बीता साल कितनी आपदाओं भरा रहा, यह किसी से छिपा नहीं है. देश के सभी नागरिक निराशा की स्थिति से गुजरे. देश के युवावर्ग की हालत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि बेरोजगारी से तो वे पहले ही तंग थे, वायरसी लौकडाउन थोपे जाने के चलते उन की हालत अब बद से बदतर हो गई है. अप्रैल 2020 में जारी सीएमआईई यानी सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी की रिपोर्ट के अनुसार, देश में बेरोजगारी दर 23.52 फीसदी थी जो अभी तक की सब से अधिक बेरोजगारी दर है. बेरोजगारी की दर में यह इजाफा बहुत ही चिंताजनक संकेत है. वहीं, यह लेबर मार्केट में मांग की कमी की ओर इशारा करती है.

बात केवल रोजगार की नहीं है. अधिकतर युवा क्वार्टर लाइफ क्राइसिस से गुजर रहे हैं. मालूम हो कि 20 से 30 साल तक की उम्र में आने वाली समस्याओं से जीने की क्षमता में कमी आने को क्वार्टर लाइफ क्राइसिस कहते हैं. युवा जब इन समस्याओं को सहन नहीं कर पाता, वह अकेलापन महसूस करता है, तब खुद को अयोग्य सम? डिप्रैशन में आने लगता है. यह समस्या एक बड़ी चुनौती है. एक शोध के मुताबिक, इस उम्र के 86 प्रतिशत युवा नौकरी, आर्थिक समस्याएं, आपसी संबंध और पारिवारिक समस्याओं से जी रहे हैं. कुल मिला कर एकतिहाई युवा क्वार्टर लाइफ क्राइसिस से जी रहे हैं जो एक बड़ा आंकड़ा है.

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युवाओं को ले कर मोदी सरकार के वादे थोथे साबित हुए. 2014 में लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान  2 करोड़ नौकरियां हर साल देने के वादे के साथ बनी भाजपा सरकार सत्ता में आते ही वादों से मुकर गई. बचीखुची जितनी नौकरियां थीं, वे नोटबंदी और जीएसटी के कारण डूबती अर्थव्यवस्था ने खत्म कर दीं.

स्थिति यह है कि 2019 आतेआते एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक प्रतिघंटे एक युवा बेरोजगारी के चलते आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ और देश 45 साल के सब से अधिक बेरोजगारी दौर से जू?ाता रहा. चिंताजनक यह भी कि बीते वर्ष 2020 में युवाओं को सिर्फ अपना फ्यूचर बनाने की चिंता ही नहीं थी बल्कि उन्हें परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की भी चिंता थी. यह चिंता नौकरियां जाने की थी, नई नौकरियां नहीं निकलने की थी और सब से बड़ी बात, कोई रास्ता न दिखने की थी. किंतु समस्या यह है कि बीते पैंडेमिक साल के बाद मौजूदा समय भी चुनौतियों से भरा है. अभी भी युवाओं के लिए रोशनी की किरण जलती दिख नहीं रही है.

वर्ष 2021 में उम्मीद कुछ अच्छा होने की कर सकते हैं लेकिन सिर्फ उम्मीद भर. आगे की बात वक्त पर छोड़ देना ही बेहतर है.

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दलितों से भेदभाद

आंकड़ेऔर हकीकत दोनों बताते हैं कि दलितों पर क्रूरता और उन से भेदभाव की घटनाओं में कमी आती नहीं दिख रही. यह बात सही है कि संविधानप्रदत्त अधिकार और कानूनी प्रावधान भी जातीय भेदभाव, उत्पीड़न और अन्याय को खत्म करने में बहुत सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि सत्ता राजनीति को संचालित करने वाली शक्तियां उन अधिकारों और दलित जातियों के बीच में बैरियर की तरह बनी रहती हैं. यही वजह है कि आईएएस जैसी सर्वोच्च सिविल सेवा में पहुंच जाने के बाद भी अनुसूचित जाति के उम्मीदवार को ताने सहने पड़ते हैं, उच्चशिक्षा हासिल करने का सामाजिक दंश ?ोलना होता है, समाज में आर्थिक हैसियत बना लेना एक गंभीर अपराध सम?ा जाता है और उच्च जाति में प्रेम व विवाह जैसी कोशिश तो मौत के मुंह में धकेल सकती है.

हाल ही में मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के एक गांव में दबंगों ने एक जवान दलित की बरात इस वजह से रोक दी कि वह घोड़ी पर ब्याहने जा रहा था. बरात पर पथराव किया गया जिस में कुछ घायल भी हो गए. खैर, जानकारी मिलते ही पुलिस पहुंच गई, मामला शांत कराया और आरोपियों के खिलाफ एससी/एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया. यहां तो मामला नियंत्रण में ले लिया गया लेकिन हर जगह मसला ऐसे शांत नहीं हो पाता. शादी जैसा खुशी का काम अब तनावभरा होने लगा.

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कर्नाटक के रामनगर जिले में पुलिस ने 19 वर्षीय युवती की हत्या के चलते उस के पिता कृष्णप्पा को गिरफ्तार किया. कारण, बेटी का किसी कथित निचली जाति के युवक के साथ प्रेम संबंध चल रहा था. लड़की का किसी गैरजाति युवक से प्रेम करना पिता को पसंद नहीं आया और उस ने लड़की को मौत के घाट उतार दिया. इस से अधिक समस्या इस बात की कि समाज में जातिवाद की मानसिकता इतनी निष्ठुर है कि गांवमहल्ले के लोगों को इस मामले में सबकुछ पता होने के बावजूद हत्यारोपी परिवार के साथ वे सहमत हैं. किसी ने भी इस घटना पर पुलिस के आगे मुंह नहीं खोला. प्यार कुंडली देख कर नहीं किया है क्या?

एक और मामला सामने आया जब एक वीडियो क्लिप वायरल हुई जिस में नाई ने एक दलित युवक के बाल काटने से इनकार कर दिया. घटना बदायूं के करियामई गांव की है. वीडियो में नाई को यह कहते हुए सुना गया कि वह अपनी दुकान बंद करना पसंद करेगा न कि दलित जाति के युवाओं के बाल काटना.

पता चला है कि नाई पिछले 15 वर्षों से अपनी दुकान चला रहा है और वह किसी भी दलित ग्राहक के बाल काटने से हमेशा इनकार करता रहा है. ऐसी ही कई असंख्य घटनाएं रोजमर्रा की यातनाओं में होती हैं, लेकिन वे दूरदराज के गांवों से सामने नहीं आ पातीं.

ऐसी घटनाएं साबित करती हैं कि सरकारी कागजों में भले ही अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति को ले कर समानता के अधिकार देने के दावे किए जाते हैं और संविधान में भी समानता के अधिकार का जिक्र किया गया है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है. आज भी आएदिन जातपांत के नाम पर भारी संख्या में घटनाएं सामने आ रही हैं. यही कारण है कि एनसीआरबी की रिपोर्ट में ही यह बताया गया कि वर्ष 2009 से 2018 के बीच कुल दलित उत्पीड़न की घटनाओं में 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई. यह रिपोर्ट दिखाती है कि आज भी समाज में लोग छुआछूत व जातपांत में विश्वास रखते हैं और छोटी जाति के लोगों को अछूत सम?ाते हैं. किसी और में हों न हों, इस मामले में जरूर हम विश्वगुरु बन चुके हैं.

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