लेखक- Chitranjan Lal

अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रकाशित भारत के मध्य वर्ग  की संख्या में कमी आने से संबंधित रिपोर्ट के अनुसार “कोविड-19 महामारी के कारण आये संकट से एक साल के दौरान भारत में मध्य वर्ग के लोगों की संख्या करीब 9.9 करोड़ से घटकर करीब 6.6 करोड़ रह गई है.” इसी रिपोर्ट में प्रतिदिन 10 डॉलर से 20 डॉलर (यानी 700 रूपये से 1500 रूपये प्रतिदिन) के बीच कमानेवाले को मध्य वर्ग में शामिल किया गया है. रिपोर्ट में यह जानकारी भी है कि चीन में कोरोना संक्रमण के कारण पिछले एक वर्ष में मध्य वर्ग की संख्या सिर्फ एक करोड़ ही घटी है.

विभिन्न अध्ययनों और सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है कि इस  कोरोना महामारी की वजह से बड़ी संख्या में लोगों के रोजगार खत्म हुए हैं या उनकी मुश्किलें बढ़ी हैं.

यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि कोविड-19 के कारण एक तरफ जहाँ मध्य वर्ग के लोगों की संख्या घटी है, वहीं भारतीय परिवारों पर कर्ज का बोझ भी बढ़ा है. उल्लेखनीय  है कि कोरोना की पहली लहर बड़ी संख्या में मध्य वर्ग की आमदनी घटा चुकी है और बहुत कुछ उसके बैंकों के बचत खातों को खाली कर चुकी है. और कोरोना की यह दूसरी लहर जैसे मध्य वर्ग को मँहगे स्वास्थ्य संबंधी खर्च के वजह से उन्हें निम्न वर्ग में धकेलने के लिए जैसे तैयार है.

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यहाँ यह भी महत्वपूर्ण है कि पिछले एक वर्ष में मध्य वर्ग के सामने एक बड़ी चिंता उनकी बचत योजनाओं और बैंकों में स्थायी जमा (एफ.डी.) पर ब्याज दर घटने संबंधी भी रही है. केन्द्र सरकार ने 1 अप्रैल 2021 से कई बचत योजनाओं पर ब्याज दर घटा दी थी. लेकिन अचानक ही यू-टर्न सा लेते हुए अगली ही सुबह इसे वापस ले लिया गया. इसके बारे में मजाक यह भी चला कि अचानक ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सरकार को आसन्न चुनाव की याद आ गई.

वैसे यहाँ उस ब्याज-दरों के बदलावों को देखना उल्लेखनीय होगा. उसमें सरकार द्वारा कहा गया था कि बचत स्कीमों पर बैंक अब 04 के बजाय 3.5 प्रतिशत सालाना ब्याज देंगे. वरिष्ठ नागरिकों के लिए बचत योजनाओं पर देय ब्याज 7.4 प्रतिशत से घटाकर 6.5 प्रतिशत किया जाना था. नेशनल सेविंग सर्टिफिकेट पर देय ब्याज 6.8 प्रतिशत को घटाकर 5.9 प्रतिशत तथा पब्लिक प्रोविडेंट फंड स्कीम पर देय ब्याज 7.1 प्रतिशत से घटाकर 6.4 प्रतिशत हो जाना था. शुक्र है कि सरकार को शीघ्र ही समझ आई तो उसने इस योजना को अमल में लाने के पूर्व ही वापस ले लिया.

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सरकार यदि चाहती है कि मध्य वर्ग को राहत मिले, तो इसके लिए उक्त बचत योजनाओं के ब्याज दरों को बढ़ाना चाहिए. इससे मध्य वर्ग की क्रय शक्ति भी बढ़ेगी और मार्केट में मनी ट्रांजिक्शन बढ़ेगा. स्वाभाविक है, इससे बाजार में मुद्रा प्रवाह बढ़ेगा. अभी हाल यह है कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर सार्वजनिक व्यय, सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का करीब एक प्रतिशत है. अर्थशास्त्रियों के अनुसार इसे ढाई प्रतिशत किया जाना चाहिए, जिसपर सरकार विचार भी कर रही है. अगर ऐसा होता है तो मध्य वर्ग को अपने स्वास्थ्य संबंधी खर्चों में बचत करने में बड़ी राहत मिलेगी.

