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हम हिंदुस्तानी-भाग 3 : रितू ने रजत के साथ क्यों बहाना किया था, जिससे वह परेशान हो गया था

‘‘झुंड के झुंड कबूतरों से भरा ‘ट्राफलगर स्क्वायर,’ इस चौक स्थल में कबूतरों को दाना खिलाइए, उन्हें कंधे पर बिठाइए और फोटो खिंचवाइए.

‘‘थोड़ा आगे बढ़ने पर बिग बेल यानी घंटाघर की बड़ी सी घंटी और वह खेलतमाशों का चौराहा ‘पिकेडिली स्क्वायर. लंदन में देखने को और भी बहुत कुछ है, यहां के हरेभरे कंट्री साइड, लंबेलंबे मोटर ड्राइव…’’

गाइड अपने व्यवसाय के व्यवहार अनुरूप जानकारियां भी देता जा रहा था, पर स्त्रियां या तो थकान ?से निढाल थीं या फिर दिनभर किए खर्च के गुणाभाग में व्यस्त.

रितु का तो बुरा हाल था. हैंड बैग की खरीदारी से उस का सारा बजट गड़बड़ा गया था. ‘रजत कितना नाराज होगा,’ उसे धुकधुकी सी लग रही थी.

रजत काम से लौटा तो बहुत अच्छे मूड में था, ‘‘आज तो भई मजा आ गया. वह डील साइन हुई है कि समझ लो कंपनी के वारेन्यारे. चलो, अब जल्दी से चाय पिला दो. कपड़े बदल कर नीचे हौल में पहुंचना है. काम सफल होने पर एक छोटा सा आयोजन है.’’

केतली का प्लग लगाते हुए रितु को लगा, बस, यही समय है सबकुछ दिखाबता दो. रजत का मूड भी अच्छा है और कहनेसुनने और नाराज होने के लिए ज्यादा समय भी नहीं है उस के पास.

रितु ने अभी मुंह खोला भी न था कि रजत ही पूछ बैठा, ‘‘क्यों मैडम, तुम ने क्या किया? क्या लिया? कल के खानेपीने के लिए भी कुछ रख छोड़ा है कि सब स्वाहा कर दिया.’’

‘‘मैं ने तो बस गुड्डू का ही सामान लिया है… और रिश्तेदारों को देने के थोड़े से उपहार. अपने लिए तो बस, एक हैंड बैग ही लिया.’’

‘‘हैंड बैग?’’ रजत पूछ बैठा, ‘‘अरे यार, क्यों बोर करती हो. हैंड बैग पहले ही क्या कम थे तुम्हारे पास.’’

‘‘पर यह देखो तो कितना सुंदर है. एक तरफ यह तितली वाला ब्रोच. दूसरी तरफ बिलकुल प्लेन. साड़ी के साथ लो या सूट के साथ, सब पर फबेगा और जरा छू कर तो देखो.’’ रितु ने सफाई देते हुए कहा.

जरा से बैग की इतनी विस्तृत व्याख्या, रजत को कुछ खटका सा लगा. पुराने अनुभवों के आधार पर वह एकदम ही खास मुद्दे पर आ गया, ‘‘है कितने का, कितने पाउंड दिए?’’

रितु कुछ झिझकी, अचकचाई और फिर कोई भूमिका बांधना बेकार समझ झट से दाम उगल दिए.

‘‘क्या?’’ दाम सुन कर रजत मानो आसमान से गिरा, ‘‘इतने से बैग की इतनी कीमत?’’

‘‘चीज भी तो देखो, रजत. प्योर लैदर का है,’’ रितु बोली.

‘‘अरे, इतने पैसे दे कर अपने देश में तुम ऐसे 10 डिजाइनर बैग खरीद सकती थीं,’’ रजत ने कहा.

‘‘अपने देश में ऐसी चीजें बनती ही कहां हैं.’’ रितु उलाहना देते हुए बोली.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं.’’ रितु के वाक्य ने जैसे आग में घी का काम किया, ‘‘हम हिंदुस्तानी तो भड़भूजे, भाड़ झोंकना जानते हैं, बस.’’

रितु सहम कर चुप हो गई थी क्योंकि रजत के सामने गलत बात निकल गई थी उस के मुंह से. वह जानती थी कि उस की ऐसी बातों से रजत कितना खार खाता था.

‘‘और, और यह क्या है? ये इस में भरी हुई कागज की कतरनें भी साथ ले चलने का इरादा है क्या? क्यों? लंदन का कचरा है आखिर,’’ गुस्से से तिलमिला कर रजत पर्स में भरी कागज की कतरनें निकाल कर बाहर फेंकने लगा. तभी अचानक उस का हाथ रुका और वह ठठा कर हंस पड़ा. हंसी भी ऐसी कि रुकने का नाम नहीं.

एकाएक ही इस भावपरिवर्तन पर रितु  भी चौंकी, ‘‘क्या हुआ?’’

रजत था कि हंसता ही जा रहा था.

‘‘हुआ क्या, आखिर… कुछ बोलोगे भी,’’ रितु क्रीम की शीशी खोलते हुए बोली.

‘‘हैक्या, तुम्हारे बैग में एक डिफैक्ट है. नुक्स वाली चीज खरीद लाई हो तुम.’’ बड़ी मुश्किल से हंसी रोक कर रजत ने जवाब दिया, तो रितु तमक पड़ी, ‘‘इतने महंगे बैग में डिफैक्ट देख कर तुम हंस सकते हो? बहुत बुरे हो तुम, बहुत खराब,’’ हाथ की क्रीम रितु जल्दीजल्दी मुंह पर लगाती हुई बोली, ‘‘जिप टूटा है या अस्तर फटा है? क्या है अंदर, कुछ बोलोगे भी?’’

‘‘लो, तुम्हीं देख लो,’’ कहते हुए रजत फिर हंस पड़ा.

‘‘हांहां, हंस लो. जितना मरजी हंसो. मेरे पास भी ‘मनी बैक गारंटी कार्ड’ है, बैग का सारा पैसा वापस धरवा लूंगी,’’ रितु बोली.

‘‘पैसे तो वह वापस करने से रहा, डिफैक्ट ही ऐसा है,’’ रजत ने कहा.

‘‘हाय, ऐसा भी क्या नुक्स है,’’ रितु डर सी गई.

रितु ने जल्दीजल्दी क्रीम चुपड़े हाथों को तौलिए से रगड़ा और लपक कर बैग उठा लिया.

‘‘ओ मां.’’ अविश्वास और अचरज से उस की आंखें चौड़ी हो गईं, मुंह खुला का खुला रह गया.

‘‘ओह नो,’’ हार की सी हताशा से उस ने दोनों हाथों से सिर थाम लिया.

‘‘ओह यस,’’ विजय जैसे उत्साह में रजत ने दोनों मुट्ठियां भींच लीं, क्योंकि बैग के अंदर एक पतली रेशमी पट्टी पर सुनहरे शब्दों में लिखा था, ‘मेड इन इंडिया.’

हम हिंदुस्तानी-भाग 2 : रितू ने रजत के साथ क्यों बहाना किया था, जिससे वह परेशान हो गया था

तभी हौल में खुसुरफुसुर शुरू हो गई. ‘‘आप गाइए, अरे, आप सुनाइए. आप तो कितना अच्छा गाती हैं.’’ सब एकदूसरे को आगे करने में लगे थे, तभी एक कमाल हो गया. हौल में उपस्थित अंगरेजी बैंड पार्टी हिंदी गीत की धुन बजाने को तैयार हो गई.

‘‘क्या, आप हिंदी धुन बजाएंगे? हिंदी गीत यहां भी इतने लोकप्रिय हैं क्या?’’सभी को बहुत आश्चर्य भी हुआ और खुशी भी.

बैंड के ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी…’ गाने की धुन शुरू होते ही हौल में एक जोरदार हर्षध्वनि हुई और फिर रितु के नृत्य ने तो बस, समां ही बांध दिया.

उस के बाद तो कुछ कहनेसुनने की जरूरत ही नहीं रही. बैंड एक के बाद एक हिंदी सुरसंगीत बजाता रहा, नएपुराने गानों की बौछार होने लगी.

बारबार सुनेसुनाए अपने ही गीत उस पराई धरती पर नएनिराले अर्थ और भाव दे रहे थे. गर्वगौरव, मानअभिमान हर हिंदुस्तानी अपने ऊपर नए सिरे से नाज कर उठा.

रात रंगीन हो चली. फरमाइशी गानों की झड़ी सी लग गई. लोग भूखप्यास भूल गए. डिनर सर्व करने का समय भी हो गया. होटल के कर्मचारी अनमने से दिखने लगे तो बैंड ने क्षमायाचना सहित रात की अंतिम धुन की घोषणा कर दी, ‘अलीशा चिनौय की मेड इन इंडिया.’

हौल में जैसे धमाका हो गया. धूमधड़ाका मच गया. तालियों और सीटियों की आवाज गूंज गई.‘दिल चाहिए बस मेड इन इंडिया, प्यारा सोणिया…’ संगीत की स्वरलहरियों के साथ लगे सभी झूमने.

अगले दिन पुरुष वर्ग की कौन्फ्रैंस थी. गोष्ठियों और सेमिनारों की व्यस्तताएं थीं. कारोबारी काम थे. व्यापारिक सौदे होने थे.महिला वर्ग को व्यस्त रखने के लिए, थेम्स नदी पर जलविहार, ट्यूब ट्रेन की सैर और खरीदारी का कार्यक्रम रखा गया था.

सभी स्त्रियां बहुत खुश थीं, क्योंकि खरीदारी पर पति लोग साथ न थे. अब न कोई अंकुश होगा न ही कोई कलह. मन को मौज, बस, मस्ती ही मस्ती.

‘‘और इतनी ठंड में नौका विहार? मरना है क्या हमें. नदियां हमारे देश में कम हैं क्या?’’ थेम्स नदी के तट पर खड़ेखड़े लगभग सभी ने एकमत हो कर जलविहार का कार्यक्रम रद्द कर दिया. जो इक्कादुक्का जाना भी चाहती थीं, मन मसोस कर उन्हें भी बहुमत के आगे झुकना पड़ा.

