मैसूर के एसजे कालेज ऑफ इंजीनियरिंग स्नातक की डिग्री हासिल की. सिडनी विश्वविद्यालय से पर्यावरण इंजीनियरिंग में पोस्टग्रेजुएट किया. अखिलेश ने मई 2009 के लोकसभा उप-चुनाव में फिरोजाबाद सीट जीत कर सांसद बने.

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2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को हरा कर अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री बने. इसके पहले वह लगातार तीन बार सांसद भी रह चुके हैं. अखिलेश यादव को कम उम्र में ही राजनीति की पूरी समझ हासिल हो गई. उम्र में कम होने के बाद भी वह अनुभव में परिपक्वय रहे है. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी समाजवादी पार्टी के कई नेेता उनको घरेलू नाम ‘टीपू’ से ही संबोधित करते रहे. इसकी सबसे बडी वजह यह थी कि पार्टी के तमाम नेता उनके पिता मुलायम सिंह यादव के हम उम्र थे. वह सभी मुख्यमंत्री बनने के बाद भी अखिलेश  यादव को ‘बच्चा’ ही समझते रहे. अखिलेश भी पार्टी के नेताओं को संकोच वश सही तरह से किसी काम के लिये मना भी नहीं कर पाते थे.

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को बच्चा समझने वालों में अखिलेश  के चाचा शिवपाल यादव भी थे. मुख्यमंत्री बनने के बाद भी समाजवादी पार्टी के नेता यह समझते थे कि अखिलेश उनके लिये ‘टीपू‘ बने रहे. अखिलेश पिता मुलायम सिंह यादव, चाचा शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव, आजम खान और दूसरे पार्टी नेताओं के दबाव में काम करने लगे. जब अखिलेश को दबाव अधिक लगा तो उन्होने अपनी आवाज उठानी शुरु  की. इसके बाद समाजवादी पार्टी में विभाजन हो गया. चाचा शिवपाल यादव ने अपनी अलग पार्टी बना ली.

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अखिलेश यादव ने अपने कार्यकाल मे उत्तर प्रदेश के विकास के लिये तमाम काम किये. इनमें ‘आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे‘, ‘यू.पी.100 पुलिस सेवा‘, ‘108 एंबुलेन्स फ्री सेवा‘, लखनऊ मैट्रो रेल, लखनऊ इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम, जनेश्वर मिश्र पार्क (एशिया का सबसे बड़ा पार्क), जयप्रकाश नारायण इंटरनेशनल सेंटर, लखनऊ- बलिया समाजवादी पूर्वांचल एक्सप्रेसवे 2, आदि का निर्माण हुआ. प्रदेश मे युवाओ को बड़ी मात्रा में लैपटाॅप भी अखिलेश सरकार में वितरित किये गये. अखिलेश  की पहचान विकास करने वाले युवा मुख्यमंत्री की थी पर अपनी पार्टी और परिवार के बडे बूढों की गिरफ्त से बाहर नहीं निकल पायें जिसके बाद वह 2017 का विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव अखिलेश को हार का सामना करना पडा.

राजनीतिक समीक्षक रजनीश राज कहते है ‘अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के सबसे युवा मुख्यमंत्री ही नहीं विकासवादी सोच में सोच में सबसे बेहतर मुख्यमंत्री रहे. अगर पार्टी के बुजुर्ग लोग इस बात को समझ कर अखिलेश को सहयोग देते तो अखिलेश यादव हो हरा पाना सभंव नहीं था. समाजवादी पार्टी ही हार में पार्टी विभाजन का सबसे बडा योगदान था.‘

तेजस्वी ने पिलाया दिग्गजों को पानी:राहुल गांधी और अखिलेश यादव की ही तरह से बिहार में तेजस्वी यादव का नाम भी लिया जाता है. तेजस्वी यादव को 2020 के विधानसभा चुनावों में भले ही सरकार बनाने सफलता ना मिली हो पर उसने दिग्गज नेताओं को पानी पिलाया दिया. भारतीय जनता पार्टी जनता दल युनाइटेड यानि जदयू के नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से हटाकर अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाने की योजना बनाई थी. तेजस्वी यादव ने भाजपा के विजय रथ को रोक कर बराबर की टक्कर दी जिससे भाजपा जदयू के पीछे चलने को मजबूर हो गई.

तेजस्वी प्रसाद यादव का जन्म 8 नवम्बर 1989 को हुआ था. वह बिहार के राघोपुर विधानसभा से और बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष है. तेजस्वी यादव राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव एवं राबड़ी देवी के पुत्र है. राजनेता के साथ ही साथ वह क्रिकेटर भी है.  दिल्ली डेयरडेविल्स के लिए तेजस्वी यादव ने आईपीएल मैंच भी खेला है. नीतीश कुमार की अगुवाई वाले महागठबंधन सरकार में तेजस्वी बिहार के डिप्टी सीएस भी रहे है. 2020 के विधानसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल को तेजस्वी ने अपनी रणनीति से मुख्य मुकाबले में खडा कर दिया. भाजपा के बूढे नेताओं के दांवपेंच में फंस तेजस्वी यादव कुछ सीटों से पीछे रह गये और बिहार में सरकार नहीं बना पाये. जानकार लोग कहते है कि तेजस्वी के पास अभी समय है और वह भविष्य के बिहार के नेता है.

