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Indian Idol 12 : मेकर्स से नाराज हुए फैंस , कहा जल्द बंद करो शो

इंडियन आइडल का 12वां सीजन पिछले साल नवंबर में शुरू हुआ था और अब तक इसका फिनाले नहीं हो पाया है और ना ही कोई उम्मीद नजर आ रही है. जिसे लेकर इस शो को देखने वाले फैंस ने सवाल खड़े किए हैं. आइए जानते हैं फैंस ने इस शो के लिए क्या कहा है.

इसके साथ ही शो से कोई भी सिंगर बाहर नहीं हुआ है. अब यही बात फैंस को अखर रही है. कि अब और कितना इस शो को इसके मेकर्स खीचेंगे. मेकर्स का कहना है कि इससे पहले वाला इंडियन आइडल 11 ,4 महीने में ही आखिरी पड़ाव पर आ गया था लेकिन यह शो तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा है.

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सोशल मीडिया पर लोग काफी ज्यादा परेशान होकर इस शो के खिलाफ लिख रहे हैं और बोल रहे हैं. इसके साथ ही इस शो के कुछ सिंगर्स हैं जिन्हें मेकर्स बिल्कुल भी पसंद नहीं करते हैं.

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फैंस शो के कंटेस्टेंट शऩमुख प्रिया और मोहम्मद दानिश को शो से बाहर करने कि मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि वह हर गाने को एक ही जॉनर में गाते हैं. इसके साथ ही लोगों का कहना है कि वह गाते कम हैं और एक्टिंग ज्यादा करते हैं.

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हर कोई सोशल मीडिया पर एक ही सवाल कर रहा है कि इस शो का फिनाले कब तक होगा, होगा भी या नहीं मेकर्स कि इन हरकतों से सभी लोग परेसान हो गए हैं.

आक्सीजन पर आत्मनिर्भर बनेगा उत्तर प्रदेश

सहारनपुर . नोएडा, मेरठ, गाजियाबाद और मुजफ्फरनगर के मैराथन दौरे के बाद सहारनपुर पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिले में 11 नए आक्सीजन प्लांट लगाने का काम किया जाएगा.

उन्होंने कहा कि हर जनपद में गन्ना विभाग से आक्सीजन जनरेटर प्लांट लगाये जायेंगे. यहां उन्होंने इंटीग्रेटेड कोविड कमांड एंड कन्ट्रोल सेंटर का निरीक्षण किया और तत्पश्चात जनप्रतिनिधियों और अधिकारियों के साथ समीक्षात्मक बैठक में जरूरी निर्देश दिये. बैठक में सहारनपुर मंडल के मुजफ्फरनगर और शामली जनपद के अधिकारी भी वर्चुअल जुड़े.

इसलिये नहीं लगाया पूरा लाकडाउन

मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि अर्थव्यवस्था को देखते हुए हमनें कोरोना कर्फ्यू लगाया है, यह सम्पूर्ण लाकडाउन नहीं है. आवश्यक सेवाएं चालू हैं. मजदूरों को समस्या न आए, उनके समक्ष रोजीरोटी की समस्या ने आये, इसके लिए उद्योग धंधे और कारोबार चालू हैं.

उन्होंने कहा कि हमारा मकसद परेशानी भी न हो, भीड़ भी न हो, साथ ही भुखमरी की समस्या भी न आये. इसके लिए कम्युनिटी किचन की व्यवस्था की गयी है. सरकारी अस्पतालों में उपचार के साथ भोजन मिल रहा है. नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण शुरू किया जा रहा है.

मुख्यमंत्री ने कहा कि यूपी के माडल को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सराहा है. अन्य राज्य भी यूपी का अनुसरण कर रहे हैं. आक्सीजन के मामले में प्रदेश आत्मनिर्भर होता जा रहा है. उन्होंने कहा कि सहारनपुर में 13 हजार युवाओं को वैक्सीन लग चुकी है.

सोरोना और बलवन्तपुर गांव में देखे हालात

मुख्यमंत्री जिले के गांव सोरोना का दौरा किया. जहां उन्होंने होम आइसोलेशन में रह रहे एक ग्रामीण से उसका कुशलक्षेम जाना. उन्होंने अन्य लोगों से व्यवस्था के बाबत पूछताछ की और ग्राम्यवासियों से वैक्सीन लगवाने की अपील की. उसके बाद वे बलवन्तपुर सलेमपुर गांव पहुंचे और वहां निगरानी समिति के लोगों से वार्ता कर वस्तुस्थिति से अवगत हुए. उस गांव में भी मुख्यमंत्री ने लोगों से कोरोना वैक्सीन लगवाने के लिए कहा.

मदर्स डे स्पेशल : मां, मां होती है- भाग 1

उस दिन सोशल नैटवर्किंग साइट पर जन्मदिन का केक काटती हुई प्रज्ञा और कुसुम का अपनी मां के साथ फोटो देख कर मुझे बड़ा सुकून मिला. नीचे फटाफट कमैंट डाल दिया मैं ने, ‘‘आंटी को स्वस्थ देख कर बहुत अच्छा लगा.’’

सालभर पहले कुसुम अपने पति के लखनऊ से दिल्ली स्थानांतरण के समय जिस प्रकार अपनी मां को ऐंबुलैंस में ले कर गई थी, उसे देख कर तो यही लग रहा था कि वे माह या 2 माह से ज्यादा नहीं बचेंगी. दिल्ली में उस की बड़ी बहन प्रज्ञा पहले से अपनी ससुराल वालों के साथ पुश्तैनी घर में रह कर अपनी गृहस्थी संभाल रही थी. जब कुसुम के पति का भी दिल्ली का ट्रांसफर और्डर आया तो 6 माह से बिस्तर पर पड़ी मां को ले कर वह भी चल पड़ी. यहां लखनऊ में अपनी 2 छोटी बेटियों के साथ बीमार मां की जिम्मेदारी वह अकेले कैसे उठाती. बड़ी बहन का भी बारबार छुट्टी ले कर लखनऊ आना मुश्किल हो रहा था.

प्रज्ञा और कुसुम दोनों जब हमारे घर के बगल में खाली पड़े प्लौट में मकान बनवाने आईं तभी उन से परिचय हुआ था. उन के पिता का निधन हुए तब 2 वर्ष हो गए थे. उन की मां हमारे ही घर बैठ कर बरामदे से मजदूरों को देखा करतीं और शाम को पास ही में अपने किराए के मकान में लौट जातीं. वे अकसर अपने पति को याद कर रो पड़तीं. उन्हीं से पता चला था कि बड़ी बेटी प्रज्ञा 12वीं में और छोटी बेटी कुसुम छठवीं कक्षा में ही थी जब उन के पति को दिल का दौरा पड़ा. जिसे वे एंग्जाइटी समझ कर रातभर घरेलू उपचार करती रहीं और सुबह तक सही उपचार के अभाव में उन की मौत हो गई.

वे हमेशा अपने को कोसती रहतीं, कहतीं, ‘प्रज्ञा को अपने पिता की जगह सरकारी क्लर्क की नौकरी मिल गई है, उस का समय तो अच्छा ही रहा. पहले पिता की लाड़ली रही, अब पिता की नौकरी पा गई. छोटी कुसुम ने क्या सुख देखा? उस के सिर से पिता का साया ही उठ गया है.’

दरअसल, अंकल बहुत खर्चीले स्वभाव के थे. महंगे कपड़े, बढि़या खाना और घूमनेफिरने के शौकीन. इसीलिए फंड के रुपयों के अलावा बचत के नाम पर बीमा की रकम तक न थी.

प्रज्ञा हमेशा कहती, ‘मैं ही इस का पिता हूं. मैं इस की पूरी जिम्मेदारी लेती हूं. इस को भी अपने पैरों पर खड़ा करूंगी.’

आंटी तुनक पड़तीं, ‘कहने की बातें हैं बस. कल जब तुम्हारी शादी हो जाएगी, तो तुम्हारी तनख्वाह पर तुम्हारे पति का हक हो जाएगा.’

किसी तरह से 2 कमरे, रसोई का सैट बना कर वे रहने आ गए. अपनी मां की पैंशन प्रज्ञा ने बैंक में जमा करनी शुरू कर दी और उस की तनख्वाह से ही घर चलता. उस पर भी आंटी उसे धौंस देना न भूलतीं, ‘अपने पापा की जगह तुझे मिल गई है. कल को अपनी ससुराल चली जाएगी, फिर हमारा क्या होगा? तेरे पापा तो खाने में इतनी तरह के व्यंजन बनवाते थे. यह खाना मुझ से न खाया जाएगा.’ और भी न जाने क्याक्या बड़बड़ाते हुए दिन गुजार देतीं.

