खस्ते का नाम तो आपने अक्सर ही सुना होगा इसे लोग खस्ता कचौड़ी के नाम से भी जानते हैं, कुछ लोग इसे चाय के साथ लेना पसंद करते हैं तो कुछ लोग घर पर बनी शानदार आलू की सब्जी के साथ खाना पसंद करते हैं. आइए जानते हैं इस खस्ता कचौड़ी को घर पर कैसे बनाते हैं.
समाग्री
उड़द का दाल
अदरक
हरी मिर्च
जीरा
हींग
मेथी
नमक
काली मिर्च
लाल मिर्च
धनिया पाउडर
मेैदा
गेंहू का आटा
तेल
आजवाइन
नमक
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विधि
सबसे पहले उड़द के दाल को साफ करके 3-4 घंटे तक पानी में भिंगोकर रख दें, हरी मिर्च का डंडल हटाकर उसे धो लें, फिर उसे मोटा-मोटा काट लें.
अब भिंगी हुई उड़द के दाल से पानी को निकालकर उसे अच्छे से साफ करलें फिर उसमें अदरक, लहसून और हरी मिर्च डालकर ग्राइंड कर लें. अब एक कड़ाही को गर्म करें उसमें तेल और हींग डालकर उसे अच्छे से गर्म करें, उसके बाद उसमें पीसी हुई दाल डालकर चलाएं.
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अब दाल को करीब 10 मिनट तक भूनें, जब दाल अच्छे से भून जाए तो उसमें नमक और सोड़ा डालकर अच्छे से चलाएं.
अब एक बर्तन में मैदा को डालें, फिर उसमें सूजी और खाने का सोडा डालें, अब इन्हें दोनों हाथों से अच्छे से मिलाएं, अब इसे सॉफ्ट करने के लिए इसमें मोयन डालें. अब उसमें पानी डालते हुए आटा को मुलायम करने तक गुंथे,
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जब आटा गूंथ जाए तो उसमें फ्राई दाल डालकर लोई बनाएं फिर इसे पुरी का आकार देकर तेल में फ्राई कर लें. अब आपकी कचौड़ी बनकर तैयार है. आप इसे सर्व कर सकते हैं चटनी के साथ.
दीप्ति कोई जवाब न दे पाती. उस के चेहरे पर नागवारी के भाव साफ झलकते थे. अपना गुस्सा वह मां से व्यक्त नहीं कर सकती थी, इसलिए अपना गुस्सा कभी बरतनों पर उतारती, तो कभी पूर्वी पर. मां यह सब देखते हुए आंखें बंद किए रहतीं.
शुरूशुरू मेें तो दिव्या को यही लगा था कि 2-4 दिन बाद घर की सारी जिम्मेदारी उस पर डाल दी जाएगी. लेकिन 15 दिन बीत जाने के बाद भी उस से कोई काम छूने को नहीं कहा जा रहा था. उस रोज भी घर पर कुछ मेहमान आने वाले थे. उन का भी खाना बनना था. दिव्या जाना नहीं चाहती थी, लेकिन सास आग्रह कर के उसे मंदिर ले गईं. हां, पूर्वी को जरूर साथ ले लिया था.
दिव्या ननद दीप्ति की मदद के लिए रुकना चाहती थी, पर सास ने उसे रुकने नहीं दिया. रास्ते में दिव्या ने कहा था, ‘‘आज तो दीप्ति दीदी को बहुत काम पड़ जाएगा. मुझे घर में छोड़ दिया होता, तो थोड़ी उन्हें मदद मिल जाती. सौरभ ने मुझ से कहा था.’’
‘‘क्या करना है, क्या नहीं करना है, मुझे अच्छी तरह पता है. मैं जो कहूं, तुम्हें सिर्फ वही करना है. उस से ज्यादा न तुम्हें कुछ करना है और न सोचना है,’’ दिव्या की सास ने कहा.
उस दिन दीप्ति ने जानबूझ कर सब्जी खराब कर दी थी. मंदिर से लौट कर दिव्या की सास ने खुद सब्जी बनाई. साथ ही, कुछ बनीबनाई सब्जी बाजार से मंगा कर काम चलाया. लेकिन मेहमानों के जाने के बाद वे दीप्ति पर इस तरह बरस पड़ीं, जैसे वह उन की सगी मां न हो कर सौतेली मां हो.
उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हें पता था कि मेहमान आने वाले हैं, फिर भी इस तरह का खाना बनाया. एक जून का खाना भी ढंग से नहीं बना सकती. जिस तरह का खाना बनाया था, इसी तरह का खाना बनाना मैं ने तुम्हें सिखाया था.’’
‘‘पर मम्मी,’’ दीप्ति रोआंसी हो कर बोली, ‘‘कामवाली भी नहीं है, कोई मदद नहीं करता, सारे काम मुझे अकेले ही करने पड़ते हैं.’’
दीप्ति की बात पर ध्यान दिए बगैर मां ने कहा, ‘‘बस, अब चुप रहना. मैं ने तुम्हें इतना तो सिखाया ही है कि 2-4 तो क्या 20-25 आदमी का खाना अकेले बना सकती हो.’’
उस के अगले दिन दिव्या और सौरभ का सिनेमा देखने जाने का प्रोग्राम था. दीप्ति भी साथ जाना चाहती थी, लेकिन मां उसे शाम का खाना बनाने की जिम्मेदारी सौंप कर किसी रिश्तेदार के यहां मिलने चली गईं.
दिव्या और सौरभ घर से निकले तो रास्ते में उन्हें उन की कामवाली मिल गई. घर में काम को ले कर होने वाली किचकिच के बारे में थोड़ाबहुत सौरभ को भी मालूम था. इसलिए कामवाली से उन्होंने कहा, ‘‘अरे, तुम काफी दिनों से काम पर नहीं आ रही हो? अभी तुम्हारे बेटे की शादी नहीं निबटी क्या?’’
कामवाली हंस कर बोली, ‘‘साहब, कैसा बेटा और कैसी शादी… मेरा बेटा तो अभी 10 साल का है. मुझे तो मांजी ने काम पर आने से मना किया था. उन्होंने कहा था कि जब तक वे न बुलाएं, काम करने न आऊं, जबकि उन्होंने मेरे पैसे भी दे दिए थे.’’
दिव्या ने हैरानी से सौरभ को देखा. वह भी भौचक था. दिव्या के मन में एक बार फिर संदेह पैदा हुआ. पिछले 15 दिनों से वह देख रही थी कि उस की सास पेट की जनी बेटी से कैसा सख्त बरताव कर रही थीं. उन की यह बात तो सही थी कि दिव्या ने अभी नयानया वैवाहिक जीवन शुरू किया था. इसलिए उस के घूमनेफिरने के दिन थे. लेकिन दीप्ति तो अब उस की मेहमान की तरह थी. उस घर की बेटी थी, युवा थी, इस के बावजूद मां उस पर नौकरानी से भी बुरा अत्याचार कर रही थीं.
दिव्या को लगा, सास का यह व्यवहार उस के लिए एक तरह से सीख है. जो मां अपनी सगी बेटी से ऐसा व्यवहार कर सकती है, बहू के साथ कैसा व्यवहार करेगी, इस की कल्पना नहीं की जा सकती.
दीप्ति के जाने के बाद घर के सारे काम का बोझ उसी पर आ पड़ेगा. जरा भी हीलाहवाली करने पर उस की सास कह भी सकती थीं, ‘‘जब बेटी घर के सारे काम कर सकती है, तो तुम कहां से बनठन कर आई हो.’’
दिव्या ने सोचा, इस का मतलब उस के शुभचिंतकों ने सौरभ की मां के बारे में जो बताया था, सही था कि जब पाला पड़ेगा तब पता चलेगा. यह सब सोच कर दिव्या सन्न रह गई. जब सौरभ ने पूछा कि ‘उसे क्या हुआ’, तो वह सोच से बाहर आई.
उस दिन सौरभ ने अचानक ही फिल्म देखने का प्रोग्राम बनाया था, इसलिए एडवांस बुकिंग नहीं कराई थी. उन के सिनेमाहाल तक पहुंचतेपहुंचते सारे टिकट बिक चुके थे. अब तो पहले की तरह ब्लैक की भी व्यवस्था नहीं थी, इसलिए उन्हें वापस आना पड़ा.
दिव्या ने जब से कामवाली की बातें सुनी थीं, उस का मन काफी बेचैन था. दिव्या को बनावट जरा भी पसंद नहीं थी. सास उसे घर का कोई काम नहीं करने दे रही थीं. यह उसे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा था. दिव्या और सौरभ जैसे ही कालोनी के गेट पर पहुंचे, सौरभ का एक दोस्त मिल गया. सौरभ उस से बातें करने लगा, तो दिव्या अकेली ही घर की ओर चल पड़ी. दरअसल, वह दीप्ति से अकेले में कुछ बातें करना चाहती थी.
