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प्रधानमंत्री मोदी चुनाव प्रचार के दौरान क्यों भूल जाते हैं कि वो देश के पीएम हैं!

पश्चिम बंगाल में तीसरे चरण के मतदान से पहले गुरुवार को खूब बयानबाजियों का दौर चला. इस दौरान एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ममता बनर्जी पर हमला बोला. उन्होंने ‘दीदी ओ दीदी…’ कहकर सीएम ममता पर तंज कसा था. पीएम इससे पहले भी बंगाल चुनाव प्रचार के दौरान कई बार ममता बनर्जी पर ‘दीदी ओ दीदी…’ कहकर तंज कसते रहे है. और इससे पहले भी वे सोनिया गांधी पर बोलते हुए कुछ इसी तरह के लहजे का प्रयोग करते रहे हैं. ऐसे में सोचने वाली बात ये है कि क्या पीएम मोदी चुनाव प्रचार के दौरान यह बात भूल जाते हैं कि वे इस देश के प्रधानमंत्री है. खासकर जब किसी महिला के संबोधन की बात आती है तो चाहें वो किसी विपक्षी पार्टी की ही क्यों ना हो, क्या पीएम को संबोधन की भाषा में शालीनता नहीं रखनी चाहिए ?

पीएम मोदी के इस बयान को लेकर टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा ने प्रधानमंत्री पर निशाना साधा है. टीएमसी सांसद ने एक निजी चैनल को दिए एक इंटरव्यू में पीएम मोदी पर हमला बोला.

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उन्होंने कहा कि बंगाल में कुछ लोग होते हैं, जिन्हें ‘रौकेर छेले’ कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है वे लड़के, जो सड़क किनारे बैठकर आती-जाती हर महिला को ‘दीदी ए दीदी’ कहकर पुकारते हैं. प्रधानमंत्री भी वही कर रहे हैं.’ उन्होंने आगे कहा कि प्रधानमंत्री मोदी लाखों लोगों के बीच दीदी पर निशाना साधते हैं. वो ‘दीदी ओ दीदी’ कहकर ममता को पुकारते हैं. यह कहां तक सही है. क्या वो अपनी मां के लिए ऐसा बोलेंगे? अपनी बहन के लिए बोलेंगे? अपनी परित्यक्त पत्नी के लिए बोलेंगे? एक प्रधानमंत्री एक राज्य की सीएम के लिए इस तरह की भाषा का इस्तेमाल करे, ये उन्हें शोभा नहीं देता.

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बता दें कि दूसरे चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले ममता बनर्जी ने विपक्षी नेताओं को चिट्ठी लिखी थी. इस चिट्ठीका मजाक उड़ाते हुए पीएम मोदी ने कहा था कि ‘दीदी आपके एक्शन दिखा रहे हैं कि आप नंदीग्राम से हार रही हैं, कि आपने हार मान ली है. ‘दीदी ओ दीदी’ अफवाह चल रही है कि आप किसी और सीट से पर्चा भरने वाली हैं. क्या ये सच है? पीएम मोदी ने मंच से तंज भरे लहजे में दीदी को पुकारा. उन्होंने कहा था, ‘जब जरूरत होती है तो तब दीदी दिखती नहीं, जब चुनाव आता है तो कहती हैं- सरकार दुआरे-दुआरे! यही इनका खैला है. ओ दीदी, ओ दीदी… अरे दीदी… बंगाल का बच्चा-बच्चा, ये खैला समझ गया है.’

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पीएम मोदी अपने इन सस्ते संवादों से बेशक आई हुई भीड़ के बीच बैठे अपने समर्थकों की तालियां बटोर लेते हो, लेकिन आमतौर पर इससे संदेश यही जाता है कि चुनावी बाज़ी जीतने के लिए देश के प्रधानमंत्री का किसी महिला को इस तरह से संबोधन करना एक बेहद ओछा तरीका है.

कितना अच्छा होता अगर प्रधानमंत्री मोदी जितनी शालीनता अपने पहनने-ओढ़ने में बरतते है उतना ही वे अपनी भाषा संवाद में शालीनता रखते तो उतने ही नफासत पसंद या सुरुचिपूर्ण होते. एक देश अपने प्रधानमंत्री से इतनी सामान्य और जायज़ अपेक्षा तो रख ही सकता है. उनका बाकी अंदाज़-ए-हुक़ूमत तो एक अलग बहस की दरकार रखता ही है.

बदलते मापदंड : भाग 3

‘‘नहीं, नाराज होतीं तो तुम्हारे लिए दुखद समाचार क्यों होता. वे आधुनिक मां हैं न, तुम्हारे गले में मुझ से जयमाला डलवा रही थीं. बड़ी मुश्किल से उन को समझा पाई हूं कि हम लोग आपस में शादी नहीं करेंगे,’’ यह सोनल का स्वर था.

‘‘यह तो वास्तव में हमारे लिए दुखद समाचार था. कौन करता तुम जैसी बेवकूफ लड़की से शादी?’’ सुमित का स्वर था.

‘‘अच्छा, तो मैं बेवकूफ हूं,’’ सोनल बोली.

‘‘खैर, छोड़ो, हम लोग इस बंधन में बंधने से बच गए, इसलिए इस खुशी को चल कर किसी कौफी हाउस में मनाते हैं. तुम जल्दी से तैयार हो कर आओ,’’ यह सुमित का स्वर था. नई पीढ़ी के प्यार की परिभाषा सुन कर माधुरी को एकदम चक्कर सा आ गया और उस के हाथ से ट्रे छूट कर जमीन पर गिर गई. वह वहीं जमीन पर बैठ गई. उस के चारों तरफ फैली चाय, कप और केतली के टुकड़े उसे उस की मूर्खता का उपहासउड़ाते प्रतीत हो रहे थे.

बदलते मापदंड : भाग 2

‘चलो, अच्छा हुआ जो उसे पता चल गया. अब वह किसी तरह सुमित से उस का विवाह करवा ही देगी. अपने जीवन की त्रासदी उस के जीवन में नहीं घटित होने देगी.’ तभी घंटी बजी. लगता है सोनल यूनिवर्सिटी से वापस आ गई है. इसी मानसिक ऊहापोह में माधुरी को समय का पता ही नहीं चला. उस ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने सोनल ही खड़ी थी. ‘‘क्या हुआ, मां?’’ मां का उड़ा हुआ चेहरा देख कर सोनल ने पूछा.

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‘‘कुछ नहीं, सिर में दर्द है.’’

सोनल कपड़े बदल कर खाने की मेज पर आ कर बैठ गई. माधुरी उस के लिए खाना निकालने लगी तो सोनल बोली, ‘‘मां, तुम्हारे सिर में दर्द है. तुम आराम करो. मैं खुद निकाल कर खा लूंगी.’’ मगर माधुरी वहीं पास पड़ी दूसरी कुरसी पर बैठ गई. वह सोनल से सुमित के बारे में पूछना चाहती थी मगर समझ नहीं रही थी कि बात कहां से शुरू करे. सोनल न जाने क्याक्या अपनी यूनिवर्सिटी की बातें बता रही थी, लेकिन उस को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. सोनल भांप गई कि मां का ध्यान कहीं और है, बोली,  ‘‘क्या है, मां, क्या सोच रही हो, मेरी बातें नहीं सुन रही हो?’’

सोनल द्वारा अचानक पूछे गए सवाल पर माधुरी पहले तो हड़बड़ाई, फिर बोली, ‘‘सोनल, तू अपने विवाह से खुश तो है न?’’ सोनल एकदम भावुक हो गई, ‘‘खुश क्यों होऊंगी मां? क्या किसी लड़की को भला अपने मातापिता को छोड़ने की खुशी होती है?’’ कह कर सोनल रोने लगी. माधुरी की आंखों में भी आंसू आ गए. वह मन ही मन सोचने लगी कि कितनी खूबसूरती से यह लड़की अपनी वेदना प्रकट कर गई. वह स्वयं भी बहुत रोया करती थी. लोग सोचते कि उस को परिवार वालों को छोड़ने का दुख है. कोई भी उस के हृदय के हाहाकार को समझ नहीं पाया था. मगर यह बेवकूफ लड़की यह नहीं जानती कि उस की मां उस के रुदन के पीछे छिपे हाहाकार को बड़ी तीव्रता से महसूस कर रही है. थोड़ी देर बाद सोनल को स्टोररूम से कोयले की अंगीठी लाते हुए देख कर उस ने पूछा, ‘‘सोनल, अंगीठी का क्या करेगी?’’

‘‘मां, कुछ रद्दी कागज जलाने हैं,’’  सोनल का संक्षिप्त सा उत्तर आया.

‘फिर झूठ बोली यह लड़की. अपने हृदय के उद्गारों को रद्दी कागज का टुकड़ा बता रही है,’ वह सोचने लगी. लेकिन वह पूछे भी तो कैसे पूछे, कैसे कहे कि उस ने उस के प्रेमपत्र पढ़ लिए हैं. सोनल पत्रों को जला चुकने के बाद उस के पास वहीं रसोई में आ गई,  ‘‘मां, क्या बनाया है नाश्ते में आज? वाह, मेरी पसंद के ढोकले बनाए हैं.’’ वह नजर उठा कर सोनल के चेहरे की ओर देखने लगी. उस के चेहरे पर कहीं उदासी के चिह्न भी नहीं थे. कितनी आसानी से यह लड़की चेहरे  के भाव बदल लेती है. नाटक करने में तो शुरू से ही निपुण रही है यह. कई इनाम भी जीत चुकी है स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी में अपनी सशक्त अभिनय प्रतिभा से. वह सोनल के चेहरे को और ध्यान से देखने लगी कि शायद कहीं उदासी की लिखावट पोंछ न पाई हो और उसी के सहारे वह उस के मन की भाषा पढ़ सके. माधुरी के इस प्रकार देखने से सोनल कुछ असहज हो गई, ‘‘क्या बात है, मां? मुझे ऐसे क्यों देख रही हो?’’

‘‘तुझे अपना दूल्हा तो पसंद है न? कहीं कोई और लड़का पसंद हो तो बता दे, अभी कुछ भी नहीं बिगड़ा है. मैं सब संभाल लूंगी,’’ माधुरी उस के प्रश्न के उत्तर में फिर उस से प्रश्न कर बैठी.

‘‘नहीं मां, मुझे और कोई लड़का पसंद नहीं है. और फिर मेरा दूल्हा तो जब आप लोगों को पसंद है तो फिर मुझे पसंद न आने का प्रश्न ही कहां? मगर आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?’’ सोनल ने माधुरी के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान हो कर पूछा.