कुसुम सारे घर, बाहर के काम देखती. साथ ही अपनी पढ़ाई भी करती. बड़ी बहन सुबह का नाश्ता बना कर रख जाती, फिर शाम को ही घर लौट कर आती. वह रास्ते से कुछ न कुछ घरेलू सामान ले कर ही आती.

दोनों बहनें अपने स्तर पर कड़ी मेहनत करतीं, पर आंटी की झुंझलाहट बढ़ती ही जा रही थी. कभी पति, तो कभी अपना मनपसंद खाना, तरहतरह के आचार, पापड़, बडि़यां सब घर में ही तैयार करवातीं.

छुट्टी के दिन दोनों बहनें आचार, पापड़, बडि़यां धूप में डालती दिख जातीं. मेरे पूछने पर बोल पड़तीं, ‘पापा खाने के शौकीन थे तभी से मां को भी यही सब खाने की आदत हो गई है. न बनाओ, तो बोल पड़ती हैं, ‘जितना राजपाट था मेरा, तेरे पिता के साथ ही चला गया. अब तो तुम्हारे राज में सूखी रोटियां ही खानी पड़ रही हैं.’

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उन दोनों बहनों को दिनरात मेहनत करते देख बहुत दुख भी होता. समय गुजरता गया, जल्द ही छोटी बहन की एमए की शिक्षा पूरी हो गई. प्रज्ञा 30 साल की हो गई. जब आंटी पर चारों तरफ से दबाव पड़ने लगा कि ‘प्रज्ञा की शादी कब करोगी?’ तो उन्होंने उलटा लोगों से ही कह दिया, ‘मैं अकेली औरत कहां जाऊंगी, तुम लोग ही कहीं देखभाल कर रिश्ता बता देना.’

दरअसल, उन्हें बेटियों की शादी की कोई जल्दी नहीं थी जबकि दोनों बेटियां विवाहयोग्य हो गई थीं. ज्यादातर रिश्ते इसी बात पर टूट जाते कि पिता नहीं, भाई भी नहीं, कौन मां की जिम्मेदारी जिंदगीभर उठाएगा. आखिर, प्रज्ञा की शादी तय हो ही गई.

पता चला कि लड़का बेरोजगार है और यों ही छोटेमोटे बिजली के काम कर के अपना खर्चा चलाता है. महेश का परिवार दिल्ली के पुराने रईस लोगों में से एक था, 4 बड़े भाई थे, सभी अच्छे पद पर नियुक्त थे. सो, सब से छोटे भाई के लिए कमाऊ पत्नी ला कर उन्होंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया.

महेश अब घरजमाई बन कर रहने लखनऊ आ गया. आंटी का बहुत खयाल रखता. मगर आंटी उसे ताना मारने से न चूकतीं. कुसुम ने प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना और घर में ट्यूशन ले कर घरखर्च में योगदान देना शुरू कर दिया था.

नवविवाहितों को 2 कमरों के घर में कोई एकांत नहीं मिल पाता था, ऊपर से मां की बेतुकी बातें भी सुननी पड़तीं. प्रज्ञा ने कभी भी इस बात को ले कर कोई शिकायत नहीं की, बल्कि वह जल्द से जल्द कुसुम के रिश्ते के लिए प्रयासरत हो उठी.

अपनी ससुराल की रिश्तेदारी में ही प्रज्ञा ने कुसुम का रिश्ता तय कर दिया. रमेश सरकारी दफ्तर में क्लर्क था और उस के घर में बीमार पिता के अलावा और कोई जिम्मेदारी नहीं थी. उस से बड़ी 2 बहनें थीं और दोनों ही दूसरे शहरों में विवाहित थीं. कुसुम की विदाई लखनऊ में ही दूसरे छोर में हो गई. सभी ने प्रज्ञा को बहुत बधाइयां दीं कि उस ने अपनी जिम्मेदारियों को बहुत ही अच्छे ढंग से निभाया.

अब आंटी का दिलोदिमाग कुसुम के विवाह की चिंता से मुक्त हो गया था. कोई उद्देश्य जिंदगी में बाकी नहीं रहने से उन के खाली दिमाग में झुंझलाहट बढ़ने लगी थी. वे अकसर अपने दामाद महेश से उलझ पड़तीं. बेचारी प्रज्ञा औफिस से थकीमांदी आती और घर पहुंच कर सासदामाद का झगड़ा निबटाती.

धीरेधीरे आंटी को सफाई का मीनिया चढ़ता ही जा रहा था. अब वे घंटों बाथरूम को रगड़ कर चमकातीं. दिन में 2 से 3 बार स्नान करने लगतीं. अपने कपड़ों को किसी के छू लेने भर से दोबारा धोतीं. अपनी कुरसी, अपने तख्त पर किसी को हाथ भी धरने न देतीं.

वे अपने खोल में सिमटती जा रही थीं. पहले अपने भोजन के बरतन अलग किए, फिर स्नानघर के बालटीमग

भी नए ला कर अपने तख्त के नीचे रख लिए.

मध्य वर्ग और कोरोना

लेखक- Chitranjan Lal

अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रकाशित भारत के मध्य वर्ग  की संख्या में कमी आने से संबंधित रिपोर्ट के अनुसार “कोविड-19 महामारी के कारण आये संकट से एक साल के दौरान भारत में मध्य वर्ग के लोगों की संख्या करीब 9.9 करोड़ से घटकर करीब 6.6 करोड़ रह गई है.” इसी रिपोर्ट में प्रतिदिन 10 डॉलर से 20 डॉलर (यानी 700 रूपये से 1500 रूपये प्रतिदिन) के बीच कमानेवाले को मध्य वर्ग में शामिल किया गया है. रिपोर्ट में यह जानकारी भी है कि चीन में कोरोना संक्रमण के कारण पिछले एक वर्ष में मध्य वर्ग की संख्या सिर्फ एक करोड़ ही घटी है.

विभिन्न अध्ययनों और सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है कि इस  कोरोना महामारी की वजह से बड़ी संख्या में लोगों के रोजगार खत्म हुए हैं या उनकी मुश्किलें बढ़ी हैं.

यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि कोविड-19 के कारण एक तरफ जहाँ मध्य वर्ग के लोगों की संख्या घटी है, वहीं भारतीय परिवारों पर कर्ज का बोझ भी बढ़ा है. उल्लेखनीय  है कि कोरोना की पहली लहर बड़ी संख्या में मध्य वर्ग की आमदनी घटा चुकी है और बहुत कुछ उसके बैंकों के बचत खातों को खाली कर चुकी है. और कोरोना की यह दूसरी लहर जैसे मध्य वर्ग को मँहगे स्वास्थ्य संबंधी खर्च के वजह से उन्हें निम्न वर्ग में धकेलने के लिए जैसे तैयार है.

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यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि पिछले एक वर्ष में मध्य वर्ग के सामने एक बड़ी चिंता उनकी बचत योजनाओं और बैंकों में स्थायी जमा (एफ.डी.) पर ब्याज दर घटने संबंधी भी रही है. केन्द्र सरकार ने 1 अप्रैल 2021 से कई बचत योजनाओं पर ब्याज दर घटा दी थी. लेकिन अचानक ही यू-टर्न सा लेते हुए अगली ही सुबह इसे वापस ले लिया गया. इसके बारे में मजाक यह भी चला कि अचानक ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार को आसन्न चुनाव की याद आ गई.

वैसे यहाँ उस ब्याज-दरों के बदलावों को देखना उल्लेखनीय होगा. उसमें सरकार द्वारा कहा गया था कि बचत स्कीमों पर बैंक अब 04 के बजाय 3.5 प्रतिशत सालाना ब्याज देंगे. वरिष्ठ नागरिकों के लिए बचत योजनाओं पर देय ब्याज 7.4 प्रतिशत से घटाकर 6.5 प्रतिशत किया जाना था. नेशनल सेविंग सर्टिफिकेट पर देय ब्याज 6.8 प्रतिशत को घटाकर 5.9 प्रतिशत तथा पब्लिक प्रोविडेंट फंड स्कीम पर देय ब्याज 7.1 प्रतिशत से घटाकर 6.4 प्रतिशत हो जाना था. शुक्र है कि सरकार को शीघ्र ही समझ आई तो उसने इस योजना को अमल में लाने के पूर्व ही वापस ले लिया.