दिव्या घर पहुंची तो मुख्य दरवाजा थोड़ा सा खुला था, इसलिए डोरबेल बजाए बगैर ही वह धीरे से अंदर आ गई. अंदर आने पर उस ने देखा, दीप्ति किसी से फोन पर बात कर रही थी. एक तो दरवाजे की ओर उस की पीठ थी, दूसरे वह बातों में इस तरह मगन थी कि दिव्या के आने का उसे पता ही नहीं चला. दिव्या उस के करीब आ कर खड़ी हो गई, तो दीप्ति की बातेें उस के कानों में पड़ीं.
दीप्ति कह रही थी, ‘प्लीज निखिल, अभी आओ और मुझे ले चलो. मम्मी मेरे साथ इस तरह का व्यवहार कर सकती हैं, मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था. अपनी ही बेटी के साथ ऐसा व्यवहार… निखिल, अब मुझ से सहन नहीं हो रहा है.
‘‘सच ही कहा गया है, शादी के बाद ससुराल ही बेटी का घर होता है. मायके का सहारा नहीं लेना चाहिए. ननद की शादी से ज्यादा भाई की शादी को महत्व दिया. भाई की शादी के लिए मम्मी को भी उलटासीधा बोल दिया, नाराज हो कर चली आई. उसी का सिला मुझे मिल रहा है,’’ इतना कहतेकहते दीप्ति की आवाज भर्रा गई थी.
यह सुन कर निखिल रो पड़े और उस की गवाह दिव्या बनी, यह उसे उचित नहीं लगा. इसलिए वह जिस तरह दबे पैर अंदर आई थी, उसी तरह बाहर निकल गई. जब उसे लगा कि दीप्ति ने फोन रख दिया है, तब दिव्या ने डोरबेल बजाई.
दीप्ति ने दरवाजा खोला, तो उस के चेहरे पर ग्लानि साफ झलक रही थी, आंखों की पुतलियां भारी थीं. दिव्या को देख कर दीप्ति ने पूछा, ‘‘क्या हुआ भाभी, वापस क्यों आ गईं?’’ ‘‘टिकट नहीं मिली,’’ दिव्या बोली.
दिव्या ने अंदर आ कर देखा, दीप्ति अपने और पूर्वी के कपड़े मोड़ कर बैग में रख रही थी. अभी तक उस ने शाम के खाने के लिए कुछ नहीं किया था. दुखी हो कर वह मां के घर से जा रही थी. उस के जाने के बाद घर की सारी जिम्मेदारी दिव्या पर पड़ने वाली थी, इसलिए उस ने सोचा, क्यों न वह इस की शुरुआत अभी से कर दे. उस ने कहा, ‘‘दीप्ति, तुम कहो तो मैं खाना बनाऊं. बताओ, क्या बनाना है?’’‘‘सब्जी काट दी है, अभी बना लूंगी. रोटी का आटा गूंथना पड़ेगा. पर, तुम रहने दो, वह भी कर लूंगी.’’
दिव्या दीप्ति से बातें कर रही थी कि उस की सास आ गईं. रसोई में कुछ न होते देख वे कुछ नहीं बोलीं. सहज नजरों से दीप्ति को घूरते हुए बोलीं, ‘‘दिव्या आज तुम्हारे हाथों से रसोई का शगुन होना है, इसलिए तुम तैयार हो जाओ.’’
उन की बात पूरी भी नहीं हुई थी कि डोरबेल बजी. दिव्या ने दरवाजा खोला, तो सामने उस के ननदोई निखिल खड़े थे. उन्हें देख कर उस की सास ने हैरानी से कहा, ‘‘अरे निखिल, तुम… फोन भी नहीं किया और अचानक…’’
‘‘हां मम्मी, अगर दीप्ति चलना चाहे तो मैं इसे अभी ले जाऊं. घर में बहुत काम है. शादी के अब सिर्फ 10 दिन ही रह गए हैं. मम्मी कहती हैं कि दीप्ति और पूर्वी के बिना घर सूनासूना सा लगता है.’’
पूर्वी अपने पापा को देख कर खुश हो गई थी. दीप्ति की आंखों में भी स्वाभिमान की चमक आ गई थी. खुशीखुशी उस ने गाजर का हलवा बनाया, बाकी का खाना दिव्या की सास ने बनाया और दामाद को प्रेम से खिलाया.
दीप्ति एकदम शांत थी. वह विदा होने लगी, तो दिव्या के पास जो सब से अच्छी साड़ी थी और दीप्ति को पसंद भी थी, उसे देने लगी, तो उस की आंखें भीग गईं. लेकिन उस की सास यानी दीप्ति की मां अटल थीं.
दीप्ति चली गई तो दिव्या, उस की सास और सौरभ आ कर बैठक में बैठ गए. दिव्या की सास ने एक बार उस की ओर देखा और जोरजोर से रोने लगीं. दिव्या और सौरभ अवाक रह गए. उन की समझ में नहीं आया कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि मम्मी इस तरह रोने लगीं. इस तरह तो वे तब भी नहीं रोई थीं, जब दीप्ति पहली बार विदा हुई थी.
दिव्या गिलास में पानी ले आई, तो दो घूंट पानी पी कर स्वस्थ होने के बाद वे बोलीं, ‘‘दिव्या, यह दीप्ति मुझे सौरभ से भी ज्यादा प्यारी है. अधिक लाड़प्यार की वजह से थोड़ा जिद्दी हो गई है. इस की सास मेरी सहेली है. वह मुझ से भी ज्यादा सीधी और सरल है, लेकिन यह लड़की ससुराल में किसी को भाव नहीं देती.’’
दिव्या की सास पलभर के लिए रुकीं. इस बीच उन्होंने आंचल से आंसू पोंछे. लंबी सांस खींच कर नाक साफ की. उस के बाद वे बोलीं, ‘‘इस की ननद की शादी है, फिर भी सास से लड़ाईझगड़ा कर के हमारे यहां शादी से 20 दिन पहले आ गई. शादी हो गई, इस के बावजूद वह ससुराल जाने का नाम नहीं ले रही थी. मेरा दामाद बहुत भला और समझदार है, इसलिए हम तीनों ने सलाह कर के दीप्ति को सही रास्ते पर लाने की योजना बनाई.
‘‘मैं ने नौकरानी को वेतन दे कर इस महीने काम पर आने से मना कर दिया. तुम्हें भी कुछ नहीं करने दिया. इस तरह घर के सारे काम का बोझ उस के ऊपर डाल दिया. बचपन से आलसी रही दीप्ति से मैं छाती पर पत्थर रख कर घर के सारे काम उस से अकेले कराती रही. ऊपर से चार उलटीसीधी बातेें भी सुनाती रही.
इतना कहतेकहते दिव्या की सास एक बार फिर सुबक पड़ीं. हथेलियोें से आंसू पोंछ कर उन्होंने कहा, ‘‘आज सुबह वह मुझ से बहस करना चाहती थी, पर मैं ने उसे यह कह कर चुप करा दिया कि ज्ञान और गुमान अपने घर में ही अच्छा लगता है. इस के बाद मैं ने दामाद को फोन कर के कहा कि अगर दीप्ति उसे फोन करती है, तो वह तुरंत आ जाए.
‘‘मेरा दामाद निखिल बहुत प्यारा है. दीप्ति का ऐसा स्वभाव था कि कोई दूसरा उसे पूछता न. मुझे लगता है कि उसे सिखाने और समझाने में कुछ कसर रह गई थी, जो इस बार पूरी हो गई.’’
एक बार फिर दिव्या ने अपनी सास को परखा. वह आंसू भरी आंखों से उन के सीने से लग कर बोली, ‘‘मांजी, मुझे माफ करना. एक बार फिर मेरे मन में आप के लिए गलत धारणा आने का अपराध हुआ है.’’
जहां जिंदगी को स्वर्ण युग मिला हो, उस मांबाप के घर और उन की ममता को छोड़ कर एक अनजान परिवेश मेें जाते समय जब लड़कियां फफकफफक कर रोती हैं, तो वह दृश्य बड़ा ही भावनात्मक होता है.
दिव्या की विदाई हो रही थी, तो धीरगंभीर उस के पिता जैसे जीवन की बहुत बड़ी निधि खो बेठे हों, इस तरह भारी दिल से बरामदे मेें खड़े रो रहे थे. लगभग अमेरिकी बन चुके उस के भैयाभाभी भी उस समय देहाती बन गए थे. भाई की आंखों से आंसू धारा की तरह बह रहे थे. उन्हें धीरज बंधाते हुए भाभी की आवाज कांप रही थी. मम्मी की तो बात ही अलग थी. उन का हाल बेहाल था. उन के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. दूसरी ओर दिव्या की आंखों से आंसू जरूर बह रहे थे, लेकिन जहां तक रोने की बात थी, वह सच्चे मन से बिलकुल नहीं रो रही थी. दिव्या को लग रहा था, वह ऐसे घर जा रही थी, जहां जा कर उस के मातृघर का संबंध और प्रगाढ़ होगा. तभी उस की सहेलियों में से एक सहेली ने कहा था, ‘‘प्रेम विवाह कर रही है न, ऊपर से सद्गुणी वर पाया है, इसीलिए लाडो मन से रो नहीं रही है. लेकिन जरा सास के चक्कर मेें तो पड़ने दो तब पता चलेगा.’’
