प्रधानमंत्री के अश्वमेघ यज्ञ का घोडा ममता बनर्जी ने पकड लिया. ममता ने बता दिया कि बाकी राज्यों ने भले ही दासता स्वीकार कर ली पर बंगाल केन्द्र की गलत नीतियो के खिलाफ खडा रहेगा. 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष को जिस चेहरे की जरूरत थी ममता बनर्जी के रूप में मिल गया है. ममता ने भी एलान कर दिया है कि ‘एक पैर से बंगाल जीता है दो पैर से दिल्ली जीतेगी‘.

जिस राजा को चक्रवर्ती सम्राट बनना होता है. पुराणों के अनुसार उसको ‘राजसूय यज्ञ‘ सम्पन्न कराकर एक अश्व यानि घोडा छोडना पडता है. वह घोडा अलग अलग राज्यों और प्रदेशों में घूमता फिरता है. जो भी राज्य अश्व को अपने राज्य से जाने देता था उसका मतलब होता था कि उसने ‘अश्व’ के मालिक राजा की दासता को स्वीकार कर ली है. जो राज्य ‘अश्व’ को पकड लेता था उसको ‘अश्व’ के पीछे चलने वाली राजा की सेना से मुकाबला करना होता था. इसको ‘अश्वमेघ यज्ञ’ भी कहा जाता था. पुराणों में बताया गया है कि चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिये राजा को ‘राजसूय यज्ञ’ कराना पडता था. इसके बाद यज्ञ को अश्व छोडा जाता था. जब यज्ञ का अश्व वापस अपने राज्य की सीमा में आ जाता था तब यज्ञ को पूरा माना जाता था और राजा को चक्रवर्ती सम्राट माना जाता था. महाभारत काल में युद्विष्ठिर और रामायण काल में राजा रामचन्द्र ने ‘राजसूय यज्ञ’ किया था. इस कारण इनको चक्रवर्ती सम्राट कहा जाता है.

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लोकतंत्र में राजा भले ही नहीं रहे हो पर राजाओ के जैसी चाहत रखने वाले नेता तो है ही. राज्य के विस्तार की आकांक्षा इन नेताओं में भी होती है. खासतौर पर जो नेता पुराणों को आदर्श मानकर चलता हो. भारतीय जनता पार्टी में जब जनसंघ हुआ करती थी तब से उसके मन में भारत में ‘हिन्दूराष्ट्र’ स्थापित करने की कल्पना थी. भाजपा की नींव कही जाने वाले राष्ट्रीय स्वय सेवक संघ यानि आरएसएस ने अपने तीन प्रमुख लक्ष्य को सामने रखकर काम करना शुरू किया था. यह तीन लक्ष्य अयोध्या में राम मंदिर, कश्मीर से धारा 370 को हटाना और समान नागरिक संहिता कानून को बनाना था.

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद जब केन्द्र में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने तब यह लगा  की अब संघ के तीनो लक्ष्यों को पूरा करने का समय आ गया है. इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिये मोदी की सरकार ने इसके रास्ते में बाधा खडी करने वाली संस्थाओं को भी कमजोर करना शुरू किया. संघ को यह लगने लगा था कि मोदी ही ऐसे नेता है जिनके कार्यकाल में हिन्दूराष्ट्र का सपना पूरा हो सकता है. ऐसे में चक्रवर्ती सम्राट के रूप में मोदी की ताजपोशी जरूरी थी. उसके लिये भारत विजय यानि राजसूय यज्ञ का पूरा होना जरूरी था.

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चक्रवर्ती सम्राट बनने की ललक:
2014 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद की छवि को अंतर्राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने का काम शुरू किया. देश के अंदर भी अपनी छवि को अलग तरह से बनाने का काम किया. नरेन्द्र मोदी का अपनी इमेज मेंकिग पर पूरा ध्यान भी था. वह एक ऐसे नेता के रूप में दिखाई देना चाहते थे जो किसी से हारे नहीं. हर काम कर ले. 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उनकी यह इच्छा कुछ ज्यादा ही बलवती होने लगी. इस को पूरा करने के लिये भाजपा ने अपनी सरकार के कामों की प्राथमिकता में काम की जगह चुनाव जीतने को प्रमुखता दी. हर काम की सफलता को चुनावी जीत से जोडना शुरू किया. जैसे नोटबंदी ककी जब आलोचना शुरू हुई तो उसके बाद उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव जीत कर भाजपा नेताओ ने तर्क दिया कि अगर जनता नोटबंदी से नाराज होती तो वोट कैसे देती ? जब कोरोना काल में 3 माह का लौकडाउन की आलोचना हुई तो बिहार चुनाव जीत कर वही तर्क दोहराया गया. चुनाव जीतने की चाह में वह विकास के कामों को प्राथमिकता देने में चूकने लगी.