चन्द्रशेखर से डरी मायावती :भीम आर्मी के अध्यक्ष चंद्रशेखर उर्फ रावण ने दलित राजनीति में अपना प्रभाव स्थापित कर लिया है. बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती उनसे खौफ खाने लगी है. साल 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी और योगी आदित्यनाथ प्रदेश  के मुख्यमंत्री. उसी दौर में सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में दलितों और सवर्णों के बीच हिंसा हुई. इस हिंसा के दौरान ‘भीम आर्मी‘ नाम संगठन उभरकर सामने आया. ‘भीम आर्मी’ का पूरा नाम ‘भारत एकता मिशन भीम आर्मी‘ है. इसका गठन करीब 2011 में किया गया था. इस संगठन के संस्थापक और अध्यक्ष हैं चंद्रशेखर रहे. जिन्होंने अपना उपनाम ‘रावण‘ रखा हुआ है. वह पेशे से वकील है. परिवार में दो बहनें हैं. जिनमें से एक की शादी हो चुकी है और दो भाई हैं. चंद्रशेखर खुद अविवाहित हैं. उनका दूसरा भाई पढ़ाई के साथ-साथ एक मेडिकल स्टोर पर नौकरी करता है. एक चचेरा भाई है जो इंजीनियर है.

शब्बीरपुर में हुई हिंसा के बाद चन्द्रशेखर ने 9 मई 2017 को सहारनपुर के रामनगर में महापंचायत बुलाई थी. सैंकड़ों की संख्या में लोग इसमें शामिल होने के लिए पहुंचे जिन्हें रोकने के दौरान पुलिस और भीम आर्मी के समर्थकों के बीच संघर्ष हुआ और इसके बाद चंद्रशेखर के खिलाफ मामला दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. भीम आर्मी दलित युवाओं का एक पसंदीदा संगठन बन गया है. बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़े हुए हैं. इस संगठन में दलित युवकों के साथ साथ पंजाब और हरियाणा के सिख युवा भी जुड़े हैं. सहारनपुर, शामली, मुजफ्फरनगर समेत पश्चिमी यूपी में यह संगठन अपनी खास पहचान बनाए हुए है.भीम आर्मी का उद्देश्य दलित समाज की सेवा करना और इस समाज की गरीब कन्याओं के लिए धन जुटाकर उनका विवाह कराना था. रामनगर में हुई घटना के बाद इस संगठन का स्वरूप बदल गया. गुजरात के उना में दलितों की पिटाई और हैदराबाद में रोहित वेमुला की आत्महत्या के मामले को उठाने के बाद चन्द्रशेखर राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सफल हो गये. मायावती जैसे बूढे नेता चन्द्रशेखर को बडा नहीं होने देना चाहते है.

राजनीति में युवाओं की अनदेखी: राहुल गांधी, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और चन्द्रशेखर रावण जैसे युवा नेताओं का जिक्र केवल उदाहरण भर है. देश में तमाम युवा नेता ऐसे है जिनको उभरने नही दिया जा रहा है. यह बडे युवा नेताओं के नाम है. सामान्य युवा नेताओं को राजनीति के राष्ट्रीय फलक पर उभरने नहीं दिया जा रहा है. हर दल में एक सा ही व्यवहार युवा नेताओं के नाम पर किया जा रहा है. कहने के लिये भारत में युवाओं की संख्या तेजी से बढती जा रही है. इसके बाद भी युवा नेताओं को आगे बढने नहीं दिया जा रहा है. कुछ हद तक पंचायतों और स्थानीय निकाय चुनावों में युवा नेता चुनाव जीत कर आते है. वह भी राजनीतिक दलों के बडे नेताओं के पिछलग्गू बने रहते है.

वरिष्ठ पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते है ‘राजनीति में जब युवा नेताओं की बात होती है उनमें राहुल गांधी, अखिलेश  यादव, सचिन पायलेट, ज्योतिरादित्य, सुप्रिया सूले, उमर अब्दुल्ला, तेजस्वी यादव और चन्द्रशेखर रावण प्रमुख है. कमोवेश यह सभी नेता 40 साल उम्र की आयु के है. यह युवा नहीं अधेड नेता है. 60 साल रिटायरमेंट की अवस्था और 50 साल के राहुल गांधी को युवा नेता कहना कितना जायज है सोचने वाली बात है. युवावस्था की बात करे तो 25 से 35 साल को इस वर्ग में रखा जा सकता है. इस आयु तक के नेताओं को राजनीति में कोई जगह नहीं दी जाती है. अखिलेश 40 साल की अवस्था में मुख्यमंत्री बने तो उनकी पार्टी के बडे नेता उनको ‘टीपू’ ही समझते रहे. जिसके फलस्वरूप समाजवादी पार्टी का विभाजन तक हो गया. अगर सपा के नेताओं ने अखिलेश यादव पर भरोसा किया होता तो पार्टी नहीं टूटती. राहुल गांधी 45 साल की उम्र में जब कांग्रेस अध्यक्ष बने तो उनकी पार्टी के बुजुर्ग नेताओं ने गंभीरता से नहीं लिया.  

Indian idol 12 के सेट पर पति रोहनप्रीत ने नेहा कक्कड़ के लिए कहीं ये बात तो हो गई इमोशनल

सोनी टीवी का लोकप्रिय सिंगिग रियलिटी शो इंडियन आइडियल अब तक दर्शकों के बीच अपना जलवा बिखेरने में कामयाब रहा है. इस शो पर हर दिन दर्शक अपने पर्फॉर्मेंस से फैंस का दिल जीतने में कामयाब हो रहे हैं.