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सरकार यदि चाहती है कि मध्य वर्ग को राहत मिले, तो इसके लिए उक्त बचत योजनाओं के ब्याज दरों को बढ़ाना चाहिए. इससे मध्य वर्ग की क्रय शक्ति भी बढ़ेगी और मार्केट में मनी ट्रांजिक्शन बढ़ेगा. स्वाभाविक है, इससे बाजार में मुद्रा प्रवाह बढ़ेगा. अभी हाल यह है कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर सार्वजनिक व्यय, सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का करीब एक प्रतिशत है. अर्थशास्त्रियों के अनुसार इसे ढाई प्रतिशत किया जाना चाहिए, जिसपर सरकार विचार भी कर रही है. अगर ऐसा होता है तो मध्य वर्ग को अपने स्वास्थ्य संबंधी खर्चों में बचत करने में बड़ी राहत मिलेगी.

मध्य-वर्ग के अंतर्गत सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (एमएसएमई) से जुड़े लोग भी आते हैं, जिनकी बड़ी संख्या नगरों-महानगरों में कुकुरमुत्तों की तरह फैले हुए हैं. ये वे उद्योग हैं, जिनमें एक से दस तक कर्मचारी काम करते हैं. आमतौर पर देखा जाता है कि मालिक भी मजदूरों के साथ वहीं मिल-जुलकर काम करता है. देश में ऐसे उद्योगों की संख्या लगभग छः करोड़ बताया जाता है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के अनुसार- “एमएसएमई सेक्टर वर्तमान में भारत के कुल निर्यात का 48 प्रतिशत निर्यात करता है. एमएसएमई भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं.”

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और इस कोरोना-काल में उसपर भी भारी संकट है. मजदूर काम छोड़ भाग रहे हैं. मालिक दर-बदर हो रहे हैं. क्योंकि आयात-निर्यात सब ठप्प हो चुका है. और इस प्रकार समाज का एक मध्य-वर्ग बेरोजगार और निर्धन बनने की ओर बढ़ता चला जा रहा है.

इसके अलावा खुदरा-व्यापारी भी मध्य वर्ग में ही आते हैं. उत्पादक, वह चाहे किसान हो या कारखानेदार, खुद सामान नहीं बेचते. देशभर में फैले करोड़ों उपभोक्ताओं तक यही खुदरा व्यापारी आवश्यक सामानों को पहुँचाते या वितरित करते हैं. लेकिन अब उसकी जगह ई-कॉमर्स वाली कंपनियाँ लेने लगी हैं. ज्यादातर ई-क़ॉमर्स बिक्री एमेजॉन और फ्लिपकॉर्ट से होती है. और इससे इन तथाकथित बिचौलियों की भूमिका निभा रहे खुदरा विक्रेताओं पर संकट आ गया है. कोरोना-काल में जब लॉक-डाउन लगा, तो लोगों ने ऑनलाइन खूब शॉपिंग की, जो अब उपभोक्ताओं के आदत में शुमार  होने लगा है.

ई-कॉमर्स कंपनियों की उपभोक्ताओं के लिए यह सुविधा उन लाखों दुकानदारों को बेकार, या दूसरे शब्दों में कहें तो बेरोजगार बना रही हैं, जो मूलतः मध्य-वर्ग के ही हैं और देश की सामाजिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी समान हैं. मगर अब ये शीघ्रतापुर्वक शून्य की ओर अग्रसरित हो रहे हैं, क्योंकि ये समझ नहीं पा रहे कि चुनौतियों का सामना करें, तो किस तरह करें? सरकार को इस दिशा में भी विचार करना चाहिए.

कोरोना के इस दूसरी लहर में बिहार सरकार ने एक अच्छी पहल यह की कि दुकानों को ‘अल्टरनेट डे’ अर्थात् एक दिन बीच दुकान खोलने का आदेश दिया है. इससे उम्मीद की जाती है कि व्यापारियों के इस मध्य-वर्ग को राहत मिलेगी.

कोरोना-काल के इस महासंकट के बीच इस संक्रमण से बचने के लिए यह आवश्यक है कि सभी इस मंत्र को ‘कड़ाई भी, सफाई भी, दवाई भी’ को अपनाएँ. वहीं सरकार यह भी देखे कि एक तरफ बचत योजनाओं के ब्याज-दरों में कटौती न की जाए, छोटे उद्यमियों को अपने उद्योग न बंद करना पड़े और खुदरा व्यापारी भी अपना काम सुचारू रूप से संपन्न कर सकें. इससे लोगों को बेरोजगारी का सामना नहीं  करना पड़ेगा. सामाजिक संरचना भी छिन्न-भिन्न नहीं होगी.

मदर्स डे स्पेशल : मां, मां होती है

देश में कोरोना से बिगड़ते हालात: कुव्यवस्था से हाहाकार

देश में मौजूदा हालात बताते हैं कि सरकारें जनहितैषी कभी नहीं बन सकतीं. सरकारें गरीबों के बारे में कभी नहीं सोच सकतीं. सरकारें तो बनी ही जनता पर शासन करने को हैं. जनता को सिर्फ वोटबैंक सम झने की जिद इन्हें उस की लाशों से खेलने की इजाजत देती है.

‘‘पिछले साल की कई गलतियों को भुला दिया जाए तो माना जा सकता है कि कोरोना वायरस से उपजी कोविड-19 महामारी एक आपदा थी लेकिन इस बार यह आपदा नहीं, बल्कि सरकारों का एक सिस्टमेटिक फैलिएर है. मेरी मां दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में थी. वह वहां 5 दिनों तक जू झती रही. अस्पताल में किसी ने कोई केयर नहीं की. उस की मौत कल (20 अप्रैल)  रात को 3 बजे हुई. उस से पहले पूरे दिन अस्पताल में मेरी मिसेज 8वीं मंजिल से यहां से वहां भागती रही कि मांजी का बीपी चैक कर लो,

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औक्सीजन चैक कर लो लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं. आखिर में  झगड़ा करने पर अटैंडैंट ने बीपी मशीन ही मेरी मिसेज को पकड़ा दी और कहा कि खुद ही चैक कर लो. मेरी मां बीमारी से नहीं मरी है, बल्कि उसे सरकार ने मारा है,’’ सरिता पत्रिका से बात करते हुए 44 वर्षीय अरशद आलम भावुक हो गए.

भारत में कोरोना का दूसरा फेज देश के इतिहास में उस बदनुमा दाग की तरह हमेशा याद रहेगा जो मिटाने से नहीं मिटने वाला. दूसरे फेज का हाल यदि ऐसा ही रहा तो यह भी संभव है कि इस की दुर्गत स्मृति को याद करने के लिए सिर्फ मानव कंकाल ही बचेंगे, नेता उन्हीं कंकालों के ढेर पर चढ़ कर वोट की अंतिम अपील कर रहे होंगे. माफ कीजिए, कटु वचन हैं लेकिन हाल ए वक्त को मद्देनजर रख पाठकों के मन में धूल  झोंकना ठीक नहीं.

इस समय देश की तमाम सरकारों का हाल ऐसा हो चुका है जैसे पूरे साल बिन पढ़ाई किए छात्रों का परीक्षा में बैठने पर होता है. कोरोना ने एक साल पहले जो अल्टीमेटम सरकार को दिया था उसे मनमौजी नेता ‘बीत गई सो बात गई’ मान कर चल रहे थे. महान दार्शनिक कार्ल मार्क्स ने कहा था, ‘‘इतिहास जब खुद को दोहराता है तब वह पहली बार ट्रेजेडी के रूप में होता है और दूसरा मजाक की तरह.’’ प्रधानमंत्री मोदी के शासनकाल में शायद यह स्थिति 2 बार सटीक बैठी है, एक 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर से मोदी के बहुमत से जीत जाने पर और दूसरे, कारोना के एक साल बाद दूसरे फेज पर. दोनों ही स्थितियों में फेल और कोई नहीं, भारत की विराट जनता ही हुई है.

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कोरोना से हालात बदतर

आज स्थिति यह है कि पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. यह हाहाकार आमजन के घरों से निकलने के बाद, अस्पतालों की चीखपुकार से होते हुए शमशानघाटों और कब्रिस्तान तक फैल चुका है.