दिव्या का शंकालु मन पलभर के लिए बेचैन हो गया. लेकिन अगले ही पल उस के अनुभवी दिल ने उसे संतोष दिलाया कि परेशान होने की जरूरत नहीं है. फिर भी अभी उसे सास की सच्ची परख बाकी थी.
दिव्या की शादी हुए 15 दिन हो चुके थे. सौरभ एसबीआई बैंक में मैनेजर था. एक तो मार्च का महीना था, दूसरे सौरभ को खास रुचि भी नहीं थी, इसलिए दिव्या ने हनीमून के लिए कहीं बाहर जाने के बारे में सोचा ही नहीं.वैवाहिक जीवन के स्वर्गीय सुख देने वाले उस के शुरुआती रोमांचकारी दिन बड़े मजे से उत्साह के साथ बीत रहे थे.
सुबह का समय था. दिव्या की आंखें नींद के बोझ से दबी होने के चलते खुल भी नहीं पाई थीं कि सास की आवाज उस के कानों में पड़ी. वे कह रही थीं, ‘‘दीप्ति, अब उठ भी जा. पानी आ गया है. आज धोने के लिए बहुत कपड़े हैं. पानी चला गया तो रह जाएंगे. धोबी गांव गया है. कामवाली भी महीनेभर की छुट्टी ले कर बेटे की शादी करने गई है.’’
भाई की शादी के लिए दीप्ति ससुराल वालों से लड़ाईझगड़ा कर के शादी से 20-21 दिन पहले ही मायके आ गई थी, जबकि उस की खुद की ननद की शादी थी. सौरभ की शादी की वजह से दीप्ति की ससुराल वालों ने तारीख बढ़ा दी थी. इस के बावजूद दीप्ति को ननद की शादी की जरा भी चिंता नहीं थी. अपनी बेटी को लिए वह मायके में पड़ी थी.
सास की आवाज कान में पड़ते ही दिव्या उठ कर बैठ गई, जबकि सौरभ मजे से सो रहा था. उस समय दिव्या का मन उठने का बिलकुल नहीं हो रहा था. लेकिन सास की बातें आदेशात्मक थीं, इसलिए दिव्या को उठना ही पड़ा.
जैसे ही दिव्या ने दरवाजा खोला, उस की सास सामने आ कर खड़ी हो गईं. उन्होंने धीमे से, पर आदेशात्मक लहजे मेें कहा, ‘‘दिव्या, तुम वापस जाओ, भले ही तुम्हें नींद न आए, पर जब तक मैं न कहूं, तुम कमरे से बाहर मत आना.’’
दिव्या ने सहज प्रतिवाद किया, ‘‘पूर्वी ने दीप्ति को वैसे ही देर रात तक सोने नहीं दिया, इसलिए आप उन्हें थोड़ी देर सो लेने दीजिए, जो भी काम हो, आप मुझे बताइए. वह अकेली करतेकरते थक जाएंगी.’’
दिव्या की बात पर सहानुभूति प्रकट करने के बजाय उस की सास ने नाराज हो कर लगभग डांटते हुए कहा, ‘‘तुम अपने कमरे में जाओ, मैं जैसा कह रही हूं, वैसा ही करो. अभी तुम्हारी समझ में यह सब नहीं आएगा. दीप्ति जो काम कर रही है, उसे ही करने दो.’’
इस के बाद वे दनदनाती हुई दीप्ति के पास पहुंचीं और उस की चादर खींच कर बोलीं, ‘‘कब से चिल्ला रही हूं, तुम्हें सुनाई नहीें देता. पानी चला गया, तो पूरा घर कूड़े का ढेर बना रहेगा.’’
अच्छीखासी नाराजगी और गुस्सा दिखाते हुए दीप्ति उठी. दिव्या अपने कमरे में बैठी इस बात का अनुभव कर रही थी. उस की समझ मेें नहीं आ रहा था कि यह सब हो क्या रहा है, क्योंकि उस ने अब तक जो देखा था, उस के अनुसार मायके मेें आई बेटी को मांएं जान की तरह संभाल कर रखती हैं और उस की हर इच्छा पूरी करती हैं. बहू कितना भी परेशान हो, मांएं बेटी को घास का तिनका तक उठाने को नहीं कहतीं. मांओं का सोचना होता है कि ‘बेटी को ससुराल में तो खटना ही है, जितने दिन के लिए मायके आई है, उतने दिन तो आराम कर ले.’
यही लगभग हर मां का सोचना होता है. लेकिन दिव्या की सास की सोच और व्यवहार सब से एकदम अलग था. 9 बजे तक दिव्या नहाधो कर तैयार हो जाती, तो उस की सास उसे साथ ले कर अपने किसी रिश्तेदार या नजदीकी जानपहचान वाले के यहां मिलनेमिलाने चली जातीं. जातेजाते वे दीप्ति को इतने काम सौंप जातीं कि उसे पलभर आराम करने का समय न मिलता.
घर के सारे काम दीप्ति के ही जिम्मे थे. अगर दीप्ति कुछ कहती, तो उसे दुलारते हुए कहतीं, ‘‘बहू नईनई है न, अभी उसे हमारे घर के बारे में ठीक से पता नहीं है. इसलिए जब तक तुम यहां हो, सारे काम कर के दिखा दो कि हमारे यहां किस तरह काम किए जाते हैं. तुम्हारे हाथों का खाना खा कर दिव्या को पता चल जाएगा कि हम लोग कैसा खाना खाते हैं.’’
लेकिन, जिस संस्था से दिव्या पढ़ी थी और संस्कार ले कर आई थी, वह उस की मर्यादा नहीं भंग करना चाहती थी. दिल यही कह रहा था कि अब जिन के साथ रहना है, जिन के साथ जीवन व्यवहार की प्रीति बांधनी है, उन्हें खुश करना, उन की स्वीकृति लेना, भारतीय वैवाहिक जीवन में नववधू के लिए जरूरी है. यह हिंदुस्तान है, यूरोप या अमेरिका नहीं, यहां स्त्री मात्र एक पुरुष से नहीं, उस के परिवार, मित्रों, सगेसंबधिंयों से संबंध जोड़ती है. शादी मात्र दो दिलों के बीच के स्नेह की गांठ नहीं, पारिवारिक और सामाजिक स्नेह संवादिता की बहती धारा का स्रोत है. शिक्षा दिए जाने वाले आदर्श नहीं, बल्कि उस मेें विचारों और परंपराओं के निष्कर्ष हैं.
इसीलिए सौरभ के फोन काट देने के बाद भी उस की मम्मी का दिल जीत लेने की धुन दिव्या पर सवार हो गई थी. उसे अपने गुण, रूप और संस्कारों पर पूरा भरोसा था. उसे स्वयं पर विश्वास था, इसलिए किसी भी तरह की कसौटी पर खरा उतरने के संकल्प के साथ दिव्या जब सौरभ के घर पहुंची, तो आनंद और आश्चर्य का पारावार न रहा.
अकसर लोगों के मन में यही धारणा होती है कि प्यार के प्रपंच में पड़ने वाली लड़कियां नखरे वाली, आलसी और बेकार होती हैं. इस पूर्वाग्रह से ग्रसित होने की वजह से जब लड़की प्रेमी के घर वालों से मिलने जाती है, तो प्रेमी के घर वाले खासकर मांएं कठोर मुखमुद्रा बना कर आरपार बेधने वाली नजरों से घूरती हैं. उन के चेहरे की विद्रूपता से ही उन के मन की बात का पता चल जाता है. लेकिन यहां तो एकदम उलटा था. दिल से सच्ची परख करने वाली सौरभ की मां की नजरों में ऐसा कुछ भी नहीं झलक रहा था कि दिव्या को किसी तरह की कठिनाई या भय का सामना करना पड़ता.
धीरगंभीर चेहरा, किसी को भी आकर्षित कर लेने वाले व्यक्तित्व की धनी वह महिला, पहली ही नजर में किसी का भी मन अपने प्रभाव से जीत ले, ऐसी सौरभ की मां को देख कर दिव्या पलभर के लिए अपने अस्तित्व को भूल गई.