‘‘और यह ट्यूब ट्रेन की सवारी का क्या मतलब है? हम कोई बच्चे तो हैं नहीं और भूमिगत रेल क्या हमारे देश में नहीं चलती? कलकत्ता जा कर देखो कभी,’’ ज्यादातर महिलाओं का यही कहना था यानी जितना जल्दी हो सके, शौपिंग पर पहुंचना चाहिए. जो बेचारियां इस रद्दोबदल से आहत थीं वे अपना सा मुंह लिए रह गईं और महिला मंडल का वह कारवां सीधे एक विशाल गगनचुंबी शौपिंग कौंप्लैक्स में जा पहुंचा.

शौपिंग कौंप्लैक्स की तो जैसे अपनी एक अलग ही दुनिया थी. सभी जनसुविधाओं सहित अपनेआप में एक नया ही नगर बसा था अंदर.

इमारत के बेसमैंट से ले कर 7वीं मंजिल तक तो केवल कार पार्किंग की सुविधा थी. पारदर्शी शीशे की लिफ्टों में से घुमावदार ढलानों पर रेंगती कारें अनोखी दिख रही थीं.

लिफ्ट भी तरहतरह की थीं, हर तल पर रुकने वाली साधारण, हर दूसरे माले पर रुकने वाली फास्ट, प्रत्येक 5वीं मंजिल पर रुकने वाली सुपर फास्ट और सीधे 10-10 माले फलांगने वाली एक्सप्रैस लिफ्ट.8वें तल पर स्वागत कक्ष, रैस्तरां तथा आवश्यक जनसुविधाएं थीं. उस के बाद प्रत्येक तल पर एक ही प्रकार की वस्तुओं का बाजार. प्रत्येक तल पर लिफ्ट से निकलते ही संपूर्ण इमारत का मानचित्र भी आवश्यक संकेतों के साथ टंगा था. महिला मंडली के साथ तो होटल से 2 गाइड भी आए थे. सावधानीवश प्रत्येक महिला को होटल के नामपते वाला कार्ड भी दिया गया था ताकि बाजार की विशालता और भीड़भाड़ में यदि कोई भटक जाए तो वापस होटल पहुंच सके.

इस तरह की बड़ीबड़ी दुकानें और बाजार अब भारत के महानगरों में भी हैं, पर यहां की व्यवस्था और व्यवहार, अनुशासन और स्वच्छता तो बस, देखते ही बनती थी.

प्रत्येक दुकान पर सभी वस्तुएं कीमत के स्टीकर सहित प्रदर्शित थीं. मोलभाव का तो प्रश्न ही न था, फिर भी चीज पसंद करवाने के लिए कर्मचारी भी तैनात थे.

औरतें छोटेछोटे दलों में बंटी अपने अनुसार कुछ खरीदती रहीं, कुछ सिर्फ सराहतीनिहारती रहीं.रितु एक के बाद एक कर के गुड्डू की पसंद की चीजें खरीदती गई. कुछ प्रसाधन सामग्री भी ली. 1-2 नाइटी भी लीं. फिर यों ही देखतेचलते उस की दृष्टि चौड़े पट्टे वाले एक बैग पर जा अटकी. रितु ने उसे देखा तो बस देखती ही रह गई. चमकता चमड़ा ऊपर तितली के आकार का सुनहरा ब्रोच, बहुत सुंदर, बिलकुल उस का मनपसंद, पर कीमत पर नजर पड़ते ही उस का दिल बैठ गया, ‘इतना महंगा.’

अपने देश की मुद्रा में आंकने पर बात हजारों में बैठती थी. ‘इतना महंगा बैग रजत को दिखाएबताए बिना कैसे खरीदूं?’ उस ने सोचा. दुविधा एक और भी थी, साथ में जेबा, नरिंदर और सामरा भी तो खड़ी थीं. उन में से यदि किसी ने भी वैसा बैग पसंद कर लिया तो फिर वह बैग रितु के लिए बिलकुल बेकार था. उसे तो सब से अलग दिखने वाली चीजें ही पसंद थीं. चोर नजरों से बैग को निहारती, आंखों ही आंखों में उसे सराहती रितु दुकान से बाहर तो निकल गई पर उसे चैन कहां. बैग का चाव उसे अपनी ओर चुंबक की तरह खींच रहा था.

‘ले लूं? ले ही लूं क्या? पूछने पर रजत तो राजी होने से रहा… फिर दोबारा इधर आना हो न हो?’ मचलते मन को वह किसी भी तरह समझाने में असमर्थ रही. दूसरी औरतें थोड़ा आगे बढ़ीं तो वह जल्दी से वापस पलटी और दुकान में घुस कर धड़कते दिल से पैसे चुका कर उस ने वह हैंड बैग पैक करवा ही लिया.

दिन ढल गया, शाम होने को आई. गाइड का ड्यूटी टाइम समाप्त होने को था. वह अगर चलने की जल्दी न मचाता तो औरतें तो अभी और भटकतीं उस चक्रव्यूह में. कुछेक ही अपवाद रही होंगी वरना हर स्त्री सामान से लदीफदी थी, हरेक के हाथ में कईकई पैकेट थे.

वापस होटल तक की बस यात्रा में महिला मंडली को उलझाए रखने के लिए गाइड अगले दिन के कार्यक्रम की रूपरेखा बताता रहा क्योंकि अगले दिन सैलानी स्थलों की सैर का आयोजन था.गाइड ने बताना शुरू किया, ‘‘थेम्स नदी पर बना लंदन ब्रिज जो विशाल जलयानों को रास्ता देने के लिए सिमट कर बंद हो जाता है.

‘‘राजमहल पर पहरेदार परिवर्तन का दृश्य (चेंज औफ गार्ड्स), मैडम तुसाद का मोम म्यूजियम, जहां जगप्रसिद्ध व्यक्तियों के हूबहू, सजीव से दिखते मोम के पुतले खड़े हैं.

 

हम हिंदुस्तानी-भाग 1 : रितू ने रजत के साथ क्यों बहाना किया था, जिससे वह परेशान हो गया था

पति के साथ औफिस टूर पर लंदन गई रितु ने वहां की जिंदगी का भरपूर मजा लिया लेकिन खरीदारी करते वक्त भारतीय वस्तुओं के कम स्तर की तुलना करतेकरते रितु ऐसा क्या ले आई कि सिर पकड़ कर बैठ गई?विमान लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर उतरा तो आसमान से बूंदें टपक रही थीं. नवंबर के अंतिम सप्ताह में बेमौसम की बौछारों से तापमान बहुत नीचे गिर गया था. विमान से निकल कर बस तक पहुंचतेपहुंचते हड्डियां ठंड से ठिठुर गईं.

सड़कें सुनसान पड़ी थीं. दूरदूर तक कहीं कोई नजर नहीं आ रहा था. केवल तृणविहीन पेड़ों की अंतहीन कतारों में भारत की भीड़भाड़ और गहमागहमी की आदी आंखों को यह सब बड़ा ही उजाड़ और असंगत सा लगा… ‘तो ऐसा है लंदन.’

यों लंदन का उत्तम सैलानी सत्र करीब डेढ़ महीने पहले बीत चुका था, पर भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशवासियों को लंदन की सैर की सूझे, वह भी कंपनी के खर्चे पर, तो त्याग परम आवश्यक बन जाता है. ठंड का क्या, थोड़ाबहुत ठिठुर लेंगे. होटल और जरूरी जनसुविधाएं तो सस्ती पड़ेंगी, बजट तो नहीं गड़बड़ाएगा.

रजत की कामकाजी यात्राओं में रितु भी दुबई, नेपाल, कोलंबो और सिंगापुर की सैर पहले ही कर चुकी थी. कभी कंपनी के खर्चे पर तो कभी अपने खर्चे से, पर यूरोप का यह पहला सफर था उस का.

इस बार की डीलर्स कौन्फ्रैंस लंदन में थी. लिहाजा लंबाचौड़ा दलबल जा रहा था. उच्च पदासीन अधिकारी पत्नियों को भी साथ ले जा सकते थे. 3 दिन का कामकाजी और सैरसपाटे का ट्रिप था. रितु तो मारे खुशी के उछल ही पड़ी थी. बच्चों को साथ ले जाना सदा की भांति वर्जित था. गुड्डु को साथ न ले जाने की मजबूरी रितु को ग्लानि से भर देती. बच्चे को छोड़ कर घूमनाफिरना उसे बिलकुल ही न भाता. मातापिता के विदेश जाने की बात सुन गुड्डू भी उदास हो जाता, पर फिर समय पर दादी बात संभाल लेतीं, ‘जाने दे मां को… हम दोनों मिल कर यहां खूब मजे करेंगे,’ वह पोते को बांहों में भर कर प्यार करतीं.

‘3 दिन तक मां का अनुशासन न होगा. होगा तो सिर्फ दादी का लाड़दुलार, सौदा बुरा तो नहीं.’ सोच कर गुड्डू जब मुसकरा पड़ता तो रितु निश्ंिचत हो कर निकल पाती. लेकिन लौटने पर वह उस के लिए खिलौने, कपड़े, जूते, मोजे, पेन, पैंसिल और भी न  जाने क्याक्या लाती.

यह देख कर रजत अकसर खीझ ही पड़ता, ‘ये सब क्या अनापशनाप चीजें खरीदती रहती हो? ये सब क्या हमारे देश में नहीं बनतीं, बिकतीं? जानती तो हो विदेशी मुद्रा का भाव, पढ़ीलिखी हो, फिर भी वही नादानी.’

रजत चाहे जितना भी झुंझलाए, रुपए की विनिमय दर चाहे कितनी भी कम क्यों न हो, रितु खरीदारी किए बिना नहीं रहती. लौटते समय वह इतनी लदफंद जाती कि कस्टम से क्लीयर होना मुश्किल हो जाता.

‘पाउंड की तुलना में हमारा रुपया  कहीं नहीं ठहरता, खर्च सोचसमझ  कर करना मैडम.’ इस बार भी घर से निकलतेनिकलते रजत ने उसे समझाया था.

