कोविड प्रोटोकाल कहता है कि कोविड से मरने वालो के शवों को विद्युत शवदाह में ही अंतिम संस्कार के लिये ले जाया जाय. देश में विद्युत शवदाहो की संख्या कम और हालत खराब है. ऐसे में शवों को ना केवल नदियों किनारे खुले में जलाया जा रहा बल्कि लकडी की कमी और मंहगाई के कारण शवों को नदियों में बहाया जाने लगा. ऐसे शवों को जिस तरह से प्रशासन जेसीबी मशीन से गढ्ढे खोद कर दफन कर रही वह शवो के साथ अमानवीय व्यवहार सा है. जरूरत इस बात की है कि धार्मिक अंधविश्वास को दरकिनार करके विद्युत शवदाह अधिक से अधिक बनाये जाय.
उत्तर प्रदेश और बिहार के बीच नदियों में तैरते शवों के लिये युद्व चल रहा है. दोनो ही प्रदेशों की पुलिस नदियों के किनारों की निगरानी कर रही है. नदी के अपने हिस्से में किसी और प्रदेश से शव प्रवाहित होकर ना आ जाये इसका ख्याल कर रही है. नदियों में प्रवाहित होने वाले इन शवों के लिये पौराणिक कहानियां जिम्मेदार है. पुराणजीवी लोगों ने नदियों में शव या उसके अवशेष को प्रवाहित करने का हमेशा प्रचार किया और उसके महत्व का महिमामंडन किया है.पौराणिक कहानियों में बताया गया कि तमाम लोगो ने जलसमाधि लेकर स्वर्ग जाने का मार्ग प्रशस्त किया था.
ये भी पढ़ें- कोविड संकट में शिक्षा
महाभारत युद्व के बाद जब गांधारी अपने पुत्रो का शोक मनाने युद्व भूमि में जाती है तो कृष्ण और पांडव उनके साथ जाते है. शोक में डूबी गंधारी अपने दुख और क्रोध को दबा नहीं पाई और उन्होने कष्को 36 साल की उम्र में मृत्यू को प्राप्त हो जाने का श्राप दे दिया. आखेट करने वाले के द्वारा चलाये गये लोहे के तीर के लगने से कृष्ण की मृत्यू हो जाती है. कृष्ण के शव को नदी में प्रवाहित करने का वक्त आ जाता है. अर्जुन इस काम को करते है. जबजब अर्जुन कृष्ण के शव को नदी में ढकेलते थे. शव वापस किनारे आ जा रहा था. अर्जुन से बताया जाता है कि शव को ढकेलने के लिये अपने अंगूठे का प्रयोग करे.
अर्जुन को यह पता था कि अंगूठे का प्रयोग करते ही उनके अंगूठे की ‘टंकोर शक्ति’ खत्म हो जायेगी. ‘टंकोर शक्ति‘ के कारण ही अर्जुन के बाण निशाने पर लगते थे और बाण वापस भी तरकश में आ जाते थे. जिससे युद्व में कोई अर्जुन को हरा नहीं पाता था. कृष्ण के शव को प्रवाहित करने के लिये अपने अंगूठे का प्रयोग किया तब शव नदी में प्रवाहित हो गया. शव को नदी में प्रवाहित करने के बाद अर्जुन गोपिकाओं सहित वापस लौट रहे थे तो भील जाति के लोगों ने जंगल में उन पर हमला कर दिया. अर्जुन के अंगूठे की टंकोर शक्ति खत्म होने से वह भीलों से लड नहीं सके. इस संदर्भ को लेते हुये ही कहा गया है ‘पुरूष बली नहीं होत है, समय होत बलवान, भीलन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बाण’.
ये भी पढ़ें- घरेलू महिला कामगारों पर कोरोना की डबल मार
पुरानी पंरपरा है शवो का नदियों में प्रवाहित करना :
पुराणजीवी लोगों ने नदियों के महत्व और उसके पर्यावरण को कभी समझने की कोशिश नहीं की. वह नदियों की पूजा करने के बहाने नदियों को अपनी गंदगी से भरते रहे. मंदिरों का पानी गंदा नदियों में बहाने, नदियों में नहाने, नदी किनारे कपडे धोने, शौच करने के साथ ही साथ नदियों के किनारे ही शव का अंतिम संस्कार करने की प्रथा को मजबूत किया. नदियो के किनारे शव जलाने और प्रवाहित करने ही नहीं उनको दफनाने की प्रथा पुरानी है. जले हुये शवो की राख को भी नदियो में डाला जाता है. शवो के अधजले अवशेष भी नदी में बहाये जाते है. पुराणो के हिसाब से यह काम धर्म के अनुकूल बतायो जाते है. शव नदी में डूब जाये इसके लिये शव के दोनो तरफ रस्सी से मिट्टी गगरी को बांध दिया जाता था. उसमें नदी किनारे की बाअधजलेलू भर दी जाती थी.