सुनीसुनाई बातों की वजह से दिव्या के मन में सौरभ की मां के प्रति जो धारणा बनी थी, यहां उस का एकदम उलटा पा कर उस के चेहरे पर छाए क्षोभ के बादलों ने उस की सुंदरता और व्यक्तित्व को ढक लिया. पश्चाताप और दुख से आंखें भर आईं. अनायास ही उस के दिल से मम्मी के बजाय ‘मां’ का उद्गार फूट पड़ा.
उस समय दिव्या को भान ही नहीं रहा कि कब चरणस्पर्श के लिए झुकी उस की देह सौरभ की मां की स्नेहिल बांहों मेें आबद्ध हो गई. जब उस के आंसुओं से उन के वक्ष भीगने लगे, तो झटके से दिव्या के दोनों कंधे पकड़ कर अलग किया और आंखों में आंखें डाल कर बोलीं, ‘‘अरे, तू तो सचमुच रो रही है. पगली, यह भी कोई रोने का समय है.’’
‘आप के लिए मेरे मन मेें जो धारणा थी, विचार थे, यह उसी का परिणाम है. ये पश्चाताप के आंसू हैं.’’
‘‘पहली मुलाकात और एक ही नजर में तुम ने मुझे परख लिया?’’ ‘हां मां, देखने वाली आंखें हों, तो दिल से कुछ भी अनजान नहीं रहता.’’
एक बार फिर उन्होंने दिव्या को सीने से लगा लिया. उस के बाद दिव्या का चेहरा दोनों हाथों की हथेलियोें के बीच ले कर माथे पर एक प्रगाढ़ चुंबन जड़ते हुए आहिस्ता से बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ने मुझे तीन बार ‘मां’ कहा है न, हमारी इस मुलाकात के दृश्य को मुसकराते हुए दिल में बसा लेने वाला यह मेरा बेटा सौरभ जब तक स्कूल जाता रहा, इस ने कभी मुझे मां नहीं कहा. जब यह कालेज जाने लगा, तब मैं इस के लिए आदरवाचक ‘मां’ उद्गार की पात्र बनी.’’
इस के बाद सौरभ की मां ने अपने बाईं ओर इशारा कर के कहा, ‘‘इधर देखो, तूफानी आंखों वाली यह लड़की तुम्हारी ननद दीप्ति है. यह सिर्फ कहने को दीप्ति है, बाकी यह अदीप्ति है. जैसे ही इसे पता चला कि तुम आने वाली हो, दामाद को ले कर मेरे यहां आ पहुंची कि तुम्हारे स्वागत में कोई कमी न रह जाए. मुझे यह मम्मी कहती है. मुझे तो यही लग रहा था कि तुम बाहर से पढ़ कर आई हो, इसलिए अब जो हमारे यहां चलने लगा है ‘मौम’ कह कर बुलाओगी.
‘‘लेकिन, आज तुम ने जैसा कहा, मैं तुम्हारी ‘मां’ हूं. दीप्ति ने मेरी देखरेख में इस घर में राज किया है. अब मुझे तुम्हारी ताजपोशी करनी है. बोलो, कब आ रही हो मेरे घर.’’
शिष्टशालीन भाषा, जरा भी कृतज्ञता या दिखावा नहीं. जो शब्द मुंह से निकल रहे थे, वे पूरी तरह से स्वाभाविक थे, उन का यह रूप और व्यवहार देख कर दिव्या इतनी खुश हुई कि उन के हर सवाल का जवाब दे कर उन का दिल जीत लिया.
सास से छुटकारा मिला, तो दिव्या को उस की होने वाली ननद दीप्ति ने पकड़ लिया, ‘‘भाभी, आप ने तो पहली ही मुलाकात में मम्मी का दिल जीत लिया. अभी तक वह जो थोड़ाबहुत मेरी थीं, आज से पूरी की पूरी आप की हो गईं.’’
एक तरह से दीप्ति का यह बहुत बढ़िया कांपलीमैंट्स था. उस के इस भाव ने दिव्या का मन मोह लिया था. उस ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘जी, आप ने ससुराल जाने में थोड़ी जल्दी कर दी, जिस से आप ने मेरा हलदी चढ़ाने और मेहंदी लगाने का हक तो मार ही लिया, एकाध साल साथ रहने का मौका भी गंवा दिया.’’
बस, इसी मुलाकात के बाद सौरभ की अपेक्षा उस की मां के सान्निध्य में रहने के लिए दिव्या का मन छटपटाने लगा. अब उस की शादी के लिए भाई के आने का इंतजार था. अमेरिका से उस के भाई के आते ही खूब आनंदोल्लास के साथ दिव्या का विवाह सौरभ के साथ हो गया.
डायरेक्टर अली अब्बास जफर की वेब सीरीज ‘तांडव’ जब से रीलीज हुई तब से विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है. सीन में कुछ विवादित सीन दिखाए गए हैं. जिसे देखऩे के बाद लोगों ने इस वेब सीरीज को बॉयकॉट करना शुरू कर दिया है.
फिर क्या था बीजेपी नेताओं ने कई राज्यों में इसके खिलाफ FIR दर्ज करवाया है. मामला इतना बढ़ गया कि सूचना पसारण मंत्रालय ने इस फिल्म के मेकर्स पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए. जब फिल्म के डॉयरक्टर अली अब्बास जफर ने देखा कि विवाद खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है तो उन्होंने मांफी मांग लिया.
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— ali abbas zafar (@aliabbaszafar) January 19, 2021
फिल्म के डॉयरेक्टर ने एक बार फिर ट्वीट करके सभी को जानकारी दिया है कि फिल्म से सभी विवादित सीन को हटाए जाएंगे.
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अली अब्बास जफर ने लिखा कि हम अपने देशवासियों के भावनाओं का सम्मान करते हैं. हमारी मनास किसी भी व्यक्ति के भावनाओं को चोट पहुंचाना नहीं है. हमारे सभी कॉस्ट और क्रू मेंबर्स ने मिलकर फैसला लिया है कि तांडव फिल्म के जो भी विवादित सीन है जिसे लेकर विवाद हो रहा है, उन सभी सीन को हटाए जाएंगे.
बात करें फिल्म तांडव की तो इसमें परिवार की पॉलिटिक्स दिखाई गई है. जिसमें सभी आपस में अपनी कुर्सी हासिल करने के लिए एक-दूसरे से लड़ते दिखाई दे रहे हैं.
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तांडव फिल्म में बाप और बेटे के बीच भी दुश्मनी दिखाई गई है. जिसे देखऩे के बाद लोगों का गुस्सा भड़क गया और सभी लोग इस फिल्म का बॉयकॉट करना शुरू कर दिए हैं. अब फैंस का गुस्सा शांत हो जाएगा कि जिस सीन को लोगों ने पसंद नहीं किया है. उसे हटाने का फैसला ले लिया गया है.
टीवी और बॉलीवुड में राज करने वाली गौहर खान इन दिनों अपने पति जैद दरबार के दिल में राज कर रही हैं. इस बात का खुलासा तब हुआ जब गौहर खान और जैद दरबार की हनीमून की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई.
वायरल हुई तस्वीर को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि दोनों अपने लाइप में एक- दूसरे के साथ बेहद ज्यादा खुश नजर आ रहे हैं. इन दिनों गौहर खान और जैद दरबार अपना हनीमून एंजॉय कर रहे हैं. लेकिन वहीं इनका स्वैग कम नहीं हुआ है.
जहां सभी कपल्स विदेश में अपना हनीमून मनाने जाते हैं वहीं गौहर खान और उनके पति जैद दरबार ने अपने हनीमून के लिए उदयपुर को चुना. अपने देश में ही अपने हनीमून को यादगार बनाने का सोचा.
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हनीमून पर पहुंचे जैद दरबार और गौहर खान एक –दूसरे से एक पल के लिए भू दूर नहीं हो रहे हैं. दोनों हमेशा साथ नजर आ रहे हैं. आप इन दोनों की तस्वीर को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं कि ये दोनों साथ में बेस्ट कपल लग रहे हैं.
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अदाकारा गौहर खान और उनके पति जैद दरबार एक- दूसरे पर जमकर प्यार बरसाते नजर आ रहे हैं. दोनों का प्यार एक –दूसरे के लिए कम होता नजर नहीं आ रहा है.
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अदाकारा गौहर खान अपने हनीमून को जमकर एजॉय करती नजर आ रही हैं. उनका चेहरा खिला हुआ नजर आ रहा है. वैसे इस वक्त उदयपुर का मौसम भी काफी ज्यादा खुशमिजाज है.
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इन दोनों कपल को फैंस भी खूब ज्यादा पसंद कर रहें हैं. लगातार इनके तस्वीर पर लोग कमेंट कर रहे हैं कि ये दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं. इन्हें लोगों से ढ़ेर सारा प्यार और दुआएं मिल रही हैं.
वैसे देखा जाए तो गौहर खान उम्र में अपने पति से बड़ी हैं लेकिन दोनों ने अपने प्यार में उम्र को नहीं आने दिया .