होटल के स्वागत कक्ष में दल की औपचारिक आवभगत के बाद सब अपनाअपना सामान उठा कर अपनेअपने कमरे की तरफ चल दिए. यों कमरे तक सामान पहुंचाने के लिए बैलबौयज भी उपलब्ध थे जो प्रति सूटकेस एक पाउंड ही लेते थे.

‘एक पाउंड यानी 60 रुपए. नहींनहीं,’ सोच कर घबराते हुए रितु अपना सामान खुद ही उठाने लगी. ठिठुरती ठंड बाहर ही रह गई. होटल परिसर में गरमाहट थी. छोटा सा साफसुथरा कमरा सुरुचि से सजा था. कमरे में ही चाय की केतली, चीनी, दूध पाउडर और चायकौफी के डब्बे भी एक मेज पर रखे थे यानी अपना काम खुद करो.

थकान दूर करने के लिए अगर चायकौफी का और्डर भी करना हो तो प्रति कप ‘मात्र 3 पाउंड में मिलेगी. 3 पाउंड यानी… अपने इतने रुपए, सोच कर डूबते दिल से रितु ने केतली का प्लग लगा दिया और खुद ही चाय बनाने लगी.

अपने देश में तो वे ऐशोआराम से घूमते थे. जो चाहा, फोन उठाया और और्डर किया. लंचडिनर तक कमरे में पहुंच जाता. पर वही सुविधाएं यहां राजसी ऐश्वर्य के समान थीं, उन की पहुंच से परे. वह सोचती, ‘फिर ऐसे ही खर्च करने लगे तो शौपिंग क्या खाक होगी.’

‘‘अब जरा जल्दी करो, 8 बजने को हैं, 9 बजे तक हमें नीचे हौल में पहुंचना है. तुम्हें सजनेसंवरने में भी समय लगेगा. समय का भी ध्यान रखना है. अपनी देसी लेटलतीफी यहां नहीं चलेगी,’’ रजत बोला.

बादल छिटक चुके थे. आकाश निर्मल नीला निखर आया था. 8 बजने को थे, पर लंदन में बस, अभीअभी ही शाम गहराई थी.

औफ व्हाइट, लाल बौर्डर वाली कांजीवरम साड़ी, माथे पर बिंदिया, आंखों में कजरा, बालों में असली सा दिखता नाइलोन के नन्हेनन्हे फूलों का गजरा. रजत ने देखा तो बस, देखता ही रह गया. बोला, ‘‘बिलकुल ‘मेड इन इंडिया’ लग रही हो.’’

सुन कर रितु इतरा गई, मानो उस की  सारी सजधज सार्थक हो गई. यही सुनने की तो उस की इच्छा भी थी. साड़ी के जादुई आकर्षण को वह खूब जानती थी. विदेशों में तो लोग मुड़मुड़ कर देखते थे. अपने देश में अवसर मिलने पर वह भले ही जींस और जैकेट पहन ले, पर बाहर निकलने पर तो सिर्फ साड़ी और सलवारसूट ही साथ ले  जाती थी.

पार्टी कक्ष की ओर बढ़ते हुए रजत ने पत्नी को बांहों में घेरा तो वह खिलखिला कर बोली, ‘‘श्रीमान रजत, भारतीय हैं भारतीयों की तरह व्यवहार करें.’’

उस रात डिनरडांस का कार्यक्रम था. हौल में हलकाहलका और्केस्ट्रा बज रहा था. स्टेज के मंद प्रकाश में कुछ जोड़े हौलेहौले थिरक रहे थे. औपचारिक हायहैलो का दौर चला, फिर धीरेधीरे सब खुलने लगे. कुछ इधर की कुछ उधर की, हासपरिहास, ठिठोली और ठहाके. मेहमान, मेजबान सभी मौजमस्ती के मूड  में आ गए.

अपने झूमरझुमकों और विशुद्ध भारतीयपन के कारण सांवलीसलोनी रितु बिलकुल अलग ही लग रही थी. देशीविदेशी स्त्रियों के जमघट में सब, मुड़मुड़ कर बस, उसे ही देखे जा रहे थे.रजत का तो कहना ही क्या, उसे पत्नी पर इतना प्यार आ रहा था कि पूछो मत, ‘‘चलो न रितु, हम भी डांस करें.’’

‘‘अरे नहीं… मुझे आता ही कहां है ऐसे थिरकना,’’ रितु झिझकी तो रजत ने कहा, ‘‘आना न आना क्या? एक पैर आगे फिर एक पैर पीछे. एकदूसरे से लिपट कर बस, आगेपीछे हिलतेडुलते रहो.’’पर रितु फिर भी अपनी बात पर अड़ी रही, ‘‘न बाबा न, मुझ से नहीं होगा ऐसा हिलनाडुलना.’’

‘‘तो आप अपना भरतनाट्यम ही दिखा दीजिए, रितुजी,’’ पास खड़े रमेश की चुटकी पर कई लोग उस के साथ जुड़ गए.‘‘हां, हां, रितुजी आज तो हो ही जाए आप की कला का प्रदर्शन,’’ सुन कर रितु कुछकुछ सकपका सी गई.‘‘हां भई, रितु दिखा दो. इन अंगरेजों को भी कि नृत्य क्या होता है,’’ इस बार महिलाओं ने मित्रवत फरमाइश की. पर रितु अपनी जगह से हिली तक नहीं. उस की विवशता भी उचित ही थी.

‘‘संगीत की संगत के बिना भरतनाट्यम कैसे हो, तबले की ताल के बिना तो भरतनाट्यम असंभव है,’’ वह बोली.‘‘हां, यह तो है,’’ सब एकदम ही निराश, निरुत्साह हो गए. तभी रजत ने एक रास्ता सुझाया, ‘‘चलो, आज किसी फिल्मी गीत पर ही अपना नृत्य दिखा दो, गाने वाले यहां बहुत मिलेंगे.’’

सभी ने जोर से तालियां बजा कर इस प्रस्ताव का स्वागत किया. रितु ने थोड़ी आनाकानी की. रजत को देख अपनी आंखें भी तरेरीं, पर उस की एक न चली. रजत ने तो बाकायदा स्टेज पर जा कर उस के नृत्य की घोषणा ही कर दी. एक बार फिर जोर की करतल ध्वनि हुई और सभी की निगाहें रितु पर जा टिकीं, पर नृत्य तो तब शुरू हो न जब कोई आवाज उठाए, कोई सुरीला गीत गाए.

 

अकेले हैं तो गम ही गम हैं

बुढ़ापा ऐसी अवस्था होती है जब सब से ज्यादा देखभाल की जरूरत होती है. बचपन में तो देखभाल सब करते हैं लेकिन बुढ़ापे में अकसर बुजुर्गों की सेवा, किसी भी कारणवश, करने को कोई नहीं होता. इस समस्या का समाधान जरूरी है. 65 साल के मशहूर वकील हरीश साल्वे ने 38 साल वैवाहिक जीवन बिताने के बाद पत्नी मीनाक्षी साल्वे से तलाक ले कर अपनी ब्रिटिश दोस्त 56 साल की कैरोलिन के साथ दूसरी शादी कर ली. अगर वे भारत में रह रहे होते, तो उन के लिए सामाजिक रूप से यह संभव नहीं होता. वहीं, कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और अमृता राय की शादी को समाज ने स्वीकार नहीं किया और उन का राजनीतिक जीवन हाशिए पर चला गया.

विदेशों में रिटायरमैंट की उम्र में शादी कोई चौंकाने वाली बात नहीं होती, पर भारत में अकेले बुजुर्ग के लिए सुख से जीना आसानी से संभव नहीं होता. यहां माना जाता है कि बुजुर्गों को गृहस्थ जीवन त्याग देना चाहिए. आधुनिकता के बाद भी अकेले बुजुर्ग के लिए सुख से जीना आसान नहीं है. बुजुर्गों की संख्या पूरी दुनिया में बढ़ रही है. विदेशों में उन के अधिकारों और सुखसुविधाओं का ध्यान रखा जाता है. भारत में अभी भी यह माना जाता है कि रिटायरमैंट के बाद बुजुर्ग को अपने शौक त्याग कर खुद को सीमित कर लेना चाहिए. अकेलापन सुख के साथ जीना अच्छा है, इस के बाद भी बुढ़ापे के अकेलेपन में जोखिम बहुत होते हैं. हमारे देश में समाज और सरकार यह मानती है कि बुजुर्गों को किसी चीज की जरूरत नहीं होती. उन को सबकुछ त्याग कर अपने मरने का इंतजार करना चाहिए.

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धार्मिक ग्रंथों में भी यह बताया जाता है कि बुजुर्गों को माया, मोह और गृहस्थ जीवन त्याग कर धार्मिक यात्रा पर चले जाना चाहिए. महिला बुजुर्गों को तो काशी, मथुरा जैसे शहरों में बने विधवा आश्रमों में छोड़ दिया जाता था. आज हालात भले ही बदल गए हों, पर सोच नहीं बदली है. इसी वजह से बुजुर्गों का सुख से जीवन व्यतीत करना तमाम तरह की आलोचनाओं का भी शिकार बनाता है. फिल्मी नहीं होती हर कहानी फिल्म ‘बागबान’ में बुजुर्गों की परेशानियों को परदे पर दिखाया गया था. फिल्मी परदे पर परेशानी का सुखद अंत भी हो गया था. बुजुर्गों की ये परेशानियां हर दूसरेतीसरे घर की कहानियां बन चुकी हैं. सब का सुखद अंत नहीं होता. आने वाले सालों में जिस तेजी से बुजुर्गों की संख्या देश में बढ़ रही है और समाज का तानाबाना बदल रहा है, उस में बुजुर्गों का भविष्य एक बडे़ मुद्दे के रूप में सामने है. समझने वाली बात यह है कि सरकार और समाज दोनों ही इस मुद्दे पर बात करने से बचते हैं.