जिन्हें अभी भी यह हकीकत मजाक लग रही हो तो एक बार उन सुनसान सड़कों पर पढि़ए जहां लगातार हर मिनट तेज रफ्तार में चलती एम्बुलैंस शोर मचा रही हैं. दावे के साथ कह सकता हूं रात को सोते समय उन के सायरन की आवाज कानों में बिनबिनाने लगेगी.

अगर इतने से भी यकीन न हो, तो उन कब्रिस्तानों और शमशानों में जा कर लाशों के लगते अंबारों का अनुभव बिना मन में ‘पुनर्जन्म’ और ‘पापमुक्ति’ के विचार लिए महसूस किया जा सकता है जहां लाशों को बिना ‘राम नाम सत है’ और ‘दुआ पढ़ने’ की औपचारिकता निभाने के महज मांस और हड्डी के लोथड़े की तरह जलाया या दफनाया जा रहा है. यकीन दिलाता हूं, दिमाग के सारे पापपुण्य, कर्मकांड वाले विचारों के परख्चे उड़ जाएंगे, फिर उमड़ने लगेंगे वह जीवंत सवाल जो कई सालों से हम सब ने, सरकारों से तो दूर की बात, खुद ही से पूछने छोड़ दिए थे.

आईटीओ के पास स्थित कब्रिस्तान शहर का सब से बड़ा कब्रिस्तान है. यह ‘जदीद कब्रिस्तान अहले इसलाम’ के नाम से जाना जाता है. यह दिल्ली पुलिस हैडक्वार्टर के पीछे लगभग 200-250 मीटर भीतर जा कर शुरू होता है. इस का क्षेत्रफल लगभग 50 एकड़ है.

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इसी कब्रिस्तान में अपनी 65 वर्षीया मां नसीम बानो को दफनाने 44 वर्षीय अरशद आया था जिस के मुंह में कर्म और पापपुण्य के टंटे नहीं थे बल्कि सरकार को ले कर भारी रोष था. सरिता पत्रिका से बात करते हुए अरशद आलम कहते हैं, ‘‘कोरोना इतना नहीं है जितना सरकारों ने कर दिया है. जिस तरह के अस्पतालों को बनाने की जरूरत एक साल में होनी थी वह बिलकुल भी नहीं बनाए गए. शुरुआत से ही अस्पतालों में बैड नहीं थे, औक्सीजन नहीं थी, मशीनें नहीं थीं, बल्कि कहें कि अस्पताल ही नहीं थे.

‘‘अरविंद केजरीवाल कहते फिर रहे हैं कि उन के पास व्यवस्था चाकचौबंद है लेकिन दिल्ली का हाल सब के सामने है. लोग सिर्फ दवाइयों की कमी, औक्सीजन की कमी और ट्रीटमैंट की कमी से मर रहे हैं. इस में अब आपदा वाली बात नहीं है. इतने समय में सरकारों को संभल जाना चाहिए था. लेकिन नहीं, समस्या यह है कि हिंदुस्तान चल रहा है हिंदू और मुसलिम से. लोग राममंदिर की कीमत चुका रहे हैं. जो हमारे हिंदू भाई हैं उन्हें इस सरकार ने मंदिर में फंसा दिया है.’’

कब्रिस्तान में कोरोना के लिए अलग से ढाई एकड़ जमीन अलौट की गई है जहां काफी हद तक जगह कब्रों से भर भी चुकी है. कोरोना का मंजर, आंखोंदेखी तौर पर, इसी से सम झा जा सकता है कि 20 अप्रैल को सुबह 11 बजे सरिता की टीम जब कब्रिस्तान में पहुंची तो वहां 2 घंटे रुकने पर ही हमारे सामने लगभग  6-7 कोरोना डैडबौडीज लाई जा चुकी थीं. कई लोग उन में से पिछले दिन के वेटिंग वाले भी थे.

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मृतकों के परिजनों के मुंह में मास्क तो था लेकिन बाकी सुरक्षा के समान ग्लब्स, पीपीई किट, सोशल डिस्टैंस इत्यादि बिलकुल भी नहीं था. और यह बताने के लिए कोई औफिशल मौजूद नहीं था कि कितने लोग एकत्रित होने चाहिए और किस तरह की गाइडलाइंस फौलो की जानी चाहिए. कई चीजों को ले कर कब्रिस्तान के वाइस प्रैसिडैंट और केयरटेकर हाजी शमीम अहमद से फोन पर बात हुई.

शमीम अहमद बताते हैं, ‘‘16 अप्रैल से 19 अप्रैल तक क्रमश: 15, 18, 20, 22 कोरोना से हुई मौतों की बौडीज इस कब्रिस्तान में आ रही हैं. पिछले साल के मुकाबले इस साल मामले ज्यादा आ रहे हैं. कोरोना की अलग पर्ची बन रही है. कोरोना से हुई मौतों के मामले दिन बढ़ने के साथ बढ़ रहे हैं. पिछले साल हौआ बहुत था और मामले कम थे. जैसे पिछले साल कोरोना के 750 कुल मामले आए थे, इस साल हौआ नहीं है लेकिन मामले बहुत ज्यादा आ गए. यह आकड़ों में दिखने लगा है, हर रोज के आकड़े आप के सामने मौजूद हैं.’’

जब उन से कब्रिस्तान में जगह की कमी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया, ‘‘यह सही है कि अब जगह कम पड़ रही है. इस कब्रिस्तान की कमेटी 1924 से है. सरकार ने 1924 में यह जगह कमेटी को अलौट की थी. हमारी एक जगह रिंग रोड, सराए काले खां पर 14 एकड़ है जो सरकार से 1964 में अलौट हुई थी लेकिन जब वहां पार्क बनने लगा तो हम से 10 एकड़ जमीन इस वादे पर ली गई कि जब आप को जरूरत पड़ेगी तो आप को दे देंगे. वहां 4 एकड़ की जगह पर बाउंड्री बना कर हमें दी तो गई लेकिन उस का अब तक हम उपयोग नहीं कर पा रहे. जब कोरोना के मामले आने लगे तो हम ने वापस वह जमीन मांगी, लेकिन सरकार ने वह जमीन हमें नहीं दी. हम चाह रहे हैं कि कोरोना के सारे मामले हम वहीं शिफ्ट करे दें.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘यह कमी है कि सरकार कुछ भी हमारी मदद नहीं कर रही है. सफाई हम खुद करा रहे हैं. सैनिटाइज तो दूर की बात, सरकार देखने तक नहीं आ रही है. कब्रिस्तान की बाउंड्री के बाहर गंदगी है तो वह भी उठवाने को तैयार नहीं है प्रशासन. किसी प्रकार की मदद नहीं मिल रही है. न किट, ना मास्क, न ग्लब्स कुछ नहीं दे रही है सरकार. लोग आते हैं किट यहीं फेंक जाते हैं, उन्हें हम ही जलाते हैं.’’

यह दिलचस्प था कि कब्रिस्तान में सफाई का काम वहीं कब्रिस्तान से सटी वाल्मीकि बस्ती में रह रहे विनोद (40) और रौकी (20) के जिम्मे है. उन का कहना है कि वे दोनों यहां बिना तनख्वाह के काम कर रहे हैं. हालांकि वे इसे समाजसेवा कहते हैं लेकिन यह भी हकीकत है कि इस के अलावा उन के पास और कोई काम नहीं है. यह बात इस से भी जाहिर होती है कि न तो कमेटी की तरफ से उन्हें तनख्वाह दी जा रही है न कोई और माध्यम से उन्हें उन का पारिश्रमिक दिया जा रहा है. जो पैसा थोड़ाबहुत कमाते हैं वह खड्डा खुदवाई, ताबूत लाने व ले जाने, कंधा देने व अन्य कार्यों के एवज में मृतक के परिवारजन से बख्शिश के तौर पर मिल रही है. विनोद इस कब्रिस्तान के ऐसे वौरियर हैं जो सीधे बौडी के संपर्क में आते हैं. लेकिन उन्हें किसी प्रकार की सुरक्षा मुहैया नहीं कराई गई है.