इस बीच इंडियन ने लोगों का ध्यान अपनी तरफ खीचने के लिए शादी एपिसोड़ रखा है. जिसमें रोहनप्रीत और नेहा कक्कड़ और हर्ष लिंबाचिया के साथ उनकी पत्नी भारती सिंह मेहमान बनकर आएं.

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नेहा और रोहनप्रीत शादी के बाद पहली बार इंडियन आइडियल के मंच पर दिखें, यहीं नहीं रोहनप्रीत ने इस बात का जिक्र करते हुए कहा कि रोहनप्रीत का पूरा परिवार नेहा कक्कड़ पर गर्व महसूस करता है. कि वह उनके परिवार कि बहू हैं.

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इतने बड़े स्टेज पर खड़ा होने के लिए रोहनप्रीत नेहा कक्कड़ को शुक्रगुजार मानते हैं. यहीं नहीं उन्होंने अपने मां से भी इस बात का जिक्र किया कि नेहा कि वजह से ही उन्हें इस प्रतिष्ठित मंच पर आने का मौका मिला है.

वहीं नेहा कक्कड़ अपनी पति की इस बात को सुनकर इमोशनल होती दिखी. जिसके बाद नेहा को रोहनप्रीत ने संभाला . नेहा और रोहन की जोड़ी फैंस को काफी ज्यादा पसंद आती है. दोनों को साथ में देखकर यहीं लगता है कि य़े दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं.

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रोहनप्रीत ने सभी के सामने कहा कि यह सबसे बड़े स्टेज में से एक से यहां सिर्फ मैं अपनी पत्नी की वजह से खड़ा हूं. आगे उन्होंने कहा कि मुझे नेहा पर गर्व होता है कि वह जिस भी चीज को छू जाती है वह सोना बन जाता है.

अनुष्का शर्मा पति विराट कोहली के साथ पहुंची क्लीनिक तो फैंस ने दी बधाई

अनुष्का शर्मा और विराट कोहली जल्द ही पेरेंट्स बनने वाले हैं. जब अनुष्का ने अपनी प्रेग्नेंसी की घोषणा की थी, तब उन्होंने एक्सपेक्टेड टाइम जनवरी बताया था. तब से माना जा रहा है कि अनुष्का शर्मा जनवरी में मां बनेगी.

इसलिए इन दिनों अनुष्का शर्मा लगातार डॉक्टर्स के पास सलाह मशवरा लेने के लिए जा रही हैं. वे रुटीन चेकअप के लिए भी डॉक्टर्स के पास आते जाते रहती हैं. बुधवार के दिन अनुष्का शर्मा रुटीन चेकअप के लिए पति विराट कोहली के साथ डॉक्टर्स के पास गई थी.

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इस दौरान अनुष्का शर्मा की तस्वीर को कैमरा में कैद कर लिया गया . अनुष्का शर्मा ने सफेद और ग्रे रंग की ड्रेस पहनी थी और मास्क को लगाया था.

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वहीं विराट कोहली भी सफेद सी ड्रेस पहने नजर आ रहे थें. दोनों की विजीट की तस्वीर सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है.

वहीं विराट और अनुष्का के फैंस सोशल मीडिया पर कयास लगा रहे हैं कि दोनों एक बेटे के पेरेट्स बनेंगे. फैंस दोनों को अभी से बधाई देनी शुरू कर दी हैं.  अनुष्का शर्मा ने अपना बेबी बंप जमकर फ्लॉन्ट किया है.

प्रेग्नेंसी में भी अनुष्का शर्मा बला कि खूबसूरत लग रही हैं. बता दें कि अगस्त के महीने में दोनों ने पेरेट्स बनने की घोषणा कि थी. इसके बाद से ही लगातार दोनों के फैंस लगातार इस खुशखबरी का इंतजार कर रहे हैं.

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बता दें कि विराट और अनुष्का ने इस काम के लिए ही ऑस्ट्रेलिया दौरे से छुट्टी ली है. वह अपना पूरा समय फैमली को देना चाहते हैं. इसलिए उन्होंने बीच में ही अपना प्लान कैंसिल कर घर वापस आ गए हैं.

कुछ महीने पहले अनुष्का विराट दुबई में थें वहां भी अनुष्का शर्मा लगातार सोशल मीडिया पर एक्टिव नजर आ रही थी. जिससे अनुष्का के फैंस उन्हें बहुत सारा प्यार देते नजर आ रहे थें.

विराट अनुष्का कि जोड़ी को फैंस बहुत ज्यादा पसंद करते हैं. दोनों साथ में क्यूट कपल नजर आते हैं.

मेरी उम्र 20 वर्ष है मैं अपने होठ फटने से परेशान हूूं क्या करें?

सवाल

मैं 20 वर्षीय युवती हूं. सर्दी का मौसम आते ही मेरे होंठ फटने शुरू हो जाते हैं. लिपबाम लगाती हूं, लेकिन थोड़ी देर बाद वे फिर रूखे हो जाते हैं. लिपस्टिक लगाना मुझे पसंद नहीं. ऐसे में कैसे रखूं अपने होंठ नर्म और मुलायम?