सामाजिक शुचिता के कारण बुजुर्गों की अनदेखी को कोई परिवार स्वीकार नहीं कर पा रहा है. साल 2050 तक देश के सामने सब से बड़ी परेशानी बुजुर्गों की होगी. जो लोग अपने बुढ़ापे का सही तरह से इंतजाम कर लेते हैं, वे सुख से जीते हैं. इस के बाद भी बुजुर्गों के अकेलेपन में जोखिम कम नहीं हैं. भारत के बुजुर्गों में 60 से 70 साल की उम्र के लोगों की तादाद सब से ज्यादा है. कुछ सालों में 60 साल से ज्यादा उम्र के लोगों की आबादी बड़ी है. यह तादाद 10 करोड़ मानी जा रही है. साल 2050 तक कुल आबादी का चौथाई हिस्सा बुजुर्ग लोगों का होगा. इन में शहर और खासकर महानगरों में रहने वाले लोग ज्यादा हैं. शहरों में बच्चे मांबाप को अपनी सुविधानुसार रहने के लिए बुला तो लेते हैं, पर उन्हें समय नहीं दे पाते. भारत में यह समस्या तेजी से पांव पसार रही है. भारत ही नहीं, दुनिया के सभी देशों में बुजुर्ग अकेलेपन के शिकार हैं. 125 करोड़ से अधिक आबादी वाले भारत में 47.49 फीसदी आबादी बुजुर्गों की है.

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शहरी क्षेत्रों में अकेले रहने वाले बुजुर्ग ज्यादा हैं. इन की तादाद 64.3 फीसदी है. इस के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों में अकेलेपन के शिकार बुजुर्गों की तादाद 39.19 फीसदी पाई गई. 10 हजार ग्रामीण बुजुर्गों में से 3,910 बुजुर्गों ने बताया कि वे अकेले रहने को विवश हैं. भारत में बुजुर्गों के साथ व्यवहार शर्मनाक है. एक स्टडी में 4,615 बुजुर्गों को शामिल किया गया. इस में 2,377 पुरुष और 2,238 महिलाएं थीं. 44 फीसदी ने माना कि उन के साथ सार्वजनिक तौर पर गलत व्यवहार किया जाता है. 55 फीसदी बुजुर्ग मानते हैं कि भारतीय समाज में बुजुर्गों के साथ भेदभाव होता है. अकेलापन होता है जोखिमभरा बाराबंकी जिले के थाना मोहम्मदपुर खाला इलाके के गांव बड़नापुर के रहने वाले राजकुमार गुजरात में रहते थे. उन के पौत्र यानी बेटे के बेटे का मुंडन संस्कार था. मुंडन संस्कार में छोटे बच्चों के सिर के बाल पहली बार कटवाएं जाते हैं. इस मौके पर दावत का इंतजाम किया जाता है. गांव और नातेरिश्तेदार इस में शामिल होते हैं. राजकुमार अपने बेटे दिनेश के साथ गुजरात में नौकरी करते थे. 80 साल की उम्र में भी वे काफी ऐक्टिव थे.

22 मार्च को वे बेटे दिनेश के साथ बाराबंकी आए. यहां परिवार के बाकी लोग रहते थे. गांव में उन के 2 घर थे. वे अपने घर में अकेले रहते थे. मार्च में जब वे आए थे, तब प्रदेश में कोरोना का खतरा तेजी पर था. ऐसे में उन को अलग घर में अकेले रहना पड़ा. बेटा दिनेश अपने परिवार के साथ दूसरे मकान में रह रहा था. प्रशासन द्वारा होम क्वारंटाइन किए जाने के बाद से गांव के लोग उधर जाते ही नहीं थे. कभीकभी राशन और दूसरे जरूरी सामान लेते समय गांव के लोग उन्हें देख लेते थे. परिवार के लोग भी कभीकभी ही जाते थे. गांव की ‘आशा बहू’ 4 अप्रैल को नोटिस चस्पां करने उन के घर गई थी. इस दौरान उन्हें किसी अनहोनी की भनक भी नहीं थी. अपने जिद्दी स्वभाव के कारण राजकुमार अपना खाना भी खुद ही बनाते थे. वे दमे के मरीज थे. घर में अकेले रहते हुए उन की मौत हो गई. मौत के 4-5 दिनों बाद घरपरिवार और गांव के लोगों को पता चला. इस दौरान उन के शरीर पर कीड़े इस कदर थे कि वे दीवारों पर भी रेंगने लगे थे. दिल्लीमुंबई जैसे बडे़ शहरों में ऐसी घटनाएं कई बार सामने आती हैं. गांव और छोटे शहरों में ऐसी घटनाएं अकेलेपन की परेशानियों की तरफ ध्यान दिलाती हैं. अलीगढ़ जिले के टप्पल मुहल्लागंज में रहने वाले वीरपाल शर्मा, पुत्र ननुआ शर्मा, उम्र 55 साल अपने घर के आंगन में अकेले सो रहे थे. वीरपाल शर्मा के एक लड़का रामू व एक लड़की कविता है. कविता की शादी हो चुकी है. वह अपने ससुराल में थी व लड़का रामू अपने पिता की बूआ के पास गांव सलेमपुर गया था. घर पर वीरपाल शर्मा अकेले रहते थे. घर के सामने वाली गली में पड़ोस में ही रहने वाला पवन, पुत्र ओमप्रकाश शर्मा उन के घर सुबह पहुंचा और चौखट की लकड़ी से वीरपाल के सिर पर वार कर दिया, जिस से वीरपाल की मौके पर ही मौत हो गई.

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सुबह जब चचेरा भाई कल्लू जाग कर वीरपाल के घर पहुंचा, तो वीरपाल को मरा देख कर दंग रह गया. सूचना पुलिस कंट्रोलरूम को दी गई. पुलिस वहां पहुंची और जांचपड़ताल करने लगी. तभी पवन पुलिस को देख डर गया. अपने घर में रोशनदान में दुपट्टा डाल कर उस ने फांसी लगा ली. पुलिस पवन के घर पहुंची, लेकिन तब तक पवन की मौत हो चुकी थी. पुलिस ने दोनों शवों को कब्जे में ले कर पोस्टमार्टम के लिए अलीगढ़ भेज दिया. मृतक पवन की पत्नी पिंकी व 2 बेटियां पूर्वी 6 साल की व रेखा 4 साल की हैं. पवन के पिता ओमप्रकाश अपनी दूसरी पत्नी के साथ मुंबई में रहते हैं. ओमप्रकाश ने 2 शादियां की थीं. पहली पत्नी मर गई थी, जिस का बेटा पवन था. पवन पूरी तरह से पागल था. घर वालों ने उस का ठीक से इलाज नहीं कराया था. जो बुजुर्ग अपने परिजनों के साथ रहते हैं, वे भी सुरक्षित नहीं हैं. भोपाल के अयोध्या नगर इलाके में स्थित सी सैक्टर के एमआईजी 43 में रहने वाले 80 वर्षीय अंजली लाल मिश्रा की लाश पुलिस ने उन के घर से बरामद की. उन के शरीर पर किसी प्रकार की चोट के निशान नहीं थे. वे अकेले ही रहते थे. डाक्टरों ने मौत के लिए हार्टअटैक की आशंका जाहिर की. अयोध्या नगर थाने के एएसआई बी एल रघुवंशी ने बताया कि अंजली लाल मिश्रा भेल यानी बीएचईएल से सेवानिवृत्त थे. पत्नी की मृत्यु के बाद वे इस मकान में अकेले ही रहते थे. पड़ोसियों को जब उन के मकान से अजीब तरह की दुर्गंध आनी शुरू हुई, तब इस की सूचना पुलिस को दी गई. पुलिस ने मकान का दरवाजा तोड़ कर पलंग पर पडे़ बुजुर्ग का शव बरामद किया. अंजली लाल मिश्रा के बच्चे नहीं थे. एक रिश्तेदार खंडवा में मंदिर के पुजारी हैं. उन की बहन के 2 बेटे भोपाल में ही रहते हैं. मौत की जानकारी मिलने पर वे आए.

अलगअलग शहरों की ये घटनाएं बताती हैं कि समाज में अकेले जीना कितना मुश्किल और जोखिमभरा होता है. बीमारी का कारण क्लिनिकल साइकोलौजिस्ट आकांक्षा जैन कहती हैं, ‘‘बुजुर्गों में अकेलापन बीमारी का कारण बनता है. उन की मानसिक हालत इस बात पर निर्भर करती है कि वे अपने परिवार और दोस्तों में कितना मिलते हैं. यह हमारी सेहत को काफी प्रभावित करता है. अकेलापन किसी को मानसिक ही नहीं, शारीरिक रूप से भी बीमार कर देता है. ‘‘गांव और शहर में लाइफस्टाइल जितना आधुनिक हो रहा है, बुजुर्गों के लिए परेशानियां उतनी ही बढ़ रही हैं. बच्चे बेहतर भविष्य की तलाश में देश से बाहर चले जाते हैं. कुछ समय बाद उन का घर लौटने का कोई इरादा भी नहीं रहता है. ऐसे में बुजुर्गों को सब से बड़ी समस्या अपनी सुरक्षा को ले कर होती है.’’ वे कहती हैं, ‘‘बदलती सामाजिक व्यवस्था के कारण और जहां परिवार छोटे होते हैं, बुजुर्गों का महत्त्व कम हुआ है. जो बुजुर्ग कभी परिवार का महत्त्वपूर्ण अंग होते थे, जिन से नई पीढ़ी संस्कृति और मूल्यों का पाठ सीखती थी, वे दिन अब दूर होते जा रहे हैं. बच्चे टीवी व मोबाइल में उलझे रहते हैं और पतिपत्नी को अपनी जौब से समय नहीं मिलता. केवल मध्यवर्गीय परिवार ही नहीं, संपन्न परिवारों की भी यही हालत है. गांव और शहर का भी कोई भेद नहीं रह गया है.