माधुरी को एकाएक कोई उत्तर नहीं सूझा तो झट से कहा, ‘‘कुछ नहीं बेटी, यों ही पूछ लिया. तुम सहशिक्षा विद्यालय में पढ़ी हो न, इसलिए.’’ यह लड़की ऐसे सचसच नहीं बताएगी. फिर क्या करे वह, माधुरी कुछ समय नहीं पा रही थी. ‘आज रात को मैं इस के पिताजी से बात कर के देखती हूं कि वे क्या कहते हैं,’ माधुरी ने मन में सोचा. रात में सोनल के पिताजी से माधुरी ने कहा, ‘‘सुनो, हम लोगों ने सोनल की शादी तय तो कर दी है, कहीं उसे कोई और लड़का पसंद हुआ तो…हम लोगों ने इस ओर तो ध्यान ही नहीं दिया?’’

‘‘क्यों, कुछ कहा क्या सोनल ने?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘नहीं,’’ माधुरी बोली.

‘‘फिर तुम्हारे दिमाग में यह सब आया कैसे?’’ सोनल के पिताजी ने फिर प्रश्न किया.

माधुरी ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, यों ही दिमाग में आ गया. वह लड़कों से कुछ अधिक खुली हुई है न.’’

‘‘तो इस का मतलब यह तो नहीं हुआ कि वह किसी से प्रेम करती होगी. फुजूल की बातें सोच कर मेरा और अपना दिमाग खराब कर रही हो,’’ सोनल के पिता ने उसे हलकी सी झिड़की देते हुए कहा.

‘अब वह क्या करे? लगता है सोनल से इस संबंध में घुमाफिरा कर नहीं, साफसाफ बात करनी पड़ेगी. कल शाम को जब वह यूनिवर्सिटी से आएगी, तभी वह खुल कर इस संबंध में उस से बात करेगी,’ माधुरी ने मन ही मन निर्णय किया. फिर सारी रात और शाम तक का समय माधुरी ने इसी ऊहापोह में बिताया कि जब सोनल को यह पता चलेगा कि उस ने उस के सारे प्रेमपत्र पढ़ लिए हैं तो वह क्या सोचेगी. फिर शाम को माधुरी ने सोनल को खाने की मेज पर घेर लिया और पूछा, ‘‘सोनल, तुम सुमित से प्रेम करती थीं, फिर तुम ने एक बार भी शादी के लिए इनकार क्यों नहीं किया? आज ही मैं तुम्हारे पिताजी से इस संबंध में बात करूंगी. हम लोग उन मातापिताओं में से नहीं हैं जो अपनी इच्छा के आगे बच्चों की खुशियों का गला घोंट देते हैं. मैं तुम्हारी शादी सुमित से करवा कर रहूंगी.’’ सोनल विस्फारित नेत्रों से माधुरी की ओर देखने लगी. फिर पूछा, ‘‘मां, तुम से किस ने कहां कि मैं सुमित से प्यार करती हूं. वह मेरा अच्छा मित्र अवश्य है, पर क्या मित्रता की परिणति शादी में ही होती है?’’

‘‘तुझे शादी नहीं करनी थी तो प्रेमपत्र क्यों लिखे थे उस को?’’ सोनल के उत्तर से माधुरी झुंझला पड़ी.

‘‘अरे मां, वह तो हम लोगों का एक शगल था. आप के हाथ वह पत्र लग गया क्या? तभी मैं कहूं कि कल से मेरी मां उदास क्यों हैं?’’ फिर वह खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘नहीं, मुझे नहीं करनी है शादी सुमित से. न नौकरी न चाकरी. अब आप निश्ंिचत हो जाइए.’’ माधुरी को उस की हंसी शीशे की तरह चुभी. वह सोचने लगी है कि क्या यह उसी की लड़की है, जिस के लिए भावना का कोई मूल्य नहीं. प्रेम में भी अपनी व्यावहारिक बुद्धि लगाती है. इस बेवकूफ लड़की को यह नहीं मालूम कि प्यार वह चीज है जो दुनिया की हर दौलत से बढ़ कर होती है. मगर वह क्या समझेगी जिस ने प्यार को मनोरंजन समझा हो. बेचारा सुमित कैसे इस लड़की के प्रेमजाल में फंस गया. उस ने इस के साथ न जाने कितने सपने संजोए होंगे. उसे क्या मालूम कि यह उस के प्यार और त्याग की जरा भी कद्र नहीं करती. तभी घंटी बजी. उस ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने सुमित को खड़ा पाया. कैसा थकाहारा सा लग रहा है. उसे लगा जैसे उस का अंशुल ही प्यार में शिकस्त खा कर खड़ा हो.

‘‘आंटी, सोनल है क्या घर में?’’ सुमित ने पूछा. माधुरी के उत्तर के पहले ही सोनल आ गई, ‘‘अरे, सुमित तुम, आओ बैठो,’’ कहते हुए वह उसे ड्राइंगरूम में ले गई. माधुरी चाय बनाने के लिए रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद वह चाय ले कर ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ ही रही थी कि तभी दरवाजे से आते हुए शब्दों ने उसे वहीं ठिठक कर खड़े रहने को विवश कर दिया. सोनल की आवाज थी, ‘‘सुमित, तुम्हारे लिए एक दुखद समाचार है, जानते हो, मां ने मेरे सभी पत्र पढ़ लिए हैं.’’ सुमित का अचकचाहटभरा स्वर उभरा, ‘‘फिर, आंटी तुम पर खूब नाराज हुई होंगी. बड़ी लापरवाह हो. लापरवाही से पत्र रख दिए होंगे.’’

 

संपादकीय

उत्तर प्रदेश के मेरठ के नौचंदी पुलिस थाने के एसएचओ ने पौराणिक न्याय करने के लिए एक नई जुगत निकाली है. वे हर शिकायतकत्र्ता को खुद अशुद्ध मानते हैं और उसे गंगाजल से धोते हैं. गनीमत है कि गंगाजल का असर इतना ज्यादा माना जाता है कि कुछ बूंढ़ों से ही पाप धुल सकते हैं. इसलिए उन की छिडक़ी बूंदों पर शिकायतकत्र्ता सिर झुका लेता है.

जो समाचार छपा है उस में वहीं लिखा नहीं है कि गंगाजल के प्रताप की वजह से वहां नौचंदी में अपराध कम हो गए हैं या अपराधी खुदबखुद जेल में आ कर बंद हो गए हैं. वहां यह भी नहीं लिखा कि उस थाने में रिश्वतखोरी बंद हो गई है. पर यह पक्का है कि जब हरिद्वार का हर की पौंड़ी पर जजमानों और पंडों को झगड़ते देखा जा सकता है और पदों के बीच जजमान पकडऩे के लिए छीनाछपटी देखी जा सकती है तो इस थाने में गंगा जल के छीटों से कोई फर्क नहीं पड़ता होगा.

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यह अफसोस की बात है कि कूढ़भगज पूजापाठी लोग रात के हर पायदान पर आ बैठे और आज जम कर पाखंड का बाजार जम रहा है. इस के सब से बड़े शिकार गरीब हैं जो समझ नहीं पा रहे कि कम सच है और क्या बेइमानी. उन्हें बातों के सहारे हजारों सालों गुलाम रखा गया है पर पिछले 100-150 सालों में जो नई लहर आई थी बराबरी की सोच की वह बड़ी सफाई से तरहतरह के बांध बना कर कंट्रोल में की जा रही है.

गरीबों को कांवड़ ढ़ोने पर लगा दिया गया है. गरीबों को उन के अपने गली के किनारे पेड़ के नीचे बने पत्थर के देवता का मंदिर बना दिया गया है जहां वे ऊंचे सवर्गों की तरह पूजापाठ कर अपना कल्याण चाह सकते हैं. उन की जो भी थोड़ीबहुत कमाई बढ़ी थी उसे गंगाजल बहा कर ले जाने लगा है.

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इन गरीबों को बहका कर सत्ता पर तो कब्जा किया गया ही है, इन गरीबों को जाति, गोत्र, धर्म, गुरू के हिस्सों में बांट दिया गया है और हरेक को दूसरे का दुश्मन बना डाला गया है. रामायण के राम और रावण न कोई देशीविदेशी थे, न ङ्क्षहदू और विधर्मी. फिर भी राम को ले कर सारे देश में हो हत्या की जा सकती है और लाखोंकरोड़ों को बहकाया ही नहीं बहलाया भी जा सकता है. महाभारत के कृष्ण ने सीता का पाठ उस अर्जुन को दिया था जो अपने दादा, चचेरे भाईयों, गुरूओं, मामा, दोस्तों के साथ लडऩे को मना कर रहा था. कृष्ण ने बड़ी तरकीब से अर्जुन को मारपीट के लिए मना लिया और 17 दिन बाद सब खात्मा करा दिया, दुर्योधन को भी, अर्जुन का भी.

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गंगाजल छिडक़ना इसी तरह के लाखों कामों में से एक है. यह रावण की हत्या या गीता के पाठ की तरह है जो शिकायतकत्र्ता को कहता है कि तुम्हारी गति तो पहले से ही तय है. पुलिस स्टेशन में तो सिर्फ हवनपूजन सा बेकार का कर्म होगा, न अपराधी पकड़ा जाएगा, न हक दिलवाया जाएगा. रामायण, महाभारत, पौराणिक कहानियों की तरह असली पौबारह तो इस नौचंदी के कब्जे में भी, विश्वमियों और दुर्वासओं की होगी. भक्त तो पापी है, पापी रहेगा.

बदलते मापदंड : भाग 1

‘सोनल यूनिवर्सिटी चली गई है. अब चल कर उस का कमरा साफ करूं,’ माधुरी झुंझलाई, ‘कितनी बार कहा लाड़ली से कि या तो काम करने वाली बाई से साफ करवा लिया कर या खुद साफ कर लिया कर. मगर उस पर तो इस का कुछ असर ही नहीं होता. काम करने वाली बाई के समय उसे बाधा होने लगती है और बाद में यूनिवर्सिटी जाने की जल्दी.’

सारे काम करने के बाद माधुरी को सोनल का कमरा साफ करना बहुत अखरता था. वह सोचती कि अब सोनल कोई बच्ची तो नहीं, 20 वर्षीया युवती है, एम.एससी. फाइनल की छात्रा. परसों उस की सगाई भी हो गई है. 2 महीने बाद जब उस की परीक्षा हो जाएगी तब विवाह भी हो जाएगा, पर अब भी हर प्रकार के उत्तरदायित्व से वह कतराती है. यदि माधुरी इस संबंध में उस के पिताजी से बात करती तो वे यही कहते, ‘क्या है जी, फुजूल की बातों में उस का वक्त मत बरबाद किया करो, वह विज्ञान की छात्रा है. घरगृहस्थी का काम तो जीवनभर करना है.’ कभीकभी वह सोचती कि शायद उस के पिताजी ठीक कहते हैं. हमारे समय में क्या होता था कि जहां जरा सी लड़की बड़ी हुई नहीं कि उस को घरगृहस्थी का काम सिखाना शुरू कर दिया जाता था और फिर जीवनपर्यंत वह घरगृहस्थी पीछा नहीं छोड़ती थी.