मध्य-वर्ग के अंतर्गत सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (एमएसएमई) से जुड़े लोग भी आते हैं, जिनकी बड़ी संख्या नगरों-महानगरों में कुकुरमुत्तों की तरह फैले हुए हैं. ये वे उद्योग हैं, जिनमें एक से दस तक कर्मचारी काम करते हैं. आमतौर पर देखा जाता है कि मालिक भी मजदूरों के साथ वहीं मिल-जुलकर काम करता है. देश में ऐसे उद्योगों की संख्या लगभग छः करोड़ बताया जाता है. केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के अनुसार- “एमएसएमई सेक्टर वर्तमान में भारत के कुल निर्यात का 48 प्रतिशत निर्यात करता है. एमएसएमई भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं.”

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और इस कोरोना-काल में उसपर भी भारी संकट है. मजदूर काम छोड़ भाग रहे हैं. मालिक दर-बदर हो रहे हैं. क्योंकि आयात-निर्यात सब ठप्प हो चुका है. और इस प्रकार समाज का एक मध्य-वर्ग बेरोजगार और निर्धन बनने की ओर बढ़ता चला जा रहा है.

इसके अलावा खुदरा-व्यापारी भी मध्य वर्ग में ही आते हैं. उत्पादक, वह चाहे किसान हो या कारखानेदार, खुद सामान नहीं बेचते. देशभर में फैले करोड़ों उपभोक्ताओं तक यही खुदरा व्यापारी आवश्यक सामानों को पहुँचाते या वितरित करते हैं. लेकिन अब उसकी जगह ई-कॉमर्स वाली कंपनियाँ लेने लगी हैं. ज्यादातर ई-क़ॉमर्स बिक्री एमेजॉन और फ्लिपकॉर्ट से होती है. और इससे इन तथाकथित बिचौलियों की भूमिका निभा रहे खुदरा विक्रेताओं पर संकट आ गया है. कोरोना-काल में जब लॉक-डाउन लगा, तो लोगों ने ऑनलाइन खूब शॉपिंग की, जो अब उपभोक्ताओं के आदत में शुमार  होने लगा है.

ई-कॉमर्स कंपनियों की उपभोक्ताओं के लिए यह सुविधा उन लाखों दुकानदारों को बेकार, या दूसरे शब्दों में कहें तो बेरोजगार बना रही हैं, जो मूलतः मध्य-वर्ग के ही हैं और देश की सामाजिक अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी समान हैं. मगर अब ये शीघ्रतापुर्वक शून्य की ओर अग्रसरित हो रहे हैं, क्योंकि ये समझ नहीं पा रहे कि चुनौतियों का सामना करें, तो किस तरह करें? सरकार को इस दिशा में भी विचार करना चाहिए.

कोरोना के इस दूसरी लहर में बिहार सरकार ने एक अच्छी पहल यह की कि दुकानों को ‘अल्टरनेट डे’ अर्थात् एक दिन बीच दुकान खोलने का आदेश दिया है. इससे उम्मीद की जाती है कि व्यापारियों के इस मध्य-वर्ग को राहत मिलेगी.

कोरोना-काल के इस महासंकट के बीच इस संक्रमण से बचने के लिए यह आवश्यक है कि सभी इस मंत्र को ‘कड़ाई भी, सफाई भी, दवाई भी’ को अपनाएँ. वहीं सरकार यह भी देखे कि एक तरफ बचत योजनाओं के ब्याज-दरों में कटौती न की जाए, छोटे उद्यमियों को अपने उद्योग न बंद करना पड़े और खुदरा व्यापारी भी अपना काम सुचारू रूप से संपन्न कर सकें. इससे लोगों को बेरोजगारी का सामना नहीं  करना पड़ेगा. सामाजिक संरचना भी छिन्न-भिन्न नहीं होगी.

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