गांवों में दिखावे और सामाजिक दबाव के लिए बुजुर्गों को भले ही साथ रखा जाता हो, पर भेदभाव वहां भी कम नहीं होता है.’’ खराब हालत में हैं वृद्धाश्रम विदेशों में वृद्धाश्रम बुजुर्गों की देखभाल का काम करते हैं. भारत में वृद्धाश्रम कम हैं. जो हैं भी, उन की हालत बेहद खराब है. ऐसे में वे भी बुजुर्गों की मदद नहीं कर पा रहे हैं. भारत में 1,000 से अधिक वृद्धाश्रम हैं. कुछ वृद्धाश्रमों में बुजुर्गों के मुफ्त ठहरने की व्यवस्था है. भारत में न तो परिवार के लोग बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में रखना चाहते हैं और न ही बुजुर्ग वृद्धाश्रम में रहना चाहते हैं. कुछ सर्वे बताते हैं कि 85 फीसदी बुजुर्गों को वृद्धाश्रम में रहना अच्छा नहीं लगता. भारत में विदेशों के मुकाबले बुजुर्गों की हालत ज्यादा खराब है. यहां सुव्यवस्थित व्यवस्था नहीं है. इस की वजह से बुजुर्गों की परेशनियां अलग हैं. संजोगिता महाजन मैमोरियल ट्रस्ट के अध्यक्ष अनुराग महाजन कहते हैं, ‘‘भारत में बुजुर्गों की सुरक्षा को ले कर बने कानून कागजों पर तगडे़ दिखते हैं. पर हकीकत में ये कमजोर हैं. पुलिस और प्रशासन इन कानूनों को ले कर सजग और जिम्मेदार नहीं हैं. बच्चे बुजुर्गों का अपमान करते हैं. उन के अधिकार नहीं देते. इस की शिकायत कहां की जाए, जहां सहूलियत के साथ अधिकारों की रक्षा हो सके. कोर्ट से मदद मिलती है, पर वह प्रक्रिया बहुत लंबी है. बुजुर्ग कैसे अपने अधिकारों की रक्षा करें, इस का कोई सरल तंत्र विकसित नहीं किया जा सका है.’’

कई देशों में रिटायरमैंट के साथ ही बुजुर्गों को घरों पर ही वे तमाम सहूलियतें दे दी जाती हैं, जो उन की सुरक्षा के लिए जरूरी हैं. बुजुर्गों को पुलिस केंद्रों से फोन के जरिए हर मदद तत्काल मिलती है. विदेशों में ऐसा कानून भी है कि अगर बच्चे अपने मातापिता की अनदेखी करते हैं, तो बुजुर्ग मातापिता बच्चों पर केस कर सकते हैं. भारत में यह अधिकार केवल किताबी बातें भर है. भारत की स्थिति में सब से ज्यादा जरूरी यह है कि युवा अपने बडे़बुजुर्गों का पूरा ध्यान रखें, उन्हें सम्मान दें. परेशानी है आर्थिक कमजोरी भारत में बुजुर्गों की खराब हालत का सब से बड़ा कारण आर्थिक कमजोरी है. यहां के बुजुर्गों के पास अपनी आय के सीमित साधन हैं. कुछ के पास जमीनजायदाद होती है और कुछ के पास रिटायरमैंट के बाद मिलने वाली पैंशन. बुजुर्गों के सामने सब से बड़ी समस्या पैसों की आती है, क्योंकि उन्होंने अपने जीवनभर की कमाई परिवार पर खर्च कर दी होती है. अब उन के पास जमापूंजी रहती भी है तो बहुत सीमित मात्रा में. इस तरह वे आर्थिक रूप से कमजोर हो जाते हैं. लेकिन खर्चे दिनप्रतिदिन बढ़ते जाते हैं. बच्चों का बेरोजगार रहना, उन की शादी का खर्च, अपनी बीमारी वगैरह के खर्च जब उन के सामने आते हैं, तो वे उन को मानसिक रूप से तनावग्रस्त कर देते हैं.

पैसों की कमी से बुजुर्ग अच्छे अस्पताल में इलाज नहीं करा पाते. शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण उन को दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है. अगर एकाध वृद्ध आर्थिकरूप से मजबूत होता है तो भी उन को पूरी तरह से दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है. बुजुर्गों का अस्वस्थ रहना तो स्वाभाविक ही है. जब वे स्वस्थ नहीं होते हैं, तो समाज के लोगों के साथ मिलजुल नहीं सकते और न ही हंसबोल सकते हैं. इस तरह समाज के लोगों के साथ उन का संपर्क कट जाता है. शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान होने के कारण उन की विचारधारा, पसंद, दृष्टिकोण में बदलाव आ जाता है. इस के चलते उन में चिड़चिड़ापन आ जाता है. परिवार में उन के संबंध अच्छे नहीं बने रह पाते हैं. संयुक्त परिवारों के टूटने यानी विघटन और एकल परिवारों के चलन ने इस समस्या को और बढ़ावा दिया है. –शैलेंद्र सिंह

इरफान खान की आख़री फ़िल्म”द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियन्स” होगी रिलीज

अपनी स्थापना के पहले वर्ष में,  पैनोरमा स्पॉटलाइट ने 70 एमएम टॉकीज के साथ मिलकर फैदर लाइट फिल्म्स और केएनएम प्रोडक्शन निर्मित अभिनेता इरफान खान की अंतिम फिल्म  ‘द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियन्स’ को सिनेमाघरों में पहुंचाने का बीड़ा उठाया है. इस तरह दर्शकों को इरफ़ान  खान के शानदार अभिनय को आखिरी बार बड़े पर्दे पर देखने के लिए बैनर एक सुनहरा मौका दे रहे हैं.
अनूप सिंह  निर्देशित इरफ़ान खान-अभिनीत  सशक्त ड्रामा से युक्त इस फिल्म की कहानी  एक स्वतंत्र युवा आदिवासी महिला के चारों ओर घूमती है. जो क्रूर विश्वासघात को दूर कर अपनी आवाज़ को खोजने की कोशिश करती है.इस फिल्म की विशेषता यह है कि इसमें इरफ़ान  एक यादगार भूमिका में नजर आयेंगे.
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पैनोरमा स्पॉटलाइट के निर्माता और निर्देशक, अभिषेक पाठक कहते हैं,”द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियन्स एक विशेष कहानी है और इरफ़ान  खान के अंतिम प्रदर्शन को प्रस्तुत करना हमारे लिए वास्तव में बहुत सम्मान की बात है. हम यह फिल्म भारतीय सिनेमा के प्रिय सितारे को श्रद्धांजलि देते हुए दर्शकों के सामने पेश करने जा रहे हैं.भारतीय और विदेशी सिनेमा ने उनके अभिनय का भरपूर आनंद लिया है. हमें खुशी है कि हम उनके आख़िरी फिल्म को प्रदर्शित कर रहे हैं.”
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70 MM टॉकीज एक ऐसा ब्रांड है ,जो आम लोगों से उभरा है, जो सिनेमा के बारे में कामुक हैं. इस बैनर का मानना यह है कि इरफ़ान  खान की फिल्म के साथ अपनी सिनेमाई यात्रा को शुरू करने का इससे बेहतर तरीका हो ही नहीं सकता.70 एमएम टॉकीज के  ज्ञान शर्मा कहते हैं कि ,” हम बहुत ही खुशनसीब हैं कि दुनिया के सबसे बेहतरीन सितारे की फिल्म के लिए हमें चुना गया.”
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2021 की शुरुआत में ” द सॉन्ग ऑफ स्कॉर्पियन्स ‘सिनेमाघरों में प्रदर्शित की जाएगी.

जब जयपुर में एक साथ दिखें रणबीर-आलिया और दीपिका-रऩवीर तो फैंस ने पूछे ये सवाल

दिवंगत अभिनेता ऋषि कपूर की पत्नी नीतू कपूर ने हाल ही में अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर एक तस्वीर शेयर कि है. जिसमें नीतू सिंह रणवीर सिंह और अपने बेटे रणबीर कपूर के साथ नजर आ रही हैं. नीतू कपूर कि यह तस्वीर राजस्थान में ली हुई है.

जिसे देखने के बाद फैंस कयास लगा रहे हैं कि इस साल नए साल का जश्न लगता है नीतू कपूर के साथ- साथ आलिया भट्ट , रणबीर कपूर , रनवीर सिंह के साथ दीपिका पादुकोण एक साथ मिलकर मनाएंगे.

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हालांकि अभी तक इस बात पर कोई खुलासा नहीं हुआ है कि यह बात कितना प्रतिशत सच है. वहीं एक तरङ रणबीर कपूर कि बहन रिद्धिमा साहनी ने एक तस्वीर साझा कि है जिसे देखने के बाद कयाल लगाया जा रहा है कि सभी लोग बॉर्न फायर का आनंद ले रहे हैं.

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इस तस्वीर को देखने के बाद ऐसा लग रहा है कि रनवीर सिंह भी इस पार्टी में शामिल हुए हैं. जिसे देखकर फैंस लगातार कमेंट कर रहे हैं .

हालांकि एयरपोर्ट पर आलिया भट्ट को राजस्थान के लिए रवाना होते हुए देखा गया था जिसे देखने के बाद फैंस कयास लगा रहे हैं कि नए साल में सभी लोग साथ में नजर आने वाले हैं.

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वहीं सेल्फी वाली तस्वीर में सभी बहुत प्यारे लग रहे हैं तो वहीं कुछ लोगों का कहना है कि आलिया भट्ट और रणबीर कपूर शादी के बंधन में बंधने वाले हैं. इस वजह से सभी राजस्थआन में नजर आ रहे हैं. खैर कुछ दिनों में इस बात का भी खुलासा हो जाएगा कि आखिर ये जोड़ी किस लिए राजस्थान के लिए रवाना हुई है.

बिग बॉस 14: राखी सावंत के सपोर्ट में बोले राहुल महाजन, बचपन में डांस करने के लिए किया जाता था मजबूर

29 दिसंबर के एपिसोड में बिग बॉस के घर में जमकर लड़ाई हुई जिसमें सबसे ज्यादा चोट राखी सावंत को लगी. जिसके बाद राखी सावंत ने बिग बॉस से मेडिकल की हेल्प मांगी.