यही सब सोचते हुए माधुरी सोनल के कमरे में आ गई. चारों तरफ कमरे में अव्यवस्था फैली हुई थी. तकिया पलंग के बीचोबीच पड़ा था और उतारे हुए कपड़े भी पलंग पर बिखरे पड़े थे. पढ़ाई की मेज पर किताबें आड़ीतिरछी पड़ी थीं. माधुरी को फिर झुंझलाहट हुई कि 2 महीने बाद इस लड़की का विवाह हो जाएगा. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता कि यदि इस लड़की का यही हाल रहा तो यह गृहस्थी कैसे संभालेगी. सारा कमरा व्यवस्थित कर माधुरी पढ़ाई की मेज के पास आ गई, ‘यह किताबों के साथ मेज में बड़े रूमाल में क्या बंधा रखा है? पत्र मालूम पड़ते हैं. इतने पत्र, शायद अपनी सहेलियों के पत्र इकट्ठे कर रखे होंगे,’ माधुरी सोचने लगी. पत्र शायद संख्या में काफी थे. तभी तो रूमाल में बड़ी मुश्किल से बंध पाए थे. वह उन्हें उठा कर किनारे रखने लगी कि तभी कागज का एक टुकड़ा नीचे गिर गया. उस ने उस टुकड़े को उठा लिया. उस में लिखा था,  ‘प्रिय सोनल, तुम्हारे पत्र तुम्हें वापस कर रहा हूं. गिन लेना, पूरे 101 हैं. तुम्हारा सुमित.’

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कागज के उस टुकड़े को पढ़ कर माधुरी को चक्कर सा आने लगा. वह अपनी उत्सुकता को नहीं रोक पाई. उस ने रूमाल खोल दिया. गुलाबी लिफाफों में सारे प्रेमपत्र थे. वह जल्दीजल्दी उन को पढ़ने लगी. फिर सिर पकड़ कर वहीं पलंग पर बैठ गई. उस की आंखों के सामने एकदम अंधेरा सा छा गया. थोड़ी देर बाद वह सामान्य हुई तो सोचने लगी,  ‘यह क्या, यह लड़की इस मार्ग पर इतनी दूर निकल गई और उसे मां हो कर आभास तक नहीं मिला. वह तो सुमित को मात्र सोनल का एक सहपाठी समझती रही. शुरू से ही वह सहशिक्षा विद्यालय में पढ़ी है. लड़कों से उस की मित्रता भी हमेशा रही है. सुमित के साथ  कुछ ज्यादा ही घुलामिला देखा सोनल को, मगर वह इस बारे में तो सोच ही न सकी. अच्छा हुआ, इस समय घर में कोई नहीं है. उस के पास 2-3 घंटे का समय है, पूरी बात सोचसमझ कर कुछ निर्णय लेने का.’

उस ने उठ कर पहले तो पत्रों को यथावत रूमाल में बांधा, फिर कुरसी पर आ कर चुपचाप बैठ गई. और फिर सोचने लगी, ‘यह लड़की इस संबंध में एक बार भी कुछ न बोली. परसों उसे देखने उस के ससुराल के लोग आए थे तो वह एकदम सहज थी. उस से मैं ने और उस के पिताजी ने इस संबंध में उस की राय भी पूछी थी तब भी उस ने शालीनता से अपनी सहमति जताई थी. ‘मगर उस ने भी तो आज से 22 वर्ष पूर्व यही किया था. प्यार किसी और से करने पर भी उस ने सोनल के पिताजी से विवाह के लिए इनकार नहीं किया था. जब वह इंटर में थी तो पड़ोस में एक नए किराएदार आ कर रहने लगे थे. उन का सुदर्शन बेटा, भैया का दोस्त और एमए का छात्र था.

‘जाड़े की कुनकुनी धूप में वह अपनी पुस्तकें ले कर ऊपर छत पर आ जाती पढ़ने को, तभी देखती कि छत की दूसरी ओर वह भी अपनी पुस्तकें ले कर आ गया है. पढ़ते समय बीच में जब भी उस की नजर उस ओर उठती एकटक उस को अपनी ओर ही देखते पाती थी. संदीप नाम था उस का. उस की नजर में जो वह अपने लिए तड़प महसूस करती थी, वह उसे अंदर तक बेचैन कर देती थी. ‘कब वह भी धीरेधीरे उस की ओर आकृष्ट हो गई, वह समझ ही न सकी थी. हालांकि दोनों में से कोई एकदूसरे से एक शब्द भी नहीं बोलता था, पर उसे हर क्षण दोपहर की प्रतीक्षा रहती थी. ‘ऐसे में ही एक दिन उस को पता चला कि उस को देखने लड़के वाले आ रहे हैं. वह जैसे आसमान से नीचे गिरी मगर कुछ कह न सकी थी और वे लोग मंगनी की रस्म पूरी कर के चले गए थे. उस के बाद से वह ऊपर छत पर जाती, पर उसे वहां दूसरी छत पर कोई दिखाई नहीं देता था. बाद में संदीप की मां ने माधुरी की मां को बताया था कि आजकल चौबीसों घंटे संदीप पढ़ाई ही करता रहता है. कहता है कि परीक्षा सिर पर है और उसे  ‘टौप’ करना है. दाढ़ी वगैरह भी नहीं बनाता. सुन कर वह कमरे में जा कर खूब रोई थी.

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‘फिर विवाह के 2-3 दिन पूर्व उस ने उसे अचानक देखा था. भाई ने शायद उस से कोई संदेश कहलवाया था, भीतर मां के पास. देख कर वह तो पहचान ही न पाई थी. आंखें धंसी हुईं, बढ़ी  हुई दाढ़ी और उतरा चेहरा जैसे महीनों से बीमार हो. मां ने तो देखते ही कहा था, ‘अरे संदीप, यह क्या हाल बना रखा है तुम ने? अरे, पढ़ाई के साथसाथ स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया करो.’ ‘सभी बता रहे थे कि उस के विवाह में उस ने दिनरात की परवा किए बिना सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ओढ़ रखी थी. फिर वह ससुराल चली आई थी. किसी चीज की कमी नहीं थी ससुराल में. पति का प्यार, रुपयापैसा सभीकुछ था मगर फिर भी कभीकभी उसे लगता कि उसे कुछ नहीं मिला. अकेले में वह अकसर रो पड़ती थी. संदीप से उस के बाद जब वह मायके जाती तो भी न मिल पाती थी. उस के पिता का स्थानांतरण हो गया था और वह होस्टल में रह कर पीएच.डी. कर रहा था. ‘बाद में सोनल और अंशुल ने आ कर उन स्मृतियों को थोड़ा धूमिल अवश्य कर दिया था. शादी के 10 वर्षों बाद अचानक, एक दिन ट्रेन में उस की मुलाकात हुई थी संदीप से. वह तो उसे देखते ही पहचान गई थी, पर संदीप को थोड़ा समय लगा था उसे पहचानने में. शायद विवाह और बच्चों ने उस में काफी परिवर्तन ला दिया था और तब पहली बार उन लोगों में बातें हुई थीं. भले ही वे औपचारिक थीं.

‘जब उस ने संदीप से विवाह और बच्चों के बारे में पूछा तो पता चला कि उस ने अभी तक विवाह नहीं किया था, पति ने चुहल की थी कि कोई पसंद नहीं आई क्या? मगर संदीप ने बड़ी संजीदगी से उत्तर दिया था कि नहीं, एक पसंद तो आई थी मगर मेरे पसंद जाहिर करने से पहले ही उस ने दूसरे के साथ घर बसा लिया था. उस ने चौंक कर संदीप की आंखों में झांका था, जहां उसे अथाह वेदना लहराती नजर आई थी. वह फिर काफी दिनों तक बेचैन रही थी और अपने को अपराधिन अनुभव करती रही थी. ‘मगर उस का समय तो दूसरा था. प्रेम की बात को जबान पर लाने के लिए बड़ा साहस चाहिए था परंतु सोनल तो खुली हुई थी, वह तो उसे बता सकती थी कि हो सकता है उस ने सोचा हो कि हम लोग अंतर्जातीय विवाह नहीं करेंगे क्योंकि सुमित दूसरी जाति का था. मगर एक बार वह कह कर देखती. लगता है उस ने अपने मातापिता का दिल नहीं तोड़ना चाहा होगा.

5 राज्य चुनाव: राम, वाम या काम

5 राज्यों के विधानसभा चुनावों का रोमांच चरम पर है. भाजपा धार्मिक शोरशराबे के जरिए चुनावी नैया पार लगाने की कोशिश कर रही है जो पश्चिम बंगाल में सिमट कर रह गया है, जहां लड़ाई ममता बनाम मोदी की हो कर रह गई है. बाकी राज्यों मे क्षेत्रीय दलों का दबदबा है. कांग्रेस अपने मुनाफे के लिए जोड़तोड़ में लगी है. देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता किसे चुनता है.