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जवाब

सर्दी के मौसम में सर्द और शुष्क हवाएं होंठों की नमी को कम कर देती हैं. सर्दी के चलते आप फटे होंठों से परेशान हैं तो ग्लिसरीन का इस्तेमाल कर सकती हैं. रोज ग्लिसरीन लगाने से होंठों को पोषण मिलता है, जिस से होंठ मुलायम बने रहते हैं. कौटन को ग्लिसरीन में डुबोएं, रात को सोने से पहले लिप्स पर लगाएं. इस के अलावा चाहें तो एलोवेरा जैल, बादाम का तेल, दूध की मलाई रात को होंठों पर लगा कर सो सकती हैं. ये ऐसे घरेलू उपचार हैं जिन से त्वचा की नमी बनी रहती है. कुछ और बातों का भी ध्यान रखें, जैसे पोषक तत्त्व युक्त खाद्य पदार्थों को डाइट में शामिल करें. होंठों को दांतों से न काटें. पर्याप्त मात्रा में पानी और जूस का सेवन करें ताकि शरीर हाईड्रेट रहे और होंठ सूखें नहीं. धूम्रपान न करें

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अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

जनता का दर्द नहीं सुनना चाहती सरकार

शासक का पहला कर्तव्य होता है कि वह जनता के दर्द को, उस की तकलीफों को सुने. यही कारण था कि आजाद भारत में जनता की तकलीफों को सुनने के लिए हर शहर में धरनास्थल बनाए. लेकिन सत्ता के घमंड व नशे में डूबे शासक आज जनता के दर्द को सुनना नहीं चाहते और ये धरनेस्थल हटाए जा रहे हैं. ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय’ कहावत बताती है कि निंदा करने वाले को भी पूरा अधिकार देना चाहिए. लेकिन आज सरकार निंदा करने वाले या अपना दर्द सुनाने वाले को अपने से ज्यादा से ज्यादा दूर रखना चाहती है. इस की वजह से धरना देने, प्रदर्शन करने और अपनी बात सुनाने की आड़ में अराजकता भी होने लगी है.

जनता का दर्द सीधे सुनने के लिए कुरसी पर बैठे नेताओं को प्रयास करने चाहिए, तभी देश में असल लोकतंत्र स्थापित हो सकेगा. दर्द को सुनना, दरअसल, दर्द को दूर करने की एक प्रक्रिया है जो हर शासनकाल में रही है. रामायण काल में ‘कोपभवन’ होता था. कोपभवन में जाने का यह मतलब होता था कि व्यक्ति को दर्द है, वह पीडि़त है और न्याय चाहता है. कोपभवन में आए व्यक्ति की बात सुनना और उसे न्याय देना राजा का धर्म होता था. कैकई और राजा दशरथ का प्रसंग सब को याद है. आजाद देश में भी कोपभवन की जरूरत पर बल दिया गया था. मुगल बादशाह जहांगीर ने अपने महल के बाहर एक घंटा लगवाया था. जहांगीर का आदेश था कि इस घंटे को बजाने वाले का दर्द वे खुद अगले दिन दरबार में सुनेंगे. जब पीडि़त की बात सीधे राजा तक पहुंचने लगती है,

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तब नीचे काम करने वाले लोग डरने लगते हैं. जब राजा जनता का दर्द सुनने से परहेज करने लगता है तब शासन करने वाले लोग बेफिक्र हो जाते हैं. उन को लगता है कि अब तो राजा वही सुनेंगे जो उन के कर्मचारी सुनाएंगे. आजाद देश में जनता का दर्द सुनने के लिए ही हर शहर में धरनास्थल बनाए गए थे. धरनास्थलों पर बहुत सारे लोग अपनी पीड़ा बयान करने आते थे. सरकार के अफसर ऐसे लोगों से मिल कर उन की शिकायत सरकार तक पहुंचाने का काम करते थे. कई बार विरोधी नेता भी धरनास्थल पर बैठ कर अपनी बात कहते थे. शांतिपूर्वक अपनी बात कहने की धरनास्थल एक व्यवस्था थी. धीरेधीरे सरकारों ने इस व्यवस्था को खत्म करने का काम शुरू किया. इस के बाद नाराज लोग सड़कों पर उतर कर अपनी बात कहने लगे. इस से अराजकता बढ़ने लगी. सरकार को पुलिस का प्रयोग कर के ऐसे विरोध को दबाने का अधिकार मिलने लगा. धरनास्थल को सरकार की नजर से दूर कर दिया गया ताकि उस के कानों तक जनता का दर्द न पहुंचे. इस से साफ है कि सरकार जनता का दर्द सुनना नहीं चाहती.

14 साल बाद मिला न्याय मथुरा की रहने वाली सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल कटोरी देवी को परेशान करने के लिए प्रशासन ने तबादले को हथियार की तरह से प्रयोग किया. हर साल उस का तबादला कर दिया जाता था. कुछ ही वर्षों की नौकरी के दौरान 32 बार उस का तबादला किया गया. कटोरी देवी का कहना था कि वह रिश्वत नहीं देती जिस की वजह से उस को परेशान किया जाता था. कटोरी देवी को जब कोई रास्ता नहीं समझ आया तो 1982 में वह नौकरी से बिना छुट्टी लिए विभाग की शिकायत करने सीधे राजधानी लखनऊ चली आई. शिक्षा विभाग में उस की बात सुनी नहीं गई. वह सचिवालय भी गई, जो विधानसभा भवन के अंदर होता था, वहां भी उसे न्याय नहीं मिला. विधानसभा भवन से जब बाहर कटोरी देवी आई तो गेट नंबर 2 के सामने उसे न्याय के लिए धरना देते लोग दिखे. कटोरी देवी भी सरकार और सरकारी विभागों से परेशान हो चुकी थी, उसे लगा कि यही आखिरी रास्ता है. कटोरी देवी के पास सर्विस की कुछ फाइलें थीं. इस के अलावा झोले में पहनने के लिए 2 जोड़ी कपड़े. कटोरी देवी धरनास्थल पहले बोरी बिछा कर बैठी, बाद में कागज, प्लास्टिक और बांस के कुछ टुकड़ों को जोड़ कर अपने रहने के लिए आसरा बना लिया. इस के बाद सालोंसाल यही कटोरी देवी का ठिकाना बन गया था.