लेखक-डा. एसएस सिंह
सब्जियों की व्यावसायिक खेती को बढ़ावा देने में इन की स्वस्थ पौध तैयार करना एक महत्त्वपूर्ण विषय है. सब्जियों की स्वस्थ पौध तैयार करने में पौलीटनल तकनीक का विशेष महत्त्व है.
इस प्रकार सब्जियों की व्यावसायिक खेती को बढ़ावा देने में पौलीटनल तकनीक से सब्जियों की पौध तैयार करना व्यावहारिक, कारगर, सस्ती एवं किसानोपयोगी है, इसलिए इस तकनीक का प्रयोग कर किसान अपनी सब्जियों की खेती से ज्यादा उत्पादन और आमदनी हासिल कर सकते हैं.
देश में व्यावसायिक सब्जी उत्पादन को अधिक बढ़ावा देने में सब्जियों की स्वस्थ पौध उत्पादन पर आमतौर से किसान कम ध्यान देते हैं.
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एक अनुमान के मुताबिक, पौधशाला में सब्जी पौधे का औसत नुकसान 20-25 फीसदी होता है. लेकिन कई बार यह नुकसान 70-80 फीसदी तक हो जाता?है.
राष्ट्रीय स्तर पर अभी भी 40-50 फीसदी किसान सब्जियों की पौध खुले वातावरण में उगाते हैं. सब्जियों की पौध खुले वातावरण में उगाने से कई प्रकार की समस्याएं सामने आती हैं. इन समस्याओं में बीज का जमाव कमी होना, जमाव के बाद पौध के समुचित विकास में कमी, कीटों और बीमारियों का ज्यादा से ज्यादा प्रकोप, पौध तैयार होने में अधिक समय का लगना आदि प्रमुख हैं.
पौलीटनल तकनीक
पौलीटनल तकनीक सब्जी पौध उगाने की सस्ती, कारगर व व्यावहारिक तकनीक है. इस तकनीक से पौध उगाने पर बीज का जमाव समुचित ढंग से होता है. जमाव के बाद पौध का विकास बेहतर होता है.
पौध को वातावरण के अनुसार अनुकूलन (हार्डनिंग) में सहायता मिलती है. पौलीटनल तकनीक से पौध उगा कर खेत में रोपाई करने से पौधों की मृत्यु दर नहीं के बराबर होती है. इस तकनीक का सब से बड़ा फायदा यह है कि विपरीत मौसम में (ज्यादा वर्षा, गरमी व ठंड के समय) भी सब्जी पौध कामयाबी से तैयार की जा सकती है, जबकि खुले वातावरण में वर्षा के मौसम में और ज्यादा ठंड के समय पौध उगाना तकरीबन नामुमकिन होता हैं, क्योंकि लगातार वर्षा व ठंड के कारण बीज का जमाव बहुत कम होता है.
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पौलीटनल लगाने का सही ढंग
पौलीटनल लगाने के लिए चार सूत का सरिया या बांस लेते हैं, जिस की लंबाई 8 फुट होती है. एक मीटर चौड़ी बैड के दोनों तरफ
6 इंच गहराई में सरिया अथवा बांस को जमीन के अंदर गाड़ देते हैं. एक मीटर चौड़ी बैड के दोनों तरफ सरिया अथवा बांस को गाड़ने से सुरंगनुमा संरचना बन जाती है. बैड के बीच में सरिया या बांस की ऊंचाई तकरीबन 2.50 फुट होती है.
इस तरह हर 2 मीटर की दूरी पर 8 फुट लंबाई का सरिया या बांस को बैड के दोनों तरफ जमीन के अंदर गाड़ देते हैं. एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में बंदगोभी, फूलगोभी, मिर्च, बैगन, शिमला मिर्च, टमाटर की खेती करने के लिए एक मीटर चौड़ी क्यारी, जिस की लंबाई
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40 मीटर हो, की जरूरत होती है. अगर 40 मीटर लंबी जगह न हो, तो 20-20 मीटर लंबाई के 2 बैड या 10-10 मीटर लंबाई की 4 क्यारियां बना सकते हैं. एक मीटर चौड़ी और 40 मीटर लंबी क्यारी में लगभग 350-400 ग्राम बीज बताई गई सब्जियों की जरूरत होती है, जो एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए सही होती है.
पौलीटनल में इन सब्जियों के बीजों की बोआई के लिए सब से पहले बैड की गुड़ाई कर मिट्टी को भुरभुरा बना लेते हैं. एक मीटर चौड़ा और 40 मीटर लंबा पौलीटनल में तकरीबन 5 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद या 3 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट फैला कर बैड की मिट्टी में मिला देते हैं. इस के बाद बैड की सिंचाई करते हैं.
4-5 दिनों बाद क्यारी की गुड़ाई कर बीज की लाइन में बोआई करते हैं. बीज की बोआई के लिए 2-3 सैंटीमीटर गहरी कतार बनाते
हैं और इस लाइन में बीज की बोआई कर मिट्टी से ढक देते हैं.
बीज की बोआई के लिए लाइन बनाते समय एक से दूसरी लाइन की दूरी 2 इंच रखते हैं. बीज की बोआई के समय बैड में सही नमी का होना जरूरी है. अगर पूरी नमी नहीं है, तो बीज की बोआई के बाद फुहारे से हलकी सिंचाई कर देते हैं.
पौलीटनल तकनीक में पौलीथिन का इस्तेमाल
बीज की बोआई के बाद पौलीटनल को सफेद पौलीथिन से ढक देते हैं. इस के लिए तकरीबन 4 मीटर चौड़ी पौलीथिन व लंबाई अपनी जरूरत को देखते हुए खरीद लेते हैं. पौलीथिन 200 माइक्रौन का अच्छा माना जाता है. बीज की बोआई के बाद पौलीटनल को शाम के समय इस को पौलीथिन से ढक देते हैं. रात के समय यह पौलीथिन ढका रहता है. यदि दिन का तापमान 25-26 डिगरी से ज्यादा है, तो दिन के समय पौलीथिन को हटा देते हैं और शाम को ढक देते हैं.
अगर इन सब्जियों की पौध अप्रैल से सितंबर महीने के बीच तैयार करनी हो, तो रात के समय भी बैड के दोनों तरफ की पौलीथिन एक फुट ऊंचाई तक फोल्ड कर देते हैं, क्योंकि इस अवधि में रात के समय भी तापमान ज्यादा होता है. ऐसा करने से हवा का आनाजाना बैड के अंदर समुचित ढंग से होने के चलते तापमान भी ज्यादा नहीं होता है.
अप्रैलसितंबर महीने के मध्य पौध तैयार करते समय दिन में पौलीथिन हटा देते हैं. जब वर्षा होने की संभावना हो, उस समय पौलीटनल को पौलीथिन से ढक देते हैं. क्यारी के दोनों तरफ की पौलीथिन को एक फुट ऊंचाई तक फोल्ड कर देते हैं. इस प्रकार 25-30 दिनों में पौध तैयार हो जाती है.
कद्दूवर्गीय सब्जियों की पौध तैयार करना
कद्दवर्गीय सब्जियों जैसे खीरा, करेला, लौकी, तुरई, छप्पन कद्दू का पौध तैयार करने के लिए 5 इंच लंबी व 3 इंच चौड़ी काली पौलीथिन लेते हैं. काली पौलीथिन में 50 फीसदी मिट्टी व 50 फीसदी गोबर की सड़ी खाद या वर्मी कंपोस्ट का मिश्रण तैयार कर पौलीथिन बैग में भराई करते हैं. उस के बाद पालीथिन बैग को तैयार पौलीटनल में रख कर बीज की बोआई करते हैं.
इस कद्दूवर्गीय सब्जियों की एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में खेती के लिए तकरीबन 8-10 हजार पौध की जरूरत होती है, जिसे एक मीटर चौड़ी और 45 मीटर लंबा पौलीटनल में तैयार किया जा सकता है.
कद्दूवर्गीय सब्जियों की पौध जनवरी महीने में तैयार करते हैं. उस समय बहुत ठंड होती है, इसलिए कद्दूवर्गीय सब्जियों की पौलीटनल में रखे पौलीथिन में बीज की बोआई के बाद 4-5 दिनों तक लगातार सफेद पौलीथिन से ढक देते हैं. इस के लिए 4 मीटर चौड़ी पौलीथिन
व लंबाई अपनी जरूरत के मुताबिक, जो 200 माइक्रौन की हो, का इस्तेमाल करते हैं.
बोआई के समय पौलीथिन बैग में सही नमी का होना जरूरी है. यदि नमी कम हो तो बोआई के बाद फुहारे से पौलीथिन बैग की हलकी सिंचाई कर देते हैं.
बोआई के 4-5 दिनों बाद पौलीथिन को दिन में हटा कर देखते हैं. नमी कम होने पर फुहारे से हलकी सिंचाई करते हैं.