हम बंगाल में तुष्टिकरण खत्म करेंगे ताकि लोग सरस्वती पूजा- रामनवमी मना पाएं. बंगाल की हालत बदतर कर दी गई है. जय श्रीराम का नारा लगता है तो दीदी बोलती हैं कि उन का अपमान करते हैं. -अमित शाह, गृहमंत्री, दक्षिण परगना के काकद्वीप में 18 फरवरी, 2021

बंगाल में तुष्टिकरण की राजनीति हो रही है. यही राजनीति बंगाल में लोगों को मां दुर्गा की पूजा से रोकती है, उन के विसर्जन से रोकती है.  -नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री, हुगली में 22 फरवरी, 2021

बंगाल के अंदर जय श्रीराम के नारे को प्रतिबंधित करने का काम किया जा रहा है. लेकिन याद रखें, भारत की जनता राम के बगैर कोई काम नहीं करती. जो रामद्रोही हैं उन का भारत और बंगाल में कोई काम नहीं. बंगाल के अंदर छल, छद्म और धोखे से लव जिहाद की घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है. हम लोगों ने यूपी में कानून बना दिया. लेकिन बंगाल के अंदर चूंकि तुष्टिकरण की राजनीति है इसलिए न तो गौ तस्करी को यहां की सरकार रोक पा रही है और न ही लव जिहाद की उन घातक गतिविधियों को जिन का दुष्परिणाम आने वाले समय में बहुत खतरनाक होने वाला है. –योगी आदित्यनाथ, मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश, मालदा रैली में 2 मार्च, 2021

अगर ममता बनर्जी जीतती हैं तो हिंदू सुरक्षित नहीं रहेगा. उसे दबाया जाएगा. ममता बनर्जी अब क्यों चिंतित हैं, अपने हिंदू सरनेम को बारबार क्यों बता रही हैं और कल उन्होंने चंडीपाठ क्यों किया? ममता ने जानकीनाथ मंदिर में श्रीराम की प्रार्थना चप्पल पहने हुए की थी. -शुभेंदु अधिकारी, भाजपा उम्मीदवार, नंदीग्राम, 10 मार्च, 2021

दक्षिणी राज्यों के दौरे पर गए गृहमंत्री अमित शाह तिरुअनंतपुरम में 29 मठोंमंदिरों के साधुसंतों से मिले, वहां के 51 फीसदी हिंदू वोटरों को साधने की कोशिश की.
– एक समाचार – तिरुअनंतपुरम 7 मार्च, 2021

इस बार असम विधानसभा चुनाव में मोदी लहर नहीं है. मुझे निशाने पर ले कर भाजपा मुसलमानों को दुश्मनों की तरह पेश कर हिंदू मतों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रही है. लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी को इस में कामयाबी नहीं मिलेगी.- बदरुद्दीन अजमल, अध्यक्ष, एआईयूडीएफ, एक इंटरव्यू में 14 मार्च, 2021

ममता दीदी ने बंगाल को हिंदू व मुसलिम में बांट दिया. 5 हजार से ज्यादा गांव ऐसे हैं जहां हिंदुओं का नामोनिशान नहीं है. सरस्वती पूजा और दुर्गा पूजा से उन्हें परहेज है. जब अयोध्या में भूमिपूजन हो रहा था तब बंगाल में कर्फ्यू लगा दिया गया था. बंगाल में परिवर्तन हो कर रहेगा. -शिवराज सिंह चौहान, मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश, हावड़ा साउथ की रैली में 28 फरवरी, 2021 ?

देश के 5 राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव भी चुनाव तो कम, धार्मिक इवैंट व स्टंट ज्यादा लग रहे हैं जिन में लग ऐसा भी रहा है कि मतदाता विधायक या मुख्यमंत्री नहीं चुन रहे बल्कि अपने सनातनी हिंदू होने न होने का प्रमाण दे रहे हैं. इत्तफाक से पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुदुचेरी में सनातनी हिंदू, हिंदीभाषी राज्यों की तरह संख्या में उन के बराबर नहीं हैं, इसलिए चुनाव और ज्यादा दिलचस्प हो चला है.

2 मई को आने वाले नतीजे यह नहीं बताएंगे कि कौन जीता और कौन हारा, बल्कि यह बताएंगे कि चुनावी जनगणना में तादाद किस की ज्यादा निकली और जनता ने किसे मठाधीश चुना. सीधेतौर पर कहा जाए तो यह चुनावी घमासान यह बताएगा कि राम और नई शक्ल लेते वाम में से कौन चला. पांचों राज्यों में मुसलमानों, ईसाइयों सहित दलितों व आदिवासियों के खासे वोट हैं. लड़ाई इसी बात की है कि एक यानी भाजपा की तरफ हो गए सवर्णों को अगर दलितों, आदिवासियों के 20-25 फीसदी वोट भी मिल जाएं तो भगवा गैंग का हिंदू राष्ट्र का सनातनी सपना पूरी तरह साकार हो सकता है और वर्णव्यवस्था थोपने को ले कर अभी निराशहताश होने की जरूरत नहीं. भाजपा इन राज्यों में चुनाव कम लड़ रही है, प्रयोग ज्यादा कर रही है कि वोट धर्म और राम के नाम पर क्यों नहीं डलवाया जा सकता. जीतहार इन राज्यों में उस के लिए खास माने नहीं रखती, माने रखती है तो यह बात कि लोग जब वोट डालें तो उन के जेहन में लोकतंत्र कम धर्मतंत्र ज्यादा होना चाहिए.

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बात कम दिलचस्प नहीं है कि भाजपा चाहती यह भी है कि उसे वोट न देने वाले भी अपनेआप में यह समझ लें कि वे किस वजह से उसे वोट नहीं दे रहे. अगर कोई धर्म, समुदाय या जाति हिंदू राष्ट्र के उस के एजेंडे से सहमत नहीं तो यह भाजपा और उसे हांकने वालों, खासतौर से आरएसएस के लिए ज्यादा सिरदर्दी या चिंता की बात नहीं है जो आजादी मिलने के पहले से ही लोगों को सहमत करने के अभियान में जुटे हैं. उन्हें 2 मई, 2021 को एक आंकड़ा भर चाहिए कि अभी कितने और लोगों को सहमत करने के लिए प्रपंच रचे जाने हैं जिस से भविष्य की कार्ययोजना बना कर अखाड़ों में हिंदूवादी, गमछाधारी पट्ठों की भरती के लिए वैकेंसियां निकाल कर बेरोजगार हिंदू युवाओं को रोजगार पर लगाया जा सके.

यह प्रयोग या सिलसिला नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद 2014 से ही चल रहा है जिस में हिंदीभाषी राज्यों में भगवा गैंग का मकसद लगभग पूरा हो चुका है. अब बारी उन
5 राज्यों की है जहां ‘धर्म’ की ‘विधिवत’ स्थापना नहीं हुई है. मकसद पूरी तरह यह नहीं है कि इन राज्यों में हिंदूमुसलमान या हिंदूईसाई ही हों, बल्कि यह है कि इन में हिंदू पहले हिंदू तो हो जिस से अपने जैसे या अपने वाले हिंदुओं की छंटनी की जा सके.

कुरुक्षेत्र बना बंगाल
कभी पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए सपना हुआ करता था लेकिन यह सालों की कोशिशों की देन है कि अब वहां की हकीकत यह है कि वह दूसरे नंबर पर लड़ाई के पहले ही मान ली गई है. मीडिया अपनी ड्यूटी शिद्दत से बजाते हल्ला मचा रहा है. ड्यूटी का मतलब यह है कि कैमरों और कलमों का फोकस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ व भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा जैसे दर्जनभर दिग्गजों और गला फाड़फाड़ कर जय श्रीराम के नारे लगा रही प्रायोजित भीड़ पर रहे.

नजर टीएमसी की मुखिया और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चक्रव्यूह में फंसे अभिमन्यु की तरह है. जो भाजपाई दिग्गजों से अकेले जूझ रही हैं. उन का साथ छोड़ कर जाने वालों का भगवा खेमा वैसे ही स्वागत करता है जैसे विभीषण, सुग्रीव और अंगद वगैरह का राम दल करता था क्योंकि जीत के असल किरदार तो यही भेदिए होते हैं.

नई बात बंगाल से यह सामने आ रही है कि असली हिंदू कैसा होना चाहिए. भगवा गैंग तिलकधारियों, जनेऊधारियों और भगवा गमछे वालों को ही असली हिंदू मानता है जो इन धार्मिक चिह्नों को धारण न करे उसे झट से काफिर करार दे दिया जाता है, जैसे ममता बनर्जी को ले कर कोशिश की गई.
हिंदू कार्ड पर बवंडर बीती 9 व 10 मार्च को ममता बनर्जी जब नंदीग्राम, जहां से वे चुनाव लड़ रही हैं, पहुंचीं और एकाएक ही यह बोलीं कि ‘मेरे साथ हिंदू कार्ड मत खेलो, मैं भी हिंदू हूं और घर से चंडीपाठ कर के निकलती हूं.’ खुद को हिंदू जताने के लिए उन्होंने मंच से दुर्गामंत्र का भी पाठ कर डाला और शिव मंदिर जा कर पूजाअर्चना भी की. यह उन की गलती है क्योंकि फिलहाल हिंदू होने का सर्टिफिकेट केवल राष्ट्रीय स्यवंसेवक संघ के मारफत मिल सकता है. बंगाल में अपना नया हिंदुत्व गढ़ कर ममता ने भाजपा को दिक्कत में डालने में तो कामयाबी पा ली है.

जहर से जहर काटने का यह टोटका भगवा खेमे में खलबली मचाने के लिए काफी था. भाजपा ने ट्वीट के जरिए बारबार कहा कि ममता बनर्जी को हिंदू होने का ढोंग नहीं करना चाहिए. एक तरह से भाजपा ने ममता को पापिन कह कर अपने स्त्रीविरोधी संस्कार ही उजागर कर दिए जो यह निर्देश देते हैं कि औरत पांव की जूती, दासी, पशुवत और शूद्रतुल्य है. उसे धर्मकर्म करने का अधिकार नहीं. एक वीडियो शेयर तक किया गया और टीएमसी छोड़ कर भाजपा में गए हिंदुत्व के नए ठेकेदार शुभेंदु अधिकारी, जो नंदीग्राम सीट पर ममता बनर्जी के सामने लड़ने की रस्म सी निभा रहे हैं, ने एक कदम आगे बढ़ते कहा कि, ‘ममता ने गलत मंत्रोच्चारण कर बंगाल की संस्कृति का बारबार अपमान किया है. इस से पहले उन्होंने कई बार भगवान राम का अपमान किया है. जो बंगाल का अपमान करते हैं उन को बंगाल की जनता नहीं चाहती है.’

भाजपा ममता बनर्जी के पूजापाठ और मंदिर जाने के टोटके से बौखलाई इसलिए कि दिल्ली चुनाव के वक्त अरविंद केजरीवाल भी हनुमान मंदिर जा कर माथा टेकने को मजबूर हो गए थे और जनता ने उन की इस पाखंडी अदा को हाथोंहाथ लिया था यानी लोग खुद धार्मिक पाखंडों के आदी हैं और तरक्की नहीं चाहते हैं. भाजपा के लिए तो यह वरदान है ही लेकिन ममता और अरविंद केजरीवाल जैसे जुझारू नेताओं का भी उन के आगे सिर झुका देना दयनीय और चिंता की बात है. पश्चिम बंगाल के लोगों की भी धार्मिक भावनाएं ममता के धार्मिक पाखंडों के चलते उम्मीद के मुताबिक नहीं भड़कीं क्योंकि देवीदेवताओं के नाम पर वहां विष्णु और उस के अवतार राम, कृष्ण कम बल्कि दुर्गा और काली इफरात से पूजी जाती हैं.
दीदी के नाम से जानी जाने वाली ममता को बंगाल का बड़ा गरीब तबका और महिलाएं किसी देवी से कम नहीं मानते. ऐसे में वहां राम का नाम सत्ता दिला पाएगा, इस में शक है. धार्मिक होहल्ले की आड़ में भाजपा एक हद तक मोदी व उन की सरकार की नाकामियों पर, झीना ही सही, परदा डालने की कोशिश करती नजर आई. उस की केंद्र सरकार के कामकाज तो दीगर हो गए.