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कई बार पुलिस ने उस को वहां से भगाया, बैठने की जगह उखाड़ दी, जेल भेजा पर, हर अत्याचार सह कर भी कटोरी देवी अपने इरादे पर टिकी रही. जब भी विधानसभा का सत्र चलता तो यह जगह और गुलजार हो जाती थी. कटोरी देवी किसी विधायक और नेता से अपनी बात कहती. कई बार विधानसभा सदन में उस की आवाज उठी भी. कई विधायक और नेता रुपयोंपैसों से भी कटोरी देवी की मदद कर देते थे. शायद ही कोई अखबार बचा हो जिस ने कटोरी देवी की कहानी न छापी हो. इस के बाद भी सरकार ने कटोरी देवी की सुध नहीं ली. 14 वर्षों के बाद उत्तर प्रदेश के राज्यपाल मोतीलाल बोरा ने कटोरी देवी के दर्द को समझा और अपनी पहल पर उस को न्याय दिलाया. 1996 में कटोरी देवी को पैंशन देने का आदेश हुआ. कटोरी देवी का संघर्ष बताता है कि सरकार काम तो पहले भी नहीं करती थी पर दर्द को सुन लेती थी. लेकिन अब तो सरकार ने न केवल जनता के दर्द को सुनना खत्म कर दिया है बल्कि जिस जगह पर जनता अपना दर्द सुनाती थी उसे ही खत्म कर दिया है. उत्तर प्रदेश की विधानसभा के सामने धरनास्थल बना था. वहां से राज्यपाल, मुख्यमंत्री, नेता, अफसर, विधायक सभी गुजरते थे जिस से दर्द सुनाने वाले को पता चलता था कि उन की बात सरकार सुन रही है.

सरकार से दूर होता जनता का दर्द धीरेधीरे सरकार ने ऐसे धरनास्थल को ही खत्म कर दिया. अखिलेश सरकार ने विधानसभा भवन के सामने धरनास्थल को उजाड़ कर शानदार ‘लोकभवन’ बनवा दिया. यह ऐसा ‘लोकभवन’ है जिस में लोक कहीं नहीं है. केवल नेता और अफसर ऐश करते हैं. विधानसभा भवन के पास से धरनास्थल को हटा कर गोमती नदी के किनारे एक जगह दी गई जो विधानसभा से 2 किलोमीटर दूर थी. बीएड बेरोजगारों ने एक बार धरना देते समय विरोध प्रदर्शन के लिए गोमती नदी में पानी में घुस कर विरोध प्रकट किया. इस के बाद सुरक्षा व्यवस्था का हवाला दे कर धरनास्थल को विधानसभा से 7 किलोमीटर दूर रमाबाई पार्क में बना दिया गया. अब नेता, अफसर, मंत्रियों से दूर लोग धरना देते जरूर हैं पर उन की आवाज सरकार तक नहीं पहुंचती. अगर धरनास्थल विधानसभा के सामने न होता और नेताविधायक कटोरी देवी की बात नहीं सुनते तो क्या कभी उस को इंसाफ मिलता? आम शहरों में विधानसभा के पास धरनास्थल होने से अखबारों में प्रदर्शनकारियों की खबर और फोटो छप जाती थी. शहर से दूर होने पर अखबार वाले भी वहां नहीं जाते.

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ऐसे में जनता का दर्द सरकार तक नहीं पहुंचता. जब राजनीतिक दल सड़कों पर धरनाप्रदर्शन करते हैं तो पुलिस लाठियों का प्रयोग कर के उन की आवाज को दबा देती है. विरोध का स्वर और जनता का दर्द दोनों ही सरकार ने सुनना बंद कर दिया है. धरनास्थल खत्म बहुत दूर कर दिए जाने से अपनी बात को कहने की जगह खत्म सी हो गई है. धरनास्थल वह जगह होती थी जहां पर कोई भी शांतिपूर्वक रह कर अपनी बात कह सकता था. जिला प्रशासन के लोग वहां नियमित जाते थे. वे धरना देने वालों से उन के मामलों की जानकारी ले कर सरकार तक पहुंचाते थे. धरनास्थल लोकतंत्र की व्यवस्था का एक अंग होते थे. इन को खत्म करने से सड़कों पर गुस्सा उतरने लगा है. सड़क जाम क्यों करते हैं लोग? दिल्ली के शाहीन बाग पर अदालत ने टिप्पणी कर दी. यहां यह बात सोचने की है कि सड़क जाम लोग क्यों करते हैं? जब सरकार द्वारा उन की बात सुनी नहीं जाती, उन को अपना विरोध दर्ज कराने के लिए कोई सुरक्षित जगह नहीं मिलती तब ऐसे हालात पैदा होते हैं.