विनोद कहते हैं, ‘‘मु झे न कोई संस्था कुछ दे रही है न सरकार. मु झे मास्क तक खुद खरीदना पड़ा है, ये ग्लब्स भी मैं ने अपनी सेफ्टी के लिए यहां एंबुलैंस में अस्पताल से आए कर्मियों से मांगे हैं. पीपीई किट नहीं है. मैं अपनी जान पर खेल रहा हूं.’’

दरअसल, पिछले साल से ही तमाम सरकारों की यह कमी रही है कि वे कोरोना को ले कर बेसिक स्वास्थ्य सुविधाओं, जानकारियों, उपायों को लोगों तक नहीं पहुंचा पाईं. यह दुखद भी है कि आम लोगों के मन में किसी भी सरकार को ले कर भारी अविश्वास पैदा हो गया है और वे अस्पतालों की बदइंतजामी को ले कर डरे हुए हैं.

अजमेरी गेट के पास रहने वाले  इकबाल (55), जो अपनी पत्नी की बहन अमीना के देहांत के चलते कब्रिस्तान आए थे, कहते हैं, ‘‘कभीकभी यह डाउट हो रहा है कि सरकार ही मार रही है. लोग बीमारों को अस्पताल ले कर जा रहे हैं कि वहां से ठीक होंगे, लेकिन अब महसूस हो रहा है यदि कोई दिक्कत है तो अस्पताल मत जाओ. कम से कम दुर्गति तो नहीं होगी. वे लोग हमारे लोगों के साथ क्या सुलूक कर रहे हैं, हमें कुछ नहीं पता चल पा रहा है. इस समय सरकारें ढह हो चुकी हैं. एक साल कोरोना ने इन सरकारों को दिया था कि सारी तैयारियां कर लीजिए, लेकिन इन्होंने कुछ नहीं किया. सत्ताधारी नेता, बस, चुनाओं में व्यस्त रहे. मोदी ने पिछले साल जितना फंड इकट्ठा किया था, सारा इलैक्शन में लगा दिया. वे पब्लिक के लिए काम नहीं कर रहे. इंसान मर रहा है, इंसानियत मर रही है. फिर भी, इन्हें चुनाव लड़ना है.’’

लोगों के भीतर अविश्वास को और भी पुख्ता ऐसी परिस्थितियां कर रही हैं जो पिछले सालों से लोग लगातार देखते आ रहे हैं. दनदनाती चुनावी रैलियां, भीड़भरे धार्मिक आयोजनों में राजनीतिक पार्टियों का सहयोग, और गरीबगुरबों की अनदेखी. पिछले साल जिस समय कोरोना अपने पैर तेजी से पसार रहा था तो अस्पताल बनाने की जगह भाजपा सरकार अपनी पार्टी के औफिस बनाने की मुहिम में लगी हुई थी.

जुलाई 2020 में भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा जानकारी देते हुए बड़े फख्र से कहते हैं कि, ‘प्रधानमंत्री ने 2014 से पहले तय किया था कि जिला और राज्य दोनों स्तरों पर कार्यालय बनाए जाएंगे. हम ने 500 जगहों पर पार्टी कार्यालय बना दिए हैं और शेष 400 पर काम जारी है और जल्द ही वह पूरा हो जाएगा,’’ यह इस देश के लिए दुखद है कि दुनिया का सब से महंगा पार्टी कार्यालय इसी देश में इसी पार्टी का मोदी कार्यकाल में ही बना.

कम पड़ने लगे श्मशान धाट

यही कारण भी है कि आम लोग सरकार के किए किसी भी काम पर यकीन करने को तैयार नहीं हैं. दिल्ली के पंचकुइया रोड़ पर स्थित शमशान घाट इन दिनों काफी व्यस्त चल रहा है.

23 प्लेटफौर्म के इस घाट में जहां पहले रोज 6-7 डैड बौडीज आया करती थीं, अब यहां हाहाकार मचा हुआ है. सरिता टीम 19 अप्रैल को ढाई बजे इस घाट का दौरा करने पहुंची थी. चारों तरफ उस दौरान अफरातफरी मची हुई थी. यह अफरातफरी लगातार आ रही कोरोना मृतकों के चलते हो रही थी. यहां भी अफरातफरी के बीच कोरोना गाइडलाइन फौलो करने की सुध न तो परिजनों को थी न वहां के कार्यकारियों को.

कई डैडबौडीज को जगह की कमी के चलते वापस लौटा दिया जा रहा था, कुछ वेटिंग में बाहर खड़ी थीं.

हमारी बात यहां आ रहे मामलों के आंकड़ों को ले कर रजिस्टर मैंटेन करने वाले अधिकारी मुकेश से हुई. जिस समय हम वहां पहुंचे थे उस समय आधा दिन ही हुआ था और अधिकारी ने बताया कि आज 19 अप्रैल को कुल 20 डैडबौडीज में से 15 कोरोना के मामले हैं. यह भयानक था. 18 तारीख को कुल 19 बौडीज आई थीं जिन में से 13 कोरोना संक्रमित थीं, 17 को 12 और 16 तारीख को 9 मामले आए थे. यानी, दिनप्रतिदिन पिछले 4 दिनों में कोरोना से हुई मौतों के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है. और अब लाशों को वापस भी किसी दूसरे शमशान घाट के लिए लौटाया जा रहा है.

शमशान घाट के अधिकारी ज्यादा तो कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थे लेकिन इस बात पर स्पष्ट सहमति दे रहे थे कि पिछली बार के मुकाबले इस बार बहुत ज्यादा खतरनाक कोरोना प्रहार कर रहा है.

वहां मौजूद कुछ पंडितों से बात की. 48 वर्षीय पंडित गुलशन शर्मा का कहना था, ‘‘अब मुर्दा इतने हो रहे हैं कि खुले में जमुना के किनारे जलाए जा रहे हैं. यहां का ही हाल देख लो. ऐसा मंजर पहले कभी नहीं था. यह सब से ज्यादा है. पैर रखने को जगह नहीं है. बौडी जैसे ही आज आती है, दाहसंस्कार कर के 4 दिन का समय पारंपरिक तौर पर लगाया जाता है, लेकिन अब क्या हो रहा है कि अगर 4 दिन एक चिता को ब्लौक कर दिया तो पब्लिक परेशान हो जाएगी.  इसलिए आज दाग दिया है तो अगले दिन ही सुपुर्द करने की सारी प्रक्रियाएं की जाती हैं.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘इस समय एक भी चिता खाली नहीं है. तुम देखो तो… हमारी जान निकल गई है काम करातेकराते. ऐसा रहा तो कुछ दिनों बाद हम भी इसी लाइन में लग जाएंगे.’’

टीकाकरण पर उठते सवाल

पंचकुइया में ही एक मामला ऐसा भी आया जहां कोरोना के टीके पर ही कई सवाल खड़े हो गए. दरअसल, पहाड़गंज के रहने वाले रिंकू अपने परिजन के दाहसंस्कार के लिए यहां आए थे. उन्होंने बताया, ‘‘एक वैक्सीन लगाने के बाद मेरी बूआ (रामवती देवी) का बीपी चढ़ गया जिस के कारण उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया.

वैक्सीन लगाने से पहले ठीक थीं. उस के बाद कुछ दिन ठीक रहीं. लेकिन बीपी हाई हुआ, फिर अस्पताल ले कर गए तो उन्हें कोरोना बताया दिया. उस के बाद कुछ ही समय में उन की मौत हो गई. कुछ लोग वैक्सीन को गलत बता रहे हैं, न जाने क्या लगा रहे हैं.’’

कुछ इसी प्रकार का हाल वैस्ट दिल्ली के पंजाबी बाग इलाके में स्थित सब से बड़े शमशान घाट का था. इस के अंदर कुल 70 प्लेटफौर्म हैं. जिन में चिताएं जलाई जा रही हैं. इस घाट में मोक्ष, घाट और सीएनजी से बौडी जलाने की व्यवस्था है. लेकिन अपनी कैपेसिटी से अधिक यहां अरेंजमैंट किया गया था.

लाशों की बढ़ती संख्या को देखते हुए सामान्य प्लेटफौर्म के अलावा यहां जमीन पर अतिरिक्त अस्थाई 4-5 प्लेटफौर्म बनाए गए थे. इस से सम झा जा सकता है कि कितना लोड यहां पढ़ रहा था. यहां कोई अधिकारी सीधे किसी मसले पर बात करने को तैयार नहीं हुआ. लेकिन वे भी इस बात को बताते रहे कि हालत गंभीर है.