बता दें कि यह लड़ाई राखी सावंत और जैस्मिन भसीन के बीच हुई थी. राखी सावंत और जैस्मिन भसीन के बीच बहस इतनी ज्यादा बढ़ गई कि दोनों ने आपस में हाथापाई कर लिया. जिसके बाद सभी घर वाले परेशान हो गए.

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घर के अंदर राखी सावंत राहुल महाजन को अपना सबसे अच्छा दोस्त बताती हैं. लेटेस्ट एपिसोड में राहुल महाजन ने राखी सावंत को लेकर कुछ खुलासा किया है जिसे जानकर सभी लोग हैरान हुए आखिर राखी सावंत ऐसी क्यों हैं.

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घर के अंदर लड़ाई होने के बाद राहुल महाजन सोनाली फोगाट से बात करते हुए कहे कि राखी सावंत के पास सबकुछ तो है लेकिन उसके पास अपना परिवार नहीं है. जिसकी कमी उसे हमेशा खलती है. इसलिए वह खुद को मजबूत बनाएं रखने के लिए ऐसा करती है. आगे राहुल ने कहा उसके पिता थे लेकिन बचपन में उसे मारते पिटते थें जिस वजह से वह उसे डांस करने के लिए कहते थे .

उसकी मां हमेशा बीमार रहती हैं भाई बहन का कोई पता नहीं है, एक पति है जो कभी इससे मिला नहीं वह चाहती है कि उसका पति उसके पास आकर रहे लेकिन वह कभी आता नहीं है.

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वह खुद के अंदर के राखी को जिंदा रखने के लिए ऐसा करती है. राखी सावंत से मैं सिर्फ एक बार मिली हूं लेकिन वह मुझे अपना दोस्त मानती है. यह उसकी अच्छाई है इसी बीच राहुल वैद्या भी आ गए उन्होंने ने भी राखी के लिए अपनी सहमति दिखाई है.

अब देखऩा है आगे क्या होगा. राखी सावंत और जैस्मिन भसीन की दोस्ती में मजबूती आएगी कि नहीं.

आइए किसी पर निकाले अपनी कमियों का दोष

अपनी कमियों का दोष किसी और पर निकालना इंसानी फितरत का सबसे बडा गुण होता है. यह समाज में व्यापक रूप से इतना प्रभावी हो चुका है कि बिना किसी तरह की शिक्षा के यह गुण लोगों में आ जाता है. कई बार बचपन से ही यह गुण इंसान में दिखने लगता है. इस गुण को रोकने का प्रयास भी खूब किया जाता है. मुहावरा है कि ‘दूसरों में दोष निकालने से पहले अपने गिरेबां में झाकना चाहिये‘. असल मामलें में यह काम कोई भी नहीं करता है. इंसान की यह मनोवृति संस्थाओं को भी अपने प्रभाव में रखने लगती है. जिस वजह से संस्थाओं में भी यह गुण देखने को मिलने लगता है. सबसे समझने वाली बात यह है कि हर कोई यह मानता है कि वह अपनी कमियों को देखता है. अपना आत्मावलोकन करता है. जबकि अपवाद छोड कर लोग अपनी कमियों का दोष किसी और पर निकालतें है.

  लोगों का यह व्यवहार धार्मिक कहानियों की वजह से भी है. हमारे समाज में अधिकतर आचार विचार और व्यवहार धर्म की कहानियों के हिसाब से चलता है. जिनमें किसी भी काम की सफलता और विफलता के लिये खुद को दोषी नहीं ठहराया जाता है. हर घर में सत्यनारायण की कथा सुनी जाती है. जिसकी पात्र कलावती का पति इसलिये मर जाता है क्योकि वह भाईयों के कहने पर नकली चंाद को देख कर पानी पीकर कर अपना व्रत तोड देती है. एक दूसरी कथा में कारोबारी बनिया के जहाज में भरा खजाना इस कारण कूडाकरकट हो जाता है क्योकि वह भी प्रसाद का अनादर करता है. हर कार्य के पीछे किसी और का दोष देने की प्रवृत्ति यही से जन्म लेती है.
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अपने कर्म पर भरोसा नहीं:
लोगों को अपने कर्म पर भरोसा नहीं है. वह धर्म और भाग्य को दोषी मानते है. कहावत भी है कि ‘अजगर करे ना चाकरी पंक्षी करे ना काम दास मलूका कह गये सबकै दाता राम‘. जो भी लोगों को हासिल नहीं होता वह यह मान लेते है कि यह उनकी किस्मत में ही नहीं था. यह प्रवृत्ति ही ऐसी हो जाती है कि लोग अपनी कमियां किसी और के सिर मढने का काम करते है. यह धीरे धीरे स्वभाव का प्रमुख अंग बन जाता है. जिसकी वजह से हर छोटी बडी घटना के लिये दूसरे को दोष देते है. सामान्य रूप से अगर सडक पर चलते हुये कोई गलती हो जाये तो भी यही माना जाता है कि सामने वाले चालक के कारण यह हुआ है. कोई भी चालक यह नहीं मानता कि गलती उससे हुई है. केवल छोटी घटनाओं में ही नहीं बडी से बडी घटना में दोष दूसरे के उपर डालने का काम होता है.

बच्चा अगर परीक्षा में फेल हो गया तो वह सारा दोष स्कूल और शिक्षकों पर डाल देता है. अस्पताल में मरीज के साथ कोई दुर्घटना हो जाती है तो अस्पताल और डाक्टर का दोष दिया जाता है. होटल में अगर किसी कारण वश खाने का स्वाद नहीं मिलता तो दोष अपनी तबियत की जगह पर होटल और खाना बनाने वाले का देते है. मेकअप के लिये ब्यूटीपार्लर जाते है. वहां किसी फिल्मी हीरोइन का चेहरा दिखाकर उसके जैसा मेकअप करने को कहते है. वैसा मेकअप करने के बाद भी जब चेहरा वैसा नहीं दिखता तो दोष चेहरे का नहीं बल्कि मेकअप आर्टिस्ट का दिया जाता है. जीवन में ऐसे तमाम अवसर आते है जहां अपनी कमियों की वजह से लोग असफल होते है पर दोष दूसरे का ही देते है.
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अपनी गलतियां दूसरों के सिर:
मनोविज्ञानी डाक्टर मधु पाठक कहती है ‘अपनी गलती दूसरें के सिर थोपने की मनोवृति एक तरह से मानव स्वभाव का हिस्सा बन जाती है. जिसको पर्सनाल्टी का एक डिसआर्डर माना जाता है. ऐसे लोगों की बातों पर लोग भरोसा नहीं करते. समाज में उनकी बात की वैल्यू घट जाती है. उनको सामान्य बोलचाल में बहानेबाज कहा जाता है. इसको यह भी माना जाता है कि ऐसे लोगों की बातों में वजन नहीं होता है. जिससे उनको भरोसेमंद भी नहीं माना जाता. ऐसे लोग समाज में हाशिये  पर चले जाते है. अब जरूरत ऐसे लोगों की बढ रही जो अपनी गलतियों को समझ कर स्वीकार सके. उनमें सुधार लाने का प्रयास करे.’
डाक्टर मधु पाठक कहती है ‘आज का दौर ऐसा है जहां ऐसे लोगों की मांग है जो नेतृत्व करने की क्षमता का प्रदर्शन कर सके. अपनी टीम को लेकर आगे चल सके. टीम का मतलब केवल औफिस ही नहीं जहां भी रह रहे होते है वहां के लोगों का भरोसा जीत कर सबको संतुष्ट कर आगे बढ सके. लोगों में नेतृत्व की क्षमता तभी विकास होता है जब वह अपनी गलतियों को स्वीकार कर सके. किसी भी गलती को तभी सही किया जा सकता है जब उसको स्वीकार करके सही तरह से उसको दूर करने का उपाय किया जाये. अपनी गलतियों को दूसरो के सिर मढने वाले लोगों में नेतृत्व करने की क्षमता नहीं होती है. वह किसी भी कार्य के लीडर नहीं हो सकते है.

गलतियों से सिखना जरूरी:
अपनी गलती दूसरों के सिर थोपने की प्रवृत्ति के वाले लोग अपनी गलती को समझना नहीं चाहते. जब तक वह अपनी गलती को समझते नहीं तब तक उसको दूर भी नहीं कर सकते. साइक्लोजिस्ट आकांक्षा जैन कहती है ‘गलतियां करना भी मानव स्वभाव को हिस्सा होता है. बडे बडे अविष्कार ऐसी ही गलतियों को करते उनको सुधारते हुये है. जब कोई नईनई ड्राइविंग सीखता है तो कई बार गिरता है. फिर संभलता है. इस तरह सही तरह से ड्राइविंग लेता है. अगर वह अपनी गलती ना माने और उसमें सुधार ना करे या अपनी गलती के लिये किसी और को जिम्मेदार मान ले तो वह सीख नहीं पायेगा. गलतियां करना मानव स्वभाव का हिस्सा है और उससे सिखना बेहद जरूरी होता है.’