जब 8-10 दिनों बाद पौधों में जमाव हो जाता है, उस समय दिन के समय जब अच्छी धूप रहती है, पौलीथिन को हटा देते हैं. 4-5 घंटे धूप लगने देते हैं. ऐसा करने से पौधों पर धूप आती है. इस से पौधे कठोर होते हैं.
शाम के समय पौलीटनल को ढकने से पहले यदि नमी कम हो, तो हलकी सिंचाई करते हैं. इस तरह कद्दूवर्गीय सब्जियों की पौध तकरीबन 30 दिनों में तैयार हो जाती है. करेला, लौकी, तुरई की बोआई से पहले 12-14 घंटे पानी में बीज को भिगो लेते हैं. उस के बाद बीज की बोआई करते हैं. ऐसा करने से बीज का जमाव जल्दी और समुचित ढंग से होता है.
यदि कद्दूवर्गीय सब्जियों की पौध को जनवरी महीने में तैयार किया जाए और फरवरी महीने के पहले पखवारे में रोपाई की जाए तो 20-25 मार्च तक उत्पादन मिलना शुरू हो जाता है. इस अवधि में उत्पादन होने से इन सब्जियों से किसान को उन के उत्पाद का बाजार में लाभकारी मूल्य प्राप्त होता है, क्योंकि इस अवधि में बाजार में कद्दूवर्गीय सब्जियों की कमी होती है.
पौलीटनल तकनीक के फायदे
* पौलीटनल तकनीक से साल के किसी भी मौसम में चाहे अधिक वर्षा, गरमी और ठंड हो, उस समय भी सब्जियों की पौध कामयाबी से तैयार की जा सकती है.
* इस तकनीक से पौध तैयार करने पर बीज का जमाव तकरीबन सौ फीसदी होता है. जमाव के बाद पौधों का विकास समुचित ढंग से होता है. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि पौलीटनल के अंदर का तापमान बीज के जमाव व पौधों की बढ़वार के लिए आदर्श होता है.
* पौलीटनल में पौध उगाने से बीज जमाव के बाद दिन में धूप के समय पौलीथिन को हटा देते हैं, जिस से पौधों का धूप के संपर्क में आने से उन का वातावरण के अनुसार अनुकूलन (हार्डनिंग) हो जाता है. ऐसे पौधों की खेत में रोपाई करने से उन की मृत्यु दर बहुत कम (न के बराबर) होती है.
* बीज का जमाव जल्दी होने, पौधों की समुचित बढ़वार से पौध तैयार करने में समय कम लगता है.
* विपरीत मौसम में यानी ज्यादा गरमी, वर्षा, ठंड, ओला, बर्फ गिरने से पौधों की क्षति नहीं होती है, क्योंकि पौधे पौलीटनल के अंदर पौलीथिन से ढके रहते हैं.
* पौलीटनल तकनीक से पौध उगाने पर कीटों व रोगों का प्रकोप भी कम होता है.
पौलीटनल तकनीक में सावधानियां
* पौलीटनल तकनीक से पौध तैयार करने के लिए ऐसी जगह का चुनाव करना चाहिए, जहां बारिश के समय पानी का जमाव न होता हो.
* स्थान का चुनाव करते समय यह भी ध्यान देना चाहिए कि वहां पर पूरे दिन सूरज की रोशनी आती हो.
* ऐसी जगह का चयन करना चाहिए, जहां कि मिट्टी हलकी हो, जैसे बलुई दोमट या दोमट मिट्टी, जिस का पीएच मान 7.0 के आसपास हो.
* चुनी गई जगह के पास सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने के साथसाथ जल निकास की उचित व्यवस्था हो.
पौलीटनल में कीटों व रोगों का प्रबंधन
* पौलीटनल की बैड में बोआई से 10 दिन पहले इस्तेमाल की जाने वाली गोबर की सड़ी खाद या वर्मी कंपोस्ट में ट्राइकोडर्मास्यूडोमोनास का मिश्रण मिला दें, एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जी की खेती के लिए एक मीटर चौड़ी और 40 मीटर लंबी क्यारी में 5 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद या 3 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करते हैं, जिस से इन का फैलाव खाद अथवा वर्मी कंपोस्ट में हो सके.
उपरोक्त जैविक फफूंदनाशकों का मिश्रण मिलाते समय यह ध्यान दें कि खाद के अंदर पर्याप्त नमी हो. उस के बाद बोआई से एक दिन पहले बैड की गुड़ाई के समय इस मिश्रण को बैड में फैला दें. ऐसा करने से पौधों को पोषक तत्त्व मिलने के साथसाथ फफूंदजनित रोगों का प्रकोप भी कम होता है.
* बोआई से पहले बीज उपचारित करने के लिए 5 ग्राम ट्राइकोडर्मास्यूडोमोनास को 100 मिलीलिटर पानी में मिला कर घोल बना दें और इस घोल में सब्जियों की 300-350 ग्राम बीज को 30 मिनट के लिए डाल दें. इस के बाद उपचारित बीज को छाया में सुखा कर बीज की बोआई करें. ऐसा करने से भी बीज जमाव व पौधों के विकास के समय फफूंदजनित रोगों के प्रकोप की संभावना कम रहती है.
* बीज जमाव के बाद पौधों में आर्द्र गलन रोग (डंपिंग औफ डिजीज) के प्रकोप की संभावना अधिक होती है. इस अवधि में बैड की दिन में 2 बार सुबह व शाम के समय निगरानी करें.
रोग के प्रकोप का लक्षण दिखाई देते ही कार्बेंडाजिम मैंकोजेब की एक ग्राम मात्रा एक लिटर पानी में घोल बना कर पौधों पर और पौधों की जड़ों के आसपास छिड़काव करें.
इस रोग का प्रकोप सभी सब्जियों में बीज जमाव के बाद व पौधों के विकास के समय देखा जाता है. वर्षा के मौसम में इस रोग का प्रकोप ज्यादाहोता है.
पोषण प्रबंधन
* पौध तैयार करने के लिए एक मीटर चौड़ी तथा 40 मीटर लंबी बैड में 5 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद या 3 क्विंटल वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल करने पर किसी रासायनिक उर्वरकों की जरूरत नहीं होती है.
* प्याज की पौध तैयार करते समय पत्तियों में पीलापन की समस्या आती है. इस के लिए 2 ग्राम यूरिया प्रति लिटर पानी में घोल बना कर 7 दिनों के अंतराल पर 2-3 छिड़काव करने से समस्या का प्रभावी समाधान हो जाता है. इस से पौधों की मोटाई व बढ़वार में भी मदद मिलती है.
* दूसरी सब्जियों में बोआई के 15 दिनों बाद एनपीके (19:19:19) को 2 ग्राम प्रति लिटर पानी में घोल बना कर एक छिड़काव करने से पौधों की बढ़वार में मदद मिलती है.
जब हम जंगलों, झरनों, पहाड़ों में प्रकृति के नजदीक होते हैं, तो खुद से भी कुछ संवाद यानी बात तो करते ही हैं, मगर यह संवाद और बात उस जज्बे, उस संघर्ष के इर्दगिर्द भी तो जरूर घूमनी ही चाहिए, जिस ने प्रकृति के उस टुकड़े को इतना पावन बनाए रखने में अपना जीवन लगा दिया.
आजाद हिंदुस्तान के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जब ऐसे ही एक जंगल से हो कर गुजरे, तो वहां की जड़ीबूटी, फूलों की प्राकृतिक महक, पंछियों का चहचहाना और निर्भय हो कर काम करते गांव वालों को देख कर उन के मन में यह जिज्ञासा पैदा हुई कि इस बीहड़ को सब के लिए इतना खूबसूरत बनाने वाला वो कौन था? और फिर उन के सामने जिम कार्बेट की वो पूरी दास्तान, उन की समूची जीवनयात्रा आई, एक अंगरेज होते हुए भी किसी गोरे ने भारतवर्ष और भारतीयों से इतना अटूट प्रेम किया, नगर और शहर नहीं, बल्कि बीहड़ के पास रहने वाले गांव वालों से गहरा नाता जोड़ा.
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पंडित जवाहरलाल नेहरू तब उत्तराखंड में स्थित उस कार्बेट नेशनल पार्क का भ्रमण कर रहे थे, जिस का नाम तब ‘रामगंगा उद्यान‘ था. नेहरू को यह जानकारी मिली कि ‘माई इंडिया‘ और ‘मैन ईटर्स औफ कुमाऊं’ नामक विश्वविख्यात किताबें लिखने वाले जिम कार्बेट आजाद भारत से अब केन्या चले गए हैं और वहां पर भी हर्बल कौफी गार्डन विकसित कर रहे हैं, लगातार वन्य जीवों के लिए काम कर रहे हैं, मगर यहां उन को कोई याद करने वाला नहीं. साथ ही, यह भी जानकारी मिली कि अब जिम कार्बेट भारत वापस लौट नहीं सकेंगे.