सरिता पत्रिका ने वहां के जिम्मेदार लोगों से बात करने की कोशिश की तो दबी जबान (नाम न बताने की शर्त पर) यह जरूर कहते रहे, ‘‘सरकार मामले छिपा रही है. जो आकड़े बता रही है वह गलत बता रही है. पिछले साल से बुरा हाल हो रहा है. लगभग तीन गुना… अब 60 तक कोरोना मामले जा रहे हैं. खुद देखो, जमीन पर ईंटें लगा कर काम चलाया जा रहा है.’’

इस के अलावा सफाई के मामले में इस घाट पर गंदगी जहांतहां बिखरी पड़ी थी. पानी पीने की जगह पर मास्क और ग्लब्स यों ही फेंके हुए थे, जिसे कोई साफ करने वाला नहीं था. मृतक के रिश्तेदार बिना सेफ्टी के भीतर दाहस्थल तक जा रहे थे, इन में से कईयों के पास न तो ग्लब्स था न ही पीपीई किट की व्यवस्था.

इसी प्रकार का हाल राजेंद्र प्लेस का सतनगर शमशान घाट का था. जो इस रिपोर्ट को लिखे जाने तक कोविड घाट में कन्वर्ट नहीं हुआ था. यह बी एल कपूर अस्पताल के औपोजिट साइड रोड पर 60 मीटर की दूरी पर बाईं तरफ चलने पर है.

इस में लगभग 37 प्लेटफौर्म हैं. इस के अलावा मोक्ष के 4 प्लेटफौर्म बनाए गए हैं. बीते दिन 20 अप्रैल को इस घाट में दोपहर 1 बजे तक सब से अधिक 15 मामले आए थे. अब यह दिलचस्प था कि और दिन के मुकाबले यह आंकड़ा लगभग 3 गुना अधिक था. समस्या यह कि नौर्मल मौत अथवा कोरोना मौत की गफलत यहां चिंताएं बढ़ा रही हैं. सामान्य मौत में रीतिरिवाज से चेहरे को खोल कर दाह करवाया जाता है, लेकिन कोरोना में ऐसा करने से मना किया गया है. अब एकदम से बड़े मामले शंका बढ़ाते हैं, कहीं यह कोरोना से हुई मौत तो नहीं?

आईटीओ कब्रिस्तान में मिले अरशद आलम ने एक बात कही, ‘‘सरकार डाटा छिपा रही है या यह संभव है कि बहुत से लोगों का डाटा आ ही नहीं पा रहा. बहुत सारे लोग जिन्हें अस्पताल एडमिट नहीं कर रहे उन का तो कोई कोरोना डाटा है ही नहीं. मैं अपनी मां को ले गया, अगर वह उसी दिन डैथ कर जाती तो उन का नाम भी नहीं आता. काफी मौतें तो घर में ही हो जा रही हैं, लोग अस्पताल नहीं जा रहे क्योंकि वहां ट्रीटमैंट ठीक से नहीं हो रहा और लोग अस्पताल की खराब कार्यवाही को ले कर डरे हुए हैं. क्यों? क्योंकि सरकारी अस्पतालों में एक नर्स या डाक्टर देखने नहीं आते सुबह से शाम तक.’’

ठीक इसी प्रकार का अंदेशा राजेंद्र प्लेस के संतनगर के शमशानघाट के पंजाबियों के 38 वर्षीय पंडित नन्नू शर्मा को भी था. वे कहते हैं, ‘‘कोविड का पता तो चैक करा कर ही चलेगा. बहुत से लोगों की बिना अस्पताल पहुंचे कोरोना से मौत हो रही है लेकिन चूंकि उन्होंने चैक नहीं कराया तो हम भी उन्हें नौर्मल मान कर दाह कर रहे हैं. हम रिस्क में हैं. हमें सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिल रही है.’’

कुल मिला कर यह तय है कि हमारी सरकारें पूरी तरह से फेल हो चुकी हैं और उन के फेल होने से पूरे देश की आवाम भी फेल हो चुकी है. इस त्रासदी को सम झना किसी दिल्लीवासी के लिए बड़ी बात नहीं है. जहां हमारी चुनी हुई सरकार खुद मदद की भीख मांग रही है. दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया और स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ट्विटर पर यह बात सा झा करते हैं कि ‘दिल्ली के अस्पतालों में 8 से 12 घंटे के लिए ही औक्सीजन उपलब्ध है.’ वहीं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि वे कोरोना स्थिति से निबटने के लिए युद्धस्तर पर काम कर रहे हैं. समस्या यह है कि जब गले में फंदा पड़ता है तभी युद्धस्तर पर काम करने की बात क्यों आती है?

वहीं, जनता के साथ भौंडा मजाक तो यह है कि प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं कि संपूर्ण लौकडाउन इस का हल नहीं है. यह बात उन करोड़ों गरीबों, मजदूरों, युवाओं और महिलाओं के जख्मों पर नमक है जिन्हें पिछले वर्ष इस का दंश  झेलना पड़ा. हांलाकि, इस स्थिति का हल क्या है, यह भी बताने में ‘विश्वगुरु’ प्रधानमंत्री मोदी सक्षम नहीं हैं. सक्षम की बात छोड़ो, वे खुद बड़ीबड़ी रैलियों में भीड़ देख ऐसे उत्साहित हो रहे थे मानो जैसे इस भीड़ के बाद जलती चिताओं का नजारा उन्हें सुकून देगा. इस घड़ी में यह तमाम सरकारों के लिए कितनी बेशर्मी की बात है कि कार्यालय स्तर पर जिन समस्याओं को काफी पहले सुल झा लिया जाना चाहिए था उन्हें जस का तस रख आमजन का मजाक बनाया जा रहा है. इस कोरोना ने कुछ के चेहरे से सीधेसीधे परदा उठाया भी है. कैसे सरकार ने इस तथाकथित आपदा को अपने राजनीतिक फायदे के लिए अवसर में बदला, कैसे देश की संपत्ति को बेच चंद लोगों में फायदा पहुंचाया गया, कैसे लोगों को भीड़ जमा कर उन के दाहसंस्कार की तैयारियां कीं.

स्थिति यह है कि इतना सब होने के बाद भी पाखंडी सरकार द्वारा आस्था को अब भी विज्ञान से ऊपर तरजीह दी जा रही है. इस कारोना की चपेट में वे महंत नहीं बच पाए जो दिनरात भगवानों की आस्था में डूबे रहते हैं. वे मौलवी नहीं बच पाए तो आयतें पढ़ते रहते हैं. देश में मौजूदा हालात साफ बताते भी हैं कि सरकारें जनहितैषी कभी नहीं बन सकती हैं, ये गरीबों के बारे में नहीं सोच सकती हैं. सरकारें तो यह सोचती हैं कि वे बनी ही जनता पर शासन करने को हैं. जनता को सिर्फ वोट सम झने की जिद ही इन्हें उन की लाशों से खेलने की इजाजत देती है.

मदर्स डे स्पेशल : मां, मां होती है- भाग 2

प्रज्ञा के पूछने पर बोलीं, ‘मेरा सामान कोई छुए तो मुझे बहुत घिन आती है, बारबार मांजना पड़ता है. अब मैं ने अपने इस्तेमाल का सारा सामान अलग कर लिया है. अब तुम लोग इसे हाथ भी मत लगाना.’ प्रज्ञा को अपने पति महेश के समक्ष शर्मिंदगी उठानी पड़ती. हर समय घर में शोर मचा रहता, ‘बिना नहाए यह न करो, वह न करो, मेरी चीजों को न छुओ, मेरे वस्त्रों से दूर रहो’ आदिआदि.

दामाद तानाशाही से जब ऊब जाता तो 2-4 दिनों को अपने घरपरिवार, जोकि दिल्ली में था, से मिलने को चल देता. प्रज्ञा अपनी मां को समझाए या पति को, समझ न पाती. किसी तरह अपनी गृहस्थी बचाने की कोशिश में जुटी रहती. इन 4 सालों में वह 2 बच्चों की मां बन गई. खर्चे बढ़ने लगे थे और मां अपनी पैंशन का एक पैसा खर्च करना नहीं चाहतीं. वे उलटा उन दोनों को सुनाती रहतीं, ‘यह तनख्वाह जो प्रज्ञा को मिलती है अपने बाप की जगह पर मिलती है.’ उन का सीधा मतलब होता कि उन्हें पैसे की धौंस न देना.