देश के हर बड़े शहर, खासकर राजधानियों में धरनास्थल होते थे, जो बहुत प्रमुख जगह पर होते थे. अब धरनास्थलों को प्रमुख जगहों से हटा कर शहर से दूरदराज की जगहों पर बना दिया गया. दिल्ली में जंतरमंतर और राजघाट जैसी जगहें हैं, पर वहां अब धरना देने की इजाजत नहीं मिलती है. ऐसे में शाहीन बाग जैसी जगहें धरनास्थल बनने लगती हैं. सरकार ने विरोध प्रदर्शन करने और अपनी बात कहने के लिए धरना देने वाली जगहों को खत्म कर दिया है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में धरना देने की जगह अब शहर से काफी दूर ईको गार्डन और रमाबाई पार्क में कर दी गई है. इस वजह से इस का प्रभाव अब खत्म हो गया है क्योंकि जनता की आवाज अब सरकार तक सुनाई नहीं देती है. विरोध प्रदर्शन के लिए योगी सरकार के पहले तक लोग हजरतगंज चैराहे पर विधानभवन से कुछ दूर महात्मा गांधी की प्रतिमा के पास एकजुट हो कर कभी कैंडिल जला लेते थे, तो कभी दिनभर का धरना या भूख हड़ताल कर लेते थे. योगी सरकार ने अब गांधी प्रतिमा के सामने विरोध प्रदर्शन को खत्म कर दिया है.

जबकि, जालिम मुगल बादशाह जहांगीर तक ने अपने महल के बाहर पीडि़त को घंटा बजाने का अधिकार दिया था. हैरानी यह है कि आजाद भारत के राजाओं ने जनता को अपने महल से पूरी तरह से दूर करने का प्रबंध कर लिया है. मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री आवास के आसपास तो किसी की हिम्मत नहीं होती कि वह अपनी बात कहने का साहस कर सके. उन्नाव रेप कांड में पीडि़ता की बात को तभी सुना गया जब उस ने मुख्यमंत्री आवास के सामने खुद पर मिट्टी का तेल डाल कर आत्मदाह करने का प्रयास किया था. ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि सरकार जनता के दर्द को सुनने के लिए कोई व्यवस्था करे, जिस से धरनाप्रदर्शन की आड़ में सड़क या रेलवे लाइन और प्रमुख लोगों के घरों का घेराव न किया जाए.

मंदिर और मूर्तियां बनाना कहां का विकास है?

पिछले साठ सालों में कुछ भी विकास न होने की बात कहकर भाजपा सरकार द्वारा अपने 6 सालों के कार्यकाल में जिस विकास का ढोल पीट रही है उसका संबंध आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं विजली ,पानी सड़क रोटी कपड़ा और मकान से कतई नहीं है. दरअसल भाजपा सरकार की नजर में विकास का मतलब धार्मिक मंदिरों और राजनेताओं की उंची उंची मूर्तियों की स्थापना से है.

पिछले 6 सालों में सर्वसुविधा युक्त अस्पताल गुणवत्ता युक्त तकनीकी शिक्षा के लिये मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेज आवागमन

के लिये पुल भले ही न बन पाये हो परन्तु धार्मिक आडंबरों की आड़ में मंदिर और मूर्तियों गढ़ने का काम बखूबी किया गया है.कोरोना काल में कोविड 19 की वैक्स्न बनाने की बजाय सरकार का लक्ष्य राम मंदिर बनाने पर ज्यादा रहा .यही बजह रही कि 5

अगस्त 2020 को जब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अयोद्वा में राम मंदिर निर्माण की आधारशिला रखी तो जनता मोदी की वाह वाह करने लगी . दरअसल कोविड से खतरनाक धार्मिक कट्टरता का वायरस लोगों को अंधविश्वासी और धर्मांध बनाने में सफल रहा है .

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देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भव्य राम मंदिर निर्माण की ईंट रखकर सिद्ध कर दिया है कि भाजपा की सरकार नौजवानों को भले ही रोजगार न दे पाये ,परन्तु महापुरूषों की उंची उंची प्रतिमायें और बड़े बड़े मंदिर बनाकर ही

दम लेगी . देश के अनेक राज्यों में न तो बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने समुचित स्कूल ,कालेज है और न ही लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल के लिये सुविधायुक्त अस्पताल है. गांव देहात में कालेज न होने से बारहवीं पास करके लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं. अस्पताल में किसी की मौत हो जाये तो आम आदमी को घर तक सायकिल पर या सिर पर शव ले जाना पड़ता हैं . सब के बावजूद शर्मनाक बात यह है कि सरकार महान लोगों की याद में स्मारक या स्टेचु बनाने के नाम पर अरबों रूपयों की भारी भरकम रकम खर्च कर रही हैं. वर्तमान हालात को देखते हुये लगता है कि न्याय के मंदिरों को ठेंगा बताने वाली सरकारों को तो जैसे जनता के हितों से कोई सरोकार ही नही है

2019 के गणतंत्र दिवस के एक दिन पहिले मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस एम सत्यनारायण और जस्टिस पी राजमनिकम की टिप्पणी सरकारों की स्मारक बनाने वाली नीतियों पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं .तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता के स्मारक के निर्माण की सुनवाई करते समय हाईकोर्ट ने दोनों जजों ने सरकार से कहा कि भविष्य में यैसी नीति बनायें कि महान लोगों के नाम पर प्रतिमा या स्मारक की जगह स्कूल ,कालेज ,अस्पतालों का निर्माण किया जाये .

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केंद्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार भी मूर्ति और स्मारकों के ढकोसलों में किसी से कम नहीं है . गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल की याद में तीन हजार करोड़ रूप्यों की लागत से 182 मीटर उंची स्टेचु आफ यूनिटी का निर्माण कर उन भूखे नंगों के हक को छीनने का कार्य किया है. मंदिर और मूर्तियों के नाम पर करोड़ों रूपयों की होली खेलने वाली सरकार देश से न तो गरीबी दूर कर पाई है और न ही युवाओं को रोजगार दे पाई है .