तब वे खुश हुए यह जान कर कि जिम कार्बेट की ‘मैन ईटर्स औफ कुमाऊं’ के आवरण भी सत्यजीत रे ने लगभग एक समय पर ही डिजाइन किए थे, जब वे उन की कालजयी कृति ‘डिस्कवरी औफ इंडिया’ के आवरण डिजाइन कर रहे थे.
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नेहरू की उन से मिलने की चाहत अधूरी रह गई, क्योंकि जिम कार्बेट साल 1955 में केन्या के अपने घर में ही इस संसार को अलविदा कह गए.
जिम कार्बेट की जीवनगाथा को स्थानीय लोगों से जानने के बाद भारत सरकार द्वारा इस का नाम ‘जिम कार्बेट नेशनल पार्क‘ रखा गया.
सामान्य जानकारी के हिसाब से जिम कार्बेट एक अंगरेज शिकारी थे, जिन के नाम पर आज इस राष्ट्रीय उद्यान को पूरी दुनिया जानती है. वैसे, जिम कार्बेट का पूरा नाम जेम्स एडवर्ड कार्बेट था. इन का जन्म 25 जुलाई, 1875 में रामनगर के पास ‘कालाढूंगी‘ नामक स्थान में हुआ था. यह गांव तब उस कार्बेट पार्क से बिलकुल नजदीक ही एक साधारण सा गांव था और लगभग 150 साल बाद आज भी एक सामान्य सा भोला सा गांव ही है.
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जिम कार्बेट के पिता भी भारत में ही पैदा हुए थे. पिता अंगरेजी सेना में काम करते थे. पिता का ही यह असर था कि जिम कार्बेट बचपन से बहुत मेहनती, ईमानदार और निडर थे. खुद जिम कार्बेट ने भी अपने जीवन में अनेक तरह के काम किए. ड्राइवरी, कुक, बागबान, पदयात्रा और सेना में नौकरी वगैरह. साथ ही, वे ट्रांसपोर्ट अधिकारी तक बन चुके थे और रेलवे में भी उन्होंने कई साल तकरीबन 25 साल तक अपनी सेवाएं दीं, मगर वे दिल से थे तो जंगल के ही सच्चे बेटे, क्योंकि जिम प्रकृति से बेहद प्यार करते थे. जंगल की खूबसूरती और वन्य पशुओं के प्रेम की ओर वे ज्यादा ही आकर्षित रहते थे, इसलिए वनों में ही रमे रहते थे.
साल 1875 में जब जिम कार्बेट का अवतरण हुआ, तो यह वो खास समय था, जब भारत में एक रूसी भारतविद इवान पाव्लोविच मिनायेव अल्मोड़ा आए थे और यहां रामनगर भी वह कुछ महीने रहे. इन 3 महीनों में उन्होंने कुमाऊंनी भाषा सीखी और स्थानीय लोगों से यहां की लोककथाएं और दंतकथाएं सुनीं.
साल 1876 में रूस लौटने के बाद उन्होंने उन कहानियों का रूसी अनुवाद प्रकाशित किया. काश, वे दोबारा भारत आ पाते और देखते कि एक ब्रिटिश बालक किशोर बन कर कैसे भारतीयों का हमजोली उन का हमदर्द बना हुआ है.
नेहरू ने ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम‘ पुस्तक में एक जगह बेटी इंदिरा से कहा है, ‘‘यह जीवन अपने कुछ निर्धारित संस्कारों के साथ आता है, इसलिए वो नदी की तरह सब के लिए बहता है.‘‘
जिम कार्बेट भी कुछ अनोखी परिभाषा के रूपक रहे. वे कुमाऊं और गढ़वाल के गांवों में उन के मूल निवासियों के साथ जिम ने मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करते रहे और उन्होंने ही संरक्षित वनों के आंदोलन का भी आगाज किया. जब भी इन्हें समय मिलता था, वे कुमाऊं के वनों में घूमने निकल जाते थे. पहाड़ी भारतीय उन से इतना प्रेम करने लगे थे कि जिम कार्बेट को ‘गोरा बाबा‘ कहते. वे इसी नाम से खूब पहचाने जाने लगे थे. उन को लिखने, पढ़ने, सब से मिलनेजुलने का बेहद शौक था.
जिम कार्बेट हर माहौल मे रम जाते थे, इसीलिए लोग उन को अपना मानते थे. वे शिकारी होने के साथसाथ लेखक व दार्शनिक थे, मगर वे किसी जानवर को आहत नहीं करते थे, उन का शिकारी होना महज एक संजोग ही था, जो उन की पहचान ही बन गया, मानो वे इसीलिए पैदा हुए थे.
एक बार इसी उद्यान के एक आदमखोर बाघ ने पूरे रामनगर और पड़ोसी इलाके में कहर ही बरपा दिया. बड़े से बड़े शिकारी हार गए और आखिरकार जिम कार्बेट ने कोशिश कर के उस पर काबू पाया. हालांकि वह बहुत बूढ़ा बाघ था और उस की खोपड़ी का पूरा अध्ययन कर के जिम इस नतीजे पर पहुंचे कि यह एक बीमार बाघ था और गांव वाले बहुत ही सरल व लापरवाह, इसीलिए एकएक कर इस के शिकार होते गए.
जिम कार्बेट का यह समर्पण और बाघों का गहन निरीक्षणपरीक्षण प्रशासन तक भी पहुंचा और जिम को अंगरेजी सरकार ने बंदूकें चलाने का विशेष लाइसेंस दिया था, जिस का उन्होंने पूरे जीवन में कभी दुरुपयोग नहीं किया. कम से कम 34 बार पूरे कुमाऊं व गढ़वाल और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में वे लोगों के जीवनदाता बने. उन्होंने नरभक्षी खूंख्वार बाघों का संहार किया.
आज भी कालाढूंगी से ले कर नैनीताल तक बूढ़ेबुजुर्ग उस जाबांज की कहानियां सुनाते हैं, जो उन्होंने अपने बचपन में जिम कार्बेट मे साक्षात देखी थीं.
जिम कार्बेट के जीतेजी भी यह उद्यान अपनी वास्तविक दशा में था, मगर इस का कोई नाम नहीं था. दरअसल, अपने खोजबीन अभियान के अंतर्गत अंगरेजों ने साल 1820 में नैनीताल के आसपास कुछ बीहड़ वन खोज डाले, जिन में से एक यह जंगल भी था, जो जिम के जन्मस्थान, कालाढूंगी गांव के पास ही था. तब गोरी सरकार ने अपने खोजी दस्ते से इस जंगल की सारी जानकारी जुटाई और पता लगा कि यहां सब से अधिक बाघ – रौयल बंगाल टाइगर हैं, जो कि पूरे भारत में सर्वाधिक गठीले और बढ़िया नस्ल वाले यहां ही मिले. साथ ही, यहां रामगंगा के इर्दगिर्द फैले घास के पठारों से ‘मैदानों और ‘मंझाड़े’ (जल के मध्य स्थित जंगल), में सैकडों की तादाद में हिरनों, जिन में खासकर स्पौटेड डियर यानी चीतलों के झुंड सहजता से नजर आने लगे थे.
भारतीय हाथी, गुलदार, जंगली बिल्ली, फिशिंग कैट्स, हिमालयन कैट्स, हिमालयन काला भालू, सूअर, तेंदुए, गुलदार, सियार, जंगली बोर, पैंगोलिन, भेड़िए, मार्टेंस, ढोल, सिवेट, नेवला, ऊदबिलाव, खरगोश, चीतल, हिरन, लंगूर, नीलगाय, स्लोथ बीयर, सांभर, काकड़, चिंकारा, पाड़ा, होग हिरन, गुंटजाक (बार्किंग डियर) सहित कई प्रकार के हिरण, तेंदुआ बिल्ली, जंगली बिल्ली, मछली मार बिल्ली, भालू, बंदर, जंगली, कुत्ते, गीदड़, पहाड़ी बकरे (घोड़ाल) और हजारों की तादाद में लंगूर और बंदरों की कितनी ही प्रजातियां तब पाई गईं.
इस के अलावा यहां पर रामगंगा नदी के गहरे कुंडों में शर्मीले स्वभाव के घड़ियाल और तटों पर मगरमच्छ, ऊदबिलाव और कछुए सहित 50 से ज्यादा स्तनधारी खोजे गए. साथ ही, रामगंगा व उस की सहायक नदियों में ‘स्पोर्टिंग फिश’ कही जाने वाली ‘महासीर‘ मछलियों को देख कर तो सब चैंक ही गए थे.