आंटी आएदिन अपने मायके वालों को दावत देने को तैयार रहतीं. वे खुद भी बहुत चटोरी थीं, इसीलिए लोगों को घर बुला कर दावत करातीं. जब भी उन्हें पता चलता कि इलाहाबाद से उन के भाई या बनारस से बहन लखनऊ किसी शादी में शामिल हो रहे हैं तो तुरंत अपने घर पर खाने, रुकने का निमंत्रण देने को तैयार हो जातीं.

घर में जगह कम होने की वजह से जो भी आता, भोजन के पश्चात रुकने के लिए दूसरी जगह चला जाता. मगर उस के लिए उत्तम भोजन का प्रबंध करने में प्रज्ञा के बजट पर बुरा असर पड़ता. वह मां को लाख समझाती, ‘देखो मम्मी, मामा, मौसी लोग तो संपन्न हैं. वे अपने घर में क्या खाते हैं क्या नहीं, हमें इस बात से कोई मतलब नहीं है. मगर वे हमारे घर आए हैं तो जो हम खाते हैं वही तो खिलाएंगे. वैसे भी हमारी परेशानियों में किस ने आर्थिक रूप से कुछ मदद की है जो उन के स्वागत में हम पलकपांवड़े बिछा दें.’ लेकिन आंटी के कानों में जूं न रेंगती. उन्हें अपनी झूठी शान और अपनी जीभ के स्वाद से समझौता करना पसंद नहीं था.

आंटी को आंखों से कम दिखने लगा था. एक दिन रिकशे से उतर कर भीतर आ रही थीं, तो पत्थर से ठोकर खा कर गिर पड़ीं. अब तो अंधेरा होते ही उन का हाथ पकड़ कर अंदरबाहर करना पड़ता. अब उन्होंने एक नया नाटक सीख लिया. दिनरात टौर्च जला कर घूमतीं. प्रज्ञा अपने कमरे में ही अपने छोटे बच्चों को भी सुलाती क्योंकि उस की मां तो अपने कमरे में बच्चों को घुसने भी न देतीं, अपने तख्त पर सुलाना तो दूर की बात थी. आंटी को फिर भी चैन न पड़ता. रात में उन के कमरे का दरवाजा खटका कर कभी दवा पूछतीं तो कभी पानी मांगतीं.

आंटी के कमरे की बगल में ही रसोईघर है, मगर रसोईघर से पानी लेना छोड़, वे प्रज्ञा और महेश को डिस्टर्ब करतीं. ऐसा वे उस दिन जरूर करतीं जब उन्हें उन के कमरे से हंसीमजाक की आवाज सुनाई देती. प्रज्ञा अपनी मां को क्या कहती, लेकिन महेश का मूड औफ हो जाता. आंटी उन की शादीशुदा जिंदगी में सेंध लगाने लगी थीं. इस बीच आंटी की दोनों आंखों के मोतियांबिंद के औपरेशन भी हुए. उस समय भी दोनों पतिपत्नी ने पूरा खयाल रखा. फिर भी आंटी का असंतोष बढ़ता ही गया.

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उधर, कुसुम के बीमार ससुर जब चल बसे तब जा कर उस के मायके  के फेरे बढ़ने लगे. ऐसे में आंटी कुसुम से, प्रज्ञा की खूब बुराई करतीं और अपना रोना रोतीं, ‘वे दोनों अपने कमरे में मग्न रहते हैं. मेरा कोई ध्यान नहीं रखता. मेरी दोनों आंखें फूट गई हैं.’ कुसुम समझाबुझा कर चली जाती. इधर महेश का मन ऊबने लगा था. एक तो उस की आमदनी व काम में कोई इजाफा नहीं हो रहा था, ऊपर से सास के नखरे. प्रज्ञा और उस के बीच झगड़े बढ़ने लगे थे. प्रज्ञा न तो मां को छोड़ सकती थी, न ही पति को. दोनों की बातें सुन वह चुप रहती.

प्रज्ञा का प्रमोशन और ट्रांसफर जब दिल्ली हो गया तो उस ने चैन की सांस ली और अपनी मां से भी दिल्ली चलने को कहा तो उन्होंने साफ मना कर दिया. वे अपनी सत्संग मंडली छोड़ कर कहीं जाना नहीं चाहती थीं. प्रज्ञा के खर्चे दिनोंदिन बढ़ ही रहे थे. महेश की कोई निश्चित आमदनी नहीं थी. प्रज्ञा ने कुसुम को बुलाया कि वह मां को समझाबुझा कर साथ में दिल्ली चलने को तैयार करे. मगर वे अपना घर छोड़ने को तैयार ही न हुईं. अंत में यह फैसला हुआ कि प्रज्ञा अपने परिवार के साथ दिल्ली चली जाए और कुसुम अपने पति के साथ मायके रहने आ जाएगी. अपनी ससुराल के एक हिस्से को कुसुम ने किराए पर चढ़ा दिया और अपनी मां के संग रहने को चली आई. आखिर वे दोनों अपनी मां को अकेले कैसे छोड़ देतीं, वह भी 70 साल की उम्र में.

कुसुम मायके में रहने आ गई. किंतु अभी तक तो वह मां से प्रज्ञा की ढेरों बुराइयों को सुन दीदी, जीजाजी को गलत समझती थी. अब जब ऊंट पहाड़ के नीचे आया तो उसे पता चला कि उस की मां दूसरों को कितना परेशान करती हैं. उस की 2 छोटी बेटियां भी थीं और घर में केवल 2 ही कमरे, इसीलिए वह अपनी बेटियों को मां के साथ सुलाने लगी.

मां को यह मंजूर नहीं था, कहने लगीं, ‘प्रज्ञा के बच्चे उस के साथ ही उस के कमरे में सोते थे, मैं किसी को अपने साथ नहीं सुला सकती.’ कुसुम ने 2 फोल्ंिडग चारपाई बिछा कर अपनी बेटियों के सोने का इंतजाम कर दिया और बोली, ‘पति को, बच्चों को अपने संग सुलाना पसंद नहीं है. और अगर कोई तुम्हारा सामान छुएगा तो मैं घर में ही हूं, जितनी बार कहोगी मैं उतनी बार धो कर साफ कर दूंगी.’ उस की मां इस पर क्या जवाब देतीं.

आंटी प्रज्ञा को तो अनुकंपा नौकरी के कारण खरीखोटी सुना देती थीं, मगर कुसुम से जब पैसों को ले कर बहस होती तो उस के सामने पासबुक और चैकबुक ले कर खड़ी हो जातीं और पूछतीं, ‘कितना खर्चा हो गया तेरा, बोल, अभी चैक काट कर देती हूं.’ कुसुम उन का नाटक देख वहां से हट जाती.

प्रज्ञा तो अपनी जौब की वजह से शाम को ही घर आती थी और घर में बच्चे महेश के संग रहते थे. शाम को थकीहारी लौटने के बाद किसी किस्म की बहस या तनाव से बचना चाहती. सो, वह अपनी मां की हर बात को सुन कर, उन्हें शांत रखने की कोशिश करती. मगर कुसुम घरेलू महिला होने के कारण दिनभर मां की गतिविधियों पर नजर रखती. वह आंटी की गलत बातों का तुरंत विरोध करती. आंटी ने प्रज्ञा को परेशान करने के लिए जो नाटक शुरू किए थे, अब वे उन की आदत और सनक में बदल चुके थे.

नैचुरल फार्मिंग से घर बैठे कमा रहे मुनाफा

आजकल खेती किसानी में कीटनाशकों का उपयोग बढ़ने से भले ही फसल उत्पादन बढ़ रहा है, लेकिन मिट्टी की उर्वराशक्ति घट रही है. किसानों द्वारा धान, गेहूं और मूंग की फसलों के साथ फल और सब्जियों में सब से ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है. रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग से पैदा होने वाले खाद्यान्न और फलसब्जियों के खाने से लोग तरहतरह की बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं.