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दिलचस्प हैं आंकड़े
बंगाल के इतिहास में दिलचस्पी न रखने वाले भी मौटेतौर पर यह जानतेसमझते हैं कि कभी वहां सवर्णों, सामंतों और जमींदारों का राज था जिस में गरीब, दलितों पर बेतहाशा जुल्म बिना किसी लिहाज के ढाए जाते थे. पहले कांग्रेस के साथ ऊंची जातियों के लोगों ने और फिर वामपंथियों ने दलित आदिवासी व मुसलमानों के सहारे सत्ता हथियाए रखी. पर 2011 आतेआते लोगों को समझ आया कि कांग्रेस हो या कम्युनिस्ट पार्टियां, इन पर कब्जा तो उन्हीं ऊंची जाति वालों का है जो शासक और शोषक हैं. लिहाजा, क्यों न नई विचारधारा वाली ऊर्जावान ममता बनर्जी को मौका दिया जाए.

2011 विधानसभा के नतीजे हैरान कर देने वाले इस लिहाज से थे कि वामपंथी दबदबा एक झटके में वोटरों ने तोड़ दिया था और कांग्रेस-टीएमसी के गठबंधन को 226 सीटें मिली थीं जिन में से 184 उस के खाते में गई थीं. मौका भुनाते ममता बनर्जी ने वाकई में गरीब, दलितों के हित में काम किए जिस से उन की स्वीकार्यता और लोकप्रियता बढ़ती गई.

2014 के लोकसभा चुनाव में जब पूरे देश में मोदी लहर चल रही थी तब बंगाल इस से अछूता रहा था. इस चुनाव में भाजपा को 2 लोकसभा सीटें मिली थीं तब टीएमसी को 34 सीटें मिली थीं. भाजपा की उम्मीदों को झटका 2016 के विधानसभा चुनाव में लगा था. तब वह केवल 3 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. उलट इस के, टीएमसी 211 सीटें और अव्वल रही थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का असर पश्चिम बंगाल में देखने को मिला था जब भाजपा 42 में से न केवल 18 सीटें जीत ले गई थी बल्कि उस ने 121 विधानसभा सीटों पर बढ़त भी ले ली थी. टीएमसी को 22 सीटें 43.4 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं और वह फिर भी 164 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी. उस चुनाव में माकपा को सीट एक भी नहीं मिली थी.
जो सियासी पंडित 2019 के लोकसभा नतीजों को आधार मान कर कुंडली बांच रहे हैं उन्हें इस राज्य के पिछले नतीजों से ही सबक लेना चाहिए कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों में भारी अंतर होता है और यह कतई जरूरी नहीं कि किसी भी पार्टी की पिछली बढ़त कायम रहे. अगर ऐसा होता तो 2014 के लोकसभा चुनाव में 28 विधानसभा सीटों पर आगे रही भाजपा 2016 में 3 पर नहीं सिकुड़ कर रह जाती.
हिंदीभाषी राज्यों में भी यह उतारचढ़ाव देखने को मिलता है जिसे सरलता से दिल्ली से समझा जा सकता है. 2019 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी और सभी 7 सीटें ले जाने वाली भाजपा 70 में से 65 विधानसभा सीटों पर बढ़त पर रही थी लेकिन 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 8 और आप को 62 सीटें वोटरों ने दी थीं.

इस लिहाज या गणित से तो भाजपा को बहुत ज्यादा उम्मीद पश्चिम बंगाल से नहीं रखनी चाहिए क्योंकि वहां ममता उतनी ही लोकप्रिय हैं जितने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल हैं. इस की एक बानगी बीती 10 मार्च को देखने में आई थी जब नंदीग्राम से नामांकन दाखिल करने के बाद मंदिरों में दर्शन कर रहीं ममता एक धक्के या हादसे में घायल हो गई थीं तब पूरा बंगाल उन की सलामती की दुआ मांगने लगा था और लोग अस्पताल की तरफ टूटे पड़ रहे थे.

आड़े आ रहे दलित, मुसलमान और महिलाएं
पश्चिम बंगाल में सभी दलों की चिंता और प्राथमिकता 30 फीसदी मुसलिम वोटर नहीं, बल्कि 70 फीसदी हिंदू वोट हैं जिन में से 17 फीसदी दलित हैं. यह हर कोई मान रहा है कि इस बार भी मुसलमान थोक में टीएमसी के पक्ष में वोट करेंगे क्योंकि देश का माहौल बेहद बिगड़ा हुआ है जिस से मुसलमान हलकान हैं और हिफाजत की गारंटी उन्हें ममता में ही दिख रही है. यानी लड़ाई 70 फीसदी विभिन्न जातियों के हिंदू वोटों की है. भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी इन का ध्रुवीकरण नहीं कर पा रही और यही उस की खीझ की असल वजह भी है कि अगर ममता बनर्जी 15-20 फीसदी हिंदू वोट भी ले गईं तो अब तक की सारी कवायद मिट्टी में मिल जाएगी.

ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ और ठाकुर वोट उसी तरह भाजपा अपनी झोली में गिरा मान रही है जिस तरह टीएमसी मुसलिम वोटों को. ये मुश्किल से 8-10 प्रतिशत है. लेकिन 17 फीसदी दलित वोट अब दोनों को बराबरी से मिल सकते हैं. इसी तर्ज पर ओबीसी वोट भी यदि बराबरी से दोनों को मिले तो बाजी फिर ममता मार ले जाएंगी, जो चिलचिलाती गरमी में भाजपा दिग्गजों से कहीं ज्यादा पसीना बहा रही हैं. मुसलिम वोट सीधेसीधे कोई 100 सीटों पर असर डालते हैं लेकिन सवर्ण वोट केवल 25-30 सीटों को ही सीधेतौर पर प्रभावित करते हैं. टीएमसी ने इस बार 42 मुसलिम और 79 दलित उम्मीदवारों पर दांव खेला है. इतना ही नहीं, रिकौर्ड 50 महिलाओं को भी उस ने मैदान में उतारा है. इस समीकरण को भांपते भाजपा ने मतुआ समुदाय पर 2 साल पहले ही नजरें गड़ा दी थीं जो दलितों की कुल आबादी का आधा हैं.

पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल आ कर बसा तकरीबन सवा करोड़ की आबादी वाला मतुआ समुदाय अभी तक ममता बनर्जी को समर्थन और वोट देता आया था जिस की बड़ी वजह मतुआ माता कही जाने वाली बीनापाणि देवी हैं जिन्होंने साल 2011 में टीएमसी को सत्ता दिलाने में अहम रोल निभाया था. इस से एक साल पहले ममता को मतुआ समुदाय का संरक्षक बनाया गया था. बात तब बिगड़ी जब 2019 के लोकसभा चुनावप्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस समुदाय के मठ में जा कर बोरो मां के आगे अपना माथा टेका था. मार्च 2019 में बीनापाणि की मौत के बाद उन के छोटे बेटे मंजुलकृष्ण ठाकुर ने भाजपा का दामन थाम लिया था जिस के टिकट पर उन का बेटा शांतनु ठाकुर बनगांव सीट से चुन कर दिल्ली पहुंचा.

राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते देखते ही देखते मतुआ समुदाय दोफाड़ हो गया.
दरअसल, खुद को वैष्णव हिंदू मानने वाला मतुआ समुदाय एक अजीब से द्वंद्व से भाजपा और टीएमसी के बीच पिस रहा है. भाजपा की मनुवादी मानसिकता से वह वाकिफ है कि यह पार्टी उन्हें भी नागरिकता का दाना डालते ऊंचनीच व भेदभाव के मकड़जाल में फंसा रही है लेकिन इस समुदाय के अधिकतर लोगों के सामने नागरिकता का संकट मुंहबाए खड़ा है जिसे दूर करने भाजपा का सीएए-एनआरसी का यह प्रावधान उसे लुभा रहा है कि मुसलिमों को छोड़ कर बाकियों को नागरिकता दी जाएगी.
दरअसल भाजपा यह कानून ही इस समुदाय को अपने पाले में करने को लाई थी. तमाम छोटेबड़े भाजपा नेता आएदिन इस बात का जिक्र भी किया करते हैं. तय है कि मतुआ समुदाय के वोट 2 हिस्सों में बंटने जा रहे हैं जिस का थोड़ा नुकसान टीएमसी को होगा.

मुसलिम वोट बंटने की चर्चा भी पश्चिम बंगाल में है लेकिन उस से भाजपा को कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा. बिहार में उलटफेर करने यानी भाजपा को फायदा पहुंचाने के बाद एआईएमआईएम के मुखिया असद्दुदीन ओवैसी के बंगाल चुनाव में कूदने से भी समीकरण गड़बड़ाते दिखे थे लेकिन औवैसी ने यहां से कदम धीरेधीरे वापस खींचने शुरू कर दिए हैं.शायद उन्हें समझ आ रहा है कि बंगाल का मुसलमान उन्हें बिहार जैसा भाव नहीं देगा क्योंकि ममता को ही चुनना उस की मजबूरी हो गई है और उन की पार्टी कोई गुल नहीं खिला पाएगी. उलटे, उस पर वोट कटवा होने का ठप्पा लग कर रह जाएगा. वैसे भी एआईएमआईएम का बंगाल में कोई वजूद व मजबूती तो दूर की बात है, कहने को भी संगठन नहीं है. ऐसे में वह कुछ खास कर पाएगी, ऐसा लग नहीं रहा.

ओवैसी की बेरुखी की एक बड़ी वजह एक नवजात मुसलिम नेता फुरफुरा शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी भी हैं जिन की आईएसएफ यानी इंडियन सैक्युलर फ्रंट, कांग्रेस और लेफ्ट के साथ मिल कर चुनाव लड़ रही है.यह गठबंधन भी बेअसर अभी से दिख रहा है क्योंकि राम की आमद के साथ ही वाम विदा हो गया है और कांग्रेस बेमन से मैदान में है. मुमकिन है यह उस की भाजपा को पटखनी देने की रणनीति का हिस्सा हो कि ममता और मोदी को सीधे टकराने दिया जाए. इस के बाद भी वह त्रिकोणीय मुकाबले में दहाई अंकों में सीटें ले जाने की स्थिति में है. इस तीसरे मोरचे में सीटों के बंटवारे में कांग्रेस को 92, सीपीएम को 130 और आईएसएफ को 37 सीटें मिली हैं.