सांप के काटने और कुवारों कह
मौत की दशा में शवों को जलाया नहीं जाता. ऐसे में उनको नदी में प्रवाहित करने का पुराना चलन है. जैसे जैसे लकडी की कमी होती गई और लकडी मंहगी होती गई वैसे वैसे गरीब वर्ग ने नदियों में शव को बहाने का काम तेज कर दिया था. कई बार घाट पर लकडी का काम करने वाले लोग ही चिता को बुझा कर चिता से लकडी निकाल कर बुझा कर दोबारा बेचने के काम में लाते थे और अधजले शवों को नदी में ढकेल देते थे. आमतौर पर मछलिया इनका सेवन कर जाती थी. या फिर शव सडगल जाते थे. कोरोना काल में हायतौबा इस कारण मची है क्योकि शव अधिक संख्या में नदियों में बहा दिये गये.
ये भी पढ़ें- कोरोना मृतकों के परिजनों को मुआवजा क्यों नहीं
पुराणजीवियों ने विद्युत शवदाह का हमेशा तिस्कार किया शवो के नदी किनारे जलाने से नदियो का पानी प्रदूषित होता है. इस बात को लेकर जब पर्यावरणविद आवाज उठाने लगे तो पुराणजीवी लोगों ने इसका विरोध किया. विद्युत शवदाह स्थलों को तिस्कार की नजरों से देखा जाता था. उसके पीछे वह लोग भी थे जो लकडी बेचने और अंतिम संस्कार के समय पूजापाठ कराने का काम करते थे. इन लोगों को यह लगता था कि विद्युत शवदाह स्थल के चलन में आने से उनकी दुकानदारी बंद हो जायेगी. लखनऊ में केवल एक विद्युत शवदाह स्थल ही बना था. यहां भी केवल लावारिस शव ही जलाये जाते थे. इसके विरोधी लोग इसको खराब भी किये रहते थे. जिसके कारण यह लगभग बंद ही रहता था.
कोरोना संकट के समय प्रोटोकाल के हिसाब से कोविड पौजिटिव शवों को विद्युत शवदाह में ही अंतिम संस्कार के लिये ले जाना था. तब लखनऊ नगर निगम के द्वारा इसको ठीक कराया गया. इसके बाद भी जब शवों की संख्या बढने लगी तो यहां एक नई चिमनी लगी और गुलाला घाट में नया विद्युत शवदाह बनाया गया. इसके बाद भी कोविड से मरने वालों की संख्या बढने लगी तो गोमती नदी के किनारे ही एक साथ सैकडों चिताएं जलाई जाने लगी.
चिताओं की राख, अधजल लकडी और शवो के अवशेष जेसीबी मशीन से नदी में ढकेली जाने लगी. राजधानी होने के कारण यहां अतिम संस्कार के लिये प्रशासन सक्रिय था. छोटे शहरो और गांवों में जब मरने वालों की संख्या बढी तो लकडी और जगह कम पडने लगी. शवों के अंतिम संस्कार में समय लगने लगा. ऐसे में गांव के लोगों ने शवों को नदियों में ही प्रवाहित करना शुरू कर दिया. यही शव जब नदी के उतराते हुये बिहार पहंुचे तो हंगामा मच गया. हंगामें ही वजह यह थी कि इससे यह आकलन होने लगा कि प्रदेश में कोरोना से मरने वालों की संख्या बढी है. ऐसे में हर प्रदेश अपनी सीमा रेखा से बाहर शवों को ढकेलने का काम करने लगा. बिहार में मिलने वाले शव उत्तर प्रदेश सरकार की बदनामी वजह बनने लगे.
अगर शहर, गांव और कस्बों में विद्युत शवदाह स्थल बने होते और वहां पर दाह संस्कार होता तो न नदियां प्रदूषित होती और ना ही लोग शवों को नदियों में बहाने या नदी किनारे दफनाने का काम करते. इससे नदियां खराब होती है. कोविड का संक्रमण फैलने का खतरा बनने लगा है.
पुराणजीवी अगर अंतिम संस्कार से धर्म की मान्यताओं को खत्म कर देते तो आज नदियों में इस तरह से शव तैरते नहीं दिखते. नदियों में शवो को प्रवाहित करने की पंरपरा ना केवल शवों के साथ अमानवीय व्यवहार है बल्कि नदियो के द्वारा जनता तक संक्रमण फैलने का खतरा भी बढता है. धर्म की दुकानदारी चमकाने के लिये नदियों के किनारे अंतिम संस्कार को बढावा दिया जाता है. अब समय आ गया है कि विद्युत शवदाह स्थलों का निर्माण गांव गांव हो. नदियो के किनारे से शवदाह स्थलों को खत्म किया जाय.