इसी वजह से कीटनाशकों के इस्तेमाल से बचने के लिए जैविक खेती या नैचुरल फार्मिंग की ओर किसानों का रुझान बढ़ा है. मध्य प्रदेश की तहसील बनखेड़ी, जिला होशंगाबाद के गरधा गांव के किसान मान सिंह गुर्जर ने नैचुरल फार्मिंग कर के पूरे इलाके में मिसाल कायम की है. ‘फार्म एन फूड’ से बातचीत में मान सिंह बताते हैं, ‘‘मैं 10 वर्षों से नैचुरल फार्मिंग कर रहा हूं, जिस में देशी गाय के गोबर, गोमूत्र, दूध, छाछ से सभी तरह की खाद्य सामग्री का उत्पादन कर रहा हूं.’’ जिले के उपसंचालक, कृषि, जितेंद्र सिंह के मार्गदर्शन से मान सिंह गुर्जर अपनी 16 एकड़ जमीन पर नैचुरल फार्मिंग से सभी तरह की फसलों का भरपूर उत्पादन ले रहे हैं.

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नैचुरल फार्मिंग का फायदा यह है कि खेती में खाद और कीटनाशकों की लागत कम हो गई है. गेहूं, चावल, चना, तुअर, गन्ना जैसी सभी तरह की खाद्य सामग्री उन के पास मौजूद है. नैचुरल तरीके से उत्पादन लेने की वजह से उन के उत्पादों की मांग ज्यादा रहती है और बाजार मूल्य से भाव भी अधिक मिलता है. मान सिंह गुर्जर बताते हैं कि सभी अनाजों की घर से ही बिक्री हो जाती है. हमारे लिए कभी बाजार जाने की जरूरत नहीं पड़ती. उन के नैचुरल फार्महाउस पर बंशी गेहूं, खपलि गेहूं, शरबती गेहूं, कठिया, चंदौसी, सफेद गेहूं, चना देशी, मसूर, सरसों, राई, मटर, मूंग, उड़द, तुअर, धान, कोदो, कुटकी जैसे अनाजों का उत्पादन होता है.

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इसी तरह सभी तरह की सब्जीभाजी के अलावा 7 फुट लंबी लौकी उन के खेतों में उगाई जाती है. नैचुरल फार्मिंग के लिए मिला है सम्मान नैचुरल फार्मिंग के लिए मान सिंह गुर्जर को स्थानीय विधायक, सांसद के अलावा कृषि मंत्री के साथसाथ मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा सम्मानित किया जा चुका है. कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर, उत्तराखंड द्वारा साल 2017 में मान सिंह गुर्जर को मौडल बनाने के लिए बुलाया गया, जिस में उन के द्वारा सुभाष पालेकर नैचुरल फार्मिंग का मौडल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तैयार किया गया, जिस की रिपोर्ट कृषि मंत्रालय को भेजी गई. नीति आयोग, दिल्ली के उपाध्यक्ष राजीव कुमार के आदेशानुसार उन्हें नैचुरल फार्मिंग के मौडल तैयार करने के लिए हापुड़, उत्तर प्रदेश भेजा गया था. उन के द्वारा बनाए गए नैचुरल फार्म पर उपसंचालक, कृषि, जितेंद्र सिंह व वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक टीम द्वारा अनेक बार दौरा किया गया व मार्गदर्शन दिया गया.

भारत सरकार, निदेशक, कृषि सहकारिता व कल्याण विभाग, दलहन विकास निदेशालय डा. एके तिवारी और पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों के किसानों द्वारा नैचुरल फार्मिंग को देख कर सराहना की गई. वे अब तक हजारों किसानों को इस तरह की खेती का प्रशिक्षण दे चुके हैं. नैचुरल फार्मिंग में किए गए नवाचार नैचुरल फार्मिंग के लिए मान सिंह गुर्जर द्वारा तैयार किए गए नवाचारों की वजह से आसपास के इलाकों में उन्हें अलग पहचान मिली है. नैचुरल खेती की जानकारी देते हुए वे बताते हैं कि उन के द्वारा बनाए गए बीजामृत द्वारा सभी तरह के बीजों का उपचार किया जाता है. जीवामृत और धनजीवामृत द्वारा सभी खाद व पोषक तत्त्वों की पूर्ति की जाती है. इस के लिए उन्होंने 4 देशी नस्ल की गाय पाली हैं. देशी गाय के दूध और हलदी के स्प्रे, छाछ, दही का स्प्रे फसलों पर किया जाता है.

गेहूं, धान की पराली और दूसरी फसलों के अवशेषों को जलाने के बजाय वे मल्चिंग कर के खाद बनाते हैं. इस से मिट्टी के पोषक तत्त्व नष्ट नहीं होते. नीम की पत्तियों की मदद से वे फसलों के लिए नीमस्त, ब्रह्मस्त, अग्निस्त जैसे कीटनाशक खुद बनाते हैं. इसी तरह दशपर्णी अर्क और सभी खाद और कीटनाशक घर पर तैयार करने से खेती की लागत बहुत कम हो जाती है. क्या है सुभाष पालेकर नैचुरल फार्मिंग मौडल प्राकृतिक खेती पद्धति के जनक सुभाष पालेकर महाराष्ट्र में पिछले 2 दशकों से कृषि में बिना किसी रासायनिक खादों और कीटनाशक के खेती कर रहे हैं. इन्होंने खेती की प्राकृतिक पद्धति को ईजाद किया है, जिस में देशी नस्ल की गाय के गोबर और गोमूत्र के प्रयोग खेती में प्रयोग होने वाले जीवामृत, घनजीवामृत, बीजामृत और कीटपतंगों और बीमारियों से फसलों को बचाए रखने के लिए दवाओं को तैयार किया जाता है.

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सुभाष पालेकर की प्राकृतिक खेती पद्धति में बाजार से कुछ भी सामान को लाने की जरूरत नहीं होती है, जिस से कृषि में लागत शून्य के बराबर होती है. खेती में की गई इस खोज को देखते हुए भारत सरकार ने साल 2016 में सुभाष पालेकर को ‘पदमश्री’ अवार्ड से नवाजा था. इतना ही नहीं, सुभाष पालेकर की खेती पद्धति की यूनाइटेड नेशन में भी सराहना हो चुकी है. जैविक खेती से अलग है प्राकृतिक खेती प्राकृतिक खेती को कई लोग जैविक खेती के साथ जोड़ कर देखते हैं, लेकिन प्राकृतिक खेती कई हिसाब से जैविक खेती से अलग है. जैविक खेती में गाय के गोबर का प्रयोग खाद के रूप में किया जाता है. इस में भारी मात्रा में गाय के गोबर का प्रयोग किया जाता है, जबकि प्राकृतिक खेती में देशी गाय के गोबर का प्रयोग जैविक खाद के मुकाबले में नाममात्र का किया जाता है. जैविक खेती पद्धति में देखा गया है कि जो किसान इसे शुरू करते हैं, तो शुरुआत के कुछ वर्षों में उत्पादन में कमी देखी जाती है,

जबकि प्राकृतिक खेती में पहले ही वर्ष में उत्पादन में बढ़ोतरी देखी गई है और साल दर साल मिट्टी की उर्वरा क्षमता बढ़ने के साथ भरपूर उत्पादन मिलता है. जैविक खेती भी रासायनिक खेती की तरह बहुत खर्चीला काम है, जबकि प्राकृतिक खेती में देशी गाय के गोबर और गोमूत्र व कुछ घरेलू सामग्री के प्रयोग से ही खेती की जाती है. ऐसे में कृषि की लागत शून्य के बराबर रहती है. नैचुरल फार्मिंग से जुड़ी जानकारी के लिए मान सिंह गुर्जर के मोबाइल नंबरों 9752324676 और 8319529469 पर बात की जा सकती है.

Hyundai Creta के साथ सफर

The Nuptial Testऐसा थका देने वाला और लंबा टेस्ट जिसमें इस गाड़ी को भारतीय शादियों में अहम रोल अदा करना होगा.

इसके अलावा और गाड़ी का कहां ऐसा रफ-टफ इस्तेमाल हो सकता था भला,है. हम ये जानने के लिए बैचेन हैं कि @HyundaiIndia #Creta इससे कैसे डील करती  क्या ये टॉर्चर कर देने वाले टेस्ट को झेल पाएगी?

#RechargeWithCreta

भारत में Hyundai Creta

हुंडई क्रेटा को भारत में SUV के लिए एक बेंचमार्क स्थापित में अभूतपूर्व सफलता मिली है. इसलिए हमने सोचा कि क्यों न @HyundaiIndia #Cretaको सबसे चुनौती पूर्ण ‘Nuptial Test’ यानी इंडिया की शादियों में परखा जाए.

जानना चाहते हैं क्या है ये टेस्ट? तो यहां पढ़िए #RechargeWithCreta

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