इस के बाद भी मुकाबला कड़ा और दिलचस्प है, क्योंकि किसान नेता राकेश टिकैत किसानों से भाजपा को वोट न देने की अपील कर रहे हैं और झारखंड मुक्ति मोरचा में भी टीएमसी को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है. भाजपा का होहल्ला शहरों और सवर्णों में ही ज्यादा है जबकि टीएमसी की पहुंच गांवदेहातों तक है.
49 फीसदी महिला मतदाताओं का झुकाव भी ममता की तरफ ज्यादा है क्योंकि गरीब परिवार की ममता बनर्जी ने उन के लिए काम भी खूब किए हैं. लड़कियों की शिक्षा और आत्मनिर्भरता के लिए उन की योजनाएं काफी सफल रहीं हैं जिन में ‘कन्याश्री’ और ‘सौबुज साथी’ प्रमुख हैं जिन के तहत 9वीं से ले कर 12वीं क्लास तक के छात्रछात्राओं को मुफ्त साइकिलें दी गई हैं. इन युवाओं और महिलाओं को ‘सोनार बांग्ला’ के तात्कालिक नारे व हिंदू राष्ट्र से कोई लेनादेना नहीं है. अब यह देखना वाकई दिलचस्प होगा कि जनता किसे चुनती है- राम को जो सिर्फ ऊंची जाति वालों के लिए हैं या नए तरीके से आकार लेते वाम को जिस में सभी के लिए बराबरी, जगह और सम्मान है.

बात या मुद्दा सिर्फ राम न रहे, इस बाबत नरेंद्र मोदी यदाकदा बंगाल में भी परिवर्तन और विकास की गंगा बहाने की भी बात कर देते हैं लेकिन यह नहीं बता पाते कि भाजपा शासित राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तराखंड में कौन सा स्वर्ग भाजपा ने बसा दिया है. ममता बनर्जी के इस आरोप पर भी भाजपा बगलें झांकती नजर आती है कि इन राज्यों में तो कानून व्यवस्था बद से बदतर है. ममता का यह जवाबी हमला भी भाजपा को सकते में डाल देता है कि परिवर्तन अब बंगाल में नहीं, बल्कि दिल्ली में होगा.

पश्चिम बंगाल में भी फिल्मी सितारों की चुनावी पूछपरख जम कर हो रही है. भाजपा ने 80-90 के दशक के सुपरस्टार मिथुन चक्रवर्ती को ले कर वोटरों को रिझाने की कोशिश की है जिन्हें ममता बनर्जी ने 2016 में टीएमसी से राज्यसभा में भेजा था लेकिन शारदा चिटफंड घोटाले में नाम आने पर खराब सेहत का हवाला देते उन्होंने इस्तीफा दे दिया था. भाजपा में जाते ही जोशजोश में फिल्मी अंदाज में डायलौग बोलते खुद को उन्होंने कोबरा सांप बता डाला जिस पर किसी ने कोई नोटिस नहीं लिया यानी अब वोट स्टारडम पर नहीं, बल्कि जमीनी कामों पर गिरना तय है.

मिथुन अब बूढ़े भी हो चले हैं और बंगाल की नई पीढ़ी उन्हें आदर्श नहीं मानती है. अपने कैरियर की शुरुआत में मिथुन पर नक्सली और वामपंथी होने का आरोप लगा था पर वे अब राम नाम भजने लगे हैं. जाहिर है यह सब चुनाव तक है. इस की एक मिसाल अभिनेत्री मौसमी चटर्जी हैं जिन्हें बड़े जोरशोर से भाजपा ने जनवरी 2019 में गले लगाया था लेकिन इस चुनाव में उन्हें भाव नहीं दे रही. ये वही मौसमी हैं जो साल 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के टिकट से लड़ कर ममता बनर्जी से हारी थीं. क्रिकेटर सौरभ गांगुली पर भी भाजपा ने डोरे अमित शाह के जरिए डाले थे लेकिन दादा नाम से मशहूर सौरभ दीदी के सामने आने से कतरा रहे हैं जो भाजपा के जीत के दावों पर शक गहराते हैं.

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तमिलनाडु

पश्चिम बंगाल के मुकाबले तमिलनाडु में राहत देने वाली इकलौती बात धार्मिक होहल्ले का न होना है. लेकिन हमेशा की तरह जातिगत समीकरण हावी हैं. यहां सीधा मुकाबला सत्तारूढ़ एआईएडीएमके और डीएमके के बीच है. दोनों राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस गठबंधन के तहत क्रमश 20 और 25 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. जाहिर है उन की कोई खास पहुंच और पूछपरख तमिलनाडु में नहीं है. 5 दिसंबर, 2016 को जयललिता की मौत के बाद से ही एआईएडीएमके तमाम दुश्वारियों से लगातार जूझ रही है और राज्य में सत्ताविरोधी लहर भी है. मुख्यमंत्री के पलानीस्वामी जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए हैं. पार्टी के अंदर जबरदस्त अंतर्कलह भी है.

डीएमके मुखिया एम के स्टालिन अपने पिता करुणानिधि की विरासत तले मैदान में हैं. सत्ता वापसी को ले कर छटपटा रहे स्टालिन का आत्मविश्वास इसी बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने कांग्रेस को 2016 से कम सीटें अपनी शर्तों पर दीं जिन्हें स्वीकारना कांग्रेस की मजबूरी हो गई थी.
जयललिता और करुणानिधि दोनों की गैरमौजूदगी में यह पहला विधानसभा चुनाव है जिसे फिल्म अभिनेता कमल हासन अपनी नईनवेली पार्टी एमएनएम (मक्कल निधि मलयम) के जरिए त्रिकोणीय बनाने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं. एक और अभिनेता रजनीकांत ने भी पार्टी बना कर राजनीति में कूदने की बात कही थी लेकिन खराब सेहत का हवाला देते उन्होंने अपना इरादा त्याग दिया जिस का फायदा कमल हासन को मिल सकता है.

कमल हासन मूलरूप से भाजपा और उस की नीतियोंरीतियों के घोर विरोधी हैं और उन का सारा फोकस गरीब दलितों पर है. नए महंगे संसद भवन को ले कर उन्होंने मोदी सरकार पर यह कहते निशाना साधा था कि ‘जब देश के आधे लोग भूखे सोते हैं तो इतने खर्चीले संसद भवन की तुक क्या थी?’ अभी तक उन की इमेज साफसुथरी है और उन्हें दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का भी साथ मिला हुआ है. तय है केजरीवाल एमएनएम के लिए चुनावप्रचार करने जाएंगे.

लेकिन मुख्य मुकाबला एआईएडीएमके और डीएमके के बीच ही है. 2016 के विधानसभा चुनाव में जयललिता के नेतृत्व में एआईएडीएमके ने 136 सीटें जीती थीं तब डीएमके को 89 सीटें मिली थीं.
कांग्रेस गठबंधन के तहत 40 सीटों पर मैदान में थी जिसे 8 पर जीत मिली थी लेकिन पूरी 234 सीटों पर लड़ी भाजपा को यहां कुछ भी नहीं मिला था. इस के पहले 2014 का लोकसभा का चुनाव उस ने एआईएडीएमके के साथ मिल कर लड़ा था और एक सीट जीत ली थी. इस चुनाव में एआईएडीएमके ने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 37 लोकसभा सीटें जीत कर डीएमके और कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था. ये दोनों पार्टियां एक भी सीट नहीं जीत पाई थीं.

लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में हैरतअंगेज तरीके से तसवीर उलट गई थी. एआईएडीएमके को महज एक सीट नसीब हुई थी और 5 सीटों पर लड़ी भाजपा सब से ज्यादा दुर्गति की शिकार हुई थी. डीएमके को 24 सीटें और उस की सहयोगी कांग्रेस को 8 सीटें मिली थीं. वामदल भी सभी को चौंकाते हुए
4 सीटें ले गए थे. यहां के लोग धर्म की राजीनीति के झांसे में नहीं आते. लेकिन जातियों का मकड़जाल यहां कम पेचीदा नहीं. कहा और माना यह जाता है कि 10 फीसदी आबादी वाला अति पिछड़ा वन्नियार समुदाय जिस तरफ झुक जाता है उस पार्टी को सत्ता मिल जाती है. वन्नियार समुदाय का कोई 25 सीटों पर सीधा प्रभाव है जिसे भुनाने के लिए एआईएडीएमके सरकार शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 10.5 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर चुकी है. एस रामदास इस समुदाय के प्रमुख नेता हैं जिन की पार्टी पीएमके, एआईएडीएमके के साथ गठबंधन कर चुकी है और उसे 23 सीटें मिली हैं. एआईएडीएमके के कम होते प्रभाव, भाजपा का साथ और हार की आशंका के चलते वन्नियार समुदाय एकमुश्त वोट उसे देगा, इस में हर किसी को शक है.

कभी जयललिता का राइट हैंड रहीं शशिकला भी इसी समुदाय से हैं जो भ्रष्टाचार के एक मामले में 4 वर्षों बाद जेल से रिहा हो कर आईं तो उन के तेवर बदले हुए थे और उन्होंने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत भी दिए थे लेकिन फिर एकाएक ही राजनीति से संन्यास की घोषणा कर सब को चौंका दिया. अब अंदाजा यह लगाया जा रहा है कि वे पलानीस्वामी को सत्ता में आने से रोकेंगी और आगे के लिए अपनी भूमिका तय करेंगी. वे भी भाजपा के साथ तोड़फोड़ में पौराणिक कहानियों के किस्सों के देवताओं से सीखसीख कर माहिर हो चुकी हैं. दूसरा असरदार समुदाय गौंडर भी एआईएडीएमके से किनारा करता नजर आ रहा है जो पश्चिमी तमिलनाडु की 74 में से 54 सीटों पर निर्णायक है. पलानीस्वामी जयललिता के बाद इस समुदाय को साध कर रखने में नाकाम रहे हैं जिस का फायदा डीएमके को मिलना तय दिख रहा है. महंगाई तमिलनाडु का मुख्य चुनावी मुद्दा हो सकता है जिस की जिम्मेदार जनता मोदी सरकार को मानती है. इस से भी एआईएडीएमके को नुकसान हो रहा है. एआईएडीएमके व भाजपा को तगड़ा झटका अभिनेता विजयकांत ने भी दिया है जो अपनी पार्टी डीएमडीके को सम्मानजनक सीटें न मिलने पर एआईएडीएमके से अलग हो गए हैं.

भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा और दिलचस्प मुकाबला कन्याकुमारी लोकसभा सीट के उपचुनाव में है जो कांग्रेस के एच वसंत कुमार के निधन से खाली हुई है. भाजपा ने यहां से पूर्व केंद्रीय मंत्री पौन राधाकृष्णन को उतारा है जो 2019 में वसंत कुमार के हाथों 3 लाख से भी ज्यादा वोटों से हारे थे. इस बड़े अंतर को पाटना भाजपा के लिए आसान नहीं है.