इसी दौर में कोरोना का हमला हुआ. यहां भी भाजपा ने कोरोना पर नियंत्रण की जगह पर अपनी इमेज मेकिंग का काम जारी रखा. 2020 में जब कोरोना ने दबे पांव भारत में घुसना शुरू किया तो नरेन्द्र मोदी अमेरिका के प्रधानमंत्री डोनाल्ड टंªप के साथ नमस्ते टंªप का आयोजन कर रहे थे. कोरोना नियंत्रण से पहले उस समय भी मध्य प्रदेश में उलटफेर को प्राथमिकता दी गई. कोरोना संकट के दौरान ही बिहार प्रदेश के भी चुनाव हुये. एक तरफ केन्द्र सरकार 3 माह लंबे लौकडाउन को लगाकर कोरोना को रोकने की बात करती रही दूसरी तरफ चुनाव दर चुनाव अपनी राह पर चलती रही.

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2021 में  जब कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर शुरू हुई उस समय भी केन्द्र सरकार ने जनता की मुश्किलो को कम करने की जगह पर अपनी विजय यात्रा को जारी रखने के लिये चुनाव को रोकना उचित नही समझा. जिस समय सरकार की पूरी मशीनरी को कोरोना से लडने पर लगना चाहिये था उस समय सरकार चुनाव लडने में व्यस्त रही. लिहाजा देश की हालत खराब हो गई. जब पूरा देश त्राही़़त्राही कर रहा था तब प्रधानमंत्री अपने ‘राजसूय यज्ञ’ को पूरा करने में लगे थे. युद्व में जीत हार किसी कह हो पर लाशे जनता की ही गिरती है. कोरोना  महामारी में लोग मरते रहे और राजा का विजय अभियान जारी था. भाजपा का यह राजसूय यज्ञ तो पूरा नहीं हुआ लेकिन जनता के मरने के शमशान भर गये.

जिस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जनता का हित देखना था वह अपनी जीत के सपने देखते रहे. प्रधानमंत्री का सपना तो पूरा नहीं हुआ उल्टे उनकी जो छवि बनी थी वह भी धूमिल हो गई. उनको जनता के सेवक की जगह एक महत्वाकांक्षी नेता के रूप में देखा जाने लगा जिसे जनता से अधिक अपनी छवि की चिता थी. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी आलोचना शुरू हुई. बंगाल चुनाव में मिली हार से चुनावी विजय यात्रा रूक ही गई. उनके अश्वमेघ यज्ञ के घोडे को एक कमजोर महिला ने पकड लिया. उसने चक्रवर्ती राजा के सामने घुटने टेकने से मना कर दिया. इसका प्रभाव 2024 के लोकसभा चुनाव पर पडेगा. विपक्ष को अपनी अगुवाई करने वाला नेता ममता बनर्जी के रूप में मिल गया है. भाजपा को विजय तो मिली ही नहीं देश को कोरोना के सक्रमण मे ढकेलने का अपयश भी मिल गया.

हिन्दू राष्ट्र का अश्व धीरेधीरे मोदी सरकार ने यह तीनो लक्ष्य हासिल कर लिये. अब सामने एक ही लक्ष्य था देश को हिन्दूराष्ट्र बनाने का. भाजपा ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को पूरी तरह से हाशिये पर ढकेल दिया था. एक एक कर देश के ज्यादातर प्रदेशों में भाजपा की सरकार बन चुकी थी. जिन प्रदेशों में भाजपा की सरकार नहीं बनी वहां के नेताओं को भाजपा ने अपने हिसाब से घुटने टेकने को मजबूर कर दिया. इसका सबसे बडा उदाहरण जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार का है. 2014 के लोकसभा चुनाव के नीतीश कुमार को तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में देखा जाता था. इसका प्रमुख कारण यह भी था कि नीतीश कुमार ने ही नरेन्द्र मोदी का खुलकर विरोध किया था. कुछ ही समय में भाजपा ने ऐसी हालत नीतीश कुमार के सामने खडी कर दी कि वह भाजपा के सामने घुटने टेक कर खडे हो गये.
बात केवल नीतीश कुमार तक ही सीमित नहीं रही उत्तर प्रदेश में मायावती, मुलायम सिंह यादव, पंजाब में अकाली दल, कश्मीर में फारूख अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, महाराष्ट्र में शिवसेना जैसे दल और उनके नेता या तो घुटने टेकने को मजबूर हो गये या भाजपा के विरोध की राजनीति को चुपचाप स्वीकार कर लिया. 2019 में लोकसभा चुनाव जीतने के साथ ही साथ भाजपा में इस बात का अहम बन गया कि अब भारत में उसको विरोध करने वाले नेता नहीं रह गये है. जिन राज्यो से विरोध के स्वर उठने की उम्मीद थी वहां के नेताओं को उनके प्रदेशों में ही उलझाकर रखने का काम किया गया. केन्द्र सरकार ने ऐसी नीतियां बनानी शुरू कर दी जिसमें प्रदेशों की ताकत खत्म हो जाये और वह केन्द्र की सरकार के सामने घुटने टेक दे. भाजपा की योजना थी कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले सभी राज्यों में ऐसा माहौल बन जाय. जिससे 2024 के लोकसभा चुनाव में विरोध करने वाले न रहे.