आंकाक्षा जैन कहती है ‘कई बार हम अपना टाइम मैनेजमेंट सहीं नहीं रखते. जिसकी वजह से कभी ट्रेन छूट जाती है तो कभी फ्लाइट छूट जाती है. कभी किसी इंटरव्यू में देर से पहंुचते है. कई बार रास्तें में कोई बाधा आने के कारण देरी हो जाती है. ऐसे में सामान्य रूप से लोग रास्ते में आने वाली बाधाओं को दोष देते है. यहां सीखने वाली बात है कि हमने अपना सही टाइम मैनेजमेंट नहीं किया. जिस वजह से हम समय पर नहीं पहंुच पाये. हो सकता है कि हमारी लापरवाही किसी बार जीवन पर घातक साबित हो. किसी को अस्पताल ले जाना हो और टाइम मैनेजमेंट सही ना होने से वह समय पर अस्पताल नहीं पहंुच पाये और उसका नुकसान हो जाये. रास्तें में आने वाली बाधाओं से अधिक गलती सही टाइम मैनेजमेंट न करने की होती है. जो हमारी अपनी गलती होती है इसमें सुधार हम कर सकते है.‘
अपनी कमियों का दोष किसी और पर निकालने से समस्या का समाधान नहीं होगा. समस्या का समाधान अपनी कमियों को पहचान कर उसे दूर करने से होगा. जरूरत इस बात की है कि लोग अपनी कमियों को पहचाने और उनको दूर करे. इसी से समस्या का समाधान होगा. इसके साथ ही साथ समाज ऐसे लोगों पर भरोसा अधिक करता है. भरोसा या गुडविल किसी बडी से बडी पंूजी से कम नहीं होती है. भरोसा या गुडविल ही है जो लोगों को जोडती है. हर किसी को ऐसे लोगों की तलाश  होती है जो झूठ ना बोले, भरोसेमंद हो, ईमानदार हो, जो कहे वह करे और अपनी गलतियो का दोष किसी और पर ना डाले. जब ऐसे लोगों की तलाश हर किसी को है जो जरूरत है कि हर कोई इन गुणो का विकास अपने खुद के अंदर करे. तभी उसको दूसरे लोग इस प्रवृत्ति के मिल सकेगे.

 व्हाइट हाउस में ‘बिमला’

अमेरिका के व्हाइट हाउस में ‘बिमला’ (बाइडेन -कमला) राज दिल्ली को सुहाएगा, इस की उम्मीद कम है. अमेरिका के पड़ोसी कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने साफसाफ कह दिया है कि वे भारतीय किसानों के आंदोलन का समर्थन करते हैं और भारत सरकार की घुड़कियों का उन पर कोई असर नहीं पड़ता. उन्होंने कहा है कि वे दुनिया में कहीं भी मानव अधिकारों पर होते हमलों का विरोध करेंगे. अमेरिका की ‘बिमला’ जोड़ी नरेंद्र मोदी से स्वाभाविक रूप से नाराज होगी क्योंकि पहले तो ह्युस्टन, अमेरिका और फिर अहमदाबाद,

भारत में मोदी ने ‘फिर एक बार ट्रंप सरकार’ के नारे लगवाए थे और साथ ही कमला हैरिस की प्रतिद्वंद्वी तुलसी गैबार्ड को जरूरत से ज्यादा भाव दिया था. अमेरिका में ‘फ्रैंड्स औफ बीजेपी’ नाम से मौजूद भारत के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा ने खुल्लमखुल्ला डोनाल्ड ट्रंप को पैसा व समर्थन दिया था. कितने ही भगवा सोच वाले ट्विटर अकाउंट अमेरिकी कालों के भारतीय चला रहे हैं, जो हमारे दलितों और पिछड़ों को अमेरिका वालों के बराबर मानते हैं और औरतें, चाहे वे ब्राह्मण, क्षत्रियों वैश्यों की हों, को नीच व पापयोनि वाली मानते हैं. अमेरिका में फैले सैकड़ों मंदिरों और भारतीय संस्थाओं पर ऊंची जातियों के हिंदुओं का कब्जा है, जिन्हें ट्रंप सुहाते हैं. ऊंची जातियों के इन हिंदुओं को अमेरिका की उपराष्ट्रपति बनने वाली कमला हैरिस में जरा भी भारतीयपन नहीं दिखता.

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हमारे यहां वैसे भी वर्णसंकर को न जाने क्याक्या कहा गया है और आज भी शास्त्रों पर होने वाले व्याख्यानों, चाहे इंग्लिश में हों, वर्णसंकर को बुराबुरा ही कहा जाता है. जो बाइडेन और कमला हैरिस भारत सरकार को खास भाव देंगे, इस की उम्मीद कम है. हां, यह संभव है कि वे दोनों भारत सरकार के धर्मजनित अत्याचारों की जांच कराए जाने की वकालत करें और मानव अधिकारों की रक्षा की बात करें जो भारत की वर्तमान सरकार को अखरेगा. वैसे ट्रंप सरकार भारत के एहसानों के बावजूद, भारत के लिए उदार थी, ऐसा नहीं है. ट्रंप ने तो खुल्लमखुल्ला भारत की हवा को गंदा बोल दिया था जो भारतीयों को चुभा भी था. कमला हैरिस का रुझान लैफ्टलीनिंग है और यह जगजाहिर है. वे भारत सरकार को आड़ेहाथों लिए रहेंगी, यह स्पष्ट है. इसी वजह से उन के अमेरिका के उपराष्ट्रपति बनने पर भारत में मोदी सरकार ने घी के दीये जलाने का आदेश नहीं दिया.

जो प्रधानमंत्री किसी भी क्षेत्र, जने से संबंध जोड़ने में माहिर हो, उस ने चेन्नई में जन्मी मां की बेटी के उपराष्ट्रपति बनने पर खुशी न जताई, यह आश्चर्य की बात है. भारत-अमेरिकी संबंध अब कोल्ड स्टोरेज में जाने वाले हैं. झूठ और ट्विटर सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर ने अब खुल्लमखुल्ला भारतीय जनता पार्टी की आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय के ट्वीट को मैनिपुलेटिंग करार दे दिया है जिस में उस ने एक बुजुर्ग सिख किसान आंदोलनकारी को पुलिसमैन द्वारा पीटते हुए दिखाए जाने को गलत बताया था. अमित मालवीय का दावा था कि बुजुर्ग सिख किसान को सिर्फ डराया जा रहा है, जबकि, पूरा वीडियो दिखाता है कि उस बुजुर्ग सिख आंदोलनकारी को कई पुलिसमैनों के डंडे खाने पड़े थे. अमित मालवीय को इस से फर्क पड़ेगा, ऐसा नहीं लगता क्योंकि झूठ पर सपनों के महल बना लेने का प्रशिक्षण तो पौराणिक ग्रंथों में हर पृष्ठ पर दिया गया है और इन्हीं ग्रंथों के आधार पर भारतीय समाज पर धर्म पुजारियों ने 3,000 सालों से राज किया है और बुद्ध, जैन, इसलाम के थपेड़ों के बावजूद आज फिर दोहराया जा रहा है.

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पाखंड की चर्चा, झूठी कहानियों, आपसी विरोधाभासी तर्क व अपनी महानता के झूठे दावे इतनी बार दोहराए जाते हैं और इतने स्रोतों से कहलवाए जाते हैं कि आम लोगों को वे सही लगने लगते हैं, यहां तक कि बहुसंख्यकों को भी जो पीढि़यों से इन कहानियों का कहर सह रहे हैं और इन कहानियों के कहने वाले 2-3 प्रतिशत लोगों के जूते चाटते रहते हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक भाषण में ऐसा कुछ कहा था, कि नरेंद्र मोदी तो कहते हैं कि वे चांद से ऐसी मशीन लाएंगे जो एक तरफ से आलू लेगी और दूसरी तरफ सोना निकालेगी. अमित मालवीय जैसों की टीम ने मिल कर इस वीडियो से मोदी का नाम हटा दिया और इसे ‘राहुल गांधी कहते हैं…’ के नाम से बुरी तरह प्रचारित कर डाला. देश की मूर्ख जनता, जो तरहतरह के धोखेबाज, खुदगर्ज देवताओं को पूजती है, इस झूठ को पचा गई और मानने लगी कि राहुल ने ही ऐसा कहा होगा. झूठ को सफेद सच करने की कला भाजपा के अलावा देश की किसी और पार्टी में नहीं है. इस के लिए जो विशेष प्रशिक्षण चाहिए होता है वह हिंदू धर्म से जुड़े आश्रम, स्कूलों, कालेजों में ही दिया जाता है. जिन संस्थाओं में ज्ञान? तर्क और तथ्य पर आधारित होता है वहां ऐसा प्रशिक्षण नहीं दिया जाता.

अमित मालवीय जैसा झूठ बोलना हरेक के बस का नहीं. ट्विटर अगर सभी हिंदू प्रचारकों के ट्वीटों की जांच कर के उन पर गलत होने का बिल्ला लगाने लगे तो उस का धंधा ही बंद हो जाएगा क्योंकि झूठ के प्रचार पर ही तो वह कंपनी फलफूल और मौज मना रही है. मृतशैया पर कांग्रेस कांग्रेस मृतशैया पर है. जिस तरह बिहार में उस का फीका प्रदर्शन रहा है और जिस तरह हैदराबाद के निकाय चुनाव में वह केवल 2 सीटें जीत पाई, उस से तो ऐसा ही लगता है. लोगों की रुचि इस पार्टी में अब न के बराबर रह गई है. पर अगर कांग्रेस से लोगों का भरोसा उठ गया है तो वह गया किस पर है? क्या भारतीय जनता पार्टी पर? क्या नए बने क्षेत्रीय दलों पर? क्या जातिवादी दलों पर? यदि ऐसा हुआ है तो जो रोनाधोना कांग्रेस के लिए किया जा रहा है, वह असल में देश के लिए होना चाहिए. कोई भी राजनीतिक दल किसी निजी कंपनी की तरह नहीं होता जो कोई पैटेंटेड सामान बना रही हो और कुशलता से ग्राहकों की आवश्यकता पूरी कर रही हो. राजनीतिक दल लोगों की भावनाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक होता है. वह लोगों को उन की चाह के अनुसार एक कुशल नेतृत्व देता है. उन की आवश्यकताओं को पूरी व उन की समस्याओं को हल करने की कोशिश करता है. बदले में दल के नेता अपने स्वार्थ साधते हैं.