इतना ही नहीं, अंगरेजी सरकार ने कुशल सपेरे भी नियुक्त किए और खुलासा हुआ कि उस घनघोर जंगल में किंग कोबरा, वाइपर, कोबरा, करैत, रूसलस, नागर और विशालकाय अजगर जैसे कम से कम बीसियों प्रजाति के सरीसृप व सर्प प्रजातियां भी विचरण कर रही हैं, जो बताती हैं कि यह क्षेत्र सरीसृपों और स्तनपायी जानवरों की जैव विविधता के दृष्टिकोण से कितना समृद्ध है.
उस समय अंगरेज अपनी इस रिसर्च से बहुत ही भौंचक्के थे और इस को नेशनल पार्क बना कर सुरक्षित रखना चाहते थे. वे सावधान थे कि इस को पूरा समझ लेने से पहले यह इलाका किसी की पकड़ में न आ जाए, यह भी एक वजह थी कि वो इस का पूरा दोहन करना यानी लाभ उठाना चाहते थे.
वैसे भी यह घना और भयंकर डरावना बीहड़ कहलाता था. यहां अकेले या दुकेले कोई भी घुसने की हिम्मत तक नहीं कर पाता था. यह जंगल उस समय सरकार को लाखों टन कीमती लकड़ी दे रहा था. इस के अलावा इस पार्क के निर्माण के और भी कई कारण थे. एक तो यह भी था कि उत्तराखंड के नैनीताल जिले के कुमाऊं और गढ़वाल के बीच में यह बहुत ही महत्वपूर्ण रामगंगा नदी के किनारे स्थित था. ऐसा करने से अंगरेजी सरकार को सिर्फ अपने मेहमानों के लिए एक पर्यटन स्थल भी मिल रहा था.
बाघों की इस स्वर्ग स्थली विभिन्न जैव विविधता वाले स्थान जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान और टाइगर रिजर्व की स्थापना 8 अगस्त, 1836 को ‘होली नेशनल पार्क‘ के नाम से हुई थी. उन दिनों जिम कार्बेट तो नहीं थे, पर उन के पिता जरूर इन जंगलों मे गांव वालों के साथ घूमा करते रहे होंगे, तब वे जानते तक नहीं थे कि एक दिन पूरी दुनिया इस को उन के बेटे के नाम से जानेगी. पहली बार 1855 में और उस के बाद कुमाऊं के कमिश्नर मेजर हेनरी रैम्जे ने यहां के वनों को सुरक्षित रखने के लिए एक व्यवस्थित योजना बनाई थी.
उस के 20 साल बाद ही जिम कार्बेट का जन्म हुआ और उन के युवा होतेहोते आसपास गांव वालों पर जंगली जानवरों का कहर टूटने लगा. इस घनघोर जंगल से तब पेड़ काटे जा रहे थे और जानवर आधी रात को गांवों में आ जाते थे.
युवक जिम कार्बेट अपना रोजगार तो करते ही थे, पर गांव वालों को निर्भय करने का संकल्प भी ले चुके थे. वे अपनी 20 साल की बाली उमर से ले कर 50 साल की परिपक्व उम्र तक पहाड़ी इलाकों से नरभक्षी बाघों के ठिकाने और उन को रोकने की मुहिम को सफल अंजाम देते रहे, तब तक जब तक कि वे केन्या नहीं लौटे.
जिम कार्बेट तो चले गए, पर उन के जन्मस्थान कालाढूंगी की धरती पर स्थापित एक शानदार ‘जिम कार्बेट संग्रहालय‘ उन के द्वारा किए गए कामों के प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि है. कालाढूंगी के ही पास जंगल में एक खूबसूरत झरना बहता है, जो कि एक दर्शनीय स्थल है.
पंडित जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों से इस का नाम ‘कार्बेट फाल‘ रखा गया. आज हमारे देश का सब से पुराना राष्टीय उद्यान ‘जिम कार्बेट पार्क’ नवंबर से मई माह तक पर्यटकों से ऐसा गुलजार रहता है कि वहां गेस्ट हाउस और होटल तक कम पड़ जाते हैं.
राजधानी दिल्ली से केवल 5 घंटे की सड़क यात्रा कर के पहुंचा जा सकता है. यह स्थान राजधानी दिल्ली से महज 250 किलोमीटर दूर है. दिल्ली और लखनऊ से तो यहां तक के लिए सीधी रेलगाड़ी की व्यवस्था भी है, पर अभी यहां आसपास कोई नजदीकी नियमित उड़ान उपलब्ध नहीं है. हां, 50 किलोमीटर दूर पंतनगर तक कुछ उड़ानें तो हैं, लेकिन वो इतनी सटीक और नियमित कभी नहीं रहतीं. इसलिए दिल्ली, मुंबई, पूना से बस, कार आदि की यात्रा कर के ही ज्यादातर स्कूल, संस्थान यहां पर्यटन और अध्ययन के लिए आते हैं.
सुकून के साथसाथ नयापन और अद्भुत प्राकृतिक छटा का भी अनुभव करना चाहते हैं, तो जिम कार्बेट बहुत ही उपयुक्त है. एक शाम का ठहरना यहां पर महज 100 रुपए में भी बहुत आराम से हो जाता है और 20 रुपए में पौष्टिक खाना भी मिल जाता है. ताजा फल तो यहां बहुत ही रियायती दर पर मिल जाते हैं. लोगों की रुचि के मद्देनजर यहां विलासिता के लिए महंगे रिसौर्ट भी हैं, जो एक दिन रहनेखाने और पांचसितारा सुविधाओं का 50,000 से ले कर एक लाख रुपए तक का किराया लेते हैं. 500 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैला यह पार्क 4 अलगअलग जोन में बंटा हुआ है- झिरना, बिजरानी, ढिकाला, और दुर्गादेवी. ये चारों जोन अपनेआप में अनूठे हैं.
झिरना: रामनगर शहर से महज 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है झिरना. झिरना जिम कार्बेट नेशनल पार्क, पर्यटन वर्ष दौर के लिए खुला रहने वाला एक महत्वपूर्ण पर्यटन क्षेत्र है. यहां पर हर तरह का भोजन, आवास, जरूरी रसद की सुखसुविधा सस्ती दरों पर मिल जाती है.
बिजरानीः यह जोन गजब के प्राकृतिक सौंदर्य और खुले घास के मैदानों से जाना जाता है. प्रचुर मात्रा में घास की उपलब्धि के कारण यह क्षेत्र लोकप्रिय पर्यटन केंद्र है. बिजरानी जोन का प्रवेश द्वार रामनगर शहर से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहां पर एक बांध भी है, जो बस मिट्टी से ही बना है, पर देखने लायक है.
ढिकालाः ढिकाला बहुत ही हराभरा है. यह रामगंगा की घाटी की सीमा पर स्थित है. यह स्थान वन्य जीवन की दृष्टि से समृद्ध है और जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान में सब से लोकप्रिय जगह भी यही है. ढिकाला जोन जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान में सब से बड़ा और पक्षी विहार के लिए दर्शनीय क्षेत्र है. यह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए इतना चर्चित है कि इस स्थान से विदेशी जीवजंतुओं को देखना व फोटो लेना भी बेहद आसान है. पैदल घूमने की दृष्टि से भी यह जगह अति उत्तम है. ढिकाला जोन का प्रवेश द्वार रामनगर शहर से 10-12 किलोमीटर दूर है.
दुर्गादेवी: जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान में दुर्गादेवी जोन उत्तरपूर्वी सीमा पर स्थित है. दुर्गादेवी जोन उन लोगों के लिए पृथ्वी पर स्वर्ग है, जो पशुपक्षी, पेड़पौधे और घना इलाका एकसाथ देखने का शौक रखते हैं. इस जोन का प्रवेश द्वार रामनगर शहर से महज 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. जून माह के अंतिम सप्ताह से सितंबर माह तक यह बिलकुल बंद रहता है. कारण है कि यहां सभी नदियां भयंकर उफान पर होती हैं और पूरे चैमासे खतरे के निशान से ऊपर ही रहती हैं. हर साल यह इलाका जुलाई से सितंबर माह तक पानी में भरा ही मिलता है और बेहद खतरनाक भी हो जाता है. पर्यटक वाहनों को कालाढूंगी पर ही रोक दिया जाता है. बस स्थानीय लोग ही आगे आजा सकते हैं.
जनवरी से जून माह तक यहां पर्यटकों की भारी रौनक रहती है. बस जुलाई से सितंबर माह तक जरा रुकावट रहती है. वहीं अक्तूबर से दिसंबर माह से फिर वही चहलपहल शुरू हो जाती है.
अब तो नए साल का जश्न मनाने के लिए यहां बहुतायत में सैलानी आने लगे हैं. जिम कार्बेट पार्क में हर साल तकरीबन एक से सवा लाख प्रकृतिप्रेमी देश से ही नहीं, बल्कि दुनियाभर से उमड़ कर खिंचे चले आते हैं.