ममता ने पकडा अश्वमेघ यज्ञ का घोडा: 2021 में सबसे बडे राज्य पश्चिम बंगाल में विधानसभा का चुनाव था. भाजपा को लगा कि यह समय सबसे उचित है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चक्रवर्ती सम्राट बनाया जा सकता है. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिये भाजपा ने चुनाव रूपी ‘अश्वमेघ का घोडा’ छोड दिया. यह घोडा पश्चिम बंगाल की तरफ चल पडा. अब तक पश्चिम बंगाल ही ऐसा राज्य था जिसने केन्द्र सरकार के सामने घुटने नहीं टेके थे. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की पिछले 10 साल से सरकार चल रही थी. तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी वहां मुख्यमंत्री  थी. भाजपा ने अपने ‘अश्वमेघ का घोडा‘ जब छोडा तब उसके लिये पश्चिम बंगाल जीतना जरूरी था.

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को वहां अच्छी सफलता मिल चुकी थी. ऐसे में भाजपा को पक्का यकीन था कि वह पश्चिम बंगाल जीतने में सफल होगी और उसके अश्वमेघ यज्ञ का घोडा वापस दिल्ली आ जायेगा. भाजपा ने अपने अश्वमेघ यज्ञ के चुनावी घोडे को पश्चिम बंगाल विजय के लिये छोडा तो उसके पीछे अपनी पूरी सेना भी तैयार कर दी. इस चुनावी विजय यात्रा को सफल बनाने के लिये भाजपा ने अपने 3 लाख कार्यकर्ताओं को पश्चिम बंगाल में लगा दिया था. इसके साथ ही साथ चक्रवर्ती सम्राट बनने की राह पर चलने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले गृहमंत्री अमित शाह, भगवाधारी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हाथ में प्रचार की कमान थी. इसके साथ ही साथ केन्द्र की तमाम एजेंसी भी इसमें मदद करने को तैयार खडी थी.

चुनाव रूपी अश्वमेघ यज्ञ का घोडा जैसे ही पश्चिम बंगाल में पहंुचा वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने घोडा पकड लिया. ममता बनर्जी ने भाजपा के ‘अश्वमेघ के घोडे’ के सामने झुकने से इंकार कर उसकी लगाम थाम ली. घोडे की लगाम थामते ही पीछे चल रही सेना ने चुनावी युद्व का ऐलान कर दिया. पश्चिम बंगाल के चुनावी इतिहास में सबसे अधिक समय तक 8 चरणों में चुनाव चला. एक तरफ चतुरर्णी सेना थी तो दूसरी तरफ ममता बनर्जी अकेले थी. उनके पैर में चोट लगी थी. वह व्हीलचेयर पर थी. सूती धोती और पैर में हवाई चप्पल पहन कर पूरे चुनाव अभियान को चलाने में लगी रही.

भाजपा ने इस ‘अश्वमेघ यज्ञ’ को जीतने के लिये चक्रव्यूह की रचना की और ममता बनर्जी को उनके निर्वाचन क्षेत्र नंदीग्राम में घेरने का पूरा काम किया. ममता बनर्जी को पता था कि अगर उन्होने नंदीग्राम बचाने पर ध्यान दिया तो पश्चिम बंगाल की लडाई नहीं लड पायेगी. ममता बनर्जी ने अपने प्रचार को महत्व ना देकर पूरे चुनाव पर ध्यान दिया. ममता बनर्जी नंदीग्राम हार गई पर भाजपा के चुनावी विजय अभियान को रोक दिया. पश्चिम बंगाल में भाजपा के राजसूय यज्ञ के घोडे को पकड लिया गया.

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