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कुछ नेता मोटा पैसा कमाते हैं, कुछ सामाजिक परिवर्तनों, सही शासन व जनता की खुशी को अपने लक्ष्य की पूर्ति मानते हैं. हर दल में स्वार्थी भी होते हैं और समाजसेवी भी. लेकिन मोटेतौर पर सभी किसी न किसी तरह जनता की इच्छाओं को पूरा करते हैं, वरना दोबारा जीत कर नहीं आ सकते. कांग्रेस अब पिछड़ रही है तो इसलिए कि न तो वह जाति के नाम पर देश को बांट रही है और न धर्म के नाम पर वैमनस्य की राजनीति अपना रही है. समाज का एक बड़ा अंग, हिंदू समाज का हिस्सा, सदियों से मुफ्त की खाने का आदी रहा है. कांग्रेस में इस बिरादरी के लोग 1895 से ही घुसे रहे हैं पर धीरेधीरे इन का वर्चस्व कम होता गया क्योंकि विशेषकर सताए गए लोगों के नेता उभरने लगे. यह चुनौती थी उन के लिए जिन्होंने देश के समाज पर सदियों राज किया, सत्ता में बिना रहे भी किया और यहां तक कि बौद्धों, ग्रीकों, शकों, हूणों, परशियनों, मुगलों, फ्रैंच, ब्रिटिश सत्ता के दौरान भी किया. लेकिन कांग्रेस पार्टी ने चाहे जरूरत की वजह से या गांधीनेहरू के कारण, सब को नहीं तो काफी लोगों को सत्ता में साझीदारी दी. आज यह पार्टी पुराने सामाजिक सत्ताधारियों को पराई लग रही है. वे मीडिया व व्यापार को कंट्रोल करने के साथ लोगों की सोच बदलने में भी कामयाब हो गए हैं.

कांग्रेस के पतन के लिए गांधी परिवार जिम्मेदार है, यह कहना पूरी तरह सच न होगा. कांग्रेस के पतन का कारण धर्म के धंधेबाजों और उन के अंधभक्तों के सामाजिक व आर्थिक प्रभाव के साथ उस की सर्वाधिकार की इच्छा का बलवती होना है. कांग्रेस व दूसरी पार्टियों का हाशिए पर जाना आश्चर्य की बात नहीं है. इस के बीज कांग्रेसी नेताओं ने ही बोए थे. बस, पेड़ अब कोई और काट रहा है. जब जंगल कट जाएंगे तो कठोर धरातल नजर आएगी. तब कांग्रेस या उस का जैसा पर्याय भी न रहेगा. शरणार्थी और कट्टरपन मुसलिम शरणार्थियों को अपने देशों में निमंत्रण देना या आने देना पश्चिमी देशों को महंगा पड़ रहा है. सीरिया, इराक, लेबनान, यमन और पूर्व सोवियत संघ के कई मुसलिम देशों के युद्धों के मारे मुंह लटकाए लाखों मुसलिम परिवार यूरोप में आ बसे हैं और अपने देशों से अच्छा शांत जीवन बिता रहे हैं. उन के मूल देशों में धार्मिक युद्ध जम कर हो रहे हैं, जबकि यूरोप में वे मुफ्त की रोटियां पा रहे हैं. यूरोप के 27 देशों में लगभग ढाई करोड़ मुसलमान शरणार्थी रह ही नहीं रहे, अपने पक्के घरौंदे भी बना रहे हैं. उन की अब कभी इन देशों को छोड़ कर जाने की मंशा नहीं है. इन देशों में सामाजिक सुरक्षा है, सफाई है, पढ़ाई है, काम के अवसर हैं और सब से बड़ी बात कि ईसाईबहुल देशों में धार्मिक गुस्सा अभी तक पनपा नहीं है.

चिंता की बात यह है कि इन देशों की उदारता व मानवता का मुसलिम कट्टरपंथी नाजायज फायदा उठाने में लगे हैं. फ्रांस और वियना में हुई हाल की हत्या की घटनाओं ने साबित कर दिया है कि इन शरणार्थियों की दिमाग सफाई यानी बे्रनवाश इतना ज्यादा किया गया है कि वे अपनी करतूतों से बाज नहीं आ रहे. वे भविष्य में आने वाले शरणार्थियों के रास्ते बंद कर देने के रिस्क पर निहत्थेनिर्दोष आम मूल नागरिकों से अपने तथाकथित इसलाम की खातिर बदला लेने को तैयार हैं. जो देश दुनियाभर में धार्मिक अधिकारों के लिए लड़ते हैं, वे भयभीत हैं कि उन्होंने मानवता व सस्ते मजदूरों के रूप में किस आफत को पाल लिया है. अब क्या वे उन के तथाकथित धर्म को बेरहमी से कुचलें या उन सिरफिरों के हाथों खुद पिटतेमरते रहें. इसलाम के साथ दिक्कत यह है कि 21वीं सदी में भी यह बदलने को तैयार नहीं है.

ज्यादातर इसलामी देश पुरानेपन से चिपके हैं. तेल के पैसे पर मौज कर रहे इसलामी कट्टरपंथियों ने शासकों को मजबूर किया कि वे आतंकवादियों को पालें, पैसे दें, हथियार दें. ओसामा बिन लादेन दुनियाभर में यूरोपीय कल्चर का लाभ उठाता रहा और उसी कल्चर को चोट पहुंचाता रहा था. उस को मार देने से कोई किला फतेह नहीं हुआ है क्योंकि नए ओसामा बिन लादेन पैदा हो गए हैं. यूरोप के सामने अब विकल्प यह है कि वह भारत व चीन की तरह हिंदू कट्टरपंथी देश बने जहां अल्पसंख्यकों को डराधमका कर रखा जाए या बराबरी और निजी स्वतंत्रता के अधिकारों का उदार वकील बने. यह पक्का है कि मुसलिम कट्टरपंथी एहसानमंद न होंगे. वे उसी हाथ पर डंक मारेंगे जो उन्हें बचाएगा. वैसे, यह हर धार्मिक कट्टरपंथी के खून में बसा है. ईसाइयों, हिंदुओं, बौद्धों के कट्टरपंथियों ने भी समयसमय पर यही किया है.

दुधारू पशुओं में गर्भनिदान जांच की अहमियत

लेखक- डा. योगेश कुमार सोनी

केंद्रीय गोवंश अनुसंधान संस्थान, मेरठ अकसर कृत्रिम गर्भाधान कराने के बाद पशुपालकों में यह उत्सुकता रहती है कि उन का पशु गाभिन है या नहीं? आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि जिन पशुओं को कृत्रिम गर्भाधान या सांड़ द्वारा गर्भित करवा लिया गया है और उस के बाद से वे गरमी में नहीं आए हैं, तो वे निश्चित रूप से गाभिन होंगे, जबकि व्यावहारिक रूप से ऐसा नहीं होता है और इसी उम्मीद में वे कई महीने गुजार देते हैं. आखिर में पशु के गाभिन न निकलने पर उन्हें निराशा ही हाथ लगती है. पशुओं के गरमी में न आने से उन के गाभिन होने का अनुमान जरूर लगा सकते हैं, किंतु यह बात पूरी तरह से सच नहीं होती है. वैसे, जितनी जल्दी गाभिन पशु का पता चले, उतना ही अच्छा और लाभदायक होता है.

किसी भी डेरी व्यवसाय को लाभदायक बनाने के लिए गाभिन पशुओं के बजाय ऐसे पशुओं की पहचान करना ज्यादा जरूरी होता है, जिन का गर्भधारण नहीं हो पा रहा है, जिस से उन का समय पर उचित उपचार या प्रबंधन किया जा सके. समय पर गर्भनिदान क्यों जरूरी? कृत्रिम गर्भाधान के बाद पशुओं का गर्भनिदान बहुत ही जरूरी है. वैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार लगभग 15 से 25 फीसदी ऐसे पशु होते हैं, जो गर्भाधान के बाद गरमी में नहीं आते और उन्हें गाभिन मान लिया जाता है, पर वास्तव में वे गाभिन नहीं निकलते. इस के कई कारण हो सकते हैं. जैसे गरमी के लक्षणों का कम प्रदर्शित होना, सही समय पर उत्तम सांड़ वीर्य द्वारा कृत्रिम गर्भाधान न होना आदि.

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याद रहे, पशुओं की एक गरमी या हीट छूटना तकरीबन 21 दिनों के दूध उत्पादन के नुकसान के बराबर होता है, इसलिए जितनी जल्दी अगर्भा (जो गाभिन नहीं है) पशुओं का पता चलेगा, उतनी ही जल्दी उन की जांच या इलाज कराया जा सकता है. गर्भनिदान कैसे और कब कृत्रिम गर्भाधान के बाद पशुओं का गरमी में न आना : यदि पशु कृत्रिम गर्भाधान के 21-25 दिनों के बाद गरमी में नहीं आए, तो उस के गाभिन होने का अंदाजा लगाया जा सकता है और सत्यापन के लिए गुदा परीक्षण द्वारा इस की जांच जरूर करवा लेनी चाहिए. इस के लिए पशुपालकों को चाहिए कि वे नियमित रूप से अपने हर एक पशु का लेखाजोखा रखें, जिस में पशु के गरमी में आने और कृत्रिम गर्भाधान की तारीख व समय, सांड़ का नंबर, कृत्रिम गर्भाधानकर्मी का नाम वगैरह दर्ज हो.

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गुदा परीक्षण विधि द्वारा गोपशुओं में गुदा परीक्षण द्वारा ग्रीवा, गर्भाशय, अंडाशय या भ्रूण से संबंधित विभिन्न प्रकार की क्रियाओं या विकृतियों का पता लगाया जा सकता है. गर्भनिदान इन में से एक है. गुदा परीक्षण द्वारा गर्भनिदान बहुतायत उपयोग में आने वाली, सस्ती और सटीक विधि है, जिस के तहत गुदा में हाथ डाल कर भ्रूण की जांच कर गाभिन पशुओं का पता लगाया जा सकता है. कुछ पशुपालकों में यह भ्रांति है कि गाभिन पशुओं के गुदा परीक्षण से गर्भपात हो जाएगा, जो गलत है. दुधारू पशुओं में सही समय पर गर्भनिदान कराना बहुत ही जरूरी है. गायों में कृत्रिम गर्भाधान के 60 दिनों और भैंसों में 75 दिनों के बाद ही गुदा परीक्षण विधि द्वारा गर्भनिदान का उचित समय है. सटीक गर्भनिदान के लिए पशुपालकों को चाहिए कि इस न्यूनतम अवधि से पहले गर्भनिदान न कराएं और हमेशा किसी योग्य पशु चिकित्सक की ही सलाह लें.

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