केरल
देश के दक्षिणी छोर पर बसे केरल में इस बार भी सीधा मुकाबला यूडीएफ (यूनाइटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट) और एलडीएफ (लैफ्ट डैमोक्रेटिक फ्रंट) के बीच है. यहां की राजनीति राष्ट्रीय राजनीति से भिन्न रहती है. वामपंथियों के इस गढ़ में भाजपा हाशिए पर शुरू से ही रही है क्योंकि ईसाई और मुसलिम बाहुल्य केरल में भी सनातनी हिंदुओं की संख्या न के बराबर है. केरल के बारे में दिलचस्प बात यह है कि यहां वोटर हर चुनाव में सरकार बदल देते हैं. यह ट्रैंड बरकरार रहा तो एलडीएफ की विदाई हो सकती है.

साल 2016 के विधानसभा चुनाव में एलडीएफ ने 91 सीटें ले जा कर यूडीएफ को पटखनी देते सत्ता हथिया ली थी. तब सीपीआईएम को 59 सीटें और सीपीआई को 16 सीटें मिली थीं. यूडीएफ को 47 सीटें मिली थीं. उस के प्रमुख घटक दल कांग्रेस ने 22 सीटें जीती थीं और इंडियन मुसलिम लीग को 18 सीटें मिली थीं. केरल कांग्रेस 6 सीटें ले गई थी. भाजपा का प्रदर्शन बेहद दयनीय था जो 98 सीटों पर लड़ कर महज एक सीट ले जा पाई थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में तसवीर पूरी तरह उलट गई थी. यूडीएफ को 20 में से 19 सीटें दे कर वोटर ने मोदी लहर को नकार दिया था. कांग्रेस ने 15 सीटें जीती थीं और उसे 96 विधानसभा सीटों पर बढ़त मिली थी. राहुल गांधी के वायनाड सीट से लड़ने का जबरदस्त फायदा कांग्रेस को मिला था. इंडियन मुसलिम लीग को 2 सीटें मिली थीं और वह 14 विधानसभा क्षेत्रों में आगे रही थी. एलडीएफ के खाते में महज एक सीट आई थी. भाजपा खाता भी नहीं खोल पाई थी.

खुद को नास्तिक कहने वाले मुख्यमंत्री पी विजयन इस बार फूंकफूंक कर कदम रख रहे हैं. अपनी पार्टी के कमजोर प्रदर्शन वाले 33 विधायकों के टिकट काट कर उन्होंने जनता को लुभाने की कोशिश जरूर की है लेकिन इस से सत्ताविरोधी लहर थम जाएगी, इस में शक है. अलावा इस के, सोने की तस्करी के चर्चित मामले में भी वे घिरते नजर आ रहे हैं. केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह इस मामले पर उन पर हमलावर हुए तो झल्लाए विजयन ने भी पलटवार करते उन्हें सोहराबुद्दीन मामले पर घेरा और सांप्रदायिकता का मूर्तरूप करार दे दिया.

भाजपा मैट्रोमैन श्रीधरन को बतौर मुख्यमंत्री पेश करेगी या नहीं, यह सवाल अभी अधर में ही है लेकिन यह तय है कि इस से भी उसे कोई खास फायदा नहीं होने वाला क्योंकि केरल की जनता उन के भगवा रंगढंग को गले नहीं उतार पा रही है. दूसरे, श्रीधरन जानामाना नाम तो है लेकिन इतना लोकप्रिय नहीं है कि भाजपा की चुनावी नैया पार लगा पाए.आरएसएस और भाजपा पिछले 2 दशकों से धर्मांतरण को मुद्दा बनाने की कोशिश में यह प्रचार करते रहे हैं कि कभी यहां 99 फीसदी हिंदू हुआ करते थे जो अब घट कर 55 फीसदी रह गए हैं और मुसलिम व ईसाई आबादी बढ़ कर 45 फीसदी हो गई है. 99 फीसदी शिक्षित और जागरूक केरल के मतदाताओं ने कभी भाजपा की जातिगत व धार्मिक विभाजनकारी मानसिकता से सहमति नहीं जताई है.

कांग्रेस यहां भारी पड़ती दिख रही है. एलडीएफ और भाजपा की लड़ाई का फायदा भी उसे मिलेगा क्योंकि इन दोनों के हिस्से के वोट उसे मिलने की उम्मीद है. मछुआरों की हिमायत कर राहुल गांधी चुनाव के पहले ही उन्हें यूडीएफ की तरफ झुका चुके हैं. यूडीएफ के सहयोगी दल इंडियन मुसलिम लीग और केरल कांग्रेस अपनी सीटों पर मजबूत स्थिति में हैं जबकि सीपीआईएम सहित एलडीएफ के घटक दल खासतौर से सीपीआई कमजोर हो रही है.

असम
असम में भाजपा आशान्वित है हालांकि असम में सबकुछ भाजपा के हक में नहीं है लेकिन काफी हद तक बहुतकुछ उस के हक में है. लेकिन अगर सीएए कानून पर रार बढ़ी तो मुश्किलें उस के सामने मुंहबाए खड़ी होंगी. इसीलिए वह इस से कतराते विकास व अब तक किए गए कामकाज पर वोट मांग रही है. यहां भी उस ने मुख्यमंत्री का चेहरा पेश न करते नरेंद्र मोदी के सहारे लड़ना बेहतर समझा है. असम में भाजपा अंदरूनी कलह व फूट की शिकार भी दिखाई दे रही है.

यहां सीधा मुकाबला भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन और कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन के बीच है. भाजपा के साथ असम गण परिषद और यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल हैं तो कांग्रेस के साथ बोड़ोलैंड पीपल्स फ्रंट, आंचलिक गण मोर्चा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और सीपीआईएम सहित आल इंडिया डैमोक्रेटिक फ्रंट हैं.

2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 60 सीटें ले गई थी और एजीपी को 14 सीटें मिली थीं. बोड़ोलैंड पीपल्स फ्रंट को 12 सीटें मिली थीं. कांग्रेस हालांकि 26 सीटों पर सिमट कर रह गई थी लेकिन उसे वोट भाजपा से ज्यादा 30.96 फीसदी मिले थे. औल इंडिया यूनाइटेड डैमोक्रेटिक फ्रंट को
13 सीटें मिली थीं.

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 14 में से 9 सीटें जीती थी और कांग्रेस के खाते में 3 सीटें आई थीं. 2 सीटें अन्य के खाते में गई थीं. असम में भाजपा और कांग्रेस के वोट शेयर में बड़ा फर्क नहीं रहता. लेकिन सीटों की संख्या के मामले में कांग्रेस पिछड़ जाती है. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने सहयोगी दलों के साथ 6 सीटें ले गई थी जबकि भाजपा को 7 सीटें मिली थीं.

भाजपा ने मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल को बतौर सीएम आगे नहीं किया है तो यह उस की रणनीति कम मजबूरी ज्यादा लग रही है. विपक्ष के पास भी कोई दमदार चेहरा नहीं है. अगर सोनोवाल नहीं, तो मुख्यमंत्री कौन, इस सवाल पर भाजपा की खामोशी उसे महंगी भी पड़ सकती है. सीएए का विरोध कर रहे 2 छोटे दल असम जातीय परिषद और रायजोर दल कुछ सीटों पर मुकाबला त्रिकोणीय बना सकते हैं जो भाजपा के लिए ही नुकसानदेह साबित होगा. कांग्रेस भी इस कानून के विरोध में है लेकिन इस मुद्दे पर सभी दलों को एक मंच पर वह नहीं ला पाई है.

पुदुचेरी
देश की सब से छोटी विधानसभा पुदुचेरी में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के 4 विधायकों के इस्तीफे से सरकार अल्पमत में आ गई तो वहां राष्ट्रपति शासन लग गया. इन में से 2 विधायक भाजपा में चले गए थे. कांग्रेस अब यहां डैमेंज कंट्रोल में जुटी है. साल 2016 का चुनाव कांग्रेस और डीएमके ने मिल कर लड़ा था. कांग्रेस 21 सीटों पर लड़ कर 15 और डीएमके 9 सीटों पर लड़ कर 2 सीटें ले गई थी. मुख्य विपक्षी दल औल इंडिया एनआर कांग्रेस 8 सीटें ले गई थी. भाजपा की दाल पुदुचेरी में भी नहीं गली थी और वह सभी 30 सीटों पर लड़ कर अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी. कांग्रेस ने अपने दिग्गज नेता नारायण सामी, जिन्हें नरेंद्र मोदी सोनिया गांधी की चप्पलें उठाने वाला कहते ताना कसते रहते हैं, को मुख्यमंत्री बनाया था.

गठबंधन के तहत कांग्रेस इस बार 15 और डीएमके 13 सीटों पर लड़ रही हैं. 1-1 सीट वीसीके और सीपीआई को दी गई है. इस बार भी इस गठबंधन का मुकाबला औल इंडिया एनआर कांग्रेस से ही है. कांग्रेस गठबंधन के सामने कोई खास चुनौती नहीं है क्योंकि एआईएडीएमके पिछली बार सभी सीटों पर लड़ी थी लेकिन केवल 4 सीटें जीत पाई थीं.

पुदुचेरी में भी राष्ट्रीय मुद्दे हाशिए पर रहते हैं और विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार का व्यक्तित्व ज्यादा प्रभावी होता है. नारायण सामी सरकार के प्रति कोई नाराजगी यहां देखने में नहीं आ रही है.

2019 के लोकसभा चुनाव में यहां की इकलौती लोकसभा सीट कांग्रेस के वी वैथिलिंगम ने औल इंडिया एनआर कांग्रेस के डाक्टर केशवन को 2 लाख वोटों से हरा कर जीती थी. भारी मतदान पुदुचेरी की खूबी है. इस बार भी मतदान ज्यादा होने की उम्मीद से कांग्रेस व डीएमके की बांछें खिली हुई हैं. भाजपा यहां खाता खोल पाई तो यह उस के लिए उपलब्धि की बात होगी.