नागरिकता संशोधन कानून ,एनआरसी और एनपीआर जैसे धर्म और मजहब के मसलों में जनता को उलझाये रखने वाली सरकार आम आदमी को इलाज की सर्व सुलभ सुविधा तक मुहैया नहीं करा पाई हैं . आज भी देश के गांव और कस्बों में सरकारी अस्पताल नहीं हैंपरन्तु इन सबसे बेखबर जनता के नुमाइंदे स्मारक ,मूर्ति और मंदिर बनाकर धर्म की दुकानें खोल रहे हैं .

सरकार नोट बंदी से काला धन वापिस तो नहीं ला पाई ,परन्तु करोड़ो का कर्ज लेकर विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे लोगों को भगाने में सहायक सिद्ध हुई . हिन्दुत्व के नाम पर कभी मंदिर के निर्माण की बकालत करती है तो कभी बोट बैंक की राजनीति के तहत कश्मीर में पत्थरबाजों को संरक्षण देकर वीर जवानों के होसलों को पस्त भी करती है . गौ माता के संरक्षण के नाम पर सरकारी संरक्षण में पल रहे कथित गौ सेवकों को माब लिंचिंग के लिय प्रोत्साहित कर नागरिकों में असुरक्षा व भय का वातावरण तैयार किया जाता है .

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कांग्रेस ने शुरू की थी मूर्तियों की राजनीति दरअसल अपने नेताओं की बड़ी बड़ी मूर्तियां लगाने का काम कांग्रेस सरकार के जमाने में ही शुरू हुआ था .दक्षिण भारत में नेताओं की मूर्तियों को लेकर गजब की प्रतिस्पर्धा रही. इस मामले में दक्षिण में नैतिकता

के सारे प्रतिमान ढह गए. कांग्रेस के प्रमुख और तमिलनाडू के लोकप्रिय नेता रहे कामराज ने अपने जीवित रहते हुए ही अपनी प्रतिमा मद्रास के सिटी कॉर्पोरेशन में स्थापित करवाई. और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवारलाल नेहरू ने मद्रास आकर इसका अनावरण किया. इस पर नेहरू की तरफ से दलील यह दी गई कि वे अपने प्यारे दोस्त और साथी के सम्मान में यहां आए हैं. आश्चर्यजनक बात यह है कि नेहरू ने संसद मेंमहात्मा गांधी की प्रतिमा लगाने का विरोध किया था.

कांग्रेस की देन रही मूर्तियों की इस राजनीति में कांग्रेस की किरकिरी तब हुई जब नेहरू की मृत्यु के बाद देश भर में उनके स्मारक बनाए जाने के लिए नेहरू मैमोरियल ट्रस्ट का गठन किया गया. डॉ. करण सिंहको इसका सचिव बनाया गया. इस ट्रस्ट का उद्देश्य देश भर से धन एकत्रित करना था. दो साल के पूरे प्रयासों के बावजूद केवल एक करोड़ रूपए ही जमा हो सकेजबकि लक्ष्य 20 करोड़ रूपए का था.

दक्षिण की तरह महाराष्ट्र में शिवसेना ने शिवाजी पार्क में पार्टी के संस्थापक बाला साहब ठाकरे की प्रतिमा स्थापित कराने का प्रयास कियाजिसे सरकार ने खारिज कर दिया. इस पर खूब बवाल और राजनीति हुई.दक्षिण में मूर्ति राजनीति इस कदर हावी हो गई कि जब डीएमके सत्ता में आई तो अपने नेताओं की मूर्तियों की लाइन लगा दी. इससे भी आगे डीएमके ने मैरीन बीच को भी नहीं बख्शा. कांग्रेस ने जब सत्ता में वापसी की तो इसी प्रतिस्पर्धा में इस खूबसूरत पर्यटन स्थल पर कामराज की मूर्ति स्थापित कराई.

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भाजपा सरकार द्वारा पिछले 5 सालों में बनाये गये स्मारक जिस प्रकार देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भाषणों के माध्यम से लंबी चैड़ी बातें करने के लिये माहिर हैं ,उसी प्रकार उन्होने देश में उंची उंची मूर्तियां और स्मारक बनाने में भी महारत हासिल कर ली है .

2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार द्वारा देश के कई इलाकों में बनाये गये स्मारक और मूर्तियों पर भी एक नजर डालिये

1. मुंबई के दादार में स्थित शिवाजी पार्क में चैत्य भूमि के पास भीमराव अंबेडकर की 250 फिट उंची

स्टेचु आफ इक्वलिटी समानता की प्रतिमा का भूमि पूजन 11 अक्टूबर 2015

2. मुंबई में मरीन ड्राइव के निकट 3600 करोड़ की लागत से अरब सागर में शिवाजी स्मारक का

शिलान्यास 27 दिसम्बर 2016

3. कोयम्बटूर में स्टील के टुकड़े जोडकर बनायी गई 112 फिट उंची शिव प्रतिमा का अनावरण 24

फरवरी 2017

4. रामेश्वरम में पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम की स्मृति में स्मारक 27 जुलाई 2017

5. नई दिल्ली के चाणक्यपुरी में पुलिस जवानों के बलिदान के सम्मान में 30 फिट उंचे और 238 टन वजन