महंगाई अगर इन 5 राज्यों में मुद्दा बन पाया तो भाजपा और उस के सहयोगी दलों के पसीने छूट जाने हैं, क्योंकि केंद्र की भाजपा सरकार ने ऐसे कोई काम नहीं किए हैं जिन्हें गिना कर वह वोट में तब्दील कर सके. इसीलिए भाजपा की पूरी कोशिश इस पर से लोगों का ध्यान भटकाने की है. पश्चिम बंगाल में वह धार्मिक हल्ला मचा रही है तो असम में विकास का राग अलाप रही है. बाकी 3 राज्यों में उस के होने के कोई माने नहीं हैं. द्य

इन का कहना है
‘‘सरकार तो दीदी ही बनाएंगी. उन्होंने बंगाल को संवारने के लिए बहुत व बेहतरीन संघर्ष किया है और अभी कर भी रही हैं. यही नहीं, दीदी आगे भी ऐसा ही करेंगी. बंगाल को क्या चाहिए, यह बाहर का नेता नहीं जान सकता. वह नहीं समझ सकता बंगाल को. हम ममता बनर्जी को एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनना देखना चाहते हैं. हमारा पूरा परिवार तृणमूल कांग्रेस को ही वोट देगा.’’ -सैमुअल रौय (हुगली)

‘‘भाजपा का बहुत हल्ला है लेकिन इस हल्ले का यह मतलब नहीं है कि बंगाल में भाजपा की सरकार बन रही है. ममता बहुत स्ट्रौंग हैं, यहां. सरकार फिर वही बनाएंगी. ममता और मोदी के बीच मुकाबला जरूर है लेकिन जीतेंगी ममता ही.’’ -नीलाद्रीशेखर दास

‘‘तुम को अच्छा लगे या बुरा, मगर ममता हम को नहीं चाहिए. उन्होंने हमारे लिए कुछ नहीं किया. इस बार हम ममता को वोट नहीं देंगे, मोदी को देंगे. बेटा बोला है मोदी को ही वोट देने का. ममता बनर्जी ने हमारे नाम पर घर बनवाया मगर हम को घर नहीं दिया. ममता के लोग बोलते हैं कि 35 हजार रुपया लाओ तब घर मिलेगा. हम विधवा औरत कहां से इतना पैसा लाएंगी?’ –माया मंडल

‘‘हमें ‘जय श्रीराम’ से दिक्कत नहीं है लेकिन हमें क्या बोलना है, क्या नहीं, यह हम तय करेंगे, कोई दूसरा हम पर कुछ थोप नहीं सकता. हम अपने धर्म को कैसे फौलो करेंगे, यह हमारा निजी मामला है. हमें भाजपा का स्लोगन नहीं बोलना है, हम अपना स्लोगन बोलेंगे.’’ –महुआ मोइत्रा (सांसद)

‘‘पश्चिम बंगाल एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाला राज्य है. मैं इस देश के युवा होने के रूप में अधिक उद्योगों, अपनी पीढ़ी के लिए अधिक रोजगार देखना चाहती हूं और जो भी सत्ता में आना चाहता है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा होगा.’’ –परोमा भट्टाचार्य

सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ में हालात से मजबूर होकर शादी करेंगे सीरत और कार्तिक

सभी का पसंदीदा सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’  में ट्विस्ट आने वाला है. इस सीरियल के लेटेस्ट एपिसोड़ में दिखाया जाएगा कि रिया इस बात से नाराज है कि कार्तिक सीरत से शादी करने का फैसला ले लिया है.

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जबकी रिया यह कतई नहीं चाहती है कि सीरत और कार्तिक एक हो. इन दोनों को एक नहीं होने देना चाहती रिया अपनी प्लानिंग करनी शुरू कर दी है. दोनों को अलग करने कि. वहीं कार्तिक को इस बात का एहसास हो गया है कि सीरत से बेहतर उसके बच्चों के लिए कोई और मां नहीं हो सकती है.

 

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वहीं सीरत ना चाहते हुए भी कार्तिक से शादी करने के लिए तैयार हो जाएगी. दरअसल होगा कुछ ऐसा कि कार्तिक की दादी की तबीयत बिगड़ जाएगी और जब उनसे आखिरी इच्छा पूछी जाएगी तो वह कहेंगी कि कार्तिक और सीरत की शादी हो जाए. जिसके बाद कार्तिक और सीरत एक-दूसरे के साथ सात फेरे लेते नजर आएंगी.

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माउदी यानि कार्तिक की दादी इस बात से बहुत ज्यादा खुश हो जाएगी कि दोनों एक-दूसरे से शादी करके अपना परिवार बसा लेंगी. लेकिन खबर से सभी परिवार वाले खुश हो जाएंगे. वहीं सीरत के साथ कार्तिक के बच्चे भी बहुत ज्यादा कंफर्टेबल सीरत के साथ रहते हैं. अब देखना यह है कि इस सीरियल में आगे क्या ट्विस्ट आता है.

एजाज और पवित्रा की शादी को लेकर फैंस ने किया सवाल, जानें एक्ट्रेस ने क्या दिया जवाब

बिग बॉस के हर सीजन में कोई न कोई नई जोड़ी जरुर बन जाती है. इस सीजन में भी एजाज खान और पवित्रा पुनिया एक-दूसरे को दिल दे बैठे हैं. बिग  बॉस 14 के बाद से दोनों खूब ज्यादा चर्चा में बने हुए हैं. दोनों ने अपने रिश्ते को नाम दे दिया है.

अब यह इन दोनों ने सभी के सामने शादी करने का फैसला ले लिया है. इनके इस फैसले से इनके चाहने वाले काफी ज्यादा खुश हैं. हाल ही यह खबर खूब ज्यादा सुर्खि में थी कि एजाज खान और पवित्रा पुनिया इस साल दिसंबर में शादी के बंधन में बंध जाएंगे.

 

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इस खबर के आने के बाद जब पवित्रा और एजाज से अस बारे में बात किया गया तो दोनों का कहना था कि वह अभी थोड़ा रुककर शादी करेंगे. इतनी जल्दी नहीं है. फिलहाल वह दोनों अपने काम पर फोक्स कर रहे हैं.

क्योंकि शादी के बाद खर्चे बढ़ जाते हैं और हमें अपनी आर्थिक स्थिति को भी मजबूत बनाने कि जरुरत है. उसके बाद हम अपनी फैमली प्लानिंग पर फोक्स करना चाहते हैं. वहीं एक इंटरव्यू के दौरान जब एजाज खान से इस विषय पर पूछा गया तो उन्होंने बताया कि पवित्रा को सबलोग रूड़ कहते हैं लेकिन वह सबसे सॉफ्ट दिल कि है. वह सभी का खूब ख्याल भी रखती है. पवित्रा जैसी नेक लड़की मैंने आज तक नहीं देखी है.

 

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आगे उन्होंने कहा कि पवित्रा को तेज लड़की कहा जाता है लेकिन वह ऐसी बिल्कुल भी नहीं है. उसकी सोच बहुत ज्यादा अच्छी है.वह काफी नेक दिल इंसान है. वह बहुत ज्यादा केयरिंग लड़की है. उसकी समझदारी का मैं बहुत ज्यादा रिस्पेक्ट करता हू.

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हम दोनों जब भी शादी करेंगे खबर सबसे पहले आपको देंगे. पवित्रा मेरे लिए एक सही लाइफ पार्टनर है. इसलिए मैं पवित्रा के साथ ही आगे का जीवन बिताना चाहता हूं.

क्लब क्रोलिंग : भाग 3

‘मातापिता अप्रत्यक्ष रूप से गर्लफ्रैंड को घर लाने का संकेत देते रहे. परदाफाश तब हुआ जब मैं अपनी बहन के बौयफ्रैंड की ओर आकर्षित होने लगा. मेरी पीड़ा असहनीय हो चुकी थी. दर्द बढ़ता जा रहा था. मैं ने भी सोच लिया, अब जो भी पहली लड़की मेरी ओर आकर्षित होगी, मैं उसी के सामने शादी का प्रस्ताव रख दूंगा. ऐसा ही हुआ, 6 महीने पहले ऐमली उस का शिकार हुई. यों कहूं कि बलि चढ़ी. जिसे मैं ने वैवाहिक सुख से वंचित रखा. इंसान ही हूं न, गलती हो गई. और नहीं जी सकता दोहरा जीवन. दोषभावना की गुठली गले में अटकी रहती है.’

‘ऐमली जानती है क्या?’ कर्ण ने पूछा.

‘शक तो है उसे, सामना करने से डरती है.’

‘अच्छा किया तुम ने, मन का बोझ हलका कर लिया,’ तीनों ने एक स्वर में कहा.

जस्सी ने मन ही मन प्रण किया कि आगे से कभी लड़कियों जैसी हरकत नहीं करेगा. अब रौबर्ट के साथ रात बिताने की समस्या तो हल हो गई. अब जुगाड़ यह लगाना था कि कैसे ऐश का बुखार रौबर्ट के सिर से उतारा जाए.चारों ने बैठ कर रौबर्ट को पूरी तरह से धुत करने की ठान ली. जब नशे में धुत रौबर्ट को विश्वास हो गया कि आज ऐश उसी के साथ रहने वाला है, ऐश ने रौबर्ट से कपड़े बदलने को कहा. जैसे ही रौबर्ट बाथरूम में कपड़े बदलने गया तो बिस्तर पर थौमस ने ऐश का स्थान ले लिया.अब तीनों को घर पहुंचते ऐमली का सामना करना था. घर पहुंचते ही ऐमली ने पूछा, ‘थौमस कहां है?’

‘वह रौबर्ट के साथ है. सुबह आएगा,’ तीनों ने दबे स्वर में कहा.

ऐमली मन ही मन बड़बड़ाई, ‘आई न्यू इट, आई न्यू इट.’

सुबह होने को आई थी, तीनों अपनेअपने घर चले गए. ऐमली की रात भारी गुजरी. सुबह थौमस के घर पहुंचने से पहले ऐमली काम पर जा चुकी थी. घर की दिनचर्या सामान्य रूप से चलती रही. ऐमली के व्यवहार में कोई परिवर्तन न पा कर थौमस थोड़ा चिंतित हुआ. एक सप्ताह बाद नाश्ते की मेज पर थौमस के लिए एक पत्र पड़ा था.

‘स्नेही थौमस,

मैं तुम्हारा दर्द समझती हूं. आज मैं तुम्हें अनचाहे बंधन में बंधे शादीरूपी पिंजरे से आजाद करती हूं. मैं चाहती हूं कि आप अपने जीवन की वास्तविकता से आगे बढ़ें तथा खुश रहें.

शुभकामनाओं सहित
तुम्हारी दोस्त-ऐमली.’

थौमस ने भारमुक्त हो, राहत की सांस ली और अपना सामान बांधना शुरू कर दिया. आज थौमस खुश है. काफी वक्त बाद चारों दोस्तों ने आज फिर मिलने का प्रोग्राम बनाया है. आज क्या सरप्राइज देना चाहते हैं. बस पिछली बार की तरह चौंका देने का सरप्राइज न मिले. अच्छा सोचते हुए ऐश के कदम सिंफनी हाल की ओर उठ गए.

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