के राष्टीय पुलिस स्मारक एनपीएम का उद्घाटन 21 अक्टूबर 2018

6. गुजरात में 3000 करोड़ की लागत से निर्मित सरदार बल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर उंची प्रतिमा का लोकार्पण

31 अक्टूबर 2018

7. पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी बाजपेई की स्मृति में ‘‘ सदैव अटल’’ स्मारक 25 दिसम्बर 2018

8. नई दिल्ली के इंडिया गेट के पास 40 एकड़ में 176 करोड़ की लागत से बना राष्टीय युद्ध स्मारक

25 फरवरी 2019

9. उत्तरप्रदेश की योगी सरकार द्वारा अयोद्धा में भगवान राम की 7 फिट उंची लकड़ी की प्रतिमा का

अनावरण 7 जून 2019

10. कंचनजंगा विमान हादसों में मारे गये वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा और भारतीय यात्रियों की याद में

फ्रांस में स्मारक का उद्घाटन 23 अगस्त 2019

11. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिये श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट बनाने का ऐलान 5 फरवरी

2020

12. वाराणसी में दीनदयाल उपाध्याय की 63 फिट उंची प्रतिमा का अनावरण 16 फरवरी 2020

मायावती भी कम नहीं

वैसे तो हर दलों की सरकारों द्वारा अपने शासनकाल में विजली ,पानी ,सड़क ,शिक्षा और स्वास्थ्य जैंसे बुनियादी कार्यो की बजाय स्मारक और मूर्तियां बनाने के काम को प्रमुखता दी गई है ,परन्तु दलितों के उत्थान की दुहाई देने वाली बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायाबती स्मारकों के निर्माण में सबसे अब्बल रही हैं . उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री

रहते हुये उन्होने लखनऊ नोएडा और बादलपुर गाँव में बनाए गए स्मारकों के लिए लगभग 750 एकड़ बेशकीमती जमीन इस्तेमाल की और इन स्मारकों के निर्माण पर जनता के टैक्स के धन सेजुटाये गये लगभग छह हजार करोड रूपये खर्च कियेण् स्मारकों में इस्तेमाल हुई साढ़े सात सौ एकड़ जमीन का सरकारी तौर पर कोई मूल्य नही

बताया जा रहा है. इतना ही नहीं स्मारकों के रखरखाव के लिए लगभग छह हजार कर्मचारी रखे गए हैं ,जिनका सालाना वेतन ही 75 करोड़ रूपये है. इन स्मारकों में हर महीने औसतन 75 लाख यानि सालाना नौ करोड रूपये की बिजली जलायी जाती हैण्स्मारकों की सुरक्षा के लिए 850 कर्मचारी तैनात हैं. इनके वेतन पर भी हर महीने लाखों रूपये खर्च होते हैं.

लखनऊ विकास प्राधिकरण अधिकारियों द्वारा तैयार किये एक विवरण के अनुसार सबसे अधिक एक सौ अठत्तर एकड़ जमीन डा. अम्बेडकर स्मारक और उसके आस- पास बने परिवर्तन स्थल तथा पार्कों पर खर्च की गयी.मायावती ने मुख्यमंत्री के तौर पर अपने पहले कार्यकाल के दौरान वर्ष 1995 में यहाँ अम्बेडकर स्मारकअम्बेडकर

स्टेडियम गेस्ट हाउस और पुस्तकालय आदि बनवाया था.लेकिन 2007 में चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती ने इन इमारतों को डायनामाइट से तुडवाकरस्मारकों का पुनर्निर्माण और विस्तार किया जिस पर अकेले आवास विभाग से 2111 करोड रूपये खर्च हुए.शहर के पश्चिमी इलाके में वीआईपी रोड स्थित तीन जेलों को तोड़कर वहाँ की लगभग एक सौ पचासी एकड़ जमीन पर एक हजार पचहत्तर करोड रुपयों की लागत से कांशी राम ईको गार्डन तथा बगल में लगभग 46 एकड़ जमीन पर कांशी राम स्मारक स्थल का पुनर्निर्माण कराया गया.

जनता को लोक लुभावन वायदों से भरमाने वाली सरकारें यदि इन करोड़ो अरबों रूपयों सं मूर्तियां और स्मारक बनाने की बजाय देश में कारखाने और फैक्टियां खोलती तो शायद देश के बेरोजगार नौजवानों को रोजगार मिल पाता . आज देश की जनता को स्मारकों की नहीं अच्छे स्कूल कालेज और अस्पताल की आवश्यकता है . स्मारक और स्टेचु बनाकर पानी की तरह बहाये गये पैसों से यदि अन्नदाता किसानों के लिये नहर ,डेम बनाकर खेतों में सिंचाई के लिये पानी उपलब्ध कराया जाता तो देश के बदहाल किसान को आर्थिक तंगी से आत्महत्या करने विवश न होना पड़ता . गांव गांव अस्पतालों में डाक्टर ,दवायें और जांचों के लिये आधुनिक उपकरण और आक्सीजन सिलेंडर दिये जाते तो कोई बच्चा असमय काल के गाल में समाता . अच्छा होता कि हम विकास की सही परिभाषा गढ पाते . कोविड 19 के संक्रमण से बचने के लिये हम गांव कस्बों के सरकारी अस्पताल में एक वैंटिलेटर और कुछ जरूरी

दवाइयों का इंतजाम कर पाते तो जनता पर जबरन थोपे गये लौक डाउन की नौबत ही नहीं आती और न ही इस देश की अर्थव्यवस्था लड़खड